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________________ ३६६ जैनहितैषी। [ भाग ५५ लगभग है; परंतु ३३३ गाथाओंके ४२० श्लोक पहली और पिछली गाथाके साथ जिन दोनोंका हो नहीं सकते। इसलिये उक्त गाथाका 'तेतीसुतर परस्पर सम्बंध है-असम्बह मालम होती है और पाठ अशुद्ध है। परंतु हमारी समझमें यह बात इसलिये हमारी रायमें प्रक्षिप्त जान पड़ती है। नहीं आई कि ३३३ गाथाओंके ४२० श्लोक क्यों ' पदं पायच्छित्तंबर नहीं हो सकते हैं। गाथा छंदमें मात्राओंका परि- मायरि भोवदेसमवगम्म । माण होता है, अक्षरोंका नहीं, और गाथाएँ भी जीदादिगाई सत्थाई बड़ी छोटी कई प्रकारकी होती हैं। इस ग्रन्थमें सम्ममवधारिऊणं च ॥३५६॥ भी वे कई प्रकारकी पाई जाती हैं और उनमें अणुकंपा कहणेण य कितनी ही गाथाएँ हमारे देखनेमें ऐसी भी आई विराम वयगहणसहतिसुखीए । हैं जिनमें ४२, ४२ अक्षर हैं। आम तौरपर सवा पादद्धत सव्वं णासह श्लोक (४० अक्षर) के करीबकी गाथा होती पावं ण संदेहो ॥३५७॥ है। ऐसी हालतमें ३३३ गाथाओंके सहजहीमें चाउव्वरणपराधविमुदि १२० श्लोक हो जाते हैं। इसलिये, हमारी रायमें णिमित्तं मए समुहिडं। ३६० नम्बरको गाथाका पाठ अशुद्ध नहीं है। णामेण छेदपिंडं साहुजगो उसके अनुसार ग्रन्थकी मूल गाथाएँ ३३३ ही हैं, प्रायरं कुण्ड ॥ ३५॥ बाकी २७ या २६ गाथाएँ 'क्षेपक' (प्रक्षिप्त) इसी तरह पर 'छेद-शास्त्र में भी तीन चार जान पड़ती हैं | गाथाओंके क्षेपक होनेका समर्थन गाथाएँ बढ़ी हुई हैं; क्योंकि उसके ६३ नम्बरके इससे भी होता है कि ग्रन्थकी'ख' प्रतिमें ११,८८, पद्यमें ग्रन्थकी गाथा-संख्या ६० दी है और इसी8८,१०२,१४६,१४७,१७०,२१४,२१५,२५६ से इस ग्रन्थका दूसरा नाम 'छेदनवति' भी है। और ३०७ नम्बरवाली ११ गाथाएँ नहीं हैं और टीका-टिप्पणियोंवाली प्रतियोंसे मूल ग्रन्थोंकी इनमेंसे कई 'गा प्रतिमें भी नहीं हैं। कई गाथाएँ नक़ल उतारते हुए, लेखकोंकी नासमझीसे अक्सर - ग्रन्थमें ऐसी भी हैं जो दो दो जगह पाई जाती हैं.. एक ग्रन्थके पद्य दूसरेमें शामिल हो जाया करते जैसे ३६ नम्बरकी गाथा १६० नम्बर पर भी पाई हैं। परंतु उन्हें मालूम करके मूल ग्रन्थको उसके जाती है परंतु वहाँ वह अधिक जान पड़ती है। असली रूपमें पलिकके सामने पेश करना यह 'ख' प्रतिमें कुछ गाथाएँ ऐसी भी मिलती हैं जो ग्रंथ-संपादकोंका खास कर्तव्य है। अस्तु । इस 'क' प्रतिसे अधिक हैं और इसलिये यह नहीं कहा सग्रह ग्रन्थका सपादन आर म जा सकता कि उसका ही मूल पाठ शुद्ध है। ग्रंथ में पन्नालालजी सोनी द्वारा हुआ है जो कि ग्रंथमालाकई गाथाएँ और ऐसी होनी चाहिएँ जो दोनों का काम करते हैं। . तीनों प्रतियोंमें ही बढ़ी हुई हैं और क्षेपक हैं। मुलाचार, सटीक (प्रथम भाग)प्राचीन प्रतियोंपरसे खोज करने अथवा सो उक्त ग्रन्थमालाका १६वाँ पुष्प । पृष्ठ संख्या, तौरपर ग्रन्थके साहित्यकी जाँचका परिश्रम करने ५१६ । मूल्य, अढ़ाई रुपये।। पर वे मालम हो सकती हैं। उदाहरणके तौरपर यह श्रीव केराचार्यका सुप्रसिद्ध प्राचीन हम यहाँ ३५७ नम्बरकी गाथा को रखते हैं जो ग्रंथ है, जिसमें मुनियोंके प्राचार-विषयका अत्यु त्तम कथन है। इसके साथमें वसुनन्दी आचार्यकी * यह गाथा (११) छेदनवति में नं०५ पर पाई संकीका है. जो विक्रमकी १२वीं शताब्दीके जाती है और संभवतः उसीकी मालूम होती है। +देखो ग्रंथके फुटनोट्स। करीब हो गये हैं, और इसलिये यह टीका भी प्रायः यह गाथा कुछ पाठ भेदके साथ 'छेद शास्त्र में भी पाठ सौ वर्षकी पुरानी है। ग्रन्थ विद्वानोंके पढ़ने, पाई जाती है। मनन करने और संग्रह करनेके योग्य है। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522894
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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