Book Title: Balak ke Jivvichar
Author(s): Prashamrativijay
Publisher: Pravachan Prakashan Puna
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालक के जीवविचार * लेखक मुनिश्रीप्रशमरतिविजयजी प्रवचन प्रकाशन ४८८, रविवार पेठ पूना- २ ग्रन्थनाम लेखक आवृत्ति मूल्य © पूना अहमदाबाद मुंबई अक्षरांकन : बालक के जीवविचार : मुनिश्रीप्रशमरतिविजयजी : प्रथमा रु. ३०,०० : PRAVACHAN PRAKASHAN, 2008 प्राप्तिस्थान : प्रवचन प्रकाशन, ४८८, रविवार पेठ, पूना-४११००२ फोन : ०२०-६६२०८३४३, मो. ९८९००५५३१० www.pravachanprakashan.org E-mail : pravachanprakashan@vsnl.net : सरस्वती पुस्तक भंडार, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद ३८०००१, फोन : २५३५६६९२ अशोकभाई घेलाभाई शाह, २०१, ओएसीस, अंकुर स्कूल सामे, पालडी, अहमदाबाद-७ फोन : ०७९-२६६३३०८५ मो. ९३२७००७५७९ : हिन्दी ग्रंथ कार्यालय, हीराबाग, सी. पी. टेंक, मुंबई - ४०००४, फोन : २३८२६७३९, २०६२२६०० सेवंतीलाल वी. जैन २०- महाजनगली, झवेरी बजार, मुंबई ४०००२ फोन : ०२२-२२४०४७१७ : विरति ग्राफिक्स, अहमदाबाद, फोन : ०७९-२२६८४०३२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof बाल राजाओं के लिए प्रकाशकीय पू. मुनिराजश्री प्रशमरतिविजयजी म. द्वारा लिखित बागडोना विया२ यह किताब गुजराती वर्ग में अत्यन्त आदरपात्र बनी है। आज इसका हिन्दी अनुवाद सुलभ हो रहा है। हमे असीम हर्ष है। हिन्दी अनुवाद का श्रमसाध्य कार्य साध्य कार्य पू. साध्वीजीश्री सूर्योदयाश्रीजी के शिष्या पू. साध्वीजी श्री कैलासश्रीजी के शिष्या पू. साध्वी श्री विपुलदर्शिताश्रीजी ने किया है । आपके ज्ञानरसकी अनुमोदना । छोटे बच्चे राजा जैसे होते हैं । खुश हो जाए तो निहाल कर देते हैं । रूठ जाए तो बेहाल कर देते हैं । ऐसे बाल राजाओं को रोज सुबह स्कूल जाते हुए देखता हूँ और शाम को पाठशाला आते हए देखता हूँ । सोचता हूँ, इन दोनों में कितना फर्क है ? स्कूल में फी भरकर जाते हैं, और पाठशाला में फी नहीं भरते बल्कि जो प्रभावना मिलती है उसको लेकर आते हैं । स्कूल में बहुत विषयों की बहुत किताबे । पाठशाला में एक ही विषय का एक ही पुस्तक । स्कूल में हर वर्ष नई-नई किताबें पढ़नी पड़ती है। पाठशाला में वर्षों तक एक ही किताब । पाठशाला में नहीं आनेवाले बालराजा तो क्या मालूम क्या करते हैं? कुछ पता ही नहीं । ये बालराजा कल बड़े होंगे, पाश्चात्य शिक्षणशैली के संस्कार और संसारप्रधान दृष्टि ही होगी उनके पास । थोड़ी गाथाए के जोर पर कितने टिकेंगे बच्चे ? ये बालराजा अगर सोच ले तो आठ वर्ष की छोटी आयु में साधु बन सकते हैं। इन बालराजाओं को अगर अच्छे संस्कार मिल जाए तो बारव्रतधारी श्रावक बन सकते हैं । इन बालराजाओं को अगर जैन धर्म के सुन्दर संस्कार मिल जाए तो रोज चौदह नियमों का पालन कर सकते हैं। मा-बाप तो आत्मलक्षी नहीं रहे । घर के अन्दर धर्म की महिमा कम हो रही है । वातावरण बहुत ही विचित्र है। क्या होगा इन बालराजाओं का ? आज की नई पीढ़ी को क्रमसर पदार्थशिक्षण मिले उसके लिए बालक के जीवविचार यह पुस्तक लिखा गया है । हमारे बालराजाओं के लिए ये जीवविचार उपयोगी बनेंगे ऐसा विश्वास है। मा-बाप अपने सन्तान को पढ़ा सकें वैसी शैली से यह किताब लिखी गई है । तपागच्छाधिराज पू. आ. म. श्रीमद् विजयरामचन्द्र सूरीश्वरजी म. के तेजस्वी शिष्यरत्न प्रवचनकार बन्धुबेलडी पू. मुनिराजश्री वैराग्यरतिविजयजी म., प. मनिराजश्री प्रशमरतिविजयजी म. की साहित्ययात्रा का हिन्दी प्रवेश हमारे लिये गौरव की घटना है। - प्रवचन प्रकाशन प्रशमरतिविजय कंकुपगला महासुदि १० । वि० सं० २०६२ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof कैसे पढ़ायेंगे ? लाभार्थी अपने सन्तानो को धर्म का बोध देने की इच्छा रखनेवाले मा-बाप के लिये यह पाठ्यक्रमशैली का पुस्तक तैयार किया गया है । बालक अकेला इस विषय को नहीं समझ पायेगा । मा-बाप बालक को अपने साथ बिठाकर यह किताब पढ़ायेंगे । इतना अवश्य करें। स्कूल और ट्यूशन के टाइम फिक्स होते हैं उसी तरह इस विषय के क्लास का निश्चित समय रखें । सन्तान को पढ़ाने से पहले आप अपने आप इसका अभ्यास कर लें । बालक के लिये क्या कठिन हो सकता है, सोच लें । उसे सरल बनाकर समझाने का प्रयास करें। बालक के हर प्रश्न का ठीक उत्तर दें । कोई भी प्रश्न निरर्थक नहीं होता है। कई बातें ऐसी हैं जिसको कण्ठस्थ करना अनिवार्य है । उसका विशेष ध्यान रखें । मुख शुद्ध रखके ही अध्ययन-अध्यापन करें । सन्तान इस किताब को तीन बार पढ़ेगा । एक बार आपके साथ । दूसरी बार परीक्षा के लिये । तीसरी बार स्वाध्याय के लिये । अवश्य ध्यान दें। + आप महाराज साहब या शिक्षक के पास बैठकर जीवविचार का विषयवस्तु समझ लें । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof १. जीव विचार जीव यानी आत्मा । जीव यानी चेतन । जीवों का विचार यानी मेरा और आपका विचार | विचार करते हैं तो पहचान होती है। आप जीव हैं। आप जीवों का विचार करते हो तो आपको अपनी पहचान होती है। मैं जीव हूँ, मैं जीवों का विचार करूं तो मुझे मेरी पहचान होगी। आप जीवों का विचार करते हो तो आपको मेरी पहचान भी होती है क्योंकि मैं जीव हूँ। मैं जीवों का विचार करूँ तो मुझे आपकी भी पहचान होती है क्योंकि आप जीव हैं। + जीवों की पहचान होती है तो, जीवों का भूतकाल जान सकते हैं। + मेरी पहचान होती है तो, में मेरे भूतकाल को जान सकता हूँ। + आपकी पहचान होती है तो आपका भूतकाल जान सकते हैं। + भूतकाल जान लेते हैं तो वर्तमान समय में सावधानी आती है। + भूतकाल को जान लेते हैं तो भविष्य के लिए जागृत बनते हैं । + जीव हो उसका जनम होता है । जीव हो उसे जिन्दगी मिलती है। + जीव हो उसकी मृत्यु होती है। जीव हो उसे परलोक में जाना पड़ता है । जीवविचार ग्रन्थ जीवकी पूरेपूरी पहचान देता है। जीवविचार ग्रन्थ में जीवों की अलग-अलग पहचान बताई है । इस शास्त्र की रचना प्राकृत भाषा में हुई है। इस शास्त्र की रचना श्री शान्तिसूरिजी म.सा. ने की है। हम जैन है। जैन धर्म जीवदया को मानता हैं। जीवदया और अहिंसा दोनों एक ही है । जीवदया का पालन करना हो, अहिंसा का आचरण करना हो तो जीवविचार का अभ्यास करना ही चाहिए । मैं जैन हूँ, मुझे जीवदया का पालन करना है। मैं जैन हूँ, मुझे अहिंसा का आचरण करना है। मैं जीवविचार का अध्ययन करुंगा । २. चार गति जीव परलोक से आता है। जितने साल की जिन्दगी होती है उतने साल तक जीव शरीर के साथ, शरीर में रहता है। जिन्दगी समाप्त होती है उसके बाद जीव परलोक में चला जाता है। परलोक यानी हमारे जन्म से पहले की दुनिया। परलोक यानी हमारी जिन्दगी समाप्त हो जाने के बाद की दुनिया । हम परलोक से आए हैं और हम परलोक में जायेंगे। परलोक में हम कहाँ थे उसे हम नहीं जानते । परलोक में हम कहाँ जायेंगे उसका भी हमें पता नहीं है। हमको मालूम नहीं है इसलिए परलोक का डर, भय लगता है। जीवविचार का अध्ययन करेंगे तो परलोक की विशाल दुनिया की पहचान होगी। हमारे भगवान ने परलोक की विशाल दुनिया के चार विभाग बताए हैं। इन चार विभाग को चार गति कहते हैं। चार गति के नाम तो हमको मालूम ही है। १. मनुष्यगति, २. देवगति, ३. तिथंचगति, ४. नरकगति + हम पिछले जन्म में इन चार गति में से किसी एक गति में थे। पिछले जन्म को परलोक कहते हैं। + हम अगले जन्म में इन चार गति में से किसी एक गति में जायेंगे। अगले जन्म को परलोक कहते हैं। + हम इस जन्म में चारगति में से किसी एक गति में हैं हमारे इस जन्म को इहलोक कहते हैं। + इहलोक में हम मनुष्यगति में है। हम इहलोक में अच्छे बनेंगे तो परलोक में अच्छी गति मिलती है। अच्छी गति दो हैं । १. मनुष्यगति २. देवगति + हम इहलोक में खराब बनेंगे तो परलोक में खराब गति मिलती है । खराब गति दो हैं । १. तिर्यंचगति २. नरकगति मुझे अच्छी गति में जाना है। मुझे खराब गति में नहीं जाना । अच्छी गति में अच्छे कार्य करने की शक्ति मिलती है। खराब गति में अच्छे कार्य करने की शक्ति नहीं मिलती। + जीवविचार कहता है कि जो इहलोक में अच्छा रहता है वह परलोक में अच्छा बनता है। बालक के जीवविचार . १ २. बालक के जीवविचार Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof ३. दो शक्ति जीव की शक्ति तो बहुत है । इसकी कल्पना हो ही नहीं सकती। इसीलिए भगवान कहते हैं कि जीवकी शक्ति अनंत है । इन अनंत शक्ति में से दो शक्ति विशेष महत्त्व की है। (१) जीवन शक्ति (२) अनुभव शक्ति जन्म लेने के बाद हम बहुत वर्ष तक जीते हैं। हमारा श्वास चलता है। हमारा हृदय धडकता है। हमारे शरीर में लहू का परिभ्रमण होता है । यह हमारे जीवनकी शक्ति है । जो जीव नहीं है उसमें यह शक्ति नहीं है। + मकान की दीवारों में, स्कूल की बेंच में, घर के टेबल कुर्सी में जीने की शक्ति नहीं है। कागज, पेन, किताब में जीने की शक्ति नहीं है। कम्पास में, दफ्तर में, डिब्बे में जीने की शक्ति नहीं है । थाली, कटोरी, ग्लास, बर्तन विगेरे में जीने की शक्ति नहीं है। और भी कई वस्तुओं में जीने की शक्ति नहीं है। जिसमें जीने की शक्ति नहीं है उसे जड़ कहते हैं। + जीव बहुत काल तक जी सकता है । जड लम्बे समय तक टिकता है। जीव की मृत्यु होती है । जड़ का विनाश होता है । + यह तो जीने की शक्ति की बात हुई । अनुभव करने की शक्ति अलग (१) स्पर्श (२) रस (३) गन्ध (४) रुप (५) शब्द इन पाँचो का अनुभव जीव को होता है । जीव को अपने शरीर द्वारा इन पाँचो का अनुभव होता है। शरीर के अलग-अलग स्थान से इसका अनुभव होता है । इन पाँच स्थान को पाँच इन्द्रिय कहते हैं। (१) जिससे स्पर्श का अनुभव हो वह स्पर्शनेन्द्रिय । चमडी को स्पर्शनेन्द्रिय कहते हैं। (२) जिससे रस का अनुभव हो वह रसनेन्द्रिय। जीभ को रसनेन्द्रिय कहते हैं। (३) जिससे गन्ध का अनुभव हो वह घ्राणेन्द्रिय । नाक को घ्राणेन्द्रिय कहते हैं। (४) जिससे रुप का अनुभव हो वह चक्षुरिन्द्रिय । आँख को चक्षुरिन्द्रिय कहते हैं। (५) जिससे शब्द का अनुभव हो वह श्रोत्रेन्द्रिय । कान को श्रोत्रेन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रिय द्वारा अनुभव करने की शक्ति जीव में ही होती है । अगर जीव न हो तो शरीर इन्द्रिय से अनुभव नहीं कर सकता ।। + गरम चाय या गरम दूध या गरम कॉफी के पास स्पर्श करके अनुभव पाने की शक्ति नहीं होती, क्योंकि वह जीव नहीं है। + श्रीखण्ड, दूधपाक या मोहनथाल में स्वाद करके अनुभव करने की शक्ति नहीं होती, क्योंकि वह जीव नहीं है। + पावडर, साबुन, सुगन्धी तेल में सुवास लेकर अनुभव करने की शक्ति नहीं है, क्योंकि वह जीव नहीं है। स्टीकर्स, खिलौने, तस्वीर, कैमेरा में आँखों से देखकर अनुभव करने की शक्ति नहीं है क्योंकि वह जीव नहीं है। केसेट, माइक, म्युझिक सिस्टम में सुनकर अनुभव करने की शक्ति नहीं है, क्योंकि वह जीव नहीं है। हम जीव है। हमारी जिन्दगी चलेगी तब तक हमें जीना है। हमारे शरीर की इन्द्रिय द्वारा हम अनुभव करेंगे। ___हमारी जीने की शक्ति और अनुभव करने की शक्ति हमको अच्छी लगती है। दूसरों को भी अपनी जीने की और अनुभव करने की शक्ति अच्छी लगती हम जब पानी को छूते हैं तब वह पानी हमें गरम लगता है या ठण्डा लगता है यह छूने का, स्पर्श करने का अनुभव है। हम खाने के लिए बैठते हैं तो मिठाई अच्छी लगती है और करेले की सब्जी अच्छी नहीं लगती, यह भी अनुभव है, स्वाद का अनुभव । + हमको फूल की सुगन्ध अच्छी लगती है। गटर की वास अच्छी नहीं लगती, यह भी अनुभव है, सूंघने का अनुभव । हम सबको देख सकते हैं । यह भी अनुभव है, द्रष्टि का अनुभव । हमको संगीत पसन्द है, मशीन का आवाज नहीं सुहाता । यह सुनने का अनुभव है। यह पाँच अलग-अलग अनुभव है । इसलिए इनके पाँच अलग-अलग नाम है। बालक के जीवविचार , ३ ४ . बालक के जीवविचार Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. पाँच इन्द्रिय हर जीव में जीने की शक्ति समान होती है । परन्तु अनुभव करने की शक्ति हर प्राणियों की अलग-अलग होती है । जिन प्राणियों के पास अनुभव करने की पाँचो पाँच इन्द्रियाँ हो उनको पंचेन्द्रिय कहते हैं । हर प्राणी पंचेन्द्रिय नहीं होता.... कुछ प्राणी ऐसे होते हैं जिनके पास केवल स्पर्श अनुभव करने की ही शक्ति होती है। एक ही इन्द्रिय होने के कारण इन प्राणियों को एकेन्द्रिय कहते हैं । + + + boy.pm5 2nd proof + + कुछ प्राणी ऐसे होते हैं जिनके पास स्पर्श के अनुभव की शक्ति तो होती है और साथ में स्वाद अनुभव करने की शक्ति भी होती है । दो इन्द्रिय होने कारण इन प्राणियों को बेइन्द्रिय कहते हैं । कुछ प्राणी ऐसे होते हैं जिनके पास स्पर्श और स्वाद के अनुभव करने की शक्ति होती है और साथ में गन्ध अनुभव करने की शक्ति भी होती है । तीन इन्द्रिय होने के कारण इन प्राणियों को तेइन्द्रिय कहते हैं । कुछ जीव ऐसे होते हैं जिनके पास स्पर्श, स्वाद और गन्ध के अनुभव करने की शक्ति होती है और साथ में आँखों से देखकर अनुभव करने की शक्ति भी होती है । चार इन्द्रिय होने के कारण इन जीवों को चउरिन्द्रिय कहते हैं । कुछ जीव ऐसे होते हैं जिनके पास स्पर्श, स्वाद, गन्ध और रूप को अनुभव करने की शक्ति होती है और साथ में कान से सुनने की शक्ति भी होती है । पाँच इन्द्रिय होने के कारण इन प्राणियों को पंचेन्द्रिय कहते हैं । याद रखो :- एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर जीव कहते हैं । बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को त्रस जीव कहते हैं । स्थावर जीव :- एकेन्द्रिय जीव स्वयं हलन चलन नही कर सकते, खुद की मरजी से जाना आना उनके लिए शक्य नहीं है । जहाँ जन्म लेते बालक के जीवविचार • ५ + + बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय जीवों के पास एक से ज्यादा इन्द्रिय होती है परन्तु उनके पास पाँच इन्द्रिय नहीं होती, उनके पास पाँच से कम ही इन्द्रिय होती है इसलिए बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय जीवों को विकलेन्द्रिय कहते हैं । अब तक हमने पाँच प्रकार से जीवों का विचार किया । १. जीने के शक्ति जिसमें हो वह जीव २. १ त्रस जीव २. स्थावर जीव + + + हैं वहाँ से स्वयं खिसक नहीं सकते अतः उनको स्थावर कहते हैं। स्थावर शब्द का अर्थ होता है एक ही जगह स्थिर होना । + त्रस जीव :- बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव स्वयं हलन चलन कर सकते हैं। जिस जगह जन्म हुआ हो वहाँ से दूसरी जगह पर ये चारों जीव स्वयं जा सकते हैं। तकलीफ होती है तो दूर भाग सकते हैं । उनके पास दूर भागने की कुदरती शक्ति होती है इसलिए इन चारों जीवों को उस जीव कहते हैं। त्रस शब्द का अर्थ होता है, तकलीफ होने पर दूर चले जाना । एकेन्द्रिय के पास एक ही इन्द्रिय होती है । पंचेन्द्रिय के पास पाँच इन्द्रिय होती है । ३. १. एकेन्द्रिय २. विकलेन्द्रिय ३ पंचेन्द्रिय ४. १. मनुष्यगति २. देवगति ३ तिर्यंचगति ४. नरकगति ५. एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पहले विचार से हम जीव है । दूसरे विचार से हम त्रस जीव है । तीसरे विचार से हम पंचेन्द्रिय जीव है । चोथे विचार से हम मनुष्यगति के जीव है । पाँचवे विचार से हम पंचेन्द्रिय जीव है । ६• बालक के जीवविचार Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof ५. बारह भेद हम जीवों के दो भेद पर विचार करेंगे । १. स्थावर २. उस/स्थावर, जीवों के पाँच भेद हैं। १. पृथ्वीकाय २. अप्काय ३. तेउकाय ४. वायुकाय ५. वनस्पतिकाय + जो एकेन्द्रिय जीव पृथ्वी के शरीर में रहकर जीते हैं, वे पृथ्वीकाय के जीव है। + जो एकेन्द्रिय जीव पानी के शरीर में रहकर जीते है, वे अपकाय के जीव + + जो एकेन्द्रिय जीव आग के शरीर में रहकर जीते है वे तेउकाय के जीव है। जो एकेन्द्रिय जीव पवन के शरीर में रहकर जीते है वे वायुकाय के जीव है। ६. आयुष्य जीवों का जन्म होता है, जीवों की मृत्यु होती है। बारह भेद में सभी जीवों का जन्म होता है और मृत्यु होती है। बारह जीव अलग जरुर है परन्तु जन्म और मरण की प्रक्रिया सभी को समान रुप से असर करती है । जन्म होने के बाद जितने वर्षकी जिन्दगी हो उसे आयुष्य कहते हैं । बारह प्रकार के जीवों का आयुष्य अलग-अलग है। बारह भेद के जीव सबसे ज्यादा कितने वर्ष तक जीते हैं - उस आयुष्य का बोध जीवविचार में मिलता है। जीवों का नाम आयुष्य । जीवों का नाम आयुष्य पृथ्वीकाय २२,००० वर्ष तेइन्द्रिय ४९ दिन अप्काय ७,००० वर्ष चउरिन्द्रिय ६ मास तेउकाय ३ अहोरात्री मनुष्य ३ पल्योपम वायुकाय ३,००० वर्ष ३३ सागरोपम वनस्पतिकाय (प्रत्येक)१०,००० वर्ष तिर्यंच ३ पल्योपम बेइन्द्रिय १२ वर्ष । नरक ३३ सागरोपम याद राखो :+ जिस संख्या को अङ्को में नही गिन सकते, उसको पल्योपम नाम की विशेष संख्या से गिनते हैं । जिस संख्या को पल्योपम से नहीं गिन सकते, उसको सागरोपम नाम की संख्या से गिनते हैं। पल्योपम और सागरोपम नाम की संख्या से गिनना पड़े उतना लम्बा आयुष्य केवल पंचेन्द्रिय जीवों का ही होता है । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय के आयुष्य को संख्या से (हमने गणित में सीखा है उसी तरह) गिना जाता है । + जो एकेन्द्रिय जीव वनस्पति के शरीर में रहकर जीते हैं, वे वनस्पतिकाय के जीव है। हमने आगे समझ लिया कि इन स्थावर जीवों को केवल एक ही इन्द्रिय होती है। स्पर्शनेन्द्रिय । त्रस जीवों में बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों का समावेश होता है । इन चारों में पंचेन्द्रिय जीवों के चार भेद है । १. मनुष्यगति के पंचेन्द्रिय जीव २. देवगति के पंचेन्द्रिय जीव ३. तिर्यंचगति गति के पंचेन्द्रिय जीव ४. नरकगति के पंचेन्द्रिय जीव इस प्रकार कुल मिलकर स्थावर जीवों के पाँच भेद हुए त्रस में विकलेन्द्रिय के तीन भेद हुए ३ त्रस में पंचेन्द्रिय के चार भेद हुए ४ कुल मिलाकर ५+३+५ = १२ भेद हुए। जीवविचार की सारी बातें इन बारह भेद के आधार पर है। ये बारह भेद बराबर याद रखने चाहिये । देव बालक के जीवविचार . ७ ८. बालक के जीवविचार Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof हैं या उठते हैं तो पृथ्वी के जीवों को परेशान होना पड़ता है । जमीन में खड्डे खोदते हैं, रेत के घर बनाते हैं तो उससे भी पृथ्वी के जीव बहुत परेशान होते हैं। हम दूसरे जीवों को परेशान करते हैं तो बदले में हमको परेशान होना पड़ता ७. पृथ्वीकाय हम रोड़ पर चलते हैं, मेदान में घूमते हैं, नदी या सागर के किनारे पर जाते हैं, छोटे-बड़े पहाड़ चढ़ते हैं, जंगल में और बगीचे में खेलने जाते हैं, तब हमारे पैरों के नीचे जो जमीन आती है वह पृथ्वी है। धरती, भूमि, जमीन, ये सब पृथ्वी के पर्यायवाची नाम है। पृथ्वी में जीव होता है । पृथ्वी को हमारी तरह हाथ पैर नहीं होते । पृथ्वी पर गरम पानी गिरता है तो उसे वेदना होती है। परन्तु वो गरम पानी से बचने के लिए भाग नहीं सकती । पृथ्वी को अगर कोई कुल्हाड़ी से मारता है तो उसे वेदना होती है। उसे मार खाने से असह्य वेदना होती है, परन्तु वह अपने आपको बचाने के लिए भाग नहीं सकती । पृथ्वी २२,००० वर्ष तक जीने की क्षमता रखती है। सब पृथ्वी इतना लम्बा नही जी सकती । पृथ्वी का ज्यादा से ज्यादा आयुष्य २२,००० सालका है । पृथ्वी स्पर्श के माध्यम से अनुभव पा सकती है। ऐसी सजीवन पृथ्वी को पीड़ा नहीं दे कर हम सच्चे जैन बन सकते हैं। पृथ्वी की जीने की शक्ति और अनुभव पाने की शक्ति को हमारे हाथों से नुकशान न हो उसका ख्याल रखना चाहिये । हमको कोई परेशान करता है तो हमे अच्छा नहीं लगता उसी तरह पृथ्वी को भी कोई परेशान करे तो उसे अच्छा नहीं लगता । पृथ्वी लाचार है वो बिचारी बोल नहीं सकती । हमें समझकर उसे तकलीफ न हो वैसे रहना चाहिये। खुल्ले मेदान की जमीन में पृथ्वीकाय जीवन्त होते हैं । मेदान में भागदौड करने से पृथ्वी के जीवों को तकलीफ होती है । बगीचा, जंगल और खेत की जमीन में पृथ्वीकाय जीवन्त होते हैं। हमारे वहाँ चलने से पृथ्वी के जीवों को परेशान होना पड़ता है । नदी के किनारे, सागर के किनारे, तलाब के किनारे मिट्टी या रेत होती है उसमें पृथ्वी के जीव होने की सम्भावना है। हम वहाँ चलते हैं या बैठते हम दूसरे जीवों को तकलीफ देते हैं तो बदले में हमको भी तकलीफ भुगतनी पड़ती है। मैं जैन हूँ। मैं पृथ्वीकाय को जीवों के तकलीफ न पहुँचे उसके लिए सदा जागृत रहूँगा। इतना याद रखो :+ घर की जमीन, घर की दीवारों में जीव नहीं होते । + डामर से बनी हुई पक्की सड़क पर जीव नहीं होते । जिस रास्ते से हजारों लोगों का जाना-आना होता हो उस रस्ते की जमीन में जीव नहीं होते । + मन्दिर, उपाश्रय और धर्मशाला के मकान जमीन में जीव नहीं होते। + हमारे घर की छत की जमीन में जीव नहीं होते । जिस मेदान में रोज हजारों लोगों का आना-जाना हो तो उस मेदान की जमीन में जीव नहीं होते । + + + बालक के जीवविचार . ९ १० • बालक के जीवविचार Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof ८. अपकाय आकाश में बादल इकट्ठे होते हैं । वर्षा होती है । हमको पानी मिलता है। पानी सागर में, नदी में, कूए में, टंकी में होता है । हमको ये पानी नल से मिलता है। पानी को अपकाय कहते हैं । पानी पीने के उपयोग में लेते हैं, पानी स्नान के उपयोग में लेते हैं, पानी कपड़े, बर्तन और जमीन धोने के उपयोग में लेते हैं, पानी रसोई करने के उपयोग में भी लेते हैं, कुल मिला के पानी का हर जगह बहुत ही उपयोग होता है। यह पानी स्थावर एकेन्द्रिय जीव है। पानी को हाथ-पैर नहीं होते । पानी को पाँच इन्द्रियाँ नहीं होती । पानी को एक ही इन्द्रिय होती है। स्पर्शनेन्द्रिय। पानी की अनुभव करने की शक्ति केवल स्पर्श तक ही मर्यादित है । पानी स्थावर जीव है । वह स्वयं चल नहीं सकता । वह बहता जरुर है परन्तु तकलीफ से बचने के लिए चलने की गति को बढ़ा नहीं सकता । बर्तन या कूए में रहा हुआ पानी तो बहता भी नहीं है। अगर पानी में कोई पेट्रोल से आग लगा दे तो पानी भाग नहीं सकता । पानी को बर्तन में रखकर गरम किया जाए तो पानी भाग नहीं सकता । पानी को भी वेदना का अनुभव होता है । परन्तु वेदना से बचने के लिए वह हलन-चलन नहीं कर सकता। + पानी ७,००० वर्ष तक जिने की क्षमता रखता है। सभी पानी का आयुष्य इतना लम्बा नहीं होता । पानी का सबसे ज्यादा आयुष्य ७,००० वर्ष का होता है। + पानी स्पर्श द्वारा अनुभव करने की क्षमता रखता है। ऐसे सजीवन पानी को हम पीड़ा न दे तो ही हम सच्चे जैन है ।। पानी की जीने की शक्ति और अनुभव पाने की शक्ति को हमारे हाथों से नुकशानी न हो उसका ख्याल रखना चाहिए । हमको कोई परेशान करे तो हमें अच्छा नहीं लगता । उसी तरह पानी को भी कोई परेशान करे तो उसे अच्छा नहीं लगता । पानी लाचार है । वो बिचारा बोल नहीं सकता । हमें समझना चाहिये और पानी को तकलीफ न हो वैसे रहना चाहिये । बालक के जीवविचार • ११ सागर में, नदी में, तलाव में, स्वीमींग पल में पानी सजीव होता है। हम उसमें तैरने के लिए गिरते हैं तो पानी के जीवों को तकलीफ होती है। रसोई घर में, बाथरुम में, पानी होता है । उसको हम वैसे-तैसे फेंकते हैं तो अप्काय के - पानी के जीवों को तकलीफ होती है। पानी में, न्हानेधोने में हम जरुर से ज्यादा पानी लेकर बिगाडते हैं उससे पानी के जीवों को तकलीफ होती है। वर्षा के दिनों में बारिश में नहाते हैं, पानी में खेलते हैं, पानी में कुछ डालते हैं तो पानी के जीवों को तकलीफ होती है । होली के दिनों में दूसरे लोगों पर पानी डालते हैं, पानी के गुब्बारे फोडते हैं, पिचकारी में पानी भरकर उडाते हैं तो पानी के जीवों को तकलीफ होती है। पानी का उपयोग हम बंद नहीं कर सकते । इसलिए पानी के जीवों को तकलीफ तो हमारे द्वारा होनी ही है। परन्तु पानी का उपयोग जितना कम होगा, जितना कम पानी बिगाडेंगे उतनी ही पानी के जीवों को तकलीफ कम होगी। ज्यादा तकलीफ देंगे तो ज्यादा पाप लगेगा । कम तकलीफ देंगे तो कम पाप लगेगा । जैन पाप नहीं करता । पाप करना पड़े तो जैन बहुत ही अल्पमात्रा में पाप करता है । दूसरों को तकलीफ देना बड़ा पाप है । पानी के जीव एकेन्द्रिय है ।। लाचार और असहाय है। पानी के जीवों की दया पालने से हमारा धर्म सुरक्षित रहता है। मैं जैन हूँ। अप्काय के जीवों को कम से कम तकलीफ हो उसके लिए मैं हमेशा जागृत रहूँगा । १२ • बालक के जीवविचार Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof ९. ते काय तेजस्काय, अग्निकाय, तेउकाय इन तीनों का एक ही अर्थ हैं, आग । आग की चिनगारी भी होती है, आग की ज्वाला भी होती है । लाइटर के अन्दर से जो चमकारा निकलता है वह चिनगारी । माचिस की सली पर जल रहा है वह चिनगारी । स्टव में या भट्ठी में जो बड़ी-बड़ी लपट होती है वह ज्वाला । आग का स्पर्श गरम है। आग का उपयोग बहुत प्रकार से होता है । रसोई बनाने के लिए आग की जरुर होती है । अन्धेरे में उजाला करने के लिए आग की जरुर होती है। हर प्रकार के लाइट कनेक्शन के लिए आग की (-बिजली की) जरुर होती है। यह आग स्थावर एकेन्द्रिय जीव है। आग को हाथ पैर नहीं होते । आग को पाँच इन्द्रिय नहीं होती। आग को एक ही इन्द्रिय होती है, स्पर्शनेन्द्रिय । आग की अनुभव करने की शक्ति केवल स्पर्श तक ही मर्यादित है । आग स्थावर है। उसमें अपने आप चलने की शक्ति नहीं होती। उसका हलनचलन दिखता है परन्तु स्वयं की मर्जी से वह हलन चलन नहीं कर सकती । एक जगह से दूसरी जगह जाने में वह पराधीन है । आग तीन दिन तक जीने की क्षमता रखती है। हर कोई आग तीन दिन नहीं जी सकती। आग की सबसे ज्यादा जीवनशक्ति तीन दिन की है। आग तीन दिन के बाद या, जब भी इसका आयुष्य पूरा हो तब मर जाती है और उसकी जगह आग के नये जीव ले लेते हैं। इससे वर्षों तक आग बूझती नहीं है ऐसा भी देखने मिलता है । ऐसे आग के जीव को हम पीड़ा न पहुँचाए तो हम सच्चे जैन है। आग की जीने की शक्ति और अनुभव करने की शक्ति को हमारे हाथ से नुकशानी न हो उसका खयाल रखना चाहिये । हमको कोई परेशान करे तो हमको अच्छा नहीं लगता उसी प्रकार आग को भी कोई परेशान करे तो उसे अच्छा नहीं लगता । आग लाचार है। उसके पास बोलने की ताकात नहीं है । बालक के जीवविचार • १३ हमें समझकर आग को पीड़ा न हो वैसे रहना चाहिये । आग जलती हो तब उसमें कचरा डालने से, कागज डालने से, पानी डालने से आग के जीवों को पीड़ा होती है । लाइट की, पंखे की. टी.वी. की, कॉम्प्युटर की स्वीच ऑन और ऑफ (चालु - बन्द) करते रहने से उसमें प्रवाहित बिजली रुप आग के जीवों को पीड़ा होती है। आग लगाने से पटाखें फोडने से, मॉमबत्ती जलाने से, दीपक लगाने से आग को जनम मिलता है और कुछ समय बाद जब ये आग बुझ जाती है तब आग मर जाती है। आग लगाना, पटाखे फोड़ना, मोमबत्ती या दीपक करना उससे "आग के जीव मर जाते हैं" उसका पाप लगता है। रसोइ ठण्डी हो जाए, चाय या दूध ठण्डा लगे तब उसे गरम करने के लिए हम उसे गैस पर रखते हैं तो उससे आग के जीवों को तो पीड़ा ही होती है। गैस चालु करे या बटन दबाकर लाइट, पंखा, टी.वी. रेडियो मशीन, कॉम्प्युटर, कॅल्क्युलेटर चालु करे या पेट्रोल-डीझल से चलने वाला कोई भी साधन चालु करे, इन सारी प्रवृत्ति में अग्नि का जन्म भी होता है और अग्नि का मरण भी होता है । इसलिए अग्नि के मरण का पाप लगता है। आग का, बिजली का उपयोग हम बन्द नहीं कर सकते इसलिए आग के जीवों को पीड़ा देना चालु ही रहता है। आग और बिजली का उपयोग जितना कम होगा उतना हमको पाप भी कम लगेगा। जैन पाप ज्यादा नहीं करता। जैन पाप कम करता है। जैन जानबुझकर पाप नहीं करता। जैन लाचारी से पाप करता है । जैन पाप करके खुश नहीं होता। जैन पाप करना पड़ा उसका पश्चात्ताप करता है । मैं जैन हूँ। आग के जीवों को पीड़ा न देने के लिए मुझे जागृत होना है। मैं आग और बिजली वाले साधनों को कम से कम वापरुँगा । आग और बिजली में तेउकाय के जीव होते है। उसकी मैं ज्यादा से ज्यादा दया पालूँगा । तेउकाय के जीवों को कम से कम तकलीफ हो उसके लिये मैं जागृत रहूँगा । १४• बालक के जीवविचार Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof १०. वायुकाय हवा, पवन, आंधी, चक्रवात । वायुकाय के ये स्वरुप है। खिडकी से हवा आती है। दरवाजे पर खड़े रहते हैं तो पवन मिलने आ जाता है। घर के पर्दे और कागज उडने लगते हैं, दिया बूझ जाता है और पानी ठण्डा होने लगता है। हवा का यह पराक्रम है। हवा धीमे-धीमे भी चलती है। हवा जोर से भी चलती है। हवा तुफान भी लाती है। यह हवा स्थावर-एकेन्द्रिय जीव है । हवा को हाथ पैर नहीं होते । हवा को पाँच इन्द्रिय नहीं होती । हवा को एक ही इन्द्रिय होती है, स्पर्शनेन्द्रिय। हवा की अनुभव करने की शक्ति केवल स्पर्श तक ही मर्यादित है। हवा स्थावर है । इसमें स्वयं चलने की शक्ति नहीं होती । हवा में वजन न होने से वह चारों तरफ चलती हुइ दिखाई देती है। वह अपनी मर्जी से आना जाना नहीं करती । चलने के बाबजूद भी वह अपना दुःख दूर करने के लिए चल नहीं सकती। ऐसे हवा स्थावर जीव है । हवा ३,००० वर्ष तक जीने की क्षमता रखती है। हर कोई हवा ३,००० वर्ष तक जीने की क्षमता नहीं रखती । हवा की सबसे ज्यादा जीवन शक्ति ३००० वर्ष की होती है। ऐसी हवा को हम पीड़ा न पहुँचाए तो हम सच्चे जैन हैं। हवा की जीने की और अनुभव पाने की शक्ति को हमारे हाथों से नुकशानी न हो उसका खयाल रखना चाहिये । हमको कोई परेशान करे तो हमको अच्छा नहीं लगता उसी तरह हवा को भी कोई परेशान करे तो अच्छा नहीं लगता । हवा लाचार है, उसके पास बोलने की शक्ति नहीं । हमें समझकर ही हवा को पीड़ा न हो उस तरह रहना चाहिए। हम श्वास के बिना जी नहीं सकते । श्वास में हम हवा को ही लेते हैं। श्वास में आई हुई हवा को प्राणवायु कहते हैं । हमें दिखाई दे रही दुनिया में प्राणवायु रुप हवा सब जगह रहती है। पंखा चालु करे, हाथ से पंखा हिलाए, कपड़े से, कागज से या पुढे से हवा लेते हैं उस समय हमे हवा का अनुभव होता है । पंखा, कपड़ा, कागज या पुठ्ठा जोर से गति करता है उसके कारण स्थिर रुप में रही हवा को पीड़ा होती है। ___ मुँह से फूंक मारना, सीटी मारना, आवाज लगाना, चिल्लाना, उसके कारण स्थिर रुप में रही हवा को पीड़ा होती है। जहाँ हवा आती हो वहाँ अतिशय गरम पानी, रसोई या बर्तन को रखने से हवा के जीवों को गरमी की पीड़ा भुगतनी पड़ती है। हम नाचे, कूदे, भागे, जोर से श्वास ले उसके कारण हवा के जीवों को पीड़ा भुगतनी पड़ती है । गिले कपड़े को झटकने से, दोरी पर सूकाए हुए कपड़े की फडफड आवाज से, हवा के जीवों को पीड़ा होती है। किसी वस्तु को दूर फेंके, ऊपर से नीचे गिराये, ऊपर तक उछाले तो हवा के जीवों को पीड़ा भुगतनी पड़ती है । हवा सर्वव्यापी होने के कारण उसे बार-बार पीड़ा होती ही रहती है । हवा को - वायुकाय को हमारे हाथ से पीड़ा न हो उसके लिए बराबर सावधान होना पड़ेगा। हवा के बिना हम जी नहीं सकते । हवा का उपयोग हम करते ही रहेंगे। हवा का उपयोग कम होगा तो हवा को पीड़ा भी कम भुगतनी पड़ेगी । हम हवा को पीड़ा कम देंगे तो पाप भी कम होगा ।। मैं जैन हूँ, वायुकाय के जीवों को पीड़ा न हो उसके लिए मुझे जागृत होना है। मैं हवा के शोख को कम करूँ तो मेरे लिए एक अच्छा सद्गुण बना रहेगा । वायुकाय के जीवों की ज्यादा से ज्यादा दया पालने की मेरी भावना है । मैं इसके लिए जागृत रहूँगा ।। बालक के जीवविचार • १५ १६ • बालक के जीवविचार Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof ११. वनस्पतिकाय: प्रत्येक ऊँचे ऊँचे वृक्ष, सुन्दर फल, आकर्षक फूल, हराभरा घास । वनस्पतिकाय के ये विविध स्वरुप है । खेतों में जो सब्जी, अनाज का पाक होता है वह वनस्पति है । बगीचे में जो फूल खिलते हैं, छोटे-बड़े पौंधों पर पत्ते होते है वह वनस्पति है । उद्यान में जो फल आते हैं, बड़े वृक्षों पर हजारों पत्ते होते है वह वनस्पति है । वनस्पति जमीन में अंकुरित होती है। गहरे मूल, कठिन थड, छोटी-बड़ी डाल, विपुल संख्या के पत्तों में, फूलों और फलों में, छाल वि. सभी में जीव होते है। ये वनस्पति स्थावर एकेन्द्रिय जीव है। वनस्पति को हाथ पैर नहीं होते । वनस्पति को पाँच इन्द्रिय नहीं होती । वनस्पति को एक ही इन्द्रिय होती है। स्पर्शनेन्द्रिय । वनस्पति की अनुभव करने की शक्ति केवल स्पर्श तक ही मर्यादित होती है। वनस्पति स्थावर है। उसमें हमारी तरह हलन चलन की स्वतन्त्र शक्ति नहीं है। एक जगह से दूसरी जगह जाने में वो पराधीन है। वनस्पतिकाय के दो प्रकार है। (१) साधारण वनस्पतिकाय (२) प्रत्येक वनस्पतिकाय एक ही शरीर में अनन्त जीव रहे वह साधारण वनस्पतिकाय । एक शरीर में एक ही जीव रहे वह प्रत्येक वनस्पतिकाय । उद्यान, जंगल और खेत में जो वनस्पति दिखाई देती है वह प्रत्येक वनस्पतिकाय है । प्रत्येक वनस्पति का सबसे ज्यादा आयुष्य १०,००० वर्ष का है। सभी प्रत्येक वनस्पतिकाय का आयुष्य इतना लम्बा नहीं होता । वनस्पतिकाय के पास स्पर्श द्वारा अनुभव पाने की शक्ति है । ऐसे वनस्पतिकाय को हमारे द्वारा पीड़ा न पहुँचे तो हम सच्चे जैन हो सकते हैं । वनस्पतिकाय की जीने की और अनुभव पाने की शक्ति को हमारे हाथों से नुकशानी न हो उसके लिए जागृत रहना चाहिए । बालक के जीवविचार • १७ हमको कोई परेशान करे तो हमको अच्छा नहीं लगता। उसी तरह वनस्पतिकाय को भी कोई परेशान करे तो उसे अच्छा नहीं लगता । वनस्पतिकाय लाचार है उसके पास बोलने की शक्ति नहीं है । हमें समझकर ही वनस्पतिकाय को तकलीफ न पहुँचे वैसे रहना चाहिए । खुले मैदान में, जंगल में, बगीचे में, नदी किनारे की हरी घास, लोन पर चलने से, दोड़ने से, बैठने से, खड़े रहने से वनस्पतिकाय के जीवों को वेदना होती है। फूल तोड़कर लेने से बालों में फूल डालने से, फूलों की वेणी को बालों में डालने से, फूलों का हार पहनने से वनस्पतिकाय के जीवों को वेदना होती है। वृक्ष के फल तोडने से, वृक्ष पर झूला खाने से, वृक्ष के ऊपर चढ़ने से वनस्पतिकाय के जीवों को वेदना होती है। फल, फूल या सागभाजी के टुकड़े करने से वनस्पतिकाय के जीवों को वेदना होती है । वनस्पतिकाय के जीवों की सृष्टि बहुत विशाल है। कदम-कदम पे सावधानी रखनी जरुरी है । हर वनस्पति में १. फल, २. फूल, ३. छाल, ४ थड, ५. मूल ६. पत्ते ये छह वस्तु अवश्य होती है। हर वनस्पतिकाय के बीज भी अलग होते हैं। हमारे हाथों से वनस्पतिकाय को पीड़ा न पहुँचे उसके लिए वनस्पतिकाय के इन अलग-अलग अंगों को पहचानना खूब जरुरी है। खाने में, रसोई में वनस्पतिकाय का बहुत ही उपयोग होता है। वनस्पतिकाय का उपयोग जितना ज्यादा होगा उतनी वनस्पतिकाय को पीड़ा ज्यादा होगी । वनस्पतिकाय का उपयोग जितना कम होगा उतनी वनस्पतिकाय को पीड़ा कम होगी। ज्यादा पीड़ा देंगे तो ज्यादा पाप होगा । कम पीड़ा देंगे तो कम पाप होगा। वनस्पतिकाय का उपयोग ही बन्द करना सबसे श्रेष्ठ है। परन्तु हमारे लिए यह शक्य नहीं है। वनस्पति की दया पालने के लिए वनस्पतिकाय का उपयोग कम करना चाहिए । पर्व तिथिओं में तो वनस्पतिकाय का उपयोग होना ही नहीं चाहिए । १८• बालक के जीवविचार Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof १२. वनस्पतिकाय : साधारण पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, और वायुकाय इन चारों एकेन्द्रिय से वनस्पतिकाय का स्वभाव अलग है । वनस्पतिकाय दो प्रकार की है। १. साधारण २. प्रत्येक साधारण वनस्पतिकाय की विशेषता १. एक ही शरीर में अनन्त जीव होते हैं । २. एक साथ सभी का जन्म होता है, एक साथ सभी मरते हैं । ३. एक साथ ही श्वासोश्वास लेते हैं । ४. एक हॉल में ५,००० लोग एक साथ बैठते हैं, उसी तरह एक शरीर में अनन्त जीव रहते हैं। साधारण वनस्पतिकाय को अनन्तकाय नाम से भी जाना जाता है । साधारण वनस्पतिकाय को देखकर पहचानने के लिए चार लक्षण है। १. इस वनस्पतिकाय की नस, संधिस्थान और गाँठ स्पष्ट नहीं दिखते । २. हाथ से तोड़ते हैं तो इस वनस्पति के समान भाग होते हैं । ३. इस वनस्पति में तांता और रेसा देखने को नहीं मिलता । ४. इस वनस्पति को उखाडने के बाद फिर से बोया जाए तो उगने लगती साधारण वनस्पति का विशेष विचार क्यों किया जाता है, मालूम है आपको? इसलिए कि साधारण वनस्पतिकाय की पीड़ा या विराधना करते हैं तब हम अनन्त जीवों की पीड़ा या विराधना करने का पाप बाँध लेते हैं। एक ही गाँव में १० हजार लोग रहते हो, हमारा उसमें एक ही व्यक्ति के साथ झगडा हो उसके कारण गाँव के सभी लोगों को जला देते हैं तो हम अच्छे नहीं गिने जाते । हमको भूख लगती है, मनचाही वस्तु खाने का मन होता है तब साधारण वनस्पतिकाय से बनी कोई भी वस्तु खाते हैं तो हमको अनन्त अनन्त जीवों की हत्या का पाप लगता है। पेट भरने के लिए तो बहुत ही मजेदार वस्तुएँ मिलती है। साधारण वनस्पतिकाय वाली वस्तु खाकर हमको महाभयंकर पाप नहीं बाँधना है। ये द्रव्य अनंतकाय से पहचाने जाते हैं । भूमिकन्द, जमीन में उगनेवाले, आलू, प्याज, लहसण, गण, गाजर, मूला, पालख की भाजी विगेरे । ७. निगोद को साधारण वनस्पति कहते हैं । निगोद को समझने के लिए तीन मुद्दे । १. इस जगत में निगोद के असंख्य गोले हैं। २. हर गोले में निगोद के असंख्य शरीर है। ३. हर शरीर में निगोद के अनन्त जीव है। लील सेवाल, फूग में निगोद के जीव होते हैं । निगोद की विराधना यानी अनन्त जीवों की वेदना । निगोद को वेदना देना यानी महाभयंकर पापों का बन्धन । निगोद के जीवों की दया करे तो ही पाप से अटक सकते हैं। बालक के जीवविचार . १९ २० • बालक के जीवविचार Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. एकेन्द्रिय की पहचान boy.pm5 2nd proof पृथ्वीकाय में क्या-क्या आता है ? स्फटिक, मणि और रत्न [रत्न के चौद प्रकार हैं] प्रवाल, हिंगुळ, हरताल, मैणसिल, पारा सप्तधातु [सोना, चाँदी, ताम्बा, लोहा, कलाइ, सीसा, जसत] खड़ी, हरमची, अरणेटो, पलेवक, अबरख, फटकडी, तूरी, खार, मिट्टी और छोटे-बड़े पत्थर, सुरमा और नमक । अप्काय में क्या-क्या आता है ? जमीन से निकलता पानी, पहाड से बहता पानी, बारीश रूप में आकाश से बरसता पानी, ओस, बरफ, करा, घास पर प्रात: काल में चमकते जलबिन्दु, धुम्मस, बादल, दरिया, खाड़ी और भाप । तेउकाय में क्या-क्या आता है ? कण्डे, चिनगारियाँ, अंगारे, ज्वाला, भठ्ठा, तिणखा, बीजली, गन्धक या दारुगोले से होनेवाले विस्फोट, रांधण सगड़ी की आग । इलेक्ट्रीकसिटी से चलने वाले सभी साधन, सेलबेटरी से चलने वाले सभी उपकरण, डीझल-पेट्रोल से चलने वाले सभी वाहनो की गति शक्ति के मूल में तेउकाय हैं । वायुकाय में क्या-क्या आता है ? आँधी, हवा, पवन, चक्रवात, श्वास, सिलीन्डर का गेस, म्युझिक की ध्वनि, मूँह की फूँक, ताली और सिसोटी । साधारण वनस्पति में क्या-क्या आता है ? भूमिकन्द, फणगा, अंकुरे, नये कोमल पत्ते, पंचवर्णी फूग, शेवाल, बिल्ली के टोप, हरी आदू, हरी हल्दी, हरा कचूरा, गाजर, टांक की भाजी, पालख की भाजी, कोमल फल, गुप्त नसोवालें पत्ते, छेदन करने के बावजुद भी वापिस उपजे ऐसे थोरा, घी कुंवार, गुगल, गलोय । प्रत्येक वनस्पतिकाय में क्या-क्या आता है ? T फळ, फूल, थड, मूल, पत्ते, छाल और बीज खेत में, वाडी में, बगीचो में जंगल में, कुंडे में, और जमीन में उगने वाली तमाम लीलोतरी। एकेन्द्रिय जीवों की तो यह उपर उपरकी पहचान है, अभी तो बहुत समझना बाकी है । बालक के जीवविचार २१ १४. बेइन्द्रिय अनुभव करने की शक्ति में जिनके पास एकेन्द्रिय से एक ज्यादा इन्द्रिय होती है वह बेइन्द्रिय जीव कहलाते हैं । इन्द्रिय के पास अनुभव पाने की दो शक्ति हैं। स्पर्श का अनुभव पाने की शक्ति, चमडी स्पर्शनेन्द्रिय । स्वाद का अनुभव पाने की शक्ति, जीभ रसनेन्द्रिय । बेइन्द्रिय त्रस है वे अपनी मरजी से हलनचलन कर सकते हैं । तकलीफ जैसा लगे तो वहाँ से दूर भाग सकते हैं। अनुकूल लगे उस जगह पहुँच सकते हैं । बेइन्द्रिय जीवों का जनम पानी में भी होता है, बेइन्द्रिय जीव जमीन पें भी जन्म लेते हैं । बेइन्द्रिय जीव वासी भोजन में भी जन्म लेते हैं । बेइन्द्रिय जीव हमारे शरीर में भी जन्म लेते हैं। बेइन्द्रिय जीव बहुत छोटे होते हैं । उनको अपने जीवन और अपने शरीर के साथ कोई खेल करे तो अच्छा नहीं लगता । उनको अपने जीवन और अपने शरीर को नुकशान होने से वेदना होती है। हम बेइन्द्रिय जीवों को पहचान कर उनको वेदना न हो इस तरह रहने का अगर निश्चित कर ले तो हमारा धर्म सफल हो जाता है । अक्ष, शंख, शंखला, छीप, कोडा, कोडी, भूनाग अलसिया, काष्ठ की कीड़े, कृमि [पेट के कीडे ], पानी के पोरे, मामणमुण्डा, वासी रोटी के कीडे, मातृवाहिका मंडोल ये सब बेइन्द्रिय जीव है। ये और ऐसे अन्य सभी बेइन्द्रिय जीवों की पहचान कर लेनी चाहिये। जितने जीवों की पहचान मिले उन सब को जीवदया की दृष्टि से देखना चाहिये । उनको तकलीफ हो, उनके जीव को, उनकी अनुभव शक्ति को या उनके शरीर को हमारे द्वारा नुकशानी हो तो विराधना का पाप लगता है । मैं जैन हूँ, बेइन्द्रिय जीवों की विराधना से मैं बचता रहूँगा । 逛逛逛 २२ • बालक के जीवविचार Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. तेइन्द्रिय अनुभव करने की शक्ति में जिसके पास बेइन्द्रिय से एक इन्द्रिय ज्यादा होती है, वह तेइन्द्रिय जीव कहलाते हैं । + + boy.pm5 2nd proof + तेइन्द्रिय के पास अनुभव पाने की तीन शक्तियाँ है । १. स्पर्श का अनुभव पाने की शक्ति, चमडी स्पर्शनेन्द्रिय । २. स्वाद का अनुभव पाने की शक्ति, जीभ रसनेन्द्रिय । ३. गन्ध का अनुभव पाने की शक्ति, नाक घ्राणेन्द्रिय । तेइन्द्रिय त्रस है। वो अपनी मरजी से हलन चलन कर सकते हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकते हैं। नापसंद जगह को छोड़कर मनपसंद जगह तक पहुँच सकते हैं । तेइन्द्रिय जीवों को बहुत पैर होते हैं। तेइन्द्रिय जीव घर में भी जन्म ले सकते हैं, तेइन्द्रिय जीव गन्दकी में भी जन्म ले सकते हैं, तेइन्द्रिय जीव सिर के बालों में भी जन्म लेते हैं । तेइन्द्रिय जीव लकडियों में, जंगलों में और जमीन पर भी जन्म ले सकते हैं । तेइन्द्रिय जीवों को अपने जीवन या अपने शरीर के साथ कोई खेल करे तो उनको अच्छा नहीं लगता। अपने जीवन या अपने शरीर को नुकशान हो तो उनको बहुत वेदना होती है । हम तेइन्द्रिय जीवों की पहचान कर लें, उनको पीड़ा न पहुँचे उस तरह से रहना निश्चित कर ले तो हमारा धर्म सफल गिना जाता है । खटमल, मकोड़ा, जू, उधर, ढोला इन्द्रगोप गोकळगाय, कानखजूरा, घीमेल, गधैया, कंथुवा, इल्ली, चिटी, गींगोडा, कीडे (गोबर के कीडे, धान्य के कीडे) गोपालिका, गोवालण ये और अन्य दूसरे सभी तेइन्द्रिय मिले उन सभी को जीवदया की द्रष्टि से देखना । उनको तकलीफ हो, उनके जीवन को उनकी अनुभव शक्ति को, उनके शरीर को हमारे हाथों से नुकशानी हो तो विराधना का पाप लगता है। मैं जैन हूँ, तेइन्द्रिय जीवों की विराधना से मैं बचता रहूँगा । बालक के जीवविचार • २३ १५. चउरिन्द्रिय अनुभव करने की शक्ति में जिसके पास तेइन्द्रिय से एक इन्द्रिय ज्यादा होती है, वह चउरिन्द्रिय कहलाते हैं । चरिन्द्रिय के पास अनुभव पाने की चार शक्तियाँ हैं । १. स्पर्श का अनुभव पाने की शक्ति जीभ, रसनेन्द्रिय । २. स्वाद का अनुभव पाने की शक्ति ३. गन्ध का अनुभव पाने की शक्ति नाक, घ्राणेन्द्रिय । ४. देखकर अनुभव पाने की शक्ति आँख, चक्षुरिन्द्रिय । चउरिन्द्रिय त्रस है। वो अपनी मर्जी से हलनचलन कर सकते हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकते हैं। नापसंद जगह को छोड़कर मनपसंद जगह तक जा सकते हैं । + + + - - - चामडी, स्पर्शनेन्द्रिय । चरिन्द्रिय जीवों को बहुत पैर होते हैं । चउरिन्द्रिय जीवों में किसी को पाँखे भी होती है । चउरिन्द्रिय में कोई डंख भी मारता है। चउरिन्द्रिय जीव कोई जंगल में जन्म लेते हैं। कोइ गन्दकी में जन्म लेते हैं। कोई खेत में भी जन्म लेते हैं । २४ • बालक के जीवविचार चउरिन्द्रिय जीवों को अपने जीवन या अपने शरीर के साथ कोई खेल करें तो उनको अच्छा नहीं लगता । अपने जीवन या अपने शरीर को नुकशान हो तो उन्हें अच्छा नहीं लगता । इससे उनको वेदना होती है । हम चउरिन्द्रिय जीवों को पहचानकर उनको वेदना न हो उस प्रकार रहने का निश्चित कर लें तो हमारा धर्म सफल गिना जाता है । बिच्छु, भमरें, मधुमक्खियाँ, मक्खी, मच्छर, डांस, तीड, कंसारी, खडमांकडी, तितलियाँ, ये और अन्य दूसरे सभी चउरिन्द्रिय जीवों की पहचान कर लेनी चाहिये । जितने जीवों की पहचान हो उन सभी को जीवदया की दृष्टि से देखने चाहिये । उनको तकलीफ हो, उनके जीवन को उनकी अनुभव शक्ति को, उनके शरीर को हमारे हाथों से नुकशान हो तो विराधना का पाप लगता है । मैं जैन हूँ, चउरिन्द्रिय जीवों की विराधना से मैं बचता रहूँगा । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. पंचेन्द्रिय मनुष्य पाँचों प्रकार की अनुभव शक्ति से सम्पन्न हो, वह पंचेन्द्रिय मनुष्य. पंचेन्द्रिय मनुष्य के पास, चमडी, जीभ, नाक, आँख और कान द्वारा अनुभव पाने की स्वतन्त्र पाँच शक्तियाँ होती है । + + + + + boy.pm5 2nd proof + पंचेन्द्रिय मनुष्य के पास मन होता है। समझना, सोचना, याद रखना, सवाल और जवाब तैयार करना। खुश होना, नाराज होना ये सारी संवेदना मन द्वारा पंचेन्द्रिय मनुष्य पाता है । पंचेन्द्रिय मनुष्य को दो हाथ और दो पैर होते हैं । पंचेन्द्रिय मनुष्य त्रस है। वो अपनी मर्जी से हलन चलन और आनाजाना कर सकते हैं । पंचेन्द्रिय मनुष्य का जन्म माता की कुक्षि से होता है। जन्म से पहले उसको कुछ समय तक माता की कुक्षि में रहना पड़ता है । पंचेन्द्रिय मनुष्य- पुरुष, स्त्री और नपुंसक इन तीनों में से किसी एक रुप में अपना जीवन बिताते हैं । पंचेन्द्रिय मनुष्य अच्छे से अच्छा पुण्य उपार्जित कर सकता है । पंचेन्द्रिय मनुष्य खराब से खराब पाप बाँध सकता है । पंचेन्द्रिय मनुष्य सुन्दर से सुन्दर धर्म कर सकता है । पंचेन्द्रिय मनुष्य खराब से खराब अधर्म कर सकता है । पंचेन्द्रिय मनुष्य को अपना जीवन अपना शरीर, अपनी हर अनुभव शक्ति बहुत प्रिय है । इसमें से किसी को भी नुकशान हो तो इसको वेदना होती है । पंचेन्द्रिय मनुष्य के पास मन है, विचार और भावना के साथ वह जीता है । उसके विचार और भावना तूट जाए तो भी उसे वेदना होती है । मैं जैन हूँ। पंचेन्द्रिय मनुष्य को वेदना हो ऐसी कोई प्रवृत्ति मेरे हाथों से हो तो मेरा धर्म लज्जित होता है। पंचेन्द्रिय मनुष्य को वेदना न हो उसके लिए मैं जागृत रहूँगा । बालक के जीवविचार • २५ १७. पंचेन्द्रिय देव देव, देवता, दिव्य आत्मा, दैवी तत्त्व । पंचेन्द्रिय देवों की ये पहचान है । देवगति या देवलोक में जन्म ले वह देव । पाँच इन्द्रिय और मन, देवको होते हैं। + देवों के पास विशेष प्रकार की शक्ति होती है। हम को समझ में न आए वैसे चमत्कारों का सर्जन करते हैं। इस शक्ति को वैक्रिय लब्धि कहते हैं । देव अपने हजारों रुप भी बना सकते हैं और एकदम अदृश्य भी हो जाते हैं। उनकी गति भयंकर होती है। एक सेंकड में अहमदाबाद से मुंबई पहुँच सकते हैं। उनका शरीर अतिशय सुन्दर और तेजस्वी होता है । उनकी शक्ति और प्रभाव प्रचण्ड होते है। देव जमीन पर नहीं चलते। वे आकाश में चल सकते हैं और उड़ सकते हैं । वे पृथ्वी पर आते हैं तब जमीन से चार अंगुल उपर ही रहते हैं । देवों को पसीना नहीं होता। देवों को कोई रोग नहीं होता। देवों की आँखें हमेंशा के लिए खुल्ली रहती है। हमारी तरह पलकों को बन्द करना और खोलने का काम देव नहीं करते। उनकी आँखों में आँसू नहीं आते । देवों का रहने का स्थान दिव्य विमान या भवनों में होता है। वे अपने प्रभाव से नये विमानों का निर्माण कर विश्वभर में घूमने जा सकते हैं। + वे देव अथवा देवी स्वरुप में अपना आयुष्य बिताते हैं । देवों के चार प्रकार होते हैं । (१) भवनपति, (२ ) व्यंतर, (३) ज्योतिष, (४) वैमानिक + देवों को अपना जीवन अपना शरीर अपनी हर शक्ति प्रिय होती है, इन चारों में से किसी की भी हंसी-मजाक करते हैं, उपहास करते हैं तो देव नाराज होते हैं। दूसरों को नाराज करने से हमको पाप लगता है और दूसरे लोग हमको परेशान भी करते हैं। + + मैं जैन हूँ। पंचेन्द्रिय देवों को परेशान करने की शक्ति मेरे में नहीं है और साथ में इन देवों को परेशान करने की भावना भी मेरे में नहीं है। इन देवों को परेशान करने की या नाराज करने की भूल न हो इसलिए मैं जागृत रहूँगा। २६ • बालक के जीवविचार + Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. पंचेन्द्रिय तिर्यंच पशु, जानवर, प्राणी, जनावर ये इनकी पहचान है। तिर्यच को पाँच इन्द्रिय और मन होता है। तिर्यंच के तीन विभाग है। १. जलचर, २. स्थलचर, ३. खेचर १. पानी में जीवन बीताने वाले प्राणी को जलचर तिर्यंच कहते हैं। जलचर तिर्यंच की जिन्दगी का ज्यादा से ज्यादा समय पानी में बीतता है। जलचर तिर्यंच में कुछ जीव तो ऐसे होते हैं कि वो सिर्फ पानी में ही जी सकते हैं। उनको पानी से बहार निकाल दिया जाए तो तडपने लगते हैं और मर भी जाते हैं । मछली, मगरमच्छ, कछुआ, ग्राह, बड़े मगरमच्छ, सुंसुमार, ये और ऐसे दूसरे सभी जलचर तियंच पंचेन्द्रिय है । २. जमीन पें जीवन व्यतीत करनेवाले प्राणी को स्थलचर कहते हैं। इन तिर्यंचों की जिन्दगी का ज्यादा से ज्यादा समय जमीन में व्यतीत होता है । गुफाओं में, जंगल वृक्ष और झाड़ी तथा दरों में उनका निवास होता है। स्थलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय के तीन प्रकार हैं। boy.pm5 2nd proof १. चतुष्पद, २. उरपरिसर्प, ३. भुजपरिसर्प १. चार पैरों वाले पशुओं को चतुष्पद कहते हैं। घर में पालने योग्य निर्दोष प्राणीओं और जंगल में रहनेवाले हिंसक पशुओं का चतुष्पद में समावेश होता है । + + गाय, भैंस, बकरी, ऊँट, घोड़ा, गधा, ये सभी पालतु पशु हैं । बिल्ली, कुत्ते, लोमडी, शेर, सिंह, चित्ता, रींछ [भालू], बन्दर ये जंगली पशु हैं, उनके नाखून और दाँत उनकी हिंसकता की गवाही देते हैं । + हाथी, हिपोपोटेमस जैसे विशाल कायावाले पशु भी चतुष्पद हैं । २. पंचेन्द्रिय होने के बावजूद भी जिनके हाथ-पैर न हो ऐसे तिर्यंच को उरपरिसर्प कहते हैं, ये पंचेन्द्रिय जीव पेट से गति करते हैं । + साँप, अजगर विगेरे को उरपरिसर्प कहते हैं । ३. भुजपरिसर्प को दो पैर और दो हाथ होते हैं, चलने के लिए वो हाथ का बालक के जीवविचार • २७ भी उपयोग करते हैं । चूहा, छिपकली, गिलहरी विगेरे ३. खेचर यानी अपनी पंख द्वारा जो आकाश में उड़ सके। हम उनको पक्षी के रुप में पहचानते हैं। ये पक्षी दो प्रकार के होते हैं। जिनकी पाँखे रोमराजी यानी पींछी से बनी हो ऐसे पंखी और जिनकी पाँखों में रोमराजी के बदले सिर्फ चमडी हो ऐसे पक्षी । + + + १. २. + मनुष्य लोक के बहार दूसरे दो प्रकार के पक्षी होते हैं । कुछ पक्षियों की पंख हमेंशा खुल्ली होती है, बन्द होती ही नहीं है, इनको वितत पंखी कहते हैं । कुछ पक्षियों के पंख हंमेशा बन्द होती है, कभी खुलती ही नहीं है, इनको समुद्गपंखी कहते हैं । इन पक्षियों को हम कभी नहीं देख सकते । कबूतर, कोयल, कौआ विगरे पक्षियों को रोमराजी की पाँखे हैं, वो रोमज पक्षी है । चमगादड़ जैसे पक्षियों को चमडी की पाँख होती है, वे चर्मज पक्षी है। इन पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों को अपना शरीर अपना जीवन और अपनी हर शक्ति खूब प्रिय है, इसमें से किसी को भी नुकशान हो तो इन जीवों को वेदना होती है दवा, साबुन, शेम्पू, टुथपेस्ट, टुथपावडर, बेल्ट, पर्स कपड़े विगेरे में कईबार तिर्यंच् पंचेन्द्रिय जीवों के मृतशरीर से नीकाले हुए द्रव्य का उपयोग होता है। अगर हम ध्यान न रखे और ऐसी मिलावट वाली वस्तु का उपयोग कर ले तो इन जीवों की हत्या का पाप लगता है । मैं जैन हूँ । पंचेन्द्रिय तिर्यंच् जीवों की विराधना न हो उसके लिए मुझे सावधान होना चाहिए । जीवदया का पालन करने के लिए मैं हरपल जागृत रहूँगा । २८ • बालक के जीवविचार Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. पंचेन्द्रिय नारकी भयंकर दुःखों का जहाँ सतत सामना करना पड़ता है उस गति का नाम है नरक । जो पंचेन्द्रिय रुप में वहाँ जन्म ले उसे नारकी कहते हैं । नरकगति में जन्म लेने वाले जीवों को हमेंशा वेदना भुगतनी पड़ती है । नरकगति में शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो जाय तो भी मर नहीं सकते और पारे की तरह शरीर वापिस जुड जाता है और फिर नई-नई तकलीफों का सामना करना पड़ता है । नरकगति में अतिशय भूख लगती है, खाने को कुछ नहीं मिलता । नरकगति में अतिशय प्यास लगती है, पीने को कुछ नहीं मिलता । नरकगति में अतिशय गरमी लगती है, ठण्ढक करने को कुछ नहीं मिलता। + नरकगति में अतिशय ठण्डी लगती है, उष्मा मिल नहीं सकती । नरकगति में अतिशय गन्दकी होती है, सफाई के लिए कुछ नहीं मिलता। नरकगति में अतिशय अन्धेरा होता है, उजाला करने के लिए कुछ नहीं मिलता। नरकगति में जीव एक दूजे के साथ लड़ाई करते हैं, लेकिन कोई छुडानेवाला नहीं होता । नरकगति में परमाधामी देव अत्याचार करते हैं लेकिन कोई बचानेवाला नहीं होता । नरकगति में कभी आराम नहीं मिलता और आपत्तिओ को पार नहीं है। नरकगति में कभी शान्ति नहीं मिलती और अशान्ति का पार नहीं है। नरकगति में हमेंशा रोना ही पड़ता है और आश्वासन देनेवाला कोई नहीं है। नरकगति में कंटको की बारिश होती है, शरीर खूनभरा हो जाता है। नरकगति में कांच के टुकडों पर चलना पड़ता है, पेरों में बड़े-बड़े चीरें पड़ जाते हैं। नरकगति में हथियारों से मार खानी पड़ती है, उससे छूट नहीं पाते । नरकगति में आग में जलना पड़ता है, उससे भाग नहीं सकते। नरकगति में बरफ में ठिठुरना पड़ता है, बचने का कोई उपाय नहीं है। नरकगति में हजारों लाखों, करोडो, अबजों, अगणित वर्षो तक वेदना भुगतनी पड़ती है। नारकी के जीवों को हम परेशान कर ही नहीं सकते। उनकी तकलीफों को सुनकर उनके लिए दया का विचार करें तो हमारा धर्म सफल गिना जाता है। मैं जैन हूँ। नारकी के जीवों की दया के विचारों के लिए जागृत रहूँगा। नरक में न जाना पड़े वैसा जीवन मैं जिऊँगा । बालक के जीवविचार • २९ + + + + + + ++ + boy.pm5 2nd proof + २०. पर्याप्ति आत्मा शरीर में रहकर जीता है। आत्मा को शरीर बनाने के लिए और शरीर में रहने के लिए छह शक्ति की जरुरत पड़ती है। इन छह शक्ति को छह पर्याप्ति कहते हैं । 1 १. आहार पर्याप्ति २. शरीर पर्याप्त ३. इन्द्रिय पर्याप्ति ४. श्वासोश्वास पर्याप्ति ५. भाषा पर्याप्ति ६. मन पर्याप्ति जो आत्मा इन शक्तियों को सम्पूर्ण प्राप्त कर ले वह पर्याप्त जीव कहलाता है जो आत्मा इन शक्तियों को सम्पूर्ण प्राप्त नहीं करता, वह अपर्याप्त जीव कहलाता है। एकेन्द्रिय जीवों को पर्याप्ति होती है। विकलेन्द्रिय जीवों को पाँच पर्याप्ति होती है। पंचेन्द्रिय जीवों को छह पर्याप्ति होती है। एकेन्द्रिय जीव अगर चार पर्याप्ति प्राप्त कर ले तो वह पर्याप्त जीव कहा जाता है । । एकेन्द्रिय जीव अगर चार पर्याप्ति प्राप्त न करें तो वह अपर्याप्त कहा जाता है विकलेन्द्रिय जीव पाँच पर्याप्ति प्राप्त कर ले तो वह पर्याप्त जीव कहलाएगा। विकलेन्द्रिय जीव पाँच पर्याप्ति प्राप्त न करे तो वह अपर्याप्त जीव कहलाएगा। पंचेन्द्रिय जीव छह पर्याप्ति प्राप्त करे तो वह पर्याप्त जीव कहलाएगा। पंचेन्द्रिय जीव छ पर्याप्ति प्राप्त न करे तो वह अपर्याप्त जीव कहलाएगा। याद रख लो + एकेन्द्रिय जीवों के पास चार पर्याप्ति होती है। छह पर्याप्त नहीं होती। फिर भी चार पर्याप्ति पूर्ण करने वाले एकेन्द्रिय जीव को अपर्याप्त नहीं कहा जाता । चार पर्याप्त पूरी करनेवाले एकेन्द्रिय जीव को पर्याप्त ही कहते हैं । विकलेन्द्रिय जीवों के पास पाँच पर्याप्ति होती है। छह पर्याप्त नहीं होती। फिर भी पाँच पर्याप्ति पूर्ण करनेवाले विकलेन्द्रिय जीव को अपर्याप्त नहीं कहा जाता । पाँच पर्याप्ति पूरी करनेवाले विकलेन्द्रिय जीव को पर्याप्त ही कहा जाता है । एकेन्द्रिय जीव को चार ही पर्याप्ति होती है। एकेन्द्रिय को पाँच पर्याप्ति नहीं होती । एकेन्द्रिय जीव को छह पर्याप्त नहीं होती । विकलेन्द्रिय जीव को पाँच ही पर्याप्ति होती है। विकलेन्द्रिय जीव को छह पर्याप्त नहीं होती । ३० • बालक के जीवविचार + Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof २१. पर्याप्ति विकास शरीर का निर्माण और शरीर के संवर्धन की शक्ति का निर्माण पर्याप्ति द्वारा होता है। जीव जन्म लेता है शरीर द्वारा जन्म लेने से पहले शरीर को बनाना पड़ता है । शरीर बन जाए, और शरीर में रहने का शुरू हो जाए बाद में जिन्दगी की शुरूआत होती है । १. आहार पर्याप्ति : परलोक से नीकलकर जीव नई जगह पर जन्म लेने के लिए पहुँचता है। यहाँ पर अपने कर्मों के प्रभाव से शरीर को बनाने के लिए कुछ द्रव्यों को ग्रहण करता है। इन द्रव्यों को हम नजर से नहीं देख सकते । ग्रहण किये हुए द्रव्यों में से शरीर की आकृति बननी शुरू होती है। इस प्रकार शरीर की आकृति बनाने के लिये जीव, जन्म लेने से पूर्व जिन द्रव्यों को ग्रहण करता है वह द्रव्य उसका आहार बनता है। आहार लेने से शरीर को आकार मिलने की शुरूआत होती है । इन द्रव्यों का आहाररूप में ग्रहण करने की शक्ति को आहार पर्याप्ति कहते हैं। पर्याप्त कुल छह हैं। आहार ग्रहण करने की शक्ति पहली पर्याप्ति है आहार पर्याप्ति । २. शरीर पर्याप्ति : मकान बनाने के लिए सिमेन्ट, ईन्ट विगेरे इकट्ठे कर लो। तब काम की शुरूआत होती है। लेकिन सिमेन्ट ईन्ट रखने मात्र से मकान नहीं बनता । उनको विशेष प्रकार से लगाना पड़ता है । तो ही मकान बनता है। आहार पर्याप्त से शरीर के लिए द्रव्य तैयार होते हैं । परन्तु इनको शरीर रूप में जमाने की विशेष प्रक्रिया अलग से करनी पड़ती है। आहार से शरीर बनना शुरू हो जाए उसके लिए विशेष प्रक्रिया जिस शक्ति से साकार होती है उसे शरीर पर्याप्ति कहते हैं । शरीर पर्याप्ति से हम जिन्दगीभर साथ देनेवाले शरीर को बना सकते हैं । ३. इन्द्रिय पर्याप्ति : शरीर की पाँच अनुभव शक्ति यानी कि पाँच इन्द्रिय को तो हम जान चूके हैं। जैसे जैसे शरीर का विकास होता है वैसे-वैसे इन्द्रियों की शक्ति का बालक के जीवविचार • ३१ विकास होता है । शरीर बनने के बाद उसमें अनुभव शक्ति का विकास होता है । उसके पीछे तीसरी पर्याप्ति काम करती है- इन्द्रिय पर्याप्त ४. श्वासोश्वास पर्याप्ति : शरीर हो गया, इन्द्रियाँ बन गई, अब जिन्दगी को जीना है। जीने के लिए श्वास लेना चाहिए। श्वास लेने की और श्वास छोड़ने की कला चाहिए। ये कला अगर न हो तो शरीर और इन्द्रिय मिलने के बावजूद भी मरना पड़ता है । चोथी पर्याप्ति श्वासोश्वास पर्याप्ति है। यह पर्याप्ति श्वास लेने की और श्वास छोड़ने की शक्ति का निर्माण करके हमारी जिन्दगी को लम्बी बनाती हैं । ५. भाषा पर्याप्ति : जो जीता है वह बोलता है। बोलने के लिए शब्द चाहिए। शब्द यानी भाषा। ये भाषा एक विशेष शक्ति है। भाषा सभी को नहीं आती पाँचवीं भाषा पर्याप्ति जिसको सिद्ध हो जाती है उसे ही बोलने की शक्ति मिलती है। इससे जो बोलता है वो दूसरों को सुनाई देती है, दूसरों को समझमें आता है । दूसरों को सुनने और समझने के लिए अनुकूल ऐसी भाषा बोलने की शक्ति भाषा पर्याप्ति के द्वारा बनती है । ६. मन पर्याप्ति : स्वयं का ख्याल करना, दूसरों का विचार करना, याद रखना, ये सारी शक्तियाँ अलग-अलग है। हमको अगर मन मिले तो ये शक्ति मिलती है । छठ्ठी मन पर्याप्ति हमको विचार करने की शक्ति देती है । इस दुनिया में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के पाँच प्रकार के जीव होते हैं । उसमें – एकेन्द्रिय जीवों को चार पर्याप्तियाँ होती है । १. आहार, २. शरीर, ३. इन्द्रिय, ४. श्वासोश्वास विकलेन्द्रिय जीवों को पाँच पर्याप्तियाँ होती है । १. आहार, २. शरीर, ३. इन्द्रिय, ४. श्वासोश्वास, ५. भाषा । पंचेन्द्रिय जीवों को छह पर्याप्तियाँ होती है । १. आहार, २. शरीर, ३. इन्द्रिय, ४. श्वासोश्वास ५. भाषा, ६. मन । ३२ • बालक के जीवविचार Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof २२. पर्याप्त अपर्याप्त पर्याप्ति का काम थोड़ा-सा अटपटा है। सभी जीव अपने अनुरूप पर्याप्ति पूरी नहीं भी कर सकते। कुछ जीव तो पर्याप्ति की शुरूआत करके बीच में ही मर जाते है। कुछ जीव पर्याप्ति की शुरूआत करते हैं और बराबर जी लेते हैं । जो जीव पर्याप्ति अधूरी रखकर मर जाते हैं वे अपर्याप्त जीव कहलाते हैं । जो जीव पर्याप्ति पूर्ण करके जीते हैं वे पर्याप्त जीव कहलाते हैं । जो जीव पर्याप्ति अधूरी रखकर मर जाते हैं वे लब्धि अपर्याप्त कहलाते हैं । जो जीव पर्याप्ति पूर्ण करके जीते हैं वे लब्धि पर्याप्त कहलाते हैं । और एक बात समझनी बाकी है। लब्धि पर्याप्त जीव, जब से पर्याप्ति का आरम्भ करता है तब से लगाकर सभी पर्याप्तियाँ पूर्ण करे, उसमें कुछ समय तो लगता ही है। जहाँ तक सभी पर्याप्ति समाप्त नहीं होती वहाँ तक वो पर्याप्त नही कहलाता । उसके लिए एक दूसरी पहचान है । कुछ ही समय में जो अपनी पर्याप्ति पूर्ण करनेवाला है लेकिन वर्तमान में जो अपनी पर्याप्ति पूर्ण नहीं कर पाया है, उस जीव को करण अपर्याप्त कहते हैं । जिस जीव ने अपनी पर्याप्ति पूर्ण कर ली है उसे करण पर्याप्त भी कहते हैं । लब्धिपर्याप्त और करण पर्याप्त के बीच में कोई फरक नहीं हैं, लब्धि पर्याप्त जीव, करण अपर्याप्त हो सकता है । जीवन जीने के लिए जिस शक्ति की जरूरत पड़ती है वह शक्ति पर्याप्ति द्वारा मिलती है । पर्याप्ति द्वारा जीवन का प्रारम्भ होता है । पर्याप्ति पूर्ण न हो इसका कारण भूतकाल के पापकर्म है । पर्याप्ति पूर्ण हो इसका कारण भूतकाल का पुण्यकर्म है। जीवविचार में हर जीवों के दो भेद करेंगे । १. पर्याप्त जीव २. अपर्याप्त जीव । बालक के जीवविचार • ३३ २३. संज्ञा I हमको मन मिला है। हम हमारे विचारों को पहचान सकते हैं । हमारे विचारों को बदल सकते हैं। हमारे विचारों को सुधार सकते हैं। मन की इसी शक्ति को संज्ञा कहते हैं । पंचेन्द्रिय जीवों के चार भेद हैं। १. मनुष्य, २. देव, ३ तिर्यच, ४. नारकी । इन चारों ही जीवों में सामान्य रूप से संज्ञा होती है। फिर भी मनुष्य और तिर्यंच जीवों में ऐसे भी जीव होते हैं जिनको मन नहीं होता, संज्ञा नहीं होती । अपने विचारों की पहचान इनको नहीं होती। क्योंकि उनके पास सोचने की शक्ति ही नहीं होती । पंचेन्द्रिय होते हुए भी मन न हो ऐसे मनुष्य और तिर्यच जीवों को असंज्ञी कहते हैं । असंज्ञी पंचेन्द्रिय में मनुष्य और तिर्यंच के नाम है । असंज्ञी जीवों में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय के भी नाम है । असंज्ञी जीवों में मनपसन्द वस्तु का राग होता है। असंज्ञी जीवों में नापसन्द वस्तु का द्वेष होता है । परन्तु इन राग और द्वेष के अनुसार चलते विचार नहीं होते । असंज्ञी जीव मनपसन्द वस्तु को प्राप्त कर खुश होता है। परन्तु मनपसन्द वस्तु प्राप्त करने के लिए लम्बा विचार नहीं कर सकता । असंज्ञी जीव नापसन्द वस्तु को प्राप्त कर नाराज होता है । परन्तु नापसन्द वस्तु को छोड़ने के लिए लम्बा विचार नहीं कर सकता । असंज्ञी जीवों को मन पर्याप्ति नहीं होती । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों को मन पर्याप्ति नहीं होती । असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच को मन पर्याप्ति नहीं होती । असंज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य को मन पर्याप्ति नहीं होती । ३४ • बालक के जीवविचार Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof २४. सूक्ष्म - बादर एकेन्द्रिय जीव स्थावर होने से हलन-चलन नहीं कर सकते । एक ही इन्द्रिय होने के कारण वे बोल नहीं सकते ।। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय वनस्पतिकाय इन पाँचों की समान विशेषता हमने समझ ली है। अब एक विशेषता समझने की बाकी है। उसके दो भेद है। १. सूक्ष्म एकेन्द्रिय, २. बादर एकेन्द्रिय हम जिसको अपनी आँखों से देख सके ऐसे एकेन्द्रिय जीवों को बादर एकेन्द्रिय कहते हैं। परन्तु एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म भी होते हैं । सूक्ष्म होने से हम उसको अपनी आँखों से देख नहीं सकते । सूक्ष्म होने से हम उनकी विराधना नहीं कर सकते । ये सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव विश्वभर में फैले हुए हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों का आयुष्य लम्बा नहीं होता । सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की करुणता यही है कि ये जीव बार-बार जिस गति में होते हैं उसी ही गति में जन्म लेते हैं। पृथ्वीकाय सूक्ष्म भी होते हैं, बादर भी होते हैं । अप्काय सूक्ष्म भी होते हैं, बादर भी होते हैं । तेउकाय सूक्ष्म भी होते हैं, बादर भी होते हैं । वायुकाय सूक्ष्म भी होते हैं, बादर भी होते हैं । साधारण वनस्पतिकाय सूक्ष्म भी होते हैं, बादर भी होते हैं । प्रत्येक वनस्पतिकाय बादर होते हैं, सूक्ष्म नहीं होते । पंचेन्द्रिय बादर होते है, सूक्ष्म नहीं होते । सूक्ष्म जीवों की असर हमको नहीं होती और हमारी असर सूक्ष्म जीवों को नहीं होती। बादर जीवों की असर हमको होती है और हमारी असर बादर जीवों को होती है। २८. जो जन्म लेता है वह जीव जीव चारों गति में जन्म लेते हैं, परन्तु चारों गति में जन्म लेने की प्रक्रिया एकसमान नहीं होती । मनुष्य और तिर्यंच गति में तो जन्म लेने की प्रक्रिया बिलकुल अलग है । इसलिए जन्म लेने की तीन अवस्था हमको भगवान ने बताई है। १. गर्भज, २. संमूर्छन, ३. उपपात १. गर्भज - मनुष्य और तिर्यंच, इन अवस्था से जन्म लेते हैं। २. संमूर्छन - मनुष्य और तिर्यंच, इन अवस्था से भी जन्म लेते हैं । ३. उपपात - देव और नारकी इन अवस्था से जन्म लेते हैं। १. गर्भज जन्म : माता की कुक्षि में कुछ समय रहकर बाद में जन्म लेना वह गर्भज अवस्था का जन्म कहलाता है। गर्भज अवस्था का जन्म भी तीन प्रकार से होता है। १. अंडज, २. जरायुज, ३. पोतज १. अंडज : माता की कुक्षि में अण्डा बनता है। माता अण्डा रखती है। अण्डे से बच्चे होते है। यह गर्भज अवस्था का अण्डज रूप से जन्म होता है । सभी पक्षियों का जन्म इसी प्रकार होता है । २. जरायुज : माता की कुक्षि में हो तब जीव के शरीर के उपर ओर नामक बारिक और कुदरती आवरण होता है । जब जन्म होता है तब आवरण निकल जाता है। यह गर्भज अवस्था का जरायुज रूप से जन्म है। मनुष्य का जन्म इसी तरह होता है। गाय, बकरी जैसे पश इसी तरह जन्म लेते है। ३. पोतज : जब जन्म होता है तब बच्चे के रूप में ही जन्म लेना । हाथी जैसे पशुओं के बच्चों का जब जन्म होता है तब बच्चे के रूप में ही पैदा होते हैं । उनके शरीर पर कोई आवरण नहीं होता । यह गर्भज अवस्था का पोतज प्रकार का जन्म है। २. संमर्छन जन्म : माता की कुक्षि में आये बिना ही अपने आप जिसका जन्म होता है, वह संमूर्छन कहलाते हैं । इसको संमूर्छिम नाम से पहचाना जाता है । विशेष वातावरण में, जहाँ ज्यादा गिलापन रहता है वहाँ और अशुचि में बालक के जीवविचार • ३५ ३६ • बालक के जीवविचार Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof ये संमूछिम जीव पैदा होते हैं । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों का जन्म संमूर्छिम जन्म कहलाता है। गन्दकी में, कचरे में, गन्दे पानी में और गन्दे स्थानों में तो पंचेन्द्रिय जीव भी संमूर्छिम प्रकार से जन्म ले लेते हैं । हम इनको देख नहीं सकते । वैसे तो संमर्छिम रूप में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन तीनों का जन्म होता है। फरक इतना ही है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय हमेशा संमूछिम रूप में ही जन्म लेते है और पंचेन्द्रिय मनुष्य गर्भज रूप में भी जन्म लेते हैं और संमूर्छिम रूप में भी जन्म लेते हैं। ३. उपपात जन्म : अपनी गति में तैयार शरीर के साथ उत्पन्न होना वह उपपात है। देवों का जन्म उपपात द्वारा होता है, जब उनका जन्म होता है तब वे युवान ही होते हैं। नरक के जीवों का जन्म उपपात द्वारा होता है। जब से उनका जन्म होता है तब से वे भयंकर दुःख में ही होते हैं । याद रखो : पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय जीवों का जन्म संमूर्छिम रूप से होता है। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय जीवों का जन्म संमूर्छिम रूप से होता है । मनुष्य के जीवों का जन्म गर्भज रूप में भी होता है और संमूर्छिम रूप में भी होता है। तिर्यंच के जीवों का जन्म गर्भज रूप में भी होता है और संमूर्छिम रूप में भी होता है। देवों के जीवों का जन्म उपपात रूप में होता है । नारकी के जीवों का जन्म उपपात रूप में होता है। इसप्रकार जीवों के जन्म के तो तीन विभाग होते हैं परन्तु मृत्यु तो सभी की एक जैसी होती है । जब अपना आयुष्य पूर्ण हो जाता है तब ये जीव मर जाते हैं। २६. जीवों के ५६३ भेद जीवों के बारह भेद हमने सीख लिये हैं। पर्याप्ति की समझ भी हमने प्राप्त कर ली है। संज्ञा की पहचान भी हमने कर ली है। सूक्ष्म और बादर की जानकारी हमको मिल गई है। अब हमको कुछ गहराई में जाना है। अब तक हमने जो कुछ सीखा उसके आधार से ही हमें जीवों के ५६३ भेद समझने है । ५६३ इन अंको से आपको डरने की कोई जरूर नहीं है। बहुत ही सरलता से यह गणित होता है। हमने बारह भेद जो आगे देखें उसमें इन भेदों का समावेश है। १. पृथ्वीकाय ४ भेद २. अप्काय ३. तेउकाय ४. वायुकाय ५. वनस्पतिकाय ६ भेद ६. बेइन्द्रिय ७. तेइन्द्रिय ८. चउरिन्द्रिय ९. पंचेन्द्रिय मनुष्य ३०३ भेद १०. पंचेन्द्रिय देव १९८ भेद ११. पंचेन्द्रिय तिर्यंच २० भेद १२. पंचेन्द्रिय नारकी १४ भेद अब गिनना शुरू करो एकेन्द्रिय २२ भेद विकलेन्द्रिय ६ भेद पंचेन्द्रिय ५३५ भेद +५३५ कुल मिलाकर कितने भेद हुए ? ५६३ 000mxxx बालक के जीवविचार • ३७ ३८ . बालक के जीवविचार Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof २७. एकेन्द्रिय के २२ भेद पृथ्वीकाय : ४ भेद : पृथ्वीकाय के जीव सूक्ष्म भी होते है, बादर भी होते हैं । १. जो सूक्ष्म पृथ्वीकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण करे वह सूक्ष्म पृथ्वीकाय पर्याप्त रूप से जाने जाते हैं। २. जो सक्ष्म पृथ्वीकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण न करे वह सूक्ष्म पृथ्वीकाय अपर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । ३. जो बादर पृथ्वीकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण करे वह बादर पृथ्वीकाय पर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । जो बादर पृथ्वीकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण न करे वह बादर पृथ्वीकाय अपर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । याद रखो : लब्धि अपर्याप्त जीव अकाल मरने के कारण अपर्याप्त गिना जाता है । करण अपर्याप्त जीव जहाँ तक पर्याप्ति पूर्ण न करे वहाँ तक अपर्याप्त गिना जाता है। अप्काय : ४ भेद : अप्काय के जीव सूक्ष्म भी होते हैं, बादर भी होते हैं । सूक्ष्म अप्काय के जीव पर्याप्ति पूर्ण करते हैं इसलिए सूक्ष्म अप्काय पर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । २. सूक्ष्म अप्काय के जीव पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते इसलिए सूक्ष्म अप्काय अपर्याप्त रूप से जाने जाते हैं। ३. बादर अप्काय के जीव पर्याप्ति पूर्ण करते हैं इसलिए बादर अप्काय पर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । ४. बादर अप्काय के जीव पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते इसलिए बादर अप्काय अपर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । तेउकाय : ४ भेद : तेउकाय के जीव सूक्ष्म भी होते हैं, बादर भी होते हैं । सूक्ष्म तेउकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण करते हैं इसलिए सूक्ष्म तेउकाय पर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । २. सूक्ष्म तेउकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते इसलिए सूक्ष्म तेउकाय अपर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । ३. बादर तेउकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण करते हैं इसलिए बादर तेउकाय पर्याप्त रूप से जाने जाते हैं। ४. बादर तेउकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते इसलिए बादर तेउकाय अपर्याप्त रूप से जाने जाते हैं। वायुकाय : ४ भेद : वायुकाय के जीव सूक्ष्म भी होते हैं, बादर भी होते हैं । १. सूक्ष्म वायुकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण करते हैं इसलिए सूक्ष्म वायुकाय पर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । २. सूक्ष्म वायुकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते इसलिए सूक्ष्म वायुकाय अपर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । ३. बादर वायुकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण करते हैं इसलिए बादर वायुकाय पर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । ४. बादर वायुकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते इसलिए बादर वायुकाय अपर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । वनस्पतिकाय : ६ भेद : साधारण वनस्पतिकाय के जीव सूक्ष्म भी होते हैं, बादर भी होते हैं । साधारण सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण करते हैं इसलिए साधारण सूक्ष्म वनस्पतिकाय पर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । २. साधारण सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते इसलिए साधारण सूक्ष्म वनस्पतिकाय अपर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । बालक के जीवविचार • ३९ ४० • बालक के जीवविचार Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ४. ५. ६. साधारण बादर वनस्पतिकाय के जीव पर्याप्ति पूरी करते हैं इसलिए साधारण बादर वनस्पतिकाय पर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । साधारण बादर वनस्पतिकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते इसलिए साधारण बादर वनस्पतिकाय अपर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । boy.pm5 2nd proof प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीव बादर होते हैं लेकिन सूक्ष्म नहीं होते । प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण करते हैं इसलिए प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय पर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय के जीव पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते इसलिए प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय अपर्याप्त रूप से जाने जाते हैं । पृथ्वीकाय के अप्काय के तेउकाय के वायुकाय के साधारण वनस्पतिकाय के प्रत्येक वनस्पतिकाय के एकेन्द्रिय के कुल ४ भेद ४ भेद ४ भेद ४ भेट ४ भेद २ भेद २२ भेद बालक के जीवविचार • ४१ २८. विकलेन्द्रिय के ६ भेद बेइन्द्रिय २ भेद : बेइन्द्रिय सूक्ष्म नहीं होते, बादर होते हैं । १. बेइन्द्रिय जीव अपनी पर्याप्ति पूर्ण करते हैं इसलिए बेइन्द्रिय पर्याप्त रूप से पहचाने जाते है । २. तेइन्द्रिय २ भेद : १. बेइन्द्रिय जीव अपनी पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते इसलिए बेइन्द्रिय अपर्याप्त रूप से पहचाने जाते है । तेइन्द्रिय सूक्ष्म नहीं होते, बादर होते हैं । तेइन्द्रिय जीव अपनी पर्याप्ति पूर्ण करते हैं इसलिए तेइन्द्रिय पर्याप्त रूप से पहचाने जाते है I २. तेइन्द्रिय जीव अपनी पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते इसलिए तेइन्द्रिय अपर्याप्त रूप से पहचाने जाते है । चउरिन्द्रिय २ भेद : चउरिन्द्रिय जीव सूक्ष्म नहीं होते, बादर होते हैं । १. चउरिन्द्रिय जीव अपनी पर्याप्ति पूर्ण करते हैं इसलिए चउरिन्द्रिय पर्याप्त रूप से पहचाने जाते है । २. चउरिन्द्रिय जीव अपनी पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते इसलिए चउरिन्द्रिय अपर्याप्त रूप से पहचाने जाते है । याद रखो : लब्धि अपर्याप्ता जीवों का आयुष्य पूर्ण होने से वे अपर्याप्त रह जाते हैं। करण अपर्याप्त जीव पर्याप्ति अपूर्ण है तब तक की जीवन्त अवस्था में अपर्याप्त होते हैं। आयुष्य लम्बा होने से वे पर्याप्त बनते हैं । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में दोनों प्रकार के अपर्याप्त होने की सम्भावना है । ४२ • बालक के जीवविचार Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof १. गर्भज मनुष्य पर्याप्ति पूर्ण करते हैं इसलिए गर्भज मनुष्य पर्याप्त रूप से पहचाने जाते हैं । इसके १०१ भेद । गर्भज मनुष्य पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते इसलिए गर्भज मनुष्य अपर्याप्त रूप से पहचाने जाते हैं | इसके १०१ भेद । ३. संमूर्छिम मनुष्य पर्याप्ति पूर्ण नहीं कर सकते इसलिए संमूर्छिम मनुष्य अपर्याप्त रूप से पहचाने जाते हैं । इसके १०१ भेद । १०१ गर्भज पर्याप्त मनुष्य । १०१ गर्भज अपर्याप्त मनुष्य । १०१ संमूर्छिम अपर्याप्त मनुष्य । कुल मिलाकर ३०३ मनुष्य के भेद हुए। ऊर्ध्वलोक देवलोक २९. पंचेन्द्रिय मनुष्य ३०३ भेद आज विश्व में सात खण्ड है ऐसा कहा जाता है । एशिया खण्ड, यूरोप खण्ड, रशिया खण्ड, अमेरिका खण्ड विगेरे । इस खण्ड में रहनेवाले मनुष्यमनुष्य रूप में तो एक समान ही है । परन्तु अलग अलग खण्ड में रहते हैं इसलिये उन्हें अलग अलग गिने जाते हैं । एशिया खण्ड में बहुत देश है । भारत, चीन, जापान विगेरे । इन देशों के मनुष्य अलग-अलग रहते है इसलिये उन्हें अलग-अलग गिने जाते हैं। भारत में रहनेवाला भारतीय, चीन में रहनेवाला चीनी, जापान में रहनेवाला जापानी । भारत में अन्दाज १७ प्रदेश है । गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, ओरिस्सा, मध्यप्रदेश विगेरे प्रदेशों में रहनेवाले मनुष्यों की भाषा, संस्कृति अलग होने से हर प्रदेश के रहेवासी भी अलग-अलग गिने जाते हैं । जैसे राजस्थान के राजस्थानी, गुजरात के गुजराती । इससे ये समझने को मिलता है कि जैसे-जैसे धरती बदलती है वैसे वैसे मनुष्य की पहचान बदलती है । देश और प्रदेश बदलते हैं वैसे मनुष्य की पहचान भी बदलती है। हमारे भगवान ने सम्पूर्ण विश्व का अवलोकन कर मनुष्य की १०१ पहचान द्वारा मनुष्य के १०१ भेद किये हैं । १०१ इतनी बड़ी संख्या देखकर घबराने की जरूरत नहीं है। बहुत ही सरल बात है। इस मनुष्यलोक में अलग-अलग १०१ स्थान है, जहाँ मनुष्यों के जीवन होते हैं। इन १०१ स्थान के आधार पर मनुष्य के १०१ भेद करने में आए हैं। वैसे तो १०१ स्थान के तीन विभाग है। १. कर्मभूमि, २. अकर्मभूमि, ३. अन्तर्वीप कर्मभूमि १५ है, अकर्मभूमि ३० है और अन्तर्वीप ५६ है । १५+३०+५६=१०१ कर्मभूमि निवासी मनुष्यों के १५ भेद अकर्मभूमि निवासी मनुष्यों के ३० भेद अन्तर्वीप निवासी मनुष्यों के ५६ भेद कुल मिलाकर मनुष्य के १०१ भेद होंगे । मनुष्य गर्भज भी होते हैं, संमूर्छिम भी होते हैं । तिच्छलोक अधोलोक नरकलोक बालक के जीवविचार .४३ ४४ • बालक के जीवविचार Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof ३०. मनुष्य लोक तिर्यक्लोक में जितनी जमीन है, उस जमीन के चारों तरफ सागर है, सागर के बीचो बीच रही हुई जमीन को हम द्वीप कहते हैं। इससे मालूम होता है कि तिर्यक्लोक में असंख्य द्वीप है, और असंख्य समुद्र है। कल्पना करो : पूजा करने की छोटी कटोरी है। उसे पानी से भरी हुई पूजा की छोटी थाली में रखते हैं। फिर इस थाली को हम नास्ता करने की प्लेट में रखते हैं। अब भरी हई प्लेट को खाना खाने की बड़ी थाली में रखते हैं। अब इस थाली को हम पानी ठारने की या आटा गूंथने की परात में रखते हैं। इस परात को उठा के हम बड़े राउन्ड टेबल पर रखते हैं। इस टेबल को हम बड़ी राउन्ड कार्पेट पर रखते हैं। यह कार्पेट जहाँ बिछाई हुई है उसके चारों और बहुत बड़ा मैदान है। थक गये ? नहीं, तो अब इस राउन्ड में क्या क्या आता है, देख लें । १. बड़ा राउन्ड मैदान है, उसके अन्दर राउन्ट कट वाली कार्पेट है जो ग्राउन्ड से छोटी है। २. बड़ी राउन्ड कट कार्पेट है, उसके ऊपर राउन्ड टेबल है जो कार्पेट से छोटा अब प्रश्न यह होगा कि ये कर्मभूमि, अकर्मभूमि और अन्तर्वीप क्या है? उत्तर थोड़ा लम्बा होगा । हमारे भगवान ने मनुष्य के लिए मनुष्यगति और मनुष्यलोक की बातें बहुत ही लम्बी-चौड़ी बताई है। मनुष्यगति तो हमे पता है, मनुष्यलोक की बात को समझना पडेगा । जैन धर्म के अनुसार यह विश्व चौद राजलोक तक फैला हुआ है। उसके तीन विभाग होते हैं। [देखो पेज नं. ४४ का नक्शा] १. ऊर्ध्वलोक, २. अधोलोक, ३. तिच्छालोक । विमानवासी के देवता ऊर्ध्वलोक में जन्म लेते हैं। पातालवासी देवता और नारकी के जीव अधोलोक में जन्म लेते हैं। मनुष्य के जीव तिर्छलोक में जन्म लेते हैं । ति»लोक को मध्यलोक भी कहते हैं क्योंकि वह ऊर्ध्वलोक और अधोलोक के मध्य में आया हुआ है। तिर्छलोक को तिर्यक्लोक नाम से भी पहचान जाता है क्योंकि इसकी ऊँचाई से चोडाई विशेष है । तिर्यक्लोक में ज्यादा ऊपर नहीं जाना है। तिर्यक्लोक में ज्यादा नीचे भी नहीं जाना है। तिर्यक्लोक में चारों तरफ जाना होता है। तिर्यक्लोक मनुष्यगति और तिर्यंचगति का स्थान है। ऊर्ध्वलोक देवगति का स्थान है । अधोलोक नरकगति का स्थान है। अधोलोक के पहले भाग में कुछ देवों के स्थान भी है। तिर्यक्लोक में जमीन भी है और सागर भी है। तिर्यक्लोक में जितनी जमीन है उससे दुगुना स्थान सागर का है। तिर्यक्लोक में जितने सागर है उससे आधा भाग जमीन का है। तिर्यक्लोक की शुरूआत में जमीन है। तिर्यक्लोक के अन्त में सागर है। इस जमीन और सागर के बीच में असंख्य जमीन और सागर है। ३. राउन्ट टेबल है, उसके उपर बड़ी परात है जो टेबल से छोटी है। ४. बड़ी परात है, उसके अन्दर थाली है जो परात से छोटी है। ५. अब इस थाली में जो प्लेट है वो थाली से छोटी है । ६. इस प्लेट में पूजा की थाली है, जो प्लेट से छोटी है। ७. पूजा की थाली में कटोरी है जो पूजा की थाली से छोटी है । [बराबर समझ गये ना? दूसरी बार फिर से पढ़ लो] यह तो उदाहरण है, इसके आधार से हमको द्वीप और सागर की समझ पानी है। सबसे प्रथम द्वीप होता है। उसके बाद सागर होता है। तिर्यक्लोक की व्यवस्था इसी तरह हई है। द्वीप से मध्यभाग की शुरूआत होती है, जहाँ द्वीप पूरा होता है वहाँ से सागर शुरू होता है। इस सागर का फैलाव द्वीप से दुगुना होता है। सागर द्वीप के चारों ओर फैला हुआ होता है. इस सागर के चारों और किनारे आते हैं। जहाँ सागर चारों ओर पूरा होता है वहाँ से दूसरी जमीन, दूसरा द्वीप शुरू होता है। इस द्वीप का फैलाव तो सागर से भी दुगुना होता है। यह द्वीप लम्बा होने के बावजूद भी उसका किनारा आता है। जहाँ द्वीप का किनारा आता है वहाँ से फिर ४६ • बालक के जीवविचार बालक के जीवविचार . ४५ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नया सागर शुरु होता है। यह सागर तो इस द्वीप से भी दुगुना होता है। इसका अर्थ क्या हुआ ? समझ गये आप ? पहले सागर से दूसरा सागर चार गुना बड़ा होता है। यह सागर चारों ओर से जहाँ पूरा होता है वहाँ फिर से जमीन आती है, द्वीप शुरू होता है । यह द्वीप सागर से दुगुना ही होता है । यह तीसरा द्वीप हुआ । द्वीप boy.pm5 2nd proof सागर द्वीप सागर द्वीप इस प्रकार द्वीप और समुद्र, द्वीप और समुद्र की असंख्य गिनती चलती ही रहती हैं, सबसे अन्त में समुद्र आता है, उसकी चौड़ाई और लम्बाई सबसे बड़ी होती है । परन्तु हमको अभी उस समुद्र की बात नहीं करनी । हम तीसरे द्वीप पर रूके हुए है । उसकी बात करेंगे, एक से तीन द्वीप तक पहुँचने के बालक के जीवविचार • ४७ लिए बीच में दो समुद्र पार करने पड़ते हैं । १. पहले द्वीप का नाम है जम्बूद्वीप । यह द्वीप थाली जैसा गोल आकार में है । २. पहले समुद्र का नाम है लवणसमुद्र । इसका आकार कंगन जैसा गोल है । ३. दूसरे द्वीप का नाम है धातकी खण्ड । इस द्वीप का आकार कंगन जैसा गोल है । ४. दूसरे समुद्र का नाम है कालोदधि समुद्र । इस समुद्र का आकार कंगन जैसा गोल है । ५. तीसरे द्वीप का नाम है पुष्करवर । इस द्वीप का आकार कंगन जैसा गोल है । पुष्करवर द्वीप, धातकीखण्ड और अन्य द्वीप कंगन जैसे गोल आकार में होते हैं। तो लवणसमुद्र, कालोदधि समुद्र और अन्य समुद्र भी कंगन जैसे गोल आकार में ही है। केवल जम्बूद्वीप का आकार ही थाली जैसा गोल है। पुष्करवर द्वीप के बीचो-बीच एक पर्वतमाला है। यह पर्वतमाला भी कंगन की तरह गोल आकार में सम्पूर्ण पुष्करवर के बीचो-बीच फैली हुई है। इस पर्वतमाला के कारण पुष्करवर द्वीप के दो विभाग हो जाते है, एक विभाग तो कालोदधि समुद्र को छूता है, दूसरा विभाग तीसरे समुद्र को छूता है । पुष्करवर द्वीप के मध्य पर्वतमाला से आगे मनुष्य होने की सम्भावना नहीं है । इसलिए यह पर्वतमाला मानुषोत्तर पर्वत के नाम से पहचानी जाती है । विशेष बात तो यह समझनी थी कि जम्बूद्वीप से लेकर मानुषोत्तर पर्वत तक के विस्तार को मनुष्य लोक कहा जाता है। इसमें १. जम्बूद्वीप, २. धातकीखण्ड, ३. पुष्करवर का पहला भाग समाविष्ट है । मनुष्य गति में जन्म लेने वाले इस मनुष्य लोक में ही जन्म लेते हैं । मनुष्य गति में जन्म लेने वाले इस मनुष्य लोक में ही मरते हैं । मनुष्य लोक को ढाइ द्वीप के नाम से भी पहचानते हैं । ४८ • बालक के जीवविचार Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof ३१. मनुष्य के १०१ भेद जम्बूद्वीप का विस्तार १ लाख योजन का है [१ योजन के अन्दाज ८ माईल होते है] लवणसमुद्र का विस्तार २ लाख योजन का है। धातकीखण्ड द्वीप का विस्तार ४ लाख योजन का है। कालोदधि समुद्र का विस्तार ८ लाख योजन का है। पुष्करवर द्वीप का प्रथम भाग का विस्तार ८ लाख योजन का है। मनुष्यलोक में कर्मभूमि और अकर्मभूमि ऐसे दो विभाग होते हैं । कर्मभूमि तीन है। (१) भरतक्षेत्र (२) ऐरावत क्षेत्र (३) महाविदेह क्षेत्र १. जम्बूद्वीप में १ भरत क्षेत्र है। १ ऐरावत क्षेत्र है। १ महाविदेह क्षेत्र है। २. धातकीखण्ड में २ भरत क्षेत्र है। २ ऐरावत क्षेत्र है। २ महाविदेह क्षेत्र है। ३. पुष्करवरार्ध द्वीप में २ भरत क्षेत्र है। २ ऐरावत क्षेत्र है। २ महाविदेह क्षेत्र है। जम्बूद्वीप में ३ कर्मभूमि है। धातकीखण्ड में ६ कर्मभूमि है। पुष्करवरार्ध द्वीप में ६ कर्मभूमि है । कुल मिलाकर १५ कर्मभूमि होती है । अकर्मभूमि छह है। (१) हिमवन्त (२) हिरण्यवन्त (३) हरिवर्ष (४) रम्यक्षेत्र (५) देवकुरु (६) उत्तरकुरु ये छह अकर्मभूमि जम्बूद्वीप में एक-एक है। जम्बूद्वीप में कुल मिलाकर ६ अकर्मभूमि है । ये छह अकर्मभूमि धातकीखण्ड में दो-दो है । कुल मिलाकर १२ । पुष्करवरार्ध में ये छह अकर्मभूमि दो-दो है । कुल मिलाकर १२ । सब मिलाकर ३० अकर्मभूमि है । जम्बूद्वीप में शिखरी पर्वत से पूर्व और पश्चिम तरफ समुद्र में पर्वत की २-२ दाढ़ाएँ निकलती है। लघुहिमवन्त से भी पूर्व और पश्चिम तरफ समुद्र में पर्वत की २-२ दाढ़ाए निकलती है। दाढ़ा यानी गहरे-गहरे पानी में पर्वत । इसका आकार हाथी के दाँत जैसा होता है। इस प्रकार कुल ८ दाढ़ाएँ निकलती है। हर दाढ़ा में सात अन्तर्वीप होते हैं । ८४७ = ५६ अन्तर्वीप होते हैं । इन द्वीपों में असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले युगलिक रहते हैं। समुद्र के अन्दर होने से ये द्वीप अन्तर्वीप कहलाते हैं । १५. कर्मभूमि : जम्बूद्वीप के एकदम बीचो-बीच मेरुपर्वत है । मेरुपर्वत की पूर्वदिशा में महाविदेह क्षेत्र है। मेरुपर्वत की पश्चिमदिशा में भी महाविदेह क्षेत्र है । मेरुपर्वत की दक्षिणदिशा में चार क्षेत्र है। मेरुपर्वत को छूकर उत्तरकुरु क्षेत्र है । उससे कुछ दूर रम्यक् क्षेत्र है । उससे कुछ दूर हिरण्यवन्त क्षेत्र है। उससे कुछ दूर ऐवत क्षेत्र है। मेरुपर्वत की उत्तरदिशा में, चार क्षेत्र है। मेरुपर्वत को छूकर देवकुरु क्षेत्र है । बालक के जीवविचार • ४९ ५० • बालक के जीवविचार Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof देवकुरु से कुछ दूर हरिवर्ष क्षेत्र है। उससे कुछ दूर हिमवन्त क्षेत्र है । उससे कुछ दूर भरतक्षेत्र है । नीचे दिए हुए चित्र द्वारा इस बात को समझ सकेंगे । जम्बूद्वीप जम्बूद्वीप में एक मेरुपर्वत है । उसके साथ तीन कर्मभूमि देखनी हो तो इस चित्र से देख सकते हैं । जम्बूद्वीप ३ कर्मभूमि उत्तर ऐखत क्षेत्र उत्तर ऐवत क्षेत्र हिरण्यवन्त क्षेत्र रम्यक् क्षेत्र उत्तरकुरु - महाविदेहक्षेत्र मेरुपर्वत -महाविदेहक्षेत्र - पश्चिम | _ पश्चिम -महाविदेहक्षेत्र मेरुपर्वत ८-महाविदेहक्षेत्र - -देवकुरुहरिवर्ष क्षेत्र भरत क्षेत्र हिमवन्त क्षेत्र भरत क्षेत्र दक्षिण दक्षिण जम्बूद्वीप में तीन कर्मभूमि हैं, वो इस चित्र में नाम लिखे हैं उसी प्रकार अलग-अलग जगह पें हैं। चित्र में मेरुपर्वत के दोनों तरफ महाविदेह क्षेत्र है, जम्बूद्वीप में, मेरुपर्वत के दोनों तरफ महाविदेह क्षेत्र है, जम्बूद्वीप में, मेरुपर्वत के उपरी तरफ सबसे अन्त में ऐरावत क्षेत्र है, मेरुपर्वत के नीचे की तरफ सबसे अन्त में भरतक्षेत्र हैं। जम्बूद्वीप में छह अकर्मभूमि है, इससे पूर्ववर्ती चित्र में नाम लिखे हैं उसी प्रकार अलग-अलग जगह पर है । चित्र में मेरुपर्वत के नीचे की तरफ बिल्कुल पास में देवकर है। उसके नीचे हरिवर्ष क्षेत्र है। उसके नीचे हिमवन्त क्षेत्र है। चित्र में मेरुपर्वत के उपर की ओर बिल्कुल पास में उत्तरकुरु है। इसके उपर रम्यक्षेत्र है । उसके उपर हिरण्यवन्त क्षेत्र है । बालक के जीवविचार • ५१ ५२ . बालक के जीवविचार Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof जम्बूद्वीप में एक मेरुपर्वत है उनके साथ में छह अकर्मभूमि देखनी हो तो इस चित्र से देख सकते हैं । जम्बूद्वीप ६ अकर्मभूमि बीच में मेरुपर्वत है, धातकीखण्ड कंगन आकार का है. उसके बीच में छिद्र है, उसमें लवण समुद्र और जम्बूद्वीप है। धातकीखण्ड का विस्तार इन दोनों से बहुत बड़ा है, मध्यभाग दो तरफ आता है, जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत की लाइन में पूर्व तरफ एक मध्यभाग है। जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत की लाइन में पश्चिम तरफ दूसरा मध्यभाग है। धातकीखण्ड के ये दो मध्यभाग पर अलग-अलग मेरुपर्वत है, इस बात को चित्र द्वारा समझ सकेंगे । उत्तर हिरण्यवन्त क्षेत्र उत्तर रम्यक् क्षेत्र उत्तरकुरु मेरुपर्वत पश्चिम एदेवकरु पश्चिम | ०---- हविर्ष क्षेत्र हिमवन्त क्षेत्र -6→→→→→० पूर्व जम्बूद्वीप लवणसमुद्र दक्षिण धातकीखण्ड दक्षिण जम्बूद्वीप में तीन कर्मभूमि और छह अकर्मभूमि है उसको हमने देखा । कुल मिलाकर १५ कर्मभूमि और ३० अकर्मभूमि होती है। ये सब हमको देखना है। इसके लिए हम ढाइ द्वीप की व्यवस्था समझ लें । पुष्करवरार्ध द्वीप के बीच में मानुषोत्तर पर्वत है उसे भी हमने देखा । पुष्करखरद्वीप का आधा भाग पुष्करवरार्ध नाम से पहचाना जाता है | जम्बूद्वीप के बाद धातकीखण्ड और पुष्करवरार्ध इन दो स्थान में मनुष्य जन्म की सम्भावना है । जम्बूद्वीप थाली के आकार गोल होने के कारण बीच में छिद्र नहीं है, इसलिए जम्बूद्वीप के धातकीखण्ड कंगन आकार में है, उसी प्रकार पुष्करवरद्वीप भी कंगन आकार में है । पुष्करवरार्ध भी कंगन आकार का ही है । बालक के जीवविचार . ५३ ५४ • बालक के जीवविचार Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पुष्करवरार्ध में भी धातकीखण्ड की तरह दो मेरु है । चित्र द्वारा इस बात को समझ सकेंगे । मानुषोत्तर पर्व जम्बूद्वीप लवणसमुद्र धातकीखण्ड दधिसमुद्र पुष्करवरार्ध boy.pm5 2nd proof ० इस प्रकार ढाइ द्वीप में पाँच मेरुपर्वत है । हर मेरुपर्वत के साथ में तीन कर्मभूमि होती है । महाविदेह क्षेत्र ऐरवत क्षेत्र और भरतक्षेत्र । जम्बूद्वीप में एक मेरुपर्वत है इसलिए जम्बूद्वीप में तीन कर्मभूमि है । धातकीखण्ड में दो मेरुपर्वत है इसलिए धातकीखण्ड में छह कर्मभूमि है। पुष्करवरार्ध में दो मेरुपर्वत है इसलिए पुष्करवरार्ध में छह कर्मभूमि है । इस प्रकार जम्बूद्वीप में एक मेरु के साथ तीन कर्मभूमि है । धातकीखण्ड में दो मेरु के साथ छह कर्मभूमि है । पुष्करवरार्ध में दो मेरु के साथ छह कर्मभूमि है । बालक के जीवविचार • ५५ चित्र द्वारा इस बात को समझ सकेंगे । महा० महा० ऐरवत - २ ५६ • बालक के जीवविचार ऐरवत २ ऐरखत महाविदेह० महाविदेह भरत भरत-२ भरत २ म० म० १५ कर्मभूमि महा० महा० ढाइद्वीप में पाँच मेरु है । हर मेरुपर्वत के साथ में ६ अकर्मभूमि होती है । हिमवन्त, हिरण्यवन्त, हरिवर्ष, रम्यक् देवकुरु और उत्तरकुरु । जम्बूद्वीप में एक मेरुपर्वत है इसलिए छह अकर्मभूमि है । धातकीखण्ड में दो मेरुपर्वत है इसलिए बारह अकर्मभूमि है । पुष्करवरार्ध में दो मेरुपर्वत है इसलिए बारह अकर्मभूमि है । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof चित्र द्वारा इस बात को समझ सकेंगे । जम्बूद्वीप के बाहर लवण समुद्र है, जम्बूद्वीप से इस लवण समुद्र के पानीमें खड़े दो-दो पर्वत है, इस पर्वत को दाढा कहते हैं, हर दाढाओं में ७ अन्तीप होते हैं । कुल ८ दाढाएँ है । (१) ७ (५) २८ + ७ = ३५ (२) ७ + ७ = १४ (६) ३५ + ७ = ४२ (३) १४ + ७ = २१ (७) ४२ + ७ = ४९ (४) २१ + ७ = २८ (८) ४९ + ७ = ५६ इस प्रकार एक दाढा में ७ द्वीप हो तो ८ दाढाओं में ५६ अन्तर्दीप होते हैं। इस बात को चित्र से समझ सकेंगे । उत्तर हिरण्यवंत हिरण्यवंत हिरण्यवंत हिण्यवंत हिरण्यवंत राध्यक राध्यक उत्तरकुरु उत्तरकुरु उत्तरकरु उत्तरकुरु उत्तरकुरु देवकुरु देवक देवकुरु देवकुरु हरिवर्ष हरिवर्ष हिमवंत हरिवर्ष हरिवर्ष हरिवर्ष हिमवंत हिमवंत हिमवंत हिमवंत जंबूद्वीप लवण पूर्व समुद्र ढाइद्वीप ३० अकर्मभूमि दक्षिण जम्बूद्वीप - लवण समुद्रवर्ती ५६ अन्तर्वीप ५८ • बालक के जीवविचार बालक के जीवविचार . ५७ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof __ढाइ द्वीप में १५ कर्मभूमि और ३० अकर्मभूमि है । वह चित्र के माध्यम से समझ सकेंगे। हिरण्यवंत ऐश्वत ऐवत याद रखो : ढाइद्वीप के इस नक्शे में तीन द्वीप बताए है । लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र नही बताए । वे समुद्र दो द्वीप के बीच में है इस बात को भूलना नहीं है। जम्बूद्वीप में भी कर्मभूमि और अकर्मभूमि ही है ऐसा नहीं है । जम्बूद्वीप में निषध, निलवन्त, हिमवन्त, महाहिमवन्त, रुक्मी और शिखरी और वैताढ्य ये सात पर्वत है। इन पर्वतों की बातें जीवविचार के विषय में उपयोगी नहीं होने से हमने इसका उल्लेख नहीं किया । जब लघु संग्रहणी सीखेंगे तब पर्वतों की बातों को सीखना होगा । जिसे हम इस चित्र द्वारा समझ सकेंगे । ढाइद्वीप का मूल नक्शा हिरण्यवंत /एरवत ऐश्वत स्यकवर्षम्यक्वर्ष हिरण्यवंत हिरण्यवंत रम्यक्वर्ष यक्वर्ष रम्यवर्ष उत्तरकुरु मावि उत्तरकुरु महाविदेह उतरकर उत्तरकुरु महाविदेह उत्तरकुरु ___ महाविदेड - | महा () विदेह KRITERSILLAND देवकरु देवकुरु देवकुरु देवकुरु TRUIRLS हरिवर्थ / हरिवर्ष / हरिवर्ष हरिवर्ष KRAMATA ATARNADIRRITA हरिवर्ष हिमवंत / हिमवंत NEDha हिमवेत भरत भरत हिमवेत भरत वर क्षेत्र @KS पर्वत न BIDEO AMONALITIES AREQuढय/. andमतोत्र M यह नक्शा है, उसको निम्न कोष्ठक द्वारा समझ सकेंगे । | मेरु | कर्मभूमि | अकर्मभूमि | अन्तर्वीप जम्बूद्वीप - १ धातकीखण्ड | २ ६ १२ पुष्करार्ध ढाइद्वीप । ५ । १५ । ३० । N VERसमुदत RA पु७२ पाय |mwwL SonRIBE - HARSA बालक के जीवविचार • ५९ ६० • बालक के जीवविचार Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ कर्मभूमि, ३० अकर्मभूमि और ५६ अन्तद्वीप के १०१ मनुष्य होते है। १०१ भेद है, ये १०१ भेदवाले मनुष्य गर्भज भी होते हैं और संमूर्छिम भी होते है, गर्भज मनुष्य पर्याप्ता भी होते हैं और अपर्याप्ता भी होते हैं, संमूर्छिम मनुष्य पर्याप्त नहीं होते, वे अपर्याप्त ही होते है । १०१ गर्भज मनुष्य पर्याप्ता १०१ गर्भज मनुष्य अपर्याप्ता १०१ संमूर्छिम मनुष्य अपर्याप्ता ३०३ मनुष्य के भेद हुए । boy.pm5 2nd proof 30000 बालक के जीवविचार ६१ ३२. महाविदेह २० तीर्थंकर मेरुपर्वत के आस-पास महाविदेह क्षेत्र होता है। यह हमने सीख लिया । इस महाविदेह क्षेत्र के चार विभाग होते हैं। एक मेरुपर्वत के साथ में चार महाविदेह होते हैं। जम्बूद्वीप में एक मेरु है तो जम्बूद्वीप में महाविदेह चार है, धातकीखण्ड में दो मेरु है तो महाविदेह आठ है। पुष्करार्ध में दो मेरु है तो महाविदेह आठ है । जम्बूद्वीप में चार महाविदेह, धातकीखण्ड में आठ महाविदेह, पुष्करार्ध में आठ महाविदेह इस प्रकार कुल २० महाविदेह क्षेत्र है, इस बात को चित्र द्वारा समझ सकेंगे । ४ महा. ६२ • बालक के जीवविचार ३ महा. पुष्करार्ध धातकीखण्ड जंबुद्वीप O १४ महा २ म म म. ढाइद्वीप : २० महाविदेह ये २० महाविदेह क्षेत्र इस मनुष्यलोक की सर्वश्रेष्ठ जगह है। इस २० महाविदेह क्षेत्र में सदाकाल तीर्थंकरो का विचरण होता है। इन २० महाविदेह क्षेत्र में सदाकाल मोक्षगमन चालु रहता है । २० महाविदेह क्षेत्र यह सर्वोत्तम तीर्थ भूमि है । जम्बूद्वीप में चार महाविदेह है। जम्बूद्वीप में चार तीर्थंकर है । धातकीखण्ड में आठ महाविदेह है । धातकीखण्ड में आठ तीर्थंकर है। पुष्करार्ध में आठ महाविदेह है । पुष्करार्ध में आठ तीर्थंकर है । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. मनुष्यलोक boy.pm5 2nd proof एक जम्बूद्वीप है । उसमें एक मेरु है, तीन कर्मभूमि है। छह अकर्मभूमि है, चार महाविदेह है । एक धातकीखण्ड है । उसमें दो मेरु है । छह कर्मभूमि है, बारह अकर्मभूमि है । आठ महाविदेह है । एक पुष्करवरार्ध है । उसमें दो मेरु है। छह कर्मभूमि है। बारह अकर्मभूमि है। आठ महाविदेह है । कर्मभूमि : जहाँ असि-मसि - कृषि का व्यापार हो उसे कर्मभूमि कहते है । जहाँ मनुष्य शस्त्रो का उपयोग करते है, लिखने, दोरने की प्रवृत्ति करते हैं और खेतीकाम, व्यापार आदि करते हैं वह कर्मभूमि है । जहाँ से मोक्ष जा सकते हैं वह कर्मभूमि है | अकर्मभूमि : जहाँ असि मसि - कृषि का व्यापार नहीं होता उसे अकर्मभूमि कहते है । जहाँ मनुष्य शस्त्रों का उपयोग नहीं करते। लिखने दोरने की प्रवृत्ति नहीं होती । खेतीकाम और व्यापार के बिना चल सकता है उसे अकर्मभूमि है । मनुष्यलोक की बात करने के बाद अब देवलोक की बात करेंगे । *** बालक के जीवविचार • ६३ ३४. देवों के १९८ भेद ऊर्ध्वलोक में देवगति है, जो देवगति में जन्म लेता है वह देव कहलाता है । देवों के १९८ भेद है। ये भेद देवलोक के अलग-अलग स्थानों के आधार पर निश्चित हुए है । अनुत्तर देव ग्रैवेयक देव वैमानिक देव लोकान्तिक देव किल्बिषिक देव चर ज्योतिष देव स्थिर ज्योतिष देव वाणव्यन्तर देव व्यन्तर देव परमाधामी देव भवनपति देव तिर्यक्भक देव कुल देव देवों के ९९ भेद पर्याप्ता ९९ भेद अपर्याप्ता कुल १९८ भेद होते हैं । याद रखो : ५ ९ ६४ • बालक के जीवविचार १२ ९ ३ ५ ५ ८ ८ १५ १० १० ९९ देव करण अपर्याप्ता होते हैं । लब्धि अपर्याप्ता नहीं होते । देव पर्याप्ति पूर्ण न करे वहाँ तक अपर्याप्त कहलाते हैं । देव पर्याप्ति पूर्ण कर ले तब पर्याप्त कहलाते हैं। देव पर्याप्त अधूरी रखकर मरे ऐसा कभी नहीं बनता । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof इस चित्र में बताया है इसके अनुसार इसमें सबसे उपर ५ अनुत्तर देव है। उसके नीचे ९ ग्रैवेयक देव है । उसके नीचे अलग-अलग जगह पें १२ वैमानिक देव है, किल्बिषिक देवों की तीन जगह अलग है। मेरुपर्वत के ४० ने अनुत्तर देव-५ →ग्रैवेयक देव-९ वैमानिक (१२) lee | किल्बिषिक 10000 देवों के नाम इस प्रकार है । भवनपति : (१) असुरकुमार, (२) नागकुमार, (३) सुवर्णकुमार (४) विद्युतकुमार, (५) अग्निकुमार, (६) द्वीपकुमार (७) उदधिकुमार, (८) दिशिकुमार, (९) पवनकुमार (१०) स्तनितकुमार या मेघकुमार व्यंतर : (१) पिशाच, (२) भूत, (३) यक्ष, (५) राक्षस (५) कंदित, (६) महाकंदित (७) कोहंड, (८) पतंग तिर्यक् जुंभक : (१) अन्न जुंभक, (२) पान ज़ुभक, (३) वस्त्र जंभक, (५) लेण (घर) मुंभक (५) पृष्ट मुंभक, (६) फल मुंभक, (७) पुष्प मुंभक, (८) शयन मुंभक, (९) विद्या मुंभक, (१०) अवियत्त मुंभक परमाधामी देव : (१) अम्ब (२) अम्बरिष (३) श्याम (४) शबल (५) रुद्र (६) उपरुद्र (७) काल (८) महाकाल (९) असिपत्र (१०) वण (११) कुम्भी (१२) बालुका (१३) वैतरणी (१४) खरस्वर (१५) महाघोष ज्योतिष : चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा देवलोक : (१) सौधर्म (२) इशान (३) सनत्कुमार (४) माहेन्द्र (५) ब्रह्मलोक (६) लान्तक (७) महाशुक, (८) सहस्रार (९) आनत (१०) प्राणत (११) आरण (१२) अच्युत लोकान्तिक : (१) सारस्वत (२) आदित्य (३) वह्नि (४) अरूण (५) गर्दतोय (६) किल्बिषिक से किल्बिषिक ( ज्योतिष देव वाणव्यंतर - व्यतर -(LI भवनपति आसपास ज्योतिष देव रहते है । मेरुपर्वत के नीचे - जमीन के भीतर में वाणव्यंतर विगेरे देवों के स्थान है। बालक के जीवविचार • ६५ ६६ • बालक के जीवविचार Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof तृषित (७) अव्याबाध (८) मरूत ( ९ ) अरिष्ट । ग्रैवेयक : (१) सुदर्शन (२) सुप्रतिबद्ध, (३) मनोरम (४) सर्वभद्र (५) सुविशाल (६) सुमनस (७) सौमनस (८) प्रियंकर (९) नन्दीकर अथवा दूसरी तरह से ग्रैवेयक देवों की पहचान | (१) हिट्टिम - हिट्टिम, (२) हिठ्ठिम- मध्यम, (३) हिट्ठिम उवरिम (४) मध्यम, हिठ्ठिम (५) मध्यम- मध्यम (६) मध्यम उवरिम (७) हिट्टिम-उवरिम, (८) उवरिम - मध्यम (९) उवरिम उवरिम अनुत्तर: (१) विजय (२) वैजयन्त (३) जयन्त ( ४ ) अपराजित (५) सर्वार्थसिद्ध + बार देवलोक तक के देवों को कल्पोपन्न कहते है । ग्रैवेयक और अनुत्तर के देवों को कल्पातीत कहते है । + बालक के जीवविचार • ६७ ३५. पंचेन्द्रिय तिर्यंच - २० भेद तिर्यंच पंचेन्द्रिय के तीन भेद है। जलचर स्थलचर और खेचर । स्थलचर के तीन भेद है । चतुष्पद, उरपरिसर्प, और भुज परिसर्प इस प्रकार कुल ५ भेद हुए। ये ५ भेद गर्भज भी होते हैं और संमूर्छिम भी होते है । पर्याप्ता भी होते है और अपर्याप्ता भी होते हैं । ५x४ = बीस भेद हुए । विस्तार से बीस भेदों की समझ १. जलचर तिर्यंच गर्भज पर्याप्त ३. जलचर तिर्यच संमूर्छिम पर्याप्त ५. स्थलचर चतुष्पद गर्भज पर्याप्त ७. स्थलचर चतुष्पद संमूर्छिम पर्याप्त ९. स्थलचर उरपरिसर्प गर्भज पर्याप्त ११. स्थलचर उरपरिसर्प संमूहिम पर्याप्त २. जलचर तिर्यंच गर्भज अपर्याप्त ४. जलचर तिर्यंच संमूर्छिम अपर्याप्त ६. स्थलचर चतुष्पद गर्भज अपर्याप्त ८. स्थलचर चतुष्पद संमूर्छिम अपर्याप्त १०. स्थलचर उरपरिसर्प गर्भज अपर्याप्त १२. स्थलचर उरपरिसर्प संमूर्छिम अपर्याप्त १३. स्थलचर भुजपरिसर्प गर्भज पर्याप्त १४ स्थलचर भुजपरिसर्प गर्भज अपर्याप्त १५. स्थलचर भुजपरिसर्प संमूर्छिम पर्याप्त १६. स्थलचर भुजपरिपरिसर्प संमूर्छिम अपर्याप्त १७. खेचर तिर्यंच गर्भज पर्याप्त १९. खेतर तिर्यंच संमूर्छिम पर्याप्त याद रखो...... १८. खेचर तिर्यंच गर्भज अपर्याप्त २०. खेचर तिर्यच संमूर्छिम अपर्याप्त मनुष्य में अगर संमूर्छिम हो तो अपर्याप्त ही होते है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच में संमूर्छिम हो तो पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते है । खेचर के चार भेद है। इनका समावेश खेचरतिर्यंच इस एक ही भेद में करना है । चर्मज, रोमज, समुद्ग और वितत ये चार भेद तो केवल जानकारी के लिए ही किये थे, बाकी तिर्यंच के २० भेद में तो खेचर तिर्यंच यह एक ही भेद गिनना है । ६८ • बालक के जीवविचार Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof ३६. १४ नारकी जीव... मेरुपर्वत के नीचे, जमीन के भीतर में नीचे-नीचे क्रम से सात नरक है। सात नरक के नाम.... १. रत्नप्रभा, २. शर्कराप्रभा, ३. वालुकाप्रभा, ४. पंकप्रभा, ५. धूम प्रभा, ६. तमःप्रभा, ७. तमस्तमःप्रभा । इन सात नरक को दूसरे नामों से भी पहचाना जाता है । १. घम्मा २. वंशा ३. शेला ४. अञ्जना ५. रिष्टा ६. मघा ७. माघवती इन सात नरक में रहे हुए जीवों को नारकी जीव कहलाते हैं । सात नरक के हिसाब से नारकी जीवों के सात भेद है । सात नारकी जीव पर्याप्ता । सात नारकी जीव अपर्याप्ता । कुल चौदह [१४] नारकी जीव होते हैं । याद रखो : नारकी जीव करण अपर्याप्ता होते हैं, लब्धि अपर्याप्ता नहीं होते । नारकी जीव पर्याप्ति पूर्ण न करे वहाँ तक अपर्याप्त कहलाते हैं । नारकी जीव पर्याप्ति पूर्ण करे तब से पर्याप्त कहलाते हैं । सात नरक चित्र में इस प्रकार समझ सकते हैं । ३७. पाँच द्वार... एएसि जीवाणं, सरीरमाऊ-ठिई सकायम्मि । पाणाजोणि-पमाणं जेसि, जं अत्थि तं भणिमो ॥ जीवविचार गाथा २६ इन जीवों का पाँच तरीके से विचार करना है । (१) शरीर = अवगाहना (२) आयुष्य (३) स्वकायस्थिति (४) प्राण (५) योनि १. शरीर = अवगाहना जीव जन्म लेता है तो शरीर को प्राप्त करता है। शरीर है तो वह जी सकता है । संसारी जीव जन्म लेते है। संसारी जीव शरीर को प्राप्त करता है। प्रश्न यह है कि क्या सभी जीवों के शरीर एक समान है ? इसका उत्तर यह है कि सभी जीवों के शरीर एक समान नहीं होते । सभी जीवों के शरीर अलग-अलग होते हैं। किसी जीव के शरीर छोटे होते है तो किसी के बड़े। किसी के सूक्ष्म होते है तो किसी के विशाल | शरीर की लम्बाई, चौडाई और मोटाई, इसके आधार से जीवों के शरीर का क्या प्रमाण है वो समझा जाता है। जीव के शरीर के प्रमाण को अवगाहना कहते है । ५६३ भेद के जीवों के स्थूल गिनती से १२ भेद गिने तो बार भेद की अवगाहना अलग-अलग होती रत्न प्रभा शर्करा प्रभा वालुका प्रभा पंक प्रभा धूम प्रभा २. आयुष्य : जन्म लेने के बाद कितने वर्ष जीना है वह आयुष्य द्वारा निश्चित होता है। १०० साल तक जिन्दा रहता है उसका आयुष्य १०० साल का कहलाता है । आयुष्य दो प्रकार के होते हैं । (१) सोपक्रम (२) निरुपक्रम सोपक्रम :- जितने वर्ष का आयुष्य हो, उतने साल तक जीने के बदले अकस्मात, रोग या आघात के कारण आयुष्य जल्दी पूरा हो जाए तो वह सोपक्रम तमः प्रभा तमस्तमः प्रभा बालक के जीवविचार • ६९ ७० • बालक के जीवविचार Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof कहलाता है। अकाल मृत्यु पानेवालों का आयुष्य प्रायः सोपक्रम होता है। निरुपक्रम :- आयुष्यकाल की मर्यादा पूर्ण होने के बाद ही मरते है उसका निरुपक्रम आयुष्य होता है । देव, नारकी, तीर्थकर, चक्रवर्ती विगेरे आत्माओं का आयुष्य निरुपक्रम होता है। हर जीवों का आयुष्य अलग-अलग होता है । उसे समझने के लिए आयुष्य द्वारा का अभ्यास करना पड़ता है। ३. स्वकाय स्थिति :- पृथ्वीकाय हो या पंचेन्द्रिय जीव हो । आयष्य पूरा होने के बाद उसे नया जन्म लेना पड़ता है। मरने के बाद हम नई गति में उत्पन्न होते है । अब पृथ्वीकाय मर जाय बाद में फिर से पृथ्वीकाय के रूप में ही जन्म लेता है ? पंचेन्द्रिय मनुष्य मर जाए बाद में फिर से पंचेन्द्रिय मनुष्य के रूप में ही जन्म लेता है? इस सवाल का जवाब है, हाँ । पृथ्वीकाय मरकर फिर से पृथ्वीकाय के रूप से जन्म ले सकते है। पंचेन्द्रिय मनुष्य मरकर फिर से पंचेन्द्रिय के रूप से जन्म ले सकते हैं । परन्तु हमेशा के लिए ऐसा नहीं बनता। पृथ्वीकाय का जीव पृथ्वीकाय में ही फिर से जन्म लेता है। ऐसा कितनीबार बन सकता है वो हमको स्वकायस्थिति द्वार से समझने को मिलता है। पंचेन्द्रिय मनुष्य पंचेन्द्रिय के रूप में फिर से जन्म लेता है - ऐसा कितनी बार तक बन सकता है वो हमको स्वकाय स्थितिद्वार से समझने को मिलता ३८. अवगाहना अवगाहना यानी शरीर का क्षेत्रविस्तार । जिस प्रकार शरीर के माप अलगअलग होते है उसी प्रकार अवगाहना भी अलग होती है । अवगाहना-अंगुल, हाथ, धनुष्य, गाउ और योजनादि अलग-अलग माप द्वारा निश्चित होती है। यह माप सामान्य रूप से ऐसे गिना जाता है । एक अंगुल का वेढा = एक जव आठ जव = एक अंगुल छह अंगुल = एक पाद दो पाद - एक वेंत दो वेत = एक हाथ चार हाथ - एक धनुष्य दो हजार धनुष - एक कोश एक कोश - एक गाउ चार कोश = एक योजन इस प्रकार माप निश्चित होते है। इस माप से शरीर की अवगाहना गिन सकते हैं । अवगाहना दो प्रकार से गिनी जाती है । (१) उत्कृष्ट अवगाहना, (२) जघन्य अवगाहना उत्कृष्ट अवगाहना यानी ज्यादा से ज्यादा हो सके उतनी अवगाहना। जघन्य यानी कम से कम हो सके उतनी अवगाहना । जीवविचार के लिए जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना गिनती में ली जाती है। इस गति के जीवों में सबसे ज्यादा अवगाहना इतनी है, ऐसा बताने में आता है। हालाँकि तब उस गति के सभी जीवों की अवगाहना इतनी नही होती । परन्तु उस जीव में ज्यादा से ज्यादा अवगाहना इतनी है, इस माप से ज्यादा अवगाहना इन जीवों की नहीं होती ऐसा बताने में आता है। + पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल का असंख्यातवा भाग है । + अप्काय की उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल का असंख्यातवा भाग है । ४. प्राण :- जीने के लिए शरीर चाहिए, शरीर में जीवनशक्ति चाहिए। शरीर में आत्मा, जीवनशक्ति द्वारा रहती है। उस जीवनशक्ति को प्राण कहते है। एकेन्द्रिय जीव, विकलेन्द्रिय जीव और पंचेन्द्रिय जीवों में कितने प्राण होते है उसे हम प्राण द्वार से समझेंगे । योनि :- जीवों के उत्पत्ति स्थान को योनि कहते है। जीवों के उत्पति स्थान असंख्य है। परन्तु जिन-जिन स्थानों में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और संस्थान की समानता है उन स्थानों को यदि एक गिना जाए तो ऐसे ८४ लाख योनियाँ है। कौन से जीवों की कितनी योनियाँ है उसे हम योनिद्वार से समझेंगे । बालक के जीवविचार • ७१ ७२ • बालक के जीवविचार Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof + + + + + + तेउकाय की उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल का असंख्यातवा भाग है । वायुकाय की उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल का असंख्यातवा भाग है । + साधारण वनस्पतिकाय की उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल का असंख्यातवा भाग है। प्रत्येक वनस्पतिकाय की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन है । + बेइन्द्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना बारह योजन है । + तेइन्द्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना ३ गाउ है । + चउरिन्द्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना एक योजन है । पंचेन्द्रिय मनुष्य गर्भज की उत्कृष्ट अवगाहना तीन गाउ है । + पंचेन्द्रिय मनुष्य संमूर्छिम की उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल का असंख्यातवा भाग है। + पंचेन्द्रिय देवों की उत्कृष्ट अवगाहना ७ हाथ है। + पंचेन्द्रिय तिर्यंच गर्भज की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन है । + पंचेन्द्रिय तिर्यंच संमूर्छिम की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन है । + पंचेन्द्रिय नारकी की उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष है । याद रखो : इन जीवों की अवगाहना इतनी है इसका अर्थ यह हुआ कि इन जीवों का शरीर प्रमाण इतना है । उदाहरण, प्रत्येक वनस्पतिकाय की अवगाहना १००० योजन की है। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक वनस्पतिकाय का शरीर प्रमाण १००० योजन जितना होता है। ३७. आयुष्य आयुष्य को समझने के लिए काल का प्रमाण समझना चाहिए । काल का सबसे सूक्ष्म रूप है समय । समय बहुत ही बारीकाई से मापा जाता है। हम श्वास लेते है इतने में तो असंख्य समय निकल जाते है। काल की गिनती आवलिका से शुरू होती है । असंख्य समय - १ आवलिका |३० मुहूर्त = १ दिन २५६ आवलिका - १ क्षुल्लकभव | १५ दिन = १ पक्ष १७|| क्षुल्लकभव = १ श्वासोश्वास २ पक्ष = १ मास ७ प्राण १ स्तोक |२ मास ७ स्तोक १ लव |३ ऋतु = १ अयन ७७ लव १ मुहूर्त २ अयन = १ वरस १ मुहूर्त __= ४८ मिनिट ८४ लाख वरस = १ पूर्वांग १ मुहूर्त = २ घडी ८४ लाख पूर्वांग - १ पूर्व __ काल को मापने के लिए दो शब्दों के अर्थ समझने चाहिये है। पल्योपम, सागरोपम । पल्योपम :- एक गहरा कूवा है । वह एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा है। इस कूप को सात दिन के उम्र के युगलिक के एक-एक बाल के असंख्य टुकड़ों से इस तरह ठसाठस भर दिया जाए कि उसके ऊपर से चक्रवर्ती की विशाल सेना, हजारों-लाखों सैनिक कुचल कर जाते है तो भी वह बिलकुल नहीं । दबता इस प्रकार ठसाठस भरे हुए खड्डे में कितने सारे बाल के टुकड़े होंगे? कल्पना तो करो । अब इस खड़े में से सौ-सौ वर्ष के अन्तर से बाल का एक-एक टुकड़ा निकालते रहे तो वह कितने वर्षों के बाद खाली होगा ? बहुत ज्यादा समय लगेगा । और माप तो निकलेगा ही नही वर्ष का । इस प्रकार खड़ा खाली करने में जितना समय लगे उसे पल्योपम कहते है । देवों का, नारकियों का आयुष्य मापने के लिए पल्योपम शब्द का उपयोग होता है। बालक के जीवविचार • ७३ ७४ • बालक के जीवविचार Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक करोड़ पल्योपम दस कोडाकोडी पल्योपम = एक करोड़ पल्योपम एक कोडा कोडी पल्योपम एक सागरोपम एक करोड़ सागरोपम १० कोडाकोडी सागरोपम एक करोड़ एक सागरोपम कोडाकोडी सागरोपम १ अवसर्पिणी या १ उत्सर्पिणी। इस पल्योपम और सागरोपम की भाषा में हमको कुछ जीवों का आयुष्य समझना है । = = पृथ्वीकाय का आयुष्य २२००० वरस का है । अप्काय का आयुष्य ७००० वरस का है । ते काय का आयुष्य ३ दिन का है। boy.pm5 2nd proof वायुकाय का आयुष्य ३००० वरस का है । साधारण वनस्पतिकाय का आयुष्य १ अन्तर्मुहूर्त का है । प्रत्येक वनस्पतिकाय का आयुष्य १००० वरस का है । बेइन्द्रिय का आयुष्य १२ वरस का है । तेइन्द्रिय का आयुष्य ४९ दिन का है । चउरिन्द्रिय का आयुष्य ६ माह का है । पंचेन्द्रिय मनुष्य गर्भज का आयुष्य ३ पल्योपम का है । पंचेन्द्रिय मनुष्य संमूर्छिम का आयुष्य १ अन्तर्मुहूर्त का है । पंचेन्द्रिय देव का आयुष्य ३३ सागरोपम है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच गर्भज का आयुष्य ३ पल्योपम है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच संमूर्छिम का आयुष्य १ करोड पूर्व वरस का है । पंचेन्द्रिय नारकी का आयुष्य ३३ सागरोपम है । बालक के जीवविचार • ७५ ४०. स्वकाय स्थिति जो जीव जिस गति में हो उसी ही गति में वह जीव जन्म ले तो कितने जन्म तक ऐसा हो सकता है ? इस प्रश्न का जवाब स्वकाय स्थिति द्वारा मिलता है। एक जीव अलग-अलग गति में जन्म लेता रहे तो वह स्वकाय स्थिति नहीं है। एक जीव, एक ही गति में जन्म लेता है और उसी ही भव में जन्म लेता है और वही जन्म बार-बार लेता है तब स्वकाय स्थिति बनती है। पृथ्वीकाय की स्वकाय स्थिति असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी है । अप्काय की स्वकाय स्थिति असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी है । तेउकाय की स्वकाय स्थिति असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी है । वायुकाय की स्वकाय स्थिति असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी है । प्रत्येक वनस्पतिकाय की स्वकाय स्थिति असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी है । साधारण वनस्पतिकाय का स्वकाय स्थिति अनंत उत्सर्पिणी अवसर्पिणी है । बेइन्द्रिय की स्वकाय स्थिति संख्यात वरस है । तेइन्द्रिय की स्वकाय स्थिति संख्याता वरस है । चउरिन्द्रिय की स्वकाय स्थिति संख्याता वरस है । पंचेन्द्रिय मनुष्य गर्भज की स्वकाय स्थिति सात से आठ भव है । पंचेन्द्रिय मनुष्य संमूर्छिम की स्वकाय स्थिति सात भव है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच गर्भज की स्वकाय स्थिति सात से आठ भव है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच संमूर्छिम की स्वकाय स्थिति सात से आठ भव है । याद रखो : देव और नारकी मरकर फिर से अपनी ही गति में कभी जन्म नहीं लेते। यानी देव मरकर वापिस देवगति में जन्म नहीं लेता और नारकी मरकर वापिस नरकगति में जन्म नहीं लेता । इसलिए उनकी स्वकायस्थिति नहीं होती । ७६ • बालक के जीवविचार Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof ४१. प्राण जिस शक्ति से जीव जीते हैं उस शक्ति को प्राण कहते हैं । पाँच इन्द्रिय = पाँच प्राण श्वासोश्वास = छट्ठा प्राण आयुष्य = सातवाँ प्राण कायबल = आठवाँ प्राण वचनबल = नवमाँ प्राण मनबल = दशवाँ प्राण ये दस प्राण है । इन दस प्राणों में१. एकेन्द्रिय के चार प्राण होते है । १. स्पर्शनेन्द्रिय २. कायबल ३. श्वासोश्वास ४. आयुष्य २. बेइन्द्रिय जीवों के छह प्राण होते हैं । १. स्पर्शनेन्द्रिय २. रसनेन्द्रिय ३. कायबल ४. वचनबल ५. श्वासोश्वास ६. आयुष्य । ३. तेइन्द्रिय जीवों के सात प्राण होते है। १. स्पर्शनेन्द्रिय २. रसनेन्द्रिय ३ घ्राणेन्द्रिय ४. कायबल ५. वचनबल ६. श्वासोश्वास ७. आयुष्य । ४. चउरिन्द्रिय जीवों के आठ प्राण होते है। १. स्पर्शनेन्द्रिय २. रसनेन्द्रिय ३. घ्राणेन्द्रिय ४. चक्षुरिन्द्रिय ५. कायबल ६. वचनबल ७. श्वासोश्वास ८. आयुष्य ५. असंज्ञी पंचेन्द्रिय को नव प्राण होते हैं । १. स्पर्शनेन्द्रिय २. रसनेन्द्रिय ३. घ्राणेन्द्रिय ४. चक्षुरिन्द्रिय ५. श्रोत्रेन्द्रिय ६. कायबल ७. वचनबल ८. श्वासोश्वास ९. आयुष्य ६. संज्ञी पंचेन्द्रिय को दश प्राण होते हैं। १. स्पर्शनेन्द्रिय २. रसनेन्द्रिय ३. घ्राणेन्द्रिय ४. चक्षुरिन्द्रिय ५. श्रोतेन्द्रिय ६. कायबल ७. वचनबल ८. श्वासोश्वास ९. आयुष्य १०. मन याद रखो : १. जिनके जितने प्राण कहे गये है, उन प्राणों से वियोग होना ही उन जीवों का मरण कहलाता है। मृत्यु का मतलब है प्राणों का वियोग । अर्थात् प्राणों से आत्मा का वियोग होना ही मरण है। २. असंज्ञी पंचेन्द्रिय में संमूर्छिम मनुष्य और संमूर्छिम तिर्यंच का समावेश होता है। + असंज्ञी पंचेन्द्रिय सुख मिले तो खुश होते हैं और दु:ख मिले तो नाराज होते हैं । परन्तु सुख प्राप्त करने के लिए और दुःख टालने के लिए उपाय नहीं सोच सकते । + संज्ञी पंचेन्द्रिय सुख मिले तो खुश होते हैं और दुःख मिले तो नाराज होते हैं । वो सुख प्राप्त करने के लिए और दुःख दूर करने के लिए उपाय सोच सकते हैं । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव में गर्भज मनुष्य, गर्भज तिर्यंच, देव और नारकी का समावेश होता है। दूसरी व्यक्ति में दश प्राण है, उसे हम देख सकते हैं। दूसरी व्यक्ति के दश प्राणों में से अगर एक भी प्राण को हमारे हाथों से ठेस पहुँचे तो विराधना का पाप लगता है। प्राण द्वारा ही वह आत्मा जी सकती है। प्राण को नुकशान पहुँचे तो उसका जीवन बिगड जाता है। मैं जैन हैं। मेरे हाथों से दूसरे के प्राणों को नुकशान पहुँचे ऐसा कोई कार्य नहीं करूंगा। बालक के जीवविचार • ७७ ७८ . बालक के जीवविचार Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof ४२. योनि प्रतिक्रमण में हम बोलते हैं सात लाख पृथ्वीकाय । इसमें सात लाख की संख्या पृथ्वीकाय की योनि के लिए है । सभी जीवों की मिलाकर गिने तो चौर्याशीलाख योनि होती है । योनि का अर्थ है उत्पन्न होने की जगह । अलग-अलग तरह से जीव उत्पन्न होते है । हर गति में जितने प्रकार से उत्पन्न होने की जगह हो उतने प्रमाण से योनि की संख्या निश्चित है । पृथ्वीकाय = ७ लाख । बेइन्द्रिय = २ लाख अप्काय = ७ लाख | तेइन्द्रिय २ लाख तेउकाय = ७ लाख चउरिन्द्रिय २ लाख वायुकाय ___ - ७ लाख देव। ४ लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय = १० लाख नारकी - ४ लाख साधारण वनस्पतिकाय = १४ लाख तिर्यंचपंचेन्द्रिय - ४ लाख ___= १४ लाख योनि की कुल संख्या ८४ लाख की है और जीव तो अनन्त है तो फिर योनि कम और जीव ज्यादा, ऐसा हो सकता है? ये प्रश्न होगा ही । उत्तर सरल है। एक स्कूल में हर साल हजारों विद्यार्थी पढ़ते है । एक विद्यार्थी को एक स्कूल, दूसरे विद्यार्थी को दूसरी स्कूल, ऐसा नहीं होता । सभी के बीच एक ही स्कूल गिनती में आती है। इस प्रकार जन्म लेने वाले जीव क्यों न अनन्त हो परन्तु जन्म देने के लिए स्थान तो ८४ लाख ही है । हमारी आत्मा इस ८४ लाख योनि में बहुतबार जन्म ले चुकी है। अगर हम इन ८४ लाख योनि से बहार आ जाए तो हम मोक्ष में जा सकते हैं । योनि के बारे में कुछ बातें समझनी जरुरी है। + एकेन्द्रिय जीवों की योनि की रचना कुदरती है। ये जीव किसी भी स्थान पर जन्म ले सकते है। एकेन्द्रिय जीवों को जन्म लेने के लिए मा-बाप की जरुर नहीं होती । विकलेन्द्रिय जीवों में योनि किस प्रकार होती है ? विकलेन्द्रिय जीव कोई पानी में जन्म लेते है, कोई काष्ठ में पैदा होते है तो कोई कचरे में भी उत्पन्न हो जाते है। कोकरोच जैसे जीव इण्डे जैसे कोयले से जन्म लेते है। जीव जिस जगह पर जन्म लेते है वह जगह उनकी योनि है । ऐसा समझ लेना । पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य, गर्भज और संमूर्छिम रूप में जन्म लेते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच में - जरायुज, अण्डज और पोतज ये तीनों प्रकार के जीव माता की कुक्षि से जन्म लेकर बाद में बहार आते है। इसलिए उनके लिए माता की कुक्षि ही योनि गिनी जाती है। हमारे जैसे मनुष्य के लिए हमारी माता की कुक्षि यही योनि गिनी जाती है। जन्म के तीन प्रकार है । संमूर्छन, गर्भज, और उपपात । मा-बाप बिना का जन्म यानी संमूर्छन । संमूर्छिम मनुष्य और संमछिम तिर्यंच का जन्म संमूर्छन जैसा ही है। उसकी कोई निश्चित योनि नहीं होती । गन्दकी या गिलेपन जैसे निमित्तों से संमूर्छन का जन्म हो जाता है । देवताओं और नारकीओं का जन्म उपपात से होता है । (१) देव, अपने लिए योग्य हो ऐसी शय्या में नवजात शरीर के रूप में अवतार लेता है। एक अन्तर्मुहूर्त में तो नवयुवान बन जाता है। मा-बाप बिना का जन्म है अतः गर्भज नहीं गिना जाता है। गन्दकी जैसा कोई निमित्त नहीं है अतः संमूर्छन नही कहलाते । देवताओं के उपपात की योनि शय्या | मनुष्य (२) नारकी, नरकगति में छोटी-सी मटकी में जन्म लेते है। उनका शरीर बड़ा होने लगता है। छोटी-सी मटकी में = कुम्भी में उनका शरीर दब के रहता है । परमाधामी उनके शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर बहार निकालते है। शरीर पारे की तरह जुड़ जाता है। इस प्रकार नारकी के उपपात की योनि कुम्भी है। बालक के जीवविचार . ७९ ८० • बालक के जीवविचार Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof ४३. सिद्ध ४४. उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी भरत, ऐरावत और महाविदेह ये तीन कर्मभूमि है। इसमें महाविदेह के अलावा दो कर्मभूमि में, भरत में और ऐरावत में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नामकी कालव्यवस्था होती है । पल्योपम तो हमने सीख लिया है । १० कोडाकोडी पल्योपम = १ सागरोपम १० कोडाकोडी सागरोपम = १ उत्सर्पिणी या १ अवसर्पिणी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह भाग है। अवसर्पिणी के छह भाग । उत्सर्पिणी के छह भाग पहला आरा-४ कोडाकोडी सागरोपम | पहला आरा-२१ हजार वरस दूसरा आरा-३ कोडाकोडी सागरोपम | दूसरा आरा-२१ हजार वरस तीसरा आरा-२ कोडाकोडी सागरोपम | तीसरा आरा-१ कोडाकोडी सागरोपम चोथा आरा-१ कोडाकोडी सागरोपम | (४२ हजार वरस न्यून) (४२ हजार वरस न्यून) चौथा आरा-२ कोडाकोडी सागरोपम पाँचवा आरा-२१ हजार वर्ष । | पाँचवा आरा-३ कोडाकोडी सागरोपम छठ्ठा आरा-२१ हजार वर्ष छठ्ठा आरा-४ कोडाकोडी सागरोपम छह भाग को छह आरा कहते हैं, छह आरे के छह नाम है । पहला आरा-सुषम सुषम चोथा आरा-दुषम सुषम दूसरा आरा-सुषम पाँचवा आरा-दु:षम तीसरा आरा-सुषम दुषम छठ्ठा आरा-दुःषम दुःषम याद रख लो जब कर्मभूमि में चोथा आरा चलता है तब मोक्ष में जा सकते हैं । महाविदेह क्षेत्र में सदाकाल के लिए चोथे आरे जैसी स्थिति चलती है। इसलिए वहाँ से सदाकाल मोक्ष में जा सकते हैं । + संसारी जीवों के ५६३ भेद हम समझ चूके है । हम इन ५६३ भेद में ही साप सीडी की तरह फसे हुए हैं । ५६३ भेदों में से बहार निकलकर मोक्ष में पहुँच जाए तो हमारी आत्मा सिद्ध हो जाती है। मोक्ष में मरने की चिन्ता नही होती । मोक्ष में भूख प्यास या कोई रोग नहीं है । मोक्ष में शरीर नहीं है । श्वास लेने की जरूर नही है। मोक्ष में रोटी, कपड़ा या मकान की कोई चिन्ता नहीं है । + मोक्ष में आत्मा अवर्णनीय सुख को पाती है। मोक्ष में आत्मा पूरे विश्व को देख सकती है । मोक्ष में आत्मा सम्पूर्ण भूतकाल को देख सकती है। मोक्ष में आत्मा सम्पूर्ण भविष्यकाल को देख सकती है। मोक्ष में आत्मा वर्तमान समय की हर परिस्थिति को देख सकती है। मोक्ष में बिना आँखों से देख सकते हैं । बिना कानों से सुन सकते है। + मोक्ष में गुस्सा नहीं आता । मोक्ष में कंटाला नहीं आता । मोक्ष में थकान नहीं लगती। सफर से थका हुआ व्यक्ति बिस्तर में लम्बा होकर सो जाता है तब कुछ भी काम किये बिना भी शान्ति का अनुभव करता है। उसी प्रकार संसार परिभ्रमण से थकी हुई आत्मा, मोक्ष में पहुँचने के बाद कोई भी काम किये बिना अनहद आनन्द को पाती है। मैं जैन हूँ, मुझे मोक्ष में जाना है । जीवों के ५६३ भेद मेरी आत्मा को बाँध रहे हैं वो मुझे पसन्द नही है। मेरे भगवान मोक्ष में गये है। मेरे गुरु मोक्ष में जाने की साधना करते है । मैं भी मोक्ष में जाने का लक्ष्य रखूगा । आज मैं संसारी आत्मा हूँ। भविष्य में मुझे सिद्ध आत्मा यानी मुक्त आत्मा बनना है। + बालक के जीवविचार .८१ ८२ • बालक के जीवविचार Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof ४५. जीव और पाँच द्वार १. पृथ्वीकाय शरीर की ऊँचाई-अंगुल का असंख्यातवा भाग । आयुष्य २२ हजार वर्ष स्वकायस्थिति-असंख्यात उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी । प्राण-४ (१) स्पर्शनेन्द्रिय, (२) आयुष्य, (३) श्वासोश्वास, (४) कायबल । योनि-७ लाख । २. अप्काय शरीर की ऊँचाई-अंगुल का असंख्यातवा भाग । आयुष्य-७ हजार वर्ष । स्वकायस्थिति-असंख्यात उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी । प्राण-४ (१) स्पर्शनेन्द्रिय, (२) आयुष्य, (३) श्वासोश्वास, (४) कायबल । योनि-७ लाख । ३. तेउकाय शरीर की ऊँचाई-अंगुल का असंख्यातवा भाग, आयुष्य-तीन अहोरात्र स्वकायस्थिति-असंख्यात उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी । प्राण-४ (१) स्पर्शनेन्द्रिय, (२) आयुष्य, (३) श्वासोश्वास, (४) कायबल । योनि-७ लाख । ४. वायुकाय शरीर की ऊँचाई एक हजार योजन से ज्यादा । आयुष्य-३ हजार वर्ष स्वकायस्थिति-असंख्यात उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी । प्राण-४ (१) स्पर्शनेन्द्रिय, (२) आयुष्य, (३) श्वासोश्वास, (४) कायबल । योनि-७ लाख । ५. प्रत्येक वनस्पतिकाय शरीर की ऊँचाई-एक हजार योजन से अधिक । आयुष्य-१० हजार वर्ष स्वकायस्थिति-असंख्यात उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी । प्राण-४ (१) स्पर्शनेन्द्रिय, (२) आयुष्य, (३) श्वासोश्वास, (४) कायबल । योनि १० लाख । ६. साधारण वनस्पतिकाय शरीर की ऊँचाई अंगुल का असंख्यातवा भाग । आयुष्य अन्तर्मुहूर्त [सूक्ष्म पृथ्वीकाय आदि का भी इतना ही है] स्वकायस्थिति-अनंत उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी । प्राण-४ (१) स्पर्शनेन्द्रिय, (२) आयुष्य, (३) श्वासोश्वास, (४) कायबल । योनि-१४ लाख । ७. बेइन्द्रिय शरीर की ऊँचाई-१२ योजन । आयुष्य-१२ वर्ष । स्वकायस्थिति-संख्यात वरस । प्राण-६ (१) स्पर्शनेन्द्रिय, (२) रसनेन्द्रिय, (३) आयुष्य, (४) श्वासोश्वास, (५) कायबल (६) वचनबल । योनि-२ लाख । ८. तेइन्द्रिय शरीर की ऊँचाई-तीन गाउ । आयुष्य ४९ दिन । स्वकायस्थिति-संख्यात वरस । प्राण-६ (१) स्पर्शन-रसन-घ्राणेन्द्रिय, (४) आयुष्य, (५) श्वासोश्वास, (५) कायबल (६) वचनबल । योनि-२ लाख । ९. चउरिन्द्रिय शरीर की ऊँचाई-१ योजन, आयुष्य-६ माह, स्वकायस्थिति-संख्यात वरस । प्राण-८ (१) स्पर्शन, (२) रसन (३) घ्राण (४) चक्षुरिन्द्रिय (५) आयुष्य, (६) श्वासोश्वास, (७) कायबल (८) वचनबल । योनि-२ लाख । १०. प्रथम नारकी के जीव [रत्नप्रभा] शरीर की ऊँचाई-७ धनुष, ७८ अंगुल, आयुष्य-१ सागरोपम स्वकायस्थिति-नही है। प्राण-६ (१) स्पर्शन, (२) रसन, (३) घ्राण, (४) चक्षुरिन्द्रिय (५) श्रोत्रेन्द्रिय (६) आयुष्य, (७) श्वासोश्वास, (८) मनबल (९) वचनबल (१०) कायबल । योनि-४ लाख । ११. दूसरी नारकी के जीव [शर्करा प्रभा] शरीर की ऊँचाई-१५ धनुष, ६० अंगुल । आयुष्य-३ सागरोपम । स्वकायस्थिति नही है। प्राण-पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयुष्य, श्वासोश्वास । योनि-४ लाख । १२. तीसरी नारकी के जीव [वालुका प्रभा] शरीर की ऊँचाई-३१ धनुष, २४ अंगुल । आयुष्य-७ सागरोपम । स्वकायस्थिति नही है । प्राण-पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयुष्य, श्वासोश्वास । योनि-७ लाख । १३. चोथी नारकी के जीव [पंक प्रभा] शरीर की ऊँचाई-६२ धनुष, ४८ अंगुल । आयुष्य-१० सागरोपम बालक के जीवविचार .८३ ८४ • बालक के जीवविचार Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof स्वकायस्थिति नहीं है । प्राण पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयुष्य, श्वासोश्वास । योनि=४ लाख | १४. पाँचवी नारकी के जीव [ धूम प्रभा ] शरीर की ऊँचाई = १२५ धनुष आयुष्य = १७ सागरोपम । स्वकायस्थितिनही है । प्राण= पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयुष्य, श्वासोश्वास । योनि=४ लाख । १५. छठ्ठी नारकी के जीव [ तमः प्रभा ] शरीर की ऊँचाई - २५० धनुष । आयुष्य = २२ सागरोपम । स्वकायस्थितिनही है । प्राण= पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयुष्य, श्वासोश्वास । योनि-४ लाख । १६. सातवीं नारकी के जीव [ तमस्तमः प्रभा ] शरीर की ऊँचाई = ५०० धनुष । आयुष्य = ३३ सागरोपम । स्वकायस्थिति= नही है । प्राण= पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयुष्य, श्वासोश्वास । योनि=४ लाख । १७. गर्भज जलचर शरीर की ऊँचाई = १ हजार योजन। आयुष्य = क्रोड पूर्व वर्ष । स्वकायस्थिति-‍ - सात से आठ भव । प्राण= पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयुष्य, श्वासोश्वास । योनि-सभी तिर्यच पंचेन्द्रिय जीवों की मिलाकर चार लाख समझना । १८. गर्भज स्थलचर [ तीन भेद ] (१) चतुष्पद शरीर की ऊँचाई = ६ गाउ । आयुष्य तीन पल्योपम, स्वकायस्थिति-सात से आठ भव । प्राण= पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयुष्य, श्वासोश्वास । योनि = सभी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों की मिलाकर चार लाख समझना। (२) गर्भज भुजपरिसर्प शरीर की ऊँचाई दो से नव गाउ गाउ पृथक्त्व) । आयुष्य = क्रोड पूर्व वर्ष । स्वकायस्थिति सात से आठ भव । प्राण पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयुष्य, श्वासोश्वास । योनि-सभी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों की मिलाकर चार लाख समझना । (३) गर्भज उरः परिसर्प शरीर की ऊँचाई १ हजार योजन। आयुष्य क्रोड पूर्व वर्ष । = बालक के जीवविचार • ८५ स्वकायस्थिति-सात से आठ भव । प्राण- पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयुष्य, श्वासोश्वास । योनि-सभी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों की मिलाकर चार लाख समझना । १९. गर्भज खेचर शरीर की लम्बाई- दो से नव धनुष्य । आयुष्य = पल्योपम का असंख्यातवा भाग । स्वकायस्थिति सात से आठ भव । प्राण= पाँच इन्द्रिय, आयुष्य, श्वासोश्वास, तीन बल । २०. संमूर्छिम जलचर शरीर की ऊँचाई = १ हजार योजन। आयुष्य क्रोड पूर्व वर्ष । स्वकायस्थिति-सात से आठ भव । प्राण= पाँच इन्द्रिय, आयुष्य, श्वासोश्वास, कायबल, वचनबल, योनि= सभी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों की मिलाकर चार लाख । २१. संमूर्छिम स्थलचर [ तीन भेद ] (१) चतुष्पद शरीर की ऊँचाई दो से नव गाउ (गाउ पृथक्त्व) । आयुष्य = ८४ हजार वर्ष । स्वकायस्थिति सात-आठ भव । प्राण पाँच इन्द्रिय, आयुष्य, श्वासोश्वास, कायबल, वचनबल । योनि= सभी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों की मिलाकर चार लाख । (२) भुजपरिसर्प शरीर की ऊँचाई = दो से नव धनुष्य (धनुष्य पृथक्त्व) । आयुष्य४२,००० वर्ष । स्वकायस्थिति सात-आठ भव । प्राण पाँच इन्द्रिय, आयुष्य, श्वासोश्वास, कायबल, वचनबल योनि सभी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों की मिलाकर चार लाख । (३) उरः परिसर्प शरीर की ऊँचाई दो से नव योजन (योजन पृथक्त्व ) । आयुष्य = ५३ हजार वर्ष । स्वकायस्थिति- - सात-आठ भव । प्राण पाँच इन्द्रिय, आयुष्य, श्वासोश्वास, कायबल, वचनबल । योनि सभी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों की मिलाकर चार लाख । = ८६ • बालक के जीवविचार Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof २२. संमूर्छिम खेचर शरीर की ऊँचाई-दो से नव धनुष्य (धनुष्य पृथक्त्व) । आयुष्य७२,००० । स्वकायस्थिति-सात-आठ भव । प्राण=पाँच इन्द्रिय, आयुष्य, श्वासोश्वास, कायबल, वचनबल । योनि- सभी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव की मिलाकर चार लाख । २३. गर्भज मनुष्य शरीर की ऊँचाई-तीन गाउ, आयुष्य-तीन पल्योपम स्वकायस्थिति सातआठ भव । प्राण-दश, योनि-सभी मनुष्यों की चौदह लाख । २४. संमूर्छिम मनुष्य शरीर की ऊँचाई-अंगुल का असंख्यातवां भाग । आयुष्य अन्तर्मुहूर्त स्वकायस्थिति-सात भव । प्राण-मन बिना नव प्राण । योनि-सभी मनुष्यों की चौदह लाख । २५. भवनपति देव शरीर की ऊँचाई-हर भवनपति देवों की सात हाथ । आयुष्य असुर कुमार निकाय के देवों का एक सागरोपम से अधिक, बाकी के नव निकाय के देवों का कुछ न्यून दो पल्योपम । स्वकायस्थिति नही है। प्राण-दश । योनि-सभी देवों की मिलाकर चार लाख । २६. व्यन्तर देव शरीर की ऊँचाई-सात हाथ । आयुष्य-एक पल्योपम । स्वकायस्थिति-नही है । प्राण-दश । योनि-सभी देवों की मिलाकर चार लाख । २७. ज्योतिषी देव शरीर की ऊँचाई-सात हाथ । आयुष्य-चन्द्रमा का एक पल्योपम और एक लाख वर्ष । सूर्य का एक पल्योपम और एक हजार वर्ष । ग्रहका-एक पल्योपम। नक्षत्र का अर्ध पल्योपम । तारा का-१ पल्योपम का चोथा भाग, स्वकायस्थिति नही है। प्राण-दश, योनि- सभी देवों की मिलाकर चार लाख। २८. सौधर्म देवलोक के देवता शरीर की ऊँचाई-सात हाथ । आयुष्य दो सागरोपम । स्वकायस्थिति-नही है। प्राण-दश । योनि-सभी देवों की मिलाकर चार लाख । २९. इशान देवलोक के देवता शरीर की ऊँचाई-सात हाथ । आयुष्य-दो सागरोपम से ज्यादा । स्वकायस्थिति नही है। प्राण-दश । योनि-सभी देवों की मिलाकर चार लाख। ३०. सनत्कुमार देवलोक के देवता शरीर की ऊँचाई-छह हाथ । आयुष्य-सात सागरोपम । स्वकायस्थिति-नही है । प्राण-दश । योनि-सभी देवों की मिलाकर चार लाख । ३१. माहेन्द्र देवलोक के देवता शरीर की ऊँचाई-पाँच हाथ । आयुष्य-सात सागरोपम से अधिक । स्वकायस्थिति नही है। प्राण-दश । योनि-सभी देवों की मिलाकर चार लाख। ३२. ब्रह्मलोक देवलोक के देवता शरीर की ऊँचाई-पाँच हाथ । आयुष्य-चौदह सागरोपम । स्वकायस्थिति नही है। प्राण-दश । योनि-सभी देवों की मिलाकर चार लाख। ३३. लांतक देवलोक के देवता शरीर की ऊँचाई पाँच हाथ । आयुष्य-दश सागरोपम । स्वकायस्थिति नही है। प्राण-दश । योनि-सभी देवताओं की मिलाकर चार लाख । ३४. महाशुक्र देवलोक के देवता शरीर की ऊँचाई-चार हाथ । आयुष्य-१७ सागरोपम । स्वकायस्थिति नही है। प्राण-दश । योनि-सभी देवताओं की मिलाकर चार लाख । ३५. सहस्त्रार देवलोक के देवता शरीर की ऊँचाई-चार हाथ । आयुष्य-१८ सागरोपम । स्वकायस्थिति-नही है । प्राण-दश । योनि-सभी देवताओं की मिलाकर चार लाख । ३६. आनत देवलोक के देवता शरीर की ऊँचाई-तीन हाथ । आयुष्य-२० सागरोपम । स्वकायस्थिति नही है। प्राण-दश । योनि-सभी देवताओं की मिलाकर चार लाख । ३७. प्राणत देवलोक के देवता शरीर की ऊँचाई-तीन हाथ । आयुष्य-२० सागरोपम । स्वकाय बालक के जीवविचार • ८७ ८८ . बालक के जीवविचार Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ boy.pm5 2nd proof स्थिति नही है। प्राण-दश / योनि-सभी देवताओं की मिलाकर चार लाख / 38. आरण देवलोक के देवता शरीर की ऊँचाई-तीन हाथ, आयुष्य-२१ सागरोपम / स्वकायस्थिति नही હૈ પ્રા=શ | યોનિ=સમી ફેવતાઓં કી fમતીર વાર નાd | 39. अच्युत देवलोक के देवता शरीर की ऊँचाई-तीन हाथ, आयुष्य=२२ सागरोपम / स्वकायस्थिति नही હૈ. VT=aa | યોનિ=સમી ટ્રેવતાઓં કી fમનાવર વાર નારd | 40. नव ग्रैवेयक के देवता शरीर की ऊँचाई-दो हाथ, आयुष्य-नीचे देखेंप्रथम ग्रैवेयक सुदर्शन = 23 सागरोपम दूसरे ग्रैवेयक सुप्रतिबद्ध = 24 सागरोपम तीसरे ग्रेवेयक मनोरम = 25 सागरोपम चोथे ग्रैवेयक सर्वतोभद्र = 26 सागरोपम पाँचवा ग्रैवेयक सुविशाल = 27 सागरोपम छठ्ठा ग्रैवेयक सुमनस = 28 सागरोपम सातवाँ ग्रैवेयक सौमनस = 29 सागरोपम आठवाँ ग्रैवेयक प्रियंकर = 30 सागरोपम नवमा ग्रैवेयक नन्दीकर = 31 सागरोपम स्वकायस्थिति-नही है / प्राण-१० / योनि-सभी देवताओं की मिलाकर चार लाख / 41. पाँच अनुत्तर विमान के देव शरीर की ऊँचाई-एक हाथ / आयष्य-विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन चार विमान के देवताओं का अनुक्रम से 31 से 33 सागरोपम, और सर्वार्थ सिद्ध विमान का 33 सागरोपम / स्वकायस्थिति नही है / प्राण-दश। योनि-सभी देवताओं की मिलाकर चार लाख / (આધાર=નીવવાર પ્રકરણ - મહેસાT આવૃત્તિ) પ્રવચન સ્તંભ શ્રી હેમતલાલ છગનલાલ મહેતા પરિવાર - કલકત્તા શ્રીમતી પ્રભાબેન નંદલાલ શેઠ - મુંબઈ યુવા સંસ્કાર ગ્રૂપ - નાગપુર - પ્રવચન પ્રેમી શ્રી સુધીરભાઈ કે. ભણશાળી - કલકત્તા શ્રી કુમારપાળ દિનેશકુમાર સમદડિયા - મંચર શ્રી શાંતિલાલ ગમનાજી રાંકા (મંડારવાળા) - સાબરમતી, અમદાવાદ આરટેક્ષ એપરલ્સ - સાબરમતી, અમદાવાદ શ્રી પ્રેમચંદ રવચંદ શાહ (કુણઘેરવાળા) - અમદાવાદ શ્રી છગનલાલ તિલોકચંદ સંઘવી - સાબરમતી, અમદાવાદ પ્રવચન ભક્ત શ્રી ચંદુલાલ નેમચંદ મહેતા - કલકત્તા શ્રી છોટાલાલ દેવચંદ મહેતા - કલકત્તા શ્રી ખુશાલચંદ વનેચંદ શાહ - કલકત્તા શ્રી રસીકલાલ વાડીલાલ શાહ - કલકત્તા શ્રી કસ્તુરચંદ નાનચંદ શાહ - કલકત્તા શ્રી મંછાલાલ શામજી જોગાણી - કલકત્તા શ્રી ગુલાબચંદ તારાચંદજી કોચર - નાગપુર શ્રીમતી સમજુબેન મણીલાલ દોશી પરિવાર - નાગપુર ઉંઝાનિવાસી શ્રી નટવરલાલ પોપટલાલ મહેતા - નાગપુર શ્રી પ્રવીણચંદ્ર વાલચંદજી શેઠ (ડીસાવાલા) - નાસિક શ્રી ચંદ્રશેખર નરેંદ્રકુમાર ચોપડા - વોરા શ્રી સુભાષકુમાર વાડીલાલ શાહ - કરાડા શ્રી પ્રકાશ બાબુલાલ, દેવેન્દ્ર, પરાગ, પ્રિતમ શાહ - મંચર શ્રીમતી હસમુખબેન જયંતીલાલ શાહ (પૃથ્વી) - વાપી શ્રી વિનોદભાઈ મણિલાલ શાહ - અમદાવાદ સ્વ. રંભાબેન ત્રિકમલાલ સંઘવી, હસ્ત - મહેન્દ્રભાઈ . સાણંદ શ્રી શેફાલી મૂર્તિપૂજક જૈન સંઘના આરાધકો - અમદાવાદ પુખરાજ રાયચંદ પરિવાર - સાબરમતી, અમદાવાદ એક સદ્ગૃહસ્થ, હરજી (રાજસ્થાન) વોરા નાગરદાસ કેવળદાસ રિલિ. ટ્રસ્ટ - અમદાવાદ શ્રી લાંબડિયા જૈન સંઘ - લાંબડિયા શ્રી નથમલજી પ્રતાપચંદજી બેડાવાળા - સાબરમતી શ્રીમતી રંજનબેન જયકુમાર શાહ - કેનેડા बालक के जीवविचार . 89