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१. गर्भज मनुष्य पर्याप्ति पूर्ण करते हैं इसलिए गर्भज मनुष्य पर्याप्त रूप से
पहचाने जाते हैं । इसके १०१ भेद । गर्भज मनुष्य पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते इसलिए गर्भज मनुष्य अपर्याप्त रूप
से पहचाने जाते हैं | इसके १०१ भेद । ३. संमूर्छिम मनुष्य पर्याप्ति पूर्ण नहीं कर सकते इसलिए संमूर्छिम मनुष्य
अपर्याप्त रूप से पहचाने जाते हैं । इसके १०१ भेद । १०१ गर्भज पर्याप्त मनुष्य । १०१ गर्भज अपर्याप्त मनुष्य । १०१ संमूर्छिम अपर्याप्त मनुष्य । कुल मिलाकर ३०३ मनुष्य के भेद हुए।
ऊर्ध्वलोक
देवलोक
२९. पंचेन्द्रिय मनुष्य ३०३ भेद
आज विश्व में सात खण्ड है ऐसा कहा जाता है । एशिया खण्ड, यूरोप खण्ड, रशिया खण्ड, अमेरिका खण्ड विगेरे । इस खण्ड में रहनेवाले मनुष्यमनुष्य रूप में तो एक समान ही है । परन्तु अलग अलग खण्ड में रहते हैं इसलिये उन्हें अलग अलग गिने जाते हैं ।
एशिया खण्ड में बहुत देश है । भारत, चीन, जापान विगेरे । इन देशों के मनुष्य अलग-अलग रहते है इसलिये उन्हें अलग-अलग गिने जाते हैं। भारत में रहनेवाला भारतीय, चीन में रहनेवाला चीनी, जापान में रहनेवाला जापानी ।
भारत में अन्दाज १७ प्रदेश है । गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, ओरिस्सा, मध्यप्रदेश विगेरे प्रदेशों में रहनेवाले मनुष्यों की भाषा, संस्कृति अलग होने से हर प्रदेश के रहेवासी भी अलग-अलग गिने जाते हैं । जैसे राजस्थान के राजस्थानी, गुजरात के गुजराती ।
इससे ये समझने को मिलता है कि जैसे-जैसे धरती बदलती है वैसे वैसे मनुष्य की पहचान बदलती है । देश और प्रदेश बदलते हैं वैसे मनुष्य की पहचान भी बदलती है।
हमारे भगवान ने सम्पूर्ण विश्व का अवलोकन कर मनुष्य की १०१ पहचान द्वारा मनुष्य के १०१ भेद किये हैं । १०१ इतनी बड़ी संख्या देखकर घबराने की जरूरत नहीं है। बहुत ही सरल बात है। इस मनुष्यलोक में अलग-अलग १०१ स्थान है, जहाँ मनुष्यों के जीवन होते हैं। इन १०१ स्थान के आधार पर मनुष्य के १०१ भेद करने में आए हैं। वैसे तो १०१ स्थान के तीन विभाग है।
१. कर्मभूमि, २. अकर्मभूमि, ३. अन्तर्वीप कर्मभूमि १५ है, अकर्मभूमि ३० है और अन्तर्वीप ५६ है । १५+३०+५६=१०१ कर्मभूमि निवासी मनुष्यों के १५ भेद अकर्मभूमि निवासी मनुष्यों के ३० भेद अन्तर्वीप निवासी मनुष्यों के ५६ भेद कुल मिलाकर मनुष्य के १०१ भेद होंगे । मनुष्य गर्भज भी होते हैं, संमूर्छिम भी होते हैं ।
तिच्छलोक
अधोलोक नरकलोक
बालक के जीवविचार .४३
४४ • बालक के जीवविचार