Book Title: Anusandhan 2006 09 SrNo 37
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Catalog link: https://jainqq.org/explore/520537/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९) है। अनुसंधान श्री हेमचन्द्राचार्य प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि ३७ सरस्वतीनी विलक्षण धातप्रतिमा-अमदावाद (सं. १७९०)। कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद 2006 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोंध : दरेक बेकी संख्याना पृष्ठ पर अनुसन्धान- ३६ छे, त्यां ३७ वांचवं. मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९ ) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसंधान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका ३७ सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि श्री हेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद २००६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्य सम्पादक: डॉ. हरिवल्लभ भायाणी सम्पादक: विजयशीलचन्द्रसूरि सम्पर्क: C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ अमदावाद - ३८०००७ प्रकाशक: अनुसन्धान ३७ प्राप्तिस्थान: (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद - ३८०००७ मुद्रक: कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद मूल्य: Rs. 80-00 (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद - ३८०००१ क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद - ३८००१३ (फोन: ०७९ - २७४९४३९३) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन संशोधननो सम्बन्ध प्रबुद्धता साथे छे. प्रबुद्धता जेम जेम विकसती जाय तेम तेम स्वीकृत तथा परम्पराप्राप्त वातोना रहस्यार्थो स्फुट थई उघडतां आवे, जेने लीधे परिमार्जन, स्पष्टीकरण, संवर्धन अने आवश्यक परिवर्तन थतां रहे छे. आमां कदीक अशुद्धिनिवारण थाय, तो क्वचित् भ्रान्तिनुं निरसन पण थई शके. अने आना अढळक दाखलाओ थोडा दशकाओमां थयेल संशोधनोमां जडी आवे. अलबत्त, बधां संशोधनो, आकुंज परिणाम आवे एवं एकान्ते मानी लेवानुं नथी. घणीवार, संशोधनने परिणामे भ्रम दूर थवाने बदले भ्रम वधतो पण जाय छे, अने नवा नवा दोषो के अशुद्धिओ सर्जाई-प्रवेशी शके छे. आ बधानो विवेक अने निर्णय करतां आवडे तेनुं नाम प्रबुद्ध शोधक. बीजी वातः शोधक प्रबुद्ध होय तो पण तेनी बधी वातो मानी ज लेवानी एवं नथी होतुं. शोधकनी प्रमाणो तथा आधारोने मूलववानी दृष्टि होय ते करतां अन्यनी/आपणी दृष्टि अथवा आपणुं मूल्यांकन अथवा आपणां प्रमाणो जुदां होई शके. क्वचित् एवं पण बने के शोधक शुद्ध बुद्धिप्रामाण्यवादी होय अने अन्यो पासे होय तेवी श्रद्धा तथा पारम्परिक वलणोनी समजण तेनी पासे न पण होय. शुद्ध बुद्धिवाद के निरपेक्ष श्रद्धावाद-बन्ने पक्षोमां सन्तुलन तथा विवेकभान जाळववानुं क्यारेक मुश्केल बनतुं होय छे, ए मुद्दो पण, अहीं ज पाको करी लेवो घटे. सार ए के सन्तुलन जाळवतां आवडे तो संशोधननो मार्ग खोटो जराय नहि, बल्के उपकारक ज. - शी. । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 अनुक्रमणिका श्रीजयसिंहसूरिकृत पञ्चकपरिहाणि तथा आलोचनाविधान ___ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि श्रीनवफणापार्श्वनाथस्तव सं मुनिकल्याणकीर्तिविजय हयाटाखाट काव्य-सटीक सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय सारंगमुनिप्रणीता सूक्ति द्वात्रिंशिका सं. अमृत पटेल 10 20 राजगच्छीय धर्मघोषवंशीयश्रीहरिकलशयतिविरचिता मेदपाटदेश-तीर्थमाला सं० म० विनयसागर 38 श्रीमद्भगवद्गीता के 'विश्वरूपदर्शन' का - जैन दार्शनिक दृष्टि से मूल्यांकन डॉ. नलिनी जोशी विहंगावलोकन उपा. भुवनचन्द्र माहिती Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जयसिंहसूरिकृत पञ्चकपरिहाणि तथा आलोचनाविधान सं. विजयशीलचन्द्रसूरि खम्भातना श्रीशान्तिनाथ प्राचीन जैन ताडपत्रीय भण्डारनी, क्र. १०३ नी प्रति, सूचिपत्रोमां ‘पञ्चकपरिहाणि आदि' एवा नामे उल्लेखाई छे. पत्रसंख्या १८१ छे. जीतकल्प आदि सूत्रग्रन्थो तेमां आलेखाया छे. तेमां आ बे रचनाओ पण छे. प्रथम रचना 'पञ्चकपरिहाणि' ए प्रायश्चित्तनो विधि वर्णवती रचना छे. कोने, कया दोष बदल, क्यारे, कोणे, केवु प्रायश्चित आप, तेनुं संक्षेपमा पण सुस्पष्ट वर्णन एमां थयुं छे. प्रकरणनी बीजी गाथामां आने ‘पञ्चक परिहाणि प्रकरण' ए नामे ओळखावेल छे, अने छेवटनी पुष्पिकामां पण. गा० २ अनुसार 'आ प्रकरणने बराबर समजनार मुनि 'गीतार्थ मुनि' बने छे. प्रकरण ६१ गाथा- छे. प्रतिना १ थी १४/१ एटलां पृष्ठोमां ते लखायेलुं छे. कर्ता- नाम, ६१मी गाथा प्रमाणे 'जयसिंहसूरि-गणपति' (गच्छपति आचार्य जयसिंहसूरि) छे. पुष्पिकामां पण ते ज नाम छे. कया गच्छना आ आचार्य हशे, तथा तेमनो समय कयो होय, ते जाणवायूँ कोई साधन नथी. वडगच्छ, मलधारगच्छ, कृष्णर्षिगच्छ, अंचलगच्छ-एम विविध गच्छोमां ११मा१२मा-१३मा शतकोमां आ नामना आचार्य थया- इतिहास नोंधे छे, जेमां केटलाक गच्छपति पण हता. पण ते पैकी कया आचार्यनी आ रचना छे, ते जाणवानुं मुश्केल छे. 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास'मां आ रचनानुं ज नाम नथी ! आम छतां, तेओनो सत्तासमय १२मो के १३ मो सैको हशे तेम मानी शकाय. बीजं प्रकरण 'आलोयणाविहाण' नामनुं छे. ते पण ते ज प्रतिमां ४०/२ थी ४७/१ एटलां पत्रोमां छे, अने ३५ गाथा प्रमाण छे. ए पण पञ्चकपरिहाणिना कर्तानी ज रचना होवानुं वधु सम्भवित जणाय छे. केमके पञ्चकपरिहाणि पूरुं थया बाद 'प्रायश्चित्तो'- वर्णन प्राकृत ने अपभ्रंश आदि मिश्र भाषामां छे. वच्चे वच्चे थोडी गाथाओ पण आवे छे. ते बधुं १४/ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३६ २ थी ४०/१ ए पत्रोमां छे. ते पछी तरत 'आलोचनाविधान' शरू थाय छे. ए जोतां एक ज विषय, बधुं वर्णन होई ते एक ज कर्तानी रचनारूप होय ते वधु सम्भवित गणाय. आमां प्रायश्चित्तने योग्य कोण ? केवा मुहूर्तमां प्रायश्चित लेवं, आप, दोषोनी कबूलात कोणे केवी रीते करवी, इत्यादि वातोनुं वर्णन थयुं छे. 'पञ्चकपरिहाणि'नी प्रथम गाथा बहु चमत्कृतिपूर्ण छे, कर्तानी कवित्वशक्ति तथा सर्गशक्ति तेमां सुपेरे प्रतिबिम्बित थाय छे. 'महावीर' केवा? तो, "सिद्धिसहयार' माटे 'कीर', 'मायावणि' माटे 'सीर', 'भवदव' माटे 'नीर' अने 'मयणपडिभड' माटे 'वीर' - एवा महावीर छे. ई. १९९१मां प्रतिलिपि करी राखेल आ रचनाओ आजे प्रगट थई रही छे तेनो आनन्द छे. पञ्चकपरिहाणिः ॥ सिद्धिसहयार-'मायावणि'- भवदव-मयणपडिभडाण कमा । कीरं सीरं नीरं वीरं नमिउं महावीरं ॥१॥ वोच्छं पंचगणपरिहाणि-पगरणं पिंडसोहणविहीए । मुणिएण जेण मुणिणो भवंति गीयत्थमुणिमणिणो ॥२॥ जइवि विउसाण न मणो-रंजगमेयं भविस्सइ तहावि । मत्तो वि मंदमइणो जे तेसिमुवग्गहं काही ॥३॥ जीवा सुहेसिणो, तं सिवम्मि, तं संजमेण, सो देहे, । सो पिंडेण, सदोसो सो पडिकुट्ठो, इमे ते य ॥४॥ सोलस उग्गमदोसा सोलस उप्पायणाए दोसाओ । दस एसणाए दोसा संजोयणमाइ पंचेव ॥५॥ सोहिंतो य इमे तह जएज्ज सव्वत्थ पणगहाणीए । उस्सरसंतता(?)यरिऊ जह चरणगुणा न हायंति ॥६॥ सीसो पुच्छइ "भयवं ! नायव्वा सा कहं पणगहाणी ?" गुरुराह "सुणसु सुंदर ! जह भणिया जिणवरिंदेहिं ॥७॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 समयरकयविमलमइणा (णो), जइणो सुद्धं जिणिदमयरइणो । पिंडं सेज्जं वत्थं पत्तं च पुरा गवेसंति ॥८॥ सुद्धा संपत्तीए पंचगपच्छित्तलच्छियधिईए । तदसंभवे सदसगं तदभावे पंचदसगजुयं ॥ ९ ॥ तदसइ वीसगसहियं तव्विरहे भिन्नमाससंजुत्तं । तस्ससइ सलहुमासग - मेवं तरतमविभागेण ॥१०॥ ता नेयं जा च्छग्गुरु मुच्चिस्सं जेण सा तवोभूमी । छत्तीसपयनिबद्धा विन्नेया पणगपणिहाणी ॥११॥ तत्तो च्छेओ मूलं अणवटुप्पो य होइ पारिंची | तावत्थोयं पढमं सेविज्जइ लहु गुरुं पच्छा ॥१२॥ जयणाए वट्टियव्वं न हु जयणा जेण भंजए अंगं । एसा जिणाण आणा ताएच्चिय सुज्झए जीवो ॥१३॥ " पुणरवि भणइ विणेओ "पच्छित्तं कम्म कम्मि दोसम्म । कयरं कयरं भयवं ! भणियं समयम्मि ? " गुरुराह ॥ १४॥ पंचगपरिहाणीए निसीहपमुहेसु च्छेयगंथेसु । दीसइ भणियं मूलं भवमूले मूलकम्मम्मि ॥ १५॥ पंचिदियववरोवग-दायगदोसम्मि एगकल्लाणं । संकाए जं संकइ पावइ तं तस्स पच्छित्तं ॥१६॥ अहकम्मे उद्देसिय चरमतिगे३ मीस चरिमजुयलम्मि २। बायर पाहुडियाए१ संपइ १ भाविसु १ निमित्ते ||१७|| सप्पच्चवाय परगामाहडदोसम्म १ लोभपिंडम्मि १ | गाढपणिदियतावग-दायगदोसम्म १ अंगारे १ ॥ १८ ॥ साहारण१ विगलिंदियमारग ३ पगलंतकुट्ठदाईसु |१ कट्ठाइपाओया- रूढदायगे १ चित्त गुरुपिहिए ||१९|| अव्ववहिय भणियसाहारण निक्खिविउं १ म्मीस १ पिहिय १ साहा (ह) रिये १ | अपरिणय१ छड्डिएसुं१ अचित्तगुरुदव्वसाहरिए १ ||२०|| वसहि बहि१ रंतरे वा १ दुविहे संजोयणाए दोसे वा । चउगुरुगं पच्छित्तं भणियं कम्मट्ठमहणेहिं ॥२१॥ 3 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३६ एवं एगुणतीसाए दोसेहिं चउगुरुगाहिगारो सम्पत्तो ।। छ ।। कम्मुद्देसिय जावंतियम्मि १ मीसस्स पढमभेयम्मि १॥ पंचविहधाइदोसे ४ दुविहे दूइत्तदोसम्मि ॥२२॥ मंतश्वणीमगविज्जा१ कोहारहंकार१ जोग १ चुन्ने ओ १। तीयनिमित्ते१ संबंधिसंथवे १ दव्वकीयदुगे २ ॥२३॥ आजीवणासु पंचसु ५ तिविहे च्छेज्जे ३ णिसट्ठभेयतिगे ३ । भावायकीयदोसे १ लोइय पामिच्चदोसम्मि ॥२४॥ पत्तेयजियाणंतर निक्खिविउ ६ पिहिय ६ साहारिय ६ (साहरिए) । अपरिणय६ छड्डिएसु ६ संकुचिउब्भिन्नगकवाडे १ ॥२५॥ निप्पच्चवाय परगामाहड१दोसे पगासकरणम्मि । उक्कोसगमालोहड १ लोइय परियट्टदोसेसु १ ॥२६॥ सच्चित्तकद्दमेणं पमक्खिए १ पुव्व १ पच्छ १ कम्मेसु । गरहियमज्जाइपमक्खियम्मि १ बायरतिगिच्छाए ॥२७॥ संसत्तागरहियमक्खियम्मि १ संसत्त-लित्तहत्थम्मि ।१ संसत्त-लित्तमत्ते१ पिहि पुहिने १ सधूमम्मि १ ॥२८॥ निक्कारणोवभुत्ते१ कारणसब्भावसंभवाभुत्ते १ । पत्तेयवणम्मीसे १ भणियपमाणाइरेगम्मि १ ॥२९॥ अप्पहु १ वुड्ड १ नपुंसग १ जरिय १ ऽव्वत्त१मत्तगुरम्मत्ता १। छिनकर १ नियलबद्ध १ गह १ त्थंऽदुयबद्ध १ छिनपय(या) १ ॥३०॥ वेविर १ कंडंती १ बाललहुगा १ गुम्विणी १ विरोलंती १ । भज्जंती १ पीसंती १ पाहुडिठविगो १ गोत्तयंतीसु १ ॥३१॥ पत्तेगेगेंदियमारिगाए तिविहं सपच्चवायाए ३ । संसत्तदव्वलित्तग-इत्थासत्ताइ दाईए १ ॥३२॥ साहारण-विगलिंदिय-चउक्कगइगाढतावणकरीए । ५ साहारण १ चोरियगं १ परमुद्दिसिउं १ ददंतीसु ॥३३॥ पंचेंदियजीवसरीरथोवपरितावगावराहे य । १ चउलहुगं पच्छित्तं भणियं जिणवर-गणिदेहिं ॥३४|| सएणं अट्ठावीसुत्तरेण दासाणं चउलहुगाहिगारो सम्पत्तो ॥छ। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 अज्झोयरचरिमदुगे २ मायापिंडम्मि१ कहचउक्कम्मि ४ । विगलिंदियसाहारण ४ थोवगपरितावणकरीए ॥ ३५ ॥ साहारवणपरंपर निक्खिविओ १ मीस १ पिहिय १ साहरिय (ए) १ । अपरिणय १ छड्डिएसुं १ पंचेंदियघट्टणकरीए ||३६|| मीसाणंताणंतर निक्खिविउं१म्मीस १ पिहिय १ साहरिय (ए) १1 अपरिणय १ छड्डिएसु १ पूइए भत्तपाणस्स १ ||३७|| पत्तेगेगेंदियजीवगाढपरितावदायगवराहे । तह अणंतमक्खिसु य मासगुरुं होइ पच्छित्तं ||३८|| तेत्तीसाए दोसेहिं मासगुरुगाहिगारो ॥छ || ओहुद्देसे १ पागडकरणे १ परभावकीयदोसम्मि १ । लोउत्तरपरियट्टिय १ चिरठवणुवगरणपूईसु १ ॥३९॥ उद्दिट्ठचउक्के५ वयणसंथवे १ सुहुमवेज्जकिरियाए १ । लोउत्तरपामिच्चे १ दद्दरभिन्न दोसम्म ॥४०॥ सग्गामाहडदोसे १ जहन्नमालोहडावराहम्मि | १ मीसगकद्दममक्खिय १ पढमज्झोयरयदोसेसु ॥४१॥ पत्तेयजियपरंपर निक्खिविरं १ म्माग १ पिहिय १ साहरिय (ए) १ । अपरिणय १ छड्डिएसुं १ भावापरिणयवराहम्मि १ ॥४२॥ मीसपरित्ताणंतर - निक्खिविउं १म्मीस १ पिहिय १ साहरिय (ए) १ । अपरिणय१ छड्डिएसुं १ दउल्लकरमत्त १ दोसम्म ॥४३॥ हरियालं १ जण १ सेडिय १ मणोसिला १ लवण १ऊस १ हिंगुलुय १ । गोराडिय १ गजाय १ सरियाहिं १ मक्खियकरामत्ते ॥ ४४॥ पिहु १ कुटुग १ कुक्कुस परित्तवण मक्खियावसु । पत्तेणेगं (गेगें) दिय जीव थोव ४ परित्तावणकरीए ॥ ४५ ॥ विगि (ग) लिंदियसाहारण ४ मंदारगदायगक्खदोसेण । पिंजंती रुव्वंती कत्तंती १ मद्दयंती १ || ४६|| जो संसट्टगलित्ते हत्थे मत्ते य होइ चउभंगी । तच्चरमभंगतिय३ वट्टमाणदाईए नारीए ॥ ४७ ॥ -- 5 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३६ अच्चित्तेऽचित्तस्स वि साहारणे चेव १ माणियं लहुयं । पच्छित्तमिणं भणियं जिणेहिं जियरागदोसेहिं ॥४८॥ तेत्तीसुत्तरेणं सएण दोसाणं लहुमासियाहिगारो छ।। इत्तिरिय ठावणाए १ ससिणिद्ध १ ससरक्खमक्खिय १ करेसु । बीएहिं उम्मीसे १ सुहुमाए पाहुडीयाए १ ॥४९॥ मीसपरित्तपरंपर-निक्खिविउं १ मीस १ पिहिय १ साहरिय (ए) ११ अपरिणयपछड्डिएसुं १ तित्थेसरसमयभणिएसु ॥५०॥ मीसाणंतपरंपर - निक्खिविउं १ म्मीस १ पिहिय १ साहरिय (ए) १।। अपरिणय१ छड्डिएसुं १ साहारणे बीयकायुवरि ॥५१॥ पत्तेगेगिंदियजीव-घट्टणादायपायपच्छित्तं । पत्तेए लहुपणगं गुरुपणगमणंतगे उ तहिं ॥५२॥ वय तव खवणायंबिल-एगासण पुरिमनिव्विगइयाणि । लहु लहुतराणि कमसो तहा तहा मूलपमुहाणि ॥५३।। इइ सयलदोसविसयं पच्छित्तं जाणिऊण गीयत्था । गुरुलहुविभावणाए रक्खंति तणुं जिणाणाए ॥५४॥ पंचदसगाइकमेणं जइ वि पच्छित्तमागमे नत्थि । तहवि हु तिगाइ गणणा दस-पणदसगाइ विनेयं ॥५५॥ जोग्गं जई पमोत्तं रहस्समेयं न देयमन्नस्स । जेणाजोग्गविदिन्ने दोसोच्चिय होइ भणियं च ॥५६।। "आमे घडे निहित्तं जहा जलं तं घडं विणासेइ । इइ सिद्धंतरहस्सं अप्पाहारं विणासेई" ॥५७॥ तम्हा अपत्तावत्ता पत्ता परिणामगाइ परिणामि । पासत्थाइकुतित्थिय-गिहीण न सुयं पि निज्जेयं ॥५८।। परिणामगे विणीए गुरुभत्ते उज्जुए असढभावे । आणारुइम्मि भवभीरुगम्मि देज्जा पयत्तेणं ॥५९।। सुयसिंधुसुत्तिसूया धीवरपरिकम्मिया गुणविसाला । सुपया सुहक्खरतिही सच्छाया वित्तसारपिया ॥६०।। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 मुत्तावली व रइया गाहाली साहुकंठभूसाए । मुत्तावणिएण व पत्थिएण जयसिंहगणवइणा ॥६१॥ पंचकपरिहाणि प्रकरणं प्रधानमुनिजनहृदया-लङ्करणं श्रीमज्जयसिंहसूरिविरचितं श्रीमत्तीर्थकरप्रणीतसिद्धान्तोद्धृतं समाप्तमिति ॥छ॥ नमिऊण महावीरं गोयमसामि च जंबुणामं च । आलोयणाविहाणं वोच्छामि गुरुवएसेणं ॥१॥ आलोयण दायव्वा केवइ काला उ कस्स केणं वा ?। के अदाणे दोसा ? के य गुणा हुँति दाणम्मि ? ॥२॥ कह दायव्वा य तहा ? आलोएयव्वं च किं [तहा?]गुरुणा ?। कह व दवावेयव्वा ? पच्छित्तफलं च दाराइं ॥३।। पक्खिय चाउम्मासे आलोयण नियम सा उ दायव्वा । गहणं अभिग्गहाणं पुव्वग्गहिए निवेएउं ॥४॥ एमेव उत्तिमढे संवेगपरेण सीयलेणावि । आलोयणावि देया जाणियजिणवयणसारेण ॥५॥ आगमओ सुयओ वा आगमओ छव्विहो विणिद्दिवो । केवलि-मणोसहि-चउदस-दस-नवपुव्वी य बोधव्वे ||६|| कप्प-पकप्पधरो वि य आयारवमाइगुणगणोवेओ । सोहेइ भव्वसत्ते सोहीए जिणोवइट्ठाए ॥७॥ निज्जुत्ती सुत्तत्थे पीठधरो विय किलिट्ठजोगोत्ति । । काउं पडुच्च नेओ जीयधरो जो वि गीयत्थो ॥८॥ दारं ॥ जाइकुलविणयनाणे दंसणचरणेहिं होइ संपन्नो । खंतो दंतु अमाई अपच्छयावी य बोधव्वे ॥९॥ सोहीए अभीएणं अपुणु करणुज्जएण दोसाणं । नो पडिवक्खजुएणं जमेस भणिओ अजोगोत्ति ॥१०॥ आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता जं दिटुं बायरं च सुहुमं वा ।' छन्नं सद्दाउलयं बहुजणअव्वत्त तस्सेवी ॥११॥ दारं ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३६ लज्जाए गारवेण व बहुस्सुयमएण वा वि दुच्चरियं । जे न कहिंति गुरूणं न हु ते आहार (आराह)गा हुंति ॥१२॥ छत्तीसगुणजुएण वि जम्हा एसा अवस्स दायव्वा । परसक्खिय च्चिय सया सुट्ट वि ववहारकुसलेणं ॥१३॥ दंसणनाणचरित्ता-यारा अट्ठट्ठभेयभिन्नाओ । बारसविहतवजुत्ता छत्तीसगुणा य इय हुंति ॥१४॥ वयछक्काई अट्ठारसेव आयारवाइ अद्वैव । पायच्छित्तं दसहा आयरियगुणा उ छत्तीसं ॥१५॥ तह पवयणमाया समणधम्म-वयछक्क-कायछक्काई । अट्ठ-दस-अट्ठारस-भेयओ गुणा हुँति छत्तीसं ॥१६।। आयारवमाईया अद्वैव य दसविहो य ठिइकप्पो । बारस तव छावासय छत्तीस गुणा इमे अहवा ॥१७॥ एवं जाणंतेण वि पायच्छित्तविहिमप्पणो सम्मं । तहवि य पागडतरयं आलोएव्वयं(यव्वयं) गुरुणा ॥१८॥ दारं ॥ लहुयाहाईजणणं अप्पपरनियत्ति अज्जवं सोही । दुक्करकरणं आणा, निस्सल्लत्तं च सोहिगुणा ॥१९॥ तो उद्धरंति गारव-रहिया मूलं पुणब्भवलयाणं । मिच्छादसणसल्लं मायासल्लं नियाणं च ॥२०॥दार।। वक्खेवविरहिएणं पसत्थदव्वाइ जोग सुदिसाए । विणएण मुज्जणा-सेवणाइ लोमेण छस्सवणा ॥२१॥ दव्वाइया उ चउरो एक्केक्क दुहा पसत्थ-अपसत्था । अपसत्थे वज्जेउं पसत्थएसुं च आलोए ॥२२॥ अमणुनधन्नरासी अमणुन्नदुमा य हुति दव्वम्मि । खेत्तम्मि भग्ग-ज्झामिय-घरऊसरपमुहठाणाणि ॥२३॥ काले दड्ढतिही तह अमावसा अट्टमी य नवमी य । छट्ठी य चउत्थी बारसी य दोण्ह पि पक्खाणं ॥२४॥ तह संझागय-रविगय-पमुक्खनक्खत्त असुहजोगो य । भावे य रागदोसा पमाय-मोहादओ अहवा ॥२५॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 एएसुं नालोए आलोएज्जासु तव्विवक्खेसु । दव्वेसु धन्नमाईसु खीरदुमाईसु आलोए ॥२६॥ उच्छवणे सालिवणे चेइयहरे चेव होइ खेत्तम्मि । गंभीरसाणुणाए पयाहिणा वनउदए य ॥२७॥ पुव्वुत्तसेसतिहिरिक्ख-करणजोगाइएसु कालम्मि । भावे मणाइपसमो उच्चाइठिएसु य गहेसु ॥२८॥ पाईणो दीणमुहो चेइयत्तो य सुहनिसन्नो य । आलोयणं पडिच्छइ परोवयारेक्करसियमणो ॥२९॥ दारं ॥ जह बालो जंपंतो कज्जमकज्जं व उज्जुयं भणइ । तं तह आलोएज्जा मायामयविप्पमुक्को उ ॥३०॥ नाणाइपंचरूवस्स भयवओ सुविहियाणुचिन्नस्स । आयारस्सइयारा आलोएयव्वया हुंति ॥३१।। इयरे य' सुयाईया आलोयाविति ते पुण तिक्खुत्तो । सरिसत्थअपलिउंचिय-आगाराईहिं नाऊण ॥३२॥ आगारेहिं सरेहि पुव्वावरवाहयाहिं य गिराहिं । पलिउंचियस्सरूवं कुसला जायंति पाएणं ॥३३॥दारं ॥ दसविहपायच्छित्तं आलोयणमाइयं मुणेयव्वं । जो तत्थ जेण सुज्झइ अइयारो, तं तदरिहं तु ॥३४॥ दारं ॥ आलोयणाए पुव्वं जे चेव गुणा य वन्निया इहई । तमणंतरफलमुत्तं परंपरं सासओ मोक्खो ॥३५।। आलोचनाविधानं समाप्तम् ।छ।। १. ज्ञानाद्याचाराः Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं मुनिकल्याणकीर्तिविजय आ कृतिमां, अर्बुदाचल ( आबु ) तीर्थ पर रहेल माण्डलिक वसहीमां बिराजमान श्री नवफणा पार्श्वनाथ भगवाननी, आठ भाषाओमां, स्तवना करवामां आवी छे. आठेय भाषाओमां जुदा जुदा आठ छन्दोमां त्रण - त्रण श्लोको रचवामां आव्या छे, अने छेल्ले प्रशस्ति श्लोक संस्कृतमां छे. एटले कुल २५ श्लोकोनुं आ स्तव छे. छन्दोनी गोठवणी वर्धमान अक्षरोमां करवामां आवी छे. भाषा छन्द छन्दनुं लक्षण अक्षर संस्कृत द्रुतविलम्बित न-भ-भ-र (।।। ऽ।। ऽ।। ऽ।ऽ ) सजसजग (15 151 15 1SIS) तभजजगग (ऽऽ। ऽ।। ।ऽ। ।ऽ ऽऽ ) ननमयय ( ।।। ।।। ऽऽऽ ISS Iऽऽ ) १५ ननमजसग ( । । । । ।। ऽऽऽ 151 || 55 ) १६ जसजसयलग पैशाची पृथ्वी ( ।ऽ। ।।ऽ ।ऽ। ।।ऽ ऽऽ 15 ) १७ चूलिका पैशाची शार्दूलविक्रीडित मसजसततग (SSS ISIS ।।ऽ ऽऽ। ऽऽ।ऽ ) १ २. ३. ४. W ८. समसंस्कृत - प्राकृत नन्दिनी प्राकृत शौरसेनी श्रीनवफणापार्श्वनाथस्तव मागधी वसन्ततिलका मालिनी वस्तुछन्द अपभ्रंश प्रशस्ति (संस्कृत) हरिगीत १२ १३ १४ प्रत्येक चरण २८ मात्रानुं छे. (अहीं मागधी भाषामां जे त्रण श्लोको रचाया छे तेना छन्दनुं नाम जाणवा मळ्युं नथी.) स्तवनी रचनाशैली, तेमां रहेलुं काव्यतत्त्व वगेरे जोतां एम लागे छे १९ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 11 के कविनुं भाषा तथा कवित्व पर सारुं प्रभुत्व हशे. आ कृतिनुं शोधन पं. सोम गणिए करेलुं छे तेम तेना अन्ते आपेल पुष्पिकाथी जणाय छे. स्तवमां शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिकापैशाची भाषाना श्लोकोना अघरा शब्दोनी संस्कृत छाया अने क्यांक क्यांक भावार्थ पण प्रतिना हांसियामां टिप्पण रूपे मूक्या छे ते पण शोधके ज लख्या हशे तेवू अनुमानी शकाय छे. कर्ता : स्तवना कर्ता तरीके कोई नाम प्रतिमा निर्देशायेलुं नथी छतां छेल्ले प्रशस्ति श्लोकमां आवतां कीर्तिरत्न तथा कल्याणचन्द्र ए बे नाम परथी एवं अनुमानी शकाय छे के कीर्तिरत्नना शिष्य कल्याणचन्द्रे आ स्तवनी रचना करी हशे. 'जैन साहित्यना संक्षिप्त इतिहास'मां १६४९मां कोई गूर्जर साहित्यना रचयिता तरीके कल्याणचन्द्रनो निर्देश आवे छे. आ प्रतिनो लेखनकाळ पण १६मा शतकनो उत्तरार्ध होवानुं अनुमानतः जणाय छे. तेथी आ स्तवना रचयिता ते ज कल्याणचन्द्र होय तेवू अनुमान थाय छे. प्रति परिचय : प्रतिमां एक ज पत्र छे. तेनी बन्ने तरफ सुन्दर• स्वच्छ अक्षरोमां लेखन करवामां आव्युं छे. शैली पडिमात्रानी छे तेथी १६मा शतकमां लखायेली हशे तेवू अनुमानी शकाय छे. प्रतिना हांसियामां विषम पदोना अर्थो अपवामां आव्या छे. स्थिति सरस छे. श्रीनवफणपार्श्वनाथस्याऽष्टभाषिकं स्तोत्रम् ॥५॥ प्रणमदिन्द्रशिरोमणिरुग्भरो-दकविधौतपदाब्जरजःकणम् । नवफणप्रभुपार्श्वजिनेश्वरं, विनयतो विनुवामि कृतादरम् ॥१॥ तव गुणग्रहणादगुणोऽपि सद्गुणगणो मनुजो जिन ! जायते । किमुत पार्थिवगन्धगुणोऽनणुः, सुघनसारदलेन जले भवेत् ॥२॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 धृतधनुर्मदनो भवता हतस्तदुचितं रिपुरुद्धियते हठात् । सुमनसां मनसां हरणं गुणैः, कुतवच (त) स्तव कारणमीश ! किम् ? ॥३॥ ॥ संस्कृतम् ॥ अमरा भजंति सनरा निरंतरं, भगवंतमेव रमणीविरागिणं । गुणवंतमेव निपुणा न चाऽगुणं, परिमानयंति खलु भूमिमंडले ॥४॥ हिमधामवामकिरणानुकारिणो, महिमाभिरामवरसंविदानणो । बहवो गुणा गुणिगुरो ! वसुंधरा- वलयं कला धवलयंति तेऽखिलं ॥५॥ अकलंकचित्तमदरं मुदावहं, बलवंतमंतरमहारिदारणे । भवसंभवावतमसावलीहरं, तमहं नमामि भगवंतमुत्तमं ॥ ६ ॥ ॥ समसंस्कृतम् ॥ रेहंति कण्णजुयले तुह कुंडलाई, भासंतसंतमणिमोत्तियमंडलाई । दिप्पंतदित्तिभरणिज्जियतेयपूरा, सेवंति गल्लफलगे ज ( न ) णु चंदसूरा ॥७॥ एगंमि सेलसिहरे नवकप्परुक्खा, चिंतामणी णव किमिच्छियदाणदक्खा । सीसे णिही अहव किं धरिया जणस्स, दाऊं (उं) फणा णव लसंति सिरे जिणस्स ॥८॥ कट्टं गयं असरणं घणपंचबाण - वेसानरेण तवियं करुणानिहाण !! वामेय ! देव ! सदयं हिययं करेसि, दुक्खाउ कंत (कं न?) भुजगं च समुद्धरेसि ॥९॥ ॥ प्राकृतम् ॥ पुरवकदसुतादो दंसणं ते जिणिदा अनुसन्धान ३६ यणविसयमायादं जदा य्येव भंदा ! । मम गलिदमसेसं दाव पावं खणेणं जध किरि (र) हिमजालं भाणुणो दंसणेणं ॥१०॥ भमिय भमिय भग्गोऽहं भवे तं सुपत्तं लहिय जिणवरिंदा ! अम्महे मोहमुत्तं । णयणजुगलमेदं * अज्ज जादं पवित्तं फणिदमध च मन्ने अप्पणो माणुसत्तं ॥ ११॥ १. एवाऽर्थे । २. तावत् । ३. अहर्षे सहर्षं त्वां लब्ध्वेत्यर्थः । ४. एतत् । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 . 13 अमरगिरिगुहाए कप्परुक्खं च(व?) पासं खरतरवसहीए अब्बुदे पूरियासं । मणिकुसुमफणाली-साहुसाहाभिरामं णमध फलिदकामं पत्तसच्छायधामं ॥१२॥ शौरसेनीभाषा ॥ णहि हलदि पदीवे णेवयं शशहले वा पशलिदकलयाले शालदे दिणयले वा । तममिधमखिलं तं शंस्थिदं (शंठिदं) हिदयदेशे उवणयदि विणाशं तखणं यिणवलेशे ॥१३॥ भवियणमणगेहे यालिशं पयडिदाशं - यणयदि भगवंते दंशणं वलपयाशं । १२यलधलपुलिमुत्ते तालिशं ण हि दिणेशे कुणदि ण य तधा तं पेखिंदे कुमुदिणीशे ॥१४॥ यणमणभवणोहे णिचले किलि अणेगे गलिदशगलणेहे शन्त(शंत१५)दं अवि य एगे । स्थिलतलयिणदीवे शे तमं अवहणत्ते । कुदुर्गमदिपयाशं चिष्ठदे खलु कुणुत्ते ॥१५॥ मागधीभाषा ।। अनंगभडमुब्भडं सुदढपंचबाणोक्कडं कुनंति तव सेवका बत विघातपञ्जाजडं । पती हि जगतीपती भवसि जेसिमीशे तुमं बलिट्ठमपि किं लिपुं पलिभवंति ते नाउँकमं ॥१६॥ इमंमि किलि दुस्समा-समयकण्हदोसागमे विमुक्कसंललायता-पसलितंमि गाढंतमे । ५. प्रसृतकरजालो दिनकरोऽपि यत् तमो न हरति । ६. इह । ७. संस्थितम् । ८. तत्क्षणं जिनवरेशः । ९. यादृशम् । १०. प्रकाशं जनयति । ११. वरप्रकाशं, केवलमित्यर्थः । १२. जलधरपरिमुक्तः । १३. प्रेक्षितः । १४. निश्चलः । १५. सन्ततम् । १६. स्थिरतरज(जि)नदीप: सः । १७. कौतुकम् । १८. ईशः समर्थः, येषां त्वं जगत्पतिः पतिः-स्वामी वर्तसे । १९. अक्रम-समकालम् । २०. विमुक्तसरलायताः । - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 अनुसन्धान ३६ भमंति भवकानने जिन२१ दिनेसरा तेंऽगिनो लभंति सिवपद्धति तुममिहं हि दटून नो ॥१७|| सुलासुलनलेसला सुपलिवालसाला हिते २३ पते तव कते हिते जिनपती ! निसेवंति ते । अनंतसुखकंखिनो सुकमलेऽलिनो वा२४ सता भवंति हि पोतिनो लभिय के हितं कोविता२६ ? ॥१८॥ ॥ पिशाचीभाषा ॥ २७मानेनोन्नतफूथलेन कहनो कोथं २८थलंतोऽनलं ___ लोफेनं फलितो चलेन मकले३° तोसे तथानो अलं । ले ३१संसालकफीलफीमचलथी तिन्नो मए तं महं पत्तो पासचिनोत्तमं कुनकैनाकालं हि पोतं अहं ॥१९॥ पाताकंतमहीतलेऽतिविपुले दंतेहि संलाचिते३३ उच्चे ३४चालुनितंपपिंपकलिते वल्लीकुथाछातिते । मेखाटंपरआतपत्तलचितच्छाये ३६च्छलंफोमते आसीनो फनसेखलो किलिकचे पासप्पहू लाचते ॥२०॥ सामी पासपहू हु मोहचलटो निच्छाटितो चो तए सो ३८नट्ठन हलातितेवहितयाकाले ठितो निप्फए । तेनं तेऽपि विकोपिता विनटिता संसाललन्ने सुला ३९चुत्तं तस्स न किं भवंति पिसुना सत्थानपाथाकला ॥२१॥ ॥ चूलिकापिशाची भाषा ॥ २१. हे जिनेश्वर !! २२. दृष्ट्वा । २३. हिते पदौ तव कृते हितौ दत्तवाञ्छितौ । २४. यथा सदा। २५. प्रमादिनः । २६. कोविदाः । २७. मानेन भूधरेण गहनः । २८. क्रोधमनलं धरन् । २९. लोभेन जलेन भरितः । ३०. अलमत्यर्थं दोषानेव मकरान् दधानः । ३१. रे संसारगभीरभीमजलधे ! त्वं महान् मया तीर्णः । ३२. गुणगणागारम् । ३३. संराजिते । ३४. चारुनितम्बबिम्बकलिते । ३५. मेघाडम्बरातपत्र० । ३६. क्षरदम्भोमदे । ३७. यस्त्वया मोहचरटो निर्धाटितः । ३८. स न(न)ष्ट्वा हरादिदेवहृदयागारे स्थितः । ३९. युक्तं तस्य। ४०. स्वस्थानबाधाकराः । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 15 वंसु उत्तमु वंसु उत्तमु पुहविसुपसिद्ध धण-कंचण-घण-रयण-सयणवग्गु उ मग्गमुत्तउ बहु मन्नइ धुरि नरह नरवरिंदु आणंदजुत्तउ । सामिसलाहण-म(भ?)त्ति इध फलु इत्तलउ लहंति भवियण जिण ! माहप्पु तुह कह मारिस जाणंति ? ॥२२।। मणुयलोयहि मणुयलोयहि रज्जु आसज्जि दहदोइकप्पाहिवइ हविय विविहबहुसुहुवभुंजिय गेविज्जणुत्तरपवरसुहसएहि अप्पाऽणुरंजिय । तव विणु केवलु लहिय पय पावइ परमाणंदु नाममंतु जंपंत तुह भवियण पासजिणिद ॥२३।। विसमआसण विसमआसण के वि सेवंति कि(के)वि दुक्करु करइं तवु के वि झाणु झायंति चित्तिहि । कि(के)वि कट्ठउ उक्किट्ठतर चरई तुज्झ दंसणनिमित्तिहि । कटरि कटरि मह पुव्वभव-संचियसुकयअपार चिंतामणिसम पासपहु अलवि पत्त सुहयार ॥२४॥ [ अपभ्रंशभाषा ॥] इति पार्श्वजिनपतिरमितगुणततिविहितसुमतिरनुक्षणं भाषाभिरष्टभिरभिनुतोऽर्बुदविशदभूधरभूषणम् । श्रीकीर्तिरत्नसुखानि दिशतादिह परत्र पदं परं कल्याणचन्द्रवितन्द्र वदनाकृतिरयं भवतां वरम् ॥२५।। ॥ इति श्रीअर्बुदाचलमुखमण्डन-श्रीमण्डलिकवसहीमण्डन श्रीनवफणपार्श्वनाथस्याऽष्टभाषिकं वर्धमानच्छन्दोभिः स्तोत्रमिदमिति ॥ ॥ पं० सोमगणिविद्वद्वरैः शोधनीय(शोधित?)मिति ॥ छ । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हयाटाखाट काव्य- सटीक सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय आ काव्य एक ज श्लोकनुं छे. तेमां केतु सिवायना सूर्यादि आठ ग्रहोनां वाहनादि साथे अट् धातुने जोडीने बनावेलां नामो द्वारा ग्रहोने प्रार्थना करवामां आवी छे, के अमारुं रक्षण करो. आ श्लोकनी टीका पण साथे आपी छे, जे प्रतिनी शरुआतमां लखेल श्रीवीतरागाय नमः ॥ एवा उल्लेखथी कोई जैन विद्वाने ( मुनिए / गृहस्थे) लखेली होय तेवुं अनुमानी शकाय छे. टीकाकारे सर्वप्रथम श्लोकनो ध्वन्यर्थ आप्यो छे अने पछी एक एक शब्दने लई तेनी व्युत्पत्ति करवापूर्वक अने सन्दर्भरूपे अनेक कोशोनो आधार आपवापूर्वक, तेनो अर्थ एक एक ग्रहमां प्रस्थापित कर्यो छे. जे तेमना व्याकरणादि शब्दशास्त्रोना पाण्डित्यने सूचवे छे. तेणे जे कोशो / कोशकारोनां नाम, सन्दर्भरूपे पाठ साथे आप्यां छे, ते छे : शब्दार्णव, हलायुध, धनञ्जय, सार्व, अनेकार्थध्वनिमञ्जरी, शाश्वत, निखिलार्थ, केशव, काण्व. 'काव्योहारक' अने 'काण्ड' ए पण कोई काव्यना उद्धरणरूप तथा कोई कोशवाचक नाम होय एम जणाय छे. कर्ता : स्तुतिना कर्ता अथवा टीकाना कर्ता तरीके आखी प्रतिमां क्यांय कोई उल्लेख नथी. प्रति परिचय : पाटणना श्रीहेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिरना डा. ३९१ नी १८३७० क्र. नी प्रतिनी झेरोक्षना आधारे आ कृतिनुं सम्पादन कर्यु छे. प्रतिमां १ ज पत्र छे. तेनी बन्ने बाजुए लखाण छे. अक्षरो मोटा तथा सुघड छे. लेखक अथवा लेखनसंवत्नो क्यांय उल्लेख नथी परन्तु लेखनशैली उपरथी लेखनकाळ १८ मो सैको अनुमानी शकाय . Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 ॥ ५ ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥ सटीकं हयाटाखाट-काव्यम् हयाटाखाट-सिंहाटागोटाजाटास्सशक्तयः । खाट-पाट - सरोटाटा वारनाटा ह्यवन्तु नः ॥१॥ अस्य ध्वन्यर्थः कश्चिदात्मानं प्रति स्वाशिषमुररीकृत्य वदति - ते वारनाटा: सूर्यादयोऽष्टसङ्ख्यावच्छिन्नग्रहाः नः अस्मान् अवन्तु - रक्षन्तु वा पालयन्तु । कथम्भूतास्ते ? हयाटाखाटसिंहाटागोटाजाटा: - हयेन सप्तास्यविलक्षणेनाऽटति लोकं परिक्राम्यति वाऽऽक्राम्यतीति हयाटः सूर्यः । तदेव कोशेन वाच्यम् मार्त्तण्डः काश्यपि सूर्यो हयाटो लोकतापनः । इति शब्दार्णवेन । चन्द्रमाः कीदृश: ? आखाट: सूर्यस्य पृष्ठि (ष्ठ) तो गच्छतीति आखाटश्चन्द्रः । आखेन करणीभूतेन मृगेणाऽरति आखस्तु मृगरेवत्योराखुर्मूषकवाचकः । इत्यपि शब्दार्णवे स्पष्टम् । हिमांशुश्चन्द्रमा दोषी मृगाटाखाट इत्यपि । इति हलायुधः । 17 भौमः कीदृश: ? -सिंहाट:- शृङ्गादिभिर्भूतलं हिनस्ति वा ताडयति वा उत्खनतीति सिंहः वृषभः । तेन सप्तर्षिमध्याधोदेशेनाऽटति गच्छतीति सिंहाटो भौमः 1 शृङ्गी कर्दमकोऽत्यागी सिंहो वृषभ इत्यपि । इति धनञ्जयः । कुज: कुसूनुः सिंहाटो भौमो भूमिसुतश्च सः । इति सार्वः । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 बुधः । बुधः कीदृश: ? खाटः । हरिद्रूपो बुधो गोट । गोट: गौरिन्द्रिये हये चापे सूर्ये पृथ्व्या (व्य ) ङ्गविस्तरे । इत्यनेकार्थध्वनिमञ्जर्याम् । सिंहाटगोटाजाटा: । - गुरु: कीदृश: ? अजाट :- अजेन पीतकरिणाऽटति गच्छतीति अजाट: । लीलालपेज्यः अजो वै पीतनागकः ॥ इति काव्योहारकः । बृहस्पतिरजोटाऽपि ॥ शुक्रः कीदृश: ? अनुसन्धान ३६ गवा हरिदश्वेनाऽटति गच्छतीति गोट: इति शास्वत : ( शाश्वतः ) । इति काण्डः । हयाटश्च आखाटश्च सिंहाटश्च गोटश्च अजाटश्च ते हयाटाखाट खाटः - खेन स्वे (श्वेताश्वेनाऽटति गच्छतीति खशब्दो नागके सौराजाकाशे श्वेतवाजिनीति शब्दार्णवः । खाटः शुक्रस्सुराचार्यो भार्गवश्चोशनाः कविः ॥ इति हलायुधः । शनिः कीदृश: ? पाट:-पेन खञ्जपादेनाऽटति वा पेन महिषेणाऽटति गच्छतीति पाट: । पस्तु पद्मे खरे देहे पादख तु वर्वरे ॥ इति निखिलार्थः । पाटस्तु गवि ताम्बूले शनौ पारग इत्यपि ॥ इथि शब्दार्णवः । राहुः कीदृश: ? सरसि वा तदेव अटतीति सरोट: मीनः । सरोटेन मीनेनाऽटति गच्छतीति सरोटाट: राहुः । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 September-2006 ___19 मत्स्ये हंसे सारसे च सरोटः परिकथ्यते ॥ इति केशवः । राहुस्तमस्सरोटाट: ॥ इति काण्वः । केतोस्तु राहुशिरःपृथक्मात्रविवक्षया विवक्षितत्वमत एव नेहोचितम् (नेहोक्तम्) । खाटश्च पाटश्च सरोटाटश्च ते खाटपाटसरोटाटाः । पुनः कथम्भूताः ?सशक्तयः । शक्तिभिः षोडशमातृकादिभिः सह वर्तमाना इत्यर्थः । वा स्वस्वपत्नीभिः सह वर्तमानाः, वा अष्ट-दुर्गादिशक्तिभिः सहेति । इत्यनेन स्त्रीणां परदुःखासहिष्णुता सुखगन्तृत्वभावश्च सूचितः । स्वदुःखप्रहाणेच्छानुकूलतया तासामत्राऽतिप्रसङ्गश्च । एतद्विशेष्यविशेषणावच्छिन्नसूर्यादय: वारनाटाः स्वस्वदिनेषु नाटयन्ति वा स्वयमेव नटन्ति-इति वारनाट:(टाः), नः अवन्तु । कुतो ? यतः सशक्तयः । अतः शक्त्या सह वर्तमाना नो-अस्मानपि पालयन्तु इति सङ्क्षपान्वयः ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा प्राता सारंगमुनि प्रणीता सूक्ति द्वात्रिंशिका ___ सं. अमृत पटेल चंद्रगच्छीय मडाहडीय शाखामां थई गयेला अने यदुसुन्दरकाव्यनां सर्जक श्रीपद्मसुन्दर गणिनां शिष्य श्रीसारंगमुनिओ जवालिपुर (जालोर)मां विक्रम संवत् १६५० मां गजनी यवनराज तरुण(?)नां राज्यकाळमां प्रस्तुत सूक्ति के सुवाक्य के सुभाषित द्वात्रिंशिकानी रचना करी छे. आ एक अपूर्व कहेवाय एवो प्रयास छे. कारण के मूळ कृति अपभ्रंशप्रधान लोकबोलीमां रचाई छे. एनी उपर कविले पोते संस्कृतभाषामां वृत्तिनी रचना करी छे. जो के आq एक उदाहरण ध्यानमां आवे छे के लघुहरिभद्र उपाध्याय श्रीमद यशोविजयजी महाराजे जैनदर्शन मुजब द्रव्य-गुण-अने पर्यायनी मीमांसा करता "द्रव्यगुणपर्यायनो रास' नामना ग्रन्थनी रचना ढालबद्ध गुजराती भाषामां करी छे तेनी उपर संस्कृतमां वृत्ति रचाई छे. आ द्वात्रिंशिका, तेनी मंगल आर्यानी वृत्ति मुजब 'दोधक-दोहा (१३ + ११ मात्रानां बंधारणवाळा) नामनां जातिछन्दमां निबद्ध छे, जे प्रसिद्ध (भगण x ३ x गागा = भानस भानस भानस गागानां बंधारणवाळा) दोधक छन्दथी भिन्न छे. (भी! दोधकं । छन्दोनुशासन २/१३०). प्रस्तुत सम्पादनमा त्रण प्रतोनो उपयोग कर्यो छे. तेमां पाठान्तरो नहिवत् छे अने अमुक अशुद्धिओनुं सम्मान पण अन्योन्य पाठोथी थयुं छे. एटले पाठभेदो नोंध्या नथी. आ त्रण हस्तप्रतो लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर-अमदावादना हस्तप्रत भण्डारनी छे. ते त्रणेय प्रतोमा २५ x ११ c.m. नां परिमाणनां त्रण-त्रण पानां छे. तेमांथी (१) भेटसूचि २८३०८ क्रमांकनी प्रथम प्रत सटीक छे. अने पं. नयनसुन्दरगणिए लखी छे. (२) भे.सू. १५२१२ क्रमांकनी बीजी-प्रतमां मात्र विवरण छे. (३) भे.सू. २०५०० क्रमांकनी त्रीजी प्रतमा मात्र मूळ कृति छे. केटलाक शब्दो अने अर्थघटनो : प्रस्तुत द्वात्रिंशिकामां केटलाक शब्दो अने वृत्तिमां करायेल अर्थ घटनो ध्यानार्ह छे. एवा केटलाक शब्दोनी सूचि आ प्रमाणे छे. शब्दनी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 21 आगळ दोधकनो अंक आपेल छे. १. गंभीर (वृत्ति) =नम्रजनोना गुणदोषनो विचार करनार, २. रक्ष =राखवू, राखी लेवू, ३. वपुरे =बापडां [बप्पुड =देशीनाममाला प. ३८७], ४. रुषि =कृपा, ४- वहोरइ =(व्यवह) व्यवहार करे छे, आपे छे. ५. सधर =समर्थ सद्धर / २ अने ६ सेव्य, सेवयत सेवा शब्द उपरथी नामधातु प्रयोग. ६ नववीस =१८० > ९ x २०. २१ श्लाघयन्ति =श्लाघा शब्द उपरथी नाम धातु. ७ अने १० - सुवास = स्व > सुव + आश्रय = आस > सुवास =पोतानो आश्रय, तथा सुवास-सुगंध-आम चतुराई पूर्वक श्लेष करेल छे. एवं ज पयोयुग =दूध अने पाणी बन्ने अर्थोनो हंसनां उदा० मां श्लेष कर्यो छे. ९. दुंग =परिताप १४. चटति = चढे छे. १५. जबाधि =सुगन्धित पदार्थ. जे मार्जार जेवा प्राणीनां शरीरमां उत्पन्न थाय छे. १७. कार =माहात्म्य, प्रभाव, १७. वृत्ति - झम्पयति =अडके छे. स्पर्श छे. १९. अविनीतः अचतुराणि (वृत्ति)-असुन्दर. २१. सज्जन =मित्र, २४-वृत्ति कुसज्जन =कुमित्र. २३. गुडल-गंदु, झांखु, मेलु (पाणीना विशेषण तरीके वपरायुं छे.) २६, १० =सउ - सदृश सर-समान. २७- फुहडि -फुवड स्त्री. २८- तंबा =गाय, (देशीनाममाला ५.१) ३१. चीज =वस्तु. ३१. रुलिओ-(वृत्ति-)रुलितः =रोळ्यो, नाश पाम्यो. सूक्ति द्वात्रिंशिका मांथी प्राप्त थतो उपदेश. ३२ पद्य प्रमाण प्रसतुत लघुकृतिमां विपुल विषयवैविध्य न होय ए स्वाभाविक छे. छतां भगवद्भक्ति, सौजन्य, दुर्जनसंगत्याग, नम्रता ए गुणाधार छे, वगेरे उपदेश-विषयो कवितामां सर्जाईने रम्य अने हृद्य बन्या छे. __ प्रत्येक दोधकना पूर्वार्धमां उपदेश छे, अने उत्तरार्धमां तेनी पुष्टिमां उत्तम उदाहरणो छे. जेमके (१) भगवान दीनोद्धारक छे. शरणागतवत्सल छे. माटे तो श्रीरामे शरणागत बिभीषणने रावणगढनुं राज्य सोंपी दीधुं, (२) मूर्खने उपदेश हानिकारक बने छे. सर्पने दुग्धपान विषरूप ज बने छे.. (४) मोटानी महेरबानीथी बळ मळे छे. वराह-वानरोओ रामनी कृपाथी त्रिभुवनविजेता रावणर्नु लंकाराज्य लई लीधुं. (५) कारण के समर्थनां Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 अनुसन्धान ३६ शरणागतने मोरो शत्रु पण कंई कही शकतो नथी. जुओ शंकरनुं वाहन होवाने कारणे नांदीने, पार्वतीनुं वाहन सिंह जाति शत्रु होवा छतां कांई ज करतो नथी. (६) अहीं कविओ एक मोटी वात कही के समर्थ ज, अन्य समर्थने सहाय करी शके छे माटे समर्थनो ज सम्बन्ध राखवो. सेंकडो नदीओ नहीं, पण मेघ ज पर्वतनां संतप्त देहने शीत- शाता आपी शके छे. (७) श्रेष्ठ संगथी कनिष्ठ पण गुणान्वित बने छे. मलयगिरि उपरनां निम्ब वगेरे वृक्षो चन्दन ज कहेवाय छे ने ?, (८) एटले उत्तमजननो संग करवो. भले ने लोखंडनी बनी होय पण ते वींटी ललनानी अंगुलिमां तो शोभे ज छे. तमारा अवगुणो सज्जनसंगे कां तो दूर थशे कां तो ढंकाई जशे (९) क्यारे पण अक्कड न थवुं, आपणी अकडाई तो थोडा ज दिननी महेमान होय छे, पछी तो समय जतां एवो झोल-झुकाव आवे छे के पाछा ऊभा थवुं पण मुश्केल लागे. (१०) जेनो संग करीओ तेनी चार बाबतोनी परीक्षा करवी १. माता - पितानी शुद्धि, २. खाणीपीणीनी शुद्धि, ३. नेत्रोनी निर्मलता, ४ मननी शुभइच्छाओ. जेनी आ चार वस्तु शुद्ध होय ते ज क्षीर-नीर विवेक करी शके छे. माटे राजहंस समान ए सज्जन जननी संगति योग्य छे. कारण के विवेकथी ज दोष नाश थाय छे. (११) बाकी तो कांटा जेवी जीभवाळानी सोबत बहु नठारी. बोर साथे भळवाथी ज, मोदकमां मिश्र थईने पोषक बनवानो गुणधर्म धरावतो गोळ, मदिरानी जेम मादक बनी जाय छे. (१२) आथी ज दुर्जननो संग त्याज्य छे केमके दुर्जन, कां तो अंगारानी जेम बाळे, कां तो कोलसानी जेम हाथ काळा करे. (१३) माटे तो लोको दुर्जन, वांका, वांकदेखाने नवगजनां नमस्कार करे छे. अहीं कविओ सरस रीते, 'चन्द्रबीज कला' नमनमां कारण रजू कर्तुं छे के 'अधुरी' छतां बीजनी चन्द्रकलाने बधा नमे छे, कारण के ते कुटिल वांकी छे अने पूनमनो चन्द्र सम्पूर्ण छतां कोई नमन करतुं नथी - कारण के सरळ छे. (१४) जो शरुआतमां कष्ट सहन करो, तो उच्चस्थाननी प्राप्ति अ तेनुं फळ छे. कुंभारनां टपलां खाई खाईने घडायेल घडो, नमणी रमणीना मस्तके शोभे छे. (१५) सर्वत्र गुण ज प्रधान छे. जन्म के जन्मस्थळ नहीं. 'जबाधि' जे मार्जार शरीरमां पेदा थाय छे. पण ते सुगंधि होवाथी बधा अने स्वीकारे छे. (१६) समर्थनो दोष कोई ना जुओ. - 'अर्धनारीनटेश्वर' शंकरने कोण निंदे छे ? अहीं याद आवे छे के. "समरथकुं Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 नाहि दोष गुसांई.' (१७) समर्थथी बधा डरता पण होय छे. 'बळता अग्नि' ने नहि पण 'ठंडी राळ'ने बधा अडके छे. (१८) सन्तान उपर माता-पितानां संस्कार पडता होय छे. जूओ स्वाति नक्षत्रमा वर्षेनुं पाणी, छीपमां मोती बने छे. अने कदलीस्तम्भ-केळनां थड जेवा निःस्सार पदार्थमां पडतां कपूर बने छे. जे पवनमां ऊडी जतुं होय छे. ज्यारे मोती टकाऊ होय छे. (२०-२१) वस्त सारी छे के नरसी छे ते योग्य अवसरे ज खबर पडे छे. एटले ज वर्षाऋतुमां मोरनो टहूको मीठो लागे छे अने शरदऋतुमा कर्णकटु. अर्थात् चक्रनेमिक्रमे सुख दुःखनी व्याख्या समयने आधीन छे. (२२) हवे नवो विषय लईने कवि अपमान सहन करनार करतां पेली धूळ वधु सारी के जे तेने लात मारे, तेनां माथे जईने पडे छे. (२३) कोई मित्र जो शत्रु बने तो, तेनाथी दूर जईने रहे. ए माटे, सुन्दर उदाहरण ओ छे के मरुदेशमां वर्षाद पडे त्यारे धूळ ने कारणे कादव थाय एटले स्वच्छ जलनो रागी राजहंस त्यांथी दूर जईने मानसमां वसे छे. (२४) अने मित्र जो आपणा दोषो जाहेर करे तो मित्रनो त्याग करवो. एटले 'मर्मभेदी' मित्र ए हकीकतमां शत्रु छे (२५) एम छतां कोईक वार घणा लोको आपणो विरोध करे तो आपणे मौन राखवं, कारण के दुर्जयो हि महाजनः होय छे. (२६) हवे जो कोईक भूतपूर्व शत्रु आपणने अनुकूळ थईने स्नेह वर्षावे तो तेने आदर आपवो अर्थात् जूनुं वैर भूली जवं. अमां ज भलुं थाय छे. (२७) अने कंईक हितकारी बाबत होय तो एने सांभळीओ. (२९-३२) अहीं विषय बदलीने कवि स्वार्थनी वात जणावे छे के जगत स्वार्थी छे. वाछरडं पण गायने त्यजी दे छे के ज्यारे एने धाववानी जरूर न होय. नीच जन पोते जेनाथी ऊंचे आवे छे तेने ज पाडे छे. एटले कवि कहे छे-जुओ धूम अग्निमांथी पेदा थयो अने ऊंचे आकाशमां जईने मेघरूप बनीने वर्षे छे अने अग्निने ज ओलवी नांखे छे, त्यारे जगतमां जन्म धारण करीने सहुओ यशोर्जन माटे प्रयास करवो, पण अपयश थाय एवं न करवू. आवो अपयश मोटे भागे 'पराई वस्तु' उपर नजर बगाडवाथी, अने लई लेवाथी थाय छे. बळवान रावण पण सीतार्नु हरण करीने अपयशपूर्वक नाश पाम्यो. छेल्ले कवि जणावे छे के आ बधा सद्गुणसद्व्यवहारनो सार एटलो ज के गमे के न गमे पण भगवंतनुं चरण-शरण स्वीकारो. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 अनुसन्धान ३६ कवि कृतिनां आरम्भ अने अन्तमां भगवद्भक्तिनी ज वात करी छे ए समग्र मानव भवना जीवनसाररूप सद्गुणो-बळ - नैतिकता नम्रता परद्रव्यरनिस्पृहा बधुं ज भगवाननी भक्ति माटे उपयोगी छे अने एनां फळ रूप पण छे. -X श्रीपार्श्वजिनमानम्य पूर्वदिग्वाक्कृतां स्वयम् । सूक्तिद्वात्रिंशिकां भाव-भेदतो विवृणोम्यहम् ॥ १ ॥ तत्रादौ निर्विघ्नतायै मङ्गलमाचरन् कविः सरस्वतीनमस्करणरूपं, प्राकृताविर्भूतभाषागुणतया प्राकृतगाथयैव तन्मङ्गलमाचष्टे. यथा - सुहवराणनिआणं साणंदं सिरिसरस्सई नमिउं । अप्पसुबोहसवित्ति सुत्तिसुदुत्तीसिअं बेमि ॥१॥ आत्मनः अहं सूक्तिद्वात्रिंशिकां ब्रवीमि इति ग्रन्थाभिधानं लोकभाषया 'सुभाषित बत्रीशी' इति सूचितम् । तत्कथनप्रयोजनमाह किंभूतां ? सुबोध: सुज्ञानवत्ता, तस्य सवित्रीमुत्पादयित्रीम् । अत एव लोकेऽपि ज्ञानवतो जनस्य सुवाक्यभाषणं यशः सञ्जाननं, प्रसिद्धमिदमेव प्रयोजनम् । किं कृत्वा ? सानन्दं हर्षप्रकर्षेण, श्री सरस्वतीं नत्वा । कीदृशीं ? शुभं कल्याणकारणं, वरं प्रधानं यत् ज्ञानं, तस्य निदानं मूलकारणम् । यदुक्तम् - " सरस्वतीप्रसादेन काव्यं कुर्वन्ति मानवाः " । इत्याद्युक्तिवशात्, इति प्रथमगाथार्थः । अतो दोधकवृत्तैरेव ग्रन्थग्रथनं, तदादावपि मङ्गलाचरणकरणार्थं पूर्वदोधके भगवद्भजनलक्षणप्रतिपादिनीं शिक्षां वक्ति मूल- दोहा 'भगत भाइ ! भगवंत भजि, गुहिर गरीबुनिवाज । देखि बिभीषन कुं दयउ, रावणगढ कुं राज ॥१॥ हे भक्त ! सरलहृदय ! त्वं भावेन भगवन्तं भज सेवय । किंभूतं ? गंभीरं प्रणतजनगुणागुणादिविचारकारिणं । पुनः कीदृशं ? - गरीबुनिवाज इति दीनोद्धरणदक्षम् । तत्स्वरूपं दृष्टान्तेन द्र (द्र ) ढयति - श्रीरामेण व्याख्या - Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 25 चरणशरणागतं बिभीषणं दृष्ट्वा, रावणगढस्य लङ्कानगर्याः राज्यं, तदैव प्रदत्तम् ॥१॥ ___ अथ रावणाय स्वस्त्रियोक्तं - रे ! शठ ! त्वं सीतां मा रक्ष, अनर्थमूलमित्यपि शासनमदं मन्यस्व, स्वयं विनष्टो [भावी च] । अत एव 'मूर्योपदेशो न श्रेयान्' इति वक्तव्यतां विचिन्त्याऽऽह च - मूल दोहा- मति म हारहु मूढ कुं, परगट दे परबोध ! विषधर कुं पय होइ विषु, कठिन उपाय हि क्रोध ॥२॥ व्याख्या - हे सज्जनाः ! मूढाय प्रकटं प्रत्यक्षं प्रतिबोधं दत्त्वा स्वमति मा हारयत इति, कण्ठशोषं मा कुरुत । तद्धेतुमाह - विषधरस्य पयो दुग्धं पीतमितिशेषः, विषमिव भूत्वा कठिनं क्रोधमुत्पादयतीति तात्पर्यम् ॥२॥ यदा प्रतिबोधं प्राप्याऽर्हन्तं भजति, तदा किं स्यात् ? इत्याशङ्किनः शास्ति - मूल दोहा - रुषि करता की राउ कुं अबलुं हरइ-अभिमान । सिररूपी ससि-सूर कुं पकरइ राहु परांन ॥३॥ __व्याख्या - कर्तुरर्थतः परमेश्वरस्य कृपाप्रभावेन अबलोऽपि महादीनोऽपि, राज्ञः सदैश्वर्यस्य अभिमानं हरति गर्वं त्याजयति । तदेव दर्शयति - कबन्धं विना केवलं शिरोरूपी राहुः ग्रहणपर्वदिने शशिनं सूर्यं च, महाबलवानिव ग्रसति इति तत्त्वार्थः ॥३॥ पुनरपिमूल दोहा - रुषि करता की राउ कुं, अबल वहोरहिं अंक । वपुरे वानर बंधि वरु लयउ महागढ लंक ॥४॥ व्याख्या - कर्तुः कृपया अबलाः, राज्ञे कलङ्कं ददति, यथा वराकैनिरैर्बलं बद्ध्वा त्रिभुवनविजयिनो रावणस्य महागढो महादुर्गो लङ्कालक्षणो गृहीतः । इति विचार्यम् ॥४॥ वानराणां रक्षाकरं रामं जेतुमसमर्थस्य रावणस्य शक्तिर्न स्फुरिता, इति विचारमाकलय्याऽथ कथयति वाल Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 मूल दोहा व्याख्या सधरो माहात्म्यवान्, तस्य शरणं चरणसेवनं, तस्य भयेनेति, अस्य रक्षिता बलीयान् इति विचिन्त्येति, सधरो पि बलवत्तरोऽपि, अरिः सपत्नो, जन्मनि इति आजीवितान्तं, कलहं न चिन्तयति । तदेव दृष्टान्तेनाऽऽविर्भावयति- (हरे: ) ईश्वरस्य यानं वृषः, पार्वत्या हरिः सिंहः, द्वावपि निर्विरोधवृत्त्या एकस्मिन् सङ्गे तिष्ठतः परं वृषभस्य चेतसि किञ्चिदपि भयं नोत्पद्यते, तद् रक्षितुरेव निदानम् इति भावार्थ: ॥५॥ " अथ कथमपि विपदं प्राप्य समर्थैः समर्थ एव सेव्यः यथाऽनडुहा महादेवः श्रितस्तथा इति तात्पर्यमाविष्करोति मूल दोहा - सकज ! सुकजि सेवहु सकज, न धरहु नीच जगीस । गिरि तपु घन मेटति गुहिर, निफर नदी नव वीस ॥६॥ व्याख्या समर्थाः स्वकार्यसिद्ध्यर्थं समर्थानेव सेवयत परं विपत्प्रतीकाराय । नीचैर्वृत्तिपरेभ्योऽर्थान्नीचजनेभ्यः स्वाशापूरणं मा धारयत । यथा दृष्टान्तमाह गिरेः महापर्वतस्य, तपं ग्रीष्मर्तुजनिततापं, मेघ एव बहु वृष्ट्वोपशामयति, पर नवविंशतिर्नद्यः इति विंशतिहीनं शतद्वयं नदीनामुपरि वहन्ति, तथापि निष्फला भवन्ति इति, अर्थात् तापं न शमयन्ति इति तत्त्वार्थः ॥६॥ अनुसन्धान ३६ सधर सरण डरिं अरि सधर, जनमि न चितवहि जंग | हर - गिरिजा के वृषभ - हरि सुपरि रहइ इक संग ॥५॥ - अथ च सुपार्श्वसेवया हरवृषभ इव सुष्ठु नैव भवतीति सुवास - वास्तव्यविधिर्वरतर इति दर्शयितुकामो निरूपयति : मूल दोहा - सारंग पास सुवास के जिहिँ तहँ बिधि रिधि जोइ । निंबादिक नग मलय के सोरंभ पावहिँ सोइ ||७|| व्याख्या कविः स्वाभिधां स्वात्मोपदेशरूपद्वारेण परोपदिष्ट्या वक्ति कुहचित्, तत्र हे सारंग ! सुवासस्य इति स्वाश्रयस्य (१) सुरभिस्थानस्य (२), द्वयर्थोऽयं शब्दोऽवगन्तव्यः । पार्श्वे समीपे वसनशीलस्येति शेषः, यथा कथञ्चित् प्रकारेण ऋद्धिः सम्पत् सम्पद्यते । यथोदाहरणहेतुना दृ ( द्रढयति मलयपर्वतस्य निम्बादयोऽपि कटुतरतरवः तेऽपि तदेव सौरभ्यं सुगन्धं प्राप्नुवन्ति । — , Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 27 अत एव लोकोक्त्या मलये चन्दनतरुसुरभिणा वायुप्रचारेण निम्ब-करीरादिषु (सुरभि) सम्भवतीति श्रुतमिह प्रसिद्धम् ॥७॥ अथवा यथा निम्बादिभिः सुसंसर्गतो माहात्म्यं प्राप्तं, तथोत्तमकरादिलग्नो निर्बलोऽपि जनः शोभते इति, एतदेवाऽऽहं - ___ मूल दोहा- उत्तम के आदरि अबल, सुन्दर पावइ सोह । ललना के करि लोह की, मुद्रा जनमन मोह ॥८॥ व्याख्या - उत्तमानां आदरेण महत्त्वप्रदानेन अबलोऽपि सर्वप्रकारेण क्षीणोऽपि सुन्दरां जगन्मोहजननीं शोभां प्राप्नोति । अमुमेवार्थं परार्थसंसूचितदृष्टान्तेनोपदर्शयति - यथा ललनायाः विलासिन्याः करे स्थिता लेहस्य मुद्राऽङ्गलीयकं तुच्छं निर्मूल्यं दुर्वर्णमपि सुसङ्गत्या जनानां मनांसि मोहयतिइत्यवधार्यम् ॥८॥ __ अथ पूर्वोक्तदोधके 'सुसङ्गः कार्यः' इत्युक्तं, स च स्वसरलतयैव सम्भवति, न तु स्तब्धवृत्त्या - इति विवेचनमाहमूल दोहा - इक तीखे अरु अतितबध, दरसि उपायहि ढुंग । तिही कुं पतन नजीकतर, तरुणी कुच ज्युं तुंग ॥९॥ व्याख्या - एकतो ये प्रकृत्या तीक्ष्णाः, तथाऽतिस्तब्धाः अनमनशीलाः, पुन आत्मानं दर्शयित्वाऽन्येषां चेतसि वह्निवत् परितापमुत्पादयन्ति; तेषां पतनं अधोभावः स्तोकैरेव दिनैः अवगन्तव्यमित्यध्याहारः । यथा तदेव सूचयति - के इव ? - तरुणीनां तुङ्गा उन्नताः कुचा इव तेऽपि पूर्वोक्तदोषदूषिताश्चिरं नोदयोन्मुखास्तिष्ठन्ति, स्वल्पकालेनैव पतन्तीति भावः ॥९॥ अथ पूर्वोक्ततैक्ष्ण्यादिदोषपरिहारो विवेकवत्ता चैव स्यात्, सा कुत्र भवतीत्याशङ्क्याऽऽहमूल दोहा - पख-भख-चख-रुख जिही पवर, तिहीं तनि तकहु विवेक। पययुग पटंतरि हंस सओ, ओर न पंछी एक ॥१०॥ व्याख्या - येषां एते चत्वारः पदार्थाः प्रवराः श्लाघनीया भवन्ति । के ते १. प्रथमतः पक्षशुद्धिः मातृ(ता)पित्रोः पक्षद्वयं शुभम् । अथ भक्ष्यमाहारो मांस-मद्यादिरहितं विमलमनुच्छिष्टमिति यावत् । तृतीयं चक्षुः कुव्यापारवर्जकं Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 अनुसन्धान ३६ स्वालोकनपरं । तथा चतुर्थं 'रुख' शब्देन मन:- परिणतिः चित्तेच्छेति यावदुच्चैः पदं भवन्तीति चत्वारोऽपि प्रकारा उक्ताः तेषां वपुषि शरीरान्तरिति । हे सज्जनाः इति शेषः । विवेकं युक्तायुक्तविचाररूपं, तर्कयत जानीत । तदेव स्पष्टयति यथा 'पयोयुगस्य नीर - क्षीरैक्यस्य, पटंतरीति भिन्नकरणकारणो हंससदृशोऽपरः कोऽपि कश्चित् पक्षी नास्ति, येन हंसस्यैते पूर्वार्धप्रणीताश्चत्वारोऽपि पदार्थाः प्रवराः क्रमेण शुद्धपक्षता, भक्ष्यं मुक्तारूपं चक्षुर्निर्मलं गुणागुण [ विवेक] परं मनःपरिणतिरुच्चा, सुस्थानवासरुचिलक्षणेति रहस्यम् ॥१०॥ पूर्वं प्रतिपादिता विवेकिता नीचजनसङ्गत्यागादेव भवति, अन्यथा सन्तोपि गुणा गलन्तीत्युपदर्शनार्थमतो ब्रूते मूल दोहा , कंटकिकी संगति कीई परि गुण की प्रतिकूल । व्याख्या मधुर द्रव्य मादक महा, मिश्रित बदरीमूल ॥ ११ ॥ कण्टकिनां निजवाक्यकण्टकवेधोद्वेजितजगज्जनाः अर्थाद् महाकुटिलस्वरूपाः, तेषां सङ्गतिर्मेलः, तस्यां कृतायां पूर्वोपार्जित - गुणानां रीति: प्रतिकूला विपरीता कुगुणरूपा भवति - इत्यधोऽमुमेवार्थं दृढयति-यथा बदर्याः कण्टकवत्याः मूलेन मिश्रितं मधुरद्रव्यं गुडप्रभृति, महामादकं मदजननं मदिरेव भवति इति चिन्त्यम् ॥११॥ अथ यथा नीचेन सङ्गं न सङ्गन्तव्यं तथा न विरोद्धव्यमिति मतिचिन्तामाश्रित्य वदति मूल दोहा - दाखि म पेमु दुजीहसुं सुजन ! न करि संग्राम । जारइ जरत गहिओ जरन, सीत करइ कर स्यांम ॥ १२॥ व्याख्या हे सज्जन ! त्वं द्विजिह्वेन दुर्जनेत समं प्रेम मिलनं मा समुत्पादय, तथा संग्रामोऽपि, अर्थात् तप्तेन (शीतेन वा) तेन सार्धं समीपवर्त्तित्वं मा कुरु, द्विधाऽपि तद्धेतू आह दुष्टस्वभावो ज्वलन्नग्निर्गृहीतः स्पृष्टः सन् करं ज्वलयति, तथा शीतस्वभावोऽग्निः सङ्गतः करं श्यामं करोतीति द्विविधं (धः) तप्त - शीतरूपोऽपि दहनो नाङ्गीक्रियते इति भावार्थ: । अत्र हेतुवैपरीत्यदर्शनेन कदाचित् उत्तरार्धं पूर्वपक्षाश्रयणं कार्यं परं द्वितीयः पक्षः सङ्गतिरूपो न कार्य एव हेतुसमयेनाऽऽन्तरोक्तितात्पर्यत् ॥१२॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 अथ पिशुनाधिकारात् - अस्मिन्संसारे वको जनः लोकान् संतर्जयतीति मनसि मन्यमानाः स्वसुखहेतवे तं बहुतरं पूज्यमिव सरलाः मन्यन्ते - इत्येनमेवार्थं श्रावयति मूलदोहा - कलिजुगमिं जग कुटिलकुं, बहु मनि मांनहि बीह । चितऊ दुतीय चंद की लख जन बंदहि लीह ||१३|| व्याख्या - कलौ युगे अर्थात् दुष्टेऽस्मिन् तुर्ये युगे, जगच्छब्देन सर्वे लोकाः, कुटिलस्य वक्रस्वभावस्य मनुजस्य, भयं बहुतरं मनसि स्वचेतोन्तरे मन्यन्ते चिन्तयन्ति, अर्थात् स्वकार्यसिद्ध्यर्थं तमाश्रयन्ति । यथा दृष्टान्तं दर्शयतिहे ! सज्जनाश्चिन्तयत विचारयत, द्वितीयाचन्द्रस्य कुटिलवृत्त्या निर्णतां रेखामपि लक्षं जनाः वन्दन्ते, तदुदयदिशं सन्मुखमुद्दिश्य, न तथाऽनुक्तमपि पूर्णचन्द्रं सरलं कोऽपि प्रणमतीत्यर्थोऽवगम्यः ॥१३॥ सा तु पूर्वोक्तशिलेखा देवपारणकृते स्वतनौ पराभवमनुभूय पश्चात् पुनः स्वसाहसोत्पादितदेवर्षिप्रसत्तेरुदयं क्रमेण प्राप्नोति इति लोकोक्ति मनोगोचरीकृत्याठन्तरदोधके तमेवार्थं दृढयति मूल दोहा प्रथम सहइ परिभव प्रगट, थिति तसु उंचहि थान | घट घण घाइ घरिओ चढहि, नारीसीसि निदांन ॥ १४ ॥ व्याख्या यः कश्चिज्जनः प्रथमं कियत्कालं यावत्, परिभवं परकृतघातपातादिदुःखं सहते, तस्यैव कतिचिद्दिनान्तरं उच्चैः स्थाने स्थितिरवस्थानं भवति । अतस्तदेवार्थं हेतुना सङ्केतयति यथा घनैः कुम्भकारकृतघातैर्घटितो घटः, निदाने पश्चादेव नारीशिरसि चटति स्थितिमालम्ब्य तिष्ठति इत्यवधार्यम् ॥१४॥ निगदति 29 अथ कथं मृत्पिण्डोत्पन्नो घटः पदमुच्चमेतीतिशङ्कानिराकरणाय पुन मूल दोहा गुरुता होति नख्यत्रगुण, वर कुल बरु न विचारी । जन धनवंत जबाधि कुं पकरइ पाणि पसारि ॥ १५ ॥ हे सुजनप्रवर ! गुरुत्वमुच्वत्त्वं महत्त्ववत्त्वमिति यावत्, नक्षत्रगुणेनेति सद्भाग्ययोगजातजन्मना भवति, परं तत्र वरं प्रधानं कुलं तस्य बलं कारणं मा विचारय । व्याख्या Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 अनुसन्धान ३६ अतोऽग्रे तदेवोपदेशदर्शनद्वारा वदति इति धनवन्तो जनाः जबाधमिति जात्यन्तरमार्जारतनुसम्भूतं सुरभिवस्तु, तस्मै सन्तुष्टचित्ताः सन्त इति शेष:, पाणि मानदानकारणं दक्षिणहस्तं प्रसार्य गृह्णते, परं तदा जन्मस्थानगुणागुणतां न चर्चयन्ति इति भावः ॥ १५ ॥ - अथ च यथा सा पूर्वोक्तजबाधि: स्वगुणवशान्मान्या, तथा मान्यजनस्य पुनः लोकाः कलङ्ककारणमपि किञ्चिद् दृष्ट्वा न निन्दन्ति, तत्र पुनर्हेतुं नो वति अतोऽग्रे दोधके । स चाऽयम् मूल दोहा कुचरित देखि समत्थ कुं, कोइ न देतु कलंक । अरधनारि नट ईश कुं नितु जन नमइ निशंक ||१६|| समर्थस्य परमैश्वर्यवतो जनस्य कुचरित्रमपि दृष्ट्वा तद्भाग्यतः, कोऽपि कलङ्कमपकीर्तिभावं न दत्ते । यथा दर्श अर्धनारीनटेश्वराय सकलजनमनोवाञ्छितपूरणप्रभावाऽनुभावतः, निःशङ्कमिति सत्यभावनयैव लोका नित्यं सदा नमन्ति वन्दन्ते इति गुह्यम् ||१६|| व्याख्या पूर्वोक्तस्येशस्य वपुःप्रतापेन महत्त्वमिति कथयितुमनाः पुनः सूचयति मूल दोहा - वपु तप जहां तहां हइ विजयुं, किसहुं न वर विणु कार । झंपि न कोऊ दिढ अगनि सर, छूअति सकल जण छार ॥१७॥ व्याख्या येषां वपुषि शरीरे, अर्थात् स्वशक्तितोऽधिकः, प्रताप: समुल्लसति तेषामेव विजयोऽस्ति परं केषामपि बलं विना, कारः इति माहात्म्यं न भवति, यथापूर्वं तेजोवृत्तिमनुभूय, पश्चात् कथमपि निःप्रतापीभूतस्यैकस्यैव पदार्थस्योभयथाऽपि दृष्टान्तमुपदेशयति यथा कोऽपि जन: दृढाग्निज्वालां न झम्पयति, नवि (नाऽपि) दूरतोऽपि सङ्गन्तुमिच्छति, सैव भस्मभावं प्राप्ता, तदा तामेव सकलजगत् श्वान गर्दभादिप्रमुखमपि स्पृशति, परं काञ्चिद् भीतिमाकलयति, तथैवेदमपि रहस्यम् ॥१७॥ तत् पूर्वोक्तं प्रतापवत्त्वं क्षत्रियादिकुलजातस्यैव सम्भवति, न तु तद् होनकुलजातस्य इति प्रायोभावेनाऽमुमेवार्थं समर्थयति मूल दोहा - सन्तति सीत दुपाखकी, सहजि न उपजहि सूर । स्वाति - कदलीसुतउ सदा, भजि भजि जाइ कपूर ॥१८॥ - Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 व्याख्या - द्विपक्षानुसारेण विमृष्टा शीता कातरस्वरूपा सन्ततिः सुतो वा सुता वा, सहजेनेति प्रायशः सूरा धृतिमन्तो नोत्पद्यन्ते । तदेव आह लोकोक्त्या - स्वातिबिन्दुतः समुद्भूतः कदलीसुतः रम्भास्तम्भजातः कर्पूरः नंष्ट्वा नंष्ट्वा याति । यदुक्तम् - "संगइवसेण साईअजलं सियभं च केलिमज्झगयं । अहिमुहपडियं गरलं सप्पिमुहे मुत्तियं होइ ॥ तदा पक्षद्वयस्य शीतभाव एव नाशनमूलमिति स्पष्टार्थः ॥१८॥ अथ च स एव कर्पूरो बलवत्प्रकारान्तरेण मिरचादिसहायवत्तारूपेण तिष्ठति, अत एव सर्वोऽपि लोक: सहायमृते सफलबलभावं नाऽऽविष्करोतीत्येतदर्थमेवाहमूल दोहा - अतिबलवंत इकेल तन, जनमि न पावइ जीत । महिलालोयन मोह कुं, अंजनु विनु अविनीत ॥१९॥ व्याख्या - अतिबलवन्तोपि एकाकिनः स्वकायमात्रा एव, जन्मनि कदाचिदपि जयं न प्राप्नुवन्ति, तत् कथमिति तत्, दृष्टान्तमात्रेण सहायं तिरस्करोति- महिलामां लोचनानि तीक्ष्णदीर्घतरलभावभाञ्जि बलवन्त्यपि सहायीभूतमञ्जनं विना तरुणजनमनोमोहनार्थं, न विनीतानि अचतुराणि, न तथा शक्तिमन्ति भवन्ति - इति सत्यमेव चिन्त्यम् ॥१९॥ अथ च तान्येव लोचनानि अञ्जनवन्ति तारुण्यावसरैव (रे एव) शोभन्ते, न तु वृद्धावस्थायां रचिताडम्बरतया भान्तीति समयौचित्यमाहमूल दोहा - सारंग ! समयविशेषि सबु, भूषन-दूषन भेद । जरति युवति के अधर ज्युं, व्रणु अरु दंतविछेद ॥२०॥ व्याख्या - हे सारंग ! इति स्वामन्त्रणस्वरूपं परोपदिष्टिवचनमपि, सर्वोपि भूषण-दूषणरूपो भेदो, विचार इति, वक्तव्ये - 'अयं योग्योऽयमयोग्य' इति समयविशेषेणैव प्रस्तावौचित्येनैव भवति । तत्स्वरूपमुत्तरार्धेन निवेदयति - यथा जरत्या वृद्धायाः अधरे किञ्चिद्दन्तदशनं कथञ्चिज्जायते, तदा समयाभावेन लोकाः, विलोक्य इति वदन्ति - इति शेषः, अयं व्रणो विस्फोटोऽस्तीति, तथा युवत्या अधरे विस्फोटे पि जाते जनोक्तिरेवं स्यात् - दन्तक्षतोऽस्तीति, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 अनुसन्धान ३६ योग्यायोग्यत्वं समयवितर्केण तर्कयतीति स्पष्टम् ॥२०॥ सोऽपि समयः शुभो वाऽशुभः सुचिरं कालं न तिष्ठतीत्यर्थं, पुनः स्वसज्जनजनमनः प्रेरयतिमल दोहा - पंच पंच दिनहइ परम, परतिख जन परसंस । घनरितु मधुर मयूर सुर, सरदि सुघर सिर हंस ॥२१॥ व्याख्या - ‘पञ्च पञ्च दिनानि' यावदित्युक्तिः प्रसिद्धा जनानां, सूदयवशेन प्रवराद्भुता प्रशंसा इति - 'अयं वाग्मी, समुपार्जकः शूरः' इत्यादिश्लाघारूपा भवति । न तु तादृश्येव यत्र तत्र सर्वकालं सम्भवति-इति तद्धेतुसूचकं वचनप्रपञ्चं प्रपञ्चयति - घनौ मेघसमये मयूरस्यैव स्वरो मधुरःइति लोक प्रशस्तिस्तथा च शरदि मयूरस्वरं कर्णकटुं विज्ञाय निन्दन्ति । तदा स्वरप्राधान्यात् 'हंसो गुणिनामुत्तमः' इति श्लाघां-आचष्टे कुर्वति इति नामधातुविवक्षायां श्लाघयन्ति - इति सत्यं युक्तं, यदुक्तं कालिदासकविना - "कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा । नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ॥ ॥ पूर्वमेघदूते । इति तत्त्वम् ॥२१॥ इत्थं श्रुत्वा पूर्वोक्तबलसमयाधीनं सुखं जनेन स्वजनोपकारपूर्वकं शत्रावपकारस्तिरस्करणं कार्यम् - इत्युपदेष्टुं सोत्साहं वचो वक्तिमूल दोहा - दाहवचन रिपुके दहिओ, जो जणु बिणु रीस । सारंग ! तार्थि हि रज सकज, पदहत परसइ सीस ॥२२॥ व्याख्या - रिपोर्दाहोत्पादकवचनैर्विदग्धो यो जनः ईर्ष्या विना 'नीरोषः सन् स्थितः, तल्लक्षणाज्जनात्, रजो रेणुरेव श्लाघ्यं, यद् व्रजन्मनुजचरणाहतमुत्थाय त्वरितमेव तदाघातकस्य शीर्षं स्पृशति मलिनयति - इति मर्मोक्तिः ॥२२॥ __ अथ कथञ्चित् कोपि वयस्यः कालान्तरे कुप्यति, तदा कि कार्यमित्याशङ्क्याऽऽहमूल दोहा - बल्लभु जब पेखि हु विमुख, बसि तबु विदुर ! विदूर । मरुदिशि रहइ न मोतचर, निरखि गुडल जलनूर ! ॥२३॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 व्याख्या यदा कञ्चिद् वल्लभं विमुखं त्यक्तपूर्वरागं, हे विदुर ! चतुर इत्यामन्त्रणं, त्वं प्रेक्षेथाः पश्येस्तदा विदूरं अत्यन्तदूरं गत्वेति शेषः, वस वासं कुरु मा तत्र तिष्ठेति शिक्षा, क इवेति ? यथा जलस्वरूपं वर्षासु सपङ्कं निरीक्ष्य, 'मोतचर' इति मुक्ताभुक् हंसपक्षी मरुदेशे न तिष्ठति, वल्लभं जीवनं [जलं इति यावत् विरङ्गं दृष्ट्वा दूरं मानससरसिं गत्वा सुखं वसतिइति वाक्यशासनमङ्गीकार्यमिति भावः ||२३|| — तदा पूर्वोक्तं दूरवासस्वरूपं तत्कालमेवाऽविमृष्टं कथमाश्रयणीयमिति शङ्कापनोदाय भूयस्तदेव कारणं कथयति मूल दोहा वल्लभ विरचि बिरंग हुआ, दोहि न हित के हेत ! इकु कुमीत अरु सेतकच, समदुहु के संकेत ||२४|| व्याख्या रे सज्जन ! यदेति शेषः, वल्लभोपि विरच्येति दोषग्राही भूत्वा विरङ्गो भवति, प्राक्तनरङ्गमुत्सृजति, तदा हितहेतुः सुखकारणं न भविष्यति इति विचिन्त्यम् । यदुक्तम् “भग्ने चित्ते कुतः प्रीति- रथोऽप्रीतौ कुतः सुखम् व्याख्या - 33 11 इत्यादि । तत् सदृशौपम्यहेतुद्वयं वक्ति, तत् कथमित्याह उभयोः सदृशः सनः सङ्केतोऽर्थात् दृष्टान्तो यथा, कयोरुभयोः ? एकं तु कुमित्रं - कुसज्जनः, द्वितीयः श्वेतः कचः, तयोरिति, तावपि पूर्वं वल्लभौ यथा कथञ्चिद् भव्यतया रक्षणयोग्यौ । परं विरङ्गौ मर्मप्रकाशि- पलितरूपौ भवतस्तदा सुखोत्पादननिमित्तं निराकुरुतामेवेति रहस्यम् ॥२४॥ [ 1 अथ पूर्वोक्तस्वरूपो यदैकः कश्चिद् दुर्मनाः जनः पुनरेकं पलितं भवति, तदा स्वशक्त्यनुरूपं तस्य त्यजनं क्रियते एव परं यदा द्वयमपि कुसज्जना: कुकचाश्च बहवो, यत्र तत्र विरुद्धं बहुशच्चिन्तयन्ति तदा काऽनुशिष्टिरिति प्रस्तुतमाचष्टे - मूल दोहा बहु मिलि रहि बिरूप, विधि मत तबु सेवहु मीत । इक कारिक तिलपिंडकी अरु, भर पलीअण की रीत ||२५|| यदा बहवो मिलित्वा सम्भूय, विरूपविधि, दुःखो Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 अनुसन्धान ३६ त्पादनप्रकारं, रचयन्ति कुर्वन्ति, तदा तान् मा विराधयत, मौनमालम्ब्य सेवध्वम्, हे मित्राणि ! सज्जना इति प्रबोधः, यदुक्तम् "बहुभिर्न विरोद्धव्यं, दुर्जयो हि महाजनः" [ ] इति वचोयुक्त्या तत्र लोकोक्त्यां व्याख्यानकथनेन दृष्टान्तद्वयं दर्शयति-यथा तिलपिण्डस्य कालिमा कुट्टनेन मिश्रीभूता कियती निःकास्यते, तत्र मौनमेव विधेयम्, पुनर्यथा पालितानां भरस्य रीतिः समागमस्तं कथं निराकर्तुं शक्तिर्विस्फुरति, समयौचित्यमेव विचिन्त्य तिरस्कारो न श्रेयानेव - इति स्पष्टार्थः ॥२५॥ इत्थं विरुद्ध-वल्लभविधिरुक्तः, परं कश्चित् परोऽपि सन् कदाऽपि केनचित् प्रकारेण प्रेमाऽऽविष्कुरुते, तदा किं करणीयमिति पृष्टे प्रत्युत्तरमाश्रयतिमूल दोहा - पर जबु चिंतइ परमु हित, मिलि तबु दीजहि मांन । दोषसमै सुख देण कुं, ओषध सओ नांही आंन ॥२६॥ व्याख्या - यदा परोऽपि पूर्वमनिष्टोपि कश्चित्, परमं हितं सुखकारित्वेन प्रेम चिन्तयति, तदा तेनापि सङ्गम्य, मानमित्यादरो दीयते, अमुमेवार्थं दृष्टान्तेन दृढयति- यथा दोषसमये रोगोत्पत्तौ, सौख्यं दातुमर्थात्, प्रीतिजननं, औषध-सदृशमन्यत् किञ्चिदपि वस्तु न स्यादिति तदा तत्कटुकतरमपीष्टं भवति- इति तत्त्वम् ॥२६॥ ___ तदप्यौषधं यदा स्वबन्धुसेवकादिभिः सुरक्षितं भवति, तदैव शुभमिति रक्षणाय प्रशस्ति निरूपयति - मूल दोहा - सारंग ! सकल सुवस्तु की रक्षकनि रुचि होइ । फेरि न फूहरि नारि के कुच अवलोकइ कोइ ॥२७॥ व्याख्या - सकलस्य समस्तस्य सुवस्तुनः मनःप्रमोदजनकस्य पदार्थस्य रुचिरिच्छा, रक्षकविशेषादेव भवति । यदुक्तम् "शस्त्रं शास्त्रं वाणी वेश्या वीणा नरस्तथा चाऽन्यत् । पुरुषविशेषं प्राप्ताः भवन्त्ययोग्याश्च योग्याश्च ॥ [ ] यदा रुचिरमपि कुचं न रक्षितमनिष्टतामुत्पादयति, तत्र हेतुं दर्शयति. यथा कश्चिदपि विलासी 'फूहडि' नार्याः देशविशेषोक्तिरियमिति, अर्थात् Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 35 शङ्खिनीयुवत्या असुसंभावितस्वशरीरस्वरूपायाः इति यावत्, कुचौ कुरीत्या रक्षितौ कथमप्येकवारं दृष्ट्वाऽत्यन्तं भग्नमनःपरिणामतया कोऽपि पुनर्नाऽऽलोकयति, अत एव वल्लभावप्यनिष्टौ जायेते - इति सत्यम् - ॥२७॥ मूल दोहा - सारंग ! स्वारथ सकल जग, परकजि किस हुं न पीर । तरणक त्रंबा कु तिजइ, खिणु अणपीवत खीर ॥२८॥ व्याख्या - सकलमपि जगत्, स्वार्थाय, स्वकार्यकरणशीलम्, परं कस्याऽपि परकार्यार्थ पीडा नास्ति, तदेवाऽऽह- तर्णको वत्सः क्षणमपि क्षीरमपिबन्, स्वार्थहानिवत्तया स्वविरहजनितदोषमविचार्येति शेषः 'तंबां' देशी भाषया, स्वजनन्यै(जननीं) धेनवे (धेनुं) तत्कालमेव त्यजति - इति स्वार्थश्चिन्त्यः ||२८|| अथ कथमपि वत्सतरोऽपि कृतघ्नतया वृद्धि प्रापत्, स्वजननीं (च) तिरस्करोति-इति नीचस्वभावत्वमेव ते, नीचभावभावितो जनोऽप्येवं विदधातिइत्येनमेवाऽर्थं दर्शयति - मूल दोहा - वडपद जितु पाउहि विगुण, पखि तिन चिंतहि पाप । ___अगनि अंग धुंअ होइ घनु, अगनि बुझावहि आप ॥२९।। व्याख्या - विगुणोऽर्थात् कृतघ्नः, यतः यस्मादेव, वडपदमुच्चपदवीं महत्त्वमिति यावत्, प्राप्नोति, तस्यैव पक्षे तदर्थमेव, पापं परिभवं पीडनं चिन्तयति, यथा हेतुमुदीरयति - अग्नेरेवाङ्गं वह्निसमुद्भूत एव धूमो, घनो मेघरूपो भूत्वा, स्वमुच्चतरं मन्यमानः वर्षित्वेति शेषः, आत्मना स्वयं, स्वोत्पत्तिनिमित्तभूतमग्निमेव विध्यापयति तिरस्करोति - इति दुर्जनाचारः ॥२९।। अथ दुर्जनवृत्त्या लोकेऽपकीतिरेव सञ्जायते, अतोऽपवादकारणपरिहारपूर्वं यशोग्रहणहेतुमालम्ब्याऽऽह च - मूल दोहा - सारंग ! जगमि लेहु यस, म म गहि अपजस मूर । विधि दोऊ हुन्ति विपाक बसि, इक सुख इकु सिर सूर ॥३०॥ व्याख्या - हे सुजन ! त्वं जगन्मध्ये संसारे यशो गृह्णीष्वाऽर्जय । कदाचिदप्ययशोमूलं - अपवादं, मा मेति तर्जनसूचकमव्ययद्वयं सम्भाव्यम् । द्वयोर्विपाकवशे कार्योत्पत्तिसमये विधिः स्वरूपमेवं परिणमयतीदमेव द्वयं Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३६ श्रावयतिर - एकं तु लक्षसुखकारणं, अन्यद् दुरन्तं शिरःशूलं सन्तापजनकं भवेदिति भावार्थः ॥३०॥ सोऽपवादः परवस्तुविनाशा - ऽपहृतिलक्षण एवेति, तद्धेतुमुदीर्य 36 शिक्षयति मूल दोहा - परमचीज परवस्तु परि, न धरहु जोर निसंक । सीत हरण रावण सधरु, रुलिओ जिही बिधि रंक ||३१|| यतः व्याख्या परमचीज इति भाषान्तरेणाऽत्यन्तमनोहरं वस्तु, तदुपरि भो ! सुगुणाः ! निःशङ्कम् निर्भयं यथा स्यात्तथा, जोर इति दुर्वृत्त्याऽऽलम्बं मा धरत मा प्रयुङ्ग्ध्वमित्यन्वयः । तद् द्रढयितुं दृष्टान्तं दर्शयति सीताहरणेन, सधरस्त्रिभुवनविजेताऽपि रावणः रङ्कवत् यथा रुलितोऽर्थात् दुःखमनुभूय निस्सारमेव मृतः, तथाऽन्योऽपि भवतीति कुत्सिताचारः परिहार्य : इति शेषः ||३१|| 1 सोऽपि लङ्कापतिर्यदा स्वविपद्विनिष्ठायै विमनस्कतयाऽपि स्वयं सीतामादरपूर्वकं समर्प्य रामेण सङ्गतोऽभविष्यत्तदा रामोऽपि विगतरुडभविष्यत्इति सत्यमेवाऽर्थं सङ्केतयति मूल दोहा रुचि अणरुचि सारंग ! रुचिर, परसे जगपति पाउ । जाणत अरु अणजाण कुं, सीत सुधासद भाउ ||३२|| व्याख्या अत्र ग्रन्थपरिसमाप्त्यवसरमङ्गलाय कविः स्वाभिधानग्रहणेनात्मानुशासनविधये च श्रीभगवच्चरणशरणरूपं श्रेयोऽनुशासनं निरूपयतिहे सारंग ! इति स्वपरप्रबोधकमामन्त्रणं, रुच्या स्वमनः सुपरिणत्या, तथा कार्यसिद्ध्यर्थम् - ! अरुच्याऽपि विमनस्कतया, जगत्पतेः परमेश्वरस्य पदौ स्पृष्टौ शरणीकृतौ रुचिरावेव सन्तापहारकावित्यममुमेवार्थं याथातथ्येनैकस्यैव वस्तुनः स्वभावस्वरूपं मनोगोचरीकृत्य स्पष्टयति यथा जानते जनायेति यः पूर्वस्पृष्टामृतः शैत्यमवैति तथा चाऽज्ञानाय, येन कदाचिदपि तत्स्वभावो न ज्ञात:, परमुभाभ्यां स्पृशद्भ्यां सुधायाः पीयूषस्य स्वभावः शीतस्तापनुदेव, परं कथमपि सहजवैपरीत्यं न स्यादिति । समाप्तोऽयं ग्रन्थः ॥३२॥ अथाऽनन्तरं स्वगण-गुरुनाम निरूपकां स्वकृतिप्रसरणकारणस्वजन Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 परितुष्टिप्रदार्थं प्राकृतगाथामाह मूल गाथा इय ससिगणधरवायग- साराणं पउमसुंदरगुरूणं ॥ सीसेण कया एसा पसरउ पुण सुयणजणमुहओ ||३३|| व्याख्या 'इति' इति ग्रन्थान्तमङ्गलोऽव्ययः, एषा पद्मसुन्दरगुरूणां शिष्येण प्राक्कथिताह्नसारङ्गेण कृता रचिता 'सूक्तिद्वात्रिंशिका', पुनः भूयो भूय: सुजनजनमुखात् प्रसरतु विस्तृणातु । अत एव यथा मया 'सुदंतबत्रीसी' भाषिता तथा सर्वेपि सज्जनाः स्वयशोनुभूत्यै 'सुवाक्यद्वात्रिंशिका' मेव वक्तुमुद्यता भवन्त्विति द्वितीयोऽप्यनुशिष्टलक्षणोऽर्थोऽवसेयः, किंविशिष्टानां पद्मसुन्दरगुरूणां ?- शशिगण० चन्द्रगच्छे महडाहडीयशाखायामित्याध्याहारः । वरा: प्रधानाः वाचकाः वाचनाचार्याः तेषां मध्येपि साराणामुत्तमानामिति स्वगुरुणां सगुणवत्ताप्रतिपादकं वचः सौख्यकरं श्रेयोर्थमिति स्वविनयतादिकरणकारणमिति । सम्पूर्णेयं 'सूक्तिद्वात्रिंशिका' ॥३३॥ अथ कदाऽयं ग्रन्थः सञ्जात इति शङ्कानिराकरणाय विवरणान्ते श्लोकमाह पञ्चाशन्नृपसङ्ख्याके वर्षे विक्रमवत्सरात् । चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां ग्रन्थोऽयं रचितो मुदा ॥३४॥ द्वात्रिंशतां दोधकानां वृत्तैरत्यात्मबोधये । विवृतोऽपि स्वयं शीघ्रं विशोध्योऽतिविचक्षणैः ॥३५॥ श्रीजावालपुरे प्राज्यं राज्यं शासति शक्तितः । गजनीयवनाधीशे तरुणे तरणिप्रभौ ॥ ३६ ॥ यावच्छशि - रवी दीपमणी भातौ नभोगृहे । तावददोधकवृत्तानी - मानि नन्दन्तु सन्मुखे ||३७| इति सूक्तिद्वात्रिंशिकाविवरणं समाप्तमिति, ग्रन्थाग्रवृत्तिसङ्ख्या १९८ । श्रीरस्तु कल्याणमस्तु । सूत्रग्रन्थ ५० | पं० नयनसुन्दरगणिनाऽलेखि || श्रीः॥ 377 २०३, B. एकता एवन्यू, बेरेज रोड, वासणा, अमदावाद-७ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजगच्छीय धर्मघोषवंशीय श्रीहरिकलशयति-विरचिता मेदपाटदेश-तीर्थमाला सं० म० विनयसागर जिनेश्वरों के कल्याणकों से पवित्रित तीर्थ भूमि हो, चाहे अतिशय क्षेत्र हो और चाहे जिनमन्दिर हो, उनकी यात्रा करने की अभिलाषा सभी लोगों को होती है । तीर्थों की यात्रा कर भावोल्लसित होकर भक्तगण उस तीर्थस्थान की भूमि को जिनेश्वरों से पवित्र होने के कारण स्पर्श कर अपने जीवन को धन्य मानते हैं । तीर्थस्थ मन्दिरों में जिनबिम्बों की अर्चना, पूजा और प्रवर्द्धमान भावों से स्तवना कर, शुद्ध पुण्य भावों को अजित कर कर्म निर्जरा भी करते हैं । उच्चतम पद प्राप्त करने का बन्धन भी बाँधते हैं । पूर्व समय में तीर्थयात्रा की सुविधा सबके लिए सम्भव नहीं थी, क्योंकि कण्टकाकीर्ण और बीहड मार्ग में उपद्रवों का भय रहता था, लूटपाट का भय रहता था । अतः किसी भव्य संघपति के संघ में ही लोग सम्मिलित होकर तीर्थयात्रा किया करते थे जो जीवन में प्रायः कर एकदो बार ही सम्भव हो पाती थी । जैनाचार्यों और जैनमुनियों ने बंगाल, बिहार, उड़ीसा, आसाम, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश आदि क्षेत्रों में स्थित तीर्थों की यात्रा कर अपने जीवन को सफल भी किया था । जिनवर्धनसूरि और जयसागरोपाध्याय आदि से लेकर १९वीं शताब्दी तक अनेकों ने तीर्थमालाएँ भी लिखी हैं । शत्रुञ्जय, गिरनार, आबू,खम्भात, सूरत आदि की स्वतन्त्र तीर्थमालाएँ भी मिलती हैं। इन तीर्थमालाओं में तीर्थों का पूर्ण वर्णन करते हुए तत्रस्थ जिनमन्दिरों की संख्या भी प्राप्त होती है । कई-कई तीर्थमालाओं में क्षेत्रों की दूरियाँ भी लिखी गई हैं और कई में मन्दिरों के अतिरिक्त बिम्बों की संख्या भी लिखी गई हैं । इस तीर्थमाला में केवल भारत के एक प्रदेश का हिस्सा मेदपाटदेश (मेवाड़) की तीर्थमाला लिखी गई है । इसी तीर्थमाला में वर्णित विषय का आगे विश्लेषण किया जाएगा । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 रचना समय प्रणेता - इस कृति के निर्माता हरिकलश यति हैं । हरिकलश यति के सम्बन्ध में कोई भी ज्ञातव्य जानकारी प्राप्त नहीं है । इस कृति में स्वयं को राजगच्छीय बतलाते हुए धर्मघोषसूरि के वंश में बतलाया है । राजगच्छ की परम्परा में धर्मसूरिजी हुए हैं । यही धर्मसूरि धर्मघोषसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए । इनका समय १२वीं शती हैं । इन्हीं धर्मघोषसूरि से राजगच्छ धर्मघोषगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । शाकम्भरी नरेश विग्रहराज चौहान और अर्णोराज आदि धर्मघोषसूरि के परम भक्त थे । यहाँ कवि ने धर्मघोषगच्छ का उल्लेख न कर स्वयं को धर्मघोषसूरि का वंशज बतलाया है । संभव है कि हरिकलश के समय तक यह गच्छ के नाम से प्रसिद्ध नहीं हुआ हो ! इसी परम्परा के अन्य पट्टधर आचार्य का भी उल्लेख नहीं किया है। प्रणेता ने रचना समय का उल्लेख नहीं किया हन् । साथ ही इस तीर्थमाला में धुलेवा केसरियानाथजी एवं महाराणा कुम्भकर्ण के समय में निर्मित विश्वप्रसिद्ध राणकपुर तीर्थ का भी उल्लेख नहीं किया है । अतः अनुमान कर सकते हैं कि इस कृति का रचना समय सुरत्राण अल्लाउद्दीन के द्वारा चित्तौड़ नष्ट (विक्रम संवत् १३६०) करने के पूर्व का होना चाहिए | श्लोक १४ में 'दुर्गे श्रीचित्रकूटे वनविपिनझरन्निर्झराद्युच्चशाले, कीर्तिस्तम्भाम्बुकुण्डद्रुमसरलसरोनिम्नगासेतुरम्ये' लिखा है। इसमें कीर्तिस्तम्भ का उल्लेख होने से महाराणा कुम्भकर्ण द्वारा निर्मापित कीर्तिस्तम्भ न समझकर जैन कीर्तिस्तम्भ ग्रहण करना चाहिए जो १३ - १४वीं शती का है । महाराणा कुम्भकर्ण का राज्यकाल विक्रम संवत् १४९० से लेकर १५२५ तक का है । इमें ईडर को भी मेवाड़ राज्य के अन्तर्गत लिखा है, ईडर पर अधिकार १३ - १४वीं शताब्दी में ही हुआ था । दूसरी बात इन स्थानों पर विशालविशाल ध्वजकलश मण्डित और शिखरबद्ध अनेकों जिनमन्दिरों का उल्लेख यह स्पष्ट ध्वनित करता है कि यह रचना चित्तौड़-ध्वंस के पूर्व की है । अतः मेरा मानना यह है कि इस कृति की रचना १४वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही हुई है । - - 39 हरिकलश यति संस्कृत साहित्य, छन्दः साहित्य और चित्रकाव्यों का प्रौढ़ विद्वान् था । व्याकरण पर भी इसका पूर्णाधिपत्य दृष्टिगत होता है । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३६ इस स्तव में इनके प्रौढ़ पाण्डित्य के साथ लालित्य, माधुर्य और प्रसाद गुण भी प्राप्त हैं । नामकरण एवं तीर्थपरिचय - मेदपाट अर्थात् मेवाड देश के तीर्थस्वरूप जिन-मन्दिरों की यात्रा एवं वन्दना होने से इस स्तव का नाम भी मेदपाट देश तीर्थमाला रखा गया है । इस तीर्थमाला का परिचय इस प्रकार है :१. कवि ने प्रथम पद्य में चौवीस तीर्थङ्करों को नमस्कार कर देखे हुए तीर्थों की तीर्थमाला में वन्दना की है। २. इसमें 'वामेय' शब्द स्वस्तिक चित्र गर्भित पार्श्वनाथ की स्तुति की ४. इसमें नागहद (वर्तमान में नागदा) स्थित नवखण्डा पार्श्वनाथ के मन्दिर का वर्णन किया है। साथ ही कवि नागहृद में ११ जैन मन्दिरों का उल्लेख भी करता है जिनमें शान्तिनाथ और महावीर आदि के मन्दिर मुख्य हैं । जिनमन्दिर में वाग्देवी अर्थात् सरस्वती देवी की मूर्ति का भी कवि उल्लेख करता है। इसमें देवकुलपाटक (वर्तमान में देलवाड़ा) में हेमदण्डकलशयुक्त चौवीस (चौवीस देवकुलिकाओं से युक्त) तीन मन्दिरों का वर्णन करता है, जिसमें श्री महावीर, ऋषभदेव और शान्तिनाथ के मन्दिर हैं । यहाँ कवि कहता है कि भगवान् शान्तिनाथ गुरुधर्मसूरि द्वारा भी वन्दित हैं अर्थात् उनके द्वारा प्रतिष्ठित है । इसमें आघाटपुर (वर्तमान में आहाड़) जल कुण्डों से सुशोभित हैं; विद्याविलास का स्थान है और जो माकन्द, प्रियाल, चम्पक, जपा और पाटला के पुष्पों से संकुलित है । वहाँ १० जिनमन्दिर हैं । जिनमें पार्श्वनाथ, आदिदेव, महावीर के मुख्य हैं ।। इसमें प्रारम्भ के दो अक्षर पढ़ने में नहीं आ रहे हैं । सम्भवतः ईशपल्लीपुर (वर्तमान में ईसवाल) में विद्यमान विक्रम संवत् ३०० की अत्यन्त पुरातन श्री आदिनाथ प्रतिमा को निरन्तर नमस्कार करता है। ५. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 41 १०. इसमें मज्जापद्र (मजावड़ा) विषम पर्वतों से घिरा हुआ है । यहाँ ५२ जिनालय से मण्डित प्रशस्त चैत्य है । मूलनायक श्री पार्श्वनाथ भगवान हैं । और खागहड़ी में अनेक बिम्बों से युक्त शान्तिनाथ भगवान को नमस्कार करता है। इसमें पद्राटक (बड़ौदा/बाँसवाड़ा) ग्राम में श्रेष्ठतम महावीर स्वामी का मन्दिर है, चौवीस मण्डपिकाओं से युक्त स्वर्णवर्णी पार्श्वनाथ विराजमान हैं । दूसरा मन्दिर भी पार्श्वनाथ का है । उसमें भी विराजमान समस्त जिनेश्वरों को कवि नमस्कार करता है । इस पद्य में मत्स्येन्द्रपुर (वर्तमान में मचीन्द) में विराजमान, पार्श्वनाथ, शान्तिनाथ आदि जिनवरों को नमस्कार करता है और श्यामवर्णी पार्श्वनाथ को नमस्कार करता है। ___ इस पद्य में पहाड़ो में मध्य में कपिलवाटक (सम्भवतः केलवाड़ा) को कवि ने राजधानी बताया है । सम्भव है राज्यों के उथल-पुथल में इसको राजधानी बनाया गया हो अथवा कुम्भलगढ़ को समृद्ध करने के पूर्व इसको राजधानी के रूप में माना हो । इस कपिलवाटक में उत्तुङ्ग तोरणों से युक्त पाँच जिनालय हैं, जिनमें नेमिनाथ, पार्श्वनाथ आदि मुख्य हैं । उन सबको कवि ने प्रणाम किया है ।। वैराट अपरनाम वर्द्धनपुर (बदनोर) ऊंचे पहाड़ियों के मध्य में बसा हुआ है । यहाँ तेरह जिनमन्दिर तोरणों से शोभायमान हैं और उनमें आदिनाथादि प्रमुख मूलनायक हैं । पर्वतों के मध्य में ही खदूरोतु (?)में पार्श्वनाथ का जिनमन्दिर हैं । १२वें पद्य में माण्डिल (माण्डल) ग्राम का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि यहाँ पर जिनेश्वरों के पाँच मन्दिर हैं, जिसमें नेमिनाथादि मूलनायक प्रमुख हैं । शान्तिनाथ भगवान की मूर्ति आठ हाथ ऊँची है। १३. तेरहवें पद्य में प्रज्ञाराजी मण्डल (माण्डलगढ़) के दुर्ग पर ऋषभदेव और चन्द्रप्रभ के मन्दिर हैं । तथा विन्ध्यपल्ली (बिजौलिया) में ११. १२. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३६ १५. शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ महावीर स्वामी के मुख्य मन्दिर हैं । १४. इस पद्य में चित्रकूट (चित्तौड़) दुर्ग का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि जहाँ झरने बह रहे हैं, उच्च कीर्तिस्तम्भ है, जलकुण्ड है, नदी बहती है, पुल भी बंधा हुआ है । उस चित्तौड़ में सोमचिन्तामणि के नाम से प्रसिद्ध चिन्तामणि पार्श्वनाथ का विशाल मन्दिर है। साथ ही ऋषभदेव आदि के २२ मन्दिर और हैं जिनको मैं नमस्कार करता हूँ। पद्य १५ में करहेटक (करेडा) में विस्तीर्ण स्थान पर तीन मण्डप वाला चौवीस भगवानों के देहरियों से युक्त मन्दिर है। साथ ही ७२ जिनालयों से युक्त जिनेन्द्रों को मैं नमस्कार करता हूँ। १६. १६वें पद्य में कवि स्थानों का नाम देता हुआ - सालेर (सालेरा), जहाजपुर मण्डल, चित्रकूट दुर्ग, वारीपुर ( ), थाणक (थाणा), चङ्गिका (चंगेड़ी), विराटदुर्ग (बदनोर), वणहेडक (बनेड़ा), घासक (घासा) आदि स्थानों में स्थापित जिनवरों को नमस्कार करता है । १७. इसमें दीकसी (डभोक) ग्राम में विराजमान देवेन्द्रों से पूजित युगादि जिनेश को कवि प्रणाम करता है। १८. इस पद्य में अणीहृद (?)में विराजमान अधिष्ठायक पार्श्वदेव के द्वारा सेवित पार्श्वनाथ को और नीलवर्णी हरिप्रपूजित नेमिनाथ को नमस्कार करता है। नचेपुर (?)में आठ जिनमन्दिर हैं । वे तोरण, ध्वजा आदि से सुशोभित हैं । वर्द्धमान स्वामी प्रतिमा पित्तल परिकर की है । श्रीचन्द्रप्रभ, वासुपूज्य, ऋषभदेव और शान्तिनाथ आदि मूलनायकों जो कि सात जिनमन्दिरों में विराजमान हैं उनको नमस्कार करता है। २०. २०वें पद्य में उच्च डुंगरों से धिरा हुआ और अजेय डूंगहपुर (डूंगरपुर) और महाराजा कुमारपाल द्वारा निर्मापित ईडरपुर में ऋषभदेव भगवान को तथा तलहट्टिका में विद्यमान समग्र चैत्यों को कवि नमस्कार करता है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 २१. २२. पद्य २१ में तारण (तारङ्गा) में कुमारपाल द्वारा निर्मित अजितनाथ भगवान के मन्दिर में श्री धर्मसूरि द्वारा संस्थापित जिनेश्वरों को वन्दन करता है । इसी प्रकार आरास ( आरासण - कुम्भारिया), पोसीन (पोसीना), देवेरिका (दिवेर), चैत्र (?) चङ्गापुर (चाङ्ग) आदि में विराजमान जिनेन्द्रों को भी नमस्कार करता है । 43 यह मेदपाट देश जो कि चारों तरफ पर्वतों से आच्छादित है, उसके मध्य भाग में गाँव-गाँव में विशाल - विशाल अनेक तीर्थंकरों के देव मन्दिर हैं । जो कि ध्वजा पताकाओं और कलशों से शोभित है । इनमें से कई मन्दिरों को मैंने देखा है और कई मन्दिरों को मैं नहीं देख पाया हूँ । उन सब जिनेश्वरों को सम्यक्त्व की वृद्धि के लिए मैं नमस्कार करता हूँ । २३. देश-देश में, नगर - नगर में और ग्राम-ग्राम में जो भी अचल जिनमन्दिर हैं, जिनके मैंने दर्शन किए हैं या नहीं किए हैं उन सब छोटे-बड़े मन्दिरों को मैं नित्य ही वन्दन करता हूँ । साथ ही देव और मनुष्यों द्वारा वन्दित तीन लोक में स्थित शाश्वत या अशाश्वत समस्त तीर्थङ्करों को मैं नमस्कार करता हूँ । २४. इस प्रकार राजगच्छ में उदयगिरि पर सूर्य के समान श्रीधर्मघोषसूरि की वंशपरम्परा में हरिकलश यति ने भक्तिपूर्वक तीर्थयात्रा करके अपने नित्यस्मरण के लिए और पुण्य की वृद्धि के लिए प्रमुदित हृदय से तीर्थमाला द्वारा स्तवना की है । इसमें कवि ने जिन-जिन स्थानों का नामोल्लेख किया है उनमें से कतिपय स्थानों के जो आज नाम हैं वे मैंने कोष्ठक में दिए हैं। अन्य स्थलों के नामों के लिए शोध - विद्वानों से यह अपेक्षा है कि वे वर्तमान नाम लिखने की कृपा करें । कवि हरिकलश यति व्याकरण, काव्य, अलङ्कार शास्त्र, छन्दों का तो विद्वान् था ही साथ ही २०वें - २१वें पद्य को देखते हुए यह कह सकते हैं कि वह राग-रागनियों का भी अच्छा जानकार था । इस स्तव माला में प्रयुक्त छन्दों की तालिका इस प्रकार है : Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३६ भुजङ्गप्रयात-१,१२,१७; अनुष्ठुब्-२; शार्दूलविक्रीडित-३,४,५, ११,१५,१९; इन्द्रवंशा-६; स्रग्धरा-७,८,१४,२२,२४; आर्या-९; वसन्ततिलका१०,१६, १३वा पद्य अस्पष्ट है; उपजाति - १८; १९वा -२०वा कड़खा राग में गीयमान देशी-'भावधरी धन्यदिन आज सफलो गिणं' में है और २३वा पद्य मन्दाक्रान्ता छन्द में है। इस तीर्थमाला स्तव की प्रति राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रहालय में ग्रन्थाङ्क २२७२८ पर विद्यमान है । लम्बाई चौड़ाई २१ x ८.५ सेंटीमीटर है । लेखनकाल अनुमानतः १६वीं शताब्दी है । लेखन प्रशस्ति नहीं है । पत्र संख्या २ है । प्रथम पत्र के प्रथम भाग पर और द्वितीय पत्र के प्रथम भाग पर स्वस्तिक चित्र भी अंकित हैं। जिसमें श्लोक संख्या २ और १७ के अक्षरों का लेखन है। पत्रों के हांसिए में पद्य संख्या ९ और पद्य संख्या १३ भिन्न लिपि में लिखित हैं। कई अक्षर अस्पष्ट हैं। पद्य ६ के प्रारम्भ के दो अक्षर अस्पष्ट हैं । जहाँ केसरियानाथ (कालियाबाबा) और राणकपुर जैसे विश्वप्रसिद्ध तीर्थस्थान हों, जहाँ श्रीजगच्चन्द्रसूरि जैसे आचार्यों को तपाबिरुद मिला हो अर्थात् जहाँ से तपागच्छनाम-प्रारम्भ हुआ हो, जहाँ खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा के जिनवर्द्धनसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनसागरसूरि का चारों ओर बोलबाला हो, जहाँ महोपाध्याय मेघविजयजी का प्रमुख विचरणस्थल रहा हो, जहाँ नौलखागोत्रीय रामदेव और राष्ट्रभक्त महाराणा प्रताप के अनन्य साथी दानवीर भामाशाह जैसे जिस राज्य में वित्तमन्त्री रहे हों । जहाँ अधिकारी वर्ग में जैन मन्त्रियों में देवीचन्द्र महेता से लेकर भागवतसिंह महेता रहे हों, जहाँ बलवन्तसिंह मेहता जैसे स्वतन्त्रता सेनानी रहे हों और पुरातत्त्वाचार्य जिनविजयजी जैसे इस भूमि की उपज हों उस मेवाड़ प्रदेश की जैसी प्रसिद्धि जैन समाज में होनी चाहिए वैसी नहीं रही । लीजिए, अब पठन के साथ भावपूर्वक तीर्थवन्दना कीजिए : Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिं तीर्थनाथान् प्रणम्य, स्वयं दृष्टतीर्थस्मृतेर्जातहर्षात् । विचिन्त्य स्वचित्ते महापुण्यलाभं स्तुवे तीर्थमालां विशालां रसालाम् ॥१॥ सश्रीदै (कै? ) रसुरैः सेव्यः सवासवसुरैर्नरैः । स मे यच्छतु नैर्मल्यं संयमाराधने जिनाः ||२|| नाः जि मेदपाटदेश तीर्थमाला श्रीजिनेन्द्रेभ्यो नमः ॥ 1 धरा मा य भई सं य च्छ ल्यं र्म नै तु रैः सेव्यः वा स व सु th श्रीवामेय इति नामगर्भः स्वस्तिकः ॥ आदौ सम्प्रति राजकीर्तननथो (मथो) नागदेशाचितं । स्वप्नात् श्रीनवखण्डनामविदितं श्रीपार्श्वनाथं जिनम् ॥ वाग्देवीं च जिनेन्द्रदिव्यभवनेष्वेकादशस्वन्वहं, शान्त्यादीश्वरवीरमुख्यजिनपान् वन्दे त्रिकालं त्रिधा ||३|| श्रीमद्देवकुलादिवा (पा? ) टकपुरे रम्ये चतुर्विंशतिप्रासादैर्वरहेमदण्डकलशैः सबिम्बपूर्णान्तरैः । श्रीवीरं ऋषभादिकान् जिनवरांस्तीर्थावतारानपि, श्री शान्ति गुरुधर्मसूरिविनुतं वन्दे सदा सुप्रभम् ||४|| Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 अनुसन्धान ३६ आघाटे जलकुण्डमण्डितपदे विद्याविलासास्पदे, माकन्दालि-प्रियाल-चम्पक-जपा-सत्पाटलासङ्कले ॥ वामेयादिजिनालयेषु दशसु श्रीआदिदेवादिकान्, वीरान्तान् जिननायकाननुदिनं नौमि त्रिसन्ध्यं मुदा ॥५॥ ....शताद् विक्रमवत्सरे स्थितं, श्रीईशपल्लीपुरभिश्चेलासेनं (? चेलासनम्) श्रीआदिदेवं बहुभिश्चिरन्तनै-बिम्बैः समेतं प्रणमामि सन्ततम् ॥६॥ मज्जापद्रे विषमगिरिभिर्दुर्गमे ग्रामवर्ये द्वापञ्चाशद्वरजिनगृहैर्वेष्टिते चारुचैत्ये । श्रीवामेयं प्रमुदितमना नौमि सर्वैजिनेन्द्रैः श्रीमत्शान्ति बहुजिनयुतं ग्रामके खागहड्याम् ॥७॥ ग्रामे पद्राटकाढे वरजिनभवने स्वामिनं वर्द्धमानं, स्वर्णाभं पार्श्वदेवं त्रिगुणवसुजिनै-२४र्मण्डितं तोरणस्थैः । नत्वा चान्यजिनेन्द्रैः परिधिपरिगतैः शोभमानं सुभक्त्या नित्यं चैत्ये द्वितीये जिनततिसहितं पार्श्वनाथं नवीमि ||८|| मत्स्येन्द्रपुरे पार्वं शान्त्यादीशादि बहुजिनान् वन्दे । पंकिल डभरशामलदलोपम...तुरे ? वीरम् ॥९॥ (?) गिर्यन्तरे कपिलवाटकराजधान्यां, प्रोद्भासिराजभवनोत्सवशोभितायाम् । प्रोत्तुङ्ग-पञ्च-जिनवेश्मसु नेमिपार्श्वमुख्यान् जिनान् प्रतिदिनं प्रणमामि सर्वान् ॥१०॥ वैराटापरनाम्नि वर्धनपुरे तुङ्गाद्रिपुण्यार्हतां, सैकद्वादशदेवमन्दिरमहैर्विभ्राजिते नित्यशः । श्रीआदीशजिनादिबिम्बनिवहं वन्दामि, भक्त्या ततो, मन्दारी खदुरोतुदेवसदने वामेयमुख्यान् जिनान् ॥११॥ पुरे पञ्चदेवालयश्रीजिनेन्द्रान् सदा नौमि नेमीश-मुख्यानशेषान् । पुरे माण्डिलग्रामवासं जिनौघं सरूपाष्टहस्तोन्नतं शान्तिदेवम् ॥१२॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 प्रज्ञाराजिमण्डलकरे दुर्गे रम्ये युगादीश-चन्द्रप्रभौ शान्ति-पार्श्वम् महावीरमुखार्हतो नौमि सर्वान् एव स्नात्रदृश्व जिनं विन्ध्यपल्याम् ॥१३॥(?) दुर्गे श्रीचित्रकूटे वनविपिनझरनिर्झराधुच्चशाले, कीर्तिस्तम्भाम्बुकुण्डद्रुमसरलसरोनिम्नगासेतुरम्ये । पार्वं श्रीसोमचिन्तामणिमपरजिनान्नौमि नाभेयमुख्यानेवं द्वाविंशतौ श्रीजिनपतिभवनेष्वेकचित्तः समग्रान् ॥१४॥ स्थाने श्रीकरहेटके जिनगृहे श्रीसम्प्रतीये पुरा, विस्तीर्णे वसुवेददेवकुलिकाकीर्णे त्रिभूमण्डपे । रम्ये गर्भगृहालयस्थजिनपै२४र्वेदद्विसंख्यैः सदा, वामेयं सहितं द्विसप्ततिजिनैरेवं मुदा नौम्यहम् ॥१५॥ सालेर-जाजपुर-मण्डल-चित्रकूट-दुर्गेषु वारिपुर-थाणक-चङ्गिकासु । वि( वै )राटदुर्ग-वणहेडक-घांसकादौ संस्थापितान् जिनवरान् गुरुभिः प्रणौमि ॥१६॥ प्रमोदास्पदं मुक्तिदं नाथमेकं, प्रजाभासि दीकसि ग्रामरम्ये । प्रणमामरेशं युगादि जिनेशं, प्रमादापहं भावतोऽहं नमामि ॥१७|| मिमा क्ति दंना थक मेकं भा हंपदा मा प्र जा भा सि द भी FIVE FEFFFr जि दि गा यु शं प्रथमजिनेतिगुप्तनामा स्वस्तिकः ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३६ अणीहदे शान्तरसामृतं हृदं, पार्वं जिनं पार्श्वसुरेण सेवितम् । हरिप्रपूज्यं हरिनीलदेहं, नित्यं स्तुवे नित्यपदे निवासिनम् ॥१८॥ नाम्नार्थेन च यापुरे वसुनौ(?) श्रीवर्धमानोदये, देवार्यं वरपित्तलापरिकरं सत्तोरणोद्भासितम् । श्रीचन्द्रप्रभ[वासुपूज्य-वृषभ] श्रीशान्तिमुख्यानहं, सप्त श्रीजिनमन्दिरेषु सततं संस्तौमि सर्वार्हतः ॥१९॥ अथ च डुङ्गहपुरादजयदुर्गावके, शैलवलये स्तुवे घट्टसीमां जिनान् । ऋषभमीडरपुरे कुमरजिनमन्दिरे, नौमि तलहट्टिकासर्वचैत्यानि च ॥२०॥ तारणेऽजितजिनं कुमरचैत्ये स्थिरं स्थापिते धर्मसूरिभिरहं संस्तुवे । एवमारास-पौसीन-देवेरिका-चैत्रभावाद्रिचङ्गापुरादौ जिनान् ॥२१॥ देशेऽस्मिन् मेदपाटे गिरिवरनिकटैः सङ्कले मध्यभागे, ग्रामे-ग्रामे विशाला बहुजिनकलिताः सन्ति मुख्या विहाराः । बाह्येप्येवं प्रभूता ध्वजकलशयुता भान्ति सर्वेषु तेषु, दृष्टाऽदृष्टेषु नित्यं सकलजिनपतीन्नौम्यहं बोधिवृद्ध्यै ॥२२॥ देशे-देशे नगर-नगरे ग्राम-ग्रामेऽचलादौ, प्रासादा ये नयनपथगास्तेषु चान्येषु नित्यम् । अर्चाः सर्वा गुरुलघुतराः स्तौमि तीर्थेश्वराणां, त्रौलोक्यस्था सुरनरनताः शाश्वताऽशाश्वताश्च ॥२३॥ इत्थं श्रीराजगच्छोदयगिरितरणेर्धर्मघोषस्य सूरेवंशे जातः सुभक्त्या हरिकलशयतिस्तीर्थयात्रां विधाय । नित्यं स्मृत्यै जिनानां विपुलतरलसद्भावपूर्णान्तरात्मा, कांक्षन् पुण्यस्य वृद्धि प्रमुदितमनसा तीर्थमालां स्तवीति ॥२४।। इति श्रीमेदपाटदेशतीर्थमालास्तवनम् ॥ निदेशक प्राकृत भारती अकादमी १३-ए, मेन मालवीय नगर - जयपुर-३०२०१७ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता के 'विश्वरूपदर्शन' का जैन दार्शनिक दृष्टि से मूल्यांकन (१) गीता के 'विश्वरूपदर्शन' की पार्श्वभूमि, स्थान तथा महत्त्व : महाभारत के भीष्मपर्वान्तर्गत गीता का वर्णन हम 'दार्शनिक काव्य' इन शब्दों में कर सकते हैं । कुरुक्षेत्र की रणभूमि में किये गये इस श्रीकृष्णोपदेश में कभी कभी दार्शनिक अंश उभर आते हैं तो कभी-कभी काव्य के अंश अपना प्रभाव दिखाते हैं । आज उपलब्ध पूरी सात सौ श्लोकों की गीता किसी ने युद्धभूमि पर कहना तार्किक दृष्टि से असंभव सी बात है । इसी वजह से कई शोधार्थियों ने 'मूल गीता' की खोज का तथा 'प्रक्षेप' ढूँढने का प्रयास भी किया है। गीता के कई भक्तों ने इस 'विश्वरूपदर्शन' अध्याय की इतनी तारीफ की है कि जैन दार्शनिक दृष्टि से परीक्षण तथा मूल्यांकन करना हमें आवश्यक महसूस हुआ । इस शोधलेख में हमने यही प्रयास किया है । डॉ. नलिनी जोशी २ गीता के हरेक अध्याय की पार्श्वभूमि अलग अलग है । दूसरा अध्याय संजय के निवेदन से आरम्भ होता है, कुछ अध्यायों में कृष्ण सीधा कथन करने लगते हैं, ३ तथा कुछ अध्याय में अर्जुन प्रश्न पूछता है और कृष्ण उत्तर स्वरूप अध्याय का कथन करते हैं । 'विश्वरूपदर्शन' गीता का ग्यारहवाँ अध्याय है । दसवे अध्याय में कृष्ण ने 'विभूतियोग' का कथन किया है । इस जगत् में जो जो विभूतिमत्, सत्त्व, श्रीमत् तथा ऊर्जित है, उन सब को कृष्ण ने परमेश्वर की विभूतियाँ मानी हैं । ये सब ईश्वर के अंशरूप हैं ।" इस दर्शन से प्रभावित हुए अर्जुन की जिज्ञासा जागृत हो उठती है । पुरुषोत्तम का समग्र ऐश्वर्यसम्पन्न रूप वह देखना चाहता है । उसको ज्ञात है कि इस प्रकार का ऐश्वर्यसम्पन्न रूप चक्षुद्वारा देखने का उसका सामर्थ्य नहीं है, इसीलिए वह बहुत नम्रता से अपनी इच्छा प्रकट करता है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 अनुसन्धान ३६ गीतोपदेश के प्रवाह में यह 'विश्वरूपदर्शन' विषय को समाविष्ट करने का कारण क्या है ? दार्शनिक दृष्टि से कम महत्त्व रखनेवाले इस काव्यमय, अद्भुत, रोमांचक, रौद्र वर्णन के मूलस्रोत कहाँ पाए जाते हैं ? वैदिक परम्परा के कौन-कौन से ग्रन्थों में इसका जिक्र किया है ? अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों की तरह इसकी खोज करते करते हम ऋग्वेद के 'सहस्रशीर्षा पुरुष;' इस सूक्त तक पहुंच जाते हैं । ऋग्वेद का पुरुषसूक्त, यजुर्वेद का रुद्राध्याय, अनेक प्रमुख उपनिषद्, श्रीमद्भागवत तथा अनेक अन्य पुराण तथा गीता का अनुकरण करनेवाली अनेक अन्य गीताओं में किसी न किसी स्वरूप में 'विश्वरूपदर्शन' आता ही है । पं. सातवळेकरजीने इसका इतना विस्तृत विवेचन अर्थसहित किया है कि वह इस शोधलेख में हम दोहरानेवाले नहीं हैं । जिज्ञासु पण्डितजीकी टीका देखें । आद्य शंकराचार्य, डॉ. राधाकृष्णन, योगी अरविन्द, लोकमान्य टिळक तथा अन्य कई अभ्यासकों ने इस 'विश्वरूपदर्शन' की बहुत सराहना की है। सभी अध्यायों का सार, गीता-पर्वत का सर्वोच्च शिखर, गीता के सुवर्ण पात्र का मिष्टान्न आदि स्तुतिसुमनों द्वारा अलङ्कत ऐसे 'विश्वरूपदर्शन' का सही मूल्यांकन हम जैन दार्शनिक दृष्टि से करना चाहते हैं । (२) विश्वरूपदर्शन' का स्वरूप और वर्णन इस परिच्छेद में गीता के विश्वरूपदर्शन का विस्तार से बयान नहीं किया है। घटनाक्रम तथा वर्णनक्रम उसी तरह रखके सिर्फ मुद्दे प्रस्तुत किये हैं । पूरा वर्णन ग्यारहवें अध्याय में होने के कारण सन्दर्भ भी नहीं दिये हैं । मुद्दों के अनन्तर हरेक पहलू का परीक्षण करेंगे । १. अर्जुन की विश्वस्वरूप देखने की जिज्ञासा, विश्वरूप देखने की असमर्थता । २. कृष्ण द्वारा सैंकडों हजारों रूप, नानाविध दिव्यवर्ण आदि से युक्त आकृतियाँ इत्यादि दिखाना । देखने के लिए दिव्य चक्षु प्रदान करना। ३. संजय के द्वारा अनेक मुख, नयन, अलंकार, आयुध, माला, गंध वाली आकृतियों का बयान, सहस्र-सूर्य-प्रभा का अनुभव करना । ४. अर्जुन के द्वारा दिव्य पुरुष के देह में सब प्राणिमात्र, ब्रह्मा, विष्णु, Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 महेश, यक्ष, किंनर, गंधर्व, आदित्य, इंद्र, रुद्र, मरुत्, सिद्धसंघ, राजाओं के समूह तथा कौरव, भीष्म, द्रोण, कर्ण और सब योद्धाओं को देखना। ५. उसी रूप में चंद्र-सूर्य, द्यावा-पृथिवी, अग्नि आदि पंचमहाभूत देखना । ६. उग्र, अद्भुत रूप, योद्धों द्वारा कराल दाढावाले मुख में प्रविष्ट होना, असहनीय उग्र तेज फैलना, किरीट, चक्रधारी, चतुर्भुज रूप उग्र में परिणत होना, त्रैलोक्य व्यथित होना तथा अर्जुन का भी भयभीत, खिन्न एवं व्यथित होना । ७. कृष्ण का कालरूप में निवेदन, सभी योद्धाओं के मृत्यु की निश्चिति, अर्जुन का निमित्तमात्र होना, युद्ध के लिए प्रेरणा । ८. भयग्रस्त अर्जुन का उस अद्भुत पुरुष को बार-बार वंदन । ९. कृष्ण के शरीर में यह सारा देखकर अर्जुन का लज्जित होना । कृष्ण से पहले किये हुए बर्ताव के लिए अर्जुन द्वारा क्षमायाचना । पूर्वरूप में आने की विनती । १०. कृष्ण द्वारा कथन- 'मैंने प्रसन्न होकर, कृपा और योगविशेष से यह अद्भुत दर्शन करवाया है। कोई भी मानव या देव वेद, यज्ञ, अध्ययन, दान, क्रिया, तप आदि से भी यह दर्शन नहीं कर सकता ।। ११. कृष्ण का आखिरी उपदेश-यह दर्शन केवल अनन्य भक्ति से हो सकता है । उसी से परमात्मा का ज्ञान, दर्शन और उस में प्रवेश शक्य है। जो व्यक्ति परमेश्वर जैसा (समत्वबुद्धियुक्त) वर्तन करता है, तथा कर्म करता है, भक्त होता है, अनासक्त और प्राणिमात्रों के लिए बैररहित होता है, वह ईश्वर या परमात्मरूप होता है। ___ अब इसका एक एक पहलू लेकर जैन दृष्टि से परीक्षण का प्रयास करेंगे । (१) अर्जुन की जिज्ञासा तथा असमर्थता प्रकट करना विश्व का गूढ स्वरूप जानने की जिज्ञासा तो हरेक चिंतनशील Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३६ मानव हजारों सालों से रखता आया है। अनेक उपनिषदों में 'कोऽहं' प्रश्न के द्वारा इस जिज्ञासा का प्रकटीकरण किया है । केनोपनिषद् में 'केन' शब्द के द्वारा यही जिज्ञासा दिखलाई है । आचारांग के आरंभ में भी जीवों के अस्तित्व के बारे में पृच्छा की है । प्रश्न यह उठता है कि क्या ये जिज्ञासा रणांगण में, युद्धप्रसंग में की जा सकती है ? गीता में बताएँ हुए अनेक मुद्दों के बारे में यही प्रश्न ऊठता है । आत्मा का अमरत्व, देह की क्षणभंगुरता, अनासक्त होना, निष्काम होकर कर्म करना, स्वधर्मपालन की प्रेरणा आदि मुद्दे संक्षेप में कहे तो ठीक हैं लेकिन पूरा ध्यानयोग, भक्तियोग आदि का कथन बिलकुल ठीक या तर्कसंगत नहीं लगता । यह कोई प्रवचन का समय या तीर्थंकरों का समवसरण या धर्मसभा नहीं है कि ऐसे प्रश्न किये जायें और इतनी सविस्तुतता से उत्तर भी दिये जायें । यह मुद्दा भी थोडी देर के लिए बाजू में रखेंगे । जैन दर्शन की दृष्टि से विश्व का विराट स्वरूप देखने की जिज्ञासा भी ठीक है लेकिन खुद की असमर्थता की जानकारी होते हुए भी ऐसी विनती करना और वह सर्वज्ञ ने मान्य करना ठीक नहीं है । हम कृष्ण की जगह सर्वज्ञ, तीर्थंकर या केवली को रखते तो जैन दर्शन की दृष्टि से उत्तर है कि विश्व का दर्शन करना एक ज्ञानविशेष है । मानव खुद की श्रद्धा, चारित्र तथा पुरुषार्थ द्वारा आध्यात्मिक प्रगति करे तो विश्वरूप उस में अपने आप प्रकट होता है । हरेक जीव स्वतंत्र है । सर्वज्ञ में विश्व को जानने का तथा देखने का सामर्थ्य है लेकिन वे अपने ज्ञान का संक्रमण नहीं कर सकते । अर्जुन ने खुद की असमर्थता तो इतने स्पष्ट शब्दों में प्रकट की है कि ऐसा व्यक्ति तो जैन दर्शन के अनुसार विश्वस्वरूप जान या देख नहीं सकता । (२) कृष्ण द्वारा रूपदर्शन कराना तथा दिव्य दृष्टि का प्रदान (अ) पहले तो कृष्ण अर्जुन से कहता है कि 'पश्य में पार्थ रूपाणि' इसका मतलब है कि कृष्ण खुद को परमेश्वर स्वरूप में प्रस्तुत करके कृष्ण के देह के अंतर्गत विराट विश्वस्वरूप दिखा रहा है । जैन Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 दर्शन के अनुसार विश्व की निर्मिती, परिपालन तथा संहार करनेवाला और विश्व के विराट रूप को खुद में समेटनेवाला कोई भी ईश्वर, परमेश्वर या ईश्वरीय अवतार नहीं माना गया है । 1 सर्वज्ञ अगर केवली इस प्रकार खुद के देह में ऐसा विराट दर्शन कभी नहीं करवाते । विश्व की समग्र वस्तुओं का पर्यायसहित ज्ञान उनको होता है। लेकिन उसमें असली विश्वस्वरूप यथातथ्य से दिखाई देता है कोई भी अद्भुतता या विचित्रता नहीं होती । वे जब विश्वस्वरूप का कथन करते हैं तब वह उपदेश शब्दरूप ही होता है ।१० जैन दर्शन की दृष्टि से विश्वदर्शन की चाह से या दिखानेवाले की इच्छा से भी यह विराट विश्वदर्शन इस प्रकार से संभव नहीं है । 53 जैन दर्शन के अनुसार देवों का शरीर वैक्रियिक होता है । ९९ वे पृथ्वीपर भी आ सकते है । अपनी विकुर्वणा - शक्ति के द्वारा इस प्रकार के अद्भुत रूप दिखा सकते हैं । इस दृष्टि से कृष्ण को देवगति का एक जीव माना जा सकता है । लेकिन इसमें गीता की दृष्टि से और कृष्णचरित की दृष्टि से बड़ी आपत्ति आ सकती है । क्योंकि कृष्ण तो मानव हैं । फिर भी खुद को परमेश्वर या परमात्मा रूप में प्रस्तुत करते हैं । १२ जैन दर्शन के अनुसार मानव या देवगति का कोई भी जीव इस प्रकार का परमेश्वर नहीं होता । कृष्ण के कथनानुसार अगर यह विश्वरूप दिखाने की शक्ति उसकी यौगिक शक्ति या ऐश्वर्य माना जाय, १३ तो तीर्थंकर, केवली में भी ऐसी अनंत शक्तियाँ होती हैं । १४ लेकिन किसी के अनुरोध से अपनी यौगिक शक्ति का इस प्रकार का प्रगटीकरण जैन शास्त्र को सम्मत नहीं है । (ब) कृष्ण जानता है कि अर्जुन के चर्मचक्षुओं में विश्वरूप देखने का सामर्थ्य नहीं है । इसलिए वह कहता है कि 'दिव्यं ददामि ते चक्षुः' । जैन दर्शन के अनुसार ये दिव्यचक्षु ज्ञानचक्षु ही हो सकते हैं । ज्ञानचक्षु में सबकुछ देखने का सामर्थ्य भी है। लेकिन खुद के प्रयत्न के द्वारा प्राप्त किए हुए ज्ञानचक्षु से ही साधक देख सकता है । दिव्यचक्षु किसी दूसरे ने देने की या लेने की वस्तु नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार कृष्ण तथा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 अनुसन्धान ३६ अर्जुन दो स्वतंत्र जीव हैं । और कभी भी एक जीव दूसरे की आध्यात्मिक शक्ति के बारे में हस्तक्षेप नहीं करता । अर्जुन को मर्यादित समय के लिए प्राप्त हुई इस दिव्य दृष्टि की अगर जैन दर्शन के अनुसार उपपत्ति लगानी ही है तो हम अनवस्थित अवधिज्ञान के द्वारा यह उपपत्ति लगा सकते हैं । क्योंकि यह अवधिज्ञान मर्यादित क्षेत्र में, मर्यादित काल में और कभी-कभी होता है ।१५ लेकिन ऐसा मानने में भी आपत्ति है । क्योंकि अनवस्थित अवधिज्ञान के द्वारा भी जीव विश्व का अद्भुत रूप में दर्शन नहीं कर सकता, यथातथ्य रूप में ही कर सकता है । जैन दर्शन के अनुसार यह कुअवधिज्ञान माना जा सकता (३.४.५.) संजय और अर्जुन के द्वारा विश्वरूपदर्शन की अपूर्णता संजय और अर्जुन के द्वारा वर्णित विश्वदर्शन में नियोजन तथा सुसंबद्धता का अभाव दिखाई देता है । गीता में ही अनेक जगह प्रकृति की सहायता से विश्वनिर्मिती की प्रक्रिया का विस्तार से क्रमबद्ध वर्णन आता है । कृष्ण कहता भी है कि 'मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं' ।९७ अगर ये सच है तो कम से कम चर और अचर याने जंगम और स्थावर सब सृष्टि के कुछ अंश तो निर्दिष्ट होना अपेक्षित है । यहाँ तो प्रायः स्वर्ग के देवताओं का ही विस्तार से बयान है । वनस्पतिसृष्टि, सागर, नदियाँ आदि निसर्गसृष्टि तथा नरकलोक और तिर्यंच गति के जीव-इनका किंचित् मात्र भी उल्लेख नहीं है। इसकी पुष्टि के लिए हम यह कह सकते हैं कि अगर कृष्ण ने समूचा विश्वदर्शन कराया भी है तो अर्जुन ने अपने मर्यादित सामर्थ्य के अनुसार जितनी चीजें देखीं उनका संक्षेप में बयान किया है । इसमें भी कृष्ण का ईश्वर या परमेश्वर होने का दावा है इसलिए देवों का वर्णन है । और युद्धप्रसंग होने के कारण राजाओं और आयुधों का वर्णन है । देवों के वर्णन में भी द्यावा-पृथिवी, मरुत्, इन्द्र, अग्नि आदि वेदकालीन देवता तथा 'वैदिक परंपरा की दृष्टि रखते हुए सृष्टि के निर्माता, धर्ता और संहारकर्ता के रूप में आनेवाले पौराणिक काल के देव भी इसमें वर्णित हैं ।' Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 55 इस आंशिक विश्वरूपदर्शन के बारे में गीता की दृष्टि से हम आपत्ति उठा नहीं सकते क्योंकि अर्जुन को जितना भी दिखाई दिया वह कृष्ण की मर्जी के अनुसार और वह भी अर्जुन की तात्कालीन दिव्यदृष्टि की मर्यादा के अनुसार ही है । कृष्ण ने यथार्थ रूप में समूचा विश्वदर्शन कराया है या नहीं इसके बारे में हम कुछ नहीं कह सकते । लेकिन अर्जुन को युद्ध की प्रेरणा देने हेतु जितना विश्वदर्शन करवाना आवश्यक था उतना कृष्ण ने जरूर करवाया है ।१८ जैन दर्शन के अनुसार कोई भी व्यावहारिक हेतु साध्य करने के लिए वस्तुतः आध्यात्मिक दृष्टि से किसी अपरिपक्व जीव को आंशिक विश्वरूपदर्शन करवाना यह घटना तीर्थंकर, केवली सर्वज्ञ आदि वीतरागी व्यक्तियों के बारे में केवल असंभवनीय है। (६) उग्र विश्वरूप देखकर अर्जुन का भयभीत तथा व्यथित होना ग्यारहवें अध्यायके ३२, ३३ तथा ३४ इन श्लोकों में उस विराट पुरुष के रौद्र रूप का और असहनीय तेज का वर्णन अर्जुन करता है । अन्याय योद्धाओं को गिरिनदी के समान मृत्युमुख में प्रवाहित देखकर अर्जुन घबरा उठता है, काँपने लगता है और व्यथित भी होता है। जैन दर्शन की दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि अगर किसी सर्वज्ञ या केवली के ज्ञानोपयोग से विश्व का यथार्थ ज्ञान होता है, तो वह उस वस्तुनिष्ठ सत्य को सहजता से स्वीकार करते हैं। किसी भी प्रकार की घबराहट या खिन्नता की गुंजाईश भी नहीं होती । हम इतना ही कह सकते हैं कि वास्तविक पात्रता न होने के कारण, तथा कृष्ण की कृपा से युद्ध के भयावह रूप का दर्शन होने से अर्जुन घबरा गया है। केवली या अवधिज्ञानी ज्यादा से ज्यादा ऐसे युद्धपरिणाम शब्दों में बयान कर सकते हैं, प्रत्यक्ष दिखाते नहीं (७) कृष्ण द्वारा कालस्वरूप-कथन और युद्धप्रवृत्त करना (अ) भयभीत अर्जुन विराट पुरुष का उग्ररूप देखकर भयभीत होकर कृष्ण से पूछता है, 'आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो ?' इसके बाद कृष्ण विराट पुरुष के रूप में उसे बताता है कि, 'कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धः ।' इस काल को भयानक रौद्र रूपवाले, संहारक, भीषण दंष्ट्रावाले Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 अनुसन्धान ३६ देवता के रूप में प्रस्तुत किया है । युद्ध में मरने वाले योद्धे इस कालमुख में प्रविष्ट होते हुए देखनेवाले अर्जुन से कृष्ण कहता है कि 'मैं वही विराट पुरुष अब काल के रूप में परिणत हुआ हूँ ।' हम प्रत्यक्ष-व्यवहार में भी अनुभव करते हैं कि प्रचंड चक्रवात, धूलिवात, सागरप्रकोप, भूकंप, ज्वालामुखी तथा पहाभीषण युद्ध आदि प्रसंगों में मानव, पशु-पक्षी, वनस्पतियों का संहार देखकर हमें लगता है कि ये 'प्रत्यक्ष कालपुरुष, यम तथा मृत्युदेवता का तांडवनृत्य है ।' लेकिन यह अनुभूति और तत्त्वतः 'काल' नाम 'द्रव्य' या ‘पदार्थ'-इसमें कुछ मेलजोल है या मानवीय भावभावनाओं का 'काल' पर किया हुआ प्रत्यारोपण है ? - इस पर सूक्ष्मता से गौर करना चाहिए । सृष्टि की विविध घटनाओं का स्पष्टीकरण करने के लिए कालवाद, स्वभाववाद, परिणामवाद, कर्मवाद, नियतिवाद, समुच्चयवाद आदि अनेक दृष्टिकोण विचारवंतों ने अपनाये हैं । गीता में ही अठारहवें अध्याय में अधिष्ठान, कर्ता, करण, कर्म (विविध चेष्टा) तथा दैव ये पाँच कारण माने गये हैं ।१९ महाभारत में अन्यत्र 'राजा कालस्य कारणम्' आदि वचन प्रसंगोपात्त आते हैं । तथापि उन वचनों को प्रासंगिक तथा अर्थवादात्मक मानना ही ठीक है। जैन दर्शन के अनुसार भी हरेक कार्य को उपादान तथा निमित्तकारण होते हैं । तथापि 'काल' कोई घटना में साक्षात् निमित्त नहीं होता । काल षड्-द्रव्यों में से एक है तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार 'काल परिवर्तनका आधार है ।'२० वस्तुओं के परिवर्तन देखकर हम काल का अस्तित्व जानते हैं । वास्तव में वह स्वयं अनादिअनंत और परिवर्तन से परे है । जैन दर्शनने 'मृत्यु' नामक देवता की परिकल्पना ही नहीं की है । यमदेवता, उसके सहकारी(दूत), उसके पाश, आदि की जैनदर्शन में कुछ संभावना नहीं है। हर एक का आयुष्कर्म होता है ।२१ उस कर्म के क्षीण होते होते इस जीवनपर्याय (गतिपर्याय) की मर्यादा समाप्त होनेसे, किये हुए कर्म के अनुसार जीव दूसरी गति में गमन करता है । 'मृत्यु के द्वारा प्राणहरण' नहीं होता, हरेक प्राणी अपना आयुष्य-कर्म समाप्त होने पर कालवश होता है । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 (ब) 'निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्' यह कृष्ण ने अर्जुन को दिया हुआ आदेश या प्रेरणा है । जैन दर्शन भी मानता है कि हमें सुख-दुख आदि देने में विविध निमित्त होते हैं । किंबहुना ? जीव को विशिष्ट गति में जन्म, माता-पिता, सगे-संबंधी, स्वजन-मित्र-शत्र, परिस्थिति (हालात) इन्हीं सुख-दुःखों की अनुभूति के लिए निमित्तमात्र होते हैं । किसी की मृत्यु में निमित्त बनने की यह प्रेरणा जैन दर्शन की दृष्टि से सरासर गलत है। 'इसको तो मृत्यु आनेवाली ही है, मैं सिर्फ निमित्तमात्र हूँ' ऐसा गलत संदेश अगर तत्त्वज्ञान के आधार से जाता है तो दुनिया में तहलका मच सकता है । वैयक्तिक दृष्टि से तो हरेक आचारसंपन्न व्यक्ति ने दूसरों को दुःख देना या मृत्यु देने के विचार से सदैव दूर रहने का प्रयास करना चाहिए । जैन दर्शन की दृष्टि से कीट-पतंग-वनस्पति को भी दुःख नहीं पहचाना है,२२ तो मानव-हत्या, विचार के आस-पास भी नहीं होनी चाहिए। अर्जन को क्षत्रियधर्म का पालन करने का आवाहन करना व्यवहार नयसे तो ठीक है, परंतु दूसरों के वध के लिए निमित्तमात्र होने की प्रेरणा देना जैन दर्शन से बिलकुल सुसंगत नहीं है। (८,९) भयग्रस्त अर्जुन का अद्भुत विराट पुरुष को बारबार वंदन; अपने पूर्व-वर्तन की लज्जा तथा पूर्वरूप में आने की विनती गीता में श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व के चार पहलुओं का दर्शन इस ग्यारहवें अध्याय में होता है। यही इस अध्याय की विशेषता है । इस प्रसंग तक कृष्ण अर्जुन का भाई, सखा, सारथी तथा मार्गदर्शक है । इस अध्याय में प्रथम कृष्ण सहस्र मस्तक, बाहु, मुख, नेत्रवाला विराट पुरुष बन जाता है । काल के रौद्र रूप में भी सामने आता है । विस्मयचकित और भीतिग्रस्त अर्जुन के बार-बार वंदन तथा विनती से सौम्य चतुर्भुज विष्णरूप में दिखाई देता है । थोडी देर बाद दो हाथवाले वासुदेव कृष्ण के रूप में अवस्थित हो जाता है । इस अध्याय में जितनी अद्भुतता और रोमांचकता है, वह जैन दृष्टि से परखने के पहले हम इसका सोचविचार करेंगे कि जैन इतिहास में और आगमों में इस प्रकार के अद्भुत प्रसंग आये हैं या नहीं? Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 अनुसन्धान ३६ खुद भगवान् महावीर के चरित में अद्भुतता के अंश कई बार पाये जाते हैं । त्रिशला रानी के चौदह स्वप्न,२३ हरिनैगमेषी देव के द्वारा देवानंदा ब्राह्मणी के उदर से गर्भस्थ बालक का अपहरण और त्रिशला के उदर में स्थापन,२४ अंगुष्ठ द्वारा मेरुपर्वत का चलन,२५ उनके ३४ अतिशय (अद्भुत),२६ गोशालक द्वारा छोडी गयी तेजोलेश्या से यक्षद्वारा संरक्षण,२७ गौतम गणधर के मन में उठे हुए प्रश्नों को जानकर उनका समाधान करना,२८ इस महिमा से प्रभावित होकर ग्यारह ब्राह्मणों ने महावीर के शिष्य बनना२९ आदि कितनेक अद्भुत यही सिद्ध करते हैं कि भगवान् महावीर का जनमानस पर इतना प्रभाव होने का एक कारण यह अद्भुतता भी है ।। केवलियों ने समुद्धात के द्वारा अपने आत्मप्रदेश चहूँ ओर फैलाना,३० आचार्य कुन्दकुन्द का चारण ऋद्धि से महाविदेह क्षेत्र गमन,३१ अन्यान्य जैन मुनियों का आकाशगमन, प्रभव ने किया हुआ अवस्वापिनी विद्या का प्रयोग, ३२ स्थूलिभद्र द्वारा सिंह का रूप धारण करना२३ आदि अनेक अद्भुत कृत्यों के निदर्शन जैन साहित्य में विशेषतः चरित-साहित्य में भरे पड़े हैं। अगर जैनियों का इन सारी अद्भुत और रोमांचक घटनाओं पर विश्वास है तो गीता के इस विश्वरूपदर्शन की अद्भुतता पर संदेह करना ठीक नहीं होगा। दोनों परंपराओं में अद्भुतता के अंश होने के कारण हम एक की अद्भुतता ग्राह्य और दूसरे की त्याज्य ऐसा तो मान नहीं सकते । अगर करेंगे भी तो साम्प्रदायिक अभिनिवेश ही होगा । अद्भुतता के बारे में हम एकदूसरे की निन्दा नहीं कर सकते । दोनों परंपराओं में भगवान महावीर और भगवान कृष्ण अनेक ऋद्धियों से सम्पन्न हैं । फर्क इतना ही है कि वैदिक परंपरा में कृष्ण को 'योगेश्वर' कहा है । चरितों में रस और अलंकार की दृष्टि से अद्भुतता लायी जाती है । यह विधान अगर सत्य है तो वह दोनों के बारे में सत्य है । भगवान महावीर के पास ३४ अतिशय हमेशा उपस्थित रहते हैं । कृष्ण ने भी प्रसंग आते ही अपने योगैश्वर्य का प्रकटन किया है। अगर इन अद्भुतताओं की योजना महावीरचरित में धर्मप्रभावनार्थ है तो कृष्णचरित में भी धर्मसंस्थापनार्थ है । जैन दर्शन के चिकित्सक विचारवंतों Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 59 ने भगवान महावीर के व्यक्तित्वकी खोज लेकर यह विचार प्रकट किये हैं कि ये सारी अद्भुतताएँ दूर हटाकर भी उनके कार्यकर्तृत्व का महत्त्व अनन्य साधारण है । कृष्ण के बारे में भी यही विधान सत्य है । हालांकि दोनों के कार्यक्षेत्र इस संदर्भ में अलग-अलग होंगे । भगवान महावीर आध्यात्मिक दृष्टि से महान आत्मा हैं तो भगवान कृष्ण निपुण राजनीतिज्ञ एवं कुशल प्रशासक हैं । यद्यपि जैन दर्शन में अद्भुतता है तथापि विश्वस्वरूप का वर्णन जिधर कहीं पाया जाता है वह गीता की विश्वदर्शन की तरह रौद्र, भीषण और अद्भुत नहीं है यथातथ्य ही है। फिर भी स्वर्ग और नरक के सुखदुःखों के वर्णन में ये अद्भुतता के अंश दिखाई पड़ते हैं ।३४ तो फर्क इतना ही हुआ कि भगवान महावीरने या अन्य किसी ने अद्भुतता दिखाकर किसी महासंग्राम की प्रेरणा नहीं दी है और कृष्ण तो इस अध्याय में स्पष्ट कहते हैं कि तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुक्ष्व राज्यं समृद्धम् । मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् । (गीता ११.३३) (१०) ईश्वरी कृपा से इस प्रकार का विश्वदर्शन, अन्य साधन से नहीं । अर्जुन भयभीत होकर कृष्ण से चतुर्भुज रूप धारण करने की प्रार्थना करता है । कृष्ण योगशक्ति से उस प्रकार का रूप धारण करता है। अगले तीन श्लोकों में विश्वरूप दर्शन में ईश्वरी कृपा का स्थान तथा महत्त्व बताता है । वह कहता है, 'मैंने प्रसन्न होकर आत्मयोग से यह रूप तुझे दिखाया है । अनन्त और आदिरूप (सब का आदि) विश्व का यह तेजोमय दर्शन तेरे सिवाय किसी दूसरे को नहीं दिखाया गया है । इस मनुष्य लोक में वेद, यज्ञ, अध्ययन, दान, विविध क्रिया तथा उग्र तप से भी यह नहीं किया जाता । जैन दर्शन की दृष्टि से इस निवेदन में कई आलोचनार्ह अंश हैं। गीता की दृष्टि से देखें तो भी कई मुद्दे उभरकर सामने आते हैं। सांख्ययोग Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 अनुसन्धान ३६ हो या ज्ञानयोग, ध्यानयोग हो या निष्काम कर्मयोग हरेक में गीता आखिर में भक्ति, श्रद्धा, अनन्यभाव का महत्त्व बताती है । भक्ति को 'राजविद्या राजगुह्य' कहती है । योगियों में भी योगी भक्त को श्रेष्ठ बताया है । ३५ सांख्य तथा ज्ञानमार्ग में भी 'ज्ञानी भक्त' को ऊँचा स्थान दिया है । ३६ इस अध्याय में तो स्वतंत्र रूप से ईश्वरी कृपा का महत्त्व बताया है । मतलब यह हुआ की भक्तिमार्ग तो श्रेष्ठ हैं, लेकिन इस प्रकार का अद्भुत विश्वदर्शन आदि करना है तो अनन्य भक्ति के सिवा दूसरी भी चीज उतनी ही आवश्यक है, उसका नाम है 'ईश्वरी कृपा' । यह कृपा ही आखिर सब साधनों के ऊपर है । जैन दर्शन अपना कर्म और पुरुषार्थ के सिवा इस प्रकार की ईश्वरी कृपा में विश्वास नहीं रखता । वस्तुतः ईश्वरी कृपा तो दूर, इस प्रकार के ईश्वर या परमेश्वर में ही विश्वास नहीं रखता । जैन दर्शन में किसी भी तरह की परावलंबिता नहीं है । आत्मतत्त्व पर श्रद्धा, ज्ञान तथा चारित्र के बल पर मनुष्य अपनी आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है । इस के बल पर ही उसे मनःपर्याय, अवधि तथा केवलज्ञान की प्राप्ति हो सकती है । ३७ विश्व का स्वरूप भी वह रत्नत्रय की आराधना से जानता है, उसके लिए अलग से किसी सद्गुरु अथवा परमेश्वरी कृपा की आवश्यकता नहीं है । वेद (श्रुतज्ञान), ज्ञानप्राप्ति ( स्वाध्याय, अध्ययन), दान, तप आदि सब आस्रव रोकने के तथा संवर के साधन, याने 'चारित्र' है । ३८ श्रद्धायुक्त चारित्रपालन से जीव ऊर्ध्वगामी होकर अंतिम ध्येय याने मोक्ष तक पहुँचता ही है । इस गति को रोकना या बढाना किसी भी दूसरी शक्ति के वश में नहीं है । सारांश, परमेश्वरी कृपा का होना न होना जैन दर्शन के मुताबिक कोई मायने नहीं रखता । खुद के बलपर जो विश्वरूपदर्शन जैन दर्शन में होगा, वह नि:संशय इस प्रकार रौद्र, अद्भुत और चौंका देने वाला नहीं होगा । इसीलिए केवली कभी भयभीत, कंपित भी नहीं होते । आध्यात्मिक उन्नति के विविध मार्गों को यकायक दुय्यम स्थान देकर 'ईश्वरी कृपा' की सर्वोपरिता प्रस्तुत करना खुद वैदिक परंपरा के अनुसार भी तर्कशुद्ध नहीं मालूम पडता । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 ११. ( अ ) कृष्ण का आखिरी कथन : अनन्य भक्ति द्वारा परमेश्वर का दर्शन कृष्ण के कथनानुसार जब ईश्वरी कृपा और अनन्य भक्ति का इस प्रकार संगम हो जाता है तभी यह विश्वदर्शन या परमेश्वरदर्शन शक्य है । इसमें यह मुद्दा उपस्थित किया जा सकता है कि चलो, गीता की दृष्टि से सही यह अगर मान्य किया तो भी एक आपत्ति आती है । क्या अर्जुन श्रीकृष्ण का अनन्य भक्त है ? युद्ध के इस प्रसंग तक तो अर्जुन कृष्ण को भाई, सखा, मार्गदर्शक मान रहा था । उसी तरह से कृष्ण के साथ पेश आता था । यह इसी अध्याय में अर्जुनने कबूल किया है । ३९ अर्जुन एक क्षत्रियवंशीय गृहस्थ है । अभी तक तो उसने भक्तिमार्ग की आराधना नहीं की है । अनन्य भक्ति से ईश्वर का ज्ञान, दर्शन अगर ईश्वर में प्रवेश अग शक्य भी है तो अर्जुन 'अनन्य भक्त' कहलाने योग्य है क्या ? कृष्ण ने इस अद्भुत दर्शन की जो लीला दिखाई उसके बाद अर्जुन कृष्ण का अनन्य भक्त बन सकता है । उसने कृष्ण को बार बार किया हुआ वंदन इसी बात का द्योतक है । बात तो बिलकुल विपरीत हुई । अर्जुन को अनन्य भक्ति से यह दर्शन नहीं हुआ, इस दर्शन से वह अनन्य भक्त बना । केवल अर्जुन को ही यह विश्वदर्शन कराने में कृष्ण का पक्षपातित्व ही सिद्ध होता है, जो उसके परमेश्वर होने में बाधास्वरूप मालूम पडता है । (ब) परमात्मस्वरूप कौन हो जाता है ? 61 गीता में कृष्ण ने कई बार 'अहं', 'मम', 'मां', 'मत्' इन शब्दों का प्रयोग किया है । कृष्ण = ईश्वर = परमेश्वर = परमात्मा ये समीकरण अगर मान्य किया जाय तो इस वाक्य रचना में जैन दर्शन के 'जीव' और 'परमात्मा' शब्दों के भावार्थ ध्यान में रखकर जो बात कही है, वह सैद्धान्तिक दृष्टि से जैन दर्शन से अचानक मेल खाती है । " जो भी जीव (ईश्वर जैसी) समत्वदृष्टि से कर्म करता है, आत्मध्यान में लीन है, आत्मा का भक्त है, सारी सांसारिक आसक्तियों से परे है, प्राणिमात्रों के प्रति द्वेषभावरहित है, वह खुद परमात्मस्वरूप हो जाता है । " इस अध्याय के अंतिम श्लोक का भावार्थ हमें किसी भी जैन अध्यात्मग्रंथ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३६ में मिल जाए तो आश्चर्य की बात नहीं है । सैद्धान्तिक भेद इतना ही है कि जैन दर्शन में 'परमेश्वर या परमात्मा के प्रति जाने की' बात नहीं हो सकती । जीव खुद ही परमात्मा है । रत्नत्रय की आराधना से जब जीव के सब कषाय और कर्मावरण दूर हो जाएंगे तो वह खुद ही परमात्मा बन जाएगा ॥४० अभी तक ग्यारहवे अध्याय के मुद्दे ध्यान में रखकर मूल्यांकन किया है । अभी कुछ अन्य मुद्दों की विचारणा करके उपसंहार की ओर बढेंगे । विश्वरूप-दर्शन की जैन दार्शनिक दृष्टि से संक्षिप्त विचारणा * दोनों परंपराओं ने विश्वदर्शन के बारे में 'पुरुष' की संकल्पना अपनायी है । गीता ने अद्भुत विराट पुरुष प्रस्तुत किया । जैन दर्शन त्रैलोक्य का बाह्याकार विशिष्ट पुरुषाकृति बताता है, उसमें अद्भुतता नहीं है । * महाभारत में कृष्ण साक्षात् ईश्वर, .परमेश्वर, परमात्मा एवं विष्णु का अवतार है । धर्मसंस्थापना, साधुपरित्राण और दुष्कृतविनाश इसके प्रयोजन हैं । अवतारसमाप्ति के बाद वह मूलरूप में विलीन होता है। जैन दर्शन के अनुसार वह अनेकऋद्धिसंपन्न 'वासुदेव' तथा ६३ श्लाघा (या शलाका) पुरुषों में एक है । शत्रुहनन इत्यादि कार्यों के परिणामों के अनुसार वह नरकगति में गया है । अगले भवों में मोक्षगामी होगा । * श्रीमद्भागवत में कृष्ण ने यशोदामाता को अपने मुख में विश्वरूपदर्शन करवाया था, परंतु इस विश्वदर्शन से वह भिन्न है । जैन दर्शन में तीर्थंकर, केवली आदि विश्वरूप कथन करते हैं, प्रत्यक्ष दिखाते नहीं। * अर्जुन कृष्ण की कृपा से दिव्य दृष्टि पाता है । संजय तथा व्यास को भी दिव्य दृष्टि है । जैनदर्शन में किसी भी प्रकार का दर्शन कोई एक दूसरे को नहीं करवा सकता । दर्शन तो उसी जीव के दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम आदि से होता है, किसी की कृपा से नहीं । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 * कृष्ण ने खुद के स्वरूप में यह अत्यद्भुत दर्शन करवाया । यद्यपि जैन दर्शनानुसार केवली 'लोकपूरण समुद्धात' के द्वारा अपने आत्मप्रदेश समूचे विश्व में फैला सकते हैं, तथापि यह केवल सैद्धान्तिक मान्यता है । इसका दर्शन वे अन्यों को नहीं करवाते । * कृष्ण के कथनानुसार यह दर्शन केवल ईश्वर की 'अनन्य भक्ति' से होता है । खुद गीता की दृष्टि से भी अर्जुन कृष्ण का अनन्य भक्त नहीं सखा, बंधु, सारथी है। जैन दर्शन के अनुसार किसी भी प्रकार का ज्ञान खुद का पुरुषार्थ तथा आत्मशुद्धि पर निर्भर है, भक्ति पर नहीं । * कृष्ण के कथनानुसार विश्वदर्शन में 'ईशकृपा का बल' अंतर्भूत होता है । जैन दर्शनानुसार 'आत्मबल' ही सर्वश्रेष्ठ है । आत्मश्रद्धा, सम्यक्ज्ञान तथा शुद्ध आचरण से ही सब संभव है, गुरुकृपा आदि से नहीं । गीता का विश्वरूपदर्शन अनेक शोधकर्ताओं ने प्रक्षेप-स्वरूप ही माना है । वैदिक परंपरामें इस स्वरूप के दर्शन की जो महत्ता है, उसी के कारण यह गीता में समाविष्ट हुआ है । तार्किक संगति का दृष्टि से देखा जाय तो युद्धभूमि पर इस प्रकार अद्भुत-दर्शन करवा के अर्जुन को युद्ध-प्रेरित करना सुसंगत नहीं लगता । * जैन दर्शन अनेकान्तवादी है । इस दृष्टि से विश्वरूपदर्शन पूर्णतः असत्य है ऐसा भी हम मान नहीं सकते । उसमें भी शक्यता के कुछ अंश तो हो सकते हैं । जैन दर्शन ने वासुदेव कृष्ण के व्यक्तित्व को और यौगिक शक्ति को मान्यता दी है । हम पहले ही देख चुके हैं कि जैन इतिहास-पुराणों में भी अद्भुतता का दर्शन कई बार होता है । सैद्धान्तिक दृष्टि से तो नहीं लेकिन काव्यात्मकता, अद्भुतता तथा भक्तिमार्ग की प्रभावना की दृष्टि से ही इस विश्वरूप दर्शन को हम देख सकते हैं । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३६ * * 3 ; . संदर्भ महाभारत भीष्मपर्व अध्याय क्र. २५ से ४२ गीता अध्याय क्र. २ गीता अध्याय क्र. ४, ६, ७, ९, १०, १३, १४, १५, १६. गीता अध्याय क्र. ३, ५, ८, ११, १२, १७, १८ गीता १०.४१ गीता ११.४ सातवळेकर, गीता अध्याय क्र. ११ व्याख्या ८. आचारांग १५. ३९(७७३), स्थानांग - ९.६२ गीता ११.७ १०. एवमक्खंति तिलोगदंसी, आचारांग १५.४०; सूत्रकृतांग १.१४.१६ ११. तत्त्वार्थसूत्र २.४७ १२. गीता ११.३८ १३. गीता ११.८ १४. आचारांग २.१५.१; महावीरचरियं, (गुणचंद्र पृ० ९) १५. तत्त्वार्थसूत्र १.२३ १६. तत्त्वार्थसूत्र १.३२ १७. गीता ९.१० १८. गीता ११.३४ १९. गीता १८.१४ २०. तत्त्वार्थसूत्र ५.२२ २१. तत्त्वार्थसूत्र ८.११ आचारांग १.१.७.१७६; आचारांग १.२.३.६३; तत्त्वार्थसूत्र ७.८ २३. कल्पसूत्र (ललवाणी) सूत्र ३२ २४. कल्पसूत्र (ललवाणी) सूत्र ३० २५. महावीरचरियं पृ. ११८ २६. समवायांग ३४ २७. महावीरचरियं पृ० २७९ २८. आवश्यक नियुक्ति ६०० २९. आवश्यक नियुक्ति ६०१ ३०. स्थानांग ८.११४ ३१. पंचास्तिकाय प्रस्तावना, प्रो. ए. चक्रवर्ति नयनार, पृ० ८ २२. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 65 ३२. धर्मविधिप्रकरण १२३ ब. ११ ३३. (थूलभद्दो) सीहरूवं विउव्वइ-आवश्यक हारिभद्रीय टीका, पृ० ६९८ ३४. तत्त्वार्थसूत्र ३.४, ३.५; ३५. तत्त्वार्थसूत्र ४.२१ ३६. गीता ६.४७, ७.१८ ३७. तत्त्वार्थसूत्र १०.१; उत्तराध्ययन २८.३५ ३८. तत्त्वार्थसूत्र ९.१; ९.२ ३९. गीता ११.४१ ४०. तत्त्वार्थसूत्र १०.२; कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो । मोहपाहुड - ५; ४३ C/o. सन्मति तीर्थ फिरोदिया होस्टेल, ८४४ शिवाजीनगर, पुणे ४११००४ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 विहंगावलोकन - भावसभर अनु० ३५ नी प्रथम प्राकृत रचना 'वीतरागविनति' कल्पनासभर रचना छे. वीतरागनी वीतरागता ध्यानमां होवा छतां भक्तहृदय प्रभुनी पासे कृपानी अपेक्षा राखे ज छे, फरियाद कर्या विना रहेतो नथी. प्रस्तुत स्तोत्रमां विधविध रीते परमात्मा पासे अनुनयविनय - याचना - विज्ञप्ति करवामां आव्या छे. प्राकृतना अभ्यासीओ आ कृतिनो रस माणी शकशे. गाथा २ मां मं(हं) पछी भव वधारानो छे- लिपिकारना हस्ते प्रवेशी गयो छे. 'भवद्दुओ मं ( हं) किंपि जंपेमि' ए रीते १७ मात्रा पूरी थई रहे छे. अनुसन्धान ३६ उपा. भुवनचन्द्र बीजी कृति विख्यात गीतकार समयसुन्दरोपाध्यायनी संस्कृत रचना छे. विद्वत्तासभर अने इतिहासमूल्य धरावती आ रचना जैन श्रमणों द्वारा संस्कृत भाषानी समृद्धिमां केटलुं योगदान अपायुं छे ते जणावनार एक दृष्टान्तरूप सर्जन छे. ९९९ अक्षरोनो एक एवा चार चरणना महाकाय छन्द 'दण्डक'मां आनी रचना थई छे. आमां समायेली ऐतिहासिक-सामाजिक विगतोनी चर्चा संपादके विस्तारथी करी छे. मूल पाठमां क्यांक छन्दोभंग थतो जणाय छे. पृष्ठ १० 'नित्यमखण्डेन' छे त्यां रगण सचवातो नथी. पृ० ११ 'सद्यश: पुरपूरा' मां पण गरबड छे. त्रीजा चरणमां पृ० १३ 'प्रलब्धालक्षा:' अने 'प्रयोगेणाङ्गे' मां पण आवी ज स्थिति छे. संभवतः आमां लेखन दोष के वाचनदोष काम करी गयो हशे, दण्डक छन्द वेगवान छे, वर्णन बळवान छे, कविनी गुरुभक्ति उत्कृष्ट छे, भाषा प्रकृष्ट छे. आ अंकनुं नजराणुं कही शकाय एवी रचना छे- लाभानन्द ( आनन्दघन ) जी कृत बार भावना. सम्पादकजी ठीक ज कहे छे के कृतिमां कर्तानुं नाम न होवा छतां कृति आनन्दघननी ज छे ते निश्चित करी शकाय म छे. प्रतना अन्ते लाभानन्दजीनो उल्लेख छे ज. विषयनी रजूआत आनन्दघननी याद देवडावे ज छे. भाषाकीय दृष्टिए पाठ वधु शुद्ध थवो जरूरी छे- एम Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 सम्पादके नोंध्युं छे ते पण अगत्यनुं छे. अन्यथा अर्थघटनमां भ्रान्ति थई शके. छपायेल पाठमां भ्रमपूर्ण वाचनना कारणे अशुद्ध पाठो ठीक ठीक छे : अशुद्ध चरितहें कडी २ : ३ : ४ : ८ : ९ : ९ : ९ : १३ : १६ : १६ : १८ : १८ : २८ : ३२ : ३७ : अयाण ३८ : साखीभूत ३१मी कडी दोहो नथी, सोरठो छे. रचनामां छन्द तरीके जेनो उल्लेख थयो छे ते छन्द चालती अने त्रूटक प्रकारनो छन्द छे. ३१मी कडी पछी छन्द शीर्षक आपवानुं रही गयुं छे. वस्तु ज आयुहें नभंत सहजनंद जम्म ण सुजाव मल मूलधारी सहि जहि रतना जोंणि परिनाय जाण न पंथसु ससय शुद्ध चरित्त हें अपाण माखी भूत वस्तुज आयु हैं (हो) न भंत सहजानंद जम्मण सुभाव मलमूत्रधारी सहिज हि रचना जाणि परिना (आ) य 67 जाणन पंथ सुसमय शब्दकोशमां :- 'सयानडां' जेवो ज 'पयानडा' शब्द वपरायो छे, ते 'प्राज्ञ' के 'प्रज्ञान 'मांथी निष्पन्न थयो होय एवी सम्भावना गणाय. 'आनन' (क. ३५) नो अर्थ 'अन्य' संभवे. क. ९मां 'धांन' छे तेनो अर्थ 'ध्यान' बेसे छे. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 अनुसन्धान ३६ मुनीचन्द्रनाथनी वधु रचनाओ आ अंकमां प्रगट थई छे. ते काळना प्रबळ प्रवाहोनी असर केवी होय छे ते जाणवा - समजवा आवी रचनाओं दस्तावेजी साधननुं स्थान थई शके. जैन निश्चय नयनो सिद्धान्त, नाथ सम्प्रदाय, वैष्णव भक्ति, जैन क्रियामार्ग आ बधांनुं संमिश्रण कर्ताना जीवनमां थयुं छे अने ते आ रचनाओंमां ऊतरी आव्युं छे. कविनी आध्यात्मिक दृष्टि-रुचिने आसपासथी जे मळ्युं तेनी मर्यादा नडी छे. आ रचनाओनी भाषा काळनी दृष्टिए १८-१९मी सदीनी अने स्थळनी दृष्टिए अमदावाद - खंभात विस्तारनी जणाय छे. - 'चतुर्दश पूर्व पूजा' मां चौद पूर्वगत विषयवस्तुनुं निरूपण सुन्दर रीते थयुं छे. 'चोत्रीस अतिशय स्तवन' मां तीर्थंकरना चोत्रीस अतिशयोनुं वर्णन छे. बने कृतिओनो पाठ शुद्ध छपायो छे. 'दोधक बावनी' चिन्तन-मनननी रचना छे. दो. ३७मां 'निषर'ने स्थाने 'निपट' कल्पवानी जरूर नथी. 'सखर' ( सारो) नो विरुद्धार्थी 'निखर' शब्द मारवाडीमां छे. दो. ४३- 'पाख रतीनुं पान' छे त्यां 'पाखर तीनुं पान' वांचवानुं छे. भाग्यना दृष्टान्त रूपे आमां कह्युं के पुष्कल वृष्टि थवा छतां 'पाखर'ने त्रण ज पांदडा होय छे. दो. ४८ मां 'पवहे'नी जग्याए 'पर्व हे' जोइए । मानदत्त अने मेघा कृत स्तवन- सज्झायो प्राय: शुद्ध छपाई छे. थोडी वाचनभूलो जो के देखाय छे. पृ० ६२ 'आरती' मां 'नह चै' छे त्यां 'नहचै' वांचवं जोइतुं हतुं. नहचै - निहचै एटले निश्चे- निश्चयथी. पृ० ६२ - सुमतिनाथ गीतमां 'रास लेवें' छे, परंतु 'ख' ने बदले 'स' वंचायो छे. 'राख लेवें' अर्थात् बचावी ले. तुरीयां = घोडा. 'हसती हीं दरे' मां हसती = हाथी; 'हीं दरे' ने स्थाने 'हींडे रे' होवानो संभव छे. आ अंकना सम्पादकीय निवेदनमां तथा ट्रंक नोंधमां NMM अर्थात् नेशनल मिशन फोर मेन्युस्क्रिप्ट्स विषे वेधक अवलोकनो छे. हस्तप्रतोनी नोंधणी करावी देवा मात्रथी तेनी सुरक्षानी खातरी मळी जती नथी. अवैध वेचाण-निर्यात अटके तेवी सचोट नियंत्रणा सरकार कदी करी शकवानी नथी. हस्तप्रतो जेमना माटे पूजनीय धार्मिक वारसो छे तेओ ज तेमनुं संरक्षण करी शके - चिन्ता सेवी शके. जैन भण्डारो मोटा भागे सुव्यवस्थित ज होय Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ September-2006 छे. अन्य परम्पराओमां मठ-मन्दिरना महंत के पूजारीओ हस्तक आवी सामग्री पडी होय छे तेनी व्यवस्था पण ते ते संप्रदायना शिक्षित लोकोने सोंपाय तो ज बचे. जैनोमां पण केटलीक जग्याए हस्तलिखित साहित्य उपाश्रयो-ज्ञानमन्दिरोमां कबाटोमां एम ने एम पड्युं होय छे. ए सामग्री योग्य संस्था के संघने सोंपी देवानी चीवट त्यांना वहीवटदारोए राखवी जरूरी छे. ___ अनु० ३६नी सामग्री प्रशिष्ट - विशिष्ट छे. 'तीर्थमाला स्तव' जेवी कृति ऐतिहासिक मूल्य धरावे छे. आवी कृति अद्यापि अप्रगट रही ए आश्चर्य उपजावे एवी वात छे. अनुसन्धान जेवा पत्रमां आ प्रकारनी रचनाओ प्रकाशित थती रहे तो अभ्यासीओ-संशोधको तेनो लाभ ऊठावी शके. आ स्तवमां तीर्थो-नगरो-ग्राम-मन्दिरो सम्बन्धी तथा इतर नानी मोटी विगतो-तथ्योनो राशि भरेलो छे. सम्पादकश्रीए कृतिनो सारांश अने जरूरी टिप्पणो आप्यां छे. पाठ प्रायः शुद्ध छे, केटलेक स्थळे खण्डित छे. गा. ९०मां 'समसेसे' शब्द देश्य 'समसीसी' (बराबरी, स्पर्धा)- स्मरण करावे छे. 'नन्दि'नी बराबरी करनार' एवो अर्थ करीए तो 'नन्दि' एटले शुं ? ए प्रश्न खडो थाय. गा. १०३मां 'कच्छ' नो उल्लेख छे ते वर्तमान कच्छनो ज छे- ए सौराष्ट्र-कच्छ-पंचाल एवा सामीप्यथी निश्चित थाय छे. ८५मी गाथामां 'पनरस छे. आमां पाठदोष जणातो नथी. अन्य गाथाओमां आ ज पद्धतिए वर्षनिर्देश थयो छे :- ‘पनरसवास सया' (९१), 'सतरसंवच्छरसया' (१०१). बे श्राविकाओना व्रतग्रहणनी सुन्दर प्राकृतभाषा बद्ध टीप आ अंकमां छे. श्राविकाओनी धार्मिकता उपरांत तेमनी शैक्षणिक योग्यता पण आमां प्रतिबिंबित थाय छे. गा. १९मां ‘णाहथवणीए' छे त्यां 'णास' होवानी सम्भावना गणाय. _ 'श्रीसिद्धचक्र यन्त्रोद्धार'ना कर्ता चन्द्रकीर्तिसूरिने रत्नशेखरसूरिना शिष्य जणाव्या छे परन्तु प्रशस्तिमां रत्नशेखरसूरि माटे 'सुविहितशिरःशेखर' एवो आदरसूचक उल्लेख थयो छे, जो गुरु होय तो तेवो उल्लेख सहजपणे कर्यो होत. महो० विनयसागरजीए श्रीआनन्दघनविषयक विशिष्ट उल्लेख धरावती Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ३६ एक रचना आ अंकमां रजू करी छे. एकांत आत्मसाधक, सम्प्रदायातीत आनन्दघनजी सर्व पक्षोना आदरणीय हता अने छे. तेमणे विविध शास्त्रोनुं अध्ययन विशद रीते कर्यु हतुं, एटलुं ज नहि, अष्टसहस्री जेवा ग्रन्थy अध्यापन करावी शके एवी क्षमता धरावता हता ए तथ्य आ ऐतिहासिक पत्रमाथी सर्वप्रथम जाणवा मळे छे. 'सब जन सबदें साधे' एम कहीने शब्द अर्थात् पांडित्यने बाधक कहेनार आनन्दघनजी स्वयं शब्दनी दुनियामांथी पसार थया हता अने तेथी ज शब्दनी मर्यादा जाणी चूक्या हता, तेथी ज अशब्द तरफ वळवानो तेमनो अनुरोध वजनदार ठरे छे. ____ अष्टसहस्री भणावे छे, अर्धरात्रिनी वेळाए भणावे छे, घणी खुशीथी भणावे छे - आवी विगतो तेमना व्यक्तित्वनी नवी रेखाओ अनावृत करे छे. तेओ खरतरगच्छना हता एवी अनुश्रुति बहु जूनी छे, हवे तेमां आ उल्लेख उमेराय छे. शीलचन्द्रसरिजीए श्रीधर्मसागरोपाध्याय साथेनी घटनानो उल्लेख नोंध्यो छे ते पण सानन्द आश्चर्यकारक छे. 'अष्टलक्षी' ग्रन्थनी खूबीओ समजावतो श्रीविनयसागरजीनो लेख संस्कृतना अभ्यासीओ माटे रसप्रद बनशे. एक चरणना आठ लाख अर्थ केवी रीते थाय छे ते आ लेख वांचवाथी समजाई जाय छे. तुलनात्मक संशोधन कार्य (Comparative study) नुं महत्त्व अथवा उपयोगिताथी आपणो श्रेष्ठिवर्ग अने अग्रणी मुनिवर्ग सुद्धां एटलो अपरिचित के पूर्वग्रहित छे के संशोधक विद्वानो द्वारा प्रस्तुत थता विचारो के तारणो परम्परागत मान्यताथी जूदा पडता जणाय तो ते वर्ग अस्वस्थ थई ऊठे छे. सद्भाग्ये मुनिवर्गमां पण हवे तुलनात्मक-समीक्षात्मक अभ्यासनां पगरण थयां छे. 'अनुसन्धान' जेवू संशोधन सामयिक एक आचार्य द्वारा सम्पादित थाय छे. पक्षीय दृष्टिथी नहि पण शुद्ध संशोधक-बुद्धिथी आवां पत्रोमां प्रगट थता लेखो के एवां पुस्तकोनी निःसंकोच समीक्षा थाय छे. आ बधुं आजना समय- ऊजळु पासुं छे. क्रमशः आ पद्धतिथी श्रमणवर्ग सुपरिचित थई जशे त्यारे घणी बधी वस्तुओ-वातोना ऊकेल आ दृष्टि संपडावी आपशे. जैन देरासर नानी खाखर-३७०४३५ जि. कच्छ, गुजरात Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहिती : एक स्पष्टता विशेषावश्यक भाष्य, शुद्धिपत्र 'अनुसन्धान'मां चारेक हप्ते आपेल छे. ते मुद्रित २ प्रतोना आधारे चालता स्वाध्याय दरम्यान जे शुद्धिओ सूझी, भूलो सुधारवा जेवी लागी, ते यथामति सुधारता जईए छीए, ते छे. आमां कोई हस्तप्रतोनी मदद लीधी नथी. एटले संभव छे के अमारा शुद्धिपत्रमा कोई क्षति रही होय पण खरी. कोईना ध्यान पर तेवी क्षति आवे अने जणावे तो राजी थईशुं, अने सुधारीशुं. (२) गत (३६मा) अंकमां डॉ. ढांकी अने तेमना संशोधनग्रन्थोने केन्द्रमां राखीने लखायेल लेखना प्रतिघोषमां श्री लाभशंकर पुरोहित, मनोज रावल, निरंजन राज्यगुरु, नाथालाल गोहिल, कान्तिभाई बी. शाह, नीतीन देसाई, वी.एम.कुलकर्णी वगेरे विद्वज्जनोना सरस अने चिन्ता व्यक्त करता पत्रो मळ्या छे. तो डॉ. बंसीधर भट्ट, चन्द्रकान्त कडिया जेवा विद्वज्जनोए रुब-रु पण प्रतिभाव आपवा साथे चिन्ता व्यक्त करी छे. ए पत्रो तथा विगतो प्रकाशित करवानुं हालना तबक्के जरूरी नथी लागतुं. केम के ए बाबते कोई वचलो रस्तो शोधवाना योग्य प्रयत्नो रह्या होवाना संकेतो प्राप्त थई रह्या छे. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वतीनी विलक्षण धातुप्रतिमा-अमदावाद (सं. 1790)