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निवेदन संशोधननो सम्बन्ध प्रबुद्धता साथे छे. प्रबुद्धता जेम जेम विकसती जाय तेम तेम स्वीकृत तथा परम्पराप्राप्त वातोना रहस्यार्थो स्फुट थई उघडतां आवे, जेने लीधे परिमार्जन, स्पष्टीकरण, संवर्धन अने आवश्यक परिवर्तन थतां रहे छे. आमां कदीक अशुद्धिनिवारण थाय, तो क्वचित् भ्रान्तिनुं निरसन पण थई शके. अने आना अढळक दाखलाओ थोडा दशकाओमां थयेल संशोधनोमां जडी आवे.
अलबत्त, बधां संशोधनो, आकुंज परिणाम आवे एवं एकान्ते मानी लेवानुं नथी. घणीवार, संशोधनने परिणामे भ्रम दूर थवाने बदले भ्रम वधतो पण जाय छे, अने नवा नवा दोषो के अशुद्धिओ सर्जाई-प्रवेशी शके छे.
आ बधानो विवेक अने निर्णय करतां आवडे तेनुं नाम प्रबुद्ध शोधक.
बीजी वातः शोधक प्रबुद्ध होय तो पण तेनी बधी वातो मानी ज लेवानी एवं नथी होतुं. शोधकनी प्रमाणो तथा आधारोने मूलववानी दृष्टि होय ते करतां अन्यनी/आपणी दृष्टि अथवा आपणुं मूल्यांकन अथवा आपणां प्रमाणो जुदां होई शके. क्वचित् एवं पण बने के शोधक शुद्ध बुद्धिप्रामाण्यवादी होय अने अन्यो पासे होय तेवी श्रद्धा तथा पारम्परिक वलणोनी समजण तेनी पासे न पण होय. शुद्ध बुद्धिवाद के निरपेक्ष श्रद्धावाद-बन्ने पक्षोमां सन्तुलन तथा विवेकभान जाळववानुं क्यारेक मुश्केल बनतुं होय छे, ए मुद्दो पण, अहीं ज पाको करी लेवो घटे. सार ए के सन्तुलन जाळवतां आवडे तो संशोधननो मार्ग खोटो जराय नहि, बल्के उपकारक ज.
- शी.
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