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माघ, वीर नि० सं०२४६६
वर्ष ३, किरण
अनेकान्त
फरवरी १९४०
वार्षिक मूल्य ३)
श्य
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OPIONIORINTINOORIGITOREHOOKLOLOROPHIOTROOTONNOIRGONIFOTOFOOTONIOPIOINONDORIT सम्पादक
संचालकजुगलकिशोर मुख्तार
तनसुखराय जैन अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर) F कनॉट सर्कस पो० बो० नं०४८ न्यू देहली। GRIORISHIORIORIGIONORIORONIROFOOPINCONTRONORNOHIRORSCORTIOGGIORONICODAISE
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* विषय-सूची
१. विद्यानन्द - स्मरण
२. श्री. शुभचन्द्राचार्यका समय और ज्ञानार्णवकी एक प्राचीन प्रति
[ श्री० पं० नाथूराम
प्रेमी
३. शिकारी ( कहानी ) – [ श्री० भगवत् जैन
४. अनुरोध ( कविता ) - [ श्री० भगवत् जैन
५. श्रात्मिक क्रान्ति - [ श्री० बा० ज्योतिप्रसाद विशारद
६. सम्बोधन ( कविता ) - [ श्री० ० प्रेमचन्द
७. हिन्दी साहित्य सम्मेलन और जैन दर्शन - [ श्री० पं० सुमेरचन्दजी
८. जीवन-साध ( कविता ) - [पं० भवानीदत्त शर्मा 'प्रशान्त'
६. हरिभद्रसूरि - [ श्री० पं० रतनलाल संघवी
१० वीर शासनांक पर सम्मतियाँ
११ जैनसमाज के लिये अनुकरणीय आदर्श - [ श्री० श्रगरचन्द नाहटा १२ गोम्मटसार एक संग्रह ग्रन्थ है - [पं० परमानन्द जैन शास्त्री
श्री० 'युगवीर'
१३ मानवधर्म ( कविता ) - [ १४ तत्वार्थाधिगम भाष्य श्रौर १५ तत्वार्थाधिगमभाष्य और १६ साहित्य परिचय और समालोचन - [ सम्पादकीय
कलंक - [ प्रो० जगदीशचन्द एम. ए. कलंक पर सम्पादकीय विचारणा
१७ सामायिक विचार-- [ श्रीमद्राजचन्द्र
१८ सुभाषित - [ कविवर बनारसीदासजी
पृष्ठ
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२८०
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२६२-२६६
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३०४
३०७
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टाइटल
अनेकान्तकी फाइल
अनेकान्त द्वितीय वर्ष की किरणोंकी कुछ फाइलोंकी साधारण जिल्द बंधवाली गई हैं । १२वीं किरण कम हो जानेके कारण फाइलें थोड़ी ही बन्ध सकी हैं। अतः जो बन्धु पुस्तकालय या मन्दिरों में भेंट करना चाहें या अपने पास रखना चाहें वे २||) रु० मनीश्रार्डर से भिजवा देंगे तो उन्हें सजिल्द अनेकान्तकी फाइल भिजवाई जा सकेगी ।
जो सज्जन श्रनेकान्तके ग्राहक हैं और कोई किरण गुम हो जाने के कारण जिल्द बन्धवाने में असमर्थ है उन्हें १२वीं किरण छोड़कर प्रत्येक किरणके लिये चार श्राना और विशेषांकके लिये आठ थाना भिजवाना चाहिए तभी श्रादेशका पालन हो सकेगा ।
— व्यवस्थापक
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AMANASMINATIrail नीति-विरोध-ध्वंसी लोक व्यवहार-वर्तकः सम्यक् ।
परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ सम्पादन-स्थान–वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० बो० नं० ४८, न्यू देहली
किरण ४ ___माघ-पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं०१६६६ । ।
विद्यानन्द-स्मरणा अलंचकार यस्सार्वमाप्तमीमांसितं मतम् । स्वामिविद्यादिनन्दाय नमस्तस्मै महात्मने ॥ यः प्रमाणाप्तपत्राणां परीक्षाः कृतवान्नमः ।, विद्यानन्दमिनं तं च विद्यानन्दमहोदयम ॥ वद्या नन्दस्वामी विरचितवान् श्लोकवार्तिकालंकारम् ।
जातिकालंकारस।
. जयति कवि-विबुध-तार्किकचूडामणिरमलगुणनिलयः ।।-शिमोगा-नगरतालुकशिलालेख नं०४६
जिन्होंने सर्वहितकारी प्राप्तमीमांसित-मतको अलंकृत किया है-स्वामी समन्तभद्रके परमकल्याणरूप श्राप्तमीमांसा ग्रन्थको अपनी अष्टसहस्री टीका के द्वारा सुशोभित किया है-उन महान् आत्मा स्वामी विद्यानन्दको नमस्कार है।
जो प्रमाणों, प्राप्तों तथा पत्रोंकी परीक्षाएँ करनेवाले हुए हैं जिन्होंने प्रमाणपरीक्षा, प्राप्तपरीक्षा और पत्रपरीक्षा जैसे महत्वके ग्रन्थ लिखे हैं-उन विद्या तथा अानन्दके महान् उदयको लिये हुए अथवा (प्रकारान्तरसे) 'विद्यानन्द महोदय' ग्रंथके रचयिता स्वामी विद्यानन्दकी हम स्तुति करते हैं--उनकी विद्याका यशोगान करते हैं।
___जिन्होंने 'श्लोकवार्तिकालंकार' नामका ग्रंथ रचा है वे कवियोंके चूडामणि, विबुधजनोंके मुकुटमणि और तार्किकोंमें प्रधान तथा निर्मल गुणोंके श्राश्रयस्थान श्रीविद्यानन्दस्वामी जयवन्त हैं-सदा ही अपने पाठकों. वद्वज्जनोंके हृदयमें अपने अगाध पाण्डित्यका सिक्का जमानेवाले हैं।
ऋजुसूत्रं स्फरद्रलं विद्यानन्दस्य विस्मयः ।
शवतामप्यलंकारं दीप्तिरंगेषु रंगति ॥ -पार्श्वनाथचरिते. वादिराजसरिः श्रीविद्यानन्दाचार्य के जुसूत्ररूप तथा देदीप्यमानरत्नरूप अलंकारको जो सुनते भी हैं उनके भी अंगोंमें दीप्ति दौड़ जाती है, यह आश्चर्यकी बात है ! अर्थात् अलंकारों-श्राभूषणोंको जो मनुष्य धारण करता है उसीके अंगोंमें दीप्ति दौड़ा करती है--सुननेवालोंके अंगोंमें नहीं, परन्तु श्रीविद्यानन्दस्वामीके सत्यसूत्रमय और स्फरद्रत्नरूप प्राप्तमीमांसाऽलंकार (अष्टसहस्री) और श्लोकवार्तिकालंकार (तत्त्वार्थटीका) ऐसे अद्भुत अलंकार हैं कि उनके सुननेसे भी अंगोंमें दीप्ति दौड़ जाती है-सुननेवालोंके अंगोंमें विद्युत्तेजका-सा कुछ ऐसा संचार होने लगता है कि एकदम प्रसन्नता जाग उठती है।
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श्रीमदन्द्राचार्यका समय
और
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[ लै० – पं० श्रीनाथूरामजी प्रेमी, बम्बई]
पाटण (गुजरात) के खैतरवसी नामक श्वेताम्बर
जैन भंडार में ( नं० १३ ) श्रीशुभचन्द्राचार्यकृत ज्ञानार्णवकी वैशाख सुदी १० शुक्रवार संवत् १२८४ की लिखी हुई एक प्राचीन प्रति है, जिसमें १५४.२ साइज के २०७ पत्र हैं। उसके अन्त में जो लेखकों की प्रशस्तियाँ हैं वे अनेक दृष्टियोंसे बड़े महत्वकी हैं, इस लिए उन्हें यहाँ प्रकाशित किया जाता है
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प्राचीन प्रति
" इति ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे पंडिताचार्य
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श्रीशुभचन्द्रविरचिते मोक्षप्रकरणम् ।
अस्य श्रीमन्नृपुर्या श्रीमद देवचरणकमलचंचरीकः सुजनजनहृदय परमानन्दकन्दलीकन्दः श्रीमाथुरान्वयसमुद्रचन्द्रायमानो भव्यात्मा परमआवक: श्रीनेमिचन्द्रो नामाभूत् । तस्याखिल-विज्ञानकलाकौशल -शालिनी सती पतिव्रतादिगुणगुणाअंकार भूषित शरीरा निजमनोवृत्तिरिवाव्यभिचारिणी स्वर्णानाम धर्मपत्नी संजाता । अथ तयोः समासादितधर्मार्थकामफलयोः स्वकुलकुमुदवनचन्द्रलेखा निजवंश - वैजयन्ती सर्वलक्षणालंकृतशरीरा जाहिणि-नाम-पुत्रिका समुत्पन्ना छ ।
ततो गोकर्ण - श्रीचंद्रौ सुतौ जातौ मनोरमौ । गुणरत्नाकरौ भव्यौ रामलक्ष्मणसन्निभौ ॥ सा पुत्री नेमिचन्द्रस्य जिनशासनवत्सला । विवेकविनयोपेता सम्यग्दर्शनलांछिता ॥
'ज्ञात्वा संसारवैचित्र्यं फल्गुतां च नृजन्मनः तपसे निरगाद्गेहात् शान्तचित्ता सुसंयता ॥ बान्धवैवर्यमाणापि प्ररण(य) तैः शास्त्रलोचनैः । मनागपि मनो यस्या न प्रेम्णा कश्मलीकृतं । गृहीतं मुनिपादांते तया संयतिकासं । स्वीकृतं च मनः शुद्ध या रत्नत्रयमखंडितं ॥ तया विरक्तयात्यंतं नवे वयसि यौवने । आरब्धं तत्तपः कत्तु यत्सतां साध्विति स्तुतं । यमव्रततपोद्योगैः, स्वाध्यायध्यान संयमैः 1 कायक्लेशाद्यनुष्ठानैगृहीतं जन्मनः फलम् ॥ तपोभिर्दुष्करैर्नित्यं बाह्यन्तिर्भेदलक्षणैः । कषायरिपुभिः सार्धं निःशेषं शोषितं वपुः ॥ विनयाचार सम्पच्या संघः सर्वोप्युपासितः । वैयावृत्योद्यमात्शश्वत्कीर्तिर्नीता दिगंतरे ॥ किमियं भारती देवी किमियं शासनदेवता । दृष्टपूर्वैरपि प्राय: पौरैरिति वितते ॥ तया कर्मक्षयस्यार्थं ध्यानाध्ययनशालिने । तपः श्रुतनिधानाय तत्वज्ञाय महात्मने ॥ रागादिरिपुमल्लाय शुभचन्द्राय योगिने । लिखाप्य पुस्तकं दत्तमिदं ज्ञानार्णवाभिधम् ॥ संवत् १२८४ वर्षे वैशाष सुदि १० शुक्र गोमंड दिगम्बर राजकुल सहस्रकीर्ति पं० केशरिसुतवसलेन लिखितमिति । "
(त) स्यार्थे
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वर्ष ३, किरण ४]
भावार्थ - इस नृपुरी में अरहंत भगवान्कै चरणाकमलका भ्रमर, सज्जनोंके हृदयको परमानन्द देनेवाला माथुर संघरूप समुद्रको उल्लसित करनेवाला भव्यात्मा श्रीनेमिचन्द्र नामका परम श्रावक हुआ, जिसकी धर्मपत्नीका नाम स्वर्णा (सोना) था जो कि श्रखिल विज्ञानकलाओं में कुशल, सती, पातित्रत्यादि-गुणोंसे भूषित और अपनी मनोवृत्ति के ही समान श्रव्यभिचारिणी थी । धर्म र्थ श्रौर कामको सेवन करनेवाले इन दोनों जाहिणी नामकी पुत्री हुई, जो अपने कुलरूप कुमुदवनकी चन्द्रलेखा, निजवंशकी वैजयन्ती ( ध्वजा ) और सर्व लक्षणों से शोभित थी ।
इसके बाद उनके राम और लक्ष्मणके समान गोकर्ण और श्रीचन्द्र मामके दो सुन्दर, गुणी और भव्य पुत्र उत्पन्न हुए ।
और फिर नेमिचन्द्रकी वह जिनशासन वत्सला, विवेक - विनयशीला और सम्यग्दर्शनवसी पुत्री ( जाहिंणी ') संसारकी विचित्रता तथा नरजन्मकी निष्फलता को जानकर तपके लिए घरसे चल दी। वह शान्तचित्त
ज्ञानविकी एक प्राचीन प्रति
अतिशय संयत थी। शास्त्रज्ञ बन्धुजनोंके प्रयत्न पूर्वक रोकने पर भी उसके मनको प्रेम या मोहमे ज़रा मी मैला न होने दिया ।
आखिर उसने मुनियोंके चरणोंके निकट श्रार्यि ara त ले लिये और मनकी शुद्धिसे अखंडित रत्न'त्रयको स्वीकार किया' ।
"उस विरक्ताने नवयौवनकी उम्र में ऐसा कठिन तप करना आरम्भ किया कि सज्जनोंने उसकी 'साधु साधु' कहकर स्तुति की।
उसने यम, व्रत और तपके उद्योग से, स्वाध्याय ध्यान और संयम से तथा कायक्लेशादि अनुष्ठानोंसे अपने जन्मको सफल किया ।
२०१
उसने निरन्तर बाह्य और अन्तरंग दुष्कर तप तपकर कषायरिपुत्रोंके साथ साथ अपने सारे शरीरको भी सुखा डाला ।
उसने विनयाचार - सम्पत्तिसे सारे संघकी उपासना की और वैयावृत्ति करके अपनी कीर्तिको दिगन्तरोतक पहुँचा दिया ।
जिन पौरजनोंने उसे पहले देखा था वे भी इस तरहका वितर्क करने लगे कि न जाने यह साक्षात् भारती ( सरस्वती ) देवी है या शासनदेवता है ।
उस जाहिणी श्रार्यिकाने कर्मोंके जयके लिए यह ज्ञानार्णव नामकी पुस्तक ध्यान और अध्ययनशाली, तप और शास्त्र निधान, तत्वोंके ज्ञाता और रागादिरिपुत्रोंको पराजित करनेवाले मल्ल जैसे शुभचन्द्र योगीको लिखाकर दी ।
वैशाख सुदी १० शुक्रवार वि० सं० १२८४ को गोमंडल (गोंडल - काठियावाड़) में दिगम्बर राजकुल ( भट्टारक ? ) सहस्रकीर्ति के लिए पं० केशरीके पुत्र वीसलने लिखी ।
विवेचन - ऐसा मालूम होता है कि इस पुस्तकमें लिपि-कर्त्ताओं की दो प्रशस्तियाँ हैं । पहली प्रशस्ति में तो लिपिकर्त्ता का नाम और लिपि करनेका समय नहीं दिया है, सिर्फ लिपि करानेवाली जाहिणीका परिचय दिया है ।
• हमारी समझमें श्रार्थिका जाहिणीने जिस लेखकसे उक्त प्रति लिखाई होगी, उसका नाम और समय भी अन्त में अवश्य दिया होगा; परन्तु दूसरे लेखकने उक्त पहली प्रतिका वह अंश अनावश्यक समझकर छोड़ दिया होगा और अपना नाम और समय अन्तमें लिख दिया होगा । इस दूसरी प्रतिके लेखक पं० केशरीके पुत्र वीसल हैं और उन्होंने गोंडल में श्रीसहस्रकीर्ति के लिए
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...अनेकान्त
[माघ, वीर निर्वाण सं० २०६५
इसे लिखा था जब कि पहली प्रति न पुरीमें श्रीशुभचन्द्र बहुत प्राचीन कालकी हों; परन्तु यह नहीं कहा जायोगीके लिए लिखाकर दी गई थी।
___ सकता कि इस समय गोंडलराज्यमें दिगम्बर-सम्प्रदायके दूसरी प्रति वि० सं० १२८४ की लिखी हुई है, तब अनुयायी नहीं हैं, इसलिए पहले भी न रहे होंगे। पहली प्रति अवश्य ही उससे पचीस-तीस वर्ष पहले ज्ञानार्णवकी वीसलकी लिखी हुई उक्त प्रतिसे मालूम लिखी गई होगी । नुपुरी स्थान कहाँ है, ठीक ठीक नहीं होता है कि विक्कमकी तेरहवीं शताब्दिमें गोंडल में दिकहा जा सकता। संभव है यह ग्वालियर राज्यका गम्बर-सम्प्रदाय था और उसके 'सहस्रकीर्ति नामक नरवर हो । नरपुर और नृपुर (स्त्रीलिंग नृपुरी) एक साधुके लिए वह लिखी गई थी। सहस्रकीर्ति दिगम्बर हो सकते हैं। नरपुरसे नरउर और फिर नरवर रूप सम्प्रदायके भट्टारक जान पड़ते हैं, और इसलिए वहाँ सहज ही बन जाते हैं।
. उनके अनुयायी भी काफी रहे होंगे। गोमंडल और गोंडल एक ही हैं। गोमंडलका ही उनका दिगम्बर राजकुल विशेषण कुछ अद्भुत अपभ्रंशरूप गोंडल है । अभी कुछ समय पहले डा० सा है । हमारी समझमें राजकुल राउल' का संस्कृत हँसमुखलाल साँकलियाने गोंडल राज्यके ढांक नामक रूप है । राजकुलके गृहस्थों और पदवीधारियों के स्थानकी प्राचीन जैन गुफाओंके विषयमें एक लेख समान यह विशेषण उस समय वहाँपर भट्टारकोंके लिए प्रकाशित किया था, जहाँसे कि बहुतसी दिगम्बर भी रूढ होगया होगा, ऐसा जान पड़ता है। प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं । यह स्थान जूनागढ़से ३० मील पहली प्रशस्तिमें एक विलक्षण बात यह है कि उत्तर-पश्चिमकी तरफ गोंडल राज्यके अन्तर्गत है । आर्यिका जाहिणीने वह प्रति ध्यानाध्ययनशाली, तपःच कि इस समय गोंडल और उसके आसपास दिगम्बर- श्रुतनिधान, तत्त्वज्ञ, रागादिरिपुमल्ल और योगी शुभ.. सम्प्रदायके अनुयायियोंका प्रायः अभाव है, इसलिए चन्द्रको भेंट की है और ज्ञानार्णव या योगप्रदीपके कर्ता डा० साहबने अनुमान किया था कि उक्त प्रतिमायें शुभचन्द्राचार्य ही माने जाते हैं । उक्त विशेषण भी उस समयकी होंगी जब दिगम्बर-श्वेताम्बर भेद हुए उनके लिए सर्वथा उपयुक्त मालूम होते हैं। ऐसी अधिक समय न बीता था और दोनों में आज-कलके हालतमें प्रश्न होता है कि क्या स्वयं ग्रन्थकर्ताको ही समान वैमनस्य न था । उक्त लेख जैनप्रकाश (भाग ४ उनका ग्रंथ लिखकर भेंट किया गया है ? असंभव न
क १-२) में प्रकाशित हुअा था और उसपर सम्पादक होनेपर भी यह बात कुछ विचित्रसी मालूम होती है । महाशयने अपना यह नोट दिया था कि पहले श्वेताम्बर यदि ऐसा होता तो प्रशस्तिमें आर्यिकाकी अोरसे इस भी निर्वस्त्र या दिगम्बर मूर्तियोंकी पूजा करते थे। बातका भी संकेत किया जा सकता था कि शुभचन्द्र
यह बात सही है कि पहले श्वेताम्बर भाई भी योगीको उन्हींकी रचना लिखकर भेंट की जाती है । निर्वस्त्र मूर्तियोंकी पूजा करते थे, लंगोट आदि चिह्नों- इसलिए यही अनुमान करना पड़ता है कि ग्रन्थकर्ताके वाली प्रतिमायें प्रतिष्ठित करनेकी पद्धति बहुत पीछे अतिरिक्त उन्हींके नामके कोई दूसरे शुभचन्द्र योगी थे शुरू हुई है और यह भी संभव है कि ढांककी गुफाओं जिन्हें इस प्रतिका दान किया गया है। और अक्सर की मूर्तियाँ मथुराके कंकाली टोलेकी मूर्तियोंके समान प्राचार्य-परम्परामें देखा गया है कि जो नाम एक श्रा
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वर्ष ३, किरण ४]
ज्ञानार्णवकी एक प्राचीन प्रति
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चार्यका होता था वही उसके प्रशिष्यकाभी रख दिया इससे यह श्लोक किसी प्राचीन ग्रन्थका जान पड़ता है। जाता था, जिस तरह धर्मपरीक्षाके कर्ता अमितगतिके ज्ञानार्णवके कर्त्ताके लिए ये तीनों ही अन्यकृत. थे. परदादा गुरुका भी नाम अमितगति था । बहुत संभव . इसलिए उन्होंने तीनोंको 'उक्तंच ग्रन्थान्तरे' कह कर है कि जिन शुभचन्द्र योगीको उक्त प्रति दान की गई उद्धृत कर दिया । यशस्तिलककी रचना विक्रम संवत् है, ग्रन्थकर्ता उनके ही प्रगुरु (दादा गुरु ) या प्रगुरुके १०१६ में हुई है, इसलिये ज्ञानार्णवका समय इसके भी गुरु हों। ...
बादका मानना चाहिए। अभी तक ज्ञानार्णवका रचनाकालः निर्णीत नहीं जानार्णवके पृ० १७७ में एक श्लोक 'पुरुषार्थसिहुआ है । उसमें आचार्य जिनसेनका स्मरण किया द्धथु पायका भी ('मिथ्यात्ववेदरागा'आदि)उद्धृत किया गया है, और जिनसेनने जयधवलटीकाका शेष भाग गया है, परन्तु उसके कर्ता अमृतचन्द्राचार्यका समय शकसंवत् ७५६ (वि० सं० ८६४ ) में समाप्त किया निश्चित् न होने के कारण वह एक तरहसे निरुपयोगी है । था । इससे यह निश्चित होता है कि विक्रमकी नवीं पाटणकी उक्त प्रति वि० सं० १२८४ की लिखी शताब्दि के बाद किसी समय ज्ञानार्णवकी रचना हुई हुई है और आर्यिका जाहिणीवाली प्रति यदि उससे होगी । कितने बाद हुई होगी यह जानने के लिए हमने अधिक नहीं पचीस-तीस वर्ष पहलेकी भी समझ ली ज्ञानार्णव के उन श्लोकोंकी जाँच की,जिन्हें ग्रन्थाकर्त्ताने जाय और ग्रन्थ उस प्रतिसे केवल तीस चालीस वर्ष अन्य ग्रंथोंसे 'उक्त च ग्रंथान्तरे' कहकर उद्धृत किया पहले ही रचा गया हो, तो विक्रमकी बारहवीं शताब्दिके है। मुद्रित ज्ञानार्णवके पृष्ठ ७५ (गुणदोषविचार)में अन्तिमपाद तक ज्ञानार्णवकी रचनाका समय जा पहुँनीचे लिखे तीन श्लोक हैं-
चता है । यद्यपि हमारा खयाल है कि शुभचन्द्र इससे . ज्ञानहीने क्रिया पुसि परं नारभते फलम् । . भी पहले हुए होंगे। . तरोश्छायेव किं लभ्या फलश्रीनष्टदृष्टिभिः ॥१॥ आचार्य हेमचन्द्रके योगशास्त्र और ज्ञानार्णवमें ज्ञानं पङ्गो क्रिया चान्धे निःश्रद्ध नार्थकृव्यम् । बहुत अधिक समानता है ।योगशास्त्रके पांचवें प्रकाशसे ततो ज्ञानं क्रिया श्रद्धा त्रयं तत्पदकारणम् ॥२॥ लेकर ग्यारहवें प्रकाश तकका प्राणायाम और ध्यानहतं ज्ञानं क्रियाशून्यं हताचाज्ञानिन: क्रिया। वाला भाग ज्ञानार्णवके उन्तीसवेंसे लेकर ब्यालीसवें धावन्नप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पंगुकः ॥३॥ तक के स!की एक तरह नकल ही मालूम होती है।
यही तीनों श्लोक यशस्तिलकचम्पू के छठे अाश्वास छन्द-परिवर्तन के कारण जो थोड़े बहुत शब्द बदलने (पृ०२७१) में ज्योंके त्यों इसी क्रमसे दिये हुए हैं । इन- पड़े हैं उनके सिवाय सम्पूर्ण विषय दोनों ग्रंथों में एकमेंसे पहले दो तो स्वयं यशस्तिलककर्ता सोमदेवसूरिके सा है । इसी तरह चौथे प्रकाशमें कषायजयका उपाय है और तीसरा यशस्तिलकमें 'उक्तं च' कहकर किसी 'इन्द्रियजय', इन्द्रिजयका उपाय 'मनः शुद्धि', उसका अन्य ग्रंथसे उद्धत किया गया है। अकलंकदेवके राज- पहली प्रति नरवर (मालवा) में लिखी गई थी। वार्तिकमें भी यह श्लोक थोड़ेसे साधारण पाठभेदके और दूसरी गोंडल (काठियावाद) में मालवे से गोरख साथ 'उक्तं च' रूपसे उद्धृत ही पाया जाता है, और उस समयकी दृष्टिसे काफी दूर है।
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२७४
अनेकान्त
[माघ, वीर निर्वाण सं० २४६६
यह तो निश्चित है कि शुभचन्द्र और हेमचन्द्र दो में से किसी एक के सामने दूसरेका ग्रन्थ मौजूद था । परन्तु जबतक शुभचन्द्रका ठीक समय निश्चित् नहीं हो जाता, तब तक ज़ोर देकर यह नहीं कहा जा सकता कि किसने किसका अनुकरण और अनुवाद किया है ।
'उक्तं च ' श्लोकोंकी खोज करते हुए हमें मुद्रित ज्ञानार्णवके २८६ पृ० (सर्ग २६) में नीचे लिखे दो श्लोक इस प्रकार मिले—
उक्तं च श्लोकद्वयं
समाकृष्य यदा प्राणधारणं स तु पूरकः । नामध्ये स्थिरीकृत्य रोधनं स तु कुंभकः ॥ यत्कोष्ठादतियत्नेन नासा ब्रह्मपुरातनैः । बहिः प्रक्षेपणं वायोः स रेचक इति स्मृतः || और यही श्लोक हेमचन्द्रके योगशास्त्र के पांचवें प्रकाशमें नं० ६ और ७ पर मौजूद हैं। सिर्फ अन्तर है कि योगशास्त्र में 'नाभिमध्ये' की जगह 'नाभिपद्म' और 'पुरातनैः' की 'पुराननैः' पाठ है । .
इससे यह अनुमान होता है कि ज्ञानार्णव योगशास्त्र के बादकी रचना है और उसके कर्त्ता ने इन श्लोकोंको योगशास्त्र परसे ही उठाया है । परन्तु हमें इस पर सहसा विश्वास न हुआ और हमने ज्ञानार्णवकी हस्तलिखित प्रतियोंकी खोज की ।
बम्बई विकी एक
तेरहपन्थी जैन मन्दिरके भंडारमें ज्ञाना१७४७ साईजकी हस्तलिखित प्राचीन प्रति है, जिसके प्रारम्भके ३४ पत्र ( स्त्रीस्वरूपप्रतिपादक प्रकरणके ४६ वें पद्य तक ) तो संस्कृत टीकासहित हैं और श्रागे के पत्र बिना टीकाके हैं। परन्तु उनके नीचे टीकाके लिए जगह छोड़ी हुई है । टीकाकर्त्ता कौन हैं, सो मालूम नहीं होता । वे मंगलाचरण श्रादि कुछ न करके इस तरह टीका शुरु कर देते हैं-
उपाय रागद्वेषका जय, उसका उपाय समत्व और समत्व . की प्राप्ति ही ध्यानकी मुख्य योग्यता है, ऐसा जो कोटिक्रम दिया है वह भी ज्ञानार्णावके २१ से २७ तक के सर्गों में शब्दशः और अर्थशः एक जैसा है । अनित्यादि भाव - नाका र हिंसादि महाव्रतोंका वर्णन भी कमसे कम शैलीकी दृष्टिसे समान है । शब्द साम्य भी जगह जगह दिखाई देता है । कुछ नमूने देखिए
किम्पाकफलसंभोगसन्निभं तद्धि मैथुनम् । आपातमात्ररम्यं स्याद्विपाकेऽत्यन्तभीतिदम् । — ज्ञानार्णव पृ० १३४ रम्यमापातमात्रे यत्परिणामेऽतिदारुणम् । किम्पाकफल-संकाशं तत्कः सेवेत मैथुनम् ॥७८॥
— योगशास्त्र द्वि० प्र० विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम् । यस्य चित्तं स्थिरीभूतं स हि ध्याता प्रशस्यते ॥ ३ स्वर्णाचल इवाकम्पा ज्योतिः पथ इवाभलाः । समीर इव निःसङ्गाः निर्ममत्वं समाश्रिताः ॥ १५ —ज्ञानार्णव पृ० ८४-८६ विरतः कामभोगेभ्यः स्वशरीरेऽपि निःस्पृहः । संवेगहृदर्निमग्नः सर्वत्र समता श्रयन् ॥५ सुमेरुरिव निष्कम्पः शशीवानन्दायकः । समीर इव निस्संगः सुधीर्ध्याता प्रशस्यते ॥ १६
— योगशास्त्र सप्तम् प्र० श्राचार्य हेमचन्द्रका स्वर्गवास वि० सं० १२२६ में हुआ है । विविध विषयों पर उन्होंने सैंकड़ों ग्रन्थोंकी रचना की थी । योगशास्त्र महाराजां कुमारपाल के कहनेसे रचा गया था और उनका कुमारपाल से अधिक निकटका परिचय वि० सं० १२०७ के बाद हुआ था । श्रतएव योगशास्त्र विक्रम संवत् १२०७ से लेकर १२२६ तक के बीच के किसी समय में रचा गया है।
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वर्ष ३, किरण ४]
ज्ञानार्णवकी.एक प्राचीन प्रति
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ओं नमः सिद्धेभ्यः। अहं श्री शुभचन्द्राचार्यः जयचन्द्रजीने ही योगशास्त्र परसे उक्तं च रूपमें उठा परमात्मानमव्ययं नौमि नमामि किं भूतं परमा- लिया होगा या फिर उनके पास जो मूल प्रति रही त्मानं अजं जन्मरहितं पुन: कि भूतं परमात्मानं होगी उसमें ही किसीने उद्धृत कर लिया होगा । परन्तु
अव्ययं विनाशरहितं । पुनः किं भूतं परमात्मान मूलकी सभी प्रतियोंमें ये श्लोक न होंगे । निदान दो सौ निष्टितार्थ निष्पन्नाथै पुनः किं भूतं परमात्मानौं वर्षसे पुरानी प्रतियोंमें तो नहीं ही होंगे । पाठकोंको ज्ञानलक्ष्मीधनाश्लेषप्रभवानन्दनन्दितं । ज्ञानमेव चाहिए कि वे प्राचीन प्रतियोंको इसके लिए देखें। लक्ष्मीस्तस्या योऽसौ धनाश्लेषं निविड़ाश्लेषस्तस्मात् लिपिकर्ताओंकी कृपासे 'उक्तंच' पद्योंके विषयमें प्रभव. उत्पन्नो योऽसौ आनन्दस्तेन नन्दितम्।" इस तरहकी गड़बड़ अक्सर हुआ करती है और यह
इस प्रतिके शुरूके पत्रोंके ऊपरका हिस्सा कुछ गड़बड़ समय-निर्णय करते समय बड़ी झंझटें खड़ी कर जल-सा गया है और कहीं कहींके कुछ अंश झड़ गये दिया करती है। हैं । प्रारंभके पत्रकी पीठपर कागज चिपकाकर बड़ी ज्ञानार्णवकी छपी हुई प्रतिको ही देखिए । इसके सावधानीसे मरम्मत की गई है । पूरी प्रति एक ही लेख- पृष्ठ ४३१ (प्रकरण ४२) के 'शुचिगुणयोगाद्' आदि ककी लिखी हुई मालूम होती है । अन्तमें लिपिकर्ताका पद्यको 'उक्तं च' नहीं लिखा है परन्तु तेरहपन्थी मंदिर नाम तिथि-संवत् आदि कुछ भी नहीं है, फिर भी हमारे की उक्त संस्कृत टीका वाली प्रतिमें यह 'उक्तं च' है । अनुमानसे वह डेढ़-दो सौ वर्षसे इधरकी लिखी हुई पं० जयचंद्रजीकी वचनिकामें भी इसे 'उक्तं च आर्या' नहीं होगी।
करके लिखा है, परन्तु छपाने वालोंने 'उक्तं च' छोड़ ___ इस प्रतिमें मने देखा कि प्राणायाम-सम्बन्धी वे दिया है ! इसी तरह अड़तीसवें प्रकरण में संस्कृत टीका दो 'उक्तंच' पद्य हैं ही नहीं जो छपी हुई प्रतिमें दिये हैं वाली प्रतिमें और वचनिकामें भी 'शंखेन्दुकुन्दधवला और जो प्राचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्रके हैं । तब ये ध्यानाद्देवास्त्रयो विधानेन' आदि पद्य 'उक्तं च' करके छपी प्रतिमें कहाँसे आये ?
दिया है परन्तु छपी हुई प्रतिमें यह मूल में ही शामिल स्व० ५० पन्नालालजी वाकलीवालने पं० जयचन्द्र कर लिया गया है। जीकी भाषा वचनिकाको ही खड़ी बोलीमें परिवर्तित ध्येयं स्याद्वीतरागस्य' आदि पद्य छपी प्रतिके करके ज्ञानार्णव छपाया था। हमने पं० जयचन्द्रजीकी ४०७ पृष्ठमें 'उक्तं च' है परन्तु पूर्वोक्त सटीक प्रतिमें वचनिका वाली प्रति तेरहपन्थी मन्दिरके भंडारसे निक- इसे 'उक्तं च' न लिखकर इसके आगेके 'वीतरागो लवाकर देखी तो मालूम हुआ कि उन्होंने इन श्लोकोंको भवेद्योगी' पद्यको 'उक्तं च' लिखा है । और छपीमें उद्धृत करते हुए लिखा है कि-"इहाँ उक्तं च दोय तथा वचनिकामें भी, दोनों ही 'उक्तं च' हैं । श्लोक हैं-"
_ 'उक्तं च' पद्योंके सम्बन्धमें छपी और सटीक तथा पं० जयचन्द्रजीने अपनी उक्त वचनिका माघ सुदी वचनिकावाली प्रतियोंमें इसी तरह और भी कई जगह पंचमी भृगुवार संवत् १८०८ को समाप्त की थी । या फ़र्क है, जो स्थानाभावसे नहीं बतलाया जा सका। तो इन श्लोकोंको प्रकरणोपयोगी समझ कर स्वयं पं० अभिप्राय यह है कि ज्ञानार्णवकी छपी प्रतिमें हेमचन्द्र
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२७६
श्रनेकान्त
के योगशास्त्रके उक्त दो पद्योंके रहने से यह सिद्ध नहीं होगा कि शुभचन्द्राचार्यने स्वयं ही उन्हें उद्धृत किया है. और इस कारण वे हेमचन्द्र के पीछे के हैं । इसके लिए कुछ और पुष्ट प्रमाण चाहिए।
पाटण के भंडारकी उक्त प्राचीन प्रति तो बहुत कुछ इसी ओर संकेत करती है कि ज्ञानार्णव योगशास्त्रसे पीछेका नहीं है ।
नोट -- बसे कोई बत्तीस वर्ष पहले ( जुलाई सन् १९०७) मैंने ज्ञानार्णावकी भूमिका में 'शुभचन्द्रा - चार्यका समयनिर्णय' लिखा था और उस समयकी श्रद्धाके अनुसार विश्वभूषण भट्टारक के 'भक्तामरचरित' को प्रमाणभूत मानकर धाराधीशभोज, कालीदास, वररुचि, धनंजय, मानतुंग,भर्तृहरि आदि भिन्न भिन्न समय वर्त्ती विद्वानोंको समकालीन बतलाया था । परन्तु समय बीतने पर वह श्रद्धा नहीं रही और पिछले भट्टारकों द्वारा निर्मित अधिकांश कथासाहित्यकी ऐतिहासिकता पर सन्देह होने लगा। तब उक्त भूमिका लिखनेके कोई आठ नौ वर्ष बाद दिगम्बर जैन के विशेषाङ्क में (श्रावण संवत् १९७३) 'शुभचन्द्राचार्य' शीर्षक लेख लिखकर मैंने पूर्वोक्त बातोंका प्रतिवाद कर दिया, परन्तु ज्ञानाविकी उक्त भूमिका अब भी ज्योंकी त्यों पाठकों के हाथों में जाती है । मुझे दुःख है कि प्रकाशकोंसे निवेदन कर देने पर भी वह निकाली नहीं गई और इस तीसरी आवृत्ति में भी बदस्तूर कायम | इतिहासज्ञों के
मुझे लज्जित होना पडता है, इसका उन्हें खयाल नहीं । बंगला मासिक पत्रके एक लेखक श्रीहरिहर भट्टाचार्य ने तो ज्ञानार्णवकी उक्त भूमिकाको 'उन्मत्तप्रलाप' बतलाया था । विद्वान् पाठकोंसे निवेदन है कि 'भक्तामरचरित' की कथाका खयाल न करके ही वे
[माघ, वीरनिर्वाण सं० २४.६६
श्रीशुभचन्द्राचार्यका ठीक समय निर्णय करने का प्रयत्न
करें ।
बम्बई ता० १४-१-१६४०
सम्पादकीय नोट
लेखक महोदय के उक्त बोट परसे मुझे रायचन्द्रशास्त्रमाला के संचालकोंकी इस मनोवृत्तिको मालूम करके बड़ा खेद हुआ कि उन्होंने भूमिका लेखक के. स्वयं अपनी पूर्वलिखित भूमिका को सदोष तथा त्रुटिपूर्ण बतलाने और उसे निकाल देने अथवा संशोधितः कर देनेकी प्रेरणा करने पर भी वह अबतक निकाली या संशोधित नहीं की गई है ! यह बड़े ही विचित्र प्रकारका मोह तथा सत्यके सामने घाँखें बन्द करने जैसा प्रयत है ! और कदापि प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता । श्राशा है कि ग्रंथमाला के संचालकजी भविष्य में ऐसी बातोंकी और पूरा ध्यान रखेंगे और ग्रंथके चतुर्थ संस्करण में लेखक महोदय की इच्छानुसार उक्त भूमिकाको निकाल देने अथवा संशोधित कर देनेका दृढ़ संकल्प करेंगे । साथ ही, तीसरे संस्करणकी जो प्रतियाँ अवशिष्ट हैं उनमें लेखकजी के परामर्शानुसार संशोधन की कोई सूचना जरूर लगा देंगे ।
ज्ञानार्णव ग्रंथकी प्राचीन प्रतियोंके खोजने की बड़ी ज़रूरत है । जहाँ जहाँके भण्डारों में ऐसी प्राचीन प्रतियाँ मौजूद हों, विद्वानोंको चाहिये कि वे उन्हें मालूम करके उनके विषयकी शीघ्र सूचना देने की कृपा करें, जिससे उन परसे जाँचका समुचित कार्य किया जा सके। सूचना के साथ में, ग्रंथप्रतिके लेखनका समय यदि कुछ दिया हुआ हो तो वह भी लिखना चाहिये और ग्रंथकी स्थितिको भी प्रकट करना चाहिये कि वह किस हालत में है ।
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[ले०-श्री भगवत् जैन] .
कविकी कल्पनामें जब बाँध लग जाता है । मि. होता है । खाली हाथ लौटनेसे जो मिले वही " नटों सोचने पर भी कलम जब आगे नहीं ठीक ।' बढ़ती, तब मनमें एक खोज पैदा हो उठती है। शिकारीका अनुमान-शिकारके सम्बन्धमेंठीक वैसी ही खीजकी कटुता उस शिकारीको भी प्रायः सही बैठता है । रोजका अभ्यास, पुराना विकल करती है, जो थकावटसे चूर, प्याससे अनुभव ! ग़लत कैसे बैठे ?... ' मजबूर और अपने निवाससे दूर-जंगलों-झाड़ि- शिकारी आगे बढ़ा । जैसे ही झाड़ियों के बीच योंमें शिकारके पीछे या शिकारकी तलाशमें में पहुँचा कि दीखा वही दृश्य-जिसे अनुमानने दौड़ता-हाँपता घूमता है, पर शिकार हाथ नहीं पहले ही देख रखा था ! ""लम्बे-चौड़े मैदानके लगती !...
एक कोनेमें हिरण-दम्पत्ति मौजमें ललक रहे हैं, राजपूत-नरेशका मन खीज रहा है ! रह-रह प्रणय-स्वर्गीय-सरिताकी भांति सवेग प्रवाहित कर मनमें आ रही है-'घर लौट चलें ।' . हो रहा है !... लेकिन......?
___ 'सन्ध्याकी सुनहरी-धूपमें कितने अच्छे लग _ 'क्या खाली हाथ ? अभी सन्ध्या होनेमें काफी रहे हैं वह ? कैसा मुक्त जीवन है-उनका ? देर है ! सम्भव है, कुछ हाथ लगे ।... साफ-सुथरी जमीन पर, मुक्ताकाशके नीचे, सभ्य
राज-पुत्रने घोड़ा बढ़ाया। हृदयमें आशाने भी ताके बन्धनोंसे रहित, एकान्त आँगनमें कैसा दौड़ लगाना शुरू किया ।'हवाका एक झोंका प्रेम-प्रमोद रच रहे हैं ? गुप्त-मंत्रणा कर रहे हैं
आया, घोड़ा घने पेड़की छाँहसे गुजर रहा था, जानें ? कैसी लुभावक, कैसी उत्तेजक प्रेम-लीला है कितनी ठंडी हवा लगी कि राज-पुत्रका प्याससे यह ?... मलिन-मुख उद्दीप्त हो उठा ! किन्तु वह रुके नहीं, शिकारी कुछ देर खड़ा, सोचता-विचारता 'ठहरना' उनकी खीजका साथी था,और उद्देश्यका रहा-यही सब ! पाठ भूले, विद्यार्थीकी तरह ! शत्रु !...
___ या चौकड़ी भूले, हिरणकी भांति ! फिर-सहसा ___ 'इन झाड़ियोंके उस पार मैदान होगा, साफ- चेतना लौटी, परिस्थितिका ज्ञान हुआ-रात हुई सुथरा चटकीला-स्थान ! वहाँ और कुछ नहीं, तो जा रही है ! सवेरेसे अबतक एक भी शिकार हाथ हिरन तो होंगे ही! जरूर होंगे-अक्सर ऐसा नहीं चढ़ी! जाने किसका मुँह देखकर आया गया
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२७६
अनेकान्त
[माघ, वीर-निर्वाण सं०२१॥
है भाज!
नहीं था, उसे देखनेकी क़तई इच्छा उसके मनमें इसके बाद ही,षोडषी-नारीकी भू बंकके भांति, नहीं थी, भावना-विरुद्ध दृश्यकी कठोरताने उसे कमानको बनाया गया, फिर सधे हुए हाथोंने बाण आँखें बन्द करनेको विवश किया हो ! 'एक का निशाना साधा ! और दूसरे ही पल-लक्ष्य- गहरी सांसके साथ सब समाप्त, जीवन-लीलाका वेध ! 'बाण हिरणीके पेटमें होकर आर-पार! अन्त !
शिकारीने जाकर देखा-जामीन खूनसे रंग शिकारीका मन-तितलीके पंखोंकी तरह रही है ! विवश-नेत्रोंसे हिरणी अपने प्रेमी, अपने सुन्दर, चारेको चोंचमें दबाए, नीड़को लौटते पंछी सब-कुछ, अपने स्वामीकी ओर देख रही है ! उस की भांति तीब्र गतिसे उड़ रहा है ! खूनमें तेजी 'देखने' में जैसे सारे संसारकी दीनता भरदी है, शरीरमें नव-जीवन-सा प्रवेश हुआ लगता है।
शायद हिरणीका जीवन भी इसीमें आ मिला है । ___ आँतें बाहर निकली आ रही हैं, जीभ-हाँ, यों ही, अलक्षित भावसे-जो मुँह पर आया वही सूखी-सी जीभ-मुँहके बाहर, दाँतोंकी कैदके -गुन गुनाते हुए शिकारी हिरणीके 'शव' को बाहर हो रही है ! बार-बार भागनेकी बेकार को- घोड़े पर लादनेके लिए उठाने लगा, कि सामने शिश करती है, और गिर-गिर जाती है ! कितनी हिरण !!! द्रातक, कितनी दयनीय ?
'अरे, यह तबसे यहीं खड़ा है ?'–विस्मयके . मगर शिकारीके लिए हिरणीका बध-खुशी साथ शिकारीके मुँहसे निकल गया ! और वह थी, दिन-भरके परिश्रमका पुरस्कार था-बहुत एकटक हिरणके मुंहकी ओर देखने लगा! . मामूली, बहुत छोटा-सा ! उसकी आँखोंमें एक प्रकृति के लगाये हुए काजलसे अलंकृत आँखें, चमक-सी आगई ! सफल मनोरथ होने पर आती वेदनाके पानीसे भीग रही हैं। जिन आँखोंकी है-वैसी ! कूद कर घोड़ेसे उतरा, बगैर ग्लानिके उपमा प्रकृतिके पुजारी, भावुक कवि बड़े गौरवके उसके खूनसे, लाल-लाल, कालेरुख गाढ़े खूनसे, साथ, सौन्दर्य-विभूतियोंको दिया करते हैं, वही सने शरीरको उठाया ! और क्षत्रियत्वकी ताकत आँखें शोकके अथाह गर्नमें डूबी जा रही हैं ! जैसे लगाकर पेटमें घुसे हुए बाणको खींच निकाला ! उन आँखोंकी रोशनी मर चुकी हो, बुझ चुकी हो, ओफ !!!
राख बन चकी हो !! हिरणीके विह्वल-नेत्रोंने एक बार चारों ओर शिकारीका शरीर ढीला पड़ने लगा ! मनमें को देखा ! क्या देखा ? क्या देखना चाहती थी ? एक आँधी-सी उठने लगी ! आँखोंमें जलन-सी -इसे कौन जाने ? पर दीखा उसे अपना यम, महसूस होने लगी ! हाथ निर्जीव-से, शरीर सुन्नसाकार-काल-क्षत्रिय-पुत्र ! "कुछ घबराई, एक सा और मुँह सूखा-सूखा-सा मालुम देने लगा !! बार तड़पी, पैर भी पीटे ! फिर एकदम शान्त ! वह टूटे-पेड़की तरह खड़ा रह गया, खण्डआँखें मुंद गई--जैसे, उसे जो दीखा, वह इष्ट हरकी तरह स्तब्ध ! श्मशानकी तरह वीभत्स !...
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वर्ष ३, किरण ४]
शिकार
'२७६
विचारोंका यातायात !
प्रेमकी साधनामें कितना अनुराग रखता है वह 'मूर्ख, हिरण ! नहीं जानता कि जिसने हिर- अपनी पत्नीके प्रति कितना महान-हृदय रखता है, रणीका प्राणान्त किया है, वह इसे कब छोड़ेगा ? कितना आदर्श है वह !' फिर भी भागता नहीं, डरता नहीं ! प्रतिहिंसा जैसी शिकारीकी आँखोंमें करुणा-जल छलछला घातकता उसके मनमें टकरा रही है ! प्रेमकी आया ! हिरणीकी मृतक देह अब उसे अपनी भूल उत्ताल-तरंगें, प्राणोंके मोहको भुलाए दे रही हैं ! की तरह दिखाई देनेलगी,डरने लगा वह-अब ! ओहोहः-प्रेम ! तूने इस जंगली जीवको भी अपने काश! वह अब किसी तरह उसे जीवित कर काबमें कर रखा है ! वह प्रेमकी समाधिमें लीन सकता !... होकर अपने प्राणोंकी आहुति देते भी नहीं भय- तृणोंमें अमृतका स्वाद लेने वाले वह दोनों भीत होता !
मूक-प्रणयी, अपनी निर्धन, साधन-शून्य, उजड़ी _ शिकारी देख रहा है-वियोगी-हिरण अपनी सी दुनियाँमें प्रेमके बल पर स्वर्गका स्थापन कर प्रणयकी दुनियाको, अपनी दुलारी हिरणीको, रहे थे ! आह ! उसे भी मैं न देख सका ! मुझ-सा एकटक देख रहा है ! समझ नहीं पा रहा कि उस अधम और कौन होगा ? कितना भयंकर अपराध की हिरणी मर चुकी है,उसकी दुनिया उजड़ चकी किया है-मैंने !.."जिनके पास प्राणोंके सिवा है ! वह इतना ही जानता है कि इसे कुछ हो गया और कुछ नहीं था ! जो दरिद्रताकी सीमा थे। है ! वैसा हो गया है,जैसा अबतक कभी नहीं हुआ उनका वह छोटा-सा धन, थोड़ी सी इच्छा, और सर्प-विष-संहारक वायगीकी तरह वह हिरणीके सीमित-सा सौख्य भी मैंने छीन लिया ! उफ् ! क्षत-विक्षत-शरीर के समीप-कुछ अटल-सा, कुछ यह घोर-पाप !!!' विह्वल-सा कुछ ध्यानस्थ सा बैठा आँसू बहा रहा कौन-सी लेखनी ऐसी है, जो हिरणकी मर्माहै ! जैसे प्रेम-मंदिरमें, रूठी हुई प्रेमकी देवीको, न्तक पीडाको ठीक ठीक चित्रण कर सके ?... प्रेम-पुजारी मना रहा हो !...
उसके भीतर शिकारीकी सहानुभूति जैसे घुसती __ शिकारीका मन भर आया । उसे ऐसा लगा जा रही हो ! उसकी विकलता प्रतिक्षण बढ़ती जा जैसे उसके हृदय-कंजको किसीने भीतर हाथ डाल रही है ! वह रो रहा है, उसकी आँखें रोरही हैं, कर मरोड़ दिया हो, उसके मुँह पर जैसे अमा- उसका हृदय रो रहा है !... वस्याकी कालिमा बिखरादी।
____ 'यह क्या किया मैंने ? एक निरपराध सुखमानव-मन !!!
मय, दाम्पत्तिक-जीवनमें आग लगा दी ! मैंने नहीं वह सोचने लगा-'कितना अगाध-स्नेह है समझा कि दूसरेके प्राण भी अपने-से ही प्राण हैं, इसे ? कपट-हीन, बनावट-रहित जैसे राकाकी उसे भी दुख-सुखका अनुभव होता है ! वह भी चाँदनी ! वह ज्ञानवान् नहीं है ! अपनेको सभ्य अपना-सा ही हृदय रखता है !.."प्रोफ़!समझनेका दावा भी वह नहीं करता। लेकिन- स्वार्थी-वि व ! अपने अपने स्वार्थमें मनुष्य
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२८०
अनेकान्त
[माघ, वीर-निर्वाण सं०२४६६
अन्धा हो रहा है । कोई किसीकी पर्वाह नहीं पवित्र, पुनीत, आदर्श भावना हिलोरें लिया
करता
...
करती है !
*
__ और .........? इसके बाद क्या हुआ ?
.. हाँ, वह शिकारी अब भी है । वैसी ही इसका मुझे पता नहीं ! न 'कहानी' का उससे
साधना, वैसा ही परिश्रम, वैसी ही तन्मयताको गहरा सम्बन्ध ही है ! हाँ, यह मैं जानता हूँ, और ,
अब भी काममें लाता रहता है ! लेकिन फर्क बतलाना भी वही शेष है, कि राजपूत नरेश, अब
इतना है--अब वह पशु पंछियोंका शिकार नहीं दुनियाँकी नजर में 'राजा' नहीं है ! लोग उसे
करता, उन पशु-प्रवृत्तियोंका शिकार किया करता संसार-विरक्त-साधु कहते हैं ! वह अब बनों
- है जिन्होंने उसे शिकारी बनाया! . . वीहड़ोंमें रहता है ! और वासना-शून्य-हृदयमें एक TO अनुरोध [ श्री भगवत्' जैन ] (AE दिखादे पथ-भृष्टोंको पंथ, जी रहे आज मृतककी भाँति, ।
बनादे मूकोंको वाचाल ! सिखादे मरना जीने-सा ! MA)) होश उनको भी आजाए, न बाकी रहे देशको भीरु- हो रहे जो दिन-दिन बेहाल !! कहलवानेका अन्देशा !
बने जीवन जागृतिकी ज्योति, मौत को समझ उठे खिलवाड़ ! हिमालय बने हमारा भाल,
और मुख ज्वालामुखी पहाड़ !! हृदयमें बहे वेगके साथ, दानवी प्रकृति दूर भागे, ON प्रेम-गंगाकी मृदु-धारा ! प्राकृतिकताको अपनाएँ ! विश्व-भरमें फैले भ्रातृत्व, अरे ! भरदे ऐसी सामर्थ्य, ( शत्रु भी लगे प्राण-प्यारा ! रसातल-पथसे हट जाएँ !!
न समझो हँसनेमें कुछ तथ्य, वेदना रहती रोने में ! बड़े गौरवकी समझो बात,
दुखीके साथी होने में !! ( दूसरेका दुख अपना दुःख,- बनादे आँखों-सा कोमल, KE
माननेमें सुखका विस्तार ! हमारा सामाजिक जीवन ! सुख-दिनोका कहना ही क्या ?- पा सकें भूली-सी निधियाँ, क्योंकि उनका साझी संसार !! और सुलझा पाएँ उलझन !!
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आत्मिक क्रान्ति
० --- बा० ज्योतिप्रसाद जैन, विशारद, एम. ए०, एलएल. बी. वकील ]
ना* ज संसारके प्रायः प्रत्येक देशमें एक न एक ऐसा जनसमुदाय अवश्य अवस्थित है जिसका हार्दिक विश्वास है कि जनसाधारणके दासत्व, पतन तथा दारिद्रकी एक मात्र महौषधि क्रान्ति ही है । यदि समाज-विशेषकी आर्थिक अवस्था असह्य रूपसे हीन हो जाय तो उक्त समाजके लिये क्रान्ति अनिवार्य है । 'क्रान्तिके बड़े २ समर्थक कार्लमार्क्स इत्यादि का कथन है कि समस्त लौकिक बुराइयों तथा कष्टोंका कारण पूंजीवाद है जिसका विनाश श्रवश्यम्भावी है । प्रत्याचारियोंका दमन क्रान्तिचक्र द्वारा ही संभव है । इतिहास साक्षी है कि कभी भी कोई शक्तिशाली समुदाय बिना बल-प्रयोग के पदच्युत न होसका ।
क्रान्तिकारियोंके कथनानुसार मनुष्य-समाज परिवर्तनशील है । यद्यपि यह परिणमन निरन्तर होता रहता है, किन्तु शायद ही कभी व्यवस्थित एवं नियमित रूपमें लक्षित होता है । क्रान्ति भी एक परिवर्तन है; किन्तु अन्य साधारण परिवर्तनोंसे भिन्न एक विशेष प्रकारका परिवर्तन है । खाली परिवर्तन ही नहीं, एक प्रकारकी सामूहिक एवं संगठित क्रिया है । मनुष्य के श्रार्थिक एवं औद्योगिक पतनकी राजनैतिक प्रतिक्रिया है । यह एक ऐसा आन्दोलन है जिसमें समाज विशेषकी समस्त मानसिक एवं शारीरिक शक्तियां एक आदर्श प्राप्ति के पीछे पड़ जाती हैं ।
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क्रान्ति विज्ञान की दृष्टिसे प्रत्येक क्रान्तिका मूल कारण मनुष्य की मूल एषणाधों में निहित है । और ये
मूल- एषणाएँ चार हैं - ज्ञानैषणा, लोकैषणा, वित्तैषणा तथा पुत्रैषणा । यदि किसी समाजके नियमों और उसकी संस्थाओं में उक्त मूलैषणाओंकी तृप्तिके पर्याप्त साधन मौजूद हैं तो वह समाज एक सन्तुष्ट एवं स्थायी समाज है, और यदि नहीं, तो वह क्रान्तिके लिये एक उपयुक्त क्षेत्र हो जाता है। जितने जितने अंशों में समाज-विशेषमें इन मूल एषणाओंका दमन होता है उतने उतने ही अंशोंमें आनेवाली क्रान्ति हीनाधिक रूपसे तीव्र होती है ।
इसके अतिरिक्त क्रान्तिका मूलतत्व आशा है । प्रारम्भ से ही आशाका संचार एवं निराशाका परिहार इसका प्रभाव है। पीड़ितोंके हृदय में जबतक क्रान्तिकी सफलताका विश्वास तथा तज्जन्य आशाका प्रादुर्भाव नहीं होता वह क्रान्ति उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकते । और यह तभी हो सकता है कि जब अत्याचार तथा दमन वास्तवमें तो कुछ कम हो जाते हैं किन्तु पीड़ित व्यक्ति अपनी वस्तु-स्थिति तथा कष्टों का पूर्ण अनुभव करने लगते हैं । अतः क्रान्तिकी मुख्य प्रेरक शक्ति श्राशा ही है ।
क्रान्तिके उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन से हमारा आशय लौकिक क्षेत्रमें क्रान्तिका खंडन श्रथवा मंडन करना नहीं है, वरन् यह दिखलाना है कि समाजशास्त्र-विज्ञोंने जो वैज्ञानिक विवेचन राजनैतिक अथवा सामाजिक क्रान्तिका दिया है, वही आश्चर्यजनक रूपमें आत्मिक क्रान्तिमें भी अक्षरशः घटित होता है ।
एक भव्यात्मा जिस समय चारित्र धन के अभाव में
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इन्द्रिय-विषयक परतन्त्रता में जकड़ा हुआ पतनके गर्त्त में डूब जाता है तो उसके उद्धारका एकमात्र उपाय आ त्मिक क्रान्ति ही है । समस्त सांसारिक दुखोंके कारण लोभ-मोह हैं । जिस प्रकार राजनैतिक एवं सामाजिक कष्टोंका कारण पूंजीवाद अर्थात् पूँजीपतियों का निरन्तर निज शक्तिवर्धन तथा उपभोग है उसी प्रकार प्राणीके समस्त सांसारिक कष्टोंका मूल कारण लोभमोह-जनित परिगृह- वृद्धि तथा विषयाकांक्षा ही है, जिससे त्राण पानेका साधन इन्द्रिय- दमन रूप प्रवृत्ति है। बिना तप संयमादिक बल-प्रयोगों के कभी कोई आत्मा चारित्र्य सत्ता प्राप्ति में सफल नहीं हुआ ।
अन्य पदार्थोंकी भाँति श्रात्म द्रव्यभी परिणमनशील है । किन्तु यह श्रात्म-परिणमन सदा स्वाभाविक ही नहीं हुआ करता, वरन प्रायः वैभाविक ही होता है। आत्मा अपने निजी स्वभावको भूलकर विकारग्रस्त हो जाता है और सब प्रकार के कष्टकर दुःखोंका निरन्तर शिकार बना रहता है । उसकी दशा बहुधा उस बन्दीके समान होती है जो बन्दी ख़ाने में ही जन्म लेता है, किन्तु जिसे कभी ऐसा सौभाग्य प्राप्त नहीं होता कि वह अपने जन्मस्थान के वास्तविक स्वरूपको जान सके । वह यह भी नहीं जान पाता कि उसके आस पास जो बहुमूल्य फ़र्नीचर एवं भोगोपभोगकी प्रचुर सामग्री विद्यमान है वह कवीन्द्र रवीन्द्रके शब्दों में उसके मानरूपी दुर्गको ऐसी अलक्ष्य किन्तु सुदृड़ दीवारें हैं जो न केवल उसकी स्वतन्त्रताका भी अपहरण किये हुए हैं, वरन उक्त स्वतन्त्रता प्राप्तिकी इच्छा का भी प्रभाव किए हुए
। सांसारिक मोहजाल में फँसे हुए उस आत्मा के लिये श्रात्मिक स्वतन्त्र प्राप्त करना दुर्लभ ही नहीं किन्तु वह उसकी प्राप्तिके लिये प्रयत्नवान भी नहीं होता । उस मोहान्ध आत्माको आत्म जागृतिके दिव्य लोकमें
अनेकान्त
[माघ,
वीर निर्वाण सं० २४६६
आने की इच्छा ही नहीं होती ।
परन्तु यह श्रात्मिक क्रान्ति एक ऐसा श्रान्दोलन है, श्रात्मिक पतनकी ऐसी आध्यात्मिक प्रतिक्रिया है कि उसकी समस्त प्रवृत्तियाँ और समस्त शक्तियाँ अपने श्रादर्श, अपनी स्वाभाविक अवस्था - पूर्ण स्वतन्त्रताप्राप्तिके कार्य में संलग्न हो जाती हैं । समस्त प्रात्मिक शक्तियाँ सामूहिक एवं सुसंगठित रूपसे क्रियावान हो जाती हैं । राजनैतिक अथवा सामाजिक क्षेत्र सम्बन्धी क्रान्तियोंकी कारणभूत चार मूलैषणाओंकी भाँति इ श्राध्यात्मिक क्रान्तिकी कारण भी ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य -- अनन्त चतुष्टय रूप परमानन्दमय पूर्ण स्वतन्त्र अवस्थाकी प्राप्त्यर्थं श्रात्मिक मूलैषणाएँ ही हैं जो वा स्तव में प्रत्येक प्राणीकी आत्मा में लक्ष्य अथवा अलक्ष्य रूपमें विद्यमान हैं ।
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जिन आत्माओं में उक्त मूलैषणाओं की तृप्तिके साधन अवस्थित हैं अर्थात् जिन्हें अपने स्वाभाविक गुणोंका अपने स्वरूपका भान है और जो उसकी प्राप्ति में संलग्न हैं उन्हें इस क्रान्तिकी श्रावश्यकता नहीं है ये सम्यकत्व युक्त श्रात्मायें उन्नतिशील हैं और अपने उद्योग में सफल ही होकर रहेंगी। अपने ध्येयको, अपने आदर्शको जबतक प्राप्त नहीं करलेंगी प्रयत्न नहीं छोड़ेंगी।
किन्तु जो श्रात्माएँ इतनी भाग्यशाली नहीं हैं और अभी तक पतनकी थोर ही अग्रसर हो रही हैं, जिन्होंने सबं सुध बुध खो रक्खी है, जो इस पञ्च परिवर्तन रूप संसार में अनादिसे गोता खा रही हैं और यदि ऐसी ही अवस्था रही तो न मालूम कबतक इसी प्रकार जन्म मरणरूप संसारके दुःख भोगती रहें । उन्हें ही इस क्रान्तिकी आवश्यकता है, जिसके लिये पतनकी तीव्रता के अनुसार ही तप संयमादिक रूप
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वर्ष ३, किरण ४]
आत्मिक क्रान्ति
२८१
बल प्रयोगकी तीव्रता अपेक्षित है।
यह परिवर्तन ही आत्मिक-क्रान्ति है और यही इस क्रान्तिका मूल तत्व भी प्राशा है। नवोदित • सच्ची क्रान्ति है । प्राणीकी सची भूससे प्रेरित हुई सच्चा अाशाके स्फुरणसे प्रेरित हो यह भव्यात्मा अपने लक्ष्य अक्षय सुख प्राप्त करानेवाली अमर क्रान्ति यही है। की ओर अग्रसर होता है । उस समय आत्मिक पतनके अन्य समस्त, राजनैतिक, सामाजिक प्रादि क्रान्तियों होते हुए भी कुछ इस प्रकार मन्दकषायका उदय होता का फल स्थायी नहीं होता, थोड़े. या अधिक समय है कि अपनी वस्तु-स्थिति से उक्त आत्मा असन्तुष्ट हो उपरान्त फिर दशा पतित हो ही जाती है, चाहे कितनी जाता है, अपनी अवस्था उसे असह्य हो जाती है। भी सफल क्रान्ति क्यों न हो। किन्तु आत्मिक क्रान्ति उसके अन्तरमें एक प्रकारका घोर अान्दोलन होने ल- यदि सफल हो जाय तो इसका फल चिरस्थायी ही नहीं, गता है । वह अपनी समस्त शक्तियोंको एकत्रित करके अविनाशी और अनन्त होता है। अतः यदि किसी श्रात्म-प्रवृत्तिका रुख बदल देता है तथा प्रात्मो तिकी क्रान्तिके अमरत्वकी भावना लानेकी आवश्यकता है तो ओर अग्रसर होने लगता है।
वह पात्मिक क्रान्तिकी ही है।
सम्बोधन
[ ले० ब्र० 'प्रेम' पंचरत्र ] चपल मन ! क्यों न लेत विश्राम ? क्यों पीछे पड़ गया किसीके. तजकर अपना धाम ? आशा छोड़ निराशा भजले, श्वासाको ले थाम ॥चपल०॥ आज कहत कल करत नहीं है, भूलात निज काम । कब पाये वह समय भजे जब, अपना आतमराम ॥ चपल०॥
यह काया नहिं रहे एक दिन, जिसका बना गुलाम । माया-मोह महा ठग जगमें, मतले इनका नाम ।। चपल०॥
अब मत यहाँ-वहाँ पर भपके, आजा अपने ठाम | TO 'प्रेम' पियुष पान कर अपना, पावे सुख अभिराम ॥चपल०॥
EVM900
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हिन्दी - साहित्य-सम्मेलन और जैनदर्शन
[ ले०-- पं० सुमेरचन्द जैन न्यायतीर्थ, 'उन्निनीषु' देववन्द यू. पी. ]
।
हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन प्रयाग ही हिन्दी भाषाकी सर्वतोमुखी उन्नति करने वाली एक मात्र संस्था है । इसलिए उसने अपना एक स्वतन्त्र हिन्दी - विश्व - विद्यालय कायम कर लिया है, जिस में भारत के प्रत्येक प्रान्त और धर्मके अनुयायी बिना किसी भेद-भाव परीक्षा देते हैं । इन परीक्षाओंको मान्यता सरकार और जनता दोनों में ही है । अत: यह संस्था अधिक सर्वप्रिय बनती जाती है । इधर हमारे समाज के विद्यार्थी सम्मेलनकी परीक्षा में अधिक सम्मिलित होने लगे हैं, परन्तु सम्मेलनकी परीक्षाओं में जैनधर्म सम्बन्धी कोई विषय नहीं रक्खा है, इसलिये जैनविद्वानोंका ध्यान इस तरफ आकर्षित हुआ । इस विषय में पंडित रतनलालजी संघवीने संस्थाके प्रधानमंत्री श्रीमान् पं० दयाशंकरजी दुवेके साथ दो वर्ष तक लगातार पत्रव्यवहार किया । इस पत्रव्यवहार में संघवीजीने प्रथम दुवेजीको यह लिखा था कि 'सम्मेलनकी प्रथमा और विशारद परीक्षा में जैन दर्शन वैकल्पिक विषयमें सम्मिलित कर लिया जाय ।' उसपर दुवेजीने अपने अन्तिम पत्र में यह बात प्रकट की कि 'मैं सम्मेलनकी परीक्षामें जैनदर्शन रखनेके पक्षमें हूँ; परन्तु हमारी परीक्षासमिति इसके लिये तैयार नहीं है।' इसके बाद क्या हुआ ? इस विषय में मुझे कुछ भी पता नहीं । पर हाँ, उनके पत्र से निश्चित है कि उन्होंने प्रेम पूर्ण जवाब देकर टालमटूल कर दो; इसलिये संघ
वीजी निराश होकर यह कार्य किसी अन्य के सुपुर्द करना चाहते थे । यही बात उन्होंने 'अनेकान्त' में प्रकट की थी। इस बातको पढ़कर मेरे मनमें यह जाननेका कौतुक उत्पन्न हुआ कि परीक्षा समिति क्यों जैनदर्शन- प्रन्थ रखना नहीं चाहती ? इस विषयमें मैंने उन्हें एक पत्र लिखा उसमें जैनदर्शन और अपभ्रंश साहित्यकी आवश्यकता सम्बन्धी एक लेख लिखा । अन्तमेंयह भी लिखा, कि बिना जैनदर्शन के समझे दर्शनोंका विकाश और अपभ्रंश भाषा के बिना हिन्दी-साहित्य के निकासका पता नहीं लगाया जा सकता है । उत्तरमें श्रीमान् पंडित रामचन्द्र जो दीक्षित रजिस्ट्रार हिन्दी - विश्वविद्यालय प्रयागका जो पत्र मिला वह इस प्रकार है:
प्रियमहोदय !
आपका पत्र मिला ।
जैन दर्शनको सम्मेलन परीक्षाओं में स्थान देने के सम्बन्ध में परीक्षा समितिने निश्चय कर लिया है। इस सम्बंध में लिखा पढ़ी भी हो रही है । भवदीय-
रामचन्द्र दीक्षित रजिस्ट्रार हिन्दी विश्वविद्यालय प्रयाग ।
इस पत्र से विदित होता है कि रजिस्ट्रार महोदय सम्मेलनकी परीक्षाओं में जैन-दर्शन रखने के लिए तैयार हैं। परीक्षा समितिने निश्चय कर
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जीवन-साध
वर्ष ३, किरण ४ ]
लिया है और तद्विषयक पत्र व्यवहार भी वे कर रहे हैं। लेकिन उन्होंने अपभ्रंश भाषाके विषय में कुछ भी प्रकाश नहीं डाला है । इसलिए अपभ्रंश भाषाके विद्वान् बाबू हीरालालजी एम.ए. प्रोफेसर किङ्ग एडवर्ड कालेज अमरावती और जो इस विषय के पूर्ण विद्वान् हैं, उन्हें एक कोर्स बनाना चाहिए, ताकि जैनदर्शनके साथ २ प्रथमा, मध्यमा, साहित्यरत्नके कोर्समें अपभ्रंश भाषाका भी साहित्य रखवाया जा सके। इस विषय में जो विद्वान् सलाह देना चाहें वे कृपया पत्रों में उसे प्रकाशित करबा देवें या मेरे पास भिजवा दें। क्योंकि अपभ्रंश साहित्य के उद्धार होने से मध्यकालीन भाषा विकास
जीवन-साथ [ ले० – पं० भवानीदत्त शर्मा 'प्रशांत' ]
मेरी जीवन-साध !
पर - हित में रत रहूँ निरन्तर, मनुज - मनुजमें करूँ न अन्तर । नस-नसमें बह चले देशकी प्रेमधार निर्बाध ॥
मेरी जीवन-साध ॥ १॥
बौद्ध, जैन, सिख, आर्य, सनातन, यवन, पारसी और क्रिश्चियन |. हिन्द-देशके सब पुत्रोंमें हो अब मेल अगाध ॥ मेरी जीवन- साध ॥२॥
पर अधिक प्रकाश पड़नेकी आशा है । जैनदर्शन सम्बन्धी कोर्स के लिए श्रीमान् न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जी शास्त्री और पूज्य पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीको प्रकाश डालना चाहिए, जिससे रजि - स्ट्रार महोदयको कोर्स के रखने में सहूलियत हो सके । और जो विद्वान् मेरे पास भेजना चाहें वे मेरे पास भेजदें । मैं कोर्स नियत करवाकर के उनके पास भेज दूंगा । आशा है विद्वान मेरे इस निवेदन पर ध्यान देंगे । जैनदर्शनका कोर्स सम्मेलनकी परीक्षा में रक्खे जाने का अधिकांश श्रेय, भाई रतनलाल जी संघवी न्यायतीर्थ को ही है, जिन्होंने इस विषय में लगातार दो वर्षसे प्रयत्न किया है
देश-प्रेमका पाठ पढ़े हम, साक्षरता-विस्ता
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लिपी-भेद करनेका हमसे हो..
न कभी अपराध | मेरी जीवन-साध
अपने अपने मनमें प्रण कर एक दूसरे को साक्षरकर निज-स्वतन्त्रता के प्रिय पथसे दूर करें हम बाध ॥ मेरी जीवन-सा ॥ ४॥
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বিস্মৃতি
[
तमा संघवी, न्यायतीर्थ-विशारद ]
विषय-प्रवेश
प्रदर्शित दिशा निर्देशसे कोई भी जैम-साहित्यका
मुमुक्षु पथिक पथ भ्रष्ट नहीं हो सकता है। भारतीय साहित्यकारों और भारतीय बालमयके जैन पुरातत्व साहित्य पाचर्य श्री जिनविजयजी
उपासकोंमें साहित्य-महावि, आचार्यश्वर, ने लिखा है कि--"हरिभरिका प्रादुर्भाव जैन इसिविम्ब सामषि, वारीमगजकेसी, बाकिनीसूतु, हासमें बड़े महत्वका स्थान रखता है। जैनधर्मके
सय श्री हरिमारिका स्थान बहुत ही ऊंचा है। जिसमें मुख्यकर श्वेताम्बर संप्रदायके--उत्तर कालीन इसी प्रकार प्रतिमा, ता, विचारपूर्ण मध्यस्थता, स्वरूपके संबटम कार्यमें उनके जीवन्ने बहुत बड़ा भाग समाध गंभीरता, विचषण वाग्मीता, और मौलिक लिया है। उत्तरकालीन जैन साहित्यके इतिहासमें वे एवं असाधारण साहित्य सृजन-शक्ति प्रादि अनेक प्रथम लेखक माने जानेके योग्य हैं। और जैनसमाज पुणसित सपुष बापकी महानता और दिव्यताको के इतिहासमें नवीन संगठन के एक प्रधान व्यवस्थापक भान भी निर्विवाद रूपसे प्रकट कर रहे हैं। आपके द्वारा कहलाने योग्य हैं। इस प्रकार वे जैनधर्मके पूर्वकालीन विरचित अनुपम साहित्य-राशिसे उपलब्ध सका और उत्तरकालीन इतिहासके मध्यवर्ती सीमास्तम्भ अवलोकन करने से यह स्पष्टरूपेण और सम्म प्रका- समान है।" रेख प्रतीत होगा कि पाप भारतीय साहित्य संस्कृतिके इस प्रकार आचार्य हरिभद्र विद्वत्ताकी रहिसे तो एक पुरीणतम विद्वान् और उज्ज्वल रस्न थे। धुरीणतम हैं ही; पाचार,विचार और सुधारकी दृष्टि से भी
भापकी पीयूषवर्षिणी लेखनीसे निसृत सुमधुर इनका स्थान बहुत ही ऊंचा है। वे अपने प्रकांड पांडिऔर साहित्य-धाराका पास्वादन करने से इस निष्कर्ष त्यसे गर्मित,प्रौद और उच्चकोटिके दार्शनिक एवं तास्विक पर पहुंचा जा सकता है कि जैन-मागम-साहित्य (मूत्र, ग्रंथोंमें जैनेतर ग्रंथकारोंकी एवं उनकी कृतियोंकी आनोविलियों मादि) से इतर उपलब्ध जैन-साहित्यमें चना प्रत्यालोचना करते समय भी उन भारतीय साहिअर्थात् (Classical Jain literature) में यदि त्यकारोंका गौरव पूर्वक और प्रतिष्ठाके साय उदार एवं सद्धसेन दिवाकर सूर्य तो भाचार्य हरिभद्र शार- मधुर शब्दों द्वारा समुल्लेख करते हैं। दार्शनिक संघ
पूर्णिमाके सौम्पन्न है। यदि इसी अलंकारिक पणसे अषित तत्कालीन पापमय वातावरणमें भी माला जैन साहित्याकाशका वर्णन करते चलें तो कलि- इस प्रकारकी उदारता रखना प्राचार्य हरिभद्र सूरिकी काला सर्वाचार्य हेमचन्छ ध्रुव तारा है। इस प्रकार श्रेष्ठताका सुंदर और प्रांजल प्रमाण है। इस रष्टिले व साहित्यामा सूर्य चन्द्र और ध्रुवतारा द्वारा इस कोटिके भारतीय साहित्यक विद्वानोंकी श्रेणीमें
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पर्ष ३, किरण ४]
हरिभद्रसूरि
२५०
हरिभद्रसूरिका नाम प्रथम श्रेणीमें लिखनेके योग्य है। सहश्य स्थान है; वैसा ही महत्वपूर्ण और आदर्शस्थान
जैन-समाजमें हरिभद्रसूरि नाम वाले अमेक जैमा- साहित्य क्षेत्रमें एवं मुख्यतः न्याय-साहित्य क्षेत्र में भट्ट चार्य और ग्रंथकार हैं। किन्तु प्रस्तुत हरिभद वे हैं, जो अकलंकदेव और भाचार्य हरिभद्रका समझमा चाहिये। कि माकिमी महत्तरासूमुके नामसे प्रसिद्ध हैं। ये ही आश्चर्य तो यह है कि इनके जीवन चरित्र तकमें कुछ भाचार्य शेष अन्य सभी हरिभद्रोंकी अपेक्षासे गुणोंमें, हेरफेरके साथ काफी साम्यता है। इन दोनोंने ही ग्रंथ-रचनात्रों में और जिम-शासनको प्रभावमा करनेमें साहित्य-क्षेत्रमें ऐसी मौलिकता प्रदान की कि जिससे अद्वितीय हैं । इमका काल श्री जिनविजयजीने ई० उसमें सजीवता, स्फूर्ति, मबीमता और विशेषता पाई। सन् ७०० से ७७० तक अर्थात् विक्रम संवत् ७५७ से इस मौलिकताने ही भागे चलकर भारतीय धार्मिक ५२७ तक का निश्चित किया है, जिसे जैसाहित्यके क्षेत्र में जैन धर्मको पुनः एक जीवित एवं समर्थ धर्म प्रगाड अध्येता स्वर्गीय प्रोफेसर हरमन चाकोबीने भी बनाकर उसे “जन-साधारणके हितकारी धर्म" के रूपमें स्वीकार किया है, और जो कि अन्ततोगत्वा सर्वमान्य परिणत कर दिया । कुछ समय पश्चात् ही जैनधर्म पुनः भी हो चुका है । हरिभद मामके जितने भी जैन साहि- राजधर्म हो उठा और इस प्रभावका ही यह पल था त्यकार हुए हैं। उनमेंसे चरित्र-गायक प्रस्तुत हरिभत कि हेमचन्द्र और अमारिपडहके प्रवर्तक सबाट अमारही सर्वप्रथम हरिभद्र है।
पास सहीखी व्यक्तियाँ जैन समाजमें अवतीर्य दुई। पार्शनिक, माध्यास्मिक, साहित्यिक और सामाजिक इन्हीं प्राचार्यों द्वारा विरचित साहित्य के प्रभावसे दक्षिण प्रादिरूप तत्कालीन भारतीय संस्कृतिको तथा चरि- भारत, गुजरात तथा उसके भासपासके प्रदेशों में जैन त्रिक एवं नैतिक स्थितिके पातको और भी अधिक धर्म, जैन साहित्य और चैनसमान समर्थ एवं अनेक ऊंचा उठानेके ध्येयसे भाचार्य हरिभद्र रिने सामा- सद्गुणों से युक्त एक जज कोटिकी धार्मिक और नैतिक जिक प्रवाह और साहित्य-धाराको भोर कर नवीन ही संस्कृति के रूपमें पुनः प्रख्यातः हो गया। इन्हीं कारणों दिशाकी ओर अभिमुख कर दिया । सामाजिक विकृति- पर रष्टिपात करनेसे एवं सत्कालीन परिस्थितियों का के प्रति कठोर रुख धारण किया और उसकी बड़ी समा- विश्लेषण करनेसे यह मो प्रकार सिब हो जाता है खोचना की। विरोध-गम्ब कठिनाइयों का वीरता पूर्वक कि हरिमद्रसूरि एक युग मचान और युग-निर्माता सामना किया, किन्तु सत्य मार्गसे करा भी विनित प्राचार्य थे। नहीं हुए। यही कारण था कि जिससे समाजमें हुमः भाचार-क्षेत्र, विचार-क्षेत्र और साहित्य क्षेत्र में इसके स्वस्थता प्रदायक नवीनता भाई और भगवान महावीर द्वारा नियोजित मौलिकता, नवीमता, और अनेकविध स्वामीके आचार-क्षेत्र के प्रति पुनः जनताको अदा और विशेषताको देखकर झटिति मुंहसे यह निकल पड़ता है भक्ति बढ़ी।
कि प्राचार्य हरिभद्र कलिकाल सुधर्मा स्वामी है । जिस प्रकार प्राचार्य सिरसेन दिवाकरका और निबंधके आगेके भागसे पाठकोंको यह ज्ञात होनाषणा स्वामी समन्तभद्रका जिमशासनकी प्रभावना करनेमें कि यह कथन भसिरंजित केवल काव्यात्मक वाक्य ही एवं जैन-साहित्यकी धाराम विशेषता प्रदान करनेमें नहीं है, बल्कि सब्यासको लिये हुए है।
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- अनेकान्त
[माध, वीर निर्वाण सं० २४१६
पूर्वकालीन और तत्कालीन स्थिति धर्मसेन, एवं जिनभद्र गणिक्षमाश्रवण आदि कुछेक .... भगवान् महावीर स्वामी, सुधर्मा स्वामी और प्राचार्यों द्वारा रचित कुछ ग्रंथ पाये जाते हैं। किन्तु नम्ब स्वामीके निर्वाणकालके पश्चात् ही जैन आचार स्थलिभद्र आदि जो अनेक गंभीर विद्वान् श्राचार्य वीरऔर जैन साहित्य-धारामें परिवर्तन होना प्रारंभ हो संवत् की इन त्रयोदश शताब्दियोंमें हुए हैं। उनकी गया था। जैन-पारिभाषिक भाषामें कहें तो केवल ज्ञान कृतियोंका कोई पता नहीं चलता है । इन महापुरुषोंने का सर्वथा अभाव हो गया था, और साधुओंमें भी साहित्यकी रचना तो अवश्य की होगी ही; क्योंकि आचार-विषयको लेकर संघर्ष प्रारंभ हो गया था; जैन-साधुनोंका जीवन निवृत्तिमय होनेसे-साँसारिक जो कि कुछ ही समय बाद आगे चलकर श्वेताम्बर- ऊंझटोंका अभाव होनेसे-सारा जीवन साहित्य सेवा दिगम्बर रूपमें फूट पड़ा। वीरसंवत्की दूसरी शताब्दि- और ज्ञानाराधनमें ही लगा रहता था। अतः जैन साके मध्यमें अर्थात् वीरात् १५६ वर्ष बाद ही भद्रबाहु हित्य वीर-निर्वाणके पश्चात् सैकड़ों विद्वान जैनसाधुओं स्वामी-जिनका कि स्वर्गवास संवत् वीरात् १७० माना द्वारा विपुलमात्रामें रचा तो अवश्य गया है, किन्तु वह जाता है- अंतिम पूर्ण श्रुतकेवली हुए । श्रुत-केवल जैनेतर विद्वेषियों द्वारा और मुस्लिम युगकी राज्य ज्ञान भी अर्थात् १४ पूर्वोका ज्ञान भी एवं अन्य प्रा- क्रान्तियों द्वारा नष्ट कर दिया गया है-ऐसा निश्चगम ज्ञान भी भद्रबाहुस्वामीके पश्चात् क्रमशः धीरे धीरे यात्मकरूपसे प्रतीत होता है। घटता गया, और इस प्रकार वीरकी नववीं शताब्दि.. बौद्धधर्म और जैनधर्मने वैदिक एकान्त मान्यताओं तकके कालमें याने देवर्द्धि क्षमाश्रमणके काल तक अति पर गहरा प्रहार किया है और बौद्ध-दर्शनकी विचार-प्रस्वल्पमात्रा में ही ज्ञानका अंश अवशिष्ट रह गया था। णालिसे तो ज्ञात होता है कि बौद्ध-दार्शनिकोंने जैनधर्म हरिभद्र सूरिका काल वीरकी १३वीं शताब्दि है। इन औिर वैदिकधर्मको भारतसे समूल नष्ट करनेका मानो १३०० वर्षोंका साहित्य वर्तमानमें उपलब्ध संपूर्ण जैन . नश्चय सा कर लिया था, और विभिन्न प्रणालियों वाङ्मयकी तुलनामें अष्टमांशके बराबर ही होगा । यह द्वारा ऐसा गंभीर धक्का देनेका प्रयत्न किया था कि कथन परिमाणकी अपेक्षासे समझना चाहिये, न कि जिससे ये दोनों धर्म केवल नामशेषमात्र अवस्थामें रह महत्वकी दृष्टिसे । पूर्व शताब्दियोंका साहित्य पश्चात् की जायें। इस उद्देश्यकी पूर्तिके लिये बौद्ध साधु और शताब्दियोंकी अपेक्षासे बहुमहत्त्वशाली है, इसमें तो. बौद्ध-अनुयायी जनसाधारणकी मंत्र, तंत्र और औषधि कहना ही क्या है।
. .. आदि एवं धनादिकी सहायता देकर हर प्रकारसे सेवाइन प्रथम तेरह शताब्दियोंके साहित्यमें से वर्तमान शुश्रुषा करने लगे, और इस तरह जनसाधारणको में उपलब्ध कुछ मूल पागम, भद्रबाहु स्वामीकृत कुछ उपदेश एवं लोभ आदि अनेक क्रियाओं द्वारा बौद्धधर्म नियुक्तियाँ,उमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र श्रादि ग्रंथ, पाद- की ओर आकर्षित करने लगे। अशोक श्रादि जैसे लिप्तसूरिकी कुछ सारांशरूप कृतियाँ, सिद्धसेन दिवाकर समर्थ सम्राटोंको बौद्ध बना लिया और इस तरह भूमि की रचनाएँ, सिंह क्षमाश्रमण सूरिका नयचक्रवाल, तैयार कर वैदिक धर्म एवं जैनधर्म को हानि पहुँचाने और शिवशर्मसूरि, चंद्रषि, कालिकाचार्य, संघदास, लगे। वैदिक-साहित्य और जैन. साहित्यको भी नष्ट
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हरिभक्र्सूरि
वर्ष ३, किरण ४ ]
करने लगे और सैकड़ों ग्रंथ भंडार नेस्तनाबूद कर दिये शेष थे । भारतपर मुसलमानों के अाक्रमण प्रारम्भ हुए।
गये ।
धनापहरण के साथ २ धर्मान्ध मुसलमानोंने भारतीय साहित्य भी नष्ट करना प्रारम्भ किया और इस तरह बचा हुआ जैन साहित्यका भी बहुत कुछ अंश इस राज्य - क्रांति के समय काल-कवलिल हो गया । उस काल में जैनसाहित्यकी रक्षा करनेके दृष्टिकोणले बच्चा हुना साहित्य गुप्त भंडारों में रखा जाने लगा; किन्तु कुछ ऐसे रक्षक भी मिले, जिनके उत्तराधिकारियोंमे भंडारोंका मुख सैंकड़ों वर्षों तक नहीं खोला; परिणाम स्वरूप बहुत कुछ साहित्य कीट-कवलित हो गया; पत्ते सह गये - गल गये और अस्त-व्यस्त हो गये । इस प्रकार जैन साहित्य पर दुःखों का ढेर लग गया, वह कहां तक जीवित रहता ? यही कारण है कि हरिभद्रसूरिके पूर्वका साहित्य भागके बराबर है और बादका 3 भाग के बराबर है । यह तो हुआ हरिभद्र सूरि के पूर्व कालीन और तत्कालीन साहित्यिक स्थितिका सिंहावलोकन | अब इसी प्रकार प्रचार-विषयक स्थितिकी श्रोर दृष्टिपात करना भी प्रासंगिक नहीं होगा ।
कुछ काल पश्चात् बौद्ध साधुनों में भी विकृति और शिथिलता आगई, इन्द्रिय पौषणकी ओर प्रवृत्ति अधिक बढ़ गई; केवल शुष्क तर्क-जालके बलसे ही अपनी म र्यादाकी रक्षा करने लगे; और इतर धर्मोके प्रति विद्वेष की भावना में और भी अधिक वृद्धि कर दी । यही कारण था कि बौद्धोंको निकालने के लिये समय श्राते ही उत्तर भारत में शंकराचार्यने प्रयत्न किया, दक्षिणमें कुमारिल भट्टने प्रयास किया और गुजरात आदि प्रदेशों में जैनाचार्योंने इस दिशा में योग दिया । बौद्धोंका बल क्रमशः घटने लगा और वैदिक सत्ता पुनः धीरे २ अपने पूर्व श्रासनपर आकर जमने लगी। अनेक राजा महाराजा पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित होगये और इस तरह वैदिक धर्म अपनी पूर्वावस्था में श्राते ही बौद्धधर्म के साथ २ जैनधर्मका भी नाश करनेके लिये उद्यत हो गया। इस तरह पहले बौद्ध दार्शनिक और बादमें . वैदिक दार्शनिक, दोनों ही जैन साहित्यपर टूट पड़े और अनेक जैन साहित्य के प्राचीन भँडारोंको अनिके समर्पण कर उसे नष्ट कर दिया । इन कारणोंके साथ२ भयंकर दुष्काल और राज्य क्राँतियाँ भी जैन साहित्यको नष्ट करनेमें कारणरूप हुई हैं। यही कारण है कि हरिभद्रसूरिके पूर्व जैन साहित्य इतनी अल्प मात्रामें ही पाया जाता है । जो कुछ भी वर्तमान में उपलब्ध है, उसका भाग हरिभद्रसूरिके काल ने लगाकर तत्पश्चात् कालका है । अतः जैन साहित्य - क्षेत्रमें हरिभद्रसूरिका साधारण स्थान है, यह निस्संकोचरूपसे कहा जा सकता है।
भारतीय साहित्यका दैवदुविपाक यहीं तक समाह नहीं हो गया था, उसकोग्भय में और भी दुःख देखने
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यह पहले लिखा जा चुका है कि आचार - विषयक फूटका इतना गहरा प्रभाव हो चुका था कि जिससे श्वेताम्बर और दिगम्बर रूपसे दो भेद होगये थे । स्थिति यहीं तक नहीं रुक गई थी । श्राचार शिथिलता दिनों-दिन बढ़ती गई । इन्द्रिय विजयता और इन्द्रिय दमनके स्थान पर इन्द्रिय लोलुपता, स्वार्थ- परता एवं यशो - लिप्सा यादि अनेक दुर्गुणोंका साम्राज्य- श्राचार क्षेत्रमें अपना पैर धीरे २ किंतु मजबूती के साथ जमाने लग गया था । साधुत्रों का पतन शोचनीय दशाको प्राप्त हो गया था । श्राचार्य हरिभद्रसूरिने इस परिस्थिति की अत्यंत कठोर समालोचना की है । आप ही की शक्तिका यह प्रभाव था कि जिससे जनता और
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अनेकान्त
[माघ, वीरनिर्वाण सं०२४६६
साधु-संस्था पुनः वास्तविक और श्रादर्श मार्गके प्रति मेरा और अमुक कुल मेरा-ऐसा ममत्वभाव रखते श्रद्धामय और भक्तिशील हुई । प्राचार्य हरिभद्रसूरिने हैं। स्त्रियोंका प्रसंग रखते हैं । श्रावकोंको कहते हैं कि अपने 'संबोध-प्रकरण' में तत्कालीन परिस्थितिका मतकार्य ( मतभोज ) के समय जिन-पूजा करो और वर्णन इन शब्दोंमें किया है:--"ये साधु चैत्य और मृतकोंका धन जिनदान में देदो। पैसों के लिये (दक्षिम०में रहते हैं। पूजा आदि क्रियाओं का प्रारम्भ समारम्भ णारूपसे प्राप्त करनेके लिये) अंगे उपांग श्रादि सूत्रोंको करते हैं । स्वतःके लिये देव-द्रव्यका उपयोग करते हैं। श्रावकोंके आगे पढ़ते हैं । शालामें या गृहस्थों के घर पर जिनमन्दिर और शालाओंका निर्माण कराते हैं । ये खाजा आदि पाक पदार्थ तयार करवाते हैं। पतितमुहर्त निकालते हैं। निमित्त बतलाते हैं। इनका चारित्रवाले अपने गुरुत्रों के नामपर उनके दाह-स्थलों (साधुनोंका ) कहना है कि श्रावकोंके पास सूक्ष्म पर स्मारक बनवाते हैं । बलि करते हैं। उनके व्याख्याबातें नहीं कहनी चाहिये। ये भस्म (राख) भी तंत्र ‘नमें स्त्रियाँ उनकी तारीफ करती हैं। केवल स्त्रियोंके । रूपसे देते हैं । ये विविध रंगके सुगंधित और धूपित वस्त्र आगे व्याख्यान देते हैं । साध्वियाँ भी केवल पुरुषोंके पहिनते हैं । स्त्रियों के सामने गाते हैं । साध्वियों द्वारा आगे व्याख्यान देती हैं । भिक्षार्थ घर घर नहीं घूमते लायाहुअा काममें लाते हैं। तीर्थ-स्थानके पंडोंके समान हैं। मंडली में बैठ करके भी भोजन नहीं करते हैं । अधर्मसे धन इकट्ठा करते हैं। दिनमें दो तीन बार संपर्ण रात्रिभर सोते रहते हैं। गुणवानों के प्रति द्वेष खाते हैं। पान आदि वस्तुएँ भी खाते हैं। घी-दूध रखते हैं । क्रय-विक्रय करते हैं । प्रवचनकी श्रोटमें आदिकाभी खूब प्रयोग करते हैं । फल-फूल और सचित्त किया करते हैं । धन देकर छोटे छोटे बालकोंको पानीका भी उपयोग करते हैं। जाति भोजनके समय
शिष्यरूपसे खरीदते हैं । मुग्ध पुरुषोंको ठगते हैं । जिन- . मिष्टान्नको भी ग्रहण कर लेते हैं । श्राहारके लिये खुशा- प्रतिमाओंका क्रय-विक्रय करते हैं। उच्चाटन श्रादि मद करते हैं। पूछने पर भी सत्य धर्मका मार्ग नहीं मंत्रतंत्र भी करते हैं । डोरा धागा करते हैं। शासनबतलाते हैं। प्रातःकाल सूर्योदय होते ही खाते हैं। प्रभावनाकी भोटमें कलह करते हैं । योग्य साधुओंके
विकृति उत्पन्न करनेवाले पदार्थोंका भी बार बार पास जाने के लिये श्रावकोंको निषेध करते हैं । श्राप उपयोग करते हैं । केश-लुंचन भी नहीं करते हैं । श- श्रादि देनेका भय बतलाते हैं। द्रव्य देकर अयोग्य रीरका मैल उतारते हैं । साधु योग्य करणीय शुद्ध चा- शिष्यों को खरीदते हैं । ब्याजका धंधा करते हैं। श्र. रित्रके अनुरूप क्रियाओं को करते हुए भी लज्जित होते योग्य कार्यों में भी शासन-प्रभावना बतलाते हैं । प्रवहैं । अकारण ही कपड़ोंका ढ़ेर रखते हैं। स्वयं पतित चनमें कथन नहीं किये जानेपर भी ऐसे तपकी प्ररूपणा होते हुए भी दूसरोंको प्रायश्चित देते हैं । पडिलेहणा कर उसका महोत्सव करवाते हैं। स्वतः के उपयोगके (प्रतिलेखना) भी नहीं करते हैं । वस्त्र, शैय्या, जूते, लिये वस्त्र, पात्र आदि उपकरण और द्रव्य अपने श्रावाहन, आयुध, और तांबे श्रादिके पात्र रखते हैं। वकोंके घर इकटे करवाते हैं । शास्त्र सुनाकर श्रावकों से स्नान करते हैं। सुगंधित तेलका उपयोग करते हैं। धनकी अाशा रखते हैं । ज्ञानकोशकी वृद्धि के लिये धन श्रृंगार करते हैं । अत्तर फूलेल लगाते हैं। अमुक ग्राम इकट्ठा करते हैं और करवाते हैं । आपसमें सदैव संघ'ष
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वर्ष ३, किरण ४]
हरिभद्रसूरि
करते रहते हैं । अपनी-अपनी तारीफ करके अन्य सदा- परिवर्तन लानेका सफल प्रयास किया और पुनः सुधार चारीका विरोध करते हैं। सब ये नाम धारी साधु नि- मार्गकी नींक डाली । इस दृष्टिसे हरिभद्रसूरिका सायोंको ही उपदेश देते हैं । स्वच्छन्द रूपसे विचरण हित्यक्षेत्र में जो स्थान है; वैसा ही गौरवपूर्ण स्थान करते हैं। अपने भक्तके राई समान गुणको भी मेरु प्राचार-क्षेत्रमें भी समझना चाहिये। समान बतलाते हैं । विभिन्न कारण बतलाकर अनेक प्राचार्य हरिभद्रसूरि दीर्घ तपस्वी भगवान महाउपकरण रखते हैं । घर-घर कथाओंको कहते रहते हैं । वीर स्वामीके श्रद्धालु और स्थिर चित्तवाले 'अनुयायी सभी अपने आपको अहमिंद्र समझते हैं। स्वार्थ पाने थे। यही कारण है कि अपने समयमें जैन प्राचारोंकी पर नम्र हो जाते हैं और स्वार्थ पूरा होते ही ईर्षा रखने ऐसी दशा देखकर उन्हें हार्दिक मनोवेदना हुई । और लग जाते हैं । गृहस्थोंका बहुमान करते हैं। गृहस्थोंको उन्होंने अपने ज्ञानबल एवं चारित्रबल-द्वारा इस क्षेत्र में संयमके मित्र बतलाते हैं । परस्परमें लड़ते रहते हैं और पुनः दृढ़ता स्थापित की। शिष्यों के लिये भी कलह करते हैं।' इस प्रकार प्राचा- भगवान् महावीर स्वामीके उद्देश्यको पूर्ण करने, रविषयक शोचनीय पतनका वर्णन करते हुए अन्तमें उन्नत करने और विकसित करनेमें साधु संस्थाका बहुत प्राचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं, कि-"ये साधु नहीं हैं, ऊँचा स्थान है। इसके महत्व और गौरवको भुलाया किन्तु पेट भरनेवाले पेटु हैं। इनका (साधुओंका) यह नहीं जा सकता है। जैन-धर्म, जैन समाज और जैन कहना कि-"तीर्थकरका वेश पहिनने वाला वन्दनीय साहित्य आज भी जीवित है, इसका मूल कारण अहै" धिक्कार योग्य है, निन्दास्पद है।" प्राचार्यश्रीने धिकाँशमें यह साधु-संस्था ही है। इसकी पवित्रता ऐले साधुओंकी “निर्लज्ज, अमर्याद, क्रूर" श्रादि विशे- और आरोग्यतामें ही जैन संस्कृतिका विकास संनिहित पणोंसे गम्भीर निन्दा की है। ऐसा ही साधु चरित्र- है। किन्तु आजकी साधु-संस्थामें भी पुनः अनेक रोग चित्रण महानिशीथ, शतपदी आदि ग्रन्थों में भी पाया प्रविष्ट हो गये हैं । अतः पुनः ऐसे ही हरिभद्र समान जाता है।
एक महापुरुषकी आवश्यकता है; जोकि महावीर स्वामी ___ भगवान् महावीर स्वामी द्वारा प्रदर्शित प्राचार- के प्राचार क्षेत्रको फिरसे सुदृढ़, स्वस्थ, और आदर्श पद्धति एक आदर्श त्याग वृत्ति और असिधारा सम बना सके । अत्यन्त कठोर एक असाधारण निवृत्तिमय मार्ग है । 'संबोध-प्रकरण' में लिखित और अत्र उद्धृत यह इस मार्गमें सब प्रकार के दुःख, कठिनाइयाँ उपसर्ग चारित्र-पतन तत्कालीन चैत्यवासी संप्रदायके साधुओं एवं परिषह सहन करने पढ़ते हैं। स्वयं भगवान् महा- में पाया जाता था । यह संप्रदाय विक्रम संवत् ४१२ वीर स्वामीने अत्यन्त उग्ररूपसे इसका परिपालन · के आसपासमें उत्पन्न हुआ था; ऐसा धर्मसागर-कृत किया था। उसी श्रादर्श त्याग वृत्तिकी जैन साधुओं पट्टावलीसे ज्ञात होता है । चरित्र-नायकका काल द्वारा ही इस प्रकारको दशा की जाती हुई देखकर प्रा. विक्रम संवत् ७५७ से ८२७ तकका है, अतः मालूम चार्य हरिभद्रसूरिको मार्मिक एवं हार्दिक वेदना हुई। होता है कि संवत् ४१२ से ७५७ तकके कालमें इस प्राचार्यश्रीने विरोध होनेकी दशामेंभी इस स्थितिमें संप्रदायने अपने पैर बहुत मजबूत जमा लिये होंगे।
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अनेकान्त
हरिभद्रसूरि चैत्यवासी संप्रदाय के थे या अन्य संप्रदाय के, यह कह सकना कठिन है । किन्तु कोई २ इन्हें संप्रदाय ही मानते हैं । उस समय में चैत्य - वासी और वस्तिवासी ऐसे दो प्रबल दल उत्पन्न होगये थे । इन दोनोंके परस्परमें समाचारी विषयको लेकर काफी वाद-विवाद, वाकलह एवं संघर्ष चलता था, और इस प्रकार ये दो विरोधी दल हो गये थे- ऐसा ज्ञात होता है। अंतमें चैत्यवासी संप्रदाय विक्रम सं० १००० के आसपास समाप्त होगया और खरतर गच्छके संस्था - पक श्रीजिनेश्वरसूनेि अपने अनुयायियों के लिये वि० सं० १०८० में वस्तिवास स्थिर किया ।
. इस परिस्थितिके सिंहावलोकनसे हरिभद्रसूरिका काल जैन साहित्य, जैन संस्कृति और जैन आचार क्षेत्र में एक संक्रान्ति काल कहा जा सकता है। अतः हरिभद्रसूरिका आविर्भाव जैन - इतिहास में श्रत्यन्त महत्वका स्थान रखता है । इसलिये यदि इन्हें "कलिकाल-सुधर्मा" कहा जाय तो यह युक्तिसंगत प्रतीत होगा । यही संक्षेप में आचार्यश्री के पूर्वकालीन और तत्कालीन साहित्यिक एवं आचार विषयक स्थितिकी स्थूल रूप रेखा है । अब धागे इनकी जीवनी और तरमीमांसा, साहित्य-रचना और तत्प्रभाव एवं निबन्ध से संबंधित अन्य अंगोंके संबंध में लिखनेका प्रयास करूँगा ।
* ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर संप्रदाय में विक्रमकी १५ वीं शताब्दि के श्रासपास या इसके कुछ पूर्व पुनः साधु संस्थामें चैत्यवासी जैसी स्थिति पैदा होगई होगी; इसीलिये श्राचारकी दृढ़ता के लिये धर्मप्राण लोकाशाहने षुनः वस्तिवासी अपर नाम स्थानकवासी संप्रदायकी नींव डाली है । - लेखक |
[माघ, वीर- निर्वाण सं० २४६६
'वीरशासनांक' पर कुछ सम्मतियाँ
(६) श्री बालमुकन्दजी पाटौदी 'जिज्ञासु,' किशनगंज कोटा
“अनेकान्तका विशेषांक मुझे मिल गया है । उसके गूढ़ साहित्य, गहरे अन्वेषण व पूर्णविचारसे लिखे गये लेखोंकी प्रशंसामें कुछ लिखनेके लिये मैं स्वयं अयोग्य हूँ – लिखनेकी शक्ति नहीं रखता । मैं इसे भले ही पूर्ण रूपेण न समझ पाऊँ परन्तु पढ़ता मैं उसे बड़े ध्यान से और बड़ी शान्तिसे हूँ। मैं उसे एकाग्र मनसे एकान्तमें पढ़कर बड़ा ही आनन्द लाभ करता हूँ। और हृदयसे मैं उसकी उन्नति चाहता हूँ और चाहता हूँ उसके सदैव निरन्तराय दर्शन |
जैन लक्षणावली लिखनेका आपका अनुष्ठान बहुत ही प्रशंसनीय ऐसे ग्रन्थकrint जैन संसार व जैनेतर संसारको बहुत बड़ी आवश्यकता है | यह ग्रन्थ जैन संसारके रत्नकी उपमा धारणकरने वाला होगा । इससे लोगोंकी बहुत बड़ी ज्ञानवृद्धि होगी ।"
“श्रीमान्की 'मीनसंवाद' नामक कविता बड़ी ही हृदयस्पर्शी हैं उसका यह वाक्य "गूंजी ध्वनी अंबरलोकमें यों, हा ! वीरका धर्म नहीं रहा है ! !" तो बड़ा ही हृदयमें चुभ जानेवाला और घुलजानेवाला है ।"
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জলক্ষ্মজিজ স্ট্রি সূক্ষ্মী শ্রাদ্ধ
[ ले०-श्री अगरचन्द्. नाहटा, सम्पादक 'राजस्थानी' ]
संसारके सारे समाज द्रुतगतिसे आगे बढ़ परिस्थितिका भलीभाँति अनुभवकर यथोचित मार्ग
रहे हैं, नवीन नवीन आदर्शोका अवलम्बन ग्रहण करें। जिन पुराने विचारोंसे अब काम नहीं कर उन्नति लाभ कर रहे हैं और एक-दूसरेसे चलता है उन्हें परित्याग कर नवीन मार्गग्रहण करें प्रतिस्पर्धा करते हुए घुड़दौड़-सी लगा रहे हैं, पर क्योंकि सभी काम परिस्थितिके आधीन होते हैं। हमारे जैनसमाजको ही न मालूम किस कालराहुने परिस्थितिका मुकाबला करने वाले व्यक्ति हैं प्रसित किया है कि उसकी आभा इस प्रगति-शील कितने ? आज नहीं कल उन्हें अन्ततः उसी मार्ग युगमें भी तिमिराच्छन्न है । उसकी कुम्भकर्णी पर आना पड़ेगा जिसे परिस्थिति प्रतिसमय बलनिद्रा अब भी ज्योंकी त्यों बनी हुई है.। विश्वमें वान बना रही है। जो संसारकी गतिविधिकी कहाँ कैसी उन्नति हो रही है, इसके जानने-विचारने ओरसे सर्वथा उदासीन रहकर उसकी उपेक्षा या की हमें तनिक भी पर्वाह नहीं है। विश्व चाहे तिरस्कार करेंगे वे पीछे रह जायंगे, और फिर कहीं भी जाय हम तो अपने • वर्तमान स्थानको पछतानेसे होना भी कुछ नहीं। क्योंकि घड़सवार नहीं छोड़ेंगे, ऐसा दुराग्रह प्रतीत हो रहा है । कई व्यक्तिको पैदल कभी नहीं पहुंच सकता। इसीलिये युवक धीरे धीरे पुकार कर रहे हैं, कुछ होहल्ला जैनधर्ममें 'अनेकान्त' को मुख्य स्थान दिया गया मचा रहे हैं, पर समाजके कानों पर जूं तक नहीं है-कहा गया है कि अपना दृष्टिकोण विशाल रेंगती । युवकोंको पद-पद पर विघ्न बाधाएँ उप- रखो, विरोधी के विचारोंको पचानेकी शक्ति संचय स्थित हैं, आए दिन तिरस्कारकी बोछारें उनके करो, देश-कालके अनुसार अपना मार्ग निश्चित धधकते हृदयकी ज्वालाको शान्त कर रही हैं । वे करो। पर हमें धर्मके बाहरी साधन ही ऐसी भूलअपनी हार मान कर मन मसोस कर बैठ जाते भुलैयामें डाल रहे हैं कि तत्वके आंतरिक रहस्य हैं ! कोई नवीन आदर्श उपस्थित किया जाता है तक पहुँचने ही नहीं देते । स्वयं नया मार्ग निर्धातो स्थान-स्थान पर उसका विरोध होता है, उस रण या उपयोगी श्रादर्श उपस्थित करनेकी शक्तिपर गम्भीर विचार नहीं किया जाता; तब आप ही सामर्थ्य हममें कहाँ ? दूसरेके उपस्थित किये हुए कहिये उन्नतिकी आशा क्या निराशा नहीं है ? आदर्शोका भी अनुसरण नहीं करते । न मालूम
जो व्यक्ति या समाज विश्वमें जीवित रहना वह सुदिन हमारे लिये कब आवेगा जब हम चाहता है उसके लिये आवश्यक है कि तत्कालीन अग्रगामी बनकर विश्व के सामने नवीन आदर्श
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अनेकान्त
स्थापन करेंगे । इस लेख में अन्य व्यक्तियों द्वारा उपस्थित किये हुए दो नवीन आदर्शों की ओर जैनसमाजका ध्यान आकर्षित करता हूँ। आशा है समाज के नेता एवं विद्वान्गण उनपर गंभीर विचार करेंगे ।
गत वर्ष इधर कलकत्ता आते समय रास्ते में आगरे ठहरा था तो वहाँकी 'दयालबाग' नामक संस्था आदर्शको देखकर दंग रह गया ! इतने थोड़े वर्षों में इतनी महती उन्नति सचमुच आश्चर्य - जनक है ! मनुष्य जीवनको सुखप्रद बनाने एवं बिताने की जो सुव्यवस्था वहाँ नजर आई वह भारतके सभी समाजोंके लिये अनुकरणीय बोध पाठ है । जीवनोपयोगी प्रायः सभी वस्तुएँ वहाँ प्रस्तुत की जाती हैं, और उस संस्थामें रहने वाले सभी लोगों को उन्हींका व्यवहार करना आवश्यक माना गया है। बड़े-बड़े बुद्धिशाली इन्जिनियर आदि कम वेतन में संस्थाको अपनी समझ कर कर्त्तव्य नाते सेवा कर रहे हैं। उनकी पवित्र सेवा एवं लगनका ही यह सुफल है कि थोड़े ही वर्षोंमें करोड़ों रुपयोंकी सम्पति वहाँ हो गई है और दिनोदिन संस्थाका भविष्य उज्ज्वल हो रहा है । संस्था में काम करने वाले सभी सुशिक्षित हैं, शिक्षाका प्रबन्ध भी बहुत अच्छा है एक-दूसरे में बहुत प्रेम है और सभी व्यक्ति स्वस्थ एवं सुखी दिखाई देते हैं ।
प्रतीत
।
धार्मिक संस्कारोंके सुदृढ़ बनाने के लिये संस्था में रहने वाले सभी व्यक्ति सुबह शाम नियत समय एकत्र होकर प्रार्थना, व्याख्यान श्रवण ज्ञानगोष्टी करते हैं। लाखों रुपयोंकी लागतका एक या मन्दिर बन रहा है । यद्यपि मैंने इस संस्थाका
[ माघ, वीरनिर्वाण सं० २४६६
केवल दो ही घंटे में अवलोकन किया था अतः उसके पूरे विवरण से मैं अज्ञात हूँ, फिर भी थोड़े समय में जो कुछ देखा उससे वह संस्था एक आदर्श संस्था प्रतीत हुई। जैन समाजकी स्तुति के इच्छुक व्यक्तियों को यहां से कुछ बोध ग्रहण करना चाहिये ।
इसी प्रकार एक बार आते समय दिल्ली में एक आदर्श मन्दिरको देखनेका सुअवसर मिला, उसका नाम है 'बिडला मंदिर ।' परवार बन्धुके सुयोग्य सम्पादक श्रीयुत् धन्यकुमारजी जैन भी साथ थे । निःसन्देह यह एक दर्शनीय देवस्थान है । भारतवर्ष में यह अपने ढंगका एक ही है । इस मंदिर से सर्व-धर्मसमभावका सुन्दर आदर्श-पाठ मिलता है । यद्यपि मुख्य रूपसे यह मंदिर बिड़ला जी के उपास्य श्री लक्ष्मीनारायणजीका है, पर वैसे सभी प्रसिद्ध धर्मोंके उपास्यदेवों-महापुरुषों कीमूर्तियाँ एवं चित्र इसमें अंकित हैं, स्थान स्थान पर प्रसिद्ध महापुरुषोंके उपदेश वाक्य चुन चुन कर उत्कीर्ण किये गये हैं, जिससे प्रत्येक दर्शन
वाले निसंकोचसे वहां दर्शनार्थ जा सकते हैं और सब एक साथ एक ही मंदिर में बैठकर अपने अपने उपास्य देवोंकी उपासना कर सकते हैं । कहां सर्व-धर्मसमभावका इतना ऊँचा आदर्श और कहां हमारा जैन समाज, जो दिगम्बर श्वे ताम्बर मूर्तियों एवं तीर्थोंके लिये लाखों रुपये व्यर्थ बरबाद कर रहा है । इस आदर्शका अनुसरणकर यदि हमारा जैन समाज थोड़ा-सा उदार होकर अपनी साम्प्रदायिक कट्टरताको कम करदे तो आज ही समाज उन्नति की ओर अग्रसर होने लगे । लाखों रुपयोंका व्यर्थ खर्च बच जाय और वे रुपये दयालबाग़-जैसी संस्थाके स्थापनमें, जैन
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वर्ष ३, किरण ४ ]
धर्म के प्रचार में, नवीन जैन बनाने में लगाये जाएँ तो कोई कारण नहीं कि हम विश्वमें गौरव प्राप्त नहीं कर सकें।
जैन समाजके लिए अनुकरणीय आदर्श
देहलीसे बनारस आने पर वहां के भेलुपुरेके जैन मन्दिरको देखकर प्रथम मुझे आनन्द एवं आश्चर्य हुआ कि वहां श्वेताम्बर जैन मंदिरमें श्वेताम्बर मूर्तियों के साथ साथ कई दिगम्बर मूर्तियां भी स्थापित हैं। पर पीछे से मालूम हुआ कि उसी के पास में दिगम्बर भाइयोंका एक और मंदिर है जिसमें बहुसंख्यक मूर्तियां हैं । यदि हमारे मंदिरों में दोनों सम्प्रदायोंकी मूर्तियाँ पासमें रखी रहें और हम अपनी अपनी मान्यतानुसार बिना एक दूसरेका विरोध किये समभाव पूर्वक पूजा करते रहें तो जो अनुपम आनन्द प्राप्त हो सकता है यह तो अनुभवकी ही वस्तु है । ऐसा होने पर हम एक दूसरे से बहुत कुछ मिल-जुल सकते हैं । आपसी विरोध कम हो सकता है, एक दूसरे के विधि-विधान से अभिज्ञ होकर जिस सम्प्रदायकी विधिविधान में जो अनुकरणीय तत्व नज़र आवे अपने में ग्रहण कर सकते हैं। एक दूसरेके विद्वान् आदि विशिष्ट व्यक्तियोंसे सहज परिचित हो सकते हैं। दोनों मंदिरोंके लिये अलग अलग जगहका मूल्य मकान बनानेकं खर्च, नौकर, पूजारी, मुनीम रखने आदिका सारा खर्च आधा हो जाय । अतः आर्थिक दृष्टिसे यह योजना बहुत उपयोगी एवं लाभप्रद है । पर हमारा समाज अभी तक इसके योग्य नहीं बना, एक दूसरे के विचारोंको हीन क्रियाकाण्डों को प्रयुक्त और सिद्धान्तों को सर्वथा भिन्न मान रहे हैं, इधर-उधर से जो कुछ साधारण मान्यता-भेद सुन रखे हैं उन्हींको बहुत
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महत्व देकर दिनोंदिन हम अधिकाधिक कट्टरता धारण कर रहे हैं । साधारणतया यही धारणा हो रही है कि उनसे हमारा मिलान -मेल हो ही नहीं सकता, उनकी धारणा सदा भ्रान्त है, पर वास्तव में वैसी कुछ बात है नहीं, यह मैंने अपने "दिगम्बर श्वेताम्बर मान्यता-भेद शीर्षक लेखमें जो कि 'अनेकान्तके' वर्ष २ अंक १० में प्रकाशित हुआ है, बतलाया है । हमारी वर्तमान विचारधाराको देखते हुए उपर्युक्त योजना केवल कल्पना- स्वप्नसी एवं असम्भवसी प्रतीत होती है, संभव है मेरे इन विचारोंका लोग विरोध भी कर बैठें, पर वे यह निश्चय से स्मरण रखें कि बिना परस्परके संगठन एवं सहयोग के कभी उन्नति नहीं होनेकी ।
श्वेताम्बर एक अच्छा काम करेंगे तो दिगम्बर उससे असहिष्णु होकर उसकी असफलताका प्रयत्न करेंगे । दिगम्बर जहां प्रचार कार्य करना प्रारम्भ करेंगे श्वेताम्बर वहां पहुँच कर मतभेद डाल देंगे । तब कोई नया जैन कैसे बन सकता है ? अन्य समाज में कैसे विजय मिल सकती है ? अर्थात हमारा कोई भी इच्छित कार्य पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सकता । उदाहरणार्थ दिगम्बर महावीर जयंती की छुट्टी के लिये या अन्य किसी उत्तम कार्य के लिये आगे बढ़ेंगे तो श्वेताम्बर समझेंगे कि हम यदि सहयोग देंगे और कार्य सफल हो जायगा तो यश उन्हें मिल जायगा अतः हम अपनी तूती अलग ही बजावें, तब कहिये सफलता मिलेगी कैसे ? सर्व प्रथम यह परमावश्यक है कि जो आदर्श कार्य हम दोनों समाजोंके लिये लाभप्रद है कमसे कम उसमें तो एक दूसरेको पूर्ण सहयोग दें । महावीर जयंती आदिके उत्सव एक साथ
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अनेकान्त
[माघ, वीर-निर्वाण सं० २४१६
मनावें तो उनकी शोभा द्विगुणित हो जाती है और की दशा अभी "निर्नायकं हतं सैन्यं" की हो रही आपसमें श्रेय एवं जानकारी बढ़ती है। है ! कौन किसकी सुनता है ? सब अपनी अपनी ____ मंदिरोंकी उपर्युक्त योजनाको अभी' अलग भी डफलीमें अलग अलग राग आलापते हैं। श्वेतारखदें तो अन्य कई ऐसे कार्य हैं जो दोनों समाजे म्बर दिगम्बर संस्थाएँअभी एक न हो सके तो यदि थोड़ीसी उदारतासे काम ले तो लाखों रुपये कमसे कम श्वेताम्बर समाजके तीन मुख्य सम्प्रबच सकते हैं। जैसे दि० श्वे० शिक्षा संस्थाओंको दाय तथा अन्य पार्टी बंदियाँ एक होनेको कटिबद्ध एक कर दिया जाय तो बहुतसा व्यर्थ खर्च बचता होजाँय और इसी प्रकार दि. समाजकी संस्थाएँ है। एक कलकत्ते में ही देखिये, केवल श्वेताम्बर भी, तो कितना ठोस कार्य हो सकता है। अनेकात समाजके तीनों सम्प्रदायोंकी तीन भिन्न २ शिक्षा के उपासक क्या आपसी साधारण मत भेदोंको संस्थाएँ हैं जिनको एक कर लेनेपर आधेसे भी नहीं पचा सकते ? अनेकान्त तो वह उदार सिद्धाकम खर्च में ठोस कार्य हो सकता है। जो जो सं- न्त है जहाँ वैर-विरोधको तनिक भी स्थान नहीं। स्थाएँ द्रव्याभावसे आगे नहीं बढ़ सकतीं वे उस विशालदृष्टि-द्वारा वस्तुके भिन्न भिन्न दृष्टिकोणोंको बचे हुए खर्चसे सहज ही उन्नति कर सकती हैं। उनकी अपेक्षासे समभावपूर्वक देख सकना, सभी इसी प्रकार काँन्फ्रेंस, परिषद् आदि अलग अलग की संगति बैठा लेना ही तो 'अनेकान्त' है। पर होते हैं उनमें हजारों रुपयोंका व्यय प्रतिवर्ष होता हमने उसके समझनेमें पूर्णतया विचार नहीं किया, है उन संगठन सभाओंका परस्परमें सहयोग नहीं इसीसे हमारी यह उपहास्य दशा हो रही है। होनेके कारण प्रस्ताव भी कोरे 'पोथीके बेंगण' की आशा है समाज-हितैषी सज्जनगण मेरे इन विभाँति काग़जी घोड़े रह जाते हैं। अन्यथा एक ही चारोंपर गम्भीरतासे विचार करेंगे । शासनदेव जैनकॉन्फ्रेस हो तो हजारों रुपयोंका खर्च भी बच दोनों सम्प्रदायोंको सद्बुद्धि दें, यही कामना है। जाय और काम भी अच्छा हो, पर हमारे समाज
'वीरशासनाङ्क पर सम्मति
(७) प्रो० जगदीशचन्द्रजी एम० ए० रुइया कालिज बम्बई'वीर शासनाङ्क मिला । कुछ लेख पढ़े, लेख संग्रह ठीक है । जैन समाजके लिए ऐसे पत्रकी बड़ी आवश्यकता थी । हर्ष है कि आप इस आवश्यकताको पूर्ण करनेके प्रयत्नमें लगे हुए हैं । ... 'जैन
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गोम्मटसार एक संग्रह ग्रन्थ है
[ लेखक5- पं० परमानन्द जैन शास्त्री
दिगम्बर
गम्बर जैन सम्प्रदाय के ग्रन्थकर्ता श्राचार्यों में आचार्य नेमिचन्द्र अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं । आप अपने समय के विक्रमकी ११वीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध ग्रन्थकार हो गये हैं, और धवल, महाधवल तथा जयधवल नामके महान् सिद्धान्त ग्रन्थों में निष्णात थे। इसीसे 'सिद्धान्त चक्रवर्ती' कहलाते थे । गंगवंशीय राजा राचमल्लके प्रधान सेनापति समरकेशरी वीर मार्तण्ड आदि अनेक उपाधियों से विभूषित राजा चामुण्डराय के श्राप विद्यागुरु थे । आपने उक्त तीनों सिद्धान्त ग्रन्थोंका और अपने समय में उपलब्ध अन्य कर्म साहित्यका दोहन करके जो गोम्मटसार रूप नवनीत निकाला है वह बड़े ही महत्वका है और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के उपलब्ध कर्म ग्रन्थोंसे बहुत कुछ विशेषता रखता है । इस गोम्मटसारके पठन-पाठनकी दि० जैनसमाजमें विशेष प्रवृत्ति है । आपने गोम्मटसार ( जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड ) के सिवाय, त्रिलोकसार, लब्धिसारकी भी रचना की है और 'कर्म प्रकृति' नामका एक ग्रन्थ भी इन्हींका बनाया हुआ कहा जाता है, परन्तु वह अभी तक मेरे देखने में नहीं आया ।
आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार के जीवनकाण्ड और कर्मकाण्ड नामक दोनों खण्डों में घटखण्डागम-सम्बन्धी जीवस्थान, क्षुद्रबंध, बंध स्वामित्व, वेदना और वर्गणा इन पांच विषयोंका संग्रह किया है । इसी कारण गोम्मटसारका दूसरा नाम 'पंचसंग्रह' प्रयुक्त हुआ जान पड़ता है । गोम्मटसारके जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड
रूप दोनों भागोंका संकलन करनेमें जिन ग्रन्थोंका उपयोग किया गया है यद्यपि वे सभी मेरे सामने नहीं हैं, परन्तु उनमें से जो ग्रन्थ इस समय उपलब्ध हैं, उनके. तुलनात्मक अध्ययनसे मालूम होता है कि उक्त काण्डों की रचनायें उन धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थोंके सिवाय, 'प्राकृत पंचसंग्रह' से भी विशेष सहायता ली गई है । इसके अतिरिक्त कर्मविषयक वह साहित्य भी संभवतः आचार्य नेमिचन्द के सामने रहा होगा जिस पर से श्राचार्य पूज्यपाद ने अपनी 'सर्वार्थसिद्धि' में कर्मसाहित्यसे सम्बन्ध रखनेवाली ऐसी कुछ गाथाएँ 'उक्तंच' रूपसे बिना किसी संकेत उद्धृतकी हैं। क्योंकि श्राचार्य पूज्यपाद द्वारा उधृत गाथाओं में से कुछ गाथाएँ आचार्य नेमिचन्द्र ने भी अपने ग्रन्थोमें संकलित की हैं, और अवशिष्ट गाथाएँ उपलब्ध दि० कर्म साहित्य में कहीं पर भी नहीं पाई जाती हैं। इससे किसी ऐसे ग्रंथका अनुमान होना स्वाभाविक है जिसपरसे ये गाथाएँ पूज्यपाद और नेमिचन्द्रने उद्धृत की हैं। और यह भी संभव है कि आचार्य नेमिचन्द्र ने पूज्यपाद के ग्रंथपरसे ही उन्हें लेलिया हो ।
गोम्मटसारका गम्भीर अध्ययन करने और दूसरे प्राचीन ग्रंथों के साथ तुलना करनेसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि गोम्मटसारको रचना करने में उन प्राचीन ग्रंथों परसे विशेष अनुकरण किया गया है । यहाँ तक उनके पद्योंको ज्योंका त्यों अथवा कुछ पाठ-भेदके साथ अपने ग्रन्थ में शामिल किया गया है । इसीलिये गोम्मट सार ग्रन्थ श्राचार्य नेमिचन्द्रकी बिल्कुल ही स्वतन्त्रकृति
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अनेकान्त
[माघ, वीरनिर्वाण सं०२४६६
मालूम नहीं होता किन्तु यह एक संग्रह ग्रन्थ है,जिसका रचना सुसम्बद्ध जान पड़ती है और अपने विषयको उक्त आचार्यने चामुण्डरायके निमित्त संकलन किया पूर्णतया स्पष्ट करती है। ग्रन्थमें प्रतिपादित विषयोंके था । गोम्मटसारके संकलित होने के बाद इसके पठन- लक्षण बहुत अच्छी तरह संकलित किये गये हैं जिनके पाठनका जैनसमाजमें विशेष प्रचार होगया और वह कारण यह ग्रन्थ सभी जिज्ञासुओंके लिये बहुत उपयहाँ तक बढ़ा कि गोम्मटसारको ही सबसे पुराना कर्म योगी होगया है। यद्यपि श्वेताम्बरीय प्राचीन चतुर्थ ग्रन्थ समझा जाने लगा। किन्तु जिन · महा बन्धादि कर्मग्रंथमें भी इसी विषयका संक्षिप्त वर्णन दिया हुआ प्राचीन सिद्धान्त ग्रन्थोंके आधारपर इसकी रचना हुई है परन्तु उसमें जीवकाण्ड जैसा स्पष्ट एवं विस्तृत कथी उनके पठन पाठनादिका बिल्कुल प्रचार बन्द हो थन नहीं और न उसमें इस तरह के सुसम्बद्ध लक्षणोंगया और नतीजा यह हुआ कि वे धवलादि महान् का ही समावेश पाया जाता है । इसी लिये प्रज्ञाचक्षु सिद्धान्त ग्रन्थ केवल नमस्कार करने की चीज़ रह गये। पं०सुखलाल जीने अपनी चतुर्थकर्म ग्रंथकी प्रस्तावनामें इसी कारण इसे ही विशेष अादर प्राप्त हुआ और उन जीवकाण्डको देखने की विशेष प्रेरणा की है । अस्तु । सिद्धान्तग्रन्थोंकी प्राप्ति के अभावमें इन्हें ही मूल सिद्धान्त
___पंचसंग्रह और जीवकाण्ड ग्रन्थ समझा जाने लगा । इसी ग्रन्थके कारण प्राचार्य नेमिचन्द्रकी अधिक ख्याति हुई और उनका यह संक- प्राकृत पंच संग्रहके 'जीवप्ररूपणा' नामके प्रथम लन जैन समाजके लिये विशेष उपयोगी सिद्ध हुआ। अधिकारकी २०६ गाथाओं से गोम्मटसार-जीवकाण्डमें अस्तु, गोम्मटसारकी रचनाके आधार के विषयमें कुछ १२७ गाथाएँ पाई जाती हैं। ये गाथाएँ प्रायः वे हैं विचार करना ही इस लेखका मुख्य विषय है। अतः जिनमें प्राण, पर्याप्ति आदि के विषयोंके लक्षण दिये सबसे पहले उसके जीव काँडके विषय में कुछ विचार गये हैं। इन १२७ गाथाश्रोंमेंसे १०० गाथाएँ तो वे किया जाता है।
ही हैं जिन्हें धवलामें आचार्य वीरसेनने उक्तं च रूपसे गोम्मटसारके जीवकाण्डमें जीवोंकी अशुद्ध दिया है और जिनका अनेकान्तकी गत तृतीय किरणमें अवस्थाका वर्णन किया गया है । गाथाओंकी कुल 'अतिप्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह' शीर्षकके नीचे परिचय संख्या ७३३ दी है । ग्रंथके शुरुमें मंगलाचरण के बाद दिया जा चुका है । शेष २७ गाथाएँ और उपलब्ध बीस अधिकारोंके कथनकी प्रतिज्ञा की गई है, और उन होती हैं । अतः ये सब गाथाएँ प्राचार्य नेमिचन्द्रकी बीस अधिकारोंका-जिनमें १४ मार्गणाएं भी शामिल बनाई हुई नहीं कही जा सकतीं। क्योंकि पंचसंग्रह हैं-ग्रन्थमें विस्तार पूर्वक कथन किया गया है । साथ गोम्मटसारसे बहुत पहलेकी रचना है। मालूम होता है ही अंतर्भावाधिकार और पालापाधिकार नामके दो कि श्राचार्य नेमिचन्द्र के सामने 'प्राकृत पंचसंग्रह' अधिकार और भी दिये गये हैं जिससे कुल अधिकारों- ज़रूर था और उसी परसे उन्होंने जीवकाण्डमें ये १२७ की संख्या २२ हो गई है जिनमें गाथाओंका और उन- गाथाएँ उद्धृत की हैं । पंचसंग्रहकी जो गाथाएँ जीवके प्रतिपाद्य विषयका स्पष्टीकरण, विवेचन एवं संग्रह काण्डमें बिना किसी पाठभेदके या थोड़ेसे साधारण बहुत ही अच्छे ढंगसे किया गया है । इसीलिये इसकी शब्द परिवर्तन के साथ पाई जाती हैं उनमेंसे नमूने के
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गोम्मटसार एक संग्र
वर्ष ३, किरण ४ ]
तौर पर दो गाथाएँ नीचे दी जाती हैं:णो इंदिसु विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि । जो सहदि जिणुतं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥ - प्रा० पंच सं० १,११ यो इंदियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वापि । जो सहदि जित्तं सम्माइट्ठी श्रविरदो सो ॥ - गो० जी०, २६ गट्ठा से सपमाश्रो वयगुणसी लोलिमंडियो गाणी | व समश्रो य खवो झाणणिलीणो हु अप्पमत्तो ॥
- प्रा० पंच सं०, १,१६ गट्ठासेसपमादो वयगुणसीलोलिमंडियो गाणी । अणुव समश्रो छ खवओो भाणणिलीणो हु धपमत्तो ॥ - गो० जी०, ४६ इन दो गाथाओं के सिवाय, प्राकृत पंचसंग्रहकी गाथाएँ नं० २, ३, ४, ६, ८, ६, १०, १२, १४, १५, १७, १८, १९, २०, २१, २३, २५, २७, २६, ३०, ३१, ३२, ३४, ४४, ४६, ४८, ५१, ५२, ५३, ५४, ५५, ५६, ५७, ६०, ६३, ६४, ७४, ७६, ८१, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ८६, ६०, ६१, ६२, ६३, ६५, ६७, १००, १०५, १०६, १०८, १०६, ११६, ११७, २१८, ११६, १२०, १२२, १२३, १२६, १२७, १२६, १३०, १३१, १३३, १३५, १३६, १३७, १३८, १३६, १४०, १४१, १४२, १४४, १४५, १४६, १४७, १४८, १४९, १५०, १५१ १५२, १५३, १५४, १५६, १५७, १५६, १६०, १६१, १६६, १७०, १७३, १७४, १७६, १७७, १७८, १७६, १८०, १८५, १६६, २०१, गोम्मटसार जीवकाण्ड में क्रमशः गाथा नं० २, ८, ६, १७, १८, २०, २२, २७, २७, ३३, ३४, ५१, ५२, ५४, ५६, ५७, ५८, ६२, ६३, ६४, ६५, ६८, ७०, ७०, ७२, ११८, १२६, १३२, १३३, १३४,
२६६
१३५, १३६, १३७, १४०, १४१, १४६, १५०, १५१, १६३, १७३, २०१, १८५, १६१, १२, १६५, १६६, १६७, २०२, २१७, २१८, २१६, २२०, २२६, २३१, २३८, २४२, २७३, २७२, २७४, २८१, २८८, २६८, ३०२, ३०३, ३०४, ३१४, ३६६, ४५६, ४६४, ४६६, ४७०, ४७१, ४७३, ४७४, ४७५, ४७६, ४७७, ४८१, ४८३, ४८४, ४८५, ४८८, ५०८, ५०६, ५१०, ५११, ५१२, ५१३, ५१४, ५१५, ५१६, ५५५, ५५७, ५५६, ५५८, ५६०, ६०४५, ६४६, ६५४, ६५५, ६६०, ६६१, ६६४, ६६५, ६७१, ६७३, ६७४, ६२८, ६६६, ६५२ परं पाई जाती हैं ।
प्राकृत पंचसंग्रहकी उपर्युक्त नम्बर वाली गाथाओंके अतिरिक्त जिन गाथाओंका जीवकाण्ड में थोड़ा-सा ) पाठभेद पाया जाता है उनमेंसे नमूने के तौर पर दो गाथाएँ नीचे दी जाती है:
जो तस बहाउ विरदो गोविरश्रो अक्खथावर बहाथो । पडिसमयं सो जीवो विरयाविरश्रो जिणेक्कमई ॥
- प्रा० पंच सं०, १,१३ जो तस बहाउ विरदो अविरदश्रो तहय थावर बहादो । एक समयम्हि जीवो विरदाविरदो जिणेक्कमई ॥ — गो० जी० ३१ मन्नंति जदो णिच्चं मणेण निउणा जदो हु जे जीवा । -मणउक्कडाय जग्हा तम्हा ते माणुसा भणिया ॥
-- प्रा० पंचसं०, १,६२ मांति जदो णिच्चं मणेण निउणा मणुकडा जम्हा । मन्भवाय सत्वे तम्हा ते माणुसा भणिदा ॥
- गो० जी० १४८ इन दो गाथाओं के अलावा पंच संग्रहकी गथाएँ नं० ५, २४, ४३, ४३, ६१,६४, ६६, ६८,६६, १०७, १२५, १६६, १८८ १८६ भी ऐसी ही हैं जो जीवकाँड
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३००
अनेकान्त
[माघ, वीर-निर्वाण सं० २०६६
में क्रमशः नं० १०, ६१, ११७, १२८, १४७, २३०, पंचसंग्रह और कर्मकाण्ड २३३, २३६, २४०, २७४, ४३७, ६४६. ५३३, ५३४ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, कर्म विषयक साहित्यका एक पर थोड़ेसे पाठ भेदके साथ उपलब्ध होती हैं। अपूर्व ग्रन्थ है। इसमें बंध, उदय, उदीरणा और
इनके सिवाय, एक गाथा जीवकाण्डमें पंचसंग्रह कर्मोंकी सत्ताका बहुत ही अच्छे तरीके पर वर्णन दिया की ऐसी भी पाई जाती है जो अधिक पाठ भेदको लिये गया है। साथ ही, कर्म क्या है, उनके कितने भेद हैं हुए है--उसका पूर्वार्ध तो मिलता है परन्तु उत्तरार्ध और उनका जीवके साथ कैसा संबंध होता है। किस नहीं मिलता। वह बदला हुआ है। किन्तु धवलाके जीवके कितनी प्रकृतियोंका बंध और उदयादि होते हैं । मुद्रित अंशमें वह पंचसंग्रहके अनुसार ही उपलब्ध
इन सबका विवेचन इसमें किया गया है। ग्रंथमें ६ होती है । वह इस प्रकार है:
अधिकार दिये हैं और मय प्रशस्तिके गाथात्रोंकी कुल अहिमुहनियमियबोहणमामिणिबोहियमणि दइंदियनं ।
संख्या ६७२ दी है । जब तक मेरे देखनेमें 'प्राकृत पंच
संग्रह' नहीं पाया था उस पमय तक मेरा यह खयाल बहु उग्गहाइणाखलु कयछत्तीसा-ति-सय-भेयं ॥ --प्रा० पंचसं०, १,१२१
था कि कर्म प्रकृतियोंका इस प्रकारका बटवारा कर देने.
वाला कोई अन्य प्राचीन कर्म ग्रन्थ भी श्राचार्य नेमिअहिमुहणिय णियबोहणमाभिणि बोहियमणिदइंदियजम्
चन्द्र के सामने रहा होगा, जिसपरसे उन्होंने संक्षिप्त रूपसे अवगहईहावायाधारणगा होति पत्तेयं ॥
गोम्मटसार कर्मकाँडका संकलन किया है । यद्यपि पंच--गो० जी०, ३०५
संग्रहका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे मालूम होता है मूलाचार और जीवकाण्ड कि कर्मकाँडकी रचनामें कुछ क्लिष्टता अागई है । परंतु
प्राकृत पंचसंग्रहमें वह सरलता बनी हुई है, इसलिये मलाचार दि. जैन समाजका एक मान्य ग्रन्थ है। उसके द्वारा अर्थ-बोध करने में कोई कठिनाई मालम इसके विषयमें, मैं एक लेख 'अनेकान्त' की द्वितीय नहीं होती । दूसरी विशेषता उसमें यह भी है कि जिस वर्षकी किरण नं. ५ में लिख चुका हूँ । इसी से यहाँ बातको पंचसंग्रहकार गाथाबर करने में कठिनाई समझते उसके विषयमें अधिक कुछ नहीं लिखा जाता । उसकी थे या उससे अर्थ बोध होने में कुछ क्लिष्टताका अनुभव कुछ गाथाएँ भी गोम्मटसार जीवकाण्डमें प्रायः ज्योंकी . करते थे उसे उन्होंने प्राकृत गद्यमें दे दिया है और त्यों रूपसे उपलब्ध होती हैं। अर्थात् मूलाचारकी साथमें अङ्क संदृष्ठि भी दे दी है, जिससे जिज्ञासुत्रोंको गाथाएँ नं० २२१, २२३, २२६, ३२८, ३१५, ३१६, उसके समझने में बहुत कुछ आसानी होगई है । फिर १०३४, १०३५, १०३६, १०३७, १०३८, १०३६, भी गोम्मटसार कर्मकाण्डमें कितना ही वर्णन पंचसंग्रह १०४०, ११०२, ११०३, ११४८,११५१ गोम्मटसार से भिन्न पाया जाता है। उदाहरण के लिये इंगिनी और जीवकाण्डमें क्रमशः नं० ११३, ११४, ८६, २२१, प्रायोपगमन सन्यास अादिका वर्णन तथा कोंका नो२२४, २२५, २५, ३६, ३७, ३८, ४०, ४१ ४२,८१, कर्मवाला कथन पंचसंग्रहमें नहीं है । इसी तरह कदली८२, ४२६, ४२६, पर पाई जाती हैं।
घात या अकाल मरण के कारणोंको सूचित करनेवाली
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वर्ष ३, किरण ४]
गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ है
गाथा भी उसमें नहीं है । इसके सिवाय,८७६ नं० की दिये हैं और फिर एक गाथा में उनके स्वभावको उदागाथा ३६३ मतोंका-क्रियावादी और प्रक्रियावादी श्रादि हरण द्वारा स्पष्ट किया है । इसके पश्चात् एक गाथामें केभेदोंका-और उसके बाद उनका संक्षिप्त स्वरूप १३ उत्तर प्रकृतियोंकी संख्या दी है और फिर प्राकृत गद्यमें गाथाओंमें दिया है, उसके अनन्तर दैववाद, संयोग- उनके नाम, भेद और स्वरूपको दिया है । अतः गोम्मवाद और लोकवादका संक्षिप्त स्वरूप देकर उनका टसार कर्मकाण्डकी अपेक्षा 'प्राकृत पंचसंग्रह' कर्ममिथ्यापना बताया है। साथ ही, उक्त मतोंके विवाद साहित्यके जिज्ञासुओंके लिये विशेष उपयोगी मालम मेटनेका तरीका बताकर उक्त प्रकरण को समाप्त किया होता है। है । यह सब कथन प्राकृत पंचसंग्रहमें नहीं है। इमसे गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी रचनापरसे एक बातका मालूम होता है कि ये सब कथन प्राचार्य नेमिचन्द्रने और भी पता चलता है और वह यह कि इसमें अधःदूसरे ग्रन्थों परसे लेकर या सार खींचकर रखे हैं। करण, अपूर्वकरण के लक्षणवाली गाथाएँ जो जीव... परन्तु गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी एक बात बहुत काण्डमें दी गई हैं, उन्हें कर्मकाण्डमें भी दुबारा मूल खटकती है और वह यह है कि गाथा नं० २२ में गाथाओंके साथ दिया गया है। इसके सिवाय, जो कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोंकी संख्या तो बताई है परन्तु गाथाएँ कर्मकाण्डमें १५५ नं० से लगाकर १६२ तक उन उत्तर प्रकृतियोंके स्वरूप और नाम आदिका क्रमशः दी हैं फिर उन्हीं गाथाओंको ६१४ नं0 से लेकर ६२१ कोई वर्णन नहीं किया गया है, जिसके किये जानेकी तक दिया है, जिससे ग्रंथम पुनरुक्ति मालूम होती है । खास ज़रूरत थी। हाँ, २३, २४ और २५ नं० की शायद लेखकोंकी कृपासे ऐसा हुआ हो। कुछ भी हो, गाथाश्रोंमें दर्शनावरण कर्मकी नौ प्रकृतियोंमें से स्त्यान- परन्तु इस कर्मकाण्ड के संकलन करने में 'प्राकृत पंचगृद्धि, निद्रा, निद्रा निद्रा, प्रचला और प्रचला-प्रचला संग्रह' से विशेष सहायता ली गई मालूम होती हैं। इन पाँच प्रकृतियोंका स्वरूप ज़रूर दिया है-शेषका क्योंकि पंचसंग्रहकी कुछ गाथाएँ कर्मकाण्ड में भी ज्योंनहीं दिया । इस कमीको संस्कृत टीकाकारने परा की त्यों अथवा कुछ थोड़ेसे शब्द परिवर्तन के साथ किया है । परन्तु प्राकृत पंचसंग्रहके 'प्रकृति समुत्कीर्तन' उपलब्ध होती हैं । उनमें से दो गाथाएँ यहाँ नमने के नामक द्वितीय अधिकारमें मंगलाचणरके बाद, कर्म तौर पर दी जाती हैं:प्रकृतियों के दो भेद बताकर पहले मूलप्रकतियों के नाम पडपडिहारसिमजाहलिचित्सकुलालभंडयारीणं । कदलीघात मरणके कारणोंका दिग्दर्शन करने जह एदेसि भावा तहवि य कम्मा मुणेयन्वा ॥
-प्रा० पंच सं० २, ३ वाली दो गाथाएँ प्राचार्य कुन्दकुन्दके 'भावपाहुड' में
" पडपडिहारसिमजाहलिचित्त कुलालभंडयारीणं । २५, २६.नम्बर पर पाई जाती हैं । उनमेंसे गोम्मटसार
जह एदेसि भावा तह विवेकम्मा मुणेयव्वा ॥ कर्मकाण्डमें २५ नं० की गाथा संग्रहकी गई है। इस
-गो० क०, २१ गाथाको श्राचार्य वीरसेनने अपनी धवला टीकामें भी
पयडीण मंतराए उवधाए तप्पदोस णिण्हवणे । 'उक्तं च' रूपसे दिया है और वह धवलाके मुद्रित भावरणदुभं भूमो बंधइअच्चासणा एय ॥ अंशमें पृष्ठ २३ पर छपी है।
--प्रा० पंच सं०, ४, २००
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३०२
अनेकान्त
[माध, वीर-निर्वाण सं० २०६६
पडिणीग मंतराए उवघादो तप्पदोस णिण्हवणे। चउवीस दु बावीसा सोलस एऊण जावणवसत्ता ॥ आवरणदुगंभूयो बंधदि अचासणाएवि ॥
-प्रा० पंचसं० ३, ७८ --गो० क० ८०० पणवरणा पण्णासा तिदान छादाल सत्ततीसा य । इसी प्रकार पंचसंग्रहकी २, ४, ५, २६, ४७, ५०, चदुवीसा बावीसा बावीसमपुव्वकरणोति ॥ २०१, २०२, २०३, २०४, २०५, २०६, २०७, २०८, थूले सोलसपहुदी एगणं जावहोदि दसठाणं। . २०६, २१०, २१७, २४०, २५१, ४१२, ४२३, ४२७, सुहुमादिसु दस णवयं णवयं जोगिम्मि सत्तेव ॥ ४२८, ४२६, ४३०, ४४५, ४५४, ४५५, ४६३, ४८८,
--गो० क० ७८६, ७६० ४८६, ४६५, ४६७, ५०१, ५०२, ५०३, ५०५, ५०६, अट्टत्तीससहस्सा बे चेव सयाहवंति सगतीसा । ५१३, ५३३, ५४७, ५५५, ७३६, नम्बरकी गाथाएँ पदसंखा णायव्वा लेस्सं पढि मोहणीयस्स ॥ गोम्मटसार कर्मकाण्ड में क्रमशः नं० २०, २२, ३५,
-प्रा० पंचसं०पत्र, ५५ २६४, २७६, २८१, ८०१, ८०२, ८०३, ८०४,८०५, अट्टत्तीससहस्सा बेरिणसया होंति सत्ततीसा य । ८०६, ८०७, ८०८, ८०६, ८१०, ४५५, १२२, ४६३, पयडीणं परिमाणं लेस्सं पडि मोहणीयस्स ।। १३६, १५२, १५४, १३४, १३५, १३६, १७८, १६३,
-गो क०, ५०५ १६४, १६५, १८३, १८२, ४८, १८५, १६२, २०७, इनके अलावा पंचसंग्रह के पत्र ५७ और ६१ की २०८, २०६, २११, २१५, २१०, ६३०, ४६३, ५०८, दो गाथाएँ और भी गोम्मटसारमें ७१०, और २७१ ७०५, नम्बर पर पाई जाती हैं।
नं० पर उपलब्ध होती हैं । और कुछ गाथाएँ ऐसी भी इनके अतिरिक्त जिनगाथाश्रोंमें कुछ पाठ-भेद पाई जाती हैं जिनका पूर्वार्ध तो मिलता है पर उत्तरार्ध पाया जाता है उन्हें नीचे दिया जाता है:- नहीं मिलता-वह बदला हुआ है । उन्हें लेख वृद्धि के
णामस्स य बंधोदयसंताणिगुणं पडुच्च य विभज। भयसे छोड़ा जाता है। तिगयोगे णय एत्थ दु भणियव्वं अस्थजुत्तीए॥ इस सब तुलना परसे मालूम होता है कि गोम्मट
-प्रा० पंच सं० पत्र ५६ सार एक संग्रह ग्रंथ है। और इसके संग्रह करने में णामस्स य बंधोदय सत्ताणि गुणं पडुच्च उत्ताणि। प्राचार्य नेमिचन्द्रने प्राकृत पंचसंग्रहसे विशेष सहायता पत्तेया दो सव्वं भणिदव्वं प्रत्थजुत्तीए ॥ ली है। .
--गो० क०, ६६५ । वीर सेवामन्दिर, सरसावा; पणवण्णा पण्णासा तेयाल छयालसत्त तीसाय । ता० १६-२-१९४०
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ZZIA JA ZA BABABABABASE BABABABABABA
BASSYAYASYA BABABASSSSSS AUT
मानव-धर्म
1
मानव-धर्म मानवोंसे, नहिं करना घृणा सिखाता है; मनुज-मनुजको एक बताता भाई-भाईका नाता हैं असली जाति-भेद नहि इनमें गो अश्वादि - जाति-जैसा ; शूद्र-ब्राह्मणी के संगमसे उपजे मनुज भेद, कैसा ? ॥ १ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये भेद कहे व्यवहारिक हैं; निज-निज कर्माश्रित, अस्थिर, नहिं ऊँच-नीचता - मूलक हैं । सब हैं अंग समाज-देहके क्या अन्त्यज, क्या आर्य महा; क्या चांडाल - म्लेच्छ, सब ही का अन्योन्याश्रित कार्य कहा ॥२॥ सब हैं धर्मपात्र, सब ही हैं पौरिकता के अधिकारी, धर्मादिक अधिकार न दे जो शूद्रोंको वह अविचारी । शूद्र तिरस्कृत पीडित हो निज कार्य छोड़ दें यदि सारा, तो फिर जगमें कैसी बीते ९ पंगु समाज बने सारा ॥ ३ ॥ गर्भवास ' जन्म समय में कौन नहीं अस्पृश्य हुआ ? कौन मलोंसे भरा नहीं ? किसने मल-मूत्र न साफ़ किया ? किसे अछूत जन्म से तब फिर कहना उचित बताते हो ? तिरस्कार भंगी - चमारका क्यों न लजाते हो ? || ४ || जाति-कुमद से गर्वित हो जो धार्मिकको ठुकराता है; वह सचमुच आत्मीय धर्मको ठुकराता न लजाता है । क्योंकि धर्म धार्मिक पुरुषोंके बिना कहीं नहीं पाता है;
करते
धार्मिकका अपमान इसीसे वृष- अपमान कहाता है ||५|| मानव-धर्मापेक्षिक सब हैं धर्मबन्धु अपने प्यारे; अपनों नहिं घृणा श्रेष्ठ है, हैं उद्धार - योग्य सारे । अतः सुअवसर -सुविधाएँ सब उन्हें मुनासिब देना है; इस ही से कल्याण उन्होंका औ' अपना भी होना है || ६ || बन करके 'युग-बीर' उठादो रूढ़ि-जनित संस्कारोंकापर्दा हृदय-पटलसे अपने दादो गढ़ हुंकारोंका । तब होगा दर्शन सुसत्यका, मानवधर्म - पुण्यमयका; जीवन सफल बनेगा तब ही, अनुगामी हो सत्पथका ||७||
"युगवीर” -
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तत्वार्थाधिगमभाग्य और पकलंक
[ले० - श्री० प्रोफेसर जगदीशचन्द्र, एम. ए. ]
ग्रा जसे सात-आठ वर्ष पहलेकी बात है जब मैं. मुद्दे पेश करना चाहते हैं, जिनसे जान पड़ता है
अकलंक के राजवार्त्तिक लिखते समय उनके सामने उमास्वातिका तत्त्वार्थाधिगम माध्य मौजूद था। और उन्होंने अपनी वार्त्तिकमें उसका उपयोग किया है:
(१) (क) 'बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च' दिगम्बरीय पाठ है । इसके स्थान में तत्त्वार्थ भाष्य- सम्मत पाठ है 'बन्धे समाधिको पारिणामिकौ । उक्त पाठ राजवार्त्तिककार के सामने मौजूद था । कलंक देव लिखते हैं:“समाधिकाविश्य परेषाँ पाठः - बंधे समाधिकौ पारिणामिकावित्यपरे सूत्रं पठति ।"
'बनारस हिन्दु युनिवर्सिटी में एम. ए. में पढ़ता था । उस समय श्रीमान् पं० सुखलालजीका उमास्वाति और तत्त्वार्थाधिगम भाष्य के सम्बन्ध में अनेकान्त ( प्रथमवर्ष कि०६ से १२) में एक लेख निकला, जिसे पढ़कर मनमें नाना विचार-धाराओं का उद्भव हुआ और इस विषय में विशेष अध्ययन करनेकी इच्छा बलवती हो उठी । संयोगवश अगले साल ही मुझे बहैसियत एक रिसर्च स्कालर के शाँतिनिकेतन जाना पड़ा, और वहाँ मुनि जिनविजयजी प्रोत्साहनसे मैंने तस्वार्थराजवार्त्ति कके सम्पादनका काम हाथमें ले लिया । इस ग्रंथके प्रकाशन की योजना सिंघी सीरिज में की गई। मैं पहलेसे ही राजवार्त्तिकपर अत्यन्त मुग्ध था । भाँडारकर इन्स्टिट्यूट पूना से राजवार्त्तिककी कुछ हस्तलिखित प्रतियाँ मँगाई गई और मैंने अपना काम शुरू कर दिया। दुर्भाग्यवश राजवार्त्तिक के नूतन और शुद्ध सं"स्करण के निकालने का कार्य तो पूर्ण न हो सका, लेकिन इसके बहाने मुझे कुछ लिखनेके लिये मनोरंजक सामग्री अवश्य मिल गई ।
(ख) दिगम्बर-परम्परा में 'द्रव्याणि' 'जीवाश्च' दोनों सूत्र अलग अलग हैं, लेकिन श्वेताम्बर-परम्परामें दोनों सूत्रों के स्थानपर एक सूत्र है - 'द्रव्याणि जीवाश्च' । इसपर राजवार्त्तिककार लिखते हैं- "एकयोग इति चेन्न जीवानामेव प्रसंगात् – स्यान्मतं एक एव योगः कत्तव्यः द्रव्याणि जीवा इत्येवं च शब्दाकरणात् लध्विरिति, तन्न, किं कारणं जीवानामेव प्रसंगात् । "
वर्त्तमानका मुद्रित राजवार्त्तिक कितना अशुद्ध है, और इतना शुद्ध होने पर भी कितने मज़ेसे दिगम्बर पाठशालाओंमें उसका अध्ययन-अध्यापन हो रहा है, इसकी कल्पना मुझे तब पहली बार हुई । बहुतसे स्थल तो ऐसे हैं जहाँ वार्त्तिककी टीका बन गई है और टीका वार्त्तिक बन गई है। खैर, इसके लिये तो स्वतंत्र लेख की ही श्रावश्यकता है। हम इस लेख में सिर्फ़ कुछ ऐसे
(ग) 'अवग्रहेहावायधारणाः' दिगम्बर-परम्पराका सूत्र है । तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के सूत्रोंमें 'वाय' के स्थान में 'पाय' है । इस पर कलंकदेव लिखते हैं"श्राह किमयमपाय उतावाय इत्युभयथा न दोषोऽन्यतरवचनेऽन्यतरस्यार्थगृहीतत्वात् ।” यहां अवाय और पाय दोनोंही पाठोंको कलंकने निर्दोष बताया है ।
(घ) 'अल्पारंभपरिग्रहत्वं मानुषस्य ' 'स्वभावमार्दवं च' ये दो सूत्र दिगम्बर-परम्पराके हैं । इनके स्थनामें श्वेताम्बर - परम्परा में एक सूत्र है - 'अल्पारंभ
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वर्ष ३, किरण ४ ]
परिग्रहस्व' स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य' । इस पर शंका करते हुए राजनार्त्तिककार कहते हैं- "एकयोगीकरणमिति चेन्नोंत्तरापेचत्वातर—यान्मतं एको योगो कर्तव्यः - अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवं मानुषस्येति ? तन, किं कारणं उत्तरापेक्षत्वात् ।"
इत्यादि रूप में राजवार्त्तिक में तत्त्वार्थ सूत्रोंके पाठभेदका अनेक स्थलों पर उल्लेख किया गया है । इससे यह बात स्पष्ट है कि उनके सामने कोई दूसरा पाठ अवश्य था, जिसे अकलंकने स्वीकार नहीं किया ।
(२) यह शंका हो सकती है कि सूत्रपाठ में भेद होने का जो कलंकने उल्लेख किया है, उससे यही सिद्ध होता है कि उनके सामने कोई दूसरा सूत्रपाठ
(क) अपि च तंत्रांतरीया असंख्येयेषु लोकधावसंख्येया पृथिवीप्रस्तारा इत्यव्यवसिताः । तत्प्रतिषेधार्थं च सप्तग्रहणमिति ।"
- तत्त्वार्थ० भाष्य (३-१)
गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ है
(ख) "तत्रात्रवैर्यथोक्तैर्नारिकसंवर्तनी - यैः कर्मभिरसंज्ञिनः प्रथमायामुत्पद्यन्ते । सरीसृपा द्वयोरादितः प्रथमद्वितीययोः एवं पक्षिणस्तिसृषु । सिंहाश्चतसृषु । उरगाः पंचसु । स्त्रियः षट्सु । मत्स्य मनुष्याः सप्तस्विति । न तु देवा नारका वा नरकेधूपपत्ति प्राप्नुवंति ।"
- त० भाष्य ( ३-८.
था, जिसे दिगम्बर लोग न मानते थे, लेकिन इससे यह नहीं कहा जा सकता कि वह सूत्रपाठ तत्त्वार्थाधिगम-भाष्यका ही था । संभव है वह अन्य कोई दूसरा ही पाठ रहा हो
यह निर्विवाद है कि कलंक के सामने पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि मौजूद थी । तथा उन्होंने सर्वार्थसिद्धिको सामने रखकर हीं राजवार्त्तिकको लिखा है । निम्न लिखित तुलनात्मक उदाहरणोंसे हम यह बताना चाहते हैं कि राजवार्तिककार के समक्ष सर्वार्थसिद्धि तो थी ही, लेकिन उमास्वाति के तत्त्वार्थाधिगमभाष्यका भी उन्होंने काफ़ी उपयोग किया है:
सर्वार्थसिद्धि में इस
स्थान पर असंख्य लोकधातु श्रादिकी कोई चर्चा नहीं की
गई । यहाँ सिर्फ़
इतना ही कहा गया है "सप्तग्रहणं सं
ख्यान्तरनिवृत्यर्थं ।" - सर्वार्थ० (३१)
३०५
सर्वार्थसिद्धि में इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा गया है।
"संति हि केचित्तंांतरीया अनंतेषु लोकधातुष्वनंताः ध्यवसिताः ।" - राजवार्तिक ( ३- १)
पृथिवीप्रस्तारा इत्य
"थोत्पादः क केषामित्यत्रोच्यते-' प्रथमायामसंज्ञिन उत्पद्यते । प्रथमाद्वितीययोः सरीसृपाः । तिसृषु पक्षिणः । चतसृषूरगाः । पंचसु सिहाः । षट्सु स्त्रियः । सप्तसु मत्स्य मनुष्याः । देवनारका वा नरकेषु उत्पद्यते ।”
न च
- राज० ( ३-६ )
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३०६
(ग) (i) “अशुभनामप्रत्ययादशुभान्यङ्गोपांगनिर्माण संस्थान स्पर्शरसगंधव स्वराणि । हुण्डानि निलू नाण्डजशरीराकृतीनि क्रूरकरुणबीभत्स प्रतिभयदर्शनानि ।” (तoभाष्य ३ - ३, पृ०६६ पंक्ति १०-१२ ) ...
(ii) श्लेष्ममूत्रपुरीषत्रोतोमलरुधिरवसामेदपूयानुलेपनतलाः श्मशानमिव पूतिमांसकेशा स्थिचर्मदन्तनखास्तीभूमयः ।"
(त० भाष्य ३ ३, पृष्ठ ६६, पंक्ति ३-४)
(iii) "दीप्ताग्निराशिपरिवृतस्य
व्यम्रे नभसि ... या गुष्णनं दुःखं भवति ततोऽनन्तगुणं प्रकृष्टं कष्टमुष्णवेदनेषु नरकेषु भवति ।"
- (त० भाष्य ३-३, पृष्ठ६७ पंक्ति ३-४)
अनेकान्त
रिति ।"
(त० भाष्य ३-५ )
( इससे श्रागेका पाठ भी भाष्य और राजवार्तिक दोनों में क़रीब क़रीब समान
ही है) !
सर्वार्थसिद्धिमें यह
नहीं है ।
(घ) “ तद्यथा । तप्तायो रसपायन- "सुतप्तायोरसनिष्टप्तायः स्तम्भालिंगनकूटशात्मल्यग्रारो- पायननिष्टप्तायस्तंभापणावतारणायोधनाभिघातवासी चुरतच- लिंगनकूटशाल्मल्याणचारतप्ततैलाभिषेचनायःकुम्भपाकाम्बरी रोहणावतरणायोघनाभि पतर्जन यंत्रपीडनायः शूलशलाका भेदनक- घातवासी तुरतत्तणत्ताकचपाटनांगारदहनवाहनासूचीशा ड्वलापक- रतप्तर्तेला वसेचनायःकुर्षणैः तथा सिंहव्याघ्रद्वीपिश्वशृगालवृकको | म्भीपाकांबरीषभर्जन - कमार्जारनकुलसर्प वायसगृध्रकाकोलूकश्येना तरणीमज्जनयंत्र निष्पी - दिखादनैः तथा तप्तवालुकावतरणासिपत्र डनादिभिः ” वनप्रवेशनवैतरण्वतारण परस्परयोधनादिभिः सर्वार्थ० ( ३-५ )
[माघ, वीरनिर्वाण सं०२४६६
"अशुभनामप्रत्यया दशुभांगोपांगस्प रसगंघवर्णस्वराणि हुण्डसंस्थानानि लूनायडजशरीराकृतीनि क्रूरकरणबीभत्स - प्रतिभयदर्शनानि यथेह श्लेष्म मूत्रपुरीषमल - रुधिरवसामेदःपूयवमन पूतिमांस केशास्थिचर्मा शुभमौदारिकगतं.
.................
तद्यथा निदाद्ये मध्धाह्ने व्यभ्र नभसि ...... दीप्ताग्निशिखापरीतस्य
. यादगुध्यानं
दुःखं ततोप्यनंतगुणमुष्ण नरकेषु दुःखं
भवति ।” (राज०, ३-३ पृ० ११५ )
......
राजवार्तिक में 'भन' शब्द तक करीब-करीब सर्वार्थसिद्धिका ही अक्षरशः पाठ है, इसलिये यहाँ फिरसे नहीं दिया गया उसके श्रागेका पाठ भी भाष्यसे करीब-करीब अक्षरशः मिलता है ।
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वर्ष ३, किरण ४]
सम्पादकीय विचारण
(३) इतना ही नहीं, राजवार्तिककारने तत्त्वार्थ- सिद्ध सेनगणिविरचितायां अनगारागारिधर्मप्ररूपकः सप्तभाष्यकी पंक्तियाँ उठाकर उनकी वार्तिक बनाकर उन मोऽध्यायः ।" पर विवेचन किया है । उदाहरण के लिये 'श्रद्धासमय- (ख ) "कालोपसंख्यानमिति चेन्न वक्ष्यमाण प्रतिषेधार्थ च' यह भाष्यकी पंक्ति है ( ५.१.); इसे लक्षणत्वात्"-स्यादेतत् कालोऽपि कश्चिदजीवपदार्थों"श्रद्धाप्रदेशप्रतिषेधार्थ च" वार्तिक बनाकर इस पर ऽस्ति अतश्चास्ति यद् भाष्ये बहुकृत्वः षड्द्रव्याणि अकलंकका विवेचन है ( ५-१) । इत्यादि । इसी तरह इत्यक्तं अतोस्योपसंख्यानं कर्त्तव्यं इति ? तन्न, किं कारणं अकलंकदेवने भाष्यमें उल्लिखित काल, परमाणु आदि. वक्ष्यमाणलक्षणत्वात् ।" अर्थात् काल भी अजीव की मान्यताओं पर भी यथोचित विचार किया है। पदार्थ है, जिसका उल्लेख भाष्य में कई बार किया और उनसे अपने कथनकी संगति बैठानेका प्रयत्न
गया है, फिर आपने यहां उसका कथन क्यों नहीं किया है । अवश्य ही कहीं विरोध भी किया है । इससे
किया ? यह बात नहीं, क्योंकि उसकी चर्चा आगे ऊपरकी शंकाका निरसन हो जाता है, और इससे
चलकर होगी। मालूम होता है कि अकलंक के सामने कोई दूसरा सूत्र
(ग) मुद्रित राजवार्त्तिकके अन्तमें जो कारिकायें पाठ नहीं था, बल्कि उनके सामने स्वयं तत्त्वार्थ-भाष्य दी हैं. वे कारिकायें भी तत्त्वार्थभाष्यमें पाई जाती हैं। . मौजद था, जिसका उपयोग उन्होंने वार्तिक अथवा इसके अतिरिक्त पनाकी हस्तलिखित प्रतिमें जो इन वार्तिक के विवेचनरूपमें यथास्थान किया है।
कारिकाओंके अन्तमें कारिका दी है, वह इस तरह है:(४) नीचे कुछ उद्धरण ऐसे दिये जाते हैं, जिनमें अकलंक देवने भाष्यके अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख
इति तत्त्वार्थसूत्राणां भाष्यं भाषितमुत्तमैः । किया है, इतना ही नहीं उसके प्रति बहुमान भी
यत्र संनिहितस्तर्कः न्यायागमविनिर्णयः॥ प्रदर्शन किया है:
अर्थात्- 'उत्तम पुरुषोंने तत्त्वार्थसूत्रका भाष्य (क) उक्तं हि अर्हत्प्रवचने "द्रव्याश्रया निगुणा लिखा है, उसमें तर्क संनिहित है और न्याय श्रागमका गुणा" इति । यहाँ अर्हत् प्रवचनसे तत्त्वार्थभाष्यका ही निर्णय है।' यह कारिका बनारसकी मुद्रित राजवार्तिक अभिप्राय मालूम होता है । श्वेताम्बर विद्वान् सिद्धसेन प्रतिमें नहीं है । इससे जान पड़ता है कि अकलंकदेव तो गणि भी इसका 'अर्हत्प्रवचन' नामसे उल्लेख करते तत्त्वार्थाधिगमभाष्यसे अच्छी तरह परिचित थे, और वे हैं-- "इति श्रीमदर्ह त्प्रवचने तत्त्वार्थाधिगमे उमास्वाति- तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य के कर्ताको एक मानते थे। वाचकोपज्ञ सूत्रभाष्ये भाष्यानुसारिण्यां च टीकायाँ
र विद्वान् विशेष विचार करेंगे।
सम्पादकीय विचारणा इस लेखमें लेखक महोदयने जो विषय विद्वानोंके विचार करने के लिये आमंत्रित किया है-वह निःसन्देह विचारार्थ प्रस्तुत किया है-जिस पर विद्वानोंको विशेष बहुत विचारणीय है। लेखक के विचारानुसार उमा
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३०८
भनेकान्त
[माघ, वीर-निर्वाण सं० २१६६
स्वातिके तत्त्वार्थाधिगमसूत्रका जो भाष्य आजकल इस वाक्यमें जिस भाष्यका उल्लेख है वह श्वेताम्बरश्वेताम्बर-सम्प्रदायमें प्रचलित है वही भट्टाकलंकदेवके सम्मत वर्तमानका भाष्य नहीं हो सकता; क्योंकि इस सामने उपस्थित था, उन्होंने अपने राजवार्तिकमें उसका भाष्यमें बहुत बार तो क्या एक बार भी 'षड्व्याणि' यथेष्ट उपयोग किया है और वे उक्त भाष्य तथा मूल ऐसा कहीं उल्लेख अथवा विधान नहीं मिलता । इसमें तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताको एक व्यक्ति मानते थे। यह सब तो स्पष्ट रूपसे पांच ही द्रव्य माने गये हैं,जैसा कि पाँचवें बात जिस आधार पर कही गई है अथवा जिन मुद्दों अध्यायके 'द्रव्याणि जीवाश्च' इस द्वितीय सूत्रके (उल्लेखों श्रादि) के बल पर सुझानेकी चेष्टा की गई भाष्यमें लिखा है--"एत धर्मादयश्चत्वारो जीवाश्च है उन परसे ठीक -बिना किसी विशेष बाधाके- पंच द्रव्याणि च भवन्तीति” और फिर तृतीय सूत्र में फलित होती है या कि नहीं, यही मेरी इस विचारणाका आए हुए 'अवस्थितानि' पदकी व्याख्या करते हुए मुख्य विषय है।
इसी बातको इस तरह पर पुष्ट किया है कि-"न हि ___इसमें सन्देह नहीं कि अकलंक देवके सामने तत्त्वा- कदाचित्पंचत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति"अर्थात् ये द्रव्य र्थसूत्रका कोई दूसरा सूत्रपाठ ज़रूर था, जिसके कुछ कभी भी पाँचकी संख्यासे अधिक अथवा कम नहीं पाठोंको उन्होंने स्वीकृत नहीं किया । इससे अधिक होते। सिद्धसेन गणीने भी उक्त तीमरे सूत्रकी अपनी
और कुछ उन अवतरणों परसे उपलब्ध नहीं होता जो व्याख्यामें इस बातको स्पष्ट किया है और लिखा है लेखके नं० १ में उद्धृत किये गये हैं। अर्थात् यह कि 'काल किसीके मतसे द्रव्य है परन्तु उमास्वाति निर्विवाद एवं निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि वाचकके मतसे नहीं, वे तो द्रव्योंकी पाँच ही संख्या अकलंकदेवके सामने यही तत्त्वार्थभाष्य मौजद था। मानते हैं।' यथायदि यही तत्त्वार्थभाष्य मौजद होता तो उक्त नं० १ के कालश्चैकीयमतेन द्रव्यमिति वक्ष्यते,वाचकमुख्य'घ' भागमें जिन दो सूत्रोंका एक योगीकरण करके रूप स्य पंचैवेति ।" दिया है उनमें से दूसरा सूत्र 'स्वभावमार्दवं च'के स्थान ऐसी हालतमें यह स्पष्ट है कि अकलंकदेवके पर 'स्वभावमार्दवार्जवं च' होता और दोनों सूत्रोंके एक- सामने कोई दूसरा ही भाष्य मौजूद था । जब दूसरा ही योगीकरणका वह रूप भी तब 'अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्व. माष्य मौजूद था तब लेखके नं ०२में कुछ अवतरणोंकी भावमार्दवार्जवं च मानुषस्येति' दिया जाता; परन्तु ऐसा तुलना परसे जो नतीजा निकाला गया अथवा सूचन नहीं है।
किया गया है वह सम्यक् प्रतिभासित नहीं होता--उस ___ वास्तवमें नं० १ के कथन परसे जो शंका उत्पन्न दूसरे भाष्य में भी उस प्रकार के पदोंका विन्यास अथवा होती है और जिसे नं० २ में व्यक्त किया गया है वह वैसा कथन होसकता है । अवतरणों में परस्पर कहीं कहीं ठीक है, और उसका समाधान बाद के किसी भी कथन प्रतिपाद्य-विषय-सम्बन्धी कुछ मतभेद भी पाया जाता परसे भले प्रकार नहीं होता । चौथे नम्बर के 'ख' भाग है, जैसा नं० २ के 'क'-'ख' भागोंको देखने से स्पष्ट में राजवार्तिकका जो अवतरण दिया गया है उसमें जाना जाता है । ख-भागमें जब तत्त्वार्थभाष्यका प्रयुक्त हुए “यद्भाष्ये बहुकृत्वः षड्व्याणि इत्युक्तं' सिंहोंके लिये चार नरकों तक और उरगों (सर्पो) के
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वर्ष ३, किरण ४ ]
लिये पाँच नरकों तक उत्पत्तिका विधान है, तब राजवार्तिकका उरगोंके लिये चार नरकों तक और सिंहोंके लिये पाँच नरकों तककी उत्पत्तिका विधान है । यह मतभेद एक दूसरे के अनुकरणको सूचित नहीं करता, न पाठ-भेदकी किसी शुद्धि पर अवलम्बित है; बल्कि अपने अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्त-भेदको लिये हुए हैं । राजवार्तिकका नरकों में जीवों के उत्पादादि सम्बन्धी कथन 'तिलोयपत्ती' आदि प्राचीन दिगम्बर ग्रन्थोंके आधार पर अवलम्बित है * ।
यहाँ पर एक बात और भी जान लेने की है और • वह यह है कि श्री पूज्यपाद श्राचार्य सर्वार्थसिद्धि में, प्रथम अध्याय के १६ वें सूत्रकी व्याख्या में 'क्षिप्रानि: सृत' के स्थानपर 'क्षिप्रनिःसृत' पाठ भेदका उल्लेख करते हुए लिखते हैं
"अपरेषां चिप्रनिःसृत इति पाठः । त एवं वर्णयन्ति – श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दमवगृह्यमाणं मयूरस्य वा कुर trafa प्रतिपद्यते । "
जिस पाठभेदका यहाँ 'अपरेषां' पदके प्रयोगके साथ उल्लेख किया गया है वह 'स्वोपज्ञ' कहे जानेवाले उक्त तत्त्वार्थभाष्य में नहीं है, और इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि पूज्यपाद के सामने दूसरोंका कोई ऐसा सूत्रपाठ भी मौजूद था जो वर्तमान एवं प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य के सूत्रपाठसे भिन्न था। ऐसा ही कोई दूसरा सूत्रपाठ अकलंक देवके सामने उपस्थित जान पड़ता है, जिसमें
* देखो जैनसिद्धान्तभास्करके ५ वें भागकी तीसरी किरण में प्रकाशित 'तिलोयपण्णत्ती' का नरक विषयक प्रकरण, (गाथा २८१, २८६ आदि ) जिसमें वह विषय बहुत कुछ वर्णित है जो लेखीय नं० २ के अनेक भागों में उल्लेखित राजवार्तिकके वाक्यों में पाया जाता है।
गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ है
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"अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवं मानुषस्य " ऐसा सूत्रपाठ होगा - 'स्वभावमादेवं' की जगह 'स्वभावमार्दवार्जवं च ' नहीं । इसी तरह "बन्धे समाधिकौ पारिणाfast" सूत्रपाठ भी होगा, जिसके "समाधिकौ" पदकी अालोचना करते हुए और उसे 'आर्षविरोधि वचन' होनेसे विद्वानोंके द्वारा अग्राह्य बतलाते हुए 'अपरेषां पाठः' लिखा है -- यह प्रकट किया है कि दूसरे ऐसा सूत्रपाठ मानते हैं । यहाँ 'अपरेषां' पदका वैसा ही प्रयोग हैं जैसा कि पूज्यपाद आचार्यने ऊपर उद्धृत किये हुए पाठभेदके साथमें किया है । परन्तु इस 'समाधिको ' पाठभेदका सर्वार्थसिद्धिमें कोई उल्लेख नहीं, और इससे ऐसा ध्वनित होता है कि सर्वार्थसिद्धिकार श्राचार्य पूज्यपाद के सामने प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य अथवा तत्त्वार्थभाष्यका वर्तमानरूप उपस्थित नहीं था, जिसका 'स्वोपज्ञ भाष्य' होनेकी हालत में उपस्थित होना बहुत कुछ स्वाभाविक था, और न वह सूत्रपाठ ही उपस्थित था जो कलंक के सामने मौजूद था और जिसके उक्त सूत्रपाठको वे 'श्रार्षविरोधी' तक लिखते हैं, अन्यथा यह संभव मालूम नहीं होता कि जो श्राचार्य एकमात्रा तक के साधारण पाठभेदका तो उल्लेख करें वे ऐसे विवादापन्न पाठभेदको बिल्कुल ही छोड़ जावें ।
सिद्धसेन गणीकी टीकामें अनेक ऐसे सूत्रपाठोंका उल्लेख मिलता है जो न तो प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य में पाये जाते हैं और न वर्तमान दिगम्बरीय अथवा सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ में ही उपलब्ध होते हैं। उदाहरण के लिये “कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि” सूत्रको लीजिये, सिद्धसेन लिखते हैं कि इस सूत्र में प्रयुक्त हुए 'मनुष्यादीनाम्' पदको दूसरे ( परे ) लोग 'श्रनार्ष' बतलाते हैं और साथ ही यह भी लिखते हैं कि कुछ अन्य जन जो 'मनुष्यादीनाम्' पदको तो स्वीकार करते
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हैं वे इस सूत्रके अनन्तर "अतीन्द्रियाः केवलिनः" यह है और फिर इसकी व्याख्यामें लिखा है-"अद्धा शब्दो एक नया ही सूत्रपाठ रखते हैं * । यह सब कथन निपातः कालवाची स वषयमाणलक्षणः तस्य प्रदेशवर्तमानके दिगम्बर श्वेताम्बर सूत्र पाठोंके साथ प्रतिषेधार्थमिह कायग्रहणं क्रियते ।" इससे स्पष्ट है कि सम्बद्ध नहीं है। इससे स्पष्ट है कि पहले तत्त्वार्थसूत्रके उक्त वार्तिक सर्वार्थसिद्धि के शब्दोंपर ही अपना आधार अनेक सूत्रपाठ प्रचलित थे और वे अनेक प्राचार्य रखता है,और इसलिये यह कहना कि भाष्यकी 'श्रद्धापरम्परात्रोंसे सम्बन्ध रखते थे । छोटी-बड़ी टीकाएँ समयप्रतिषेधार्थ च' इस पंक्तिको उक्त वार्तिक बनाया भी तत्त्वार्थसूत्रपर कितनी ही लिखी गई थीं। जिनमेंसे गया है कुछ संगत मालूम नहीं होता । ऊपरके संपूर्ण बहुतसी लुप्त हो चुकी हैं और वे अनेक सूत्रोंके विवेचनकी रोशनीमें वह और भी असंगत जान पड़ता है। पाठभेदोंको लिये हुए थीं।
अब रही नं० ४ में दिये हुए प्रोफेसर साहबके दो ऐसी हालतमें लेखके नं० ३ में प्रोफेसर साहबने मुद्दों ( 'क-ग' भागों) की बात । 'उक्तं हि अर्हस्प्रवचने उक्त शंकाका निरसन होना बतलाते हुए, जो यह "द्रव्याश्रया निगुणा गुणा" इति' यह मुद्रित राजवातिनतीजा निकाला है कि "अकलंकके सामने कोई दूसरा कका पाठ ज़रूर है परन्तु इसमें उल्लेखित 'अर्हत्प्रवचन' सूत्रपाठ नहीं था, बल्कि उनके सामने स्वयं तत्त्वार्थभाष्य से तत्वार्थ भाष्यका ही अभिप्राय है ऐसा लेखकमहोमौजद था' वह समुचित प्रतीत नहीं होता । इसी तरह दयने जो घोषित किया है वह कहाँसे और कैसे फलित भाष्यकी पंक्तिको उठाकर वार्तिक बनाने श्रादिकी जो होता है, यह कुछ समझ नहीं पाता । इस वाक्यमें बात कही गई है वह भी कुछ ठीक मालूम नहीं होती। गुणोंके लक्षणको लिये हुए जिस सूत्रका उल्लेख है वह अकलंकने अपने राजवातिकमें पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थाधिगमसूत्रके पाँचवें अध्यायका ४०वाँ सूत्र है, . का प्रायः अनुसरण किया है। सर्वार्थसिद्धि में पाँचवें और इसलिये प्रकट रूपमें 'अर्हत्प्रवचन' का अभिप्राय अध्यायके प्रथम सूत्रकी व्याख्या करते हुए लिखा है- यहाँ उमास्वातिके मूल तत्त्वार्थाधिगमसूत्रका ही जान "काल. वचयते, तस्य प्रदेशप्रतिषेधार्थमिह कायग्रहणम्।” पड़ता है-तत्त्वार्थभाष्यका नहीं। सिद्धसेनगणीका इसी बातको व्यक्त करते हुए तथा काल के लिये उसके जो वाक्य प्रमाणमें उद्धृत किया गया है उसमें भी पर्याय नाम 'श्रद्धा' शब्दका प्रयोग करते हुए राजवा- 'अर्हत्प्रवचन' यह विशेषण प्रायः तत्वार्थाधिगमसूत्रके र्तिकमें एक वार्तिक "श्रद्धाप्रदेशप्रतिषेधार्थ च” दिया लिये प्रयुक्त हुआ है-मात्र उसके भाष्य के लिये नहीं।
* "अपरेऽतिविसंस्थलमिदमालोक्य भाष्यं विष- इसके सिवाय, राजवार्तिकमें उक्त वाक्यसे पहले यह ण्णाः सन्तः सूत्रे मनुष्यादिग्रहणमनार्षमिति संगिरन्ते"। वाक्य दिया हुआ है-"अर्हत्प्रवचनहृदयादिषु गुणोइदमन्तरालमुपजीव्यापरे वातकिनः स्वयमुपरभ्य सूत्र- पदेशात् ।" और तत्सम्बन्धी बार्तिकभी इस रूपमें दिया मधीयते-'अतीन्द्रियाः केवलिनः' येषां मनुष्यादीनां है-"गुणाभावा दयुक्तिरिति चेन्नाहत्प्रवचनहृदयादिषु ग्रहणमस्ति सूत्रेऽनन्तरे त एवमाहुः-मनुष्यग्रहणात् गुणोपदेशात् ।" इससे उल्लेखित ग्रन्थका नाम 'हत्प्रवकेवलिनोऽपि पंचेन्द्रियप्रसक्तेः अतस्तदपवादार्थमतीत्ये- चनहृदय' जान पड़ता है, जो उमास्वति-कर्तृ कसे भिन्न न्द्रियाणि केवलिनो वर्तन्त इत्याख्येयम् ।”
कोई दूसरा ही महत्वका ग्रन्थ होगा । बहुत संभव है कि
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सम्पादकीय विचारण .
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'महत्प्रवचनहृदये' के स्थान पर 'अर्हत्प्रवचने' छप गया अनादिकर्मसम्बन्धपरतंत्रो विमूढधीः । हो । इस मुद्रित प्रतिके अशुद्ध होनेको प्रोफेसर साहबने ___ संसारचक्रमारूढो बंभ्रमीस्यास्मसारथिः ॥१॥ स्वयं अपने लेखके शुरूमें स्वीकार भी किया है। अतः सत्वन्तर्बाह्यहेतुभ्यां भव्यारमा लब्धचेतनः । उक्त वाक्य में 'महत्प्रवचने' पदके प्रयोगमात्रसे यह न- सम्यग्दर्शनसद्रत्नमादत्त मुक्तिकारणम् ॥२॥ तीजा नहीं निकाला जासकता कि अकलंक देव के सामने मिथ्यात्वकर्दमापायात्प्रसन्नतरमानसः । वर्तमानमें उपलब्ध होनेवाला श्वेताम्बर सम्मत तत्त्वार्थ- ततो जीवादितत्त्वानां याथात्म्यमधिगच्छति ॥३॥ भाष्य मौजूद था, उन्होंने उसके अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख अहं ममास्रवो बन्धः संवरो निर्जराक्षयः । किया है और उसके प्रति बहुमान भी प्रदर्शित किया कर्मणामिति तत्वार्थस्रदा समवबुध्यते ॥४॥ है।' अकलंक देवने तो इस भाष्यमें पाये जानेवाले हेयोपादेयतत्त्वज्ञो मुमुक्षुः शुभभावनः । कुछ सूत्रपाठोंको आर्षविरोधी-अनार्ष तथा विद्वानोंके
सांसारिकेषु भोगेषु विरज्यति मुहुर्मुहुः ॥५॥ लिये अग्राह्य तक लिखा है । तब इस भाष्य के प्रति, इनके अनन्तर ही ‘एवंतत्वपरिज्ञानाद्विरक्तस्यात्मनो जिसमें वैसे सूत्रपाठ पाये जाते हों, उनके बहुमान-प्रद- भृशं' इत्यादि कारिकाएँ प्रारम्भ होती हैं। इन पाँचशेनकी कथा कहाँ तक ठीक हो सकती है, इसे पाठक कारिकाओंके साथ उत्तरवर्ती उन ‘एवं तत्त्वपरिज्ञा' स्वयं ,मझ सकते हैं ।
आदि कारिकाओं का कितना गाढसम्बन्ध है और इनके रानवार्तिकको मुद्रितप्रति के अन्तमें जो३२कारिकाएं बिना उक्त ३२ कारिकाओं में की पहली कारिका कैसी 'उक्तं च' रूपसे पाई जाती है वे उस दूसरे भाष्यपर अस्पष्टसी, असम्बद्धसी तथा कारिकाबद्ध . पूर्वककथनकी से ली हुई होसकती हैं, जिसके सम्बन्धमं राजवार्तिकमें अपेक्षाको रखती हुई मालूम होती है उसे बतलानेकी ही "बहुकृत्वः षड्व्याणि इत्युक्तं' ऐसा उल्लेख किया ज़रूरत नहीं, सहृदय विद्वान पाठक स्वयं समझ सकते गया है---अर्थात् यह बतलाया है कि उसमें बहत-बार हैं । अतः उन ३२ कारिकाओंके उद्धरणपरंसे यह नहीं छह द्रव्यों का विधान किया गया है और जिसकी चर्चा कहा जासकता कि अकलंकने उन्हें प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य लेखीय नं. ४ के ख-भागका विचार करते हुए ऊपर की परस हो लिया है। इन सब कारिकाके सम्बन्धमें जा चुकी है । वे प्रक्षिप्त भी हो सकती हैं अथवा दसरे किसी समय विशेष विचार प्रस्तुत करनेकी भी मेरी किसी प्राचीन प्रबन्धपरसे उधत भी कही जासकती है। इच्छा है । अस्तु । ऐमा एक प्राची। प्रबन्ध ® जयधवलामें उद्धत भी
अब रही राजवर्तिककी समाप्तिसूचक-कारिकाकी किया गया है, जिसके प्रारम्भकी पाँच कारिकाएँ बोत । इस कारिकाको मैंने अाजसे कोई २० वर्ष पहले निम्न प्रकार हैं:
श्राराके जैन सिद्धान्तभवनकी एक प्रतिपरसे मालूम
करके अपने नोटके साथ सबसे पहले 'जैन हतैषी' 28 इस प्रबन्धको उद्धृत करने के बाद जयधवलामें (भाग १५, अंक १-२, पृष्ठ ६) में प्रकट किया था । लिखा है-"एवमेत्तिएण पवंधेण णिज्वाण फलपजव- बादको यह अनेकान्तके प्रथम वर्षकी पाँचवीं किरणमें साणं" इत्यादि।
भी 'पुरानी बातोंकी खोज' शीर्षक के नीचे प्रकट की
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अनेकान्त
जा चुकी है। इसमें जिस 'भाष्यं' पदका प्रयोग हुआ है उसका अभिप्राय राजवार्ति नामक तत्वार्थभाष्य के सिवा किसी दूसरे भाष्यका नहीं है । वह 'तस्वार्थ सूत्राणां' पदके साथ तत्त्वार्थ-विषयकसूत्रों अथवा तत्त्वार्थशास्त्रपर ब हुए वार्तिकोंके भाष्यकी सूचनाको लिये हुए है । राजवार्तिक 'तत्त्वार्थभाष्य' के नामसे प्रसिद्ध भी है । धवलादि ग्रन्थोंमें 'उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये' जैसे शब्दों के साथ भाष्यके वाक्योंको उद्धृत किया गया है । पं० सुखलालजी तो इसे ही दिगम्बर सम्प्रदायका 'गंधहस्ति महाभाष्य' बतलाते हैं । इसीमें वह तर्क, न्याय और श्रागमका विनिर्णय अथवा तर्क, न्याय और आगमके द्वारा ( वस्तुत्वा विनिर्णय) संनिहित है जिसका उक्त कारिका में उल्लेख है -- 'स्वोपज्ञ' कहे जानेवाले तत्त्वार्थ भाष्यमें यह सब बात नहीं है । और कारिकामें प्रयुक्त हुए 'उत्तमै: ' पदका अभिप्राय ' उत्तमपुरुषों' से इतना संगत मालूम नहीं होता जितना कि 'उत्तम पदों' के
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साथ जान पड़ता है । प्रसन्नादि गुणविशिष्ट उत्तम पदोंके द्वारा इस भाग्यका निर्माण हुआ है, इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं है । यदि उत्तम पुरुषोंका ही अभिप्राय लिया जाय तो उसके वाच्य स्वयं अकलंक देव हैं । ऐसी हालत में इस कारिका परसे जो नतीजा निकाला गया है वह नहीं निकाला जा सकता - अर्थात् यह नहीं कहा जा सकता कि 'कलंकदेव वर्तमान में उपलब्ध होनेवाले इस श्वेताम्बरीय तत्वार्थाधिगम भाष्यसे अच्छी तरह परिचित थे और वे तत्त्वार्थ सूत्र और उसके इस भाष्य के कर्ताको एक मानते थे तथा उसके प्रति बहुमान प्रदर्शित करते थे । '
आशा है इस सब विवेचन परसे प्रोफ़ेसर साहब तथा दूसरे भी कितने ही विद्वानोंका समाधान होगा और वे इस विषयपर और भी अधिक प्रकाश डालनेकी कृपा करेंगे | इत्यलम् |
वरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० १५-२-१६४०
२॥) रु० ।
साहित्य - परिचय र समालोचन
(१) उर्दू-हिन्दी कोश - संयोजक एवं सम्पादक पं० रामचन्द्र वर्म्मा (सहायक सम्पादक 'हिन्दी शब्दसागर' और सम्पादक 'संक्षिप्त शब्द-सागर' ) । प्रकाशक, पं० नाथूराम प्रेमी मालिक हिन्दी ग्रंथ - रत्नाकर कार्यालय हीराबाग, बम्बई नं० ४ | बड़ा साइज़, पृष्ठ संख्या, सब मिलाकर ४४० । मूल्य, सजिल्दका
यह कोश प्रकाशक महोदय पं० नाथूरामजीकी प्रेरणापर तय्यार हुआ है। बड़ा ही सुन्दर तथा उपयोगी है। इसमें उर्दू के शब्दों को, जिनमें अक्सर अरबी फ़ार्सीतुर्की आदि भाषाओं के शब्द भी शामिल होते हैं, देवनागरी अक्षरों में दिया है । साथमें यथावश्यकता भाषाके निर्देशपूर्वक शब्दोंके लिंग तथा वचनादि-विषयक व्याकरणकी कुछ विशेषताओंका भी उल्लेख किया है और
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वर्ष ३, किरण ४]
साहित्य परिचय और समालोचन
फिर हिन्दीमें अच्छा स्पष्ट अर्थ दिया है। इससे यह लेकर २० वीं शताब्दी तकके काव्यों, गीतों, रासों कोश हिन्दी पढ़ने लिखनेवालोंके लिये एक बड़ी ही प्रादिका संग्रह किया गया है । काग्य प्रायः हिन्दी कामकी चीज़ होगया है। इसके लिये लेखक और प्रेरक राजस्थानी, गुजराती और अपभ्रंश भाषामें है । कुछ दोनों ही धन्यवादके पात्र हैं।
नमूने संस्कृत और प्राकृतके भी दिये हैं । काव्यकार आज-कल हिन्दी भाषामें बहुत करके उद के शब्दों- प्रायः खरतर गच्छीय श्वे. साधु हैं-कुछ तपागच्छीय का और उर्दूकी कविताओं का प्रयोग होने लगा है- भी हैं । काव्योंमें कितना ही ऐतिहासिक वर्णन है और हिन्दुस्तानी भाषा दोनोंके मिश्रणसे बन रही है और इसलिये ग्रंथका 'ऐतिहासिक जैन-काव्य-संग्रह' नाम बहुत पसन्द की जा रही है। जो लोग उर्द नहीं जानते सार्थक जान पड़ता है। उन्हें आधुनिक पत्रों तथा पुस्तकोंके ठीक प्राशयको भाषा-विज्ञानका अध्ययन करने वालोंके लिये यह समझने में कभी-कभी बढ़ी दिक्कत होती है और यदि ग्रंथ बढ़ा ही उपयोगी है । इससे ८०० वर्ष तक सुन-सुनाकर वे कभी कोई उर्दूका शब्द बोलते या काव्योंकी रचना-शैली शताब्दीवार सामने आजाती है लिखते हैं और वह शुद्ध बोला या लिखा नहीं जातातो और उसपर से हिन्दी-भाषाके क्रमविकासका कितना पढ़ने-सुनने वालोंको बुरा मालूम होता है, और कभी- ही पता चल जाता है और अनेक प्रान्तीय भाषाओंका कभी उसके कारण शरमिन्दगी भी उठानी पड़ती है। थोड़ा-बहुत बोध भी हो जाता है । ग्रंथमें काव्योंका ऐसी हालतमें ऐसे कोशका पासमें होना बड़ा ज़रूरी है सार देते हुए काव्यकारों आदिका अच्छा परिचय दिया इसमें १०१६० शब्दोंका अच्छा उपयोगी संग्रह है, है, कठिन शब्दोंका कोष भी लगाया है, काव्योंमें पाए लेखक अथवा संयोजककी प्रस्तावना भी बड़ी महत्वपर्ण हुए विशेष नामोंकी सूची भी अलग दी है। और भी कुछ है. और वह कोशके अनेक विषयों पर अच्छा प्रकाश सूचियाँ दी हैं, साथ में प्रो० हीरालाल जी जैन, एम. ए. डालती है । काग़ज़ तथा बम्बईकी छपाई सफाई और अमरावतीकी ८ पेजकी प्रस्तावना भी है, इन सबसे गेट-अप सब उत्तम है। जिल्द खूब पुष्ट तथा मनोमोहक इस ग्रंथकी उपयोगिता खूब बढ़ गई है । सम्पादकोंने है । मूल्य भी अधिक नहीं है । पुस्तक सब प्रकारसे इस ग्रन्थकी सामग्री और संकलनमें जो परिश्रम किया संग्रह किये जाने और पासमें रखने के योग्य है ।
है, वह निःसन्देह प्रशंसनीय है और उसके लिये वे ऐतिहासिक जगत एवं साहित्यिक संसार दोनों हीके द्वारा
धन्यवादके पात्र हैं । ग्रंथकी छपाई-सफाई और जिल्द (२) ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह-सम्पादक बधाई उत्तम है। 14 चित्र भी साथमें लगे हैं, यह सब अगरचन्द नाहटा और भंवरलाल नाहटा । प्रकाशक- देखते मल्य बहुत कम जान पडता है। और वह शंकरदान शुभैराज नाहटा, नं० ५-६ पारमेनियन स्ट्रीट सम्पादक महोदयों तथा प्रकाशक महानुभावोंके विशिष्ट कलकत्ता । साइज, २०४३०, १६ पेजी, पृष्ठ संख्या साहित्य-प्रेम एवं सेवा-भावका द्योतक है । आपका यह सब मिलाकर ६६२ मूल्य सजिल्द १) रु०।
सत्प्रयत्न दिगम्बर समाजके उन धनिकों तथा विद्वानों इस सचित्र ग्रन्थमें विक्रमकी १२ वीं शताब्दीसे के लिये अनुकरणीय है, जो अपने इधर-उधर बिखरे
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[माघ, वीर निर्वाण सं० २५६६
हुए साहित्यकी ओर बिल्कुल ही पीठ दिये हुए हैं और करके जैन विधिसे बृहत् शान्तिविधान कराया था, उसके प्रति अपना कुछ भी कर्तव्य नहीं समझते हैं। जिसमें सोने, चान्दीके कलशोंसे सुपार्श्वनाथ भगवानका
अष्टोत्तरी स्नान (अभिषेक) हुआ था और इस महो ___(३) युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि-लेखक
त्सवमें एक लाख रुपयेके करीब खर्च हुआ था । पूजन अगर चन्द नाहटा और भंवरलाल नाहटा । प्रकाशक
समाप्तिके अनन्तर मंगल दीपक और भारतीके समय शंकरदान शुभैराज नाहटा, नं० ५ ६ श्रारमेनियन स्ट्रीट
स्वयं सम्राट अकबर अपने पुत्र शाहजादे सलीम तथा कलकत्ता । साइज २०४३० १६ पेजी । पृष्ठ संख्या
अनेक मुसाहिबोंके साथ शान्ति विधानके स्थानपर उपसब मिलाकर ४५२ । मूल्य सजिल्द १) रु०।
स्थित हुआ था और उसने १० हजार रुपये जिनेन्द्र
भगवानके सन्मुख भेंटकर प्रभुभक्ति तथा जिनशासनका इस ग्रन्थका विषय इसके नामसे ही प्रकट है। गौरव बढ़ाया था। साथ ही, शान्तिके निमित्त अभिग्रन्थमें १७ वीं शताब्दीके विद्वान आचार्य युग प्रधान षेक जलको अपने नेत्रोंपर लगाया और अन्तःपुरमें श्री जिनचन्द्र जी का परिचय बड़ी खोजके साथ दिया भी भक्तिपूर्वक लगाने के लिये भेजा था। कहते हैं इस गया है । आप अपने समयके बड़े ही प्रभावशाली अष्ठोत्तरी अभिषेकके अनुष्ठानसे सर्वदोष उपशान्त हुए, प्राचार्य थे, सम्राट अकबर आपके प्रभावसे बहुत प्रभा- जिससे सम्राट्को परम हर्ष हुआ और वह जिनधर्मका वित हुआ था और उसने अपने राज्यमें कितने ही दिन और अधिक भक्त बना । मालूम नहीं यह घटना कहाँ हिसा न किये जाने के लिये घोषित किये थे और फिर तक सत्य है; परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि अकबरके
आपका अनुकरण करके दूसरे राजाओंने भी कुछ-कुछ समयमें जैनधर्मका प्रभाव बहुत कुछ व्यापक हुआ था. दिनोंके लिये अपने राज्योंमें अमारिकी (किसी जीवको और उसके अनुयायियोंकी संख्या तब करोड़ोंकी कही न मारनेकी) घोषणा की थी और इससे जैन-धर्मकी जाती है । यह सब सच्चरित्र एवं विद्वान साधु सन्तोंके बड़ी प्रभावना हुई थी। और भी कितनी ही अनुकूलताएँ प्रभावका ही फल है । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ महामहोपाजैनियोंको अकबरके राज्यमें आपके प्रतापसे प्राप्त हुई ध्याय पं० गौरीशंकर होराचन्दजी अोझा महोदय ने, थीं। यह सब वर्णन इस ग्रंथमें शाही फर्मानोंकी नकल पुस्तकपर दी हुई अपनी सम्मतिमें, स्पष्ट स्वीकार किया के साथ दिया हुआ है । एक खास घटनाका भी इसमें है कि इन सूरिजीका उपदेश उस समयके तत्कालीन उल्लेख है और वह यह है, कि- अकबरके पुत्र सलीम मुग़ल बादशाह अकबरने सुनकर अपने साम्राज्यमेंसे के घर लड़की मूल नक्षत्रके प्रथम पादमें पैदा हुई थी, हिंसावृत्ति बहुत कुछ रोक दी थी । इनकी तपस्या ज्योतिषियोंने उसका फल शहजादा सलीमके लिये और त्यागवृत्ति ने बादशाहका चित्त जैनधर्मकी ओर अनिष्टकारक बतलाया था और लड़कीका मुँह न देखने खींच लिया था, जिससे जैनधर्मका विकास होकर तथा उसका जल-प्रवाह कर देने आदिके द्वारा परित्याग उस तरफ उत्तरोतर आस्था बढ़ती जाती थी । फलतः की व्यवस्था दी थी। तब इस दोषकी उपशान्तिके लिये बादशाह अपने यहाँ प्रायः जैनसाधुओंको बुलाकर उनसे अकबरने अपने मन्त्रीश्वर कर्मचन्द बच्छावतसे परामर्श उपदेश ग्रहण किया करता था। वह जैनसमाजके लिये
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वर्ष ३, किरण ४ ]
स्वर्णयुग था और कर्मचन्द बच्छावत जैसे श्रावक उसमें मौजूद थे।"
साहित्य परिचय और समालोचन
यह ग्रन्थ बहुतसे ग्रन्थोंकी सहायता से तैय्यार हुआ है, जिनकी एक विस्तृत सूची साथमें दी गई है । साथ ही श्री मोहनलाल देवीचन्द देशाई एडवोकेट बम्बईकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना से भी अलंकृत है, जिसकी पृष्ठ संख्या ७१ है और अन्त में ४८ पृष्ठोंपर ग्रन्थ में आए हुए विशेष नामकी सूचीको भी लिये हुए है, जिन सबसे ग्रन्थकी उपयोगिता बढ़ गई है। कागज़, छपाई, सफ़ाई तथा जिल्द उत्तम है । मूल्य एक रुपया बहुत कम है और वह लेखक महोदयों तथा प्रकाशक जीकी गुरुभक्ति एवं साहित्य प्रीतिको स्पष्ट घोषित करता है, और साथ ही दूसरोंके लिये सेवाभावसे कमी मूल्यका श्रदर्श भी उपस्थित करता
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(४) विधवा - कर्तव्य - लेखक अगरचंद नाहटा । प्रकाशक, शङ्करदान भेरुंदान नाहटा, नाइटोंकी गवाड़, बीकानेर | साइज़ २०X३०, १६ पेजी | पृष्ठ संख्या, ६२ । मूल्य, दो थाना ।
इसमें सबसे पहले 'विधवा- कुलक' नामका एक दशगाथात्मक प्राकृत प्रकरण भावार्थ तथा विवेचनसहित दिया गया है । यह प्रकरण पाटनके भण्डार से ताड़पत्रपर लिखा हुआ उपलब्ध हुआ है और इसमें वि
वाको शील रक्षा के लिये क्या क्या काम नहीं करने चाहियें, इस विषयका अच्छा उपदेश दिया है । विवेचन कहीं कहीं पर मूलकी स्पिरिटसे बाहर भी निकला हुजान पड़ता है; जैसे केशोंका संस्कार अथवा पुष्पादिसे शृङ्गार न करनेकी बात कही गई थी, तब विवेनमें "विधवाओं को केश रखने भी न चाहियें” यहाँ
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तक कहा गया है और प्रमाण में 'अश्वारूढं पतिं दृष्ट्वा ' नामका एक श्लोक उद्धृत किया गया है, जिसमें केश सहित विधवा स्त्रीको भी देखनेपर सबस्न स्नान करने की बात कही गई है । यह श्लोक कहाँका और किसका है, यह कुछ बतलाया नहीं - ऐसी ही हालत विवेचन में उद्धृत दूसरे पथोंकी भी है। इसमें सकेशा विधवाको देखने पर जिस प्रायत्तकी बात कही गई है वह जैन
नीति के साथ कुछ संगत मालूम नहीं होती । अस्तु, उक्त कुलकके विवेचनादिके अनन्तर पुस्तक में 'विधवाकर्तव्य' नामका एक स्वतंत्र निबन्ध दिया हुआ है, जिसमें लेखक ने अपने विचारानुसार विधवाओंों, घरवा - लों तथा समाजको भी बहुतसी अच्छी शिक्षाएँ दी हैं । पुस्तकमें कहीं कहीं पर छपाईकी कुछ अशुद्धियाँ खटकती हुई हैं।
(५) दादा श्री जिनकुशलसूरि-लेखक, अगरचंद नाहटा और भँवरलाल नाहटा । प्रकाशक, शङ्करदान शुभैराज नाहटा नं० ५-६ आरमेनियन स्ट्रीट, कलकत्ता । साइज़, २०X३०, १६ पेजी । पृष्ठ संख्या सब मिलाकर १३० | मूल्य, चार आना ।
इसमें विक्रमकी १४ वीं शताब्दी के विद्वान् श्राचार्य श्रीजिनकुशलसूरिका जीवन चरित्र ऐतिहासिक दृष्टिले खोज के साथ दिया गया है और उसमें सूरिजीकी अनेक जीवन घटनाओं तथा ग्रन्थ रचनाओं पर अच्छा प्रकाश पड़ता है और कितना ही इतिहास सामने आ जाता है
इस पुस्तककी प्रस्तावना प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् श्री जिनविजयजीकी लिखी हुई है, जिसमें आपने इस जीवन चरित्रको चमत्कारिक घटनाओंसे शून्य शुद्ध इतिहाससिद्ध जीवनवर्णन ( Pure Historical bio
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graphy) बतलाया है और सूरिजीकी सच्चरित्रता और धन्यवादके पात्र हैं। विद्वत्ताकी प्रशंसा करते हुए उनकी 'चैत्यवन्दना कुलकवृत्ति' नामकी उपलब्ध रचनाका बड़ा ही गुणगान (६) सती मृगावती-लेखक; भंवरलाल नाकिया है। साथ ही, इस वृत्ति के कुछ वाक्योंका उल्लेख हटा । प्रकाशक, शंकरदान भैरुंदान नाहटा । नाहटोंकी एवं उद्धरण करते हुए यह भी बतलाया है कि- गवाड़ बीकानेर पृष्ठ संख्या, ४० । मूल्य, दो पाना ।
जन समाजमें परस्पर एकता और समानताका यह एक पौराणिक प्राधारपर अवलम्बित श्वेताव्यवहार रहना चाहिये, इस बातका भी इन्होंने (सूरि- म्बर कहानी है और भगवान महावीरके समयादिके जीने) स्पष्ट विधान किया है-जो वर्तमानमें जैनसमा- साथ सम्बन्ध रखती है। जको सबसे अधिक मनन और अनुसरण करने योग्य है। इस विषय में सार्मिक वात्सल्यवाले प्रकरणमें
(७) श्रीदेव-रचना-लेखक, कवि ला० हरइन्होंने कहा है कि- जैनधर्मका अनुवर्तन करनेवाले
- जसराय जैन ओसवाल । संशोधक, मुनि छोटे लाल सब मनुष्योंको परस्पर सम्पूर्ण बन्धुभाव और समान व्यवहारसे वर्तना चाहिये-चाहे फिर कोई किसी भी
(पञ्चनदीय )। प्रकाशक, प्यारालाल जैन (मन्हाणी)
" देश और किसी भी जातिमें क्यों न उत्पन्न हों। जो
. साइकसगंज, स्यालकोट शहर । पृष्ठ संख्या, १६८ । कोई मनुष्य सिर्फ़ नमस्कार मंत्रमात्रका स्मरण करता
मूल्य, सजिल्दका ११) अजिल्दका १) रु० ।। है वह भी जैन है और अन्य जैनोंका परम बन्धु है और
___इसमें मुख्यतासे भवनवासी आदि चार प्रकारके
देवोंका और गौणतासे तीर्थकर चक्रवर्ती श्रादि ६३ इसलिये उसके साथ किसी भी प्रकारका भेदभाव न रखना चहिये और किसी प्रकारका वैर-विरोध न करना शलाका पुरुषोंका वर्णन अनेक प्रकारके छन्दोंमें दिया चाहिये ।' धार्मिक एकताकी दृष्टि से ये विचार कितने है, जिनमें चित्र छन्द भी हैं । पद्योंकी कुल संख्या ८४३ उदार और अनुकरणीय हैं। जिनकुशलसूरिकी चरण- है। नाना छन्दोंकी दृष्टिसे पुस्तक सामान्यतया अच्छी पूजा करनेवाले भक्तजन यदि उनके इस कथनका बुद्धि है, विषय-वर्णन भी कुछ बुरा नहीं। भाषाका नमूना पूर्वक अनुपालन करें तो, गुरुपूजाका सबसे उत्तमः फल जाननेके लिये अन्तका छप्पयछंद निम्न प्रकार है, प्राप्त कर सकते है और कमसे कम अपने गच्छका तो जिसमें पुस्तक रचनेका समयादिक भी दिया हुआ है:गौरव बढ़ा सकते हैं।"
अठारह सय सत्तरेव पंचम थिति माँहे । ___ पुस्तकमें चार उपयोगी परिशिष्टों के साथ विशेष बुध जन उत्तर मीन चन्द सुवसत उछाहे ॥ नामोंकी सूची लगी हुई है, जिनसे पुस्तककी उपयो- ' कुशपुर वासी श्रोसवाल हरजस रचलीनी। गिता बढ़ गई है। इतिहास प्रेमी विद्वानों के लिये सुर रचना जिनधर्म पुष्ट समकित रस भीनी ॥ पुस्तक पढ़ने तथा संग्रह करनेके योग्य है । अपने पृज्य- जिह सुन पठ चित अर्थ धर बढे ज्ञान सत बुद्ध । पुरुषों के इतिहासको इस तरह खोज खोजकर प्रकट कर- नमो देव अरिहन्तजी कर जोसमकित शुद्ध ॥ ८४३ ॥ नेके सत्प्रयत्नके लिये बन्धुद्वय लेखक महोदय निःसन्देह
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सामायिक-विचार
. [ले.-स्व० श्रीमद्रानचन्द्र ] .... यात्म-शक्तिका प्रकाश करनेवाला, सम्य- क्या फ़ल होना था ? इससे तो किसने पार पाया ...
'ग्दर्शन का उदय करनेवाला, शुद्ध,समा- होगा, ऐसे विकल्पोंका अविवेक दोष है। धि भावमें प्रवेश कराने वाला, निर्जराका अमूल्य २. यशोवांछादोष-हम स्वयं सामायिक करते लाभ देनेवाला, राग द्वेषसे मध्यस्थ बुद्धि करने । हैं, ऐसा दूसरे मनुष्य जानें तो प्रशंसा करें, ऐसी वाला सामयिक नामका शिक्षाव्रत है। सामायिक इच्छासे सामायिक करना वह यशोवांछादोष है । शब्दकी व्युत्पत्ति सम+आय+ इक इन शब्दोंसे ३. धनवांछादोष-धनकी इच्छासे सामायिक होती है। 'सम' का अर्थ राग-द्वेष रहित मध्यस्थ करना धन लादोष है । परिणाम, 'आय' का अर्थ उस सम्भावनासे उत्पन्न ४. गर्वदोष-मुझे लोग धर्मात्मा कहते हैं हुश्रा ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप मोक्ष मार्गका लाभ, और मैं सामायिक भी वैसे ही करता हूँ ऐसा
और 'इक' का अर्थ भाव होता है । अर्थात जिसके अध्यवसाय होना गर्व दोष है। द्वारा मोक्षके मार्गका लाभदायक भाव उत्पन्न हो, ५. भयदोष--मैं श्रावक कुलमें जन्मा हूँ। वह सामायिक है। आर्त और रौद्र इन दो प्रकार मुझे लोग बड़ा मानकर मान देते हैं यदि मैं के ध्यानका त्याग करके, मन, वचन और कायके सामायिक न करूँ तो लोग कहेंगे कि इतनी क्रिया पाप-भावोंको रोक कर विवेकी मनुष्य सामायिक भी नहीं करता, ऐसी निन्दाके भयसे सामायिक करते हैं।
करना भय दोष है। मनके पुद्गल तरंगी हैं। सामायिकमें जब६. निदानदोष-सामायिक करके उसके फल विशुद्ध परिणामसे रहना बताया गया है, उम से धन, स्त्री पुत्र आदि मिलनेकी इच्छा करना ममय भी यह मन आकाश पातालके घाट घड़ा निदान दोष है। करता है। इमी तरह भल, विस्मृति, उन्माद ७. संशयदोष--सामायिकका फल होगा अथ. इत्यादिसे वचन और कायमें भी दूषण पानेसे वा नहीं होगा, ऐसा विकल्प करना संशयदोष है। मामायिकमें दोष लगता है। मन, वचन और ८. कषायदोष--क्रोध आदिसे सामायिक कायके मिलकर बत्तीस दोष उत्पन्न होते हैं। दस करने बैठ जाना, अथवा पीछेसे क्रोध, मान, माया मनके, दस वचनके, और बारह कायके इस प्रकार और लोभमें व लगाना वह कषाय दोष है। बत्तीस दोष को जानना आवश्यक है, इनके जानने ९. अविनयदोष-विनय रहित होकर सामासे मन मावधान रहता है।
यिक करना अविनय दोष है। मनके दोषकहता हूँ।
१०. अबहुमानदोष-भक्तिभाव और उमंग१. अविवेक दोष--सामायिक-स्वरूप नहीं पूर्वक सामायिक न करना वह अबहुमान दोष है । जाननेसे मनमें ऐसा विचार करना कि इससे
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________________ Regi No. L.4328 MOVINMAMMXXX NYOOOMNP सुभाषित नाSETTEFINTERMS ज्यों काडू विषधर डसै, रुचि सों नीम चबाय / ___ त्यों तुम ममताने मढ़े, मगन विषय सुख पाय / / ज्यों सछिद्र नौका चड़े, बढ़ई अंध अदेख / लों तुम व जल में परे, विन विवेक धर भेख // the तैसे ज्वरके जोर सो, भोजनकी चि जाय / __तैसे मुकरमके उदै, धर्म वचन न सुहाई / / जैसे पवन झकोर तें, जल में लडे तरंग / त्यों मनसा चंचल भई, परिगहके पर रांग / . M * ज्यों सुवास फल फलमें, दही दूधमें धीव, Vis.. पा काठ पषाण में, / यो शरीर जीच / . चंतन पुद्गल यों मिलं, ज्यों दिल में खाल तेल, प्रकट की वीखिए यह अनादिको खेल / / वह वा. रसमें रमें. वह गायी. लप-५, चन करपै लोहको, लोह लगै तिह धाय / कर्मचक्रकी नींद सों, मृषा स्वप्नकी दौर. - ज्ञानचक्रकी ढरनिमें सजग भांति सब टौर / / स्व० कविवर बनारसीदास वीर रेस श्रॉफ इण्डिया, कनॉट, सर्कस न्यू देहली /