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________________ ३०८ भनेकान्त [माघ, वीर-निर्वाण सं० २१६६ स्वातिके तत्त्वार्थाधिगमसूत्रका जो भाष्य आजकल इस वाक्यमें जिस भाष्यका उल्लेख है वह श्वेताम्बरश्वेताम्बर-सम्प्रदायमें प्रचलित है वही भट्टाकलंकदेवके सम्मत वर्तमानका भाष्य नहीं हो सकता; क्योंकि इस सामने उपस्थित था, उन्होंने अपने राजवार्तिकमें उसका भाष्यमें बहुत बार तो क्या एक बार भी 'षड्व्याणि' यथेष्ट उपयोग किया है और वे उक्त भाष्य तथा मूल ऐसा कहीं उल्लेख अथवा विधान नहीं मिलता । इसमें तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताको एक व्यक्ति मानते थे। यह सब तो स्पष्ट रूपसे पांच ही द्रव्य माने गये हैं,जैसा कि पाँचवें बात जिस आधार पर कही गई है अथवा जिन मुद्दों अध्यायके 'द्रव्याणि जीवाश्च' इस द्वितीय सूत्रके (उल्लेखों श्रादि) के बल पर सुझानेकी चेष्टा की गई भाष्यमें लिखा है--"एत धर्मादयश्चत्वारो जीवाश्च है उन परसे ठीक -बिना किसी विशेष बाधाके- पंच द्रव्याणि च भवन्तीति” और फिर तृतीय सूत्र में फलित होती है या कि नहीं, यही मेरी इस विचारणाका आए हुए 'अवस्थितानि' पदकी व्याख्या करते हुए मुख्य विषय है। इसी बातको इस तरह पर पुष्ट किया है कि-"न हि ___इसमें सन्देह नहीं कि अकलंक देवके सामने तत्त्वा- कदाचित्पंचत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति"अर्थात् ये द्रव्य र्थसूत्रका कोई दूसरा सूत्रपाठ ज़रूर था, जिसके कुछ कभी भी पाँचकी संख्यासे अधिक अथवा कम नहीं पाठोंको उन्होंने स्वीकृत नहीं किया । इससे अधिक होते। सिद्धसेन गणीने भी उक्त तीमरे सूत्रकी अपनी और कुछ उन अवतरणों परसे उपलब्ध नहीं होता जो व्याख्यामें इस बातको स्पष्ट किया है और लिखा है लेखके नं० १ में उद्धृत किये गये हैं। अर्थात् यह कि 'काल किसीके मतसे द्रव्य है परन्तु उमास्वाति निर्विवाद एवं निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि वाचकके मतसे नहीं, वे तो द्रव्योंकी पाँच ही संख्या अकलंकदेवके सामने यही तत्त्वार्थभाष्य मौजद था। मानते हैं।' यथायदि यही तत्त्वार्थभाष्य मौजद होता तो उक्त नं० १ के कालश्चैकीयमतेन द्रव्यमिति वक्ष्यते,वाचकमुख्य'घ' भागमें जिन दो सूत्रोंका एक योगीकरण करके रूप स्य पंचैवेति ।" दिया है उनमें से दूसरा सूत्र 'स्वभावमार्दवं च'के स्थान ऐसी हालतमें यह स्पष्ट है कि अकलंकदेवके पर 'स्वभावमार्दवार्जवं च' होता और दोनों सूत्रोंके एक- सामने कोई दूसरा ही भाष्य मौजूद था । जब दूसरा ही योगीकरणका वह रूप भी तब 'अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्व. माष्य मौजूद था तब लेखके नं ०२में कुछ अवतरणोंकी भावमार्दवार्जवं च मानुषस्येति' दिया जाता; परन्तु ऐसा तुलना परसे जो नतीजा निकाला गया अथवा सूचन नहीं है। किया गया है वह सम्यक् प्रतिभासित नहीं होता--उस ___ वास्तवमें नं० १ के कथन परसे जो शंका उत्पन्न दूसरे भाष्य में भी उस प्रकार के पदोंका विन्यास अथवा होती है और जिसे नं० २ में व्यक्त किया गया है वह वैसा कथन होसकता है । अवतरणों में परस्पर कहीं कहीं ठीक है, और उसका समाधान बाद के किसी भी कथन प्रतिपाद्य-विषय-सम्बन्धी कुछ मतभेद भी पाया जाता परसे भले प्रकार नहीं होता । चौथे नम्बर के 'ख' भाग है, जैसा नं० २ के 'क'-'ख' भागोंको देखने से स्पष्ट में राजवार्तिकका जो अवतरण दिया गया है उसमें जाना जाता है । ख-भागमें जब तत्त्वार्थभाष्यका प्रयुक्त हुए “यद्भाष्ये बहुकृत्वः षड्व्याणि इत्युक्तं' सिंहोंके लिये चार नरकों तक और उरगों (सर्पो) के
SR No.527159
Book TitleAnekant 1940 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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