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________________ ३०० अनेकान्त [माघ, वीर-निर्वाण सं० २०६६ में क्रमशः नं० १०, ६१, ११७, १२८, १४७, २३०, पंचसंग्रह और कर्मकाण्ड २३३, २३६, २४०, २७४, ४३७, ६४६. ५३३, ५३४ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, कर्म विषयक साहित्यका एक पर थोड़ेसे पाठ भेदके साथ उपलब्ध होती हैं। अपूर्व ग्रन्थ है। इसमें बंध, उदय, उदीरणा और इनके सिवाय, एक गाथा जीवकाण्डमें पंचसंग्रह कर्मोंकी सत्ताका बहुत ही अच्छे तरीके पर वर्णन दिया की ऐसी भी पाई जाती है जो अधिक पाठ भेदको लिये गया है। साथ ही, कर्म क्या है, उनके कितने भेद हैं हुए है--उसका पूर्वार्ध तो मिलता है परन्तु उत्तरार्ध और उनका जीवके साथ कैसा संबंध होता है। किस नहीं मिलता। वह बदला हुआ है। किन्तु धवलाके जीवके कितनी प्रकृतियोंका बंध और उदयादि होते हैं । मुद्रित अंशमें वह पंचसंग्रहके अनुसार ही उपलब्ध इन सबका विवेचन इसमें किया गया है। ग्रंथमें ६ होती है । वह इस प्रकार है: अधिकार दिये हैं और मय प्रशस्तिके गाथात्रोंकी कुल अहिमुहनियमियबोहणमामिणिबोहियमणि दइंदियनं । संख्या ६७२ दी है । जब तक मेरे देखनेमें 'प्राकृत पंच संग्रह' नहीं पाया था उस पमय तक मेरा यह खयाल बहु उग्गहाइणाखलु कयछत्तीसा-ति-सय-भेयं ॥ --प्रा० पंचसं०, १,१२१ था कि कर्म प्रकृतियोंका इस प्रकारका बटवारा कर देने. वाला कोई अन्य प्राचीन कर्म ग्रन्थ भी श्राचार्य नेमिअहिमुहणिय णियबोहणमाभिणि बोहियमणिदइंदियजम् चन्द्र के सामने रहा होगा, जिसपरसे उन्होंने संक्षिप्त रूपसे अवगहईहावायाधारणगा होति पत्तेयं ॥ गोम्मटसार कर्मकाँडका संकलन किया है । यद्यपि पंच--गो० जी०, ३०५ संग्रहका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे मालूम होता है मूलाचार और जीवकाण्ड कि कर्मकाँडकी रचनामें कुछ क्लिष्टता अागई है । परंतु प्राकृत पंचसंग्रहमें वह सरलता बनी हुई है, इसलिये मलाचार दि. जैन समाजका एक मान्य ग्रन्थ है। उसके द्वारा अर्थ-बोध करने में कोई कठिनाई मालम इसके विषयमें, मैं एक लेख 'अनेकान्त' की द्वितीय नहीं होती । दूसरी विशेषता उसमें यह भी है कि जिस वर्षकी किरण नं. ५ में लिख चुका हूँ । इसी से यहाँ बातको पंचसंग्रहकार गाथाबर करने में कठिनाई समझते उसके विषयमें अधिक कुछ नहीं लिखा जाता । उसकी थे या उससे अर्थ बोध होने में कुछ क्लिष्टताका अनुभव कुछ गाथाएँ भी गोम्मटसार जीवकाण्डमें प्रायः ज्योंकी . करते थे उसे उन्होंने प्राकृत गद्यमें दे दिया है और त्यों रूपसे उपलब्ध होती हैं। अर्थात् मूलाचारकी साथमें अङ्क संदृष्ठि भी दे दी है, जिससे जिज्ञासुत्रोंको गाथाएँ नं० २२१, २२३, २२६, ३२८, ३१५, ३१६, उसके समझने में बहुत कुछ आसानी होगई है । फिर १०३४, १०३५, १०३६, १०३७, १०३८, १०३६, भी गोम्मटसार कर्मकाण्डमें कितना ही वर्णन पंचसंग्रह १०४०, ११०२, ११०३, ११४८,११५१ गोम्मटसार से भिन्न पाया जाता है। उदाहरण के लिये इंगिनी और जीवकाण्डमें क्रमशः नं० ११३, ११४, ८६, २२१, प्रायोपगमन सन्यास अादिका वर्णन तथा कोंका नो२२४, २२५, २५, ३६, ३७, ३८, ४०, ४१ ४२,८१, कर्मवाला कथन पंचसंग्रहमें नहीं है । इसी तरह कदली८२, ४२६, ४२६, पर पाई जाती हैं। घात या अकाल मरण के कारणोंको सूचित करनेवाली
SR No.527159
Book TitleAnekant 1940 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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