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________________ वर्ष ३, किरण ४] गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ है गाथा भी उसमें नहीं है । इसके सिवाय,८७६ नं० की दिये हैं और फिर एक गाथा में उनके स्वभावको उदागाथा ३६३ मतोंका-क्रियावादी और प्रक्रियावादी श्रादि हरण द्वारा स्पष्ट किया है । इसके पश्चात् एक गाथामें केभेदोंका-और उसके बाद उनका संक्षिप्त स्वरूप १३ उत्तर प्रकृतियोंकी संख्या दी है और फिर प्राकृत गद्यमें गाथाओंमें दिया है, उसके अनन्तर दैववाद, संयोग- उनके नाम, भेद और स्वरूपको दिया है । अतः गोम्मवाद और लोकवादका संक्षिप्त स्वरूप देकर उनका टसार कर्मकाण्डकी अपेक्षा 'प्राकृत पंचसंग्रह' कर्ममिथ्यापना बताया है। साथ ही, उक्त मतोंके विवाद साहित्यके जिज्ञासुओंके लिये विशेष उपयोगी मालम मेटनेका तरीका बताकर उक्त प्रकरण को समाप्त किया होता है। है । यह सब कथन प्राकृत पंचसंग्रहमें नहीं है। इमसे गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी रचनापरसे एक बातका मालूम होता है कि ये सब कथन प्राचार्य नेमिचन्द्रने और भी पता चलता है और वह यह कि इसमें अधःदूसरे ग्रन्थों परसे लेकर या सार खींचकर रखे हैं। करण, अपूर्वकरण के लक्षणवाली गाथाएँ जो जीव... परन्तु गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी एक बात बहुत काण्डमें दी गई हैं, उन्हें कर्मकाण्डमें भी दुबारा मूल खटकती है और वह यह है कि गाथा नं० २२ में गाथाओंके साथ दिया गया है। इसके सिवाय, जो कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोंकी संख्या तो बताई है परन्तु गाथाएँ कर्मकाण्डमें १५५ नं० से लगाकर १६२ तक उन उत्तर प्रकृतियोंके स्वरूप और नाम आदिका क्रमशः दी हैं फिर उन्हीं गाथाओंको ६१४ नं0 से लेकर ६२१ कोई वर्णन नहीं किया गया है, जिसके किये जानेकी तक दिया है, जिससे ग्रंथम पुनरुक्ति मालूम होती है । खास ज़रूरत थी। हाँ, २३, २४ और २५ नं० की शायद लेखकोंकी कृपासे ऐसा हुआ हो। कुछ भी हो, गाथाश्रोंमें दर्शनावरण कर्मकी नौ प्रकृतियोंमें से स्त्यान- परन्तु इस कर्मकाण्ड के संकलन करने में 'प्राकृत पंचगृद्धि, निद्रा, निद्रा निद्रा, प्रचला और प्रचला-प्रचला संग्रह' से विशेष सहायता ली गई मालूम होती हैं। इन पाँच प्रकृतियोंका स्वरूप ज़रूर दिया है-शेषका क्योंकि पंचसंग्रहकी कुछ गाथाएँ कर्मकाण्ड में भी ज्योंनहीं दिया । इस कमीको संस्कृत टीकाकारने परा की त्यों अथवा कुछ थोड़ेसे शब्द परिवर्तन के साथ किया है । परन्तु प्राकृत पंचसंग्रहके 'प्रकृति समुत्कीर्तन' उपलब्ध होती हैं । उनमें से दो गाथाएँ यहाँ नमने के नामक द्वितीय अधिकारमें मंगलाचणरके बाद, कर्म तौर पर दी जाती हैं:प्रकृतियों के दो भेद बताकर पहले मूलप्रकतियों के नाम पडपडिहारसिमजाहलिचित्सकुलालभंडयारीणं । कदलीघात मरणके कारणोंका दिग्दर्शन करने जह एदेसि भावा तहवि य कम्मा मुणेयन्वा ॥ -प्रा० पंच सं० २, ३ वाली दो गाथाएँ प्राचार्य कुन्दकुन्दके 'भावपाहुड' में " पडपडिहारसिमजाहलिचित्त कुलालभंडयारीणं । २५, २६.नम्बर पर पाई जाती हैं । उनमेंसे गोम्मटसार जह एदेसि भावा तह विवेकम्मा मुणेयव्वा ॥ कर्मकाण्डमें २५ नं० की गाथा संग्रहकी गई है। इस -गो० क०, २१ गाथाको श्राचार्य वीरसेनने अपनी धवला टीकामें भी पयडीण मंतराए उवधाए तप्पदोस णिण्हवणे । 'उक्तं च' रूपसे दिया है और वह धवलाके मुद्रित भावरणदुभं भूमो बंधइअच्चासणा एय ॥ अंशमें पृष्ठ २३ पर छपी है। --प्रा० पंच सं०, ४, २००
SR No.527159
Book TitleAnekant 1940 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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