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________________ ZZIA JA ZA BABABABABASE BABABABABABA BASSYAYASYA BABABASSSSSS AUT मानव-धर्म 1 मानव-धर्म मानवोंसे, नहिं करना घृणा सिखाता है; मनुज-मनुजको एक बताता भाई-भाईका नाता हैं असली जाति-भेद नहि इनमें गो अश्वादि - जाति-जैसा ; शूद्र-ब्राह्मणी के संगमसे उपजे मनुज भेद, कैसा ? ॥ १ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये भेद कहे व्यवहारिक हैं; निज-निज कर्माश्रित, अस्थिर, नहिं ऊँच-नीचता - मूलक हैं । सब हैं अंग समाज-देहके क्या अन्त्यज, क्या आर्य महा; क्या चांडाल - म्लेच्छ, सब ही का अन्योन्याश्रित कार्य कहा ॥२॥ सब हैं धर्मपात्र, सब ही हैं पौरिकता के अधिकारी, धर्मादिक अधिकार न दे जो शूद्रोंको वह अविचारी । शूद्र तिरस्कृत पीडित हो निज कार्य छोड़ दें यदि सारा, तो फिर जगमें कैसी बीते ९ पंगु समाज बने सारा ॥ ३ ॥ गर्भवास ' जन्म समय में कौन नहीं अस्पृश्य हुआ ? कौन मलोंसे भरा नहीं ? किसने मल-मूत्र न साफ़ किया ? किसे अछूत जन्म से तब फिर कहना उचित बताते हो ? तिरस्कार भंगी - चमारका क्यों न लजाते हो ? || ४ || जाति-कुमद से गर्वित हो जो धार्मिकको ठुकराता है; वह सचमुच आत्मीय धर्मको ठुकराता न लजाता है । क्योंकि धर्म धार्मिक पुरुषोंके बिना कहीं नहीं पाता है; करते धार्मिकका अपमान इसीसे वृष- अपमान कहाता है ||५|| मानव-धर्मापेक्षिक सब हैं धर्मबन्धु अपने प्यारे; अपनों नहिं घृणा श्रेष्ठ है, हैं उद्धार - योग्य सारे । अतः सुअवसर -सुविधाएँ सब उन्हें मुनासिब देना है; इस ही से कल्याण उन्होंका औ' अपना भी होना है || ६ || बन करके 'युग-बीर' उठादो रूढ़ि-जनित संस्कारोंकापर्दा हृदय-पटलसे अपने दादो गढ़ हुंकारोंका । तब होगा दर्शन सुसत्यका, मानवधर्म - पुण्यमयका; जीवन सफल बनेगा तब ही, अनुगामी हो सत्पथका ||७|| "युगवीर” -
SR No.527159
Book TitleAnekant 1940 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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