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________________ वर्ष ३, किरण ४] ज्ञानार्णवकी एक प्राचीन प्रति २७३ चार्यका होता था वही उसके प्रशिष्यकाभी रख दिया इससे यह श्लोक किसी प्राचीन ग्रन्थका जान पड़ता है। जाता था, जिस तरह धर्मपरीक्षाके कर्ता अमितगतिके ज्ञानार्णवके कर्त्ताके लिए ये तीनों ही अन्यकृत. थे. परदादा गुरुका भी नाम अमितगति था । बहुत संभव . इसलिए उन्होंने तीनोंको 'उक्तंच ग्रन्थान्तरे' कह कर है कि जिन शुभचन्द्र योगीको उक्त प्रति दान की गई उद्धृत कर दिया । यशस्तिलककी रचना विक्रम संवत् है, ग्रन्थकर्ता उनके ही प्रगुरु (दादा गुरु ) या प्रगुरुके १०१६ में हुई है, इसलिये ज्ञानार्णवका समय इसके भी गुरु हों। ... बादका मानना चाहिए। अभी तक ज्ञानार्णवका रचनाकालः निर्णीत नहीं जानार्णवके पृ० १७७ में एक श्लोक 'पुरुषार्थसिहुआ है । उसमें आचार्य जिनसेनका स्मरण किया द्धथु पायका भी ('मिथ्यात्ववेदरागा'आदि)उद्धृत किया गया है, और जिनसेनने जयधवलटीकाका शेष भाग गया है, परन्तु उसके कर्ता अमृतचन्द्राचार्यका समय शकसंवत् ७५६ (वि० सं० ८६४ ) में समाप्त किया निश्चित् न होने के कारण वह एक तरहसे निरुपयोगी है । था । इससे यह निश्चित होता है कि विक्रमकी नवीं पाटणकी उक्त प्रति वि० सं० १२८४ की लिखी शताब्दि के बाद किसी समय ज्ञानार्णवकी रचना हुई हुई है और आर्यिका जाहिणीवाली प्रति यदि उससे होगी । कितने बाद हुई होगी यह जानने के लिए हमने अधिक नहीं पचीस-तीस वर्ष पहलेकी भी समझ ली ज्ञानार्णव के उन श्लोकोंकी जाँच की,जिन्हें ग्रन्थाकर्त्ताने जाय और ग्रन्थ उस प्रतिसे केवल तीस चालीस वर्ष अन्य ग्रंथोंसे 'उक्त च ग्रंथान्तरे' कहकर उद्धृत किया पहले ही रचा गया हो, तो विक्रमकी बारहवीं शताब्दिके है। मुद्रित ज्ञानार्णवके पृष्ठ ७५ (गुणदोषविचार)में अन्तिमपाद तक ज्ञानार्णवकी रचनाका समय जा पहुँनीचे लिखे तीन श्लोक हैं- चता है । यद्यपि हमारा खयाल है कि शुभचन्द्र इससे . ज्ञानहीने क्रिया पुसि परं नारभते फलम् । . भी पहले हुए होंगे। . तरोश्छायेव किं लभ्या फलश्रीनष्टदृष्टिभिः ॥१॥ आचार्य हेमचन्द्रके योगशास्त्र और ज्ञानार्णवमें ज्ञानं पङ्गो क्रिया चान्धे निःश्रद्ध नार्थकृव्यम् । बहुत अधिक समानता है ।योगशास्त्रके पांचवें प्रकाशसे ततो ज्ञानं क्रिया श्रद्धा त्रयं तत्पदकारणम् ॥२॥ लेकर ग्यारहवें प्रकाश तकका प्राणायाम और ध्यानहतं ज्ञानं क्रियाशून्यं हताचाज्ञानिन: क्रिया। वाला भाग ज्ञानार्णवके उन्तीसवेंसे लेकर ब्यालीसवें धावन्नप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पंगुकः ॥३॥ तक के स!की एक तरह नकल ही मालूम होती है। यही तीनों श्लोक यशस्तिलकचम्पू के छठे अाश्वास छन्द-परिवर्तन के कारण जो थोड़े बहुत शब्द बदलने (पृ०२७१) में ज्योंके त्यों इसी क्रमसे दिये हुए हैं । इन- पड़े हैं उनके सिवाय सम्पूर्ण विषय दोनों ग्रंथों में एकमेंसे पहले दो तो स्वयं यशस्तिलककर्ता सोमदेवसूरिके सा है । इसी तरह चौथे प्रकाशमें कषायजयका उपाय है और तीसरा यशस्तिलकमें 'उक्तं च' कहकर किसी 'इन्द्रियजय', इन्द्रिजयका उपाय 'मनः शुद्धि', उसका अन्य ग्रंथसे उद्धत किया गया है। अकलंकदेवके राज- पहली प्रति नरवर (मालवा) में लिखी गई थी। वार्तिकमें भी यह श्लोक थोड़ेसे साधारण पाठभेदके और दूसरी गोंडल (काठियावाद) में मालवे से गोरख साथ 'उक्तं च' रूपसे उद्धृत ही पाया जाता है, और उस समयकी दृष्टिसे काफी दूर है।
SR No.527159
Book TitleAnekant 1940 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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