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________________ २७४ अनेकान्त [माघ, वीर निर्वाण सं० २४६६ यह तो निश्चित है कि शुभचन्द्र और हेमचन्द्र दो में से किसी एक के सामने दूसरेका ग्रन्थ मौजूद था । परन्तु जबतक शुभचन्द्रका ठीक समय निश्चित् नहीं हो जाता, तब तक ज़ोर देकर यह नहीं कहा जा सकता कि किसने किसका अनुकरण और अनुवाद किया है । 'उक्तं च ' श्लोकोंकी खोज करते हुए हमें मुद्रित ज्ञानार्णवके २८६ पृ० (सर्ग २६) में नीचे लिखे दो श्लोक इस प्रकार मिले— उक्तं च श्लोकद्वयं समाकृष्य यदा प्राणधारणं स तु पूरकः । नामध्ये स्थिरीकृत्य रोधनं स तु कुंभकः ॥ यत्कोष्ठादतियत्नेन नासा ब्रह्मपुरातनैः । बहिः प्रक्षेपणं वायोः स रेचक इति स्मृतः || और यही श्लोक हेमचन्द्रके योगशास्त्र के पांचवें प्रकाशमें नं० ६ और ७ पर मौजूद हैं। सिर्फ अन्तर है कि योगशास्त्र में 'नाभिमध्ये' की जगह 'नाभिपद्म' और 'पुरातनैः' की 'पुराननैः' पाठ है । . इससे यह अनुमान होता है कि ज्ञानार्णव योगशास्त्र के बादकी रचना है और उसके कर्त्ता ने इन श्लोकोंको योगशास्त्र परसे ही उठाया है । परन्तु हमें इस पर सहसा विश्वास न हुआ और हमने ज्ञानार्णवकी हस्तलिखित प्रतियोंकी खोज की । बम्बई विकी एक तेरहपन्थी जैन मन्दिरके भंडारमें ज्ञाना१७४७ साईजकी हस्तलिखित प्राचीन प्रति है, जिसके प्रारम्भके ३४ पत्र ( स्त्रीस्वरूपप्रतिपादक प्रकरणके ४६ वें पद्य तक ) तो संस्कृत टीकासहित हैं और श्रागे के पत्र बिना टीकाके हैं। परन्तु उनके नीचे टीकाके लिए जगह छोड़ी हुई है । टीकाकर्त्ता कौन हैं, सो मालूम नहीं होता । वे मंगलाचरण श्रादि कुछ न करके इस तरह टीका शुरु कर देते हैं- उपाय रागद्वेषका जय, उसका उपाय समत्व और समत्व . की प्राप्ति ही ध्यानकी मुख्य योग्यता है, ऐसा जो कोटिक्रम दिया है वह भी ज्ञानार्णावके २१ से २७ तक के सर्गों में शब्दशः और अर्थशः एक जैसा है । अनित्यादि भाव - नाका र हिंसादि महाव्रतोंका वर्णन भी कमसे कम शैलीकी दृष्टिसे समान है । शब्द साम्य भी जगह जगह दिखाई देता है । कुछ नमूने देखिए किम्पाकफलसंभोगसन्निभं तद्धि मैथुनम् । आपातमात्ररम्यं स्याद्विपाकेऽत्यन्तभीतिदम् । — ज्ञानार्णव पृ० १३४ रम्यमापातमात्रे यत्परिणामेऽतिदारुणम् । किम्पाकफल-संकाशं तत्कः सेवेत मैथुनम् ॥७८॥ — योगशास्त्र द्वि० प्र० विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम् । यस्य चित्तं स्थिरीभूतं स हि ध्याता प्रशस्यते ॥ ३ स्वर्णाचल इवाकम्पा ज्योतिः पथ इवाभलाः । समीर इव निःसङ्गाः निर्ममत्वं समाश्रिताः ॥ १५ —ज्ञानार्णव पृ० ८४-८६ विरतः कामभोगेभ्यः स्वशरीरेऽपि निःस्पृहः । संवेगहृदर्निमग्नः सर्वत्र समता श्रयन् ॥५ सुमेरुरिव निष्कम्पः शशीवानन्दायकः । समीर इव निस्संगः सुधीर्ध्याता प्रशस्यते ॥ १६ — योगशास्त्र सप्तम् प्र० श्राचार्य हेमचन्द्रका स्वर्गवास वि० सं० १२२६ में हुआ है । विविध विषयों पर उन्होंने सैंकड़ों ग्रन्थोंकी रचना की थी । योगशास्त्र महाराजां कुमारपाल के कहनेसे रचा गया था और उनका कुमारपाल से अधिक निकटका परिचय वि० सं० १२०७ के बाद हुआ था । श्रतएव योगशास्त्र विक्रम संवत् १२०७ से लेकर १२२६ तक के बीच के किसी समय में रचा गया है।
SR No.527159
Book TitleAnekant 1940 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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