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वर्ष ३, किरण ४]
ज्ञानार्णवकी.एक प्राचीन प्रति
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ओं नमः सिद्धेभ्यः। अहं श्री शुभचन्द्राचार्यः जयचन्द्रजीने ही योगशास्त्र परसे उक्तं च रूपमें उठा परमात्मानमव्ययं नौमि नमामि किं भूतं परमा- लिया होगा या फिर उनके पास जो मूल प्रति रही त्मानं अजं जन्मरहितं पुन: कि भूतं परमात्मानं होगी उसमें ही किसीने उद्धृत कर लिया होगा । परन्तु
अव्ययं विनाशरहितं । पुनः किं भूतं परमात्मान मूलकी सभी प्रतियोंमें ये श्लोक न होंगे । निदान दो सौ निष्टितार्थ निष्पन्नाथै पुनः किं भूतं परमात्मानौं वर्षसे पुरानी प्रतियोंमें तो नहीं ही होंगे । पाठकोंको ज्ञानलक्ष्मीधनाश्लेषप्रभवानन्दनन्दितं । ज्ञानमेव चाहिए कि वे प्राचीन प्रतियोंको इसके लिए देखें। लक्ष्मीस्तस्या योऽसौ धनाश्लेषं निविड़ाश्लेषस्तस्मात् लिपिकर्ताओंकी कृपासे 'उक्तंच' पद्योंके विषयमें प्रभव. उत्पन्नो योऽसौ आनन्दस्तेन नन्दितम्।" इस तरहकी गड़बड़ अक्सर हुआ करती है और यह
इस प्रतिके शुरूके पत्रोंके ऊपरका हिस्सा कुछ गड़बड़ समय-निर्णय करते समय बड़ी झंझटें खड़ी कर जल-सा गया है और कहीं कहींके कुछ अंश झड़ गये दिया करती है। हैं । प्रारंभके पत्रकी पीठपर कागज चिपकाकर बड़ी ज्ञानार्णवकी छपी हुई प्रतिको ही देखिए । इसके सावधानीसे मरम्मत की गई है । पूरी प्रति एक ही लेख- पृष्ठ ४३१ (प्रकरण ४२) के 'शुचिगुणयोगाद्' आदि ककी लिखी हुई मालूम होती है । अन्तमें लिपिकर्ताका पद्यको 'उक्तं च' नहीं लिखा है परन्तु तेरहपन्थी मंदिर नाम तिथि-संवत् आदि कुछ भी नहीं है, फिर भी हमारे की उक्त संस्कृत टीका वाली प्रतिमें यह 'उक्तं च' है । अनुमानसे वह डेढ़-दो सौ वर्षसे इधरकी लिखी हुई पं० जयचंद्रजीकी वचनिकामें भी इसे 'उक्तं च आर्या' नहीं होगी।
करके लिखा है, परन्तु छपाने वालोंने 'उक्तं च' छोड़ ___ इस प्रतिमें मने देखा कि प्राणायाम-सम्बन्धी वे दिया है ! इसी तरह अड़तीसवें प्रकरण में संस्कृत टीका दो 'उक्तंच' पद्य हैं ही नहीं जो छपी हुई प्रतिमें दिये हैं वाली प्रतिमें और वचनिकामें भी 'शंखेन्दुकुन्दधवला और जो प्राचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्रके हैं । तब ये ध्यानाद्देवास्त्रयो विधानेन' आदि पद्य 'उक्तं च' करके छपी प्रतिमें कहाँसे आये ?
दिया है परन्तु छपी हुई प्रतिमें यह मूल में ही शामिल स्व० ५० पन्नालालजी वाकलीवालने पं० जयचन्द्र कर लिया गया है। जीकी भाषा वचनिकाको ही खड़ी बोलीमें परिवर्तित ध्येयं स्याद्वीतरागस्य' आदि पद्य छपी प्रतिके करके ज्ञानार्णव छपाया था। हमने पं० जयचन्द्रजीकी ४०७ पृष्ठमें 'उक्तं च' है परन्तु पूर्वोक्त सटीक प्रतिमें वचनिका वाली प्रति तेरहपन्थी मन्दिरके भंडारसे निक- इसे 'उक्तं च' न लिखकर इसके आगेके 'वीतरागो लवाकर देखी तो मालूम हुआ कि उन्होंने इन श्लोकोंको भवेद्योगी' पद्यको 'उक्तं च' लिखा है । और छपीमें उद्धृत करते हुए लिखा है कि-"इहाँ उक्तं च दोय तथा वचनिकामें भी, दोनों ही 'उक्तं च' हैं । श्लोक हैं-"
_ 'उक्तं च' पद्योंके सम्बन्धमें छपी और सटीक तथा पं० जयचन्द्रजीने अपनी उक्त वचनिका माघ सुदी वचनिकावाली प्रतियोंमें इसी तरह और भी कई जगह पंचमी भृगुवार संवत् १८०८ को समाप्त की थी । या फ़र्क है, जो स्थानाभावसे नहीं बतलाया जा सका। तो इन श्लोकोंको प्रकरणोपयोगी समझ कर स्वयं पं० अभिप्राय यह है कि ज्ञानार्णवकी छपी प्रतिमें हेमचन्द्र