________________
२७६
श्रनेकान्त
के योगशास्त्रके उक्त दो पद्योंके रहने से यह सिद्ध नहीं होगा कि शुभचन्द्राचार्यने स्वयं ही उन्हें उद्धृत किया है. और इस कारण वे हेमचन्द्र के पीछे के हैं । इसके लिए कुछ और पुष्ट प्रमाण चाहिए।
पाटण के भंडारकी उक्त प्राचीन प्रति तो बहुत कुछ इसी ओर संकेत करती है कि ज्ञानार्णव योगशास्त्रसे पीछेका नहीं है ।
नोट -- बसे कोई बत्तीस वर्ष पहले ( जुलाई सन् १९०७) मैंने ज्ञानार्णावकी भूमिका में 'शुभचन्द्रा - चार्यका समयनिर्णय' लिखा था और उस समयकी श्रद्धाके अनुसार विश्वभूषण भट्टारक के 'भक्तामरचरित' को प्रमाणभूत मानकर धाराधीशभोज, कालीदास, वररुचि, धनंजय, मानतुंग,भर्तृहरि आदि भिन्न भिन्न समय वर्त्ती विद्वानोंको समकालीन बतलाया था । परन्तु समय बीतने पर वह श्रद्धा नहीं रही और पिछले भट्टारकों द्वारा निर्मित अधिकांश कथासाहित्यकी ऐतिहासिकता पर सन्देह होने लगा। तब उक्त भूमिका लिखनेके कोई आठ नौ वर्ष बाद दिगम्बर जैन के विशेषाङ्क में (श्रावण संवत् १९७३) 'शुभचन्द्राचार्य' शीर्षक लेख लिखकर मैंने पूर्वोक्त बातोंका प्रतिवाद कर दिया, परन्तु ज्ञानाविकी उक्त भूमिका अब भी ज्योंकी त्यों पाठकों के हाथों में जाती है । मुझे दुःख है कि प्रकाशकोंसे निवेदन कर देने पर भी वह निकाली नहीं गई और इस तीसरी आवृत्ति में भी बदस्तूर कायम | इतिहासज्ञों के
मुझे लज्जित होना पडता है, इसका उन्हें खयाल नहीं । बंगला मासिक पत्रके एक लेखक श्रीहरिहर भट्टाचार्य ने तो ज्ञानार्णवकी उक्त भूमिकाको 'उन्मत्तप्रलाप' बतलाया था । विद्वान् पाठकोंसे निवेदन है कि 'भक्तामरचरित' की कथाका खयाल न करके ही वे
[माघ, वीरनिर्वाण सं० २४.६६
श्रीशुभचन्द्राचार्यका ठीक समय निर्णय करने का प्रयत्न
करें ।
बम्बई ता० १४-१-१६४०
सम्पादकीय नोट
लेखक महोदय के उक्त बोट परसे मुझे रायचन्द्रशास्त्रमाला के संचालकोंकी इस मनोवृत्तिको मालूम करके बड़ा खेद हुआ कि उन्होंने भूमिका लेखक के. स्वयं अपनी पूर्वलिखित भूमिका को सदोष तथा त्रुटिपूर्ण बतलाने और उसे निकाल देने अथवा संशोधितः कर देनेकी प्रेरणा करने पर भी वह अबतक निकाली या संशोधित नहीं की गई है ! यह बड़े ही विचित्र प्रकारका मोह तथा सत्यके सामने घाँखें बन्द करने जैसा प्रयत है ! और कदापि प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता । श्राशा है कि ग्रंथमाला के संचालकजी भविष्य में ऐसी बातोंकी और पूरा ध्यान रखेंगे और ग्रंथके चतुर्थ संस्करण में लेखक महोदय की इच्छानुसार उक्त भूमिकाको निकाल देने अथवा संशोधित कर देनेका दृढ़ संकल्प करेंगे । साथ ही, तीसरे संस्करणकी जो प्रतियाँ अवशिष्ट हैं उनमें लेखकजी के परामर्शानुसार संशोधन की कोई सूचना जरूर लगा देंगे ।
ज्ञानार्णव ग्रंथकी प्राचीन प्रतियोंके खोजने की बड़ी ज़रूरत है । जहाँ जहाँके भण्डारों में ऐसी प्राचीन प्रतियाँ मौजूद हों, विद्वानोंको चाहिये कि वे उन्हें मालूम करके उनके विषयकी शीघ्र सूचना देने की कृपा करें, जिससे उन परसे जाँचका समुचित कार्य किया जा सके। सूचना के साथ में, ग्रंथप्रतिके लेखनका समय यदि कुछ दिया हुआ हो तो वह भी लिखना चाहिये और ग्रंथकी स्थितिको भी प्रकट करना चाहिये कि वह किस हालत में है ।