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[ले०-श्री भगवत् जैन] .
कविकी कल्पनामें जब बाँध लग जाता है । मि. होता है । खाली हाथ लौटनेसे जो मिले वही " नटों सोचने पर भी कलम जब आगे नहीं ठीक ।' बढ़ती, तब मनमें एक खोज पैदा हो उठती है। शिकारीका अनुमान-शिकारके सम्बन्धमेंठीक वैसी ही खीजकी कटुता उस शिकारीको भी प्रायः सही बैठता है । रोजका अभ्यास, पुराना विकल करती है, जो थकावटसे चूर, प्याससे अनुभव ! ग़लत कैसे बैठे ?... ' मजबूर और अपने निवाससे दूर-जंगलों-झाड़ि- शिकारी आगे बढ़ा । जैसे ही झाड़ियों के बीच योंमें शिकारके पीछे या शिकारकी तलाशमें में पहुँचा कि दीखा वही दृश्य-जिसे अनुमानने दौड़ता-हाँपता घूमता है, पर शिकार हाथ नहीं पहले ही देख रखा था ! ""लम्बे-चौड़े मैदानके लगती !...
एक कोनेमें हिरण-दम्पत्ति मौजमें ललक रहे हैं, राजपूत-नरेशका मन खीज रहा है ! रह-रह प्रणय-स्वर्गीय-सरिताकी भांति सवेग प्रवाहित कर मनमें आ रही है-'घर लौट चलें ।' . हो रहा है !... लेकिन......?
___ 'सन्ध्याकी सुनहरी-धूपमें कितने अच्छे लग _ 'क्या खाली हाथ ? अभी सन्ध्या होनेमें काफी रहे हैं वह ? कैसा मुक्त जीवन है-उनका ? देर है ! सम्भव है, कुछ हाथ लगे ।... साफ-सुथरी जमीन पर, मुक्ताकाशके नीचे, सभ्य
राज-पुत्रने घोड़ा बढ़ाया। हृदयमें आशाने भी ताके बन्धनोंसे रहित, एकान्त आँगनमें कैसा दौड़ लगाना शुरू किया ।'हवाका एक झोंका प्रेम-प्रमोद रच रहे हैं ? गुप्त-मंत्रणा कर रहे हैं
आया, घोड़ा घने पेड़की छाँहसे गुजर रहा था, जानें ? कैसी लुभावक, कैसी उत्तेजक प्रेम-लीला है कितनी ठंडी हवा लगी कि राज-पुत्रका प्याससे यह ?... मलिन-मुख उद्दीप्त हो उठा ! किन्तु वह रुके नहीं, शिकारी कुछ देर खड़ा, सोचता-विचारता 'ठहरना' उनकी खीजका साथी था,और उद्देश्यका रहा-यही सब ! पाठ भूले, विद्यार्थीकी तरह ! शत्रु !...
___ या चौकड़ी भूले, हिरणकी भांति ! फिर-सहसा ___ 'इन झाड़ियोंके उस पार मैदान होगा, साफ- चेतना लौटी, परिस्थितिका ज्ञान हुआ-रात हुई सुथरा चटकीला-स्थान ! वहाँ और कुछ नहीं, तो जा रही है ! सवेरेसे अबतक एक भी शिकार हाथ हिरन तो होंगे ही! जरूर होंगे-अक्सर ऐसा नहीं चढ़ी! जाने किसका मुँह देखकर आया गया