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________________ २७६ अनेकान्त [माघ, वीर-निर्वाण सं०२१॥ है भाज! नहीं था, उसे देखनेकी क़तई इच्छा उसके मनमें इसके बाद ही,षोडषी-नारीकी भू बंकके भांति, नहीं थी, भावना-विरुद्ध दृश्यकी कठोरताने उसे कमानको बनाया गया, फिर सधे हुए हाथोंने बाण आँखें बन्द करनेको विवश किया हो ! 'एक का निशाना साधा ! और दूसरे ही पल-लक्ष्य- गहरी सांसके साथ सब समाप्त, जीवन-लीलाका वेध ! 'बाण हिरणीके पेटमें होकर आर-पार! अन्त ! शिकारीने जाकर देखा-जामीन खूनसे रंग शिकारीका मन-तितलीके पंखोंकी तरह रही है ! विवश-नेत्रोंसे हिरणी अपने प्रेमी, अपने सुन्दर, चारेको चोंचमें दबाए, नीड़को लौटते पंछी सब-कुछ, अपने स्वामीकी ओर देख रही है ! उस की भांति तीब्र गतिसे उड़ रहा है ! खूनमें तेजी 'देखने' में जैसे सारे संसारकी दीनता भरदी है, शरीरमें नव-जीवन-सा प्रवेश हुआ लगता है। शायद हिरणीका जीवन भी इसीमें आ मिला है । ___ आँतें बाहर निकली आ रही हैं, जीभ-हाँ, यों ही, अलक्षित भावसे-जो मुँह पर आया वही सूखी-सी जीभ-मुँहके बाहर, दाँतोंकी कैदके -गुन गुनाते हुए शिकारी हिरणीके 'शव' को बाहर हो रही है ! बार-बार भागनेकी बेकार को- घोड़े पर लादनेके लिए उठाने लगा, कि सामने शिश करती है, और गिर-गिर जाती है ! कितनी हिरण !!! द्रातक, कितनी दयनीय ? 'अरे, यह तबसे यहीं खड़ा है ?'–विस्मयके . मगर शिकारीके लिए हिरणीका बध-खुशी साथ शिकारीके मुँहसे निकल गया ! और वह थी, दिन-भरके परिश्रमका पुरस्कार था-बहुत एकटक हिरणके मुंहकी ओर देखने लगा! . मामूली, बहुत छोटा-सा ! उसकी आँखोंमें एक प्रकृति के लगाये हुए काजलसे अलंकृत आँखें, चमक-सी आगई ! सफल मनोरथ होने पर आती वेदनाके पानीसे भीग रही हैं। जिन आँखोंकी है-वैसी ! कूद कर घोड़ेसे उतरा, बगैर ग्लानिके उपमा प्रकृतिके पुजारी, भावुक कवि बड़े गौरवके उसके खूनसे, लाल-लाल, कालेरुख गाढ़े खूनसे, साथ, सौन्दर्य-विभूतियोंको दिया करते हैं, वही सने शरीरको उठाया ! और क्षत्रियत्वकी ताकत आँखें शोकके अथाह गर्नमें डूबी जा रही हैं ! जैसे लगाकर पेटमें घुसे हुए बाणको खींच निकाला ! उन आँखोंकी रोशनी मर चुकी हो, बुझ चुकी हो, ओफ !!! राख बन चकी हो !! हिरणीके विह्वल-नेत्रोंने एक बार चारों ओर शिकारीका शरीर ढीला पड़ने लगा ! मनमें को देखा ! क्या देखा ? क्या देखना चाहती थी ? एक आँधी-सी उठने लगी ! आँखोंमें जलन-सी -इसे कौन जाने ? पर दीखा उसे अपना यम, महसूस होने लगी ! हाथ निर्जीव-से, शरीर सुन्नसाकार-काल-क्षत्रिय-पुत्र ! "कुछ घबराई, एक सा और मुँह सूखा-सूखा-सा मालुम देने लगा !! बार तड़पी, पैर भी पीटे ! फिर एकदम शान्त ! वह टूटे-पेड़की तरह खड़ा रह गया, खण्डआँखें मुंद गई--जैसे, उसे जो दीखा, वह इष्ट हरकी तरह स्तब्ध ! श्मशानकी तरह वीभत्स !...
SR No.527159
Book TitleAnekant 1940 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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