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वर्ष ३, किरण ४]
शिकार
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विचारोंका यातायात !
प्रेमकी साधनामें कितना अनुराग रखता है वह 'मूर्ख, हिरण ! नहीं जानता कि जिसने हिर- अपनी पत्नीके प्रति कितना महान-हृदय रखता है, रणीका प्राणान्त किया है, वह इसे कब छोड़ेगा ? कितना आदर्श है वह !' फिर भी भागता नहीं, डरता नहीं ! प्रतिहिंसा जैसी शिकारीकी आँखोंमें करुणा-जल छलछला घातकता उसके मनमें टकरा रही है ! प्रेमकी आया ! हिरणीकी मृतक देह अब उसे अपनी भूल उत्ताल-तरंगें, प्राणोंके मोहको भुलाए दे रही हैं ! की तरह दिखाई देनेलगी,डरने लगा वह-अब ! ओहोहः-प्रेम ! तूने इस जंगली जीवको भी अपने काश! वह अब किसी तरह उसे जीवित कर काबमें कर रखा है ! वह प्रेमकी समाधिमें लीन सकता !... होकर अपने प्राणोंकी आहुति देते भी नहीं भय- तृणोंमें अमृतका स्वाद लेने वाले वह दोनों भीत होता !
मूक-प्रणयी, अपनी निर्धन, साधन-शून्य, उजड़ी _ शिकारी देख रहा है-वियोगी-हिरण अपनी सी दुनियाँमें प्रेमके बल पर स्वर्गका स्थापन कर प्रणयकी दुनियाको, अपनी दुलारी हिरणीको, रहे थे ! आह ! उसे भी मैं न देख सका ! मुझ-सा एकटक देख रहा है ! समझ नहीं पा रहा कि उस अधम और कौन होगा ? कितना भयंकर अपराध की हिरणी मर चुकी है,उसकी दुनिया उजड़ चकी किया है-मैंने !.."जिनके पास प्राणोंके सिवा है ! वह इतना ही जानता है कि इसे कुछ हो गया और कुछ नहीं था ! जो दरिद्रताकी सीमा थे। है ! वैसा हो गया है,जैसा अबतक कभी नहीं हुआ उनका वह छोटा-सा धन, थोड़ी सी इच्छा, और सर्प-विष-संहारक वायगीकी तरह वह हिरणीके सीमित-सा सौख्य भी मैंने छीन लिया ! उफ् ! क्षत-विक्षत-शरीर के समीप-कुछ अटल-सा, कुछ यह घोर-पाप !!!' विह्वल-सा कुछ ध्यानस्थ सा बैठा आँसू बहा रहा कौन-सी लेखनी ऐसी है, जो हिरणकी मर्माहै ! जैसे प्रेम-मंदिरमें, रूठी हुई प्रेमकी देवीको, न्तक पीडाको ठीक ठीक चित्रण कर सके ?... प्रेम-पुजारी मना रहा हो !...
उसके भीतर शिकारीकी सहानुभूति जैसे घुसती __ शिकारीका मन भर आया । उसे ऐसा लगा जा रही हो ! उसकी विकलता प्रतिक्षण बढ़ती जा जैसे उसके हृदय-कंजको किसीने भीतर हाथ डाल रही है ! वह रो रहा है, उसकी आँखें रोरही हैं, कर मरोड़ दिया हो, उसके मुँह पर जैसे अमा- उसका हृदय रो रहा है !... वस्याकी कालिमा बिखरादी।
____ 'यह क्या किया मैंने ? एक निरपराध सुखमानव-मन !!!
मय, दाम्पत्तिक-जीवनमें आग लगा दी ! मैंने नहीं वह सोचने लगा-'कितना अगाध-स्नेह है समझा कि दूसरेके प्राण भी अपने-से ही प्राण हैं, इसे ? कपट-हीन, बनावट-रहित जैसे राकाकी उसे भी दुख-सुखका अनुभव होता है ! वह भी चाँदनी ! वह ज्ञानवान् नहीं है ! अपनेको सभ्य अपना-सा ही हृदय रखता है !.."प्रोफ़!समझनेका दावा भी वह नहीं करता। लेकिन- स्वार्थी-वि व ! अपने अपने स्वार्थमें मनुष्य