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अनेकान्त
[माघ, वीर-निर्वाण सं०२४६६
अन्धा हो रहा है । कोई किसीकी पर्वाह नहीं पवित्र, पुनीत, आदर्श भावना हिलोरें लिया
करता
...
करती है !
*
__ और .........? इसके बाद क्या हुआ ?
.. हाँ, वह शिकारी अब भी है । वैसी ही इसका मुझे पता नहीं ! न 'कहानी' का उससे
साधना, वैसा ही परिश्रम, वैसी ही तन्मयताको गहरा सम्बन्ध ही है ! हाँ, यह मैं जानता हूँ, और ,
अब भी काममें लाता रहता है ! लेकिन फर्क बतलाना भी वही शेष है, कि राजपूत नरेश, अब
इतना है--अब वह पशु पंछियोंका शिकार नहीं दुनियाँकी नजर में 'राजा' नहीं है ! लोग उसे
करता, उन पशु-प्रवृत्तियोंका शिकार किया करता संसार-विरक्त-साधु कहते हैं ! वह अब बनों
- है जिन्होंने उसे शिकारी बनाया! . . वीहड़ोंमें रहता है ! और वासना-शून्य-हृदयमें एक TO अनुरोध [ श्री भगवत्' जैन ] (AE दिखादे पथ-भृष्टोंको पंथ, जी रहे आज मृतककी भाँति, ।
बनादे मूकोंको वाचाल ! सिखादे मरना जीने-सा ! MA)) होश उनको भी आजाए, न बाकी रहे देशको भीरु- हो रहे जो दिन-दिन बेहाल !! कहलवानेका अन्देशा !
बने जीवन जागृतिकी ज्योति, मौत को समझ उठे खिलवाड़ ! हिमालय बने हमारा भाल,
और मुख ज्वालामुखी पहाड़ !! हृदयमें बहे वेगके साथ, दानवी प्रकृति दूर भागे, ON प्रेम-गंगाकी मृदु-धारा ! प्राकृतिकताको अपनाएँ ! विश्व-भरमें फैले भ्रातृत्व, अरे ! भरदे ऐसी सामर्थ्य, ( शत्रु भी लगे प्राण-प्यारा ! रसातल-पथसे हट जाएँ !!
न समझो हँसनेमें कुछ तथ्य, वेदना रहती रोने में ! बड़े गौरवकी समझो बात,
दुखीके साथी होने में !! ( दूसरेका दुख अपना दुःख,- बनादे आँखों-सा कोमल, KE
माननेमें सुखका विस्तार ! हमारा सामाजिक जीवन ! सुख-दिनोका कहना ही क्या ?- पा सकें भूली-सी निधियाँ, क्योंकि उनका साझी संसार !! और सुलझा पाएँ उलझन !!