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________________ २८० अनेकान्त [माघ, वीर-निर्वाण सं०२४६६ अन्धा हो रहा है । कोई किसीकी पर्वाह नहीं पवित्र, पुनीत, आदर्श भावना हिलोरें लिया करता ... करती है ! * __ और .........? इसके बाद क्या हुआ ? .. हाँ, वह शिकारी अब भी है । वैसी ही इसका मुझे पता नहीं ! न 'कहानी' का उससे साधना, वैसा ही परिश्रम, वैसी ही तन्मयताको गहरा सम्बन्ध ही है ! हाँ, यह मैं जानता हूँ, और , अब भी काममें लाता रहता है ! लेकिन फर्क बतलाना भी वही शेष है, कि राजपूत नरेश, अब इतना है--अब वह पशु पंछियोंका शिकार नहीं दुनियाँकी नजर में 'राजा' नहीं है ! लोग उसे करता, उन पशु-प्रवृत्तियोंका शिकार किया करता संसार-विरक्त-साधु कहते हैं ! वह अब बनों - है जिन्होंने उसे शिकारी बनाया! . . वीहड़ोंमें रहता है ! और वासना-शून्य-हृदयमें एक TO अनुरोध [ श्री भगवत्' जैन ] (AE दिखादे पथ-भृष्टोंको पंथ, जी रहे आज मृतककी भाँति, । बनादे मूकोंको वाचाल ! सिखादे मरना जीने-सा ! MA)) होश उनको भी आजाए, न बाकी रहे देशको भीरु- हो रहे जो दिन-दिन बेहाल !! कहलवानेका अन्देशा ! बने जीवन जागृतिकी ज्योति, मौत को समझ उठे खिलवाड़ ! हिमालय बने हमारा भाल, और मुख ज्वालामुखी पहाड़ !! हृदयमें बहे वेगके साथ, दानवी प्रकृति दूर भागे, ON प्रेम-गंगाकी मृदु-धारा ! प्राकृतिकताको अपनाएँ ! विश्व-भरमें फैले भ्रातृत्व, अरे ! भरदे ऐसी सामर्थ्य, ( शत्रु भी लगे प्राण-प्यारा ! रसातल-पथसे हट जाएँ !! न समझो हँसनेमें कुछ तथ्य, वेदना रहती रोने में ! बड़े गौरवकी समझो बात, दुखीके साथी होने में !! ( दूसरेका दुख अपना दुःख,- बनादे आँखों-सा कोमल, KE माननेमें सुखका विस्तार ! हमारा सामाजिक जीवन ! सुख-दिनोका कहना ही क्या ?- पा सकें भूली-सी निधियाँ, क्योंकि उनका साझी संसार !! और सुलझा पाएँ उलझन !!
SR No.527159
Book TitleAnekant 1940 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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