SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मिक क्रान्ति ० --- बा० ज्योतिप्रसाद जैन, विशारद, एम. ए०, एलएल. बी. वकील ] ना* ज संसारके प्रायः प्रत्येक देशमें एक न एक ऐसा जनसमुदाय अवश्य अवस्थित है जिसका हार्दिक विश्वास है कि जनसाधारणके दासत्व, पतन तथा दारिद्रकी एक मात्र महौषधि क्रान्ति ही है । यदि समाज-विशेषकी आर्थिक अवस्था असह्य रूपसे हीन हो जाय तो उक्त समाजके लिये क्रान्ति अनिवार्य है । 'क्रान्तिके बड़े २ समर्थक कार्लमार्क्स इत्यादि का कथन है कि समस्त लौकिक बुराइयों तथा कष्टोंका कारण पूंजीवाद है जिसका विनाश श्रवश्यम्भावी है । प्रत्याचारियोंका दमन क्रान्तिचक्र द्वारा ही संभव है । इतिहास साक्षी है कि कभी भी कोई शक्तिशाली समुदाय बिना बल-प्रयोग के पदच्युत न होसका । क्रान्तिकारियोंके कथनानुसार मनुष्य-समाज परिवर्तनशील है । यद्यपि यह परिणमन निरन्तर होता रहता है, किन्तु शायद ही कभी व्यवस्थित एवं नियमित रूपमें लक्षित होता है । क्रान्ति भी एक परिवर्तन है; किन्तु अन्य साधारण परिवर्तनोंसे भिन्न एक विशेष प्रकारका परिवर्तन है । खाली परिवर्तन ही नहीं, एक प्रकारकी सामूहिक एवं संगठित क्रिया है । मनुष्य के श्रार्थिक एवं औद्योगिक पतनकी राजनैतिक प्रतिक्रिया है । यह एक ऐसा आन्दोलन है जिसमें समाज विशेषकी समस्त मानसिक एवं शारीरिक शक्तियां एक आदर्श प्राप्ति के पीछे पड़ जाती हैं । 1 क्रान्ति विज्ञान की दृष्टिसे प्रत्येक क्रान्तिका मूल कारण मनुष्य की मूल एषणाधों में निहित है । और ये मूल- एषणाएँ चार हैं - ज्ञानैषणा, लोकैषणा, वित्तैषणा तथा पुत्रैषणा । यदि किसी समाजके नियमों और उसकी संस्थाओं में उक्त मूलैषणाओंकी तृप्तिके पर्याप्त साधन मौजूद हैं तो वह समाज एक सन्तुष्ट एवं स्थायी समाज है, और यदि नहीं, तो वह क्रान्तिके लिये एक उपयुक्त क्षेत्र हो जाता है। जितने जितने अंशों में समाज-विशेषमें इन मूल एषणाओंका दमन होता है उतने उतने ही अंशोंमें आनेवाली क्रान्ति हीनाधिक रूपसे तीव्र होती है । इसके अतिरिक्त क्रान्तिका मूलतत्व आशा है । प्रारम्भ से ही आशाका संचार एवं निराशाका परिहार इसका प्रभाव है। पीड़ितोंके हृदय में जबतक क्रान्तिकी सफलताका विश्वास तथा तज्जन्य आशाका प्रादुर्भाव नहीं होता वह क्रान्ति उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकते । और यह तभी हो सकता है कि जब अत्याचार तथा दमन वास्तवमें तो कुछ कम हो जाते हैं किन्तु पीड़ित व्यक्ति अपनी वस्तु-स्थिति तथा कष्टों का पूर्ण अनुभव करने लगते हैं । अतः क्रान्तिकी मुख्य प्रेरक शक्ति श्राशा ही है । क्रान्तिके उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन से हमारा आशय लौकिक क्षेत्रमें क्रान्तिका खंडन श्रथवा मंडन करना नहीं है, वरन् यह दिखलाना है कि समाजशास्त्र-विज्ञोंने जो वैज्ञानिक विवेचन राजनैतिक अथवा सामाजिक क्रान्तिका दिया है, वही आश्चर्यजनक रूपमें आत्मिक क्रान्तिमें भी अक्षरशः घटित होता है । एक भव्यात्मा जिस समय चारित्र धन के अभाव में
SR No.527159
Book TitleAnekant 1940 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy