SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८२ इन्द्रिय-विषयक परतन्त्रता में जकड़ा हुआ पतनके गर्त्त में डूब जाता है तो उसके उद्धारका एकमात्र उपाय आ त्मिक क्रान्ति ही है । समस्त सांसारिक दुखोंके कारण लोभ-मोह हैं । जिस प्रकार राजनैतिक एवं सामाजिक कष्टोंका कारण पूंजीवाद अर्थात् पूँजीपतियों का निरन्तर निज शक्तिवर्धन तथा उपभोग है उसी प्रकार प्राणीके समस्त सांसारिक कष्टोंका मूल कारण लोभमोह-जनित परिगृह- वृद्धि तथा विषयाकांक्षा ही है, जिससे त्राण पानेका साधन इन्द्रिय- दमन रूप प्रवृत्ति है। बिना तप संयमादिक बल-प्रयोगों के कभी कोई आत्मा चारित्र्य सत्ता प्राप्ति में सफल नहीं हुआ । अन्य पदार्थोंकी भाँति श्रात्म द्रव्यभी परिणमनशील है । किन्तु यह श्रात्म-परिणमन सदा स्वाभाविक ही नहीं हुआ करता, वरन प्रायः वैभाविक ही होता है। आत्मा अपने निजी स्वभावको भूलकर विकारग्रस्त हो जाता है और सब प्रकार के कष्टकर दुःखोंका निरन्तर शिकार बना रहता है । उसकी दशा बहुधा उस बन्दीके समान होती है जो बन्दी ख़ाने में ही जन्म लेता है, किन्तु जिसे कभी ऐसा सौभाग्य प्राप्त नहीं होता कि वह अपने जन्मस्थान के वास्तविक स्वरूपको जान सके । वह यह भी नहीं जान पाता कि उसके आस पास जो बहुमूल्य फ़र्नीचर एवं भोगोपभोगकी प्रचुर सामग्री विद्यमान है वह कवीन्द्र रवीन्द्रके शब्दों में उसके मानरूपी दुर्गको ऐसी अलक्ष्य किन्तु सुदृड़ दीवारें हैं जो न केवल उसकी स्वतन्त्रताका भी अपहरण किये हुए हैं, वरन उक्त स्वतन्त्रता प्राप्तिकी इच्छा का भी प्रभाव किए हुए । सांसारिक मोहजाल में फँसे हुए उस आत्मा के लिये श्रात्मिक स्वतन्त्र प्राप्त करना दुर्लभ ही नहीं किन्तु वह उसकी प्राप्तिके लिये प्रयत्नवान भी नहीं होता । उस मोहान्ध आत्माको आत्म जागृतिके दिव्य लोकमें अनेकान्त [माघ, वीर निर्वाण सं० २४६६ आने की इच्छा ही नहीं होती । परन्तु यह श्रात्मिक क्रान्ति एक ऐसा श्रान्दोलन है, श्रात्मिक पतनकी ऐसी आध्यात्मिक प्रतिक्रिया है कि उसकी समस्त प्रवृत्तियाँ और समस्त शक्तियाँ अपने श्रादर्श, अपनी स्वाभाविक अवस्था - पूर्ण स्वतन्त्रताप्राप्तिके कार्य में संलग्न हो जाती हैं । समस्त प्रात्मिक शक्तियाँ सामूहिक एवं सुसंगठित रूपसे क्रियावान हो जाती हैं । राजनैतिक अथवा सामाजिक क्षेत्र सम्बन्धी क्रान्तियोंकी कारणभूत चार मूलैषणाओंकी भाँति इ श्राध्यात्मिक क्रान्तिकी कारण भी ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य -- अनन्त चतुष्टय रूप परमानन्दमय पूर्ण स्वतन्त्र अवस्थाकी प्राप्त्यर्थं श्रात्मिक मूलैषणाएँ ही हैं जो वा स्तव में प्रत्येक प्राणीकी आत्मा में लक्ष्य अथवा अलक्ष्य रूपमें विद्यमान हैं । 1 जिन आत्माओं में उक्त मूलैषणाओं की तृप्तिके साधन अवस्थित हैं अर्थात् जिन्हें अपने स्वाभाविक गुणोंका अपने स्वरूपका भान है और जो उसकी प्राप्ति में संलग्न हैं उन्हें इस क्रान्तिकी श्रावश्यकता नहीं है ये सम्यकत्व युक्त श्रात्मायें उन्नतिशील हैं और अपने उद्योग में सफल ही होकर रहेंगी। अपने ध्येयको, अपने आदर्शको जबतक प्राप्त नहीं करलेंगी प्रयत्न नहीं छोड़ेंगी। किन्तु जो श्रात्माएँ इतनी भाग्यशाली नहीं हैं और अभी तक पतनकी थोर ही अग्रसर हो रही हैं, जिन्होंने सबं सुध बुध खो रक्खी है, जो इस पञ्च परिवर्तन रूप संसार में अनादिसे गोता खा रही हैं और यदि ऐसी ही अवस्था रही तो न मालूम कबतक इसी प्रकार जन्म मरणरूप संसारके दुःख भोगती रहें । उन्हें ही इस क्रान्तिकी आवश्यकता है, जिसके लिये पतनकी तीव्रता के अनुसार ही तप संयमादिक रूप
SR No.527159
Book TitleAnekant 1940 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy