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________________ জলক্ষ্মজিজ স্ট্রি সূক্ষ্মী শ্রাদ্ধ [ ले०-श्री अगरचन्द्. नाहटा, सम्पादक 'राजस्थानी' ] संसारके सारे समाज द्रुतगतिसे आगे बढ़ परिस्थितिका भलीभाँति अनुभवकर यथोचित मार्ग रहे हैं, नवीन नवीन आदर्शोका अवलम्बन ग्रहण करें। जिन पुराने विचारोंसे अब काम नहीं कर उन्नति लाभ कर रहे हैं और एक-दूसरेसे चलता है उन्हें परित्याग कर नवीन मार्गग्रहण करें प्रतिस्पर्धा करते हुए घुड़दौड़-सी लगा रहे हैं, पर क्योंकि सभी काम परिस्थितिके आधीन होते हैं। हमारे जैनसमाजको ही न मालूम किस कालराहुने परिस्थितिका मुकाबला करने वाले व्यक्ति हैं प्रसित किया है कि उसकी आभा इस प्रगति-शील कितने ? आज नहीं कल उन्हें अन्ततः उसी मार्ग युगमें भी तिमिराच्छन्न है । उसकी कुम्भकर्णी पर आना पड़ेगा जिसे परिस्थिति प्रतिसमय बलनिद्रा अब भी ज्योंकी त्यों बनी हुई है.। विश्वमें वान बना रही है। जो संसारकी गतिविधिकी कहाँ कैसी उन्नति हो रही है, इसके जानने-विचारने ओरसे सर्वथा उदासीन रहकर उसकी उपेक्षा या की हमें तनिक भी पर्वाह नहीं है। विश्व चाहे तिरस्कार करेंगे वे पीछे रह जायंगे, और फिर कहीं भी जाय हम तो अपने • वर्तमान स्थानको पछतानेसे होना भी कुछ नहीं। क्योंकि घड़सवार नहीं छोड़ेंगे, ऐसा दुराग्रह प्रतीत हो रहा है । कई व्यक्तिको पैदल कभी नहीं पहुंच सकता। इसीलिये युवक धीरे धीरे पुकार कर रहे हैं, कुछ होहल्ला जैनधर्ममें 'अनेकान्त' को मुख्य स्थान दिया गया मचा रहे हैं, पर समाजके कानों पर जूं तक नहीं है-कहा गया है कि अपना दृष्टिकोण विशाल रेंगती । युवकोंको पद-पद पर विघ्न बाधाएँ उप- रखो, विरोधी के विचारोंको पचानेकी शक्ति संचय स्थित हैं, आए दिन तिरस्कारकी बोछारें उनके करो, देश-कालके अनुसार अपना मार्ग निश्चित धधकते हृदयकी ज्वालाको शान्त कर रही हैं । वे करो। पर हमें धर्मके बाहरी साधन ही ऐसी भूलअपनी हार मान कर मन मसोस कर बैठ जाते भुलैयामें डाल रहे हैं कि तत्वके आंतरिक रहस्य हैं ! कोई नवीन आदर्श उपस्थित किया जाता है तक पहुँचने ही नहीं देते । स्वयं नया मार्ग निर्धातो स्थान-स्थान पर उसका विरोध होता है, उस रण या उपयोगी श्रादर्श उपस्थित करनेकी शक्तिपर गम्भीर विचार नहीं किया जाता; तब आप ही सामर्थ्य हममें कहाँ ? दूसरेके उपस्थित किये हुए कहिये उन्नतिकी आशा क्या निराशा नहीं है ? आदर्शोका भी अनुसरण नहीं करते । न मालूम जो व्यक्ति या समाज विश्वमें जीवित रहना वह सुदिन हमारे लिये कब आवेगा जब हम चाहता है उसके लिये आवश्यक है कि तत्कालीन अग्रगामी बनकर विश्व के सामने नवीन आदर्श
SR No.527159
Book TitleAnekant 1940 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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