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________________ २३२ अनेकान्त हरिभद्रसूरि चैत्यवासी संप्रदाय के थे या अन्य संप्रदाय के, यह कह सकना कठिन है । किन्तु कोई २ इन्हें संप्रदाय ही मानते हैं । उस समय में चैत्य - वासी और वस्तिवासी ऐसे दो प्रबल दल उत्पन्न होगये थे । इन दोनोंके परस्परमें समाचारी विषयको लेकर काफी वाद-विवाद, वाकलह एवं संघर्ष चलता था, और इस प्रकार ये दो विरोधी दल हो गये थे- ऐसा ज्ञात होता है। अंतमें चैत्यवासी संप्रदाय विक्रम सं० १००० के आसपास समाप्त होगया और खरतर गच्छके संस्था - पक श्रीजिनेश्वरसूनेि अपने अनुयायियों के लिये वि० सं० १०८० में वस्तिवास स्थिर किया । . इस परिस्थितिके सिंहावलोकनसे हरिभद्रसूरिका काल जैन साहित्य, जैन संस्कृति और जैन आचार क्षेत्र में एक संक्रान्ति काल कहा जा सकता है। अतः हरिभद्रसूरिका आविर्भाव जैन - इतिहास में श्रत्यन्त महत्वका स्थान रखता है । इसलिये यदि इन्हें "कलिकाल-सुधर्मा" कहा जाय तो यह युक्तिसंगत प्रतीत होगा । यही संक्षेप में आचार्यश्री के पूर्वकालीन और तत्कालीन साहित्यिक एवं आचार विषयक स्थितिकी स्थूल रूप रेखा है । अब धागे इनकी जीवनी और तरमीमांसा, साहित्य-रचना और तत्प्रभाव एवं निबन्ध से संबंधित अन्य अंगोंके संबंध में लिखनेका प्रयास करूँगा । * ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर संप्रदाय में विक्रमकी १५ वीं शताब्दि के श्रासपास या इसके कुछ पूर्व पुनः साधु संस्थामें चैत्यवासी जैसी स्थिति पैदा होगई होगी; इसीलिये श्राचारकी दृढ़ता के लिये धर्मप्राण लोकाशाहने षुनः वस्तिवासी अपर नाम स्थानकवासी संप्रदायकी नींव डाली है । - लेखक | [माघ, वीर- निर्वाण सं० २४६६ 'वीरशासनांक' पर कुछ सम्मतियाँ (६) श्री बालमुकन्दजी पाटौदी 'जिज्ञासु,' किशनगंज कोटा “अनेकान्तका विशेषांक मुझे मिल गया है । उसके गूढ़ साहित्य, गहरे अन्वेषण व पूर्णविचारसे लिखे गये लेखोंकी प्रशंसामें कुछ लिखनेके लिये मैं स्वयं अयोग्य हूँ – लिखनेकी शक्ति नहीं रखता । मैं इसे भले ही पूर्ण रूपेण न समझ पाऊँ परन्तु पढ़ता मैं उसे बड़े ध्यान से और बड़ी शान्तिसे हूँ। मैं उसे एकाग्र मनसे एकान्तमें पढ़कर बड़ा ही आनन्द लाभ करता हूँ। और हृदयसे मैं उसकी उन्नति चाहता हूँ और चाहता हूँ उसके सदैव निरन्तराय दर्शन | जैन लक्षणावली लिखनेका आपका अनुष्ठान बहुत ही प्रशंसनीय ऐसे ग्रन्थकrint जैन संसार व जैनेतर संसारको बहुत बड़ी आवश्यकता है | यह ग्रन्थ जैन संसारके रत्नकी उपमा धारणकरने वाला होगा । इससे लोगोंकी बहुत बड़ी ज्ञानवृद्धि होगी ।" “श्रीमान्की 'मीनसंवाद' नामक कविता बड़ी ही हृदयस्पर्शी हैं उसका यह वाक्य "गूंजी ध्वनी अंबरलोकमें यों, हा ! वीरका धर्म नहीं रहा है ! !" तो बड़ा ही हृदयमें चुभ जानेवाला और घुलजानेवाला है ।"
SR No.527159
Book TitleAnekant 1940 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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