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________________ वर्ष ३, किरण ४] सम्पादकीय विचारण . ३११ 'महत्प्रवचनहृदये' के स्थान पर 'अर्हत्प्रवचने' छप गया अनादिकर्मसम्बन्धपरतंत्रो विमूढधीः । हो । इस मुद्रित प्रतिके अशुद्ध होनेको प्रोफेसर साहबने ___ संसारचक्रमारूढो बंभ्रमीस्यास्मसारथिः ॥१॥ स्वयं अपने लेखके शुरूमें स्वीकार भी किया है। अतः सत्वन्तर्बाह्यहेतुभ्यां भव्यारमा लब्धचेतनः । उक्त वाक्य में 'महत्प्रवचने' पदके प्रयोगमात्रसे यह न- सम्यग्दर्शनसद्रत्नमादत्त मुक्तिकारणम् ॥२॥ तीजा नहीं निकाला जासकता कि अकलंक देव के सामने मिथ्यात्वकर्दमापायात्प्रसन्नतरमानसः । वर्तमानमें उपलब्ध होनेवाला श्वेताम्बर सम्मत तत्त्वार्थ- ततो जीवादितत्त्वानां याथात्म्यमधिगच्छति ॥३॥ भाष्य मौजूद था, उन्होंने उसके अस्तित्वका स्पष्ट उल्लेख अहं ममास्रवो बन्धः संवरो निर्जराक्षयः । किया है और उसके प्रति बहुमान भी प्रदर्शित किया कर्मणामिति तत्वार्थस्रदा समवबुध्यते ॥४॥ है।' अकलंक देवने तो इस भाष्यमें पाये जानेवाले हेयोपादेयतत्त्वज्ञो मुमुक्षुः शुभभावनः । कुछ सूत्रपाठोंको आर्षविरोधी-अनार्ष तथा विद्वानोंके सांसारिकेषु भोगेषु विरज्यति मुहुर्मुहुः ॥५॥ लिये अग्राह्य तक लिखा है । तब इस भाष्य के प्रति, इनके अनन्तर ही ‘एवंतत्वपरिज्ञानाद्विरक्तस्यात्मनो जिसमें वैसे सूत्रपाठ पाये जाते हों, उनके बहुमान-प्रद- भृशं' इत्यादि कारिकाएँ प्रारम्भ होती हैं। इन पाँचशेनकी कथा कहाँ तक ठीक हो सकती है, इसे पाठक कारिकाओंके साथ उत्तरवर्ती उन ‘एवं तत्त्वपरिज्ञा' स्वयं ,मझ सकते हैं । आदि कारिकाओं का कितना गाढसम्बन्ध है और इनके रानवार्तिकको मुद्रितप्रति के अन्तमें जो३२कारिकाएं बिना उक्त ३२ कारिकाओं में की पहली कारिका कैसी 'उक्तं च' रूपसे पाई जाती है वे उस दूसरे भाष्यपर अस्पष्टसी, असम्बद्धसी तथा कारिकाबद्ध . पूर्वककथनकी से ली हुई होसकती हैं, जिसके सम्बन्धमं राजवार्तिकमें अपेक्षाको रखती हुई मालूम होती है उसे बतलानेकी ही "बहुकृत्वः षड्व्याणि इत्युक्तं' ऐसा उल्लेख किया ज़रूरत नहीं, सहृदय विद्वान पाठक स्वयं समझ सकते गया है---अर्थात् यह बतलाया है कि उसमें बहत-बार हैं । अतः उन ३२ कारिकाओंके उद्धरणपरंसे यह नहीं छह द्रव्यों का विधान किया गया है और जिसकी चर्चा कहा जासकता कि अकलंकने उन्हें प्रस्तुत तत्त्वार्थभाष्य लेखीय नं. ४ के ख-भागका विचार करते हुए ऊपर की परस हो लिया है। इन सब कारिकाके सम्बन्धमें जा चुकी है । वे प्रक्षिप्त भी हो सकती हैं अथवा दसरे किसी समय विशेष विचार प्रस्तुत करनेकी भी मेरी किसी प्राचीन प्रबन्धपरसे उधत भी कही जासकती है। इच्छा है । अस्तु । ऐमा एक प्राची। प्रबन्ध ® जयधवलामें उद्धत भी अब रही राजवर्तिककी समाप्तिसूचक-कारिकाकी किया गया है, जिसके प्रारम्भकी पाँच कारिकाएँ बोत । इस कारिकाको मैंने अाजसे कोई २० वर्ष पहले निम्न प्रकार हैं: श्राराके जैन सिद्धान्तभवनकी एक प्रतिपरसे मालूम करके अपने नोटके साथ सबसे पहले 'जैन हतैषी' 28 इस प्रबन्धको उद्धृत करने के बाद जयधवलामें (भाग १५, अंक १-२, पृष्ठ ६) में प्रकट किया था । लिखा है-"एवमेत्तिएण पवंधेण णिज्वाण फलपजव- बादको यह अनेकान्तके प्रथम वर्षकी पाँचवीं किरणमें साणं" इत्यादि। भी 'पुरानी बातोंकी खोज' शीर्षक के नीचे प्रकट की
SR No.527159
Book TitleAnekant 1940 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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