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पर्ष ३, किरण ४]
हरिभद्रसूरि
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हरिभद्रसूरिका नाम प्रथम श्रेणीमें लिखनेके योग्य है। सहश्य स्थान है; वैसा ही महत्वपूर्ण और आदर्शस्थान
जैन-समाजमें हरिभद्रसूरि नाम वाले अमेक जैमा- साहित्य क्षेत्रमें एवं मुख्यतः न्याय-साहित्य क्षेत्र में भट्ट चार्य और ग्रंथकार हैं। किन्तु प्रस्तुत हरिभद वे हैं, जो अकलंकदेव और भाचार्य हरिभद्रका समझमा चाहिये। कि माकिमी महत्तरासूमुके नामसे प्रसिद्ध हैं। ये ही आश्चर्य तो यह है कि इनके जीवन चरित्र तकमें कुछ भाचार्य शेष अन्य सभी हरिभद्रोंकी अपेक्षासे गुणोंमें, हेरफेरके साथ काफी साम्यता है। इन दोनोंने ही ग्रंथ-रचनात्रों में और जिम-शासनको प्रभावमा करनेमें साहित्य-क्षेत्रमें ऐसी मौलिकता प्रदान की कि जिससे अद्वितीय हैं । इमका काल श्री जिनविजयजीने ई० उसमें सजीवता, स्फूर्ति, मबीमता और विशेषता पाई। सन् ७०० से ७७० तक अर्थात् विक्रम संवत् ७५७ से इस मौलिकताने ही भागे चलकर भारतीय धार्मिक ५२७ तक का निश्चित किया है, जिसे जैसाहित्यके क्षेत्र में जैन धर्मको पुनः एक जीवित एवं समर्थ धर्म प्रगाड अध्येता स्वर्गीय प्रोफेसर हरमन चाकोबीने भी बनाकर उसे “जन-साधारणके हितकारी धर्म" के रूपमें स्वीकार किया है, और जो कि अन्ततोगत्वा सर्वमान्य परिणत कर दिया । कुछ समय पश्चात् ही जैनधर्म पुनः भी हो चुका है । हरिभद मामके जितने भी जैन साहि- राजधर्म हो उठा और इस प्रभावका ही यह पल था त्यकार हुए हैं। उनमेंसे चरित्र-गायक प्रस्तुत हरिभत कि हेमचन्द्र और अमारिपडहके प्रवर्तक सबाट अमारही सर्वप्रथम हरिभद्र है।
पास सहीखी व्यक्तियाँ जैन समाजमें अवतीर्य दुई। पार्शनिक, माध्यास्मिक, साहित्यिक और सामाजिक इन्हीं प्राचार्यों द्वारा विरचित साहित्य के प्रभावसे दक्षिण प्रादिरूप तत्कालीन भारतीय संस्कृतिको तथा चरि- भारत, गुजरात तथा उसके भासपासके प्रदेशों में जैन त्रिक एवं नैतिक स्थितिके पातको और भी अधिक धर्म, जैन साहित्य और चैनसमान समर्थ एवं अनेक ऊंचा उठानेके ध्येयसे भाचार्य हरिभद्र रिने सामा- सद्गुणों से युक्त एक जज कोटिकी धार्मिक और नैतिक जिक प्रवाह और साहित्य-धाराको भोर कर नवीन ही संस्कृति के रूपमें पुनः प्रख्यातः हो गया। इन्हीं कारणों दिशाकी ओर अभिमुख कर दिया । सामाजिक विकृति- पर रष्टिपात करनेसे एवं सत्कालीन परिस्थितियों का के प्रति कठोर रुख धारण किया और उसकी बड़ी समा- विश्लेषण करनेसे यह मो प्रकार सिब हो जाता है खोचना की। विरोध-गम्ब कठिनाइयों का वीरता पूर्वक कि हरिमद्रसूरि एक युग मचान और युग-निर्माता सामना किया, किन्तु सत्य मार्गसे करा भी विनित प्राचार्य थे। नहीं हुए। यही कारण था कि जिससे समाजमें हुमः भाचार-क्षेत्र, विचार-क्षेत्र और साहित्य क्षेत्र में इसके स्वस्थता प्रदायक नवीनता भाई और भगवान महावीर द्वारा नियोजित मौलिकता, नवीमता, और अनेकविध स्वामीके आचार-क्षेत्र के प्रति पुनः जनताको अदा और विशेषताको देखकर झटिति मुंहसे यह निकल पड़ता है भक्ति बढ़ी।
कि प्राचार्य हरिभद्र कलिकाल सुधर्मा स्वामी है । जिस प्रकार प्राचार्य सिरसेन दिवाकरका और निबंधके आगेके भागसे पाठकोंको यह ज्ञात होनाषणा स्वामी समन्तभद्रका जिमशासनकी प्रभावना करनेमें कि यह कथन भसिरंजित केवल काव्यात्मक वाक्य ही एवं जैन-साहित्यकी धाराम विशेषता प्रदान करनेमें नहीं है, बल्कि सब्यासको लिये हुए है।