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________________ हरिभक्र्सूरि वर्ष ३, किरण ४ ] करने लगे और सैकड़ों ग्रंथ भंडार नेस्तनाबूद कर दिये शेष थे । भारतपर मुसलमानों के अाक्रमण प्रारम्भ हुए। गये । धनापहरण के साथ २ धर्मान्ध मुसलमानोंने भारतीय साहित्य भी नष्ट करना प्रारम्भ किया और इस तरह बचा हुआ जैन साहित्यका भी बहुत कुछ अंश इस राज्य - क्रांति के समय काल-कवलिल हो गया । उस काल में जैनसाहित्यकी रक्षा करनेके दृष्टिकोणले बच्चा हुना साहित्य गुप्त भंडारों में रखा जाने लगा; किन्तु कुछ ऐसे रक्षक भी मिले, जिनके उत्तराधिकारियोंमे भंडारोंका मुख सैंकड़ों वर्षों तक नहीं खोला; परिणाम स्वरूप बहुत कुछ साहित्य कीट-कवलित हो गया; पत्ते सह गये - गल गये और अस्त-व्यस्त हो गये । इस प्रकार जैन साहित्य पर दुःखों का ढेर लग गया, वह कहां तक जीवित रहता ? यही कारण है कि हरिभद्रसूरिके पूर्वका साहित्य भागके बराबर है और बादका 3 भाग के बराबर है । यह तो हुआ हरिभद्र सूरि के पूर्व कालीन और तत्कालीन साहित्यिक स्थितिका सिंहावलोकन | अब इसी प्रकार प्रचार-विषयक स्थितिकी श्रोर दृष्टिपात करना भी प्रासंगिक नहीं होगा । कुछ काल पश्चात् बौद्ध साधुनों में भी विकृति और शिथिलता आगई, इन्द्रिय पौषणकी ओर प्रवृत्ति अधिक बढ़ गई; केवल शुष्क तर्क-जालके बलसे ही अपनी म र्यादाकी रक्षा करने लगे; और इतर धर्मोके प्रति विद्वेष की भावना में और भी अधिक वृद्धि कर दी । यही कारण था कि बौद्धोंको निकालने के लिये समय श्राते ही उत्तर भारत में शंकराचार्यने प्रयत्न किया, दक्षिणमें कुमारिल भट्टने प्रयास किया और गुजरात आदि प्रदेशों में जैनाचार्योंने इस दिशा में योग दिया । बौद्धोंका बल क्रमशः घटने लगा और वैदिक सत्ता पुनः धीरे २ अपने पूर्व श्रासनपर आकर जमने लगी। अनेक राजा महाराजा पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित होगये और इस तरह वैदिक धर्म अपनी पूर्वावस्था में श्राते ही बौद्धधर्म के साथ २ जैनधर्मका भी नाश करनेके लिये उद्यत हो गया। इस तरह पहले बौद्ध दार्शनिक और बादमें . वैदिक दार्शनिक, दोनों ही जैन साहित्यपर टूट पड़े और अनेक जैन साहित्य के प्राचीन भँडारोंको अनिके समर्पण कर उसे नष्ट कर दिया । इन कारणोंके साथ२ भयंकर दुष्काल और राज्य क्राँतियाँ भी जैन साहित्यको नष्ट करनेमें कारणरूप हुई हैं। यही कारण है कि हरिभद्रसूरिके पूर्व जैन साहित्य इतनी अल्प मात्रामें ही पाया जाता है । जो कुछ भी वर्तमान में उपलब्ध है, उसका भाग हरिभद्रसूरिके काल ने लगाकर तत्पश्चात् कालका है । अतः जैन साहित्य - क्षेत्रमें हरिभद्रसूरिका साधारण स्थान है, यह निस्संकोचरूपसे कहा जा सकता है। भारतीय साहित्यका दैवदुविपाक यहीं तक समाह नहीं हो गया था, उसकोग्भय में और भी दुःख देखने २८६ यह पहले लिखा जा चुका है कि आचार - विषयक फूटका इतना गहरा प्रभाव हो चुका था कि जिससे श्वेताम्बर और दिगम्बर रूपसे दो भेद होगये थे । स्थिति यहीं तक नहीं रुक गई थी । श्राचार शिथिलता दिनों-दिन बढ़ती गई । इन्द्रिय विजयता और इन्द्रिय दमनके स्थान पर इन्द्रिय लोलुपता, स्वार्थ- परता एवं यशो - लिप्सा यादि अनेक दुर्गुणोंका साम्राज्य- श्राचार क्षेत्रमें अपना पैर धीरे २ किंतु मजबूती के साथ जमाने लग गया था । साधुत्रों का पतन शोचनीय दशाको प्राप्त हो गया था । श्राचार्य हरिभद्रसूरिने इस परिस्थिति की अत्यंत कठोर समालोचना की है । आप ही की शक्तिका यह प्रभाव था कि जिससे जनता और
SR No.527159
Book TitleAnekant 1940 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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