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________________ वर्ष ३, किरण ४] भावार्थ - इस नृपुरी में अरहंत भगवान्कै चरणाकमलका भ्रमर, सज्जनोंके हृदयको परमानन्द देनेवाला माथुर संघरूप समुद्रको उल्लसित करनेवाला भव्यात्मा श्रीनेमिचन्द्र नामका परम श्रावक हुआ, जिसकी धर्मपत्नीका नाम स्वर्णा (सोना) था जो कि श्रखिल विज्ञानकलाओं में कुशल, सती, पातित्रत्यादि-गुणोंसे भूषित और अपनी मनोवृत्ति के ही समान श्रव्यभिचारिणी थी । धर्म र्थ श्रौर कामको सेवन करनेवाले इन दोनों जाहिणी नामकी पुत्री हुई, जो अपने कुलरूप कुमुदवनकी चन्द्रलेखा, निजवंशकी वैजयन्ती ( ध्वजा ) और सर्व लक्षणों से शोभित थी । इसके बाद उनके राम और लक्ष्मणके समान गोकर्ण और श्रीचन्द्र मामके दो सुन्दर, गुणी और भव्य पुत्र उत्पन्न हुए । और फिर नेमिचन्द्रकी वह जिनशासन वत्सला, विवेक - विनयशीला और सम्यग्दर्शनवसी पुत्री ( जाहिंणी ') संसारकी विचित्रता तथा नरजन्मकी निष्फलता को जानकर तपके लिए घरसे चल दी। वह शान्तचित्त ज्ञानविकी एक प्राचीन प्रति अतिशय संयत थी। शास्त्रज्ञ बन्धुजनोंके प्रयत्न पूर्वक रोकने पर भी उसके मनको प्रेम या मोहमे ज़रा मी मैला न होने दिया । आखिर उसने मुनियोंके चरणोंके निकट श्रार्यि ara त ले लिये और मनकी शुद्धिसे अखंडित रत्न'त्रयको स्वीकार किया' । "उस विरक्ताने नवयौवनकी उम्र में ऐसा कठिन तप करना आरम्भ किया कि सज्जनोंने उसकी 'साधु साधु' कहकर स्तुति की। उसने यम, व्रत और तपके उद्योग से, स्वाध्याय ध्यान और संयम से तथा कायक्लेशादि अनुष्ठानोंसे अपने जन्मको सफल किया । २०१ उसने निरन्तर बाह्य और अन्तरंग दुष्कर तप तपकर कषायरिपुत्रोंके साथ साथ अपने सारे शरीरको भी सुखा डाला । उसने विनयाचार - सम्पत्तिसे सारे संघकी उपासना की और वैयावृत्ति करके अपनी कीर्तिको दिगन्तरोतक पहुँचा दिया । जिन पौरजनोंने उसे पहले देखा था वे भी इस तरहका वितर्क करने लगे कि न जाने यह साक्षात् भारती ( सरस्वती ) देवी है या शासनदेवता है । उस जाहिणी श्रार्यिकाने कर्मोंके जयके लिए यह ज्ञानार्णव नामकी पुस्तक ध्यान और अध्ययनशाली, तप और शास्त्र निधान, तत्वोंके ज्ञाता और रागादिरिपुत्रोंको पराजित करनेवाले मल्ल जैसे शुभचन्द्र योगीको लिखाकर दी । वैशाख सुदी १० शुक्रवार वि० सं० १२८४ को गोमंडल (गोंडल - काठियावाड़) में दिगम्बर राजकुल ( भट्टारक ? ) सहस्रकीर्ति के लिए पं० केशरीके पुत्र वीसलने लिखी । विवेचन - ऐसा मालूम होता है कि इस पुस्तकमें लिपि-कर्त्ताओं की दो प्रशस्तियाँ हैं । पहली प्रशस्ति में तो लिपिकर्त्ता का नाम और लिपि करनेका समय नहीं दिया है, सिर्फ लिपि करानेवाली जाहिणीका परिचय दिया है । • हमारी समझमें श्रार्थिका जाहिणीने जिस लेखकसे उक्त प्रति लिखाई होगी, उसका नाम और समय भी अन्त में अवश्य दिया होगा; परन्तु दूसरे लेखकने उक्त पहली प्रतिका वह अंश अनावश्यक समझकर छोड़ दिया होगा और अपना नाम और समय अन्तमें लिख दिया होगा । इस दूसरी प्रतिके लेखक पं० केशरीके पुत्र वीसल हैं और उन्होंने गोंडल में श्रीसहस्रकीर्ति के लिए
SR No.527159
Book TitleAnekant 1940 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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