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वर्ष ३, किरण ४ ]
धर्म के प्रचार में, नवीन जैन बनाने में लगाये जाएँ तो कोई कारण नहीं कि हम विश्वमें गौरव प्राप्त नहीं कर सकें।
जैन समाजके लिए अनुकरणीय आदर्श
देहलीसे बनारस आने पर वहां के भेलुपुरेके जैन मन्दिरको देखकर प्रथम मुझे आनन्द एवं आश्चर्य हुआ कि वहां श्वेताम्बर जैन मंदिरमें श्वेताम्बर मूर्तियों के साथ साथ कई दिगम्बर मूर्तियां भी स्थापित हैं। पर पीछे से मालूम हुआ कि उसी के पास में दिगम्बर भाइयोंका एक और मंदिर है जिसमें बहुसंख्यक मूर्तियां हैं । यदि हमारे मंदिरों में दोनों सम्प्रदायोंकी मूर्तियाँ पासमें रखी रहें और हम अपनी अपनी मान्यतानुसार बिना एक दूसरेका विरोध किये समभाव पूर्वक पूजा करते रहें तो जो अनुपम आनन्द प्राप्त हो सकता है यह तो अनुभवकी ही वस्तु है । ऐसा होने पर हम एक दूसरे से बहुत कुछ मिल-जुल सकते हैं । आपसी विरोध कम हो सकता है, एक दूसरे के विधि-विधान से अभिज्ञ होकर जिस सम्प्रदायकी विधिविधान में जो अनुकरणीय तत्व नज़र आवे अपने में ग्रहण कर सकते हैं। एक दूसरेके विद्वान् आदि विशिष्ट व्यक्तियोंसे सहज परिचित हो सकते हैं। दोनों मंदिरोंके लिये अलग अलग जगहका मूल्य मकान बनानेकं खर्च, नौकर, पूजारी, मुनीम रखने आदिका सारा खर्च आधा हो जाय । अतः आर्थिक दृष्टिसे यह योजना बहुत उपयोगी एवं लाभप्रद है । पर हमारा समाज अभी तक इसके योग्य नहीं बना, एक दूसरे के विचारोंको हीन क्रियाकाण्डों को प्रयुक्त और सिद्धान्तों को सर्वथा भिन्न मान रहे हैं, इधर-उधर से जो कुछ साधारण मान्यता-भेद सुन रखे हैं उन्हींको बहुत
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महत्व देकर दिनोंदिन हम अधिकाधिक कट्टरता धारण कर रहे हैं । साधारणतया यही धारणा हो रही है कि उनसे हमारा मिलान -मेल हो ही नहीं सकता, उनकी धारणा सदा भ्रान्त है, पर वास्तव में वैसी कुछ बात है नहीं, यह मैंने अपने "दिगम्बर श्वेताम्बर मान्यता-भेद शीर्षक लेखमें जो कि 'अनेकान्तके' वर्ष २ अंक १० में प्रकाशित हुआ है, बतलाया है । हमारी वर्तमान विचारधाराको देखते हुए उपर्युक्त योजना केवल कल्पना- स्वप्नसी एवं असम्भवसी प्रतीत होती है, संभव है मेरे इन विचारोंका लोग विरोध भी कर बैठें, पर वे यह निश्चय से स्मरण रखें कि बिना परस्परके संगठन एवं सहयोग के कभी उन्नति नहीं होनेकी ।
श्वेताम्बर एक अच्छा काम करेंगे तो दिगम्बर उससे असहिष्णु होकर उसकी असफलताका प्रयत्न करेंगे । दिगम्बर जहां प्रचार कार्य करना प्रारम्भ करेंगे श्वेताम्बर वहां पहुँच कर मतभेद डाल देंगे । तब कोई नया जैन कैसे बन सकता है ? अन्य समाज में कैसे विजय मिल सकती है ? अर्थात हमारा कोई भी इच्छित कार्य पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सकता । उदाहरणार्थ दिगम्बर महावीर जयंती की छुट्टी के लिये या अन्य किसी उत्तम कार्य के लिये आगे बढ़ेंगे तो श्वेताम्बर समझेंगे कि हम यदि सहयोग देंगे और कार्य सफल हो जायगा तो यश उन्हें मिल जायगा अतः हम अपनी तूती अलग ही बजावें, तब कहिये सफलता मिलेगी कैसे ? सर्व प्रथम यह परमावश्यक है कि जो आदर्श कार्य हम दोनों समाजोंके लिये लाभप्रद है कमसे कम उसमें तो एक दूसरेको पूर्ण सहयोग दें । महावीर जयंती आदिके उत्सव एक साथ