Book Title: Ahimsa Vani 1952 08 Varsh 02 Ank 05
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Jain Mission Aliganj
Catalog link: https://jainqq.org/explore/543517/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IS THE GREATEST RELIGION NON-VIOLENCE IS COSCOP COMPA MMIO MUITTmmHTTA परमोह सम्पादक वर्ष २ अंक ५ कामता प्रसाद जैन अगस्त १६५२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-वाणी : स्वाधीनतांक विषय-सूची arm १-मातृ-शक्ति [कविता] रचयिता-कविवर 'शशि' १ २-स्वाधीनता-सूक्ति-सञ्चयन ३-स्वाधीनता ले०-महात्मा भगवानदीन ३ ४-विद्या [विचार-बिन्दु] ले०-श्री बीरबल ५-हमें अान्तरिक स्वतंत्रता चाहिए। ले०-प्रो० रामचरण महेन्द्र ७ ६-मुक्ति का भिखारी [गद्य-काव्य] श्री सुधेश ७-गेटे की कृतियों में सत्य अहिंसा और स्वाधीनता-ले०-क्लेरीसा ट्वाइले १२ ८-दो गीत (गीत) श्री रतन पहाड़ी ६-सच्चा स्वातन्त्र्य (रूपक) वीरेन्द्र प्रसाद जैन १७ १०-हे स्वतंत्रते ! (कविता) श्री शालिग्राम शर्मा २३ ११-छात्रों से ! (कविता) श्री सूरज सहाय शर्मा २४ १२-स्वतंत्रता दिवस ले०-प्रो० अनन्त प्रसाद जैन २५ १३-कदम डगमगा उठे (कविता) रचयिता-श्री सागरमल वैद्य १४-जागरण (कविता) रचयिता-श्री 'सुमन' १५-लो, आजादी का दिन अाया (कविता) रचयित्री-सुमन लता जैन १६-काँग्रेस और स्वराज्य लेखक-मिथलेशचन्द्र जैन १७–साहित्य-समीक्षा १८-सम्पादकीय م my م my ع mr ع ع ع सम्पादक कामता प्रसाद जैन परामर्श-दातृ-परिषद् जैनेन्द्र कुमार यशपाल जैन बैजनाथ महोदय प्रकाशचन्द्र टोंग्या सुरेन्द्र सागर प्रचण्डिया शिव सिंह चौहान 'गुञ्जन' वार्षिक शुल्क-पाँच रुपया ५) एक प्रतिका आठ आना ) विशेषः-वाचनालयों, पुस्तकालयों तथा अन्य शिक्षा-संस्थाओं के लिए ४||) वाषिक मूल्य रखा गया है। अतः शिक्षा-संस्थाओं को लाभ लेना चाहिए । Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसावाणी SITTTTY W बापू Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिसा परमोशन अगस्त __ वर्ष २ । “जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं। अङ्क ५ | वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ॥"-गुप्त । १९५२ मातृ-शक्ति ! (श्री कल्याण कुमार जैन 'शशि' ) निबल हुई है बल खो के आज मातृ-शक्ति, ___ भारत बसुन्धरा का नत हुआ माथ है । शौर्य शक्ति, बल, तेज, साहस का ह्रास हुआ, क्लेश-कष्ट, रोग-शोक पग-पगं साथ है। अपने महान पृथ-दर्शन को भूल कर, .. कल की सनाथ आज हो गई अनाथ है। जीवन जगाया तुमने ही देश में सदैव, फिर लाज भारत की आप के ही हाथ है ॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाधीनता-सूक्ति-सञ्चयन "सच्चा स्वराज्य तो अपने मन पर राज्य है । उसकी कुंजी सत्याग्रह, आत्म-बल अथवा दया-बल है। इस बल को काम में लाने के लिए सदा स्वदेशी बनने की जरूरत है।" -महात्मा गाँधी __"स्वराज्य का अर्थ है अपने पर काबू रखना, यह वही पुरुष कर सकता है जो दूसरों को धोका नहीं देता, माता-पिता, स्त्री-बच्चे नौकर-चाकर, पड़ौसी सब के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करता है ।" -महात्मा गाँधी "हिसा से राज्य मिलेगा, पर स्वराज्य मिलेगा अहिंसा से।" -विनोवा "स्वतंत्रता राष्ट्रों का शाश्वत यौवन है।" --फौय "जब हम यह कहते हैं कि हम स्वतन्त्रता को सर्वोपरि स्थान देते हैं तो उसका क्या अर्थ होता है ? मैं बहुधा विस्मत हुआ करता हूँ कि हम । अपनी कितनी अधिक आशाएं-आकांक्षाएं संविधानों, कानूनों और न्यायालयों -- पर लगाये रहते हैं। स्वतन्त्रता तो स्त्री-पुरुषों के हृदत की चीज है; जब यह वहाँ निर्जीव हो जाय तो कोई भी संविधान, कानून और न्यायालय उसकी रक्षा नहीं कर सकता....... ___ "और यह स्वतन्त्रता है क्या ? यह निर्मम अनियन्त्रित इच्छा का नाम नहीं है; यह मनमानी करने की आजादी भी नहीं है । वह तो स्वतन्त्रता का प्रतिषेध है और उसका सीधा परिणाम उसका विनाश है । जिस समाज में मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता पर कोई नियन्त्रण या मर्यादा नहीं मानते उसमें स्वतन्त्रता शीघ्र ही कुछ शक्ति-शालियों के हाथ का खिलौना बन जाती है; यह हमारा खेदजनक अनुभव है। "हाँ, तो फिर स्वतन्त्रता की भावना क्या है ? मैं इसका निरूपण नहीं कर सकता, मैं तो आपको केवल अपनी सम्मति बतला सकता हूँ । स्वतन्त्रता की भावना ऐसी होती है जिसमें निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि यही बात ठीक है; स्वतन्त्रता की भावना वह होती है जिसमें अन्य स्त्रीपुरुषों के हृदय को समझने की चेष्टा की जाती है; स्वतन्त्रता की भावना उसे कह सकते हैं जिसमें निष्पक्ष भाव से अपने स्वार्थ के साथ दूसरों के स्वार्थ का भी ध्यान रखा जाता है; स्वतन्त्रता की भावना में एक छोटी सी चिड़िया भी पृथ्वी पर गिरती है तो उसकी ओर भी हमारा ध्यान जाता है; स्वतन्त्रता की भावना उस ईसामसीह की भावना है जिसने लगभग [शेषांश पृष्ट ८ परदेखिये ] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतन्त्रता ( लेखक - महात्मा श्री भगवान दीन जी) स्वतन्त्रता क्या है ? यह भी कोई सवाल है । स्वतन्त्रता को सब प्राणी समझते हैं, वह प्राणी ही नहीं, जो स्वतन्त्रता को न • समझे । सब प्राणी बोलते नहीं, कुछ ऐसे हैं जो बोल लेते हैं, पर हम सफ़ेद कागज़ - को काला करने वाले उनकी बात नहीं समझते, अगर समझते होते तो हम यह जान जाते कि पशु पक्षी 'किसे स्वतन्त्रता मानते हैं ?' हमारे लिये सिर्फ श्रादमी बोलता है, इसलिये हर आदमी, 'स्वतन्त्रता क्या है ?' इसका जवाब दे सकता है । जवाब तरह-तरह के होंगे । ध्यान से देखने पर सब ऐसे मालूम होंगे मानो सब के सब जवाब, मोतियों की तरह, एक डोरे में पिरोए हुये हैं । ऋषियों, ज्ञानियों, महापुरुषों ने 'स्वतन्त्रता क्या है ? इसके उत्तर में जो कुछ कहा है वह ही कब एक है ? हम सब इन जवाबों को पढ़ते हैं, श्रानन्द लेते हैं और गहरे जायं तो एक अर्थ भी पा लेते हैं । धर्म एक, पर धर्म तो दसियों हैं, पांच है की गिनती तो बड़े धर्मों में है, फिर भी अकादमी यह कहते मिलते हैं, 'सत्र धर्म एक हैं, यानी धर्म एक है।' धर्मों की तरह स्वतन्त्रता एक है। स्वतन्त्रता एक है, यह बात शायद यो मन में बैठ सके - स्वतन्त्रता की तड़प सबमें एक सी है । स्वतन्त्रता का अनुभव सबमें एक सा है । स्वतन्त्रता कहने को बाहरी पर है एकदम भीतरी । स्वतन्त्रता किसी तरह नहीं समझाई जा सकती । सत्य कब किसकी समझ में आया ? पर क्या किसी ने उसके समझने की कोशिश छोड़ी ! ईश्वर कब किसकी समझ में आया ? पर क्या दुनियाँ उसे खोजते खोजते कभी थकी ? स्वतन्त्रता मिले या न मिले हम उसके लिये जाने देते रहेंगे, तरह-तरह दुख भोगते रहेंगे और सब तरह का त्याग करते रहेंगे । स्वतन्त्रता समझ में आये या न आये, हम यह कहते रहेंगे कि हम यह ख़ूब समझते हैं कि स्वतन्त्रता क्या चीज़ है और उधर स्वतन्त्रता को समझने की कोशिश भी करते रहेंगे । गाय रस्सी तुड़ाती है । रस्सी मज़बूत होने से अगर न टूट सके और गाय, अपनी ताकत से खूंटा उखाड़ ले और भाग खड़ी हो तो क्या वह यह नहीं समझ बैठती कि वह स्वतन्त्र हो गई । और क्या वह अपनी ऊंची गरदन उठाकर और अपनी बड़ी-बड़ी श्रांखे मटकाकर खूटों से बंधी और गायों को श्रभिमान के साथ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रहिंसा-वाणी स्वतन्त्र हूँ और तुम बंधी हुई हो । यह कहती नहीं मालुम होती कि देखो मैं में बंधा हुआ है तो कभी अधाव में, कभी घर में बंधा हुआ है तो कभी देश में। बस बंधा बंधा चिल्ला रहा है'मैं स्वतन्त्र हूँ ।' खूँटा उखाड़ कर ले जाने वाली गाय इधर तो और गायों से कह रही है कि वह स्वतन्त्र है और उधर खूँटे से पीछा छुड़ाने के लिये ऐसी जुटी हुई है मानो वह अपने में ही बंधी हुई है । कभी कोई भूला भटका यह भी कह बैठता है मैं मरने के लिये आज़ाद हूँ । लोग यह सुन कर हँस देते हैं। क्या बुरा कहता है वह ? यही तो कहता है कि वह जिस्म के जेलखाने से भाग निकलने के लिये आज़ाद है । आज़ाद है या नहीं १ स्वतन्त्र हुआ या नहीं ? अच्छा साहब भागते-भागते ज़मीन से रगड़ खा खाकर या पेड़ों की छाल से घिस घिस कर कहीं अटक कर उस गाय की रस्सी टूट जाती है । फिर ज़रा उसे देखिये एकदम ऐसे उछलेगी जिस तरह वह जत्र उछली थी जब वह एक दो दिन की बछिया थी । अगर गाय बोल सकती होती और उस गाय के खुर आदमियों के हाथ जैसे होते तो वह भी कोई झंडा लेकर कूदता - कूरती बाज़ारों में निकलती और यह कहती फिरती 'मैं पूरी तरह आज़ाद हूँ। मैं पूरी तरह आज़ाद हूँ ।' और कब ? जब उसकी गर्दन में रस्सी का घेरा ज्यों का त्यों मौजूद है। आदमी का कुछ ऐसा ही हाल है । हम नहीं समझते श्रादमी यह कहकर क्या कहना चाहता है ? मैं स्वतन्त्र हूँ चाहे जब सोऊँ । मैं स्वतन्त्र हूँ चाहे जब जागूँ । मैं स्वतन्त्र हूँ चाहे जब उठँ । मैं स्वतन्त्र हूँ चाहे जहाँ जाऊँ । यह अपने आपको स्वतन्त्र समझने वाला श्रादमी कहे कुछ भी पर अच्छी तरह समझता है कि वह कभी नींद में बंधा हुआ है तो कभी जाग में कभी भूख कुछ ऋषि, नामी श्रादमियों की सूझ लीजिये । उनको यह इल्हाम हुश्रा या ज्ञान हुआ कि जो आदमी अपने जिस्म का जेलखाना तोड़कर भागा वह या तो कुछ दिनों भटकता रहा ( देखिये भटकता रहा लफ्ज़ को ध्यान में रखिये ) या उसी से मिलते जुलते जिस्म के किसी और जेलखाने में जा फंसा । फिर वही स्वतन्त्रता की तड़प, वही उसके पा लेने की दौड़-धूप और वहीं उसके जानने की इच्छा । अत्र बँधने और खुलने के सिवा स्वतन्त्रता क्या रह जाती है। दही में घूमनेवाली मथानी अगर दही से यह कहे कि मैं आज़ाद हूँ । दायें-बायें किधर ही को घूमूं, ऊपर-नं चे जब चाहूँ ऊँ जाऊँ। तो दही सुन लेगा और यही समझेगा कि यह ठीक ही कहती है । उस दही को क्या मालुम कि यह ग्वालिन की कितनी गुलाम है और उसने किस तरह इसकी कमर में रस्सी के दसियों लपेट दे रक्खे हैं और अपनी मर्जी पर • Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्वतन्त्रता * . इसको जिधर जाहे घुमाती है और जब स्वतन्त्रता की इस कसौटी पर उन चाहे घुमाती है। .. महापुरुषों को परख कर देख लीजिये जो : जवानी में अपने रिश्तेदारों को छोड़कर १ जेलखाने का वार्डर स्वतन्त्र है कैदी भागे । कोई अपनी पत्नी को सोता छोड़ के लिए । पर वह तो जेलर के हुक्म का कर चल दिया, कोई अाँसों से उसके बन्दा है और वह खुद ही कौन आजाद कपड़े भिगो कर चल दिया, कोई किसी है. १ वह किसी और का बन्दा है। तरह और कोई किसी तरह । खुलासा यह कि बन्धन का यह सिलसिला एक जगह हमने देखा ऊँट के सिर कहीं खत्म नहीं होता। अगर कोई ढीठ पर एक लकड़ी बांधी गई थी उस लकड़ी बनकर अपने को स्वतन्त्र मान ही ले तो के अगले सिरे पर नीम की एक हरी शाख अपनी आदतों की बन्दिश से कहाँ बंधी हुई थी ऊँट उसे खाने के लिये जायगा?. चलता था दिन भर चलता था पर क्या अब स्वतन्त्रता एक छलावा बन जाती वह हाथ पाती थी। पर इस तरकीब से है। दौड़े जानो उसे पाने के लिए । वह तेली ऊंट से सरसों पिलवा लेता था हाथ आने से रही। एक बार मैं बारह और ऊँट को हांकने के लिए उसे वर्ष की उम्र में स्वतत्र होने के लिये घर · श्रादमी नहीं बिठाना पड़ता था। प्रकृति से निकल भागा चौबिस घन्टे स्वतन्त्र रहा देवी ने अपने आप को बेहद चलाक और वह मेरी स्वतन्त्रता यह थी कि अपने समझने वाले आदमी से जी तोड़ काम एक दोस्त के मकान की ऊपर की मंजिल ___ करने के लिये उसमें स्वतन्त्रता की इच्छा के एक कमरे में बंध गया । बाहर निक पैदा कर दी है। बस वह चालाक श्रादमी लता तो बाप या भाई इँद लेते और इसी को पाने के लिये ज़मीन आसमान मेरी स्वतन्त्रता छिन जाती। रही खाने एक करता रहता है और कोल्हू के ऊंट पीने की बात सो घर पर अम्मां से मांगना की तरह प्रकृति देवी का तेल पेरने के पड़ता था यहाँ दोस्त या दोस्त की मां सिवाय कुछ नहीं कर पाता । जिस तरह . से । अा हाहा इस बन्धन मै खुश था कंट को तेल पेल चुकने के बाद स्वतन्त्रता का रसे पी रहा था और उस वह हरी शाख खाने को दे दी जाती है रस में जो जोर की मिठास थी उसका चाहे और चारा भी मिल जाता है और ऊंट मुझे पता न हो पर मेरे अन्तर आत्मा समझता है कि यह सब उसकी दौड़ धूप को पता था कि वह मिठास उस दुख का का फल है वैसे ही श्रादमी प्रकृति देवी निचोड़ है जो मेरे मां बाप और भाई की नौकरी पूरी तरह बजा कर ऐसा बहन को मेरे विछोह से हो रहा था। मालम करने लगता है कि उसने स्वतंत्रता : अब स्वतन्त्रता का अर्थ हुश्रा.अपनी पाली और प्रकृति देवी की दी हुई प्रसिद्ध मर्जी का बन्धन । .. . को भी वह यही समझता है कि वह उसी Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ही कमाई हुई है । उस तरफ उसका ध्यान ही नहीं जाता कि कितनों की प्रसिद्धि छिन चुकी है और श्राये दिन छिनती रहती है और कितनों की श्राये दिन निती रहेगी । हिंसा-वाणी स्वतन्त्र होने की कोशिश से कभी किसी को छुट्टी नहीं मिलेगी। कभी कोई बाज नहीं आयेगा । स्वततंत्रता रूपी • छलिनी की चाल से बच तो कोई सकता नहीं समझ ले इतना बस है। बिना समझे स्वतन्त्रता बन्धन बन बैठेगी । पशु पक्षियों में स्वतन्त्रता बन्धन बनी हुई है । यही हाल अनगिनत विचार- विन्दु विद्या ? वि + दया. वि+दया ? विशेष दया ? विस्तार दया ? विश्वमयी दया ? विद्या = विश्वमयी दया, विश्वमयी दया ? प्रेम, प्रेम ? अहिंसा, श्रादमियों का है। दुनियाँ में बहुत कम ही ऐसे हैं जो सिर्फ बन्धन को बन्धन मानते और स्वतन्त्रता को बन्धन नहीं । स्वतन्त्रता पर जब जब श्रादमी छाया रहता है वह स्वतन्त्र समझा जाता है । स्वतन्त्रता जब श्रादमी पर छा जाती है तब वह स्वच्छन्द कहलाने लगता है । और अपने और समाज दोनों के लिये भयानक प्राणी बन बैठता है । स्वतन्त्रता का मुक्ति नाम वाला रूप दुनिया के काम का नहीं । उसमें गहरे जाने की ज़रूरत ! विद्या [ श्री बीरबल ] अहिंसा ? प्रेम, प्रेम ? आत्मा, आत्मा ? सच्ची स्वतंत्रता, सच्ची स्वतंत्रता ? प्रेम, प्रेम = अहिंसा स्वतंत्रता = अहिंसा, Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमें आन्तरिक स्वतंत्रता चाहिये (ले०-प्रो० रामचरण महेन्द्र एम० ए०, दर्शन-केसरी, विद्या-भास्कर ) स्वतन्त्रता दो प्रकार की होती है- जाति में होनी अनिवार्य है। हम वाह्य अर्थात् ऊपरी दृष्टि से बन्धन- ग़लत शिक्षा हीन, बनानेवाली पुस्तकों, मुक्ति । भारत पर ब्रिटिश राजनैतिक भोगवाद, की छाया में पल रहे हैं। सत्ता थी, किन्तु अब उस वाह्य सत्ता · इस वातावरण में भारतीय युवक की के हट जाने से राजनैतिक दृष्टि से. सर्वोच्च मानसिक शक्तियों का विकास भारतीय स्वतन्त्र हो गये हैं। किसी संभव नहीं है। विदेशी सत्ता की हुकूमत अब हमारे मनोराज्य वह सूक्ष्म सत्ता है, ऊपर नहीं है। भारत ने राजनैतिक जहाँ क्षण-क्षण में संसार के महान् आजादी (वाह्य स्वतन्त्रता) वर्षों के साम्राज्य निर्मित एवं धराशायी होते कठिन संघर्षों के उपरान्त प्राप्त कर रहते हैं। मन की स्वतन्त्रता की अद्भुत ली है । वाह्य दृष्टि से हम मुक्त हैं। अजेय शक्ति द्वारा विश्व में स्थायी आन्तरिक स्वतन्त्रता क्या है ? प्रेम, सत्य, अहिंसा, सहयोग का प्रेम दूसरी स्वतन्त्रता आन्तरिक है। साम्राज्य स्थापित हो सकता है। आन्तरिक स्वतन्त्रता से हमारा तात्पर्य आज का शिक्षित कहलाने वाला उन परतन्त्रता, निकृष्टता, आत्महीनता युवक एक आन्तरिक अज्ञान का के विचारों से मुक्त होना है, जो चिर- शिकार है, जो भोगवाद और सांसकालीन गुलामी के कारण हमारे गुप्त रिकता ने उसे दिया है। इसके कारण मन में जटिल भावना ग्रन्थि (Com- आज का मानव अतृप्ति, स्वार्थ, ईर्षा, plexes) बन कर रह गये हैं। हम निष्ठुरता, दंभ, अहंकार की भट्टी में अपने आपको कमजोर दीन-हीन जल रहा है । युग नहीं बदलते । युगों जाति मानने लगे हैं। हमे युग से को बनानेवाला मानव बदलता है। पीछे रह गये हैं। अंधविश्वास मनुष्य की विचार धारा में परिवर्तन दकियानूसी धारणाएँ। आत्महीनता होने का नाम ही युग परिवर्तन है। (Inferiority Complexes) की जैसे-जैसे युग की गुलाम विचारधारा कुत्सित पोच विचारधाराएँ हमारे बदल कर आन्तरिक आजादी के तरफ अन्तर मन में बैठ गई हैं। हमारी विकसित होंगे, वैसे-वैसे मानव जाति बुद्धि में वह ताज़गी और आजाद और आधुनिक समाज की उन्नति और ख्याली नहीं रही है जो एक स्वतन्त्र विकास होगा। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अहिंसा-वाणी के आत्महीनता के भाव दूर कीजिए! होते हैं। अतः तुम दीन-हीन मत - वाह्य स्वतन्त्रता आन्तरिक बनो। कमज़ोरी और बुज़दिली के आजादी प्राप्त करने के लिए एक विचार मनों मंदिर से वाहिष्कृत कर प्रवेशद्वार है। यदि हमें राजनैतिक दो। नई पीढ़ी को सतर्क रहकर बल आजादी हासिल हो गई है, तो हमें वान साबित करना है। इसी को सब कुछ मानकर संतुष्ट नहीं भारत आजाद है, तो आजादी हो जाना चाहिए, वरन् इस भावी के साथ आने वाली कठिनाइयाँ भी उन्नति, विकास, परिपक्कता, का साधन उसके साथ हैं चोर, गठकटे, ठग, समझना चाहिये । स्वतन्त्र व्यक्ति का मजबूत राष्ट्र, उचक्के अपना-अपना निर्माण करना हमारा प्रथम पुनीत दाँव देख रहे हैं। ढोंगी मुफ्तखोर कर्तव्य है। अकारण ही झगड़ा करने को प्रस्तुत मन से आत्महीनता; कमजोरी, हैं। इस वातावरण में हमें अपने दुर्बलता के तमाम विचारों को हटाकर अन्तर में व्याप्त जो गुलामी की जड़े आत्म निर्भरता, मौलिकता, धैर्य, हैं, वे बाहर निकाल फेकनी हैं । केवल निर्भीकता सौभ्य मनुष्यत्वादि गुणों बलवान व्यक्ति ही इस दुनिया में को विकसित करना ही आन्तरिक आनन्दमय जीवन व्यतीत करने का आजादी की ओर अग्रसार होने का अधिकारी है। जो निर्बल, अकर्मण्य, मार्ग है। हीन स्वभाव हैं वे आज नहीं तो कल दुर्बल को सब मारते हैं। “दुर्बल- किसी न किसी प्रकार दूसरों द्वारा देवो घातकः । दुर्बल सबलों का आहार चूसे जायँगे और आजादी से वंचित है। बड़ी मछली छोटी को निगल कर दिये जायेंगे। जाती है। बड़े वृक्ष अपना पेट भरने जिन्हें अपने स्वभाविक अधिकारों के लिए छोटे पौधों की खूराक झपट की रक्षा करते हुए सम्मान पूर्वक लेते हैं। बड़े कीड़े छोटों को खाते हैं। जीना है, उन्हें आन्तरिक आजादी गरीब लोग अमीरों द्वारा शोषित अवश्य प्राप्त करनी चाहिए। [पृष्ठ २ का शेषांश ] २००० वर्ष पूर्व मानव जाति कोवह पाठ पढ़ाया था जो उसने कभी नहीं पढ़ा था और जो फिर कभी विस्मृत नहीं किया गया है और वह पाठ यह था कि ऐसा राज्य संभव है जहाँ निम्नतम की बात भी उसी प्रकार सुनी और समझी जायेगी जैसी उच्चतम की।"x -जजलनेंड हैण्ड xअमेरिका के एक प्रमुख न्यायशास्त्री जज लर्नेड हैण्ड द्वारा न्यूयार्क में दिये गये भाषण का कुछ अंश । 'अमेरिकन रिपोर्टर' के सौजन्य से । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ''चाँदन' के महावीर ! जन जन के महावीर !! त्रिभुवन के महावीर !!! मौन क्यों हुये आज वेदिका में विराज नयन ये खोलो भी और कुछ बोलो भी देखो तो मेरी ओर, हर्ष में हो विभोर भक्ति की ले हिलोर आया हूँ आज मैं शरण में तुम्हारी बनकर पुजारी नहीं ! नहीं !! मुक्ति का भिखारी [ रचयिता - श्री धन्यकुमार जैन "सुधेश" ] क्योंकि नाशवान तन व्याधियों का सदन बनकर भिखारी । किन्तु नहीं उनसा मागते जो तुमसे मनोज सी काया कुबेर सी माया सुन्दरी रति समान या कि एक संतान किन्तु मैं तुमसे माँगा नहीं नाथ देह की कुशलता सिंह सी सबलता गई थी । D बनेगा एक दिन चिताग्नि का धन © देव ! अतएव तन सुख नहीं चाहिये और नहीं चाहिये स्वर्ण, धन, धान भी, कार, भवन, उद्यान भी, नभयान भी रेडियो के गान भी इत्र तैल पान भी क्योंकि क्षणभंगुर ये पाप के अंकुर ये करते हैं चित्त को चिन्ता से देखने में यद्यपि भासते मधुर किन्तु कर देते हैं ऋतुर ये मानव को सुरसे असुर ये । अतएव भौतिकपदार्थ नहीं माँगता dow *यह रचना सन् १९४६ की तीर्थ यात्रा में चाँदनपुर की धर्मशाला में लिखी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० और नहीं माँगता प्रेमिका के भुजपाश काम-उद्दीपक हरे भरे मधुमास वासना की तीव्र प्यास रति-केलि औ' विलास प्रति क्षण प्रेयसी का सहवास किलोल या कि लोल हास क्योंकि ये विषय-भोग शहद से सनी हुई पैनी कटार हैं अमृत के रूप में विष की धार हैं और कर्मराज मोह के आधार हैं मध्य लोक में बने नर्क के द्वार हैं सेमर के पुष्पवत् सर्वथा असार हैं तृप्ति कर हैं न, पर बढ़ाते संसार हैं। अतएव वीतराग! चाहता न भोग-राग और नहीं चाहता गोद में खिलाने के हेतु सन्तान भी क्योंकि देव ! वह भी 'स्व' से उत्पन्न हो बनती अवश्य 'पर' और जो बने 'पर' रहे नहीं 'मेरी * अहिंसा-वाणी * आज से अनन्त तक वह नहीं चाहिये और ऐसी वस्तु इस लोक में है नहीं वह त्रिलोक से परे कल्पना गम्य है। किन्तु नाथ ! तुम हो इसके अधिकारी इसीलिये आया हूँ आज मैं शरण में तुम्हारी बनकर भिखारी देने यदि कहो तो व्यक्त मैं करूँ अब अपनी कामना अपनी भावना वह यही कि हे प्रभो मेरे ही समान अनेकों अनजान आत्माएँ बद्ध हो तन में पड़ी कर्म-बन्धन में भूल कर मुक्ति-पथ त्याग कर धर्म-रथ भटकती भव-वन में हैं वे पराधीन महादीन दुःखलीन सुख विहीन उन पर हैं बन्धन निज के Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मुक्ति का भिखारी ११ पर के काल के देश औ राज के जाति और समाज के कुछ पूर्व-प्रागत और कुछ अाज के ये सब बन्धन टूट कर चूर-चूर जा गिरें दूर-दूर और फिर मुक्त हर देश हो मुक्त हर प्रान्त हो मुक्त हर ग्राम हो मुक्त हर धाम हो मुक्त हर व्याधि हो नर और नारी वृद्ध और बच्चे पशु और पक्षी वृक्ष और पौधे लता, तृण, कण-कण मुक्त हों ये सब और मुक्ति के प्रति हरेक में भक्ति हो हरेक में शक्ति हो कि पा सके वह मुक्ति-पथ पा सके वह धर्म-रथ और चल सके वह आप तक आने को मुक्ति-पद पाने को है यही कामना निज की पर की देश की लोक की मुक्ति की भावना और नहीं कोई भौतिक-खालसा मुक्ति के विहारी इसीलिये आया हूँ अाज मैं शरण में तुम्हारी बनकर मुक्ति का भिखारी हो रही आशा देख तब मुद्रा भोली इसीलिये माँगता हूँ मुक्ति-भीख भक्ति वश ही पसार चित्त की झोली इस प्रकार तव प्रिया माँगकर करता हूँ नहीं तुमसे ठिठोली वास्तव में मुझे मुक्ति ही चाहिये हे उदार । निविकार !! कृपागार !!! बार-बार कर-कर मैं नमस्कार माँगता हूँ मुक्ति भीख हो तुम्हें स्वीकार तो कहदो "तथास्तु" अस। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गेटे की कृतियों में अहिंसा, सत्य और स्वाधीनता - [ले०-श्रीमती क्लैरीसा ट्वाइले-जर्मनी की एक सुप्रसिद्ध लेखिका ] . यह सम्भव हो सकता है कि के हैं। इसी कोटि का नायक 'वालयूरोप के मध्यदेश जर्मनी के कवि- फर वाण्डशैफिन' (Wahlverwसम्राट गेटे (Goethe) ने अहिंसा andtschaften)* में एडवर्ड का नाम भी न सुना हो; किन्तु यह (Eduard) है। गेटे के चरित्रों का अवश्यम्भावीतथ्य है कि वह इस बड़े सम्पूर्ण प्रेम उनके अपने व्यक्तित्व पर और महत्वपूर्ण विचार के आन्तरिक अधिकार पाने की शक्ति से उद्भूत अर्थ (अथवा महत्व) को समझता (या उत्साहित) हुआ है। जर्मनी के था। अतः बुद्धिमानों के बुद्धिमान कुछ साहित्य प्रेमी, बीमा उङ्गास्क्रगे' (Weisen von Weisen)- (Befreiungskriege)(स्वातंत्र्य (अर्थात् गेटे) की रचनाओं में कोई समर) जो कि नैपोलियन के विरुद्ध ऐसी बात पाना सम्भव है जो अहिंसा सन् १८१३ में हुआ था, के दरमियान के महान् आदर्श से सम्बन्धित हो। में गेटे का रुख भूल नहीं सकते । गेटे क्या उनकी 'इफीजेनी'(Iphigenie) उस समय में शान्तथा । वह शान्त था, अहिंसा की नायिका नहीं है ? वह क्योंकि वह किसी को न मारने की अपनी, अपने भाई और मित्र को दैवीय व्यवस्था को जानता था । वृद्ध जीवन-रक्षा की समस्या को अहिंसा- गेटे जानता था कि जीवों की जान त्मक साधनों से सुलझाती है। और लेने की अपेक्षा सुरक्षा करना उत्तम इसी प्रकार उनका एक पात्र विलयम है। इस भाँति जर्मनी का महान पुत्र मेस्टर (Wilhelm Meister) गेटे पुरातन भारत और मानवता के अहिंसा, अपरिग्रह और दृढ़ आत्म- आदर्श अहिंसा का अनुगामी था। संयम के मार्ग पर चलने के कारण उसके 'वनस्पति रूप विज्ञान' के हमारी सहानुभूति प्राप्त करता है। इस अध्ययन करने पर पाठक समझेगा तरह के महत्व , दूसरे शब्दों में अहिंसा कि उसने उन सिद्धान्तों की व्याख्या Elective *गेटे की एक रचना जिसका अर्थ 'चुनाव की एकताएँ (या Affenities) है। ŞLiveration war. *Morphology of Plants : Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसावाणी * जर्मन कवि सम्राट गेटे Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसावाणी जर्मन-लेखिका श्रीमती क्लैरीसा ट्वाइले Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गेटे की कृतियों में अहिंसा, सत्य और स्वाधीनता की है जो समाजों को सशक्त कर सकते हैं । यह, सामाजिक शक्ति द्वारा - पशु-हन-बल द्वारा नहीं, वरन् पौदों की हिंसा द्वारा ही हो सकता है। गेटे की हिंसा को समने के लिए 'वनस्पति रूप विज्ञान' को पढ़ना चाहिए। गेटे ने अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को हल करने के लिए अहिंसा मार्ग को ही अपनाया है । घृणा और हिंसा के मार्ग को नहीं : "राष्ट्रीय घृणा सर्वथा ही" - एक बार गेटे ने लिखा- " कोई विचित्र वस्तु है । आप इसे वहाँ सदैव सबल एवं अतिप्रबल (या भयानक) पाएँगे जहाँ संस्कृति का अभाव-सा है (या वह कम अंशों में है ) किन्तु जहाँ (संस्कृति) है वहाँ से यह (घृणा) नितान्त विला जाती है । और वहाँ मनुष्य राष्ट्रीयता से कुछ ऊँचा उठकर खड़ा होता है तथा अपने पड़ोसी राष्ट्रों के हिताहित को इस प्रकार अनुभव करता है जैसे अपने ऊपर ही बीती हो । संस्कृति का यह स्तर मेरी (गेटे की) प्रकृत्यानुकूल था और मैं 'बहुत पहले जब ६० साल का हुआ, बलवान हो गया था..." हिंसा की बहिन सत्य है और सत्य स्वाधीनता का दूसरा पहलू है । परन्तु टे का सत्य पथ इस प्रकार के विश्वास करने का विचार नहीं है कि 'मैं आन्तरिक जगत में सत्य रखता हूँ — जो कि पर्याप्त है।' पर, वह है सक्रिय होने का जिससे कि १३ सत्य प्राप्त किया जा सके । तुच्छ लोग कितनी अतिशयोक्ति करते हैं तथा कहते हैं कि उनकी कृतियाँ, उनकी रचनाएँ केवल उनके ही प्रातिभ-ज्ञान (Intuition) में पाईं जाती हैं। गेटे का रुख सत्य से शासित है। अतएव वह बहुत ही स्वाभाविक ढंग से कहता है कि बड़ेबड़े आदमियों को भी दूसरों की बुद्धि से कुछ उधार लेना पड़ता है : 66. 'असाधारण धीमान भी बहुत दूर तक नहीं गए, उन्होंने अपनी अन्तरात्मा के लिए प्रत्येक वस्तु उधार लेने की कोशिश की। किन्तु बहुतेरे अच्छे व्यक्तियों ने इस पर विचार नहीं किया और उन्होंने मौलिकता के स्वप्न को लेकर आधे जीवन तक अन्धकार में टटोला। मैं, किसी भी तरह, अपने काम को अपनी ही बुद्धिमत्ता का श्रेय नहीं देता हूँ, प्रत्युत अपने निकट की बहुत सी वस्तुओं तथा व्यक्तिओं को (श्रेयदेता हूँ) जिन्होंने कि हमें कुछ मशाला दिया है । मूर्ख और महात्मा, विशाल मस्तिष्क वाले और संकुचित, शैशव, जवानी और बुढ़ापा - सब ने मुझे बताया कि उन्होंने क्या अनुभूति की, उन्होंने क्या सोचा, उन्होंने कैसे जीवन यापन किया, क्या काम किया, उन्होंने क्या अनुभव प्राप्त किए ? मेरे पास आगे कुछ भी नहीं है सिवाय इसके कि मैं अपना हाथ उस पर रखें और उसे लुन (या काहूँ) जिसे ू Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-वाणी कि और लोगों ने मेरे लिए बो 'वह ही केवल पाता रखता, रखा है..." निज जीवन श्रो' निज स्वतंत्रता। ___ एक मनुष्य, एक अपूर्व बुद्धिमान जिसको है नए सिरे से ही, .. व्यक्ति, जिसने ये पंक्तियाँ लिखी हैं- जीतना इन्हें प्रतिदिन पड़ता। यथार्थ जगत में रहता है वह एक मया की कोई हमले की जाती विचारक एवं सत्य-खोजी व्यक्ति है। प्रकार व्यक्तित्व-विनिर्माण-विधि बता परन्त, बहुत से व्यक्तियों का अस्तित्व सका है? गेटे के गेज़ के समान सभी इसीलिए है कि उन्होंने वह प्रणीत स्वतंत्रता नायक न केवल भौतिक किया जो कि दूसरों ने प्राप्त किया है. स्वतंत्रता-फल के ही अन्वेषक हैं और जो उनका अपना कार्य घोषित वरन् वे आन्तरिक, मानसिक और किया गया । 'सत्यमेव जयते' वैदिक आत्मिक स्वाधीनता-रत्नों के खोजी वाक्यांश है तथा गेटे इसकी आन्त अधिक मात्रा में है। इस प्रकार गेटे रिक वास्तविकता का गवाह है। गेट की कृतियों में स्वाधीनता सत्य का. का नव युवक नायक गेज़ (Goetz) ही दूसरा पहलू है। वह भले ही सत्य की खोज मेंथा । फाँस्ट(Faust) इफीज नी (Iphigenie), टैसो - भी सत्यान्वेषी है किन्तु गट का (Tasso), गेज़ (Goetz) या विलिसत्यान्वेषण कार्य सजीव है क्योंकि यम मेस्टर (Wilhelm Meister) सत्य और स्वतंत्रता व्यक्ति को स्वयं । द्वारा प्राप्त किया गया हो। अपने कार्य एवं श्रम से प्राप्त करने होते हैं। अतः गेटे का जीवन और रचअब सत्य और स्वतंत्रता का नायें उन पाठकों के लिए संदर उपहार दूसरा क्षेत्र लीजिए । जिस प्रकार सत्य हैं जो अहिंसा, सत्य और स्वतंत्रता पाया जाता है उसी प्रकार स्वतंत्रता की त्रिवेणी से प्रेम करते हैं। प्राप्त की जाती है। एक बार गेटे ने ये पंक्तियाँ लिखीं हैं: अनुवादकः-वीरेन्द्र प्रसाद जैन *"He only gains and keeps his life and freedom Who daily has to conquer them anew......" Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो गीत-] [-श्री रतन पहाड़ी (१) युग-जागरण - हमने अपना लहू सींच यह भारत का दिन देखा है। अरमानों में आग लगा दी बलिदानों मे भूमि पाट दी, अपने जीवन की सांसों से हमने युग को गति ही गति दी, फूल खिले बगिया में आखिर फिर बसन्त छाया उस पर, शोभा मदमाती सी आई जीवन रंग लाया उस पर; हमने अपने भाई के भी शीष लुढ़कते देखे हैं, हमने अपने भाई भी फाँसी पर चढ़ते देखे हैं, हमने देखा जलियाँवाला बाग खून से भरा हुआ, भगत सिंह का सिंह देह भी कभी कफन से बँधा हुआ, तात्या टोपे, लक्ष्मीबाई, नाना की कुर्वानी क्या ? भारत का इतिहास भरा है भूलेंगे हम उनको क्या ? अरे, सैकड़ों लोगों को फांसी पर चढ़ते देखा है, अरे, सैकड़ों बच्चों को भालों से छिदते देखा है, अरे, सैकड़ों बुड्ढों को पेटों से चलते देखा है; खून-खून के छींटों से इतिहास बदलते देखा है। हमने अपना लहू... अगणित घटनाएँ घटती है किन्तु असर सबका होता है, क्रान्तिं द्रोह-विद्रोह देश में किन्तु समय सबका होता है, कली-कली कचनार गुलाबी फूल प्रफुल्लित डाली-डाली, मन्द समीरण में बह बहकर खिली साध में पलने वाली, कली बन्द कोषों में रह रह हिल हिलकर आखिर कहती है हमें फूल बनने दो यह तो जन्मसिद्ध अधिकार हमारा । हम जकड़े जंजीरों में थे जंजीरों को सदा कोसते, सत्याग्रह काले पानी जेलों को हम भरते रहते किन्तु हमाराध्येय एक था हम स्वतन्त्र अधिकार हमारा , गाँधी की जय माता की जय इन्क्लाब का केवल नारा । अब स्वतन्त्र हम देश हमारा राज्य हमारा तन्त्र हमारा भूमि हमारी प्रजा हमारी कण-कण औ' आकाश हमारा। झोपड़ियों से आग ताप यह दिवस आज का देखा है । हमने अपना लहू. आज तलक माताएँ अपने मृत शिशुओं की थीं चिता सजाती, आज तलक पत्नी भी अपने पति शहीद को माल पिन्हाती, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) युग-प्रभात नवीन जागरण हुआ नया नया विहान हो । प्रभात की नई किरण नवीन रश्मियाँ लिए, समूल नष्ट तोम का निशान राष्ट्र के लिए, कि साधना मिली खिली सुपंखुड़ी प्रभा लिए, कि भावना प्रभात की स्वतन्त्र देश के लिए, स्वतन्त्र देश राष्ट्र आज पूज्य हो महान् हो । नवीन जागरण हिमाद्रि श्रंग से शेष ज्योति की दिशा खिली, उफान सिन्धु से नई विभा मिली; प्रभा मिली, कि छार छार दासता स्वदेश की हुई हुई कि भेद भाव से खिली यह पंखुड़ी गिरी गिरी स्वदेश की नई दिशा स्वतन्त्र हो स्वतन्त्र हो । नवीन जागरण "" अशेष शीष दान से कि कोटि कोटि जान से, किमान से औ भान से गरीब की पुकार से, खुले कपाट आज राज देश के सुराज के, कि अघर्य भी चुका, बिकी गरीब देश की हया; परन्तु देश की पतन - निशा नितान्त म्लान हो । नवीन जागरण " मिली दिशा निशा हिली महार्घ्य पर पड़ी पड़ी कि आज लाल लाल को निहारती है मां खड़ी मिला था रक्तकरण मगर मिला न लाल का निशां कि हार, हार रह गई मिली न प्रीति की दिशा कि मातृप्रेम का नया प्रमाण आज दान हो । नवीन जागरण बुड्ढे बच्चे नर-नारी सत्र जन-गन-मन अधिनायक की जय, सुजलां सुफलां शस्य श्यामलां विजयी विश्व तिरंगे की जय, सब कुछ छिन सकता है हमसे बन्दे मातरम् नहीं छिनेगा, मरते दम तक 'जय भारत', 'जय गांधी', 'जय- माता' निकलेगा, पर स्वतन्त्रता की सांसों ने एक और करवट बदली, गांधी पथदर्शक उद्धारक बापू की बलि भी होली, सिसक-सिसक हिचकी - हिचकी ले हमने झण्डा फहराया, वर्ष - गाँठ भारत स्वतन्त्र की बिना वर्तिका दिया जलाया, भूख प्यास में पल-पल कर यह दिवस आज का देखा है, टुकड़े टुकड़े के लाले सह दिवस आज का देखा है । हमने अपना लहू' Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपक सच्चा स्वातन्त्र्य ( ले० - वीरेन्द्र प्रसाद जैन ) पात्र परिचय वासना - एक सुन्दरी युवती कुब्जा - वासना की सहेली स्वतंत्र - राजकुमार करती है । ] सम्राट - कुमार स्वतंत्र के पिता सुमतिवाई - स्वतंत्र की बहिन मन्त्री एवं प्रजाजन आदि ( प्रथम दृश्य) स्थान - सजा हुआ कक्ष | [कक्ष में केवल वासना और कुब्जा हैं । वासना गाती है, कुब्जा वाद्य वादन ( गीत ) कौन नहीं तैयार करने को अभिसार ? मुझमें कितनी मादकता है, मुझमें कितनी सुन्दरता है; कौन न देगा प्यार ? कौन नहीं तैयार करने को अभिसार ? मेरा यौवन मदमाता है, रूप- सुधा रस छलकाता कौन कौन न नहीं तैयार करने को मेरे रूप- कुसुम पर रीझे, मनु-मधुप फिरते है खी; हो निउछार ? अभिसार ? कौन न माने हार ? कौन नहीं तैयार करने को अभिसार ? [गीत की समाप्ति के साथ वाद्य वादन भी समाप्त होता है ।] कुब्जा (सुस्काती हुई सी) वासने ! सच कहती है । तेरी सुन्दरता के आगे गुलाब की मोहकता, कमल की कमनीयता और तितलियों की लाव यता सब कुछ तुच्छ हैं । तेरा इठलाता हुआ यौवन किसे न मोह लेगा ? तेरी उन्माद पवन के मादक भोके खाने को कौन न विहल होना ? Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अहिंसा-वाणी * वासना-परन्तु ......(रुक जाती है). कुब्जा-रुक क्यों गई ? परन्तु-किन्तु क्या ? कहो न !... वासना-जब से कुमार स्वतंत्र को देखा है, हृदय में एक कसक टीसती रहती है । कुमार का भरा हुआ वक्षस, उन्नत भाल, बड़े-बड़े नेत्र, सस्मित चेहरा, सुगठित शरीर और वह वक्तृत्व कला आदि सब गुण नेत्रों के समक्ष नाचते रहते हैं। कुब्जा -तो उसको वंश में करना कौन-सी बड़ी बात है ? वह तरुण है। तरूणाई में, वासने; तुझे-तेरे मधुमय सौन्दर्य-वैभव को, यदि स्वतंत्र एक बार भी देखले तो बिना लुभाए नहीं रह सकता । तरुणाई में किसे रंगरेलियाँ नहीं सूझती ? यदि कुमार ने तेरा कहीं संगीत - सुन पाया तो तेरे ऊपर वे बिना पागल हुए नहीं रह सकते ! वासना-सुना है, आज स्वंय सम्राट ने उन्हें बन्दी बनाने की आज्ञा प्रसारित कर दी है। कुजा-तो क्या हुआ ? वह अपने पुरूषार्थ से निकल आएँगे ? मैं तुम्हें उनके वैसे भी मिला दूंगी। लोभ और आकर्षण से कौन बचा रहता है ? [ पट परिवर्तन ] द्वितीय दृश्य स्थान-राज दरबार । [राजकुमार बन्दी बनाकर लाए जाते हैं । उनके पीछे जनता कोलाहल करती उमड़ी चली आ रही है। राजकुमार-(कुछ रुककर तथा पीछे मुड़कर) नागरिक-बृन्द ! अब आप शान्त रहें। राजाज्ञा का पलन करना हमारा परम कर्तव्य है। (कोलाहल शान्त हो जाता है । कुमार आगे बढ़कर सम्राट को प्रणाम करते हैं।) सम्राट-(लज्जापूर्वक) स्वस्ति वदन । (कुछ रूककर कहने लगते हैं ) कुमार स्वतंत्र ! आज तुम्हें मैं अपनी ही आँखों के आगे ही परतंत्र देखता हूँ। तुमने मेरे होते हुए भी मेरी वंश-परम्परा को लगा दिया। कुल पर कलंक लगा दिया। कुमार-मैं स्वतंत्र हूँ और सदा रहूँगा। आप मेरे पार्थिव शरीर को भले ही बँधा हुआ देख लें; परन्तु, मन से यह स्वतंत्र सदा स्वतंत्र है और रहेगा। उसे परतंत्र बनाने का किसमें साहस ? किसमें क्षमता ? Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. * सच्चा स्वातन्त्र्य *.. मैंने अपना कर्तव्य किया, आप इसे कुल-कलंक समझे तो समझें। सम्राट-यदि तुम्हें बन्धन में ही आनन्द है, तो क्या कहूँ? मैंने यह सब कुछ तुम्हारे लिए ही किया था। मेरा क्या ? मैं तो बुढ्ढा हुआ। तुम्हारे लिए पृथक प्रासाद निर्मित करने का अनुष्ठान कर मैंने महापाप किया। अपने पैरों में अपने आप कुल्हाड़ी मार ली। कुमार-मेरे लिए नहीं, हरगिज नहीं। मैं अपने सुख के लिए अपने निर्धन प्रजा-जनों की झुपड़ियाँ उजड़वाकर गगन चुम्बी प्रासाद स्वप्न में भी नहीं बनबाना चाहता । मुझसे यह निष्ठुरता, निरंकुशता, पाशविकता .. कदापि नहीं हो सकती! सम्राट-तो फिर मैं ही क्यों यह सारा कहाँ ? कुमार-यह आप समझे । दीनों की झुपड़ियों को उजड़वाकर महल बनबाना महा अन्याय है। गरीबों की पसीने की कमाई पर मस्ती काटना मुझे नहीं भाता। सम्राट-अच्छा....तो..... 'जो समझो, अब तुम्ही करो। मेरी वाणी में इतना बल नहीं कि अब तुम्हें कारावास तक भेजने की आज्ञा दे सकँ। मन में आए वह करो। लो, मैं जाता हूँ; अब दरबार में पैर - भी न धरूँगा। मैं अब प्रासादों में ही जिन्दगी काइँगा । तुम्हें जो रुचे वह करो । प्रहरी ! बन्धन खोल दो । स्वतंत्र को स्वतंत्र कर दो। [प्रहरी बन्धन खोलता है समाटा छा जाता है। प्रजा-जन जय-जय नाद करते हैं ] प्रजा-जन-'सम्राट की जय !' 'राजकुमार की जय !' [कुमार बन्धन मुक्त होने पर पिता के चरण-कमलों में गिर पड़ते हैं।] कुमार-( सँभलकर ) क्षमा चाहता हूँ, पिता जी क्षमा ! सन्नाट-(रूद्धकण्ठ में ) क्षमा ! ( सम्राट कुमार को हृदय से लगा लेते हैं। नेत्रों से अश्नु गिरते हैं । सम्राट चल देते हैं) कुमार-प्रहरी, जाओ महाराज को भवन तक भली प्रकार से पहुँचा आओ। बाहर रथ सुसज्जित-सा खड़ा प्रतीत होता है। (सम्राट जाते हैं । सब जय-जय घोष करते हैं। ) कुमार-(सम्राट को द्वार तक पहुंचा पाने के पश्चात ) मन्त्रिवर! आज से - आप प्रमुख नागरिकों की सलाह से राज्य कार्य करिए । इतना बड़ा । हुआ राज्य कर कस कर देना समुचित होगा-ध्यान रखिए। ( नागरिकों की ओर ) नागरिको ! अब राज्य-भार आपके ही हाथों में है। अब आपका ही राज्य है, आप इसे सँभालें ! जैसा चाहें वैसा करें। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अहिंसा-वाणी * मेरे प्रिय नागरिको ! एक विशेष बात ध्यान में रखने की है कि सच्चे, ईमानदार चरित्रवान प्रजा-जन ही राज्य की सच्ची सम्पत्ति होते हैं। राज्य का टिकाऊपन, जनतंत्र में उन पर ही होता है। अस्तु, मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप अपने उत्तरदायित्व को भली प्रकार से समझेंगे। आप लोगों में से सभी वर्ग के प्रतिनिधि लिए जायेंगे। [सब ओर से करतल ध्वनि होती है । जय-जयकार होता है । वादिन बजने लगते हैं] कुमार---अब आप लोग शान्त होकर अपने-अपने घर चले जाएँ। आप लोग प्रत्येक वर्ग में से दो-दो व्यक्ति अपने-अपने प्रतिनिधि चुनकर मन्त्रणा के लिए मन्त्रिवर के सहयोगी के रूप में भेज दें। शेष कुछ विद्वान लोगों से भी सक्रिय योग लिया जायगा । अब आप लोग जा सकेंगे। आगे की कार्यवाही का हमें ध्यान रखना है। (नागरिक वृन्द उत्साह से 'राजकुमार की जय-जय-जय नाद करते प्रास्थान करते हैं । पट परिवर्तन होता है।) 1 x x x (तृतीय दृश्य) स्थान-उद्यान [कुमार स्वतंत्र एकाकी टहल रहे हैं । किसी अज्ञात चिन्तना में निमग्न हैं। यकायक दो रमणियों (वासना और कुजा) का लजाते, सकुचाते, इठलाते हुए प्रवेश । कुमार भौचक्के से उनकी ओर देखने लगते हैं।] कुमार-आप कौन हैं ? कुब्जा-में...तो......आप की दासी ही समझिए। कुमार-मेरी दासी कोई नहीं । सब बहिनें, माताएँ; समझी श्राप ! (वासना की ओर संकेत करते हुए) आप का परिचय । कुब्जा-आप ही नगर को सब से सुन्दर वाला कुमारी वासना हैं। और मैं इनकी सहेली कुजा! कुमार-तो आप ने कैसा कष्ट किया ? कुब्जा-आपके दर्शनों के लिए चली आई। कुमार-केवल दर्शनों के लिए ? मुझ में ऐसी कौन-सी खूबी है जो आप ने इतना कष्ट किया ? 'वासना -(कनखियों से देखतो हुई) कुमार, आप जानते हैं कमलिनी रवि के दर्शन कर खिल उठती है और कुमुदिनी शशि के ? तो मैं अपने शशि के दर्शन करने चली आई तो क्या कष्ट किया ? Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सच्चा स्वातन्त्र्य * [लज्जा की लाली से मुख अरुण हो जाता है। नीचे देखने लगती है। कुमार मर्माहत से हो जाते हैं । मौन रहते हैं कि कर्तव्य विमूढ़-से। कुलजा-वासना-कुमदिनी-प्राणवल्लभ-शशि ! मौन क्यों? दो ही प्रेम के वोल वोल दो ! [फिर भी मौन रहते हैं । रमणियों की ओर एक टक देखते हैं ।] पासना-इतने निष्ठुर क्यों हो रहे हो ? मुस्कुराकर ही स्वीकृति दे दो प्रिय तम ! प्राण वल्लभ ! प्राणेश ! कुमार-शान्त, बहिन शान्त ! पाराकाष्ठा ! अतिक्रमण, सीमा का अतिक्रमण ! -प्रेम नहीं वासना ! इन्द्रियजन्य अतिरेक ! प्रेम की इतनी विडम्बना क्यों कर रही हो? [दोनों लज्जित सी निस्सहाय इधर-उधर आँखें फाड़-फाड़ कर देखती हैं जैसे उसी समय जमीन में समा जाना चाहती हो । कुब्जा-कुमार, प्रेम-भिखारी का इतना अपमान न करो। वासना-ऐसा तो स्वप्न में भी न सोचा था देव ! कुमार-यदि न सोचा था तो अब सोच लो । प्रेम यदि इस प्रकार होने लगे तो मर्यादा का कहीं नाम भी न रहे । तुम्हारा जादू चाहे सब पर चल जाए पर मुझ पर तो शायद......! सुन्दरी ! तुम्हें अपने सौंदर्य पर गर्व है। तुम मुझे इसी बल पर मोहने के लिए आईं, फँसाने चलीं, मुझ स्वतंत्र को अपना बंदी बनाने चली ।...... सच्चे प्रेम में त्याग होता है सुन्दरी, वासना नहीं। मैं आपका और अपमान नहीं करना चाहता। आप यहाँ से अविलम्ब प्रस्थान करें। दोनों लड़खड़ाती हुई चली जाती हैं । झाड़ी के पीछे से एक महिला निक लती है] कुमार--(उस महिला को देखकर) अरे सुमति बाई ! तुम यहाँ कहाँ ? सुमति बाई-यहीं ही। कुमार-देखा, इन इन्द्रजाली महिलाओं का जादू ? सु० बा० - हाँ, पर आप बड़े निष्ठुर निकले; पिघले भी नहीं ! जरा भी नहीं ! जरा उनकी सान्त्वना के लिए ही हँस देते ! बड़े पत्थर के हो। कुमार-क्या कहती हो बहन ? क्या मेरी परीक्षा लेनी चाहती हो? सु० बा-तुम्हारी परीक्षा तो हो चुकी । तुम सफल उतरे । किन्तु............ कुमार-किन्तु, लेकिन अब भी कुछ ? Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहिंसा-वाणी के सु० बा०-हाँ, भाई अब भी ! तुम अपने को स्वतंत्र कहते हो स्वतंत्र ! पर... कुमार-पर, पर क्या ? क्या मैं अब भी परतंत्र हूँ? सु० बा० - भय्या ! तुमने नगर स्वतंत्र किया, वासना के बन्धन में न पड़े। किन्तु, फिर भी परतंत्र ! कुमार-कैसे भग्नि ? सु० बा०-इस जगत-प्रवाह में कौन स्वतंत्र हैं ? कौन भव-जल में कर्म-उर्मि साँकलों से बद्ध नहीं ? कौन संसार-सागर की लहरों के थपेड़े नहीं खाता ? कौन सुख-दुख नहीं भोगता ? कौन जन्म-मरण के चक्कर नहीं लगाता ? फिर भी तुम अपने को स्वतंत्र कहते हो स्वतंत्र ! ___ तुम कैसे स्वतंत्र ? कुमार-तो स्वतंत्र होने का कुछ उपाय भी है ? सु० बा-हाँ! कुमार-वह क्या ? सु० बा० –'सम्यक दर्शन, चारित्राणि मोक्ष मार्गः।' कुमार-समझा नहीं बहिन ? सु० बा०-सच्चे देव, गुरु, शास्त्र में श्रद्धा रखना, सच्चा ज्ञान प्राप्त करना, र सच्चरित्र बनना ही तो मोक्ष का मार्ग है; सच्ची स्वतंत्रता की सीढ़ी है। कुमार-तो सत्-असत् का विवेक होना आवश्यक है। सु० बा-हाँ भाई आवश्यक ही नहीं परमावश्यक ! इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्री मदाचार्यशिरोमणि उमास्वाँति मुनीश्वर के 'तत्वार्थ सूत्र' का अध्ययन-मनन करो और उसे जीवन में उतारो। कुमार-(दृढ़ निश्चय से ) मैं अवश्य ही इस मार्ग पर चलूँगा। सच्ची स्वतंत्रता पाऊँगा । भव-वन्धन को का,गा। ... सु. बा.-मुझे प्रसन्नता है कि तुम बाजः सच्ची स्वतंत्रता का मूलमन्त्र __ समझे। मैं अब जाती हूँ............ - कुमार-अच्छा तो अभिवादन. ......! - [सुमति माई का प्रस्थान ।] कुमार-तो सच्ची स्वतंत्रता है जगधन्धन से मुक्ति पाने में और है-'सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः' इसे अपनाने में! [ वाद्य-वादन होते हुए पटाक्षेप] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे स्वतन्त्रते ! तब अभिनंदन, मैं ही क्या, सब जग करना है !! श्री शालिग्राम शर्मा पी० ए० (द्वितीय वर्ष), विशारद हे स्वतन्त्रते ! तब अभिनंदन मैं ही क्या, सब जग करता है !! तू स्वर्णिम उषा सी सुन्दर जीवन सुखमय करने वाली। मानव के शुष्क हृदय को तू मधुमय रस से भरने वाली। तू पूत जाह्नवी की धारा, तू पारिजात की है डाली। तू शरद सोम सीकर देती निज कर से रजनी उजियाली। तेरी तरणी पर बैठ व्यक्ति भवसागर पार उतरता है! हे स्वतन्त्रते ! तब अभिनंदन, मैं ही क्या सब जग करता है !! ? कानन में भूखा चानन करता मस्ती का अनुभव है। केकी को मस्त नाचने में मिलता अपूर्व कुछ गौरव है। शुक, सारी, पारावत वन में व्रत कर आनंद उड़ाते हैं। पर चामीकर-पिंजर में वे मोदक भी खा, दुख पाते हैं। तू मातृ-कोड़ सी प्रिय लगती, सार। जग तुझ पर मरता है ! हे स्वतन्त्रते ! तब अभिनंदन, मैं ही क्या सब जग करता है !! २ तेरा अस्तित्व अनोखा है, तेरा व्यक्तित्व निराला है। तेरे भीतर जगदीश्वर ने कुछ अद्भुत जादू डाला है। तेरी महिमा, तेरी गरिमा, तेरी महर्घता न्यारी है। उन्नति का बीज उगाने को तू एक उर्वरा क्यारी है। तेरे आगे कँपती रहती थर थर सदैव बर्बरता है। हे स्वतन्त्रते । तब अभिनंदन, मैं ही क्या सब जग करता है !!३ लाखों शीशों को दे करके तेरी रक्षा की जाती है। तेरी मख पूरी करने को कितनी आहुति दी जाती है। तू योग्य नागरिक की जननी, तू देशों की आधार-शिला। गाँधी, नेहरू, राणा, शिव को तव कारण ही है सुयश मिला। युग युग का भीषण निविड़ तिमिर तव प्रेमी क्षण में हरता है । हे स्वतन्त्रते । तव अभिनंदन, मैं ही क्या सब जग करता है।।४ हाँ एक बात कहता हूँ मैं, यदि तू अनियन्त्रित हो जाती। . तो पारतन्त्रण से भी बढ़कर तू दंशक बन काटे खाती। इस हेतु तुझे नित सावधान अनियन्त्रण से रहना होगा। श्रमिकों के शोणित में सनकर तुझको न देघि । बहना होगा। तू नैतिक और नियन्त्रित बन इसमें ही तप तत्परता है ! हे स्वतन्त्रते ! तवं अभिनंदन, मैं ही क्या सब जग करता है ।। ५ redicience Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क यिता तुम फिर जग जाओ एक बार । सन इकइस की याद करो जब ममक उठी थी अपनी टोली। छोड छोड़ स्कूल तुम्हीं ने, खेली थी प्राणों की होली। कर असहयोग भर दी जेलें भारत आज़ाद बनाने को । बहुतों ने दे दी प्राणाहुति मानव-मर्याद बचाने को। घबराकर गोरे काँप उठे सन् ब्यालिस जैसे रेल तार ॥१॥ तुम फिर जग जाओ एक बार ! तुमको जग के जग रङ्ग मञ्च पर; वह अभिनय करना होगा। कातर पीड़ित के अञ्चल पर; तन मन धन सब धरना होगा। पीता ही होगा काल कूट अब प्रलयङ्कर बन जाने को। कवच पहन ले अस्त्र शस्त्र प्रस्तुत हो तुम रण जाने को। बर्बरता से खुल कर कह दो मेरा करुणा से अतुल प्यार ॥२॥ तुम फिर जग जाओ एक बार ! तुमको जलते अंगारों से; आलिंगन करना ही होगा। यश कीर्ति छोड़ने के पहले दुख चुम्बन करना ही होगा। लड़ जाओ तुम निर्भय होकर आँरी पानी तूफानों से । डग मग होती हो नाव अगर; खेलो अपने बलिदानों से । सागर ज्वारों तुम्हें चुनौती, डुबाना तुम, मैं करता पार ॥३॥ तुम फिर जग जाओ एक बार ! झंझा अपना वेग बखेरे, घन चपला को लेकर टूटे । वज्रपात हो महा प्रलय हो नीचे ज्वाला का गिरि फूटे। फिर भी जय बोल बढ़ो आगे कर लिये अहिंसा धारों को। दो हिंसा का सर तोड़ कुचल उन भीषण अत्याचारों को । मानवता का शंख बजा दो गूंज जाय अग जग पुकार ॥४॥ तुम फिर जग जाओ एक बार ! इस युग में भी अब पीड़ित जग सुखमय त्यौहार मनाने को। है बाट तुम्हारी देख रहा कल्पना प्रबल कर पाने को । यदि बर्बरता के साथ कहीं; कायरता नाश नहीं पाये। तो हो सकता है शोषित जग तुम पर विश्वास नहीं लाये। वैषम्य मिटाकर दुनियाँ से समता को शीघ्र वरो वीरो। मृगराजों को मृग शावक या मृग को मृग राज करो वीरो। शोषण उत्पीड़न कृन्दन से कर मुक्त मही भर दो बहार ॥५॥ ___तुम फिर जग जाओ एक बार ! Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतंत्रता दिवस [ लेखक-श्री अनन्त प्रसाद जैन B. Sc. (Eng.) लोकपाल" ] हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस आता है मंत्री हैं। हम उन्हें अपना सबसे और चला जाता है। हम भी संसार प्यारा नेता मानते हैं—पर क्या नेहरू । की देखा देखी खुशियाँ मना लेते हमारी तकलीफों को जरा भी कम हैं। पर क्या हम सचमुच खुश हैं ? करने में समर्थ हुए ? हाँ, कुछ मोटे. हमने स्वतंत्रता पाई और उसके पाँच मोटे नेता नामधारी लोगों ने अवश्य वर्ष पूरे हो गए। इन पाँच वर्षों में हमारे नाम में हमारा प्रति निधित्व क्या क्या हुआ किसी से छिपा नहीं करके अपने अरमानों की पूर्ति कीहै। गरीयों ने समझा रखा था कि पर हमारे अरमान तो भ्रष्टाचार अब उन्हें कुछ आराम की साँस लेने और पावरपौलिटिक्स की दो तर्फी का मौका हाथ लगेगा। लेकिन उम्मीद दीवारों पर टक्कर खा-खाकर चूरउम्मीद ही रह गई। गरीबों की मौत चूर हो गए। हम स्वतंत्रता दिवस सभी जगह है। हमारी स्वतंत्रा ने की खुशियां मनाते हैं पर हमारा दिल भी धनियों के ही खजाने भरे। भीतर भीतर रोता रहता है। यह भी ___ क्या महात्मा गांधी ने इसी गरीबी की एक विडम्बना ही है । यदि स्वतंत्रता के लिए अपनी बलि दे गरीब ऐसी हालत में आवाज उठावे दी? क्या हमारे स्वर्गीय नेताओं ने तो वह देश द्रोही कहा जाता है पर ऐसी ही स्वतंत्रता का आवाहन किया गरीवों के खून पसीने से निकले धन था और अपना सर्वस्व चढ़ाया था। से मोटे होने वाले हर तरह के प्रत्यक्ष क्या जवाहर लाल ने इसी के लिए या प्रछन्न “व्यापार करने वाले देश गाँव-गाँव की खाक छानी थी ? क्या भक्त कहे जाते हैं। हमारे नौजवान शहीदों ने इसी के भारत में अविद्या और गरीबी लिए अपनी कुर्वानियाँ की ? क्या दोनों की प्रधानता है उस पर भी १८५७ से लेकर अब तक हम इसी धमाधता एवं जाति पांत अथवा लिए अपना रक्तदान करते रहे ? क्या छुआछूत वगैरह ने लोगों को इस १६४२ में होने वाले हत्याकांड में लायक नहीं रख छोड़ा है कि कोई विदेशियों की गोलियों के शिकार राय कभी दे सकें । अन्तर्राष्ट्रीय राजहमारे नौनिहाल इसीलिग हुए थे? - नीतिक चक्रचाल भी स्वतंत्र राय _____ अाज भी नेहरू हमारे प्रधान व्यक्त करने की स्वतंत्रता एकदम ही Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ नहीं देते। पूंजीवादी प्रेसों और उनकी सरकारों का व्यापक प्रचार गरीबों की सुनवाई कहीं नहीं होने देता । गरीब यदि जीने की कुछ सुविधाएँ माँगता है, अपनी आवाज बुलंद करने की चेष्टा करता है तो उसे सभी जगह विन्सक, साम्बादी, देश द्रोही आदि नामकरण देकर उसे हर तरह दबा दिया जाता है। यदि किसी स्वतंत्र देश ने पूंजीवादी देशों के संरक्षण बिना उन्नति करने की “धृष्टता" की या प्रयत्न किया तो उसे किसी प्रकार युद्ध में घसीट कर बर्बाद कर दिया जाता है । * हिंसा-वाणी* हमारा भारत स्वतंत्र तो हुआ पर इन्हीं आन्तरिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों तथा वातावरण में इस तरह दब गया कि खुलकर सांस न ले सका । गरीब पिसते ही रहे । नया चुना हुआ पर जहाँ इतनी अविद्या और शक्ति तथा शक्ति वाले (Power and men in power) का भय और शक्ति प्राचीन काल से हमारे नागरिकों के अन्दर कूट-कूटकर भरी हुई है वह चुनाव (Election) तो किसी भी हालत में जनता के सच्चे आन्तरिक मतों का द्योतक नहीं हो सकता- जब कि चुनाव के समय वे लोग राजकार्य चलाने वाले बने ही रहे जो या तो भ्रष्टाचार में स्वयं संलिप्त थे, या उसे दबाने में सर्वथा समर्थ रहे थे और जिन्हें किसी भी उपाय से शक्ति अपने हाथ में करना ही एक मात्र इष्ट या ध्येय था । विहार प्रान्त में अभी हाल में ही एक मिनिस्टर ने कहा कि हम " माइनर इर्रीगेशन” (Mionor irriegation) के कारण ही चुनावों में सफल हो सके । प्रान्त में माइनर इरीगेशन (Mionor irrigation) के नाम में जो कुछ हुआ या होता रहा अखबार पढ़ने वाले जानते हैं। चुनाव के थोड़े ही दिन पहले एक करोड़ से अधिक रुपया इस मद में सरकार ने निकाला और खर्च किया । पहले भी कई करोड़, खर्च किए गए थे। हाल में भारतीय पार्लियामेंट में एक सदस्य ने कहा कि हमारे इर्रीगेशन स्कीम के रुपये खेतों की सिंचाई नहीं करते " पाकेटों " (Pockets) की सिंचाई करते हैं । इत्यादि । यह तो हमारी स्वतंत्रता की हालत है। हम रोंएं या हँसें समझ में नहीं आता । एक पंचवर्षीय योजना बन रही है पर उसमें भी देश व्यापी भ्रष्टाचार को दूर करने की कोई व्यवस्था नहीं की गई है । हमारे प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि हम एक एक काम एकएक बार (in order of priority) करेंगे। पहले पाँच वर्षों में भारत को भोजन - श्रन में स्वावलंबी बनाना है । फिर वस्त्र में, फिर मकान, उसके बाद शिक्षा की वृद्धि । इतना कर लेने के बाद तब दूसरी तरफ ध्यान दिया जायगा । इस तरह पाँच-पाँच वर्ष करके अन्न, वस्त्र, मकान, शिक्षा और Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्वतन्त्रता दिवस * स्वास्थ्य में पचीस वर्ष लग जायँगे। कुछ किया भी हैं। पर हमारे कष्ट पर यदि भ्रष्टाचार दूर नहीं हुआ तो इतने बड़े हैं कि हमारी सरकार की मेरा ख्याल है कि पचीस वर्ष क्या सुस्त प्रगति उनके सामने कुछ भी सौ वर्ष में भी कुछ होना संभव नहीं ऐसा नहीं कर पाती जिससे गरीबों होगा। गरीब विचारा तब भी रोता को थोड़ी राहत मिले और आगे के ही रह जायगा-भले ही देश का लिए उम्मीद और संतोष हो। उत्पादन और देश में समृद्धि की हर चीन भी जब तक पूंजीवादी देशों ओर वृद्धि हो जाय । कुछ लोग मौज के प्रभाव, संरक्षण और "चक्कर" करते रहेंगे और बाकी उनकी ओर में पड़ा रहा वहाँ की आम जनता देख देखकर तरसते. और किसी दुख भोगती ही रही। जब से वहाँ “निर्गरण सगुण" भगवान को गुहराते नई व्यवस्था बनी है तीन ही वर्षों में रहेंगे। पचीसों वर्षों का काम हो गया। आज ___ भला धन और शक्ति वाला भी वहाँ अधिक से अधिक जनता भविष्य कहीं अपना धन और शक्ति स्वयं के लिए पूणे आशावान और वर्तमान में अपनी खुशी से छोड़ता है ? विनोवा उत्साह शील है। हमारे भारत में लोग जी ने "भू दान यज्ञ" नाम का काम "लैण्डआर्मी" बनाने की बातें करते उठाया है-पर क्या इससे हमारी हैं पर यह नहीं सोचते कि जहाँ एक समस्याएँ कभी भी सुलझेगी ? दान ब्यक्ति के पास सौ एकड़ जमीन है देना, दान लेना, दाता और भिक्षुक और दूसरे के पास एक एकड़ भी की रीति ही तो पंजीवादी व्यवस्था नहीं वहाँ जिनके पास जमीन नहीं को सदृढ़ बनाए रखने का सबसे बड़ा उनमें कैसे उत्साह उत्पन्न हो सकता यन्त्र है। इसके लिए तो सरकारी है ? चीन में एक नदी को बाँध बनाने कानून द्वारा ही व्यवस्था में सुधार के लिए बीस लाख आदमी खुशीलाकर कुछ प्रभावकारी रूप से होना खुशी काम में भिड़ गए, यहाँ लोग संभव है। हाँ, जब तक पूंजीवादी ताज्जुब करते हैं कि भारत में ऐसा व्यवस्था कायम है इस तरह के दान क्यों नहीं होता ? कैसे हो? वहाँ वगैरह से एकदम कुछ नहीं से थोड़ा जमीन सब की है-बाँध से लाभ सा लाभ किसी हालत में फिर भी होगा तो सब को होगा। यहाँ तो वह हो ही जाता है। विवशता है। जो . बात नहीं। किसी भी काम में सच्चा बन पड़े, जो कुछ थोड़ा भी हो जाय एवं स्थाई उत्साह होने के लिए वही सही-वही ठीक। यों तो हमारी अपना हित भी कुछ होना आवश्यक वर्तमान सरकार भी सोई हुई नहीं है, है। उद्योग धंधों को ही लीजिए। जागरुक है और कुछ कर रही है। मजदूरों को बँधी मजदूरी मिल जाती Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *हिंसा-वाणी २८ है । एक को पचीस रुपए महीने तनखाह मिलती है तो वहीं दूसरे को एक हजार रुपए महीने तनखाह मिलती है। दोनों मनुष्य ही हैं । एक को बड़े-बड़े लहरदार बँगले हैं तो दूसरे के लिए एक साबूत कोठरी भी नहीं । क्या यह सब उचित है ? सामाजिक एवं सार्वजनिक जीवन में भी येही बातें सभी जगह मौजूद हैं । और हमारी सरकार ने उसे घटाने के वजाय अब तक सुदृढ़ ही करने की प्रवृत्ति प्रदर्शित की है । इतनी विभिन्नता लिए हुए भी यदि कल्ह का गुलाम भारत आज उन्नति के सपने देखे तो ये सपने ही रहेंगे। अमेरिका इंगलैण्ड सैकड़ों वर्षों से स्वतंत्र रहे हैं समुद्र ने उनकी रक्षा की है उनसे हमारी कोई तुलना नहीं । रूस और चीन अपनी व्यवस्था में परिवर्तन करके ही इतनी शीघ्र उन्नति कर सके कि वे आज ऐंग्लो अमेरिकन पूंजीवादी सुदृढ़ गुट्ट की धमकियों के सामने भी छाती ताने खड़े हैं। गरीब और गुलाम में कोई फर्क नहीं । गरीब स्वतंत्र रहे तो या गुलाम रहे तो उसमें कोई विशेषता उसके लिए नहीं होती । सच्चा उत्साह पैदा करने के लिए गरीब को वादाओं द्वारा अब नहीं फुसलाया जा सकता उसके सामने तो ठोस बातें और प्रत्यक्ष हित (interest) साधन की व्यवस्था रखनी होगी। देश का वर्तमान सामाजिक वैषम्य इतना भीषण है कि • सारी प्रगति की चेष्टाएँ इसके पेट में इस तरह चली जायँगी जैसे एक मगर किसी मछली को निगल जाता है । देश की सच्ची उन्नति, प्रगति एवं स्थाई उत्थान के लिए इस वैषम्य को घटाना और घटा कर यथा संभव मिटा देना ही हमें उत्साह प्रदान कर सकता है और हमारी प्रगति तब एक सूत्रता में आवद्ध होने से तेज होगी । हम अमीर गरीब करके अलगअलग एक दूसरे को न समझते हुए सम्मिलित चेष्टा करेंगे और तभी फल भी आश्चर्य जनक होगा । हम स्वतंत्र हुए। पर हमारे उत्साह बजाय बढ़ने के अधिकतर विषयों में भग्न ही होते रहे । हमारे अधिकतर नेता पश्चिमीय प्रबल प्रचार और गुप्त षड़यन्त्रों से इतने अधिक प्रभावित हो गए हैं कि उनका अपना स्वतंत्र विचार कोई रह ही नहीं गया है। अब समय आ गया है (या समय बीतता जा रहा है) जब उन्हें पूँजीवादी प्रचार की रंगीनियों से अपने दृष्टिकोण को बदलकर समय की जरूरतों पर ध्यान देना होगा । जमींदारियाँ खतम हुईं, और भी बहुत सी बातें होंगी ही । पर अब सुस्ती की जगह अधिक तेजी और प्रगति की आवश्यकता है । हिन्दू कवि अभी भी खटाई में पड़ा है । भला वगैर स्त्रियों की स्वतंत्रता और उत्थान के कुछ हो सकता है ? आधी Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्वतन्त्रता दिवस के २६ जनसंख्या जब पर्दे के पीछे पड़ी हिन्द चीन, व्युनीशिया, कोरिया या रहेंगी और उससे होने वाली संतान और दूसरे अफ्रीकी एवं एशियाई भी तो जब वैसी ही पिछड़ी ही होगी देश विदेशियों के पैरों के नीचे बरी तो भला क्या खाक उन्नति होगी? तरह दले मले जा रहे हैं जब रूस अछूतों और पिछड़ी जातियों की चीन स्वतंत्र होकर अपने पैरों पर समस्या भी अभी ज्यों को त्यों वहीं खड़े होने की हिम्मत, तो कर सके पड़ी है जहाँ महात्मा गांधी छोड़ कर हैं। हम भी स्वतंत्र हुए हैं और अपने चले गए । बातें तो लोग बहुत बड़ी- पैरों पर खड़े होने की आशा करते हैं बड़ी करते हैं पर शक्ति के मद में यही संतोष है। मतवाले ये लोग सचमुच नीचे वालों वालों कोई भी व्यापक सुधार किसी को जल्दी ऊपर उठने नहीं देना भी देश में देश की सरकार या राज्य चाहते । आज भी अधिकतर विद्या- 'शासन' या राज्य सत्ता के सहयोग लयों से पचहत्तर फी सदी ऊँची से ही होता है यही संसार का इतिजातियों के लड़के ही पढ़ लिख कर हास कहता है। जनता आन्दोलन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते हैं। कुछ करती रह जाती है पर यदि राज्य एक स्कारलरशिप दे देने से तो कुछ सत्ता कुछ नहीं करती तो कुछ होने जाने का नहीं । ये ही सब नहीं होता । भले ही जनता बाद में समस्याएँ हैं जिनका समाधान न बिगड़ कर राज्य सत्ता को उलट कर पहली पंचवर्षीय योजना में है न स्वयं शासन अपने हाथ में ले ले और आगे ही कोई उम्मीद दीख पड़ती है। तब सत्ता की मदद से जो चाहे करे फिर ऐसे स्वतंत्रता दिवस कितने भी तो उसमें भी सत्ता पहले हाथ में क्यों न आवे जायँ, हम शक्ति संपन्न आने पर सत्ता की सहायता से ही लोगों के प्रभाव में भूखे रह कर भी आगे कुछ हो पाता है। जैसे फ्रान्स, खुशियाँ भले ही मना लें पर जब तक अमेरिका, रूस वगैरह में हुआ। हमारा दुख, हमारी दुश्चिताएँ, हमारा अमेरिका वगैरह में गुलामी का अंत व्यापक आर्थिकशोषण एवं सामाजिक भी राज्य सत्ता की सहायता एवं विभिन्नताएँ दूर नहीं होती हमारे लिए सहयोग द्वारा ही संभव हुआ। दूसरे तो सब कुछ खोखला ही रह जाता श्रमिकों वगैरह की भलाई के कानून है। फिर भी ऐसी स्वतंत्रता से उन्नति भी इसी तरह बने । आज भी साउथ • करने का और व्यवस्थाओं में सुधार अफ्रिका में न जाने कितने दिनों से करने की काफी स्वतंत्रता देश को . आन्दोलन चलते रहने के बावजूद मिली है और हम चाहें तो बहुत कुछ भी भारतीय और अफ्रीकी “गोरों" हो सकता है। आज भी मलाया, के साथ बैठने का अधिकार नहीं पा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अहिंसा-वाणी सके। भारत में भी सरकार यदि यदि पहले ही ले लिया जाय और प्रगति की ओर देश को ले जाना चाहती इंकमटैक्स की तरह प्रान्तों में बाँट है तो देश की स्वतंत्रता उसमे सहायक दिया जाय तो बहुत बड़े यतन से देश होगी। उपयुक्त जनमत बनाने या बनने की रक्षा हो सकती है। पर हमारे देने का साधन भी अधिकतर सर- नेता इसे समझे तब न यही कठिनाई कार के ही नियन्त्रण में है। पुरानी है। हमारा देश पिछड़ा देश है उसमें कहावत है "यथा राजा तथा प्रजा"- इस तरह के टैक्स मनौवैज्ञानिकतः वर्तमान रूप में यही “यथा प्रजा तथा बड़े ही हानिकर हैं हर तरह नुकराजा" कहा जाता है । पर दोनों ही सान देने वाले । रूपए तो दूसरे समान रूप से लागू एवं सही है। तरीकों से भी उतने ही दूसरे तरह के ___अभी तो हम पाते हैं कि जनता करों द्वारा उगाहे जा सकते हैं। के दुख घटे नहीं और हर ओर टैक्सों फिर सब के ऊपर घूस रिशवत की जैसे बाढ़ सी आ गई है । डाइरेक्ट ने तो जनता को और तबाह कर टैक्स तो अब भी हानिकर हैं। खास रखा है। कानून बनाने वाले घूस देने कर सेल्सटैक्स जैसे टैक्स जो सीधा वाले को ही सजा देने की बात बारआम जनता से हर बार जब वह कुछ बार करते हैं। पर घूस देने वाला भी जरूरी वस्तुएँ लेने बाजार जाता है उसी को घूस देने की हिम्मत करता तो उसे देने पड़ते हैं। यह विरोधी है जो लेता है। यदि कड़ी कारवाई भावनाओं को जन्म देने वाला और इस विषय में वी जाय और घूस देशहित का घातक है। साथ ही लेने वाले का जुर्म पचासी फीसदी व्यवसाई लोग कम्पीटिशन में काफी और देने वाले का पन्द्रह फी सदी अवाचार की तरफ जाने को मजबूर समझ कर ही दोनों को सजा होते हैं कुछ जीने के लिए कुछ दी जाय तो काफी कमी इस अनासंचय और लोभ से। इन सब का चार या भ्रष्टाचार में भी हो सकती इका प्रभाव देश को अवनति की है। आज देश के लिए सरकारी तरफ ही ले जाने वाला हो सकता है। उच्चाधिकारियों की गिरावट सबसे जिस व्यक्ति ने भारत में पहले पहल बड़ी समस्या और देश की या जनता इस टैक्स का जन्म दिया उसने देश की पतन की जिम्मेदार है। स्वतंत्रता का बड़ा अहित किया। अब भी इसे का मतलब हम ठीक-ठीक समझ सकें बदला जा सकता है। आम जनता इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले से सीधा टैक्स न लेकर इम्पोर्टरों इसे दूर किया जाय । और प्रोड्यूसरों (Importers सारी कमियों के बावजूद भी & producers) से यही टैक्स (शेषांश पृष्ठ ३७ पर) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम डगमगा उठे (श्री सागर मल वैद्य) कदम डगमगा उठे . क्यों किसलिये ? कि पैर थर थरा उठे कि जग उठा है अब मनुजग कि भोर हुआ पूर्व से कि बढ़ चला है अब मनुज कि चीन से कि रूस से 'कि सो चुकी है दासता कि रुक गये हैं ये कदम कि सो च की है हीनता कि उठ चुके थे जो कदम कि मिट गई है दीनता कि हार गये सियोल में कि माँगते अधिकार अपने कि हार गये चीन में कि जानते अधिकार अपने बस इसलिये कि मिट रहा है भेद अब कि डर रहे हैं ये कदम कि तू गरीब, मैं अमीर कि मैं गरीब, तू अमीर कि थक गये हैं ये कदम जग उठा अब मनुज कि अब डरेंगे ये कदम तब फिर:कि एक स्वर एक गीत कि एक ही निशान हो कि एक ही डगर बढ़े कि एक ही गुमान हो कि एक ही आवाज में कि एक ही आवाज हो कि रुके नहीं झुके नहीं कि बढ़े चले बढ़े चलो! जागरण ( रचयिता साहित्यालकार श्री परमेश्वर लाल जैन 'सुमन', समस्तीपुर ) काली रजनी अब भाग चली, दै सुन्दर रक्तिम सुधा अमर । निकली प्राची से किरण ज्योति, निकला धीरे से अरुण प्रखर ॥ . निष्प्राण विवश कंकाल सभी, अब जल्दी-जल्दी जाग रहे । जो उनका था, वह उनका है, वे अपना सब कुछ माँग रहे । इन अस्थि-चर्म के पुतलों से, चिनगारी निकली अमिट लाल । इन भूखे किसमत वालो के, उर में टकराई अग्नि ज्वाल । अब तो दलितों की आँख खुली, अब तो संसार नया होगा। जंजीर "पुरानी टूट गई, अब तो उद्गार नया होगा। - अब दिग्दिगन्त हँसता रह-रह, मचगई क्रान्ति की नवल धूम । - अब तो सागर रह-रह कर है, भारत का पद-तल रहा चूम ।। &00-00 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चों की कलम से लो आज़ादी का दिन आया (सुमलता जैन कक्षा ७) लो आजादी का दिन आया। सबने है त्योहार मनाया ॥ खुशियाँ खूब मनाई जाती। बड़े जलूस निकाले जाते। जलसे और सभाएँ होती। झंडा गायन गाए जाते । और मिठाई बाँटी जाती। - 'भारत माता की जय' करते। किन्तु न सब को है मिल पाती॥ 'गाँधी की जय' नारे लगाते ॥ सब में है आनन्द समाया । यह आजादी का दिन आया । ॐAL. काँग्रेस और स्वराज्य (लेखक-मिथलेशचन्द्र जैन कक्षा ६) ___ सन् १८८५ ई० में काँग्रेस की नींव पड़ी यह नींव एक अंग्रेज ने डाली थी। उसका नाम मिस्टर ह्य म था। उसके हृदय में यह भी न था कि किसी दिन हमारी ही बनाई हुई काँग्रेस हमको भारत से निकाल बाहर करेगी। पहले तो उसमें ऐसे लोग शामिल हुये जो चाहते थे कि अंग्रेजों की तरह भारत वासियों को भी नौकरियाँ मिलें । इसके पश्चात उसमें ऐसे लोग शामिल हुये जो सम्पूर्ण स्वराज्य चाहते थे। इसके नेता दादा भाई नौरोजी, तिलक, गोखले, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी एवं महात्मा गाँधी थे उस समय ऐनीवेसेण्ट नामक एक अंग्रेज महिला ने 'होमरुल' का झंडा उठाया जिसका अर्थ है-"अपना शासन'' इस अंग्रेजी हुमूकत का असली विद्रोह लोकमान्य गंगाधर तिलक ने किया था। उनको जेल जाना पड़ा। सन् १९२० ई० में कलकत्ते के अधिवेशन में महात्मा गाँधी ने असहयोग प्रस्ताव पास किया जिससे पुराने लोग डर गये और उन्होंने महात्मा गाँधी का साथ छोड़ दिया अब काँग्रेस के नेता महात्मा गाँधी हो गये जिन्होंने सत्य अहिंसा की लड़ाई लड़ी और वे कई सालों तक संघर्ष करते रहे । सन २१, ३१, में बड़ा भयानक सत्याग्रह हुआ। जिसमें जनता ने खुलकर हिस्सा लिया इस सत्याग्रह में हजारों नौ जवान जेल गये। बहुतेरे गोली के शिकार हुये । अनेक नेता दस-दस-पंद्रह-पंद्रह बार जेल गये अंत में त्याग और बलिदान का नतीजा यह हुआ कि १५ अगस्त सन् १६४७ को भारत स्वतंत्र हो गया । सत्य अहिंसा की लड़ाई ने इतनी बड़ी अंग्रेजी सत्ता पर विजय पाई । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूध का दूध पानी का पानी साहित्य-समीक्षा शहीद गाथा भाग १-२ . . रचयिता-श्री धन्यकुमार जैन 'सुधेश सम्पादक-श्री नर्मदा प्रसाद खरे प्रकाशक-सं० सि• सुरेशचन्द्र जैन, मन्त्री मध्यप्रदेशीय जैन सभा जबलपुर । पुस्तक का श्रावरण पृष्ठ तो जैसे मुखरित ही हो उठा है। मुख्य पृष्ठ के दृश्य की सजीवता के समक्ष शीर्षक देने की भी आवश्यकता न थी। प्रेस की छपाई, सुन्दरता, स्पष्टता सराहनीय है। ___ प्रथम भाग में सम्पादक द्वारा लिखी गई 'अज्ञात शहीदों के प्रति'-कविता अपना ऐसा प्रभाव डालती है कि पुस्तक के शिथिल अंशों के पढ़ने में भी ऊब नहीं पाती । शैली की उत्कृष्टता में भावों की सबलता अपना रस छलकाती है। तटपर घड़ों का भरने के पहले ही फूट जाना, स्याही द्वारा उनका भुलाया माना श्रादि भाव तो सन्दर हैं ही, पर कुछ उपमाएं क्या सजीव है १ देखिए : "जिनकी हरी दूब सी पत्नी अब तक बैठी रोती है। जिनकी बूढी माँ बेचारी श्रॉसू से मुँह धोती है ॥" ... नव-वधू को हरी दूब कह कर कवि ने आगे के निर्जीव शब्दों में भी जीवन का सञ्चार कर दिया है। - श्रागे श्री सुधेश' जी के 'उदय' नामक खण्ड काव्य को स्थान दिया गया है जो पुस्तक के सम्पूर्ण प्रथम भाग में छापा हुआ है और है वास्तव में मुख्यांश भी यही है । खण्ड काव्य की रीति के अनुसार यह काव्य भी परिचय से लेकर शव-यात्रा तक कई सर्गों में विभक्त है। इनमें कई मार्मिक स्थल यत्र तत्र विखरे पड़े हैं। अभिमन्यु बध की भाँति मार्मिक स्थल विस्तृत और प्रभावशाली नहीं दिए गए हैं फिर भी वे कम प्रभावक नहीं हैं। - इस काव्य की अपनी विशेषताएं उदय का साहस, मजिस्ट्रेट के मना करने पर भी जनता द्वारा शव-जुलूस निकालने का निश्चय और उदय की अहिंसास्मक नीति अादि चित्र गाँधी-वाद के समर्थन के द्योतक हैं। काव्य द्वारा बलिदान के मूल्याङ्कन की क्षमता जनता को प्राप्त होती है । आदर्शोनमुख यथार्थवाद की स्थापना पुस्तक का प्रमुख लक्ष्य है। ___कहीं कहीं प्रकृति का मानवीकरण भी ऐसी नवीनता और मौलिकता लेकर अवतीर्ण हुअा है जहाँ सफलता ही सफलता है । शव-दर्शन के निमित्त नेता गिरिजाशंकर का जेल में बन्द होने के कारण विवशता का मार्मिक वर्णन हुआ है। - उदय के मरने पर : 'झरने रोने लगे शीघ्र, सर पटक इटक चट्टानों में । और नर्मदा खा पहाड़ गिर पड़ी, व्यथिय मैदानों में ॥' Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * हिंसा-वाणी पूज्याचार्य श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी के अनुसार कविता का एक चरण क्या एक शब्द ही सुन्दर बन पड़ने पर सारी रचना को चमका देता है । अतः 'उदय' खण्डकाव्य, अपनी कमियों के रहते हुये भी अच्छा बन पड़ा है किन्तु अन्तिम नहीं हो सकता । उदय जैसी दिवंगत श्रात्मा के आधार पर कवि और लेखक बहुत कुछ लिखेंगे । पर इससे भी कवि की रचना का मूल्य घटता नहीं प्रस्युत बढ़ने की ही संभावना है । - सूरज साहय शर्मा १व२ ) ३४ मानव विकास की ओर ( भाग सम्पादक - मुन्शी मोतीलाल जी का प्रकाशक व्यवस्थापक सुख साधन माला, ब्यावर पृष्ठ संख्या ११६ + २४८= ३६४ मूल्य १ + २ = ३) छपाई -सफाई, श्राकार-प्रकार की दृष्टि से इस पुस्तक के उभय भाग सुन्दर हैं । शीर्षक के अनुरूप ही पुस्तक का विषय है, जो कि स्वाभाविक भी है। यह संकलन मात्र है । इसमें उच्च कोटि के विचारकों, महात्माओं एवं विद्वानों के विचार, भाषण, लेख एवं उनकी अन्य कृतियाँ संग्रहीत है । संकलन में रुचि परिष्कार का ध्यान रखा गया है । यह संग्रह मानवता के नवीन विकास में, सर्वोदयतीर्थ के युवकों के चरित्र के निर्माण में विशेष उपयोगी सिद्ध होगा- ऐसा हमारा ग्रन्थ प्रकाशन के लिए सम्पादक एवं प्रकाशक बधाई के पात्र हैं। नवनिर्माण की सम्पादक एवं प्रकाशक--श्री मुंशी मोतीलाल रांका व्यावस्थापक-सुख साधान ब्यावर संस्थापन में एवं विश्वास है । - वी० प्र० मूल्य पृष्ठ २० प्रस्तुत पुस्तिका में 'नव-निर्माण' को दृष्टि में रखते हुए कुछ सुन्दर रचनाओं का संकलन किया गया है । - वी० प्र० - तत्वार्थ सूत्र (विवेचन सहित ) विवेचन कर्ता - प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलाल जी संघवी प्रकाशक - प्रो० दलसुख मालवणिया, मन्त्री जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस - ५ मूल्य पाँच रुपया, आठ आना : पृष्ठ संख्या ४१० : पुट्ठे की मजबूत जिल्द 'तत्वार्थ सूत्र' का महत्व दर्शन-जगत में असाधारण है । स्वामी उमास्वाति कृत यह ग्रन्थ-रत्न जैन समाज में गीता-रामायण की तरह लोकप्रिय है । स्वाध्याय प्रेमी जन इसका स्वाध्याय करते हैं प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलाल जी संघवी ने सूत्र जी की विस्तृत विवेचना की है जो सारगर्भित है सन् १६३० में इस ग्रन्थ का मुद्रण ( शेषांश पृष्ठ ३७ वें पर ) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K awan HARपादकीय. - हमारा राष्ट्रीय चरित्र श्राज भारतीय जन-जीवन का नैतिक स्तर कितना गिरा हुअा है, यह किसी से छिपा नहीं है। हम जीवन की महत्वपूर्ण ही नहीं प्रत्युत छोटी-छोटी बातों में भी अपनी स्पर्थपरता से विलग नहीं रहते हैं। हमारे राष्ट्र के चारित्रिक स्तर की प्राज शोचनीय अवस्था है । क्या सफाखाने, क्या डाकखाने, क्या रेल विभाग श्रादि सभी में कितने ही धूर्त लोग घुसे हुए हैं। पुलिस विभाग का तो कहना ही क्या ? चोर बजारी की तो कुछ बात ही न पूछिए । भ्रष्टाचार दिन दूना रात चौगुना बढ़ ही रहा है । नए नए संक्रामक रोग भी फैल रहे हैं। जीवन की नैसर्गिकता जाती रही है। मानव की पाशविक प्रवृत्तियाँ बलवती हो रही हैं । अहिंसक जीवन का अभाव है। -सीधे, सच्चे, निस्पृह, संयमी सजन अब अपवाद स्वरूप रह गए हैं। ____ जीवन का कोई भी क्षेत्र क्यों न ले लीजिए, वहाँ आप को चारित्रिक पतन के लक्षण दिखाई देंगे । अाज भारतवर्ष में विदेशों जैसा राष्ट्रीय चरित्र नहीं रहा है। सच पूछा जाय तो अंग्रेजों के एक तिहाई विश्व पर शासन करने की क्षमता, उनके राष्ट्रीय चरित्र का ही परिणाम थी। यहाँ चरित्र से भारत का रूढ़ि अर्थ न लेना चाहिए । चरित्र का अभिप्राय यहाँ राष्ट्री । चरित्र से है केवल व्यक्ति के चाल चलन मात्र से नहीं, यद्यपि यह भी उस में सन्नहित रहता है। राष्ट्रीय चन्त्रि में ईमानदारी, सचाई, निष्ठा प्रभृत मानवीय गुण पाते हैं। इन्हीं बातों में जरा देखिए भारतवर्ष कितना गिरा हुआ है । यहाँ आप यदि सेम्पिल देख कर कोई वस्तु मंगाते हैं तो वह आपको बिल्कुल वैसी ही मिल सकेगी- इसमें सन्देह है । यहाँ तो इतना ठगई का जाल फैला हुआ है कि श्राप की जरा आँख बची और श्राप ठगे गए । मुंशी प्रेमचन्द जी एक बार सेव खरीदने गए । उन्होंने कॅजड़े को रूमाल देकर कहा-इसमें श्राधा सेर सेव जरा अच्छे-अच्छे छाँटकर दे दो । कँजड़ा समझ गया कि ये अांखों से काम लेने वाले और सौदा वापिस करने वाले बाबू नहीं हैं। उसने अपने लड़के को रूमाल देकर कहा कि जा चुन-चुन कर आधा सेर सेव इन बाबू साहब के लिए ले श्रा। वह गया और बँधे हुए अाध सेर सेव ला दिए । प्रेमचन्द जी ने दाम दिए और अपनी Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अहिंसा-वाणी राह ली। चलते समय कँजड़े ने अपने सेवों का बखान किया, "बाबू साहब, इतने लाजबाब सेव आपको बाजार भर में न मिलेंगे।" प्रभात में घर अाकर खाने के लिए जब उन्हें निकाला तो पहला प्राधा गला हुश्रा निसला अया, दूसरा को पूरा सड़ा, शेष दो सेव भी मल-सड़े निकल गए । जरा सी लापरवाही में यही माझाना मामूली बात है। . भारतवर्ष में विविध प्रकार के मूठे विशान करके लोगों को ठभा जाता है। हम भी इनके कई बार शिकार बने हैं। हमने कई ऐसी वौपियां छुड़ाई हैं जिनमें हमें। कुछ भी पल्लें न पड़ा गांठ के समय ही मा। ____ वस्तुतः श्राज के भारत को राष्ट्रीय चरित्र के विषय में विदेशों से बहुत कुछ सीखना है। विदेशों में धोखेाजी, दगाबाजी, बेईमानी नहीं होती जैसी कि भारत में पद-पद पर देखने को आती है। इङ्गलैण्ड में समाचार-पत्र एक निर्दिष्ट स्थान पर. रखे रहते हैं । श्राप जाइए उनका मूल्य वहाँ रख दीजिए और अखबारो लागि क्या भारत में यह सम्भव हो ककता है ? यहाँ एक जगह अस्वचार रखदीजिए तो घण्टे भर बाद आपको पता भी न चलेगा कि वे कहाँ गए । यह है वहाँ और यहाँ के राष्ट्रीय चरित्र का अन्तर ! _____एक स्वीडेन का उदाहरण और लीजिए । उत्तर प्रदेश के वर्तमान स्वायत्त शासन मन्त्री माननीय मोहन लाल जी अपनी वैदेशिक यात्रा में स्वीडेन गए हुए थे। उन्हें एक कारखाने को देखने का अवसर मिला। कारखाना बड़ा था परन्तु प्रचन्छ । सुन्दर ! मन्त्री जी को वहाँ के प्रबन्ध के विषय में जानने की जिगीषा हुई । उन्होंने यहाँ की सर्वोच्च अधिकारिणी महिला से पूछा कि कारखाने के कर्मचारियों को वेतन किस प्रकार दिया जाता है । उन्हें बताया गया कि प्रत्येक कर्मचारी जिस समय श्राता है उस समय उसमें कार्ड पर मशीन के द्वारा वह समय लिख जाता है इसी प्रकार बाते समय का समय भी कार्ड पर अंकित हो जाता है। इसी कार्ड के अनुसार सब को सब का वेतन मिलता है। परन्तु खास बात तो यह कि कर्मचारियों की संख्या वहाँ हजागे हैं और सब को सुविधा से तनख्वाहें मिल जाती हैं। सब के वेतन अलगअलग लिफाफों में बन्द करके और उन पर कर्मचारी का नाम लिखकर एक मेज पर रख दिए जाते हैं । वहाँ से प्रत्येक अपना-अपना वेतन ले पाता है। दूसरे का छूता भी नहीं । मेज पर सभी प्रकार कम-अधिक वेतन पाने वालों की तमख्याई रखी रहती हैं परन्तु कोई किसी दूसरे का लिफाफा नहीं छूता । यह है राष्ट्रीय चरित्र ! मन्त्री जी ने यह भी पूछा कि कभी कोई गड़बड़ी तो नहीं होती। उन्हें विदित हुश्रा कि कमी भी कोई गलती नहीं होने पाती है । क्या यह भारत में किया जा सकता है ! । एक युग था जब भारत के घरों में वाले भी नहीं पड़ते थे परन्तु अब वो बिना ताले काम न चलने का । यह अवस्था क्यों हुई? यह नैतिक हास क्यों हुन्ना ? ईवयें Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _सम्पादकीय * आर्थिक, गजनैतिक शैक्षिक परिस्थितियाँ कार्यकर हैं । जो भी हो, यह तो निर्विवाद ही है कि हमें अपने राष्ट्रीय चरित्र के स्तर को उठाना है। यद्यपि इस दिशा में कई संस्थात्रों ने प्रयास किए हैं परन्तु कोई भी सन्तोषजनक परिणाम नहीं निकला है। यद्यपि राष्ट्र य चरित्र की जिम्मेदारी बहुत कुछ सरकार पर ही है परन्तु यदि सरकार में ही चरित्रनिष्ठ प्रादमी नहीं है तो सरकार क्या कर सकती है ? इस भाँति तो यह कार्य चत्रिनिष्ठ व्यक्तियों द्वारा ही सम्पादित हो सकता है। सरकार को अार्थिक, राजनैतिक परिस्थितियों पर ध्यान देना आवश्यक है और चरित्रनिष्ठों को नैतिकता पर । सच्चरित्र व्यक्ति अनेक सच्चरित्रों का निर्माण कर सकते हैं । उन्हें अपना उत्तर दायित्व समझना चाहिए । सरकार को भी इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। पृष्ठ ३४का शेषांश गुजराती में हुअा था अब इसका यह परिवद्धित एवं संस्कृत हिन्दी संस्करण है । पुस्तक के मूलकर्ता उमास्वॉति स्वामी के बहुमुखी जीवन का परिचय देने में लेखक ने प्रामाणिक सामग्री जुटाई है । विषय के प्रतिपादन में भी असाधारण सफलता पाई है। पुस्तक के अन्त में 'तत्वार्थ-सूत्र' का पारिभाषिक शब्द कोश दिया गया है। इसका अपना निजी महत्व है। तात्विक निरूपण के कारण शैली गम्भीर है। विशेष बात तो यह है कि स्पष्टीकरण में कहीं भी लनग्ता नहीं पाई है। दर्शन के विद्यार्थियों के लिये यह पुस्तक विशेष उपयोगी है। पाठक इससे उचित लाभ लें । ग्रन्थ संग्रहणीय हैं। वी० प्र. साभार विशेषांकों की प्राप्ति स्वीकृति १. 'जैन गजट' का आचार्य शान्ति सागर हीरक जयन्ती विशेषांक २. 'अनेकान्त' का सर्वोदयतीर्थाङ्क ३. 'जैन महिलादर्श' का नारीधर्माङ्क (पृष्ठ ३० का शेषांश) हमें राजनीतिक स्वतंत्रता होने से से शान्ति की स्थापना में भारी असर हम उन देशों से अधिक भाग्यशाली पड़ा है और पड़ेगा। हमारी तो यही हैं जो अभी भी पराधीन हैं। हम प्रार्थना है कि हम सर्वदा स्वतंत्र बने इसी लिए स्वतंत्रता दिवस का मान रहें, यह स्वतंत्रता दिवस सर्वदा करते हैं कि हम आगे बढ़ने के योग्य आता रहे और एक दिन हम खुले हो गए हैं। भारत की स्वतंत्रता दिल से हार्दिक प्रसन्नता पूर्वक इसका एशिया के लिए एक बहुत बड़ी देन अभिनन्दन कर सकें और खुशियाँ है। संसार में भी हमारी स्वतंत्रता मनाने में समर्थ हों। ॐ शान्तिः ॐ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regel. No. A.576. 'अहिंसा वाणी' के विषय में १-'अहिंसा-वाणी' का उद्देश्य सत्य-अहिंसा द्वारा विश्व में सुख, समृद्धि, शान्ति को सृष्टि के लिए तदनुकूल स्वस्थ ज्ञान सामग्री देना है। २-हिसा-वाणी' प्रत्येक माह के द्वितीय सप्ताह में प्रकाशित होती है । पत्रिका नहीं पहुँचने की शिकायत ३०वीं तारीख तक पहुँचना श्रावश्यक है। ३-पत्र व्यवहार में अपनी ग्राहक संख्या अवश्य लिखें ! ४-किसी भी माह से ग्राहक बन सकते हैं । अप्रैल से बनना सुविधाजनक होगा। ५-पालोचनार्थ पुस्तकों की दो प्रतियाँ सम्पादक जी को भेजनो चाहिर । अालोचना करना सम्पादक के सर्वाधिकार में है। ६-पत्र में शिष्ट श्रादर्श एवं स्वस्थ विज्ञापन ही लिए जावेंगे । विज्ञापन-दर पत्र द्वारा पूछ सकते हैं। ७-अहिसा-संस्कृति एवं जैन-दर्शन को व्यवहारोपयोगी बनाने के लिए तत्सम्बन्धी शंकायों का समाधान भी यथासम्भव पत्रिका में किया जावेगा । पाठक शंकाएँ सम्पादक को भेजें। -प्रकाशनार्थ रचनाएँ पत्र के उद्देश्य से सम्बन्धित होनी चाहिए तथा सम्पादकजी के पास भेजनी चाहिए। निबन्ध, कहानी, एकांकी, कविता, गद्य-गीत, के गद्यकाव्य आदि सभी प्रकार की रचनाओं का स्वागत किया जायेगा। रचनाएँ साफ सुथरी तथा पृष्ठ के एक ही ओर लिखी जानी चाहिए। अस्वीकृत रचना की वापिसी के लिए डाक खर्च संलग्न होना श्रावश्यक है। -समस्त पत्रव्यवहार का पता-'अहिंसा-वाणी' कार्यालय, अलीगञ्ज (एटा) उ० प्र०। “दी वायस प्राव अहिंसा" THE VOICE OF AHINSA विश्व-शान्ति एवं मानवता का सर्वोच्च स्वर देश-विदेश के ख्याति-लब्ध लेखकों की अमूल्य कृतियों से अलकृत अहिंसा सस्कृति एवं जैन-दर्शन की एक मात्र सचित्र द्विमासिक पत्रिका यदि आप अभी तक इस पत्रिका के ग्राहक न बने हों तो अहिंसा-प्रसारार्थ अविलम्ब ही छः रुपए ६) का मनीआर्डर भेजकर ग्राहक बन जाइए। व्यवस्थापक दी 'वायस आव अहिंसा'-कार्यालय अलीगञ्ज, (एटा) उ० प्र० प्रकाशकः--पं० रेवतीलाल अग्निहोत्री, अ० वि० जैन मिशन अलीगञ्ज (एटा) मुद्रक:-राजेन्द्रदत्त बाजपेयी, हिन्दी साहित्य प्रेस, प्रयाग।