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* अहिंसा-वाणी * वासना-परन्तु ......(रुक जाती है). कुब्जा-रुक क्यों गई ? परन्तु-किन्तु क्या ? कहो न !... वासना-जब से कुमार स्वतंत्र को देखा है, हृदय में एक कसक टीसती रहती
है । कुमार का भरा हुआ वक्षस, उन्नत भाल, बड़े-बड़े नेत्र, सस्मित चेहरा, सुगठित शरीर और वह वक्तृत्व कला आदि सब गुण नेत्रों
के समक्ष नाचते रहते हैं। कुब्जा -तो उसको वंश में करना कौन-सी बड़ी बात है ? वह तरुण है।
तरूणाई में, वासने; तुझे-तेरे मधुमय सौन्दर्य-वैभव को, यदि स्वतंत्र एक बार भी देखले तो बिना लुभाए नहीं रह सकता । तरुणाई में किसे रंगरेलियाँ नहीं सूझती ? यदि कुमार ने तेरा कहीं संगीत -
सुन पाया तो तेरे ऊपर वे बिना पागल हुए नहीं रह सकते ! वासना-सुना है, आज स्वंय सम्राट ने उन्हें बन्दी बनाने की आज्ञा प्रसारित
कर दी है। कुजा-तो क्या हुआ ? वह अपने पुरूषार्थ से निकल आएँगे ? मैं तुम्हें उनके वैसे भी मिला दूंगी। लोभ और आकर्षण से कौन बचा रहता है ?
[ पट परिवर्तन ]
द्वितीय दृश्य
स्थान-राज दरबार । [राजकुमार बन्दी बनाकर लाए जाते हैं । उनके पीछे जनता कोलाहल करती
उमड़ी चली आ रही है। राजकुमार-(कुछ रुककर तथा पीछे मुड़कर) नागरिक-बृन्द ! अब आप शान्त
रहें। राजाज्ञा का पलन करना हमारा परम कर्तव्य है। (कोलाहल शान्त हो जाता है । कुमार आगे बढ़कर सम्राट को प्रणाम
करते हैं।) सम्राट-(लज्जापूर्वक) स्वस्ति वदन । (कुछ रूककर कहने लगते हैं ) कुमार
स्वतंत्र ! आज तुम्हें मैं अपनी ही आँखों के आगे ही परतंत्र देखता हूँ। तुमने मेरे होते हुए भी मेरी वंश-परम्परा को लगा दिया।
कुल पर कलंक लगा दिया। कुमार-मैं स्वतंत्र हूँ और सदा रहूँगा। आप मेरे पार्थिव शरीर को भले ही
बँधा हुआ देख लें; परन्तु, मन से यह स्वतंत्र सदा स्वतंत्र है और रहेगा। उसे परतंत्र बनाने का किसमें साहस ? किसमें क्षमता ?