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१६.
* सच्चा स्वातन्त्र्य *.. मैंने अपना कर्तव्य किया, आप इसे कुल-कलंक समझे तो समझें। सम्राट-यदि तुम्हें बन्धन में ही आनन्द है, तो क्या कहूँ? मैंने यह सब
कुछ तुम्हारे लिए ही किया था। मेरा क्या ? मैं तो बुढ्ढा हुआ। तुम्हारे लिए पृथक प्रासाद निर्मित करने का अनुष्ठान कर मैंने
महापाप किया। अपने पैरों में अपने आप कुल्हाड़ी मार ली। कुमार-मेरे लिए नहीं, हरगिज नहीं। मैं अपने सुख के लिए अपने निर्धन
प्रजा-जनों की झुपड़ियाँ उजड़वाकर गगन चुम्बी प्रासाद स्वप्न में भी
नहीं बनबाना चाहता । मुझसे यह निष्ठुरता, निरंकुशता, पाशविकता .. कदापि नहीं हो सकती! सम्राट-तो फिर मैं ही क्यों यह सारा कहाँ ? कुमार-यह आप समझे । दीनों की झुपड़ियों को उजड़वाकर महल बनबाना
महा अन्याय है। गरीबों की पसीने की कमाई पर मस्ती काटना
मुझे नहीं भाता। सम्राट-अच्छा....तो..... 'जो समझो, अब तुम्ही करो। मेरी वाणी में
इतना बल नहीं कि अब तुम्हें कारावास तक भेजने की आज्ञा दे
सकँ। मन में आए वह करो। लो, मैं जाता हूँ; अब दरबार में पैर - भी न धरूँगा। मैं अब प्रासादों में ही जिन्दगी काइँगा । तुम्हें जो
रुचे वह करो । प्रहरी ! बन्धन खोल दो । स्वतंत्र को स्वतंत्र कर दो। [प्रहरी बन्धन खोलता है समाटा छा जाता है। प्रजा-जन जय-जय नाद करते हैं ] प्रजा-जन-'सम्राट की जय !' 'राजकुमार की जय !'
[कुमार बन्धन मुक्त होने पर पिता के चरण-कमलों में गिर पड़ते हैं।] कुमार-( सँभलकर ) क्षमा चाहता हूँ, पिता जी क्षमा ! सन्नाट-(रूद्धकण्ठ में ) क्षमा ! ( सम्राट कुमार को हृदय से लगा लेते हैं। नेत्रों
से अश्नु गिरते हैं । सम्राट चल देते हैं) कुमार-प्रहरी, जाओ महाराज को भवन तक भली प्रकार से पहुँचा आओ।
बाहर रथ सुसज्जित-सा खड़ा प्रतीत होता है।
(सम्राट जाते हैं । सब जय-जय घोष करते हैं। ) कुमार-(सम्राट को द्वार तक पहुंचा पाने के पश्चात ) मन्त्रिवर! आज से
- आप प्रमुख नागरिकों की सलाह से राज्य कार्य करिए । इतना बड़ा । हुआ राज्य कर कस कर देना समुचित होगा-ध्यान रखिए।
( नागरिकों की ओर ) नागरिको ! अब राज्य-भार आपके ही हाथों में है। अब आपका ही राज्य है, आप इसे सँभालें ! जैसा चाहें वैसा करें।