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________________ १० और नहीं माँगता प्रेमिका के भुजपाश काम-उद्दीपक हरे भरे मधुमास वासना की तीव्र प्यास रति-केलि औ' विलास प्रति क्षण प्रेयसी का सहवास किलोल या कि लोल हास क्योंकि ये विषय-भोग शहद से सनी हुई पैनी कटार हैं अमृत के रूप में विष की धार हैं और कर्मराज मोह के आधार हैं मध्य लोक में बने नर्क के द्वार हैं सेमर के पुष्पवत् सर्वथा असार हैं तृप्ति कर हैं न, पर बढ़ाते संसार हैं। अतएव वीतराग! चाहता न भोग-राग और नहीं चाहता गोद में खिलाने के हेतु सन्तान भी क्योंकि देव ! वह भी 'स्व' से उत्पन्न हो बनती अवश्य 'पर' और जो बने 'पर' रहे नहीं 'मेरी * अहिंसा-वाणी * आज से अनन्त तक वह नहीं चाहिये और ऐसी वस्तु इस लोक में है नहीं वह त्रिलोक से परे कल्पना गम्य है। किन्तु नाथ ! तुम हो इसके अधिकारी इसीलिये आया हूँ आज मैं शरण में तुम्हारी बनकर भिखारी देने यदि कहो तो व्यक्त मैं करूँ अब अपनी कामना अपनी भावना वह यही कि हे प्रभो मेरे ही समान अनेकों अनजान आत्माएँ बद्ध हो तन में पड़ी कर्म-बन्धन में भूल कर मुक्ति-पथ त्याग कर धर्म-रथ भटकती भव-वन में हैं वे पराधीन महादीन दुःखलीन सुख विहीन उन पर हैं बन्धन निज के
SR No.543517
Book TitleAhimsa Vani 1952 08 Varsh 02 Ank 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherJain Mission Aliganj
Publication Year1952
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Ahimsa Vani, & India
File Size11 MB
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