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''चाँदन' के महावीर ! जन जन के महावीर !!
त्रिभुवन के महावीर !!!
मौन क्यों हुये आज वेदिका में विराज नयन ये खोलो भी और कुछ बोलो भी देखो तो मेरी ओर, हर्ष में हो विभोर भक्ति की ले हिलोर
आया हूँ आज मैं
शरण में तुम्हारी
बनकर पुजारी
नहीं ! नहीं !!
मुक्ति का भिखारी
[ रचयिता - श्री धन्यकुमार जैन "सुधेश" ] क्योंकि नाशवान तन व्याधियों का सदन
बनकर भिखारी ।
किन्तु नहीं उनसा मागते जो तुमसे
मनोज सी काया
कुबेर सी माया सुन्दरी रति समान
या कि एक संतान
किन्तु मैं तुमसे माँगा नहीं नाथ
देह की कुशलता
सिंह सी सबलता
गई थी ।
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बनेगा एक दिन चिताग्नि का धन
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देव !
अतएव तन
सुख नहीं चाहिये और नहीं चाहिये स्वर्ण, धन, धान भी,
कार,
भवन, उद्यान भी, नभयान भी रेडियो के गान भी इत्र तैल पान भी
क्योंकि क्षणभंगुर ये पाप के अंकुर ये करते हैं चित्त को
चिन्ता से देखने में यद्यपि
भासते मधुर
किन्तु कर देते हैं
ऋतुर ये
मानव को
सुरसे
असुर ये ।
अतएव भौतिकपदार्थ नहीं माँगता
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*यह रचना सन् १९४६ की तीर्थ यात्रा में चाँदनपुर की धर्मशाला में लिखी