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* मुक्ति का भिखारी
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पर के काल के
देश औ राज के जाति और समाज के कुछ पूर्व-प्रागत
और कुछ अाज के ये सब बन्धन टूट कर चूर-चूर जा गिरें दूर-दूर
और फिर मुक्त हर देश हो मुक्त हर प्रान्त हो मुक्त हर ग्राम हो मुक्त हर धाम हो मुक्त हर व्याधि हो नर और नारी वृद्ध और बच्चे पशु और पक्षी वृक्ष और पौधे लता, तृण, कण-कण मुक्त हों ये सब
और मुक्ति के प्रति हरेक में भक्ति हो हरेक में शक्ति हो कि पा सके वह मुक्ति-पथ पा सके वह धर्म-रथ और चल सके वह आप तक आने को मुक्ति-पद पाने को है यही कामना निज की
पर की देश की लोक की मुक्ति की भावना
और नहीं कोई भौतिक-खालसा मुक्ति के विहारी इसीलिये आया हूँ अाज मैं शरण में तुम्हारी बनकर मुक्ति का भिखारी हो रही आशा देख तब मुद्रा भोली इसीलिये माँगता हूँ मुक्ति-भीख भक्ति वश ही पसार चित्त की झोली इस प्रकार तव प्रिया माँगकर करता हूँ नहीं तुमसे ठिठोली वास्तव में मुझे मुक्ति ही चाहिये हे उदार । निविकार !! कृपागार !!! बार-बार कर-कर मैं नमस्कार माँगता हूँ मुक्ति भीख हो तुम्हें स्वीकार तो कहदो "तथास्तु" अस।