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________________ * श्रहिंसा-वाणी स्वतन्त्र हूँ और तुम बंधी हुई हो । यह कहती नहीं मालुम होती कि देखो मैं में बंधा हुआ है तो कभी अधाव में, कभी घर में बंधा हुआ है तो कभी देश में। बस बंधा बंधा चिल्ला रहा है'मैं स्वतन्त्र हूँ ।' खूँटा उखाड़ कर ले जाने वाली गाय इधर तो और गायों से कह रही है कि वह स्वतन्त्र है और उधर खूँटे से पीछा छुड़ाने के लिये ऐसी जुटी हुई है मानो वह अपने में ही बंधी हुई है । कभी कोई भूला भटका यह भी कह बैठता है मैं मरने के लिये आज़ाद हूँ । लोग यह सुन कर हँस देते हैं। क्या बुरा कहता है वह ? यही तो कहता है कि वह जिस्म के जेलखाने से भाग निकलने के लिये आज़ाद है । आज़ाद है या नहीं १ स्वतन्त्र हुआ या नहीं ? अच्छा साहब भागते-भागते ज़मीन से रगड़ खा खाकर या पेड़ों की छाल से घिस घिस कर कहीं अटक कर उस गाय की रस्सी टूट जाती है । फिर ज़रा उसे देखिये एकदम ऐसे उछलेगी जिस तरह वह जत्र उछली थी जब वह एक दो दिन की बछिया थी । अगर गाय बोल सकती होती और उस गाय के खुर आदमियों के हाथ जैसे होते तो वह भी कोई झंडा लेकर कूदता - कूरती बाज़ारों में निकलती और यह कहती फिरती 'मैं पूरी तरह आज़ाद हूँ। मैं पूरी तरह आज़ाद हूँ ।' और कब ? जब उसकी गर्दन में रस्सी का घेरा ज्यों का त्यों मौजूद है। आदमी का कुछ ऐसा ही हाल है । हम नहीं समझते श्रादमी यह कहकर क्या कहना चाहता है ? मैं स्वतन्त्र हूँ चाहे जब सोऊँ । मैं स्वतन्त्र हूँ चाहे जब जागूँ । मैं स्वतन्त्र हूँ चाहे जब उठँ । मैं स्वतन्त्र हूँ चाहे जहाँ जाऊँ । यह अपने आपको स्वतन्त्र समझने वाला श्रादमी कहे कुछ भी पर अच्छी तरह समझता है कि वह कभी नींद में बंधा हुआ है तो कभी जाग में कभी भूख कुछ ऋषि, नामी श्रादमियों की सूझ लीजिये । उनको यह इल्हाम हुश्रा या ज्ञान हुआ कि जो आदमी अपने जिस्म का जेलखाना तोड़कर भागा वह या तो कुछ दिनों भटकता रहा ( देखिये भटकता रहा लफ्ज़ को ध्यान में रखिये ) या उसी से मिलते जुलते जिस्म के किसी और जेलखाने में जा फंसा । फिर वही स्वतन्त्रता की तड़प, वही उसके पा लेने की दौड़-धूप और वहीं उसके जानने की इच्छा । अत्र बँधने और खुलने के सिवा स्वतन्त्रता क्या रह जाती है। दही में घूमनेवाली मथानी अगर दही से यह कहे कि मैं आज़ाद हूँ । दायें-बायें किधर ही को घूमूं, ऊपर-नं चे जब चाहूँ ऊँ जाऊँ। तो दही सुन लेगा और यही समझेगा कि यह ठीक ही कहती है । उस दही को क्या मालुम कि यह ग्वालिन की कितनी गुलाम है और उसने किस तरह इसकी कमर में रस्सी के दसियों लपेट दे रक्खे हैं और अपनी मर्जी पर •
SR No.543517
Book TitleAhimsa Vani 1952 08 Varsh 02 Ank 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherJain Mission Aliganj
Publication Year1952
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Ahimsa Vani, & India
File Size11 MB
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