________________
* सच्चा स्वातन्त्र्य *
[लज्जा की लाली से मुख अरुण हो जाता है। नीचे देखने लगती है।
कुमार मर्माहत से हो जाते हैं । मौन रहते हैं कि कर्तव्य विमूढ़-से। कुलजा-वासना-कुमदिनी-प्राणवल्लभ-शशि ! मौन क्यों? दो ही प्रेम के वोल
वोल दो !
[फिर भी मौन रहते हैं । रमणियों की ओर एक टक देखते हैं ।] पासना-इतने निष्ठुर क्यों हो रहे हो ? मुस्कुराकर ही स्वीकृति दे दो प्रिय
तम ! प्राण वल्लभ ! प्राणेश ! कुमार-शान्त, बहिन शान्त ! पाराकाष्ठा ! अतिक्रमण, सीमा का अतिक्रमण ! -प्रेम नहीं वासना ! इन्द्रियजन्य अतिरेक ! प्रेम की इतनी विडम्बना
क्यों कर रही हो? [दोनों लज्जित सी निस्सहाय इधर-उधर आँखें फाड़-फाड़ कर देखती हैं
जैसे उसी समय जमीन में समा जाना चाहती हो । कुब्जा-कुमार, प्रेम-भिखारी का इतना अपमान न करो। वासना-ऐसा तो स्वप्न में भी न सोचा था देव ! कुमार-यदि न सोचा था तो अब सोच लो । प्रेम यदि इस प्रकार होने लगे
तो मर्यादा का कहीं नाम भी न रहे । तुम्हारा जादू चाहे सब पर चल जाए पर मुझ पर तो शायद......! सुन्दरी ! तुम्हें अपने सौंदर्य पर गर्व है। तुम मुझे इसी बल पर मोहने के लिए आईं, फँसाने चलीं, मुझ स्वतंत्र को अपना बंदी बनाने चली ।...... सच्चे प्रेम में त्याग होता है सुन्दरी, वासना नहीं। मैं आपका और अपमान नहीं करना चाहता। आप यहाँ से अविलम्ब प्रस्थान करें। दोनों लड़खड़ाती हुई चली जाती हैं । झाड़ी के पीछे से एक महिला निक
लती है] कुमार--(उस महिला को देखकर) अरे सुमति बाई ! तुम यहाँ कहाँ ? सुमति बाई-यहीं ही। कुमार-देखा, इन इन्द्रजाली महिलाओं का जादू ? सु० बा० - हाँ, पर आप बड़े निष्ठुर निकले; पिघले भी नहीं ! जरा भी नहीं !
जरा उनकी सान्त्वना के लिए ही हँस देते ! बड़े पत्थर के हो। कुमार-क्या कहती हो बहन ? क्या मेरी परीक्षा लेनी चाहती हो? सु० बा-तुम्हारी परीक्षा तो हो चुकी । तुम सफल उतरे । किन्तु............ कुमार-किन्तु, लेकिन अब भी कुछ ?