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जैन ऐज्युकेशन बोर्ड प्रस्तुति
( शार्य स्थलभद्र
LOOK LEARN
Rs. 20.00
LAJDHAM
Sistical
-ESENDE
Vol
25
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युवा हृदय सम्राट पूज्य गुरुदेव श्री नम्रमुनिजी म.सा. की प्रेरणा...'
अर्हम युवा ग्रुप
ARHAM पस्ती द्वारा परोपकार के कार्य... परोपकार के कार्य... ARHAM
YUVA
YUVA
GROUP
एक नया प्रयोग...
GROUP
करुणा के सागर पूज्य गुरुदेव... जिनके हृदय में दूसरों के हित, श्रेय और कल्याण की भावना रही है... उनके चिंतन से एक अभिनव विचार का सृजन हुआ और उन्होने मानवसेवा, जीवदया के कार्य के साथ अध्यात्म साधना करने के लिए "अर्हम युवा ग्रुप” की स्थापना की..!
पूज्य गुरुदेव के प्यार से प्रेरणा पाकर यह महा अभियान समस्त मुंबई के युवक-युवतीओं का एक मिशन बन गया ! इस महा अभियान में प्रतिदिन स्वेच्छा से नये नये युवक युवतियाँ जुडते जा रहे हैं। यह उत्साही युवावर्ग हर माह हजारों किलो की पस्ती एकत्र करके उसका विक्रय करता है और उस राशी से परोपकार के कार्य करता है ।
पूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन और निर्देशन के अनुसार ये युवक-युवतीयाँ हर माह के प्रथम रविवार को पार्टी, पिक्चर या प्रमाद करने के स्थान पर परमात्मा पार्श्वनाथ की जप साधना करके मनकी शांति और समाधि प्राप्त करते हैं।
दूसरे रविवार को सेवा का कार्य करने के लिए घर-घर जाकर अखबारों की पस्ती इकठ्ठी करते हैं और कड़वे-मीठे अनुभव द्वारा अपने अहम् को चूर कर, Ego को Go कर, सहनशील और विनम्र बनते हैं ।
तीसरे रविवार को पस्ती से पाये गये रूपयो से गरीब, आदिवासी, बीमार, अपंग, अंधे, वृद्ध आदि की जरूरत पूरी करते हैं । वे उन्हें केवल वस्तुयें या अनाज, दवा आदि ही नहीं देते अपितु उन्हें प्यार, सांत्वना आश्वासन और आदर भी देते हैं। उनकी दर्दभरी बातें सुनते हैं, अनाथ बच्चों के साथ खेलते हैं और वृद्धजनों को व्हीलचेर पर बैठाकर उनकी इच्छानुसार प्रभु दर्शन आदि कराने भी ले जाते हैं । वे कत्लखाने जाते हुए पशुओं को बचाते हैं। बीमार, घायल पशु-पक्षीयों का इलाज भी कराते हैं ।
बदले में उन्हें क्या मिलता है ? उन्हें एक प्रकार का आत्मसंतोष प्राप्त होता है । वे जो अनुभव करते हैं उसके लिए कोइ शब्द ही नही है। उनका दिल अनुकंपा से भर उठता है।
इन युवाओं ने आजतक दुनिया के सिक्के का सिर्फ एक ही पहलू-सुख ही देखा था । अब सिक्के का दूसरा पहलू दुनिया का दुःख, वास्तविकता देखने के बाद उन्हें अपना सुख अनंत गुना बड़ा लगने लगा है ।
बस ! पूज्य गुरुदेव ने आज की युवा पीढ़ी को शब्दों द्वारा समझाने के बदले प्रयोग द्वारा उनका जीवन परिवर्तन कर दिया । प्रयोग और प्रत्यक्ष देखने और अनुभूति करने के बाद समझाने की जरूरत ही नहीं रही । -
चौथे रविवार को अपने पूज्य गुरुदेव के दर्शन करके, उनके सानिध्यमें उनके शुक्ल परमाणुओं द्वारा अपनी ओरा, अपने भाव और अपने विचारों को शुद्ध करके शांतिपूर्ण, निर्विघ्न अपने सारे कार्य सफल करतें हैं और नया मार्गदर्शन... नया बोध... नये विचार पाकर अपना जीवन धन्य बनाते हैं ।
आप भी जीवन में 'गुरु' द्वारा प्रेरणा पाकर परोपकार के इस महा अभियान में अपना सहयोग देवें और अपना •अमूल्य मानव जीवन सफल बनायें ।
अर्हम ग्रुप के सदस्य बनने के लिए सम्पर्क करें -
Ritesh -9869257089, Chetan-9821106360, Jai -9820155598
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हमारा संदेश...
ज्ञान... ज्ञान के बिना जीवन अधूरा है ।
बच्चों के लिए ज्ञान प्राप्ति का सरल माध्यम है आकर्षक और रंगीन चित्र... बच्चे जो देखते हैं वही उनके मानस मे अंकित हो जाता है और लम्बे अर्से तक याद भी रहता है ।
दूसरी बात... आज के Fast युग में बच्चों के पास पढ़ाई के अलावा इतनी साईड एक्टीवीटी है कि उन्हें लम्बी कहानियाँ और बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ने का समय ही नहीं है।
हमारे जैनधर्म मे... भगवान महावीर के आगमशास्त्रों में ज्ञान का विशाल भंडार भरा हुआ है । ज्ञाताधर्मकथा सूत्र जैसे आगम में कथानक के रूप में भी कहानियों का खजाना है ।
बाल मनोविज्ञान की जानकारी से हमे ज्ञात हुआ कि बच्चों की रूचि Comics में ज्यादा है । उन्हें पंचतंत्र, रीचीरीच, आर्ची, Tinkle आदि Comics ज्यादा पसंद है और उसे वे दोचार- पाँच बार भी पढ़ते है और Comics एक ऐसा Addiction है जिसे बड़े भी एक बार अवश्य पढ़ते है । यही विषय पर चिंतन-मनन करते हुए हमारे मानस में भी एक विचार आया... क्यों न हम भी जैनधर्म के ज्ञान को... हमारे भगवान महावीर के जीवन को, हमारे तीर्थंकर को... बच्चों तक पहुँचाने के लिए Comics Book का माध्यम पसंद करे...?
शायद यही माध्यम से बच्चों और बच्चों के साथ बड़े भी जैनधर्म के ज्ञान-विज्ञान की जानकारी पाकर अपने आप में कुछ परिवर्तन लायेंगे ।
परमात्मा के विशाल ज्ञान सागर में से यदि हम कुछ बूंदे भी लोगों तक पहुँचाने में सफल हुए तो हमारा यह प्रयास यथार्थ है ।
जैनधर्म की क्षमा, वीरता, साहस, मैत्री, वैराग्य, बुद्धि, चातुर्य आदि विषयों की शिक्षाप्रद कहानियाँ भावनात्मक रंगीन चित्रों के माध्यम द्वारा प्रकाशित करने का सदभाग्य ही हमारी प्रसन्नता है ।
यह Comics हमारे Jain Education Board Look n Learn के अंतर्गत प्रकाशित हो रही है ।
तुम्मुन्दि मुसा
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CSCC
प्रस्तावना
भगवान महावीर की पाट परम्परा में आठवें पट्टधर आर्य स्थूलभद्र एक महायोगी के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे अन्तिम श्रुत केवली और दशपूर्वधर आचार्य थे।
जैन इतिहास के अनुसार कोणिक पुत्र उदायी की मृत्यु के पश्चात् मगध पर नन्द वंश का अधिकार हो गया। मगध की राजधानी पाटलिपुत्र थी। नंदवंशीय राजाओं ने 'कल्पक' नामक विद्वान ब्राह्मण को महामात्य पद पर नियुक्त किया। इसी नंदवंश के नवम राजा धननन्द के समय कल्पकवंशीय नवम पुरुष 'शकडाल' महामात्य पद पर आसीन थे।
शकडाल अत्यन्त विद्वान, राजनीतिज्ञ, शिक्षा विशारद और कुशल अर्थ तंत्री थे। शकडाल के घर में विक्रम संवत् 354 पूर्व में आर्य स्थूलभद्र का जन्म हुआ। इनका एक भाई श्रीयक और सात बहने थीं। आर्य स्थूलभद्र अत्यन्त प्रखर मेधावी, धीर-गंभीर, विनम्र थे। अद्भुत काम विजेता के रूप में उनकी अमर कीर्ति आज भी जीवित है। मौर्य साम्राज्य का महामंत्री चाणक्य उनका बाल सखा और सहपाठी था। मगध की प्रसिद्ध नर्तकी आम्रपाली की वंशजा राजनर्तकी रूपकोशा उनके गुणों पर मुग्ध होकर उनके प्रति समर्पित हो चुकी थी। 12 वर्ष तक वे रूपकोशा के रूप माधुर्य के प्रेमी रहे, परन्तु अचानक आये परिवर्तन ने तीस वर्ष की भरी जवानी में संसार से विरक्त कर दिया और वे आर्य संभूति के शिष्य बन गये। वे 30 वर्ष तक मुनि जीवन में रहे। फिर 45 वर्ष तक कुशलता पूर्वक आचार्य पद का दायित्व वहन किया।
( प्रकाशक एवं प्राप्ति स्थान ) LOOK LEARN
मूल्य : २०/- रु.
Jain Education Board
PARASDHAM Van
Vallabh Baug Lane, Tilak Road, Ghatkopar (E),
Mumbai-400077. Tel:32043232.
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मगध की राजधानी थी पाटलिपुत्र गंगा तट पर बसे इस सुन्दर नगर में विशाल राजमहल, श्रेष्ठियों के ऊँचे-ऊँचे भवन तथा अनेक
भव्य जिन मन्दिर, शिव मन्दिर शोभायमान थे। नन्दवंश के नवम नन्द धननन्द यहाँ के राजा थे। शकडाल उनके महामंत्री थेnar
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एक दिन महामंत्री शकडाल रामसभा के लिए तैयार होकर घर से निकले तो उनके दोनों पुत्र भी जिद्द करने लगे
अच्छा भाई, पिताश्री, हम भी तुम दोनों भी चलो, आपके साथ महाराज यही तो कल्पक वंश के दर्शन करने की परम्परा है।
जण्य
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चलेंगे।
दोनों पुत्र शकडाल के साथ राजसभा में जाने के लिए चल पड़े।
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आर्य स्थूलभद्र शकडाल ने राजसभा में प्रवेश कर महाराज को प्रणाम किया। दोनों बालकों ने भी प्रणाम कियामैं कल्पकवंशीय महामंत्री शकडाल पुत्र प्रियंकर महाराज को प्रणाम करता हूँ।
राजा ने हँसकर कहा
तभी तो इतने स्थूल (मोटे) हो गये हो।
मेरा नाम
श्रीयंकर है, मेरा प्रणाम स्वीकारें।
वाह ! बड़े सुन्दर और संस्कारी हैं दोनों) बालक ।
इसकी स्थूलता भी बड़ी भद्र (अच्छी), लगती है। क्यों, मंत्रीवर !
राजा ने प्रियंकर
2
पास बुलाकर सिर पर हाथ फिराया। उसका सुन्दर स्थूल शरीर देखकर राजा को मजाक सूझा -
M
क्या खाते हो nnunic वत्स !
तभी तो घर पर सब इसको स्थूलभद्र कहते हैं।
माता के हाथ के मोदक |
हम भी तुम्हें स्थूलभद्र कहें?
महाराज की जैसी
इच्छा !
| इसके पश्चात् महाराज ने दोनों बालकों को अनेक प्रकार के उपहार आदि देकर विदा किया।
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आर्य स्थूलभद्र श्रीयंकर के बाद क्रमशः लक्ष्मीदेवी ने सात पुत्रियों को जन्म स्थूलभद्र आठ वर्ष का हुआ। शकडाल ने पत्नी से कहादिया। जिनके नाम थे-यक्षा, यक्षदिन्ना, भूता, भूतदिन्ना, सेणा, वेणा और रेणा।
स्थूलभद्र को शिक्षा के लिए तक्षशिला के गुरुकुल भेजना /हाँ स्वामी, ऐसी तीव्र चाहिए। वहाँ अनेक राजाओं|| बुद्धि वाले बालक को के राजकुमार शिक्षा प्राप्त
गुरु भी बृहस्पति के समान ही मिलना
चाहिए।
कर रहे हैं।
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शुभमुहूर्त में स्थूलभद्र को अध्ययन के लिए तक्षशिला | गुरुकुल में भेजा गया। वहीं पर एक तीक्ष्ण बुद्धि ब्राह्मणकुमार से उसका परिचय हुआ। स्थूलभद्र ने उससे पूछा- मैं गौल्लभ प्रदेश के चणकपुर । मित्र ! तुम कहाँ के चणी विप्र का पुत्र हूँ। मेरी माँ का से आये हो? नाम है चणकेश्वरी। मेरा नाम है
विष्णुगुप्त। किन्तु मुझे सब चाणक्य
नाम से ही जानते हैं।
मेरी माँ कहती है, जन्म
से ही मेरे मुँह में यह दाँत "अच्छा, तुम्हारा
निकल आया था। मेरे मुँह में यह दाँत ऐसा क्यों
दाँत देखकर एक निर्ग्रन्थ श्रमण हो गया? ने बताया कि तुम्हारा पुत्र तो
RANA कोई राजेश्वरी बनेगा।
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तब तो तुम बड़े भाग्यशाली हो।
आर्य स्थूलभद्र परन्तु माँ को यह अच्छा नहीं लगा।
क्यों ?
माँ कहती है, ब्राह्मण को तो। आत्मज्ञानी होना चाहिए। राजेश्वरी नरकेश्वरी होता है। इसलिए उसने मेरा यह दाँत पत्थर से रगड़कर आधा तोड़ दिया।
चलो, ठीक ही किया। हाँ, मुझे भी ऐसा ही स्थूलभद्र और चाणक्य दोनों गहरे मित्र बन अब नरक से तो बचे। फिर हम लगता है। विद्या पढ़ना | गये। दोनों ही तीक्ष्ण बुद्धि और मेधावी थे। ब्राह्मणपुत्रों को राजा बनकर चाहिए, विद्या ही मनुष्य
ज क्या करना है? राजमंत्री को महान बनाती है।
तो बनेंगे ना?
अध्ययन समाप्त करके चाणक्य भी स्थूलभद्र के साथ पाटलिपुत्र आ गया। स्थूलभद्र ने पिता से परिचय कराया
पिताश्री ! यह मेरा मित्र है, विष्णुगुप्त,
आयुष्मान् भव
वत्स!
चाणक्य।
शकडाल ने भी उसे पुत्र की भाँति स्नेह किया। चाणक्य कुछ दिन वहीं रहा। रात के समय शकडाल के पास बैठकर दोनों ही राजनीति, धर्मनीति आदि की शिक्षा लेते रहते।
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आर्य स्थूलभद्र
एक दिन चाँदनी रात में दोनों ही मित्र नगर भ्रमण को निकले। एक सुन्दर उद्यान के बीच भव्य भवन को देखकर स्थूलभद्र ने पूछा
वाह मित्र ! तुम भी एक ही हो। इस नगर के निवासी होकर भी अपने नगर के कला सौन्दर्य से अपरिचित हो ?
मित्र ! यह विशाल भवन किसका है? इसके बाहर अनेक रथ, अश्व क्यों खड़े हैं?
Aga
मित्र, मुझे इनमें कोई रुचि नहीं है।
हाँ, बस तुम्हें तो अपनी वीणा भली और अशोक वाटिका। बड़े एकान्त प्रिय हो तुम
मित्र ! मुझे तो एकान्त में ही आनन्द आता है। मेरे रस का
स्रोत तो मेरे भीतर से ही प्रकट होता है।
तभी उस भवन में से अनेक श्रेष्ठी आपस में बातें करते हुये बाहर निकलते हैं
हाँ भाई, माँ से भी बढ़कर हैं दोनों पुत्रियाँ ।
वाह ! क्या अद्भुत कला है? क्या अद्भुत सौन्दर्य है ?
रूपकोशा जब नृत्य करती है तो ऐसा लगता है आम्रपाली ही जीवंत हो गई हो।
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आर्य स्थूलभद्र स्थूलभद्र आश्चर्य से देखता है-
मुझे क्या लेना-देना है मित्र, ये पौरजन /मित्र, कुएँ के मेंढक हो। इनसे। परन्तु तुम तो किसके विषय में
तुम। कुछ भी मालूम | ऐसे कह रहे हो, जैसे बात कर रहे हैं? नहीं तुम्हें, पाटलिपुत्र में सबकुछ जानते हो?
क्या-क्या आश्चर्य है?
क्यों नहीं, देखो यह राजनर्तकी सुनन्दा का भव्य भवन है। शरद् पूर्णिमा का त्रिदिवसीय उत्सव चल रहा है। उसकी पुत्रियाँ रूपकोशा
और चित्रलेखा मगध की सर्वश्रेष्ठ नर्तकियाँ हैं। उन्हीं के विषय में नगर जन चर्चा
कर रहे हैं।
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स्थूलभद्र (उपेक्षापूर्वक)
भाई राग-द्वेष से तो मन दुःखी ही होता है। वीतरागी ही सुखी
रहता है।
होगा उत्सव ! होगी नर्तकियाँ, हमें क्या मतलब है। कोई नाचे,
कोई उछले।
बड़े वीतरागी बने रहते हो तुम प्रियंकर।
स्थूलभद्र की बात सुनकर चाणक्य हँस जाता है। वह सोचने लगा
इस भरी जवानी में (भी इसे संसार का कोई अनुभव नहीं, कोई रस नहीं। कैसा नीरस है यह। युवा होकर नारी सौन्दर्य के प्रति कोई
आकर्षण नहीं।
मध्य रात तक नगर भ्रमण करके दोनों अपने भवन में आकर सो गये।
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आर्य स्थूलभद्र अगले दिन चाणक्य प्रातः उठा और अपने नित्य कर्म व पूजा-पाठ की। तैयार होकर वह भवन से बाहर निकला तो उसकी भेंट महामंत्री शकडाल से होगईपूज्य पिताश्री
आयुष्मान् भव ! वत्स, प्रणाम।
Aआज अकेले ही कैसे?
पिताश्री, प्रियंकर अभी सोशरद उत्सव का नृत्य
रहा है। रात को नगर | नहीं देखा? कल तो A भ्रमण करके विलम्ब रुपकोशा ने भी बड़ा से आये थे। अद्भुत नृत्य किया।
बताते हैं।
देखता कैसे? मेरे साथ तो यह वैरागी बंधु था। इसे नृत्य, सौन्दर्य में कोई भी रुचि नहीं है।
थकडाल एकदम गंभीर हो गया। चाणक्य का हाथ पकड़कर एकान्त में ले गयाइधर आओ वत्स तुमसे एक विशेष मंत्रणा करनी है
स्थूलभद्र अठारह वर्ष का युवक हो गया है। विद्वान् और धर्मज्ञ भी है। परन्तु संसार के ॥ विषय में आज भी पाँच वर्ष
का बालक है।
पिताश्री, मैं भी कई बार उससे | यही तो चिन्ता का छेड़छाड़ करता हूँ परन्तु पता विषय है। यदि यह नहीं वह किस मिट्टी का बना। इसी प्रकार नारी से है, नारी का नाम लेते ही तो डरता रहा तो संसार उसे घृणा हो जाती है। कैसे चलेगा?
तात ! आप तो पिता भी हैं और गुरु भी, आप ही बताइए क्या किया जाय?
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नारी का भय दूर करने के लिए नारी का सम्पर्क जरूरी है
वत्स
आर्य स्थूलभद्र मैंने सोचा है इसे कुछ दिन चाणक्य हँसारूपकोशा के पास रखा जाए।
तात ! ठीक है-कण्टकेनैव वह नीति, कला, चतुरता ( कंटकम्। काँटे से ही काँटा निकलता सब में पारंगत है।
है। परन्तु कभी-कभी काँटा घाव भी
कर देता है।
कुछ देर एकान्त में चाणक्य के साथ बातचीत करके दोनों भवन में आ गये।
अच्छा, तुम खूब जानते । हो उसे। देखा है उसे?
प्रातःकाल स्थूलभद्र के साथ नाश्ता करते समय चाणक्य ने कहाप्रियंकर ! रात वहाँ जिस नर्तकी
का नृत्य हो रहा था। वह कोई सामान्य नर्तकी नहीं है। मगध क्या पूरे पूर्व भारत में उसकी जोड़ी की दूसरी नर्तकी नहीं है। रूपकोशा
नाम है उसका।
सूचिका नृत्य तो केवल आम्रपाली ही करती थी।
विद्वान् चर्मचक्षु से नहीं,
ज्ञान चक्षु से देखते हैं। रूपकोशा १८ प्रकार के नृत्य और ७ प्रकार के संगीत जानती है। अनेक देशों की भाषा और कला भी। वह आजकल सूचिका
नृत्य सीख रही है।
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आर्य स्थूलभद्र
यह उसी की वंशजा तो है। बड़ा अद्भुत नृत्य करती है। आन वह सूचिका नृत्य का प्रथम प्रदर्शन करेगी।
ठीक है, हर कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करता ही है।
क्या तुम भी अपनी वीणा वादन कला का प्रदर्शन नहीं करोगे?
| मित्र, कला प्रदर्शन की वस्तु नहीं केवल आनन्द
की वस्तु है।
मित्र, आज हम -सूचिका नृत्य देखने अवश्य
चलेंगे। तैयार रहना।
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NATANAMANAND
रात्रि में स्थूलभद्र को साथ लिए चाणक्य कला भवन में प्रवेश करता है। दोनों ही आगे लगे विशिष्ट आसनों पर आकर बैठ गये। थोड़ी देर बाद कलाचार्य कुमार देव खड़े होकर कहते हैं
महानुभावो ! अब रूपकोशा अपना सूचिका नृत्य प्रस्तुत करेंगी। यह सूचिका नृत्य बड़ा ही अद्भुत और अत्यन्त कठिन साधना है। भारतवर्ष की महान् नर्तकी आम्रपाली के सिवाय आज तक किसी ने इस नृत्य की साधना नहीं की। नृत्य के समय यदि
थोड़ी-सी भी चूक हो जाये तो, पाँव से रक्त के फव्वारे छूट जायेंगे। एकाग्रता और शरीर सन्तुलन की श्रेष्ठतम साधना है यह। आप सब शान्त रहें।
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आर्य स्थूलभद्र इसके बाद मंच पर रूपकोशा आती है। सभी को प्रणाम स्थूलभद्र भी साँस रोके यह अद्भुत नृत्य देखने करके नृत्य प्रारम्भ करती है। BIZAZVाम लगा। बरबस उसके मुँह से भी निकलता है
अद्भुत! विलक्षण
तीर निशाने पर
लगा।
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मीरात को
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दो घड़ी तक अद्भुत सूचिका नृत्य करके रूपकोशा ने सबको | स्थूलभद्र भी एक गुलदस्ता लेकर रूपकोशा को | प्रणाम किया। महारान धननन्द ने अपना मूल्यवान हीरों का भेट देता है
ऐसा तेजस्वी, हार रूपकोशा के गले में डालते हुए घोषणा की
बड़ी अद्भुत कला है (दिव्य रूपवान कौन है आज से रूपकोशा को
आपकी।
यह युवक? मगध की राजनर्तकी का सम्मान दिया /
जाता है।
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रूपकोशा स्थंभित-सी उसको निहारने लगी और अपनी सुधबुध भूल गई।
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तभी चाणक्य उठकर आया
महामंत्री शकाल का ज्येष्ठ पुत्र स्थूलभद्र है यह । नृत्यकला में जैसे आप अद्भुत हैं, वीणा वादन में यह भी बेजोड़ है।
अच्छा! श्रेष्ठ वीणा वादक होकर तुम आज तक हमारे कानों को तृप्त नहीं किया?
आर्य स्थूलभद्र
स्थूलभद्र ने वीणा लेकर स्वर छेड़े। लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनने लगे।
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वाह ! अद्भुत ! साक्षात् गंधर्व कुमार है यह!
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आप महाभाग के दर्शन पुनः कुब होंगे।
सभी को प्रणाम करके स्थूलभद्र अपने आसन पर आता है। तभी रूपकोशा नजदीक आकर मुस्कराती हुई गुलदस्ता भेंट करके कहती है
आज इस
यह
उत्सव भी हों जाय ।
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हाँ, हाँ, कृपया अपनी मधुर वीणा की झंकार से सबको आनन्दित कीजिए।
स्थूलभद्र कुछ नहीं बोला अपलक उसे देखता रहा । चाणक्य ने कहा(शीघ्र ही आपकी मनोकामना पूर्ण होगी।
| और स्थूलभद्र को लेकर वापस आ गया।
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आर्य स्थूलभद्र
घर आकर चाणक्य ने एकान्त में महामंत्री धीरे-धीरे स्थूलभद्र और रूपकोशा एक-दूसरे की ओर
से कहा
आकर्षित होते गये। एक समय ऐसा आ गया कि स्थूलभद्र रात-दिन रूपकोशा के भवन में ही रहने लगा।
तात ! आपका मनोरथ सफल हो रहा है।
विष्णु हु चतुर और योजना
कुशल हो।
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वररुचि
पाटलिपुत्र में आशु कवि था वररुचि। उच्चकोटि का विद्वान् तो था परन्तु अभिमानी और धूर्त भी था। वह प्रतिदिन संस्कृत के १०८ नये श्लोक बनाकर राजा धननन्द की स्तुति करता था। आज भी उसने नव रचित श्लोकों से राजा का मनोरंजन किया। प्रसन्न होकर राजा ने कहा
MA
सुन्दर ! बहुत सुन्दर !
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रूपकोशा भी स्थूलभद्र के प्रति पूर्णरूप से समर्पित हो गई। फिर राजा ने शकडाल की तरफ देखा। शक रहा तो राजा ने सोचा
महामंत्री शकडाल इस
काव्य की प्रशंसा नहीं
कर रहे हैं। अवश्य ही यह काव्य पारितोषिक देने योग्य नहीं है।
राजा ने भी आँखें फेर लीं।
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वररुचि खाली हाथ निराश लौट आया। उसने अपने
मित्र
कहा- इतने दिन हो गये
मुझे नये-नये श्लोक
सुनाते, आज तक राजा स्वर्णमुद्रा भी नहीं दी।
क्यों क्या कारण है?
आर्य स्थूलभद्र
दूसरे दिन लक्ष्मी ने प्रसंग छेड़ा और कहा
स्वामी, एक विद्वान् की प्रशंसा करने में आपका, क्या जाता है ?
अगले दिन दोपहर के समय वररुचि सीधा शकडाल के घर पहुँचा और लक्ष्मी को अपने मन की पीड़ा बताते हुए बोलाबहन ! यदि महामंत्री राजा के समक्ष मेरे काव्य की प्रशंसा कर दें तो मेरी दरिद्रता दूर हो जायेगी।
राजकाज का संचालन शकडाल के हाथ है। जब तक वह प्रशंसा नहीं करता, राजा चाहकर भी। एक फूटी कौड़ी नहीं दे सकते।
विप्रवर, मैं एक विद्वान् ब्राह्मण की
सहायता करने का प्रयत्न करूँगी।
यदि मेरे शब्दों से उसका भला होता है तो यही ठीक।
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सुनो मित्र, मैं तुम्हें उपाय बताता हूँ। तुम कडा की पत्नी - लक्ष्मी को प्रसन्न करो। वह विदुषी भी है, और उदार भी।
दूसरे दिन वररुचि ने राजसभा में काव्य सुनाये। राजा ने महामंत्री की तरफ देखा। महामंत्री मुस्कराये
अहो सुभाषितम् ।
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आर्य स्थूलभद्र
राजा नन्द भी इसी की प्रतीक्षा करता था। उसने कोषाध्यक्ष एक दिन शकडाल ने सोचाको आदेश दिया
'कविवर को एक सौ आठ स्वर्णमुद्रा देकर पुरस्कृत करो।
धन्य हो
राजन् !
अब तो प्रतिदिन वररुचि नये-नये श्लोक सुनाकर पुरस्कार में १०८ स्वर्णमुद्राएँ पाने लगा।
अगले दिन उसने राजा से पूछा
महाराज ! वररुचि को यह पुरस्कार किसलिए दिया जा रहा है?
महाराज ! मैंने काव्य की प्रशंसा की थी, वररुचि की विद्वत्ता की नहीं।
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QO O O O O O
हम समझे नहीं ।
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मंत्रिवर ! आपने ही तो प्रशंसा की थी। आपके संकेत के बिना, हम थोड़े ही देते।
महाराज ! वररुचि जो काव्य सुनाता है वह प्राचीन कवि रचित हैं, उसका स्वरचित नहीं ।
यह तो व्यर्थ ही राजकोष का अपव्यय है। इसे रोकना चाहिए।
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इसका प्रमाण है आपके पास ?
कडालने सहमति से सिर हिलाया।
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दूसरे दिन वररुचि ने बड़ी भावपूर्ण मुद्रा में काव्य सुनाया। काव्य समाप्त होने पर शकडाल ने पूछाकविवर ! यह काव्य रचना किसकी है?
(मेरी स्वयं की और किसकी ?
आर्य स्थूलभद्र
600
Nawa
नहीं ! कल ही मेरी पुत्रियों से मैंने ये श्लोक सुने हैं।
असत्य बिलकुल असत्य ! मैंने अभी तत्काल ही ये
श्लोक रचे हैं।
विररुचि पर लगाये गये आरोप से सारी सभा स्तब्ध रह गई। वररुचि भी बौखला गया। तब शकडाल ने कनात में पीछे बैठी अपनी पुत्री यक्षा को पुकारा
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बेटी यक्षा ! तुम्हें ये श्लोक याद हैं?
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यक्षा सामने आई। महाराज को प्रणाम कर उसे वररुचि द्वारा बोले गये सभी श्लोक सुना दिये। फिर उसने एक-एक करके सभी पुत्रियों को बुलाया और सभी ने बारी-बारी से श्लोक सुना दिये। #
पक्
महाराज ! सभी लड़कियों को यह श्लोक आते हैं।
# महामंत्री शकडाल की सातों पुत्रियाँ क्रमशः एकपाठी, द्विपाठी बुद्धि वाली थीं। अर्थात् यक्षा एक बार सुनकर, यक्षदत्ता दो बार सुनकर, भूता तीन बार सुनकर यों सातवीं रेणा सात बार सुनकर कोई भी पाठ याद कर लेती थी। इसलिए यक्षा ने पहली बार सुनते ही उन श्लोकों को दुहरा दिया।
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आर्य स्थूलभद्र वररुचि शर्मिंदा होकर जमीन की तरफ देखने लगा। राजा ने उसे फटकारा
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(विद्वान् होकर भी काव्य चोरी करते शर्म नहीं आई।
दाँत कटकटाता, पैर पीटता वररुचि अपमानित हो राजसभा से निकल गया। वह सीधा अपने मित्र के घर गया और आज की घटना सुनाते हुए कहा
शकडाल
महाधूर्त है।
उसने मेरे साथ धोखा किया है।
मैं बदला लूँगा।
फिर अपनी शिखा पर गाँठ बाँधते हुए कहा
इस शिखा की कसम ! एक दिन शकडाल के कुल का नामोनिशान मिटाकर रहूँगा।
अपमानित होकर वररुचि पाटलिपुत्र छोड़कर चला गया। अनेक प्रदेशों में भ्रमण करता हुआ तीन मास बाद आया और उसने कुछ सहयोगियों को साथ लेकर एक योजना बनाई। प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठकर वह गंगातट पर जाकर १०८ श्लोक बोलकर गंगा जी की स्तुति करता। फिर गंगा में से एक नारी हाथ बाहर आता और एक लाल थैली वररुचि के हाथों में फेंक देता। वररुचि लाल थैली को गंगा मैया का कृपा प्रसाद बोलकर ग्रहण करता। उसे खोलता तो उसमें से १०८ स्वर्णमुद्राएँ निकलतीं। लोगों ने यह देखा तो आश्चर्य करने लगे। धीरे-धीरे पाटलिपुत्र में यह खबर फैल गई कि वररुचि को राजा ने स्वर्णमुद्राएँ देना बन्द कर दिया तो क्या हुआ। अब तो उस पर गंगा मैया प्रसन्न हो गई हैं। जो नित्य उसे १०८ स्वर्णमुद्राएँ देने लगी हैं।
राजा धननन्द ने भी यह खबर सुनी। महामंत्री शकडाल से पूछा- 'मंत्रिवर, क्या ऐसा हो सकता है? यह सत्य
है?'
16
शकडाल ने दो दिन का समय माँगा। फिर अपने विश्वस्त गुप्तचरों को भेजकर पता लगाया। रात होने पर कुछ गुप्तचर गंगा के किनारे झाड़ियों में छुपकर बैठ गये। मध्य रात्रि के समय एक पुरुष आकृति गंगातट पर आई। वह पानी के बीच गई। थोड़ी देर बाद वापस नदी किनारे पर आकर गंगातट पर बनी वररुचि की कुटिया की तरफ चली गई।
एक गुप्तचर धीरे-धीरे पानी के बीच वहीं पहुँचा। उसने हाथों से इधर-उधर टटोला। एक लकड़ी का यंत्र मिला। उसी पर वह नारी का हाथ लाल चूड़ियाँ पहने बना हुआ था। उसी यंत्र के लकड़ी के डंडों के सहारे वह उस स्थान पर पहुँच गया जहाँ वररुचि खड़ा होकर गंगा स्तुति करता था। वहीं खड़ा होकर उसने पानी में टटोला तो पैरों के बीच एक लकड़ी का यंत्र लगा। उसने यंत्र को ज्योंही पैरों से दबाया तो वह नारी हाथ पानी में से निकला और लाल थैली उछली। थैली सीधी उसके फैले हुए हाथों में आकर गिरी। गुप्तचर को सारा भेद मालूम हो गया। उसने थैली लाकर महामंत्री को दे दी और पूरी जानकारी भी ।
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आर्य स्थूलभद्र
महामंत्री ने राजा नन्द से जाकर निवेदन किया-'महाराज ! आप वररुचि द्वारा गंगा स्तुति का दृश्य देखना चाहते हैं तो पधारिए।'
प्रातः सूर्योदय से पहले ही राजा अनेक लोगों को साथ लिए गंगातट पर पहुंच गया। हजारों लोगों की भीड़ एकत्र हो गई। सभी गंगा मैया द्वारा वररुचि को स्वर्णमुद्राएँ देने का अद्भुत दृश्य देखने को उत्सुक थे।
वररुचि गंगातट पर कमर तक पानी में खड़ा होकर हाथ में पुष्प-फल लिए गंगा की स्तुति बोल रहा है-'हर हर गंगे ! जय जय गंगे।'
गंगा स्तुति पूर्ण करके वररुचि ने खड़े-खड़े ही अपने दाहिने पाँव से नीचे का यंत्र दबाया। गंगा की धारा के बीच एक नारी हाथ ऊपर उठा, परन्तु हाथ खाली था।
वररुचि सन्न रह गया-'यह क्या हुआ? स्वर्णमुद्रा से भरी लाल थैली नहीं आई?' उसने पुनः उच्च स्वर से पुकारा-'गंगा मैया प्रसन्न हो। वर दे ! वर दे ! हर हर गंगे !'
दुबारा खाली हाथ ऊपर आया। बार-बार पुकारने पर भी लाल थैली नहीं आई। महामंत्री शकडाल निकट आता है-'ब्राह्मण पुत्र ! आपकी थैली यह रही। गंगा मैया ने नहीं दी तो कोई बात नहीं। हम आपको दे रहे हैं, लीजिए।'
वररुचि लज्जित होकर नीचे देखता है। शकडाल ने सारा भेद खोलते हुए बताया-'महाराज ! यह थैली गंगा मैया की नहीं, इन्हीं वररुचि की है। रात में वहाँ रख देता है और प्रातः सबके सामने यह नाटक रचता है।'
राजा नन्द ने वररुचि को धिक्कारा-'ब्राहमण होकर इतना कपट रचने की क्या जरूरत थी। सबकी आँखों में धूल क्यों झोंकी तुमने?'
वररुचि नीचा मुँह किए भीड़ में से कहीं चला गया। जनता उसे धिक्कारती रही-'बड़ा धूर्त, कपटी है यह ! कैसा पाखंडी है।' वररुचि शर्मिंदा होकर नगर से भाग गया।
छह महीनों तक गायब रहकर वररुचि पुनः एक दिन पाटलिपुत्र में आया और बालकों को पढ़ाकर आजीविका करने लगा।
और छोटा?
धीरे-धीरे उसने महामंत्री के घर में काम करने वाली दासी से परिचय किया- बड़ा पुत्र स्थूलभद्र
केतकी, आजकल तो रूपकोशा के क्या चल रहा है मंत्री के मोहजाल में फँसा घर में?
है। घर भी नहीं
आता।
उसके विवाह की गुप्त तैयारी चल रही है। राजछत्र दण्ड, सिंहासन
आदि बन रहे हैं।
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यह क्यों? राजचिलों का वह
क्या करेगा? मुझे नहीं मालूम। बस, रात-दिन तहखानों में 5 कारीगर काम करते
रहते हैं।
आर्य स्थूलभद्र
रातभर वररुचि अपनी कुटिया में बैठा एक षड्यंत्र का ताना-बाना बुनता रहा। यकायक उछल पड़ा
बस, अचूक शस्त्र हाथ आ गया। अब शकडाल का पत्ता साफ तय कर दूंगा।
दूसरे दिन उसने बालकों को एकत्र कर खूब लड्डू बाँटे और कहा
सब बच्चे यह श्लोक याद कर लो, गली कूचे हर जगह बोलते जाओ।
उसने लड्डू देकर सभी बच्चों को श्लोक अच्छी तरह पाठ करा दिया।
अगले दिन बच्चे वह श्लोक गाने लगे। नन्द ने गलियों में देखा। बच्चे गा रहे थे
नन्दराय जाणे नहीं ने शकडाल करेसि। नन्दराय ने मारने श्रीयक राज ठवेसि॥
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PANINoor
नदोहा सुनकर गुप्तचर चौकन्ने हो गये। # यह शकडाल जो करना चाहता है, उसे राजा नन्द नहीं जान पाता। नन्द को मारकर शकडाल अपने पुत्र श्रीयक को राज-सिंहासन पर बैठाएगा। 18
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गुप्तचर, नन्द के पास गये और सब बात बताईं
गुप्तचर ने आकर देखा
आर्य स्थूलभद्र
महाराज ! आज तो नगर की गली-गली में यही एक नई खबर है।
अच्छा जाओ,
पता करो शकडाल के घर पर क्या तैयारी हो रही है?
कहीं छत्र बन रहा है, कहीं राज-सिंहासन, कहीं दण्ड और कहीं तलवारें, भाले।
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गुप्तचर ने सूचना दी तो राजा के कान खड़े हो गये
नन्द का मन शंकाओं के जहर से भर गया। प्रातः राजसभा में ज्यों ही शकडाल ने आकर प्रणाम किया। नन्द की आँखों से खून बरसने लगा। उसने मुँह फेर लिया। बार-बार तलवार की मूठ पर उसका हाथ जा रहा था। शकडाल भी नगर में फैली अफवाहें सुन चुका था। नन्द के तेवर देखते ही समझ गया
अफवाहों ने राजा
के मन को बदल
दिया है।
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अवश्य कोई षड्यंत्र है। राज-विद्रोह की योजना है।
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आर्य स्थूलभद्र शकडाल काँप उठा। उसके ललाट वह उठकर सीधा अपने भवन की वाटिका में आकर बैठ गया। संध्या के समय पर पसीना टपक पड़ा। श्रीयक* आया। शकडाल को अशोक वृक्ष के नीचे चिंतामग्न देखा तो पूछाअग्नि और जल की
पिताश्री ! क्या तरह सन्देह में अँधा हुआ
बात है? आप इतने tttttri राजा, मेरे कुल का सर्वनाश
A उदास ! चिंता में कर सकता है।
डूबे हुए?
UU.
कुछ देर मौन रहने के बाद अफवाहों के बारे में चर्चा करते हुए शकडाल ने कहावररुचि ने हमारे विरुद्ध
पिताश्री ! मैं इसका पता बड़ा भारी षड्यंत्र रचा है।
लगानूंगा। आप चिन्ता न करें। महाराज भी मेरी स्वामिभक्ति
पर शंका कर बैठे हैं।
नहीं वत्स ! पानी || फिर श्रीयक के सिर पर हाथ रखकर कहासिर पर से निकल चुका
पुत्र राजा की कोपाग्नि इस है। किसी भी समय
कल्पक वंश वृक्ष को जलाये, संदेह से क्रुद्ध राजा
इससे पहले ही एक बलिदान हमारे कुल का विनाश
करना होगा। करवा सकता है।
GAVAT
CTELOPOS
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श्रीयक महाराण धननन्द का विश्वस्त मुख्य अंगरक्षक था।
20
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पिताश्री ! आज्ञा दीजिए, मैं अपने प्राणों को न्यौछावर कर सकता हूँ।
आर्य स्थूलभद्र वत्स ! तेरे नहीं, मेरे । शकडाल ने उसका हाथ पकड़कर सारी योजना प्राणों के बलिदान से ही समझाईयह अग्नि शान्त होगी। _वत्स ! मेरे एक के वचन दे ! तू मेरी आज्ञा | बलिदान से ही कुल की रक्षा हो का पालन करेगा। सकती है और राजा के मन का
नहीं ! नहीं ! सन्देह मिट सकता है। दूसरा / मैं ऐसा महापाप कोई उपाय नहीं है।
नहीं कर सकता।
वत्स ! यह समय भावुकता का नहीं, समझदारी का है। वचन दे, मैं जैसा कहता हूँ
वैसा ही तुझे करना
शकडाल ने रात भर जागकर अपने काम निपटाये। प्रातः उठकर सामायिक-प्रतिक्रमण किया। फिर अरिहंत भगवान को साक्षी मानकरसंथाराग्रहण कर लिया
हे प्रभो ! मेरे किसीघोर पाप का उदय हुआ है। इसका प्रायश्चित्त मेरे प्राण बलिदान से ही हो सकता है। मैंने जीवन में जो भी जाने-अनजाने पाप किया हो आपकी साक्षी से उसका मिच्छामि दुक्कड़ लेता हूँ। प्रभो ! एक आगार के सिवाय जीवन भर के लिए
मैं चारों आहारका प्रत्याख्यान करता है।
पड़ेगा।
श्रीयक ने रोते-रोते अपना हाथ पिता के हाथ पर रखा। सारी योजना पर विचार कर दोनों घर में आ गये।
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आर्य स्थूलभद्र और वह सीधा राजसभा के लिए चल पड़ा। और 'खटाक' पिता की गर्दन उड़ा दी। खून के राजसभा में प्रवेश करते शकडाल ने महाराज फव्वारे छुट गये। सभा में हा-हाकार मच गया। धननन्द को प्रणाम करने के लिए सिर झुकाया।
राजा नन्द ने उत्तेजित होकर कहापीछे खड़े श्रीयक ने तलवार का प्रहार किया
श्रीयक ! यह क्या (हे प्रभु ! |
किया तुमने ! अपने मुझे माफ
निर्दोष पिता की
हत्या .....।
कर देना।
DAR
श्रीयक ने खून से सनी तलवार राजा के सामने रख दी और बोला
क्या वास्तव महाराज ! आपकी दृष्टि
में शकडाल में जो राजद्रोही है, वह चाहे
राजद्रोही पिंता हो, मैं उसे जीवित
नहीं छोड़ता।
V नहीं, मेरे पिता महान् स्वामिभक्त | थे, परन्तु आपने उनकी स्वामिभक्त पर सन्देह किया है, आपने उन्हें राजद्रोही मान लिया, इसीलिए मैंने उनको....।
थे?
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श्रीयक फूट-फूटकर रोने लगा।
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नन्द ने श्रीयक को शान्त किया और पूछा
आर्य स्थूलभद्र श्रीयक ने समूची घटना सुनाई
मेरे विवाह उत्सव पर आपको छत्र आदि भेंट करने के लिए यह सब तैयारी
चल रही थी।
सत्य क्या है तुम बता सकते हो?
घटना की सच्चाई जानकर धननन्द की आँखों में आँसू टपक गये। वे शकडाल के शव के पास खड़े होकर क्षमा माँगने लगेओह ! मैंने वहम में ही एक परम
स्वामिभक्त खो दिया। महामंत्री!
तुमने यह क्या करवा दिया, ऐसा
स्वामिभक्त मंत्री....।
राजा नन्द ने श्रीयक को अपनी छाती से लगाया
वत्स ! होनहार के हाथों अनर्थ हो गया, अब पूरे राज सम्मान के साथ महामंत्री का
अंतिम संस्कार करो।
पास खड़ा श्रीयक अब फूट-फूटकर रो रहा था।
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आर्य स्थूलभद्र
चम्पा नाम की दूती ने रूपकोशा को सूचित किया
देवी ! अनर्थ हो
गया....।
महामंत्री शकडाल
की हत्या ....।
क्या हो गया?
दूती सुबक पड़ी। रूपकोशा की आँखों से भी आँसू टपक पड़े। रोते-रोते रूपकोशा ने पूरी घटना सुनाई तो स्थूलभद्र नंगे उसने स्थूलभद्र को खबर दी--
पाँवों चादर लपेटे ही रूपकोशा के भवन से निकल क्या ! कैसे हुआ यह पड़े। कोशा पीछे भागीअचानक? क्या अस्वस्थ
स्वामी ! थे? मुझे खबर तक देव ! पिताश्री नहीं
सुनो, मैं भी आ नहीं पड़ी। रहे....।
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TOTTORNO
A रही हूँ।
नहीं कोशा ! तुम मत आना।
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स्थूलभद्र तेजी से अपने भवन की ओर चल पड़ा।
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आर्य स्थूलभद्र
दोनों भाइयों ने पिता की चिता को मखाग्नि दी।
स्थूलभद्र सीधा अशोक वाटिका में आ गया। शोक में डूबा अकेला ही बैठा था तभी श्रीयक ने आकर झकझोरा
भैया, जब आप ही शिका
इस प्रकार शोक में डूबे रहेंगे तो हम सब का क्या होगा?
ITIITTI
कुछ देर तक स्थूलभद्र चुपचाप श्रीयक को देखता रहा।. फिर बोलाश्रीयक ! जीवन के उतार-चढ़ाव कितने विचित्र हैं? क्या सोचा था, ITI क्या हो गया।
श्रीयक की आँखें आँसुओं से भर गईं। कुछ देर दोनों भाई गुमसुम बैठे रहे।
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ITITMILINOTE
आर्य स्थूलभद्र तभी यक्षा वहाँ आई-तात ! सात दिन बीत स्थूलभद्र कुछ भी नहीं बोले। यक्षा की आँखों में झाँकने लगे। दोनों की चुके हैं। आप निराहार
आँखें डबडबा आईं। कुछ देर मौन रहने के पश्चात् यक्षा ने कहाअकेले बैठे हैं, अब शोक | तात ! पिताश्री के निवृत्ति करो। सामने ही हम सातों
बहनों ने संयम दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की थी। अब आप अनुमति दीजिए।
OD
स्थलभद्र ने श्रीयक की तरफ संकेत कियाaunty श्रीयक ! सुनो
श्रीयक ! सुनो, यक्षा क्या
कह रही है?
PVTO
तात ! पिताश्री ने ही अपने अन्तिम समय में मुझे कहा
था इनका दीक्षा | महोत्सव धूमधाम
से करना।
स्थूलभद्र गहरे विचारों में डूब गये
मेरे से छोटी बहनें संसार से | विरक्त होकर संयम के कठोर मार्ग पर चलना चाहती हैं और मैं विषय वासना
यILM के दलदल में कंठ तक डूबा हुआ हूँ।
धिक्कार है मुझे।
Do696020PPORA
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आर्य स्थूलभद्र स्थूलभद्र के अन्दर एक बिजली-सी दौड़ गई। वह एक झटके | से उठे। उनके सुस्त मुख पर तेज दमक उठा। बोले
बहन ! तुमने जगा दिया मुझे। डूबते को
बचा लिया।
भैया ! क्या हुआ? क्या कह
रहे हो?
कुछ नहीं। भटके हुए राहगीर को अपना मार्ग मिल गया। अब मैं
नहीं भटकूँगा।
NALLLLE
तभी छोटी बहन सेणा ने आकर कहा
|श्रीयक ने उठकर दण्डनायक का स्वागत किया। दण्डनायक ने कहा
महाराज नन्द ने कहलवाया है, महामंत्री के निधन से उनका मन भी बहुत
आप महाराज से उदास हो रहा है। उनके ।
निवेदन करें १२ दिन अभाव की पूर्ति करना अब Kalam तुम्हारे हाथ है।
बाद ही कोई निर्णय हो
सकेगा। छवाह
भैया ! दण्डनायक
आये हैं। कम्छा
25 उन्हें यहीं भेज दो।
कुछ देर बातचीत करके दण्डनायक चले गये।
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आर्य स्थूलभद्र शोक निवृत्ति के बाद स्थलभद्र-श्रीयक ने मिलकर सातों बहनों का दीक्षा महोत्सव किया। आर्य संभूति की शिष्या साथ्वीसुव्रता केपाससातों बहनों ने दीक्षा ले ली।
करेमि भन्ते सामाइय... BAD आज से तुम्हारी जीवन
PARAशैली बदल गई है।
REP
कुछ दिन बाद राजा नन्द का दूत पुनः स्थूलभद्र के पास समाचार लेकर आया। स्थूलभद्र एक सफेद चादर लपेटे ही राजसभा में पहुँच गये। महाराज को प्रणाम किया। राजा ने कहा
वत्स ! अपने महाराज! पिताश्री का यह पद मुझे सोचने का तुम संभालो।
समय दीजिए।
DIY वत्स ! सोचना क्या है?
तुम इस पद के सर्वथा योग्य हो। GUDA इसलिए हम तुम्हें ही महामंत्री
बनाना चाहते हैं।
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आर्य स्थूलभद्र स्थूलभद्र के सामने पिता की मृत्यु की घटना सजीव हो उठी
उसका शरीर काँप उठा।
वह सोचने लगा
फिर सोचता हैजिस पद ने मेरे निर्दोष
यह पद कितना ही गौरवास्पद । पिता की जान ली। क्या मैं उसी । हो। आखिर तो राजा का सेवक ही पद को स्वीकार कर लूँ।
होता है मंत्री। सेवक कभी अपनी
इच्छा से नहीं जी सकता।
नहीं, नहीं, मैं यह पद नहीं स्वीकार कर
सकता।
JOY
क
काफी देर विचारों में खोये रहने के पश्चात् उसने निर्णायक स्वर में राजा से कहा
हाँ, हम भी तो यही चाहते हैं।
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COM
महाराज ! क्षमा करें। मैंने बहुत सोच विचार किया है, मैं अपने पुत्र-धर्म का पालन करूंगा।
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राजपुरोहित की ओर मुड़कर बोले
आर्य स्थूलभद्र
स्थूलभद्र ने हाथ जोड़कर कहा-" महाराज!
UUUUU पहले मेरी
बात को समझ लें।
COOR
पुरोहित जी! मंत्री पद प्रदान का शुभ मुहूर्त
देखिए।
तुम क्या कहना
चाहते हो?
| मेरे पिताश्री की इच्छा थी, "पुत्र तुम मेरे से भी महान् बनना।" इसलिए मैं अपने पिता से भी महान् बनना चाहता हूँ।
हमें विश्वास | | महाराज | राजनीति में मैं है तुम्हारे जैसा उनसे बढ़कर कतई नहीं हो योग्य पुत्र पिता सकता। मेरी महानता का
मार्ग है-संसार त्यागकर होगा। संयम ग्रहण करना।
क्या
?
यह सुनकर राजा धननन्द स्तम्भित हो गये।
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आर्य स्थूलभद्र सारी सभा चकित होकर स्थूलभद्र की ओर देखने लगी
क्या कह रहे हो? संयम ! संसार
त्याग!
YAVAVAVAVAVAVN
M
हाँ महाराज ! मैंने निर्णय कर लिया है। संसार की वास्तविकता ।
समझ ली है। अब मैं अपना स्वामी स्वयं बनूंगा। मैं संसार
त्यागकर दीक्षा लूँगा। कुछ सभासद आपस में कानाफूसी करते हैं
देख लेना यह संयम के बहाने वापस कोशा के पास ही जायेगा। ऐसा रसिया, कामी पुरुष साधु
बनेगा? असंभव !
राजा नन्द को भी विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने कहा
वत्स ! शोक में ऐसी 'भावुकता स्वाभाविक है। तुम गंभीरता से सोचो। तुम्हें साधु/
नहीं, मंत्री बनना है।
महाराज ! मेरा निर्णय अटल है। मैं आर्य संभूति विजय का शिष्य बनूँगा।
भैया ! यह क्या कह रहे हो? ऐसा मत करो। हमें छोड़कर
मत जाओ।
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आर्यस्थूलभद्र स्थूलभद्र सबको प्रणाम कर अकेला ही वन की ओर चल पड़ा। लोग फुसफुसाते रहे
देखना, कहीं लौटकर, घूम-फिरकर कोशा के आवास की तरफ ही मुड़ेगा।
| उपवन में विराजमान आर्य संभूति के पास पहुँचकर स्थूलभद्र ने प्रार्थना कीगुरुदेव! मैं संसारसे
भद्र! दृढसकल्प विरक्त हो गया हूँ। मुझे
केसाथ आओ। अपना शिष्य बनाइए।
स्वागत है.....
स्थूलभद्र आर्य संभूति के शिष्य बनकर अपनी साधना में जुट गया।
समाप्त
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भगवान पार्श्वनाथ के प्रगट प्रभावक, असीम आस्थारूप, श्री उवसग्गहरं स्तोत्र की पावन अनुभूति करानेवाला, पोजीटीव एनर्जी के पावरहाउस समान, दिव्य और नव्य
पावनता का प्रतीक - पारसधाम
(OB
* महानगरी मुंबई के हृदय समान घाटकोपर में पूज्य गुरुदेव
श्री नम्रमुनि म.सा. प्रेरित ज्ञान, ध्यान और साधना का एक अनोखा आधुनिक तकनीकी द्वारा तैयार किया गया धाम.. पारसधाम..! पारसधाम... एक ऐसा धाम, जहाँ परमात्मा पार्श्वनाथ के दिव्य परमाणु और पूज्य गुरुदेव की अखंड साधना शक्ति के अध्यात्मिक Vibrations प्रतिपल प्रेरणा के साथ परम आनंद और परम शांति
की अनुभूति कराता है। की यहाँ मानवता की सपाटी से अध्यात्म के मोती तक की गहराई
मिलती है। • यहाँ है महाप्रभावक श्री उवसग्गहरं स्तोत्र की प्रभावक
सिद्धीपीठिका जोमनवांछित फल देती है..! के यहाँ है ऐसी कक्षाएं जहाँ Look n Learn के बच्चे अध्यात्म
ज्ञान प्राप्त करते हैं। ॐ यहाँ है अध्यात्म ध्यान साधना की शक्ति का प्रतीकरूप पीरामीड
साधना केन्द्र। यहाँ है शांतिपूर्ण विशाल प्रवचन कक्ष जहाँ संतो के एक एक शब्द अंतर को स्पर्श करते हैं। यहाँ है स्पीरीच्युअल शोप जहाँ उपलब्ध है अध्यात्म ज्ञान, साधना
और प्रवचन आदि की पुस्तकें और C.D.,V.C.D. * यहाँ है एक अति आकर्षक आर्ट गैलेरी जहाँ आगम के रंगीन चित्रों की प्रदर्शनी आपके दर्शन को शुद्ध कर देगी।
महाप्रभावक श्री उवसग्गहरं पार्श्वनाथ परमात्मा की स्तुति के अखंड आराधक पज्य गरुदेव श्री नम्रमनि म.सा. की साधना के तरंगो से समृद्ध पारसधाम अध्यात्म की आत्मिक अनुभूति करानेवाला आधुनिक धाम है जो जैन समाज की उन्नति और प्रगति के लिए एक अनोखी मिसाल है।
यहाँ के नीति और नियम भी अपने आपमें विशेष महत्त्व रखते हैं ।
यहाँ आनेवाली व्यक्ति को गुरुदर्शन और गुरुवाणी के लिए प्रथम 10 मिनिट ध्यान कक्ष में ध्यान साधना करके अपने मन और विचारों को शांत करना जरूरी है। तभी गुरुवाणी अंतरमे उतरेगी...!
मौन, शांति और अनुशासन यहाँकेमुख्य नियम हैं । यहाँ आनेवाले भक्तोंका अनुशासन ही उनकी अलग पहचान है। पारस के धाम में पारस बनने के लिए आईए पारसधाम..!
ASDHAM
PARASD HAM Vallabh Baug Lane, Tilak Road, Ghatkopar (E), Mumbai - 400 077. Tel : 32043232.
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________________ LOOK लिलियान पूज्य गुरुदेव श्री नममुनि म.सा. की प्रेरणा से प्रकाशित JAIN EDUCATION BOARD आगम आधारित हिन्दी Comics LEARN LEARN प्रत्येक Comics अपनी एक मौलिक विशेषता के साथ प्रकाशित की जाती है। बच्चों के प्यारे गुरुदेव श्री नम्रमुनि म.सा.ने देखा कि जम्बकगार आज के बच्चों को Comics पढ़ने में ज्यादा रूचि है | Comics अभयकुमार हाथ में आते ही खाना पीना भी भूल जाते हैं और एक ही बार में, पूरी पुस्तक पढ़ लेते हैं। यह देखकर बाल मनोविज्ञान के अभ्यासी पू. गुरुदेव ने सोचा अगर भगवान महावीर के आगम शास्त्र में जो दृष्टांत, सत्य घटना हैं उसे अगर Comics के रूप में प्रकाशित करें तो बच्चों को सहजता से जैनधर्म के आदर्श और वीर पात्रों के बारे में भी जानकारी मिल जायेगी / ऐसी उत्तम भावना से उन्होंने अब तक 30 Comics प्रकाशित करवाई हैं और इनकी सफलता देखकर और अनेक ऐसी Comics की पुस्तकें प्रकाशित करने के जात शत्रु कोणिक भाव हैं। आगम के श्रेष्ठ पात्रों को बच्चों तक पहुँचाने का श्रेष्ठत्तम माध्यम है यह सचित्र साहित्य। 50 रूपये वाली ये सचित्र Comics दाताओ के अनुदान से और ज्ञान प्रसार के भाव से आपमात्र 20 रूपये में प्राप्त कर सकते हैं। शासन प्रभावक पूज्य गुरुदेव श्री नममुनि म.सा. की प्रेरणा से लुक अन लर्न जैन एज्युकेशन बोर्ड प्रस्तुत करता है निम्नलिखित सचित्र साहित्य..! * बुद्धिनिधान अभयकुमार |* रूप का गर्व * भगवान मल्लीनाथ * किस्मत का धनी धन्ना *अजात शत्रु कोणिक * वचन का तीर * नन्द मणिकार * भगवान ऋषभदेव भरत चक्रवर्ती * तृष्णा का जाल * उदयन वासवदत्ता भगवान महावीर की पाँच रन * पिंजरे का पंछी * कर भला हो भला बोध कथाएँ क्षमादान * महासती अंजनासुन्दरी |* शकडाल पुत्र राजा प्रदेशी और * युवा योगी जम्बू कुमार |* महासती मदन रेखा - राजकुमारी चन्दनबाला | केशीकुमार श्रमण करनी का फल * 'धरती पर स्वर्ग * करकण्डू जाग गया |* आर्य स्थूलभद्र राजकुमार श्रेणिक * सुर सुन्दरी * महाबल मलया सुन्दरी |* ऋषिदत्ता पत्रिका मंगवाने के लिए सदस्यता शुल्क अर्हम युवा ग्रुप के नाम से चेक / ड्राफ्ट द्वारा निम्न पते पर भेजे। LOOK N LEARN : PARASDHAM, TEL. : 022-32043232 Vallabh Baug Lane, Tilak Road, Ghatkopar (E), Mumbai - 400 077.