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आर्य स्थूलभद्र
एक दिन चाँदनी रात में दोनों ही मित्र नगर भ्रमण को निकले। एक सुन्दर उद्यान के बीच भव्य भवन को देखकर स्थूलभद्र ने पूछा
वाह मित्र ! तुम भी एक ही हो। इस नगर के निवासी होकर भी अपने नगर के कला सौन्दर्य से अपरिचित हो ?
मित्र ! यह विशाल भवन किसका है? इसके बाहर अनेक रथ, अश्व क्यों खड़े हैं?
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मित्र, मुझे इनमें कोई रुचि नहीं है।
हाँ, बस तुम्हें तो अपनी वीणा भली और अशोक वाटिका। बड़े एकान्त प्रिय हो तुम
मित्र ! मुझे तो एकान्त में ही आनन्द आता है। मेरे रस का
स्रोत तो मेरे भीतर से ही प्रकट होता है।
तभी उस भवन में से अनेक श्रेष्ठी आपस में बातें करते हुये बाहर निकलते हैं
हाँ भाई, माँ से भी बढ़कर हैं दोनों पुत्रियाँ ।
वाह ! क्या अद्भुत कला है? क्या अद्भुत सौन्दर्य है ?
रूपकोशा जब नृत्य करती है तो ऐसा लगता है आम्रपाली ही जीवंत हो गई हो।