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CSCC
प्रस्तावना
भगवान महावीर की पाट परम्परा में आठवें पट्टधर आर्य स्थूलभद्र एक महायोगी के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे अन्तिम श्रुत केवली और दशपूर्वधर आचार्य थे।
जैन इतिहास के अनुसार कोणिक पुत्र उदायी की मृत्यु के पश्चात् मगध पर नन्द वंश का अधिकार हो गया। मगध की राजधानी पाटलिपुत्र थी। नंदवंशीय राजाओं ने 'कल्पक' नामक विद्वान ब्राह्मण को महामात्य पद पर नियुक्त किया। इसी नंदवंश के नवम राजा धननन्द के समय कल्पकवंशीय नवम पुरुष 'शकडाल' महामात्य पद पर आसीन थे।
शकडाल अत्यन्त विद्वान, राजनीतिज्ञ, शिक्षा विशारद और कुशल अर्थ तंत्री थे। शकडाल के घर में विक्रम संवत् 354 पूर्व में आर्य स्थूलभद्र का जन्म हुआ। इनका एक भाई श्रीयक और सात बहने थीं। आर्य स्थूलभद्र अत्यन्त प्रखर मेधावी, धीर-गंभीर, विनम्र थे। अद्भुत काम विजेता के रूप में उनकी अमर कीर्ति आज भी जीवित है। मौर्य साम्राज्य का महामंत्री चाणक्य उनका बाल सखा और सहपाठी था। मगध की प्रसिद्ध नर्तकी आम्रपाली की वंशजा राजनर्तकी रूपकोशा उनके गुणों पर मुग्ध होकर उनके प्रति समर्पित हो चुकी थी। 12 वर्ष तक वे रूपकोशा के रूप माधुर्य के प्रेमी रहे, परन्तु अचानक आये परिवर्तन ने तीस वर्ष की भरी जवानी में संसार से विरक्त कर दिया और वे आर्य संभूति के शिष्य बन गये। वे 30 वर्ष तक मुनि जीवन में रहे। फिर 45 वर्ष तक कुशलता पूर्वक आचार्य पद का दायित्व वहन किया।
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