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आर्य स्थूलभद्र
महामंत्री ने राजा नन्द से जाकर निवेदन किया-'महाराज ! आप वररुचि द्वारा गंगा स्तुति का दृश्य देखना चाहते हैं तो पधारिए।'
प्रातः सूर्योदय से पहले ही राजा अनेक लोगों को साथ लिए गंगातट पर पहुंच गया। हजारों लोगों की भीड़ एकत्र हो गई। सभी गंगा मैया द्वारा वररुचि को स्वर्णमुद्राएँ देने का अद्भुत दृश्य देखने को उत्सुक थे।
वररुचि गंगातट पर कमर तक पानी में खड़ा होकर हाथ में पुष्प-फल लिए गंगा की स्तुति बोल रहा है-'हर हर गंगे ! जय जय गंगे।'
गंगा स्तुति पूर्ण करके वररुचि ने खड़े-खड़े ही अपने दाहिने पाँव से नीचे का यंत्र दबाया। गंगा की धारा के बीच एक नारी हाथ ऊपर उठा, परन्तु हाथ खाली था।
वररुचि सन्न रह गया-'यह क्या हुआ? स्वर्णमुद्रा से भरी लाल थैली नहीं आई?' उसने पुनः उच्च स्वर से पुकारा-'गंगा मैया प्रसन्न हो। वर दे ! वर दे ! हर हर गंगे !'
दुबारा खाली हाथ ऊपर आया। बार-बार पुकारने पर भी लाल थैली नहीं आई। महामंत्री शकडाल निकट आता है-'ब्राह्मण पुत्र ! आपकी थैली यह रही। गंगा मैया ने नहीं दी तो कोई बात नहीं। हम आपको दे रहे हैं, लीजिए।'
वररुचि लज्जित होकर नीचे देखता है। शकडाल ने सारा भेद खोलते हुए बताया-'महाराज ! यह थैली गंगा मैया की नहीं, इन्हीं वररुचि की है। रात में वहाँ रख देता है और प्रातः सबके सामने यह नाटक रचता है।'
राजा नन्द ने वररुचि को धिक्कारा-'ब्राहमण होकर इतना कपट रचने की क्या जरूरत थी। सबकी आँखों में धूल क्यों झोंकी तुमने?'
वररुचि नीचा मुँह किए भीड़ में से कहीं चला गया। जनता उसे धिक्कारती रही-'बड़ा धूर्त, कपटी है यह ! कैसा पाखंडी है।' वररुचि शर्मिंदा होकर नगर से भाग गया।
छह महीनों तक गायब रहकर वररुचि पुनः एक दिन पाटलिपुत्र में आया और बालकों को पढ़ाकर आजीविका करने लगा।
और छोटा?
धीरे-धीरे उसने महामंत्री के घर में काम करने वाली दासी से परिचय किया- बड़ा पुत्र स्थूलभद्र
केतकी, आजकल तो रूपकोशा के क्या चल रहा है मंत्री के मोहजाल में फँसा घर में?
है। घर भी नहीं
आता।
उसके विवाह की गुप्त तैयारी चल रही है। राजछत्र दण्ड, सिंहासन
आदि बन रहे हैं।