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आर्य स्थूलभद्र
घर आकर चाणक्य ने एकान्त में महामंत्री धीरे-धीरे स्थूलभद्र और रूपकोशा एक-दूसरे की ओर
से कहा
आकर्षित होते गये। एक समय ऐसा आ गया कि स्थूलभद्र रात-दिन रूपकोशा के भवन में ही रहने लगा।
तात ! आपका मनोरथ सफल हो रहा है।
विष्णु हु चतुर और योजना
कुशल हो।
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वररुचि
पाटलिपुत्र में आशु कवि था वररुचि। उच्चकोटि का विद्वान् तो था परन्तु अभिमानी और धूर्त भी था। वह प्रतिदिन संस्कृत के १०८ नये श्लोक बनाकर राजा धननन्द की स्तुति करता था। आज भी उसने नव रचित श्लोकों से राजा का मनोरंजन किया। प्रसन्न होकर राजा ने कहा
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सुन्दर ! बहुत सुन्दर !
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रूपकोशा भी स्थूलभद्र के प्रति पूर्णरूप से समर्पित हो गई। फिर राजा ने शकडाल की तरफ देखा। शक रहा तो राजा ने सोचा
महामंत्री शकडाल इस
काव्य की प्रशंसा नहीं
कर रहे हैं। अवश्य ही यह काव्य पारितोषिक देने योग्य नहीं है।
राजा ने भी आँखें फेर लीं।