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वररुचि खाली हाथ निराश लौट आया। उसने अपने
मित्र
कहा- इतने दिन हो गये
मुझे नये-नये श्लोक
सुनाते, आज तक राजा स्वर्णमुद्रा भी नहीं दी।
क्यों क्या कारण है?
आर्य स्थूलभद्र
दूसरे दिन लक्ष्मी ने प्रसंग छेड़ा और कहा
स्वामी, एक विद्वान् की प्रशंसा करने में आपका, क्या जाता है ?
अगले दिन दोपहर के समय वररुचि सीधा शकडाल के घर पहुँचा और लक्ष्मी को अपने मन की पीड़ा बताते हुए बोलाबहन ! यदि महामंत्री राजा के समक्ष मेरे काव्य की प्रशंसा कर दें तो मेरी दरिद्रता दूर हो जायेगी।
राजकाज का संचालन शकडाल के हाथ है। जब तक वह प्रशंसा नहीं करता, राजा चाहकर भी। एक फूटी कौड़ी नहीं दे सकते।
विप्रवर, मैं एक विद्वान् ब्राह्मण की
सहायता करने का प्रयत्न करूँगी।
यदि मेरे शब्दों से उसका भला होता है तो यही ठीक।
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सुनो मित्र, मैं तुम्हें उपाय बताता हूँ। तुम कडा की पत्नी - लक्ष्मी को प्रसन्न करो। वह विदुषी भी है, और उदार भी।
दूसरे दिन वररुचि ने राजसभा में काव्य सुनाये। राजा ने महामंत्री की तरफ देखा। महामंत्री मुस्कराये
अहो सुभाषितम् ।
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