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आर्य स्थूलभद्र
राजा नन्द भी इसी की प्रतीक्षा करता था। उसने कोषाध्यक्ष एक दिन शकडाल ने सोचाको आदेश दिया
'कविवर को एक सौ आठ स्वर्णमुद्रा देकर पुरस्कृत करो।
धन्य हो
राजन् !
अब तो प्रतिदिन वररुचि नये-नये श्लोक सुनाकर पुरस्कार में १०८ स्वर्णमुद्राएँ पाने लगा।
अगले दिन उसने राजा से पूछा
महाराज ! वररुचि को यह पुरस्कार किसलिए दिया जा रहा है?
महाराज ! मैंने काव्य की प्रशंसा की थी, वररुचि की विद्वत्ता की नहीं।
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हम समझे नहीं ।
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मंत्रिवर ! आपने ही तो प्रशंसा की थी। आपके संकेत के बिना, हम थोड़े ही देते।
महाराज ! वररुचि जो काव्य सुनाता है वह प्राचीन कवि रचित हैं, उसका स्वरचित नहीं ।
यह तो व्यर्थ ही राजकोष का अपव्यय है। इसे रोकना चाहिए।
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इसका प्रमाण है आपके पास ?
कडालने सहमति से सिर हिलाया।