Book Title: Aagam 07 UPASAK DASHA Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [०७] श्री उपासकदशाङ्गसूत्रम नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । __ "उपासकदशा" मूलं एवं वृत्ति: [मूलं एवं अभयदेवसूरि रचित वृत्तिः ] [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] | (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) 29/09/2014, सोमवार, २०७० आसो शुक्ल ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०७], अंग सूत्र-[०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~0~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [-], -------- मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम अहम्। श्रीमच्चन्द्रकलीन श्रीमदभयदेवाचार्य विहितविवरणयुतं श्रीमदुपासक दशाङ्गम् ॥ प्रकाशयित्री हेसाणा बारका अष्टि वीकपकाल हीराचंद श्रेष्ठि गुलाबचन्द्र हर्षचन्दपली उमीया कोर विहितसाहाय्येन श्रेष्ठि वेणिचन्द्र सुरचन्द्रद्वारा आगमोदय समितिः॥ एवं पुस्तकं पुणामध्ये आर्यभूषण यन्त्रालये म्यानेजर अनंत विनायक पटवर्धन द्वारा मुद्रापितम् ॥ चौरसंवत् २४४६. विक्रमसंवत् १९७६. क्राइस्ट सन् १९२० पण्यंः-१०-० दशकमाणकानाम् । उपासकदशाङ्गसूत्रस्य मूल "टाइटल पेज" ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाइका: ५८+१३ उपासकदशाङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: ७२ पृष्ठांक: मूलांक: | पृष्ठांक मूलांक: । अध्ययन | पृष्ठांक: मूलांक: अध्ययन ००१ | ०१- आनंद ००४ ०३४ | ०५- चुल्लशतक ०७४ ०४८ ०८- महाशतक ०२० / ०२- कामदेव ०४१ ०३५ ०६- कुंडकोलिक । ०७६ ____०५७ ०९- नंदीनिपिता ०३- चलनीपिता ०६५ ____०४१ ०७- सद्दालपुत्र । ०८१ ०५८- |१०- लेईयापिता | ___०३२ | ०४- सुरादेव ola -७३ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['उपासकदशा' - मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “उपासकदशाङ्गसूत्र" के नामसे सन १९२० (विक्रम संवत १९७६) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमद्सागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | * हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन, मूलसूत्र- आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, आदि चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके । हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || || ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है । हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है । अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है । अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ....... मुनि दीपरत्नसागर. ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [१], --- --- मुलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [06], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] ॥अहम् ॥ ॥श्रीमत्सुधर्मस्वामिप्रणीतं नवाङ्गीवृत्तिकारकश्रीमदभयदेवमूरिवरविवृतं श्रीउपासकदशाङ्गसूत्रम् ॥ प्रथममध्ययनम् । श्रीवर्द्धमानमानम्य, व्याख्या काचिद्विधीयते । उपासकदशादीना, प्रायो ग्रन्थान्तरेक्षिता ॥१॥ - तत्रोपासकदशाः सप्तममई, इह चायमभिधानार्थः-उपासकानां-श्रमणोपासकानां सम्बन्धिनोऽनुष्ठानस्य प्रतिपादिका दशाः-- दशाध्ययनरूपा उपासकदशाः, बहुवचनान्तमेतद् ग्रन्धनाम | आसां च सम्बन्धाभिधेयप्रयोजनानि नामान्वर्थसामध्येनैव प्रतिपादि-10 तान्यवगन्तव्यानि, तथाहि-उपासकानुष्ठानमिहाभिधेयं, तदवगमच श्रोतृणामनन्तरप्रयोजनं, शास्त्रकृतां तु तत्पतिबोधनमेव तत. परम्परप्रयोजनं तूभयेषामप्यपवर्गप्राप्तिरिति । सम्बन्धस्तु द्विविधः शास्त्रेष्वभिधीयते-उपायोपेयभावलक्षणो गुरुपर्वक्रमलक्षणय, तत्रीपायोपेयभावलक्षणः शास्त्रनामान्वर्थसामर्येनेवासामभिहितः, तथाहि-इदं शाखमुपाय एतत्साध्योपासकानुष्ठानावगमधीपेयमित्युपायोपेयभावलक्षणः सम्बन्धः, गुरुपर्वक्रमलक्षणं तु सम्बन्धं साक्षादर्शयितुमाह- . ॥॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं चम्पा नाम नयरी होत्था, वण्णओ, पुणभद्दे चेइए, वण्णओ ॥ (सू०१) तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जमुहम्मे समोसरिए जाव जम्बू पज्जुवासमाणे एवं बयासी-जइ णं भन्ते ! दीप अनुक्रम JauntainturNCE अध्ययनस्य प्रस्तावना ~4 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [२] गाथा दीप अनुक्रम [२-४] “उपासकदशा” अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [२] + गाथा अध्ययन [ १ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] " उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः - उपासक समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं छटुस्स अङ्गस्स नायाधम्मकहाणं अयमट्ठे पण्णने सत्तमस्स णं भन्ते ! दशाङ्गे अङ्गस्स उवासगदसाणं समणेणं जाव सम्पत्तेर्ण के अट्ठे पण्णत्ते ?, एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव सम्पत्तेणं ॥ १ ॥ सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं दस अज्झयणा पणत्ता, तंजहा आणन्दे १ कामदेवे य २, गाहावर चुलणीपिया ३। सुरादेवे ४ चुल्लसय ५, गाहाबद कुण्डकोलिए ६ ॥ १ ॥ सद्दालपुत्ते ७ महासयए ८, नन्दिणीपिया ९ सालिहीपिया १० ॥ जइ णं भन्ते ! समणेणं जाव सम्पत्तेणं सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसगाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता पढमस्स णं भन्ते ! समणेणं जाब सम्पत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते ? || (सू० २ ) ' तेणं कालेणं तेणं समरणमित्यादि, सर्व चेदं ज्ञातधर्मकथाप्रथमाध्ययनविवरणानुसारेणानुगमनीयं, नवरं 'आनन्दे' इत्यादि रूपकं तत्रानन्दाभिधानोपासकवक्तव्यताप्रतिबद्धमध्ययनमानन्द एवाभिधीयते, एवं सर्वत्र, 'गाहावह' नि गृहपतिः ऋद्धिमद्विशेषः 'कुण्डकोलिए'त्ति रूपकान्तः । एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नामं नयरे होत्या, वण्णओ, तस्स णं वाणियगामस्स नयरस्स वहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए दूइपलासए नामं चेइए, तत्थ णं वाणियगामे नयर जियसत्तू राया होत्था वण्णओ, तत्थ णं वाणियगामे आणन्दे नामं गाहावई परिवसर, अड्डे जाव अपरिभूए ॥ तस्स णं आणन्दस्स गाहावइस्स चचारि हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ चत्तारि हिरण्ण अथ अध्ययन- १ "आनंद" आरभ्यते, [आनंद श्रमणोपासक कथा] For Parts Only ~5~ आनन्दाध्ययनं प्रस्तावना ॥ १ ॥ nirary org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [१], ------ मूलं [३-५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३-५] दीप अनुक्रम [५-७] कोडीओ बुट्टिपउत्ताओ चत्तारि हिरण्णकोडिओ पवित्थरपउनाओ चत्तारि क्या दसगोसाहस्सिएणं वएणं । होत्था ॥से णं आणन्दे गाहावई वहणं राईसर जाव मत्थवाहाणं बहूस कजेस य कारणेसु य मन्तेसु य कुडम्बेस य गुज्झेस य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेस य आपुच्छणिजे पडिपुच्छणिजे, सयस्सवि य णं कुटुम्बस्स मेढी पमाणं आहारे आलम्बणं चक्खू, मेढीभूए जाव सव्वकजवट्टावए यावि होत्था ॥ तस्स णं आणन्दस्स गाहावइस्स सिवानन्दा नाम भारिया होत्था, अहीण जाव सुरूवा आनन्दस्स गाहावइस्स इट्ठा आणन्देणं गाहावइणा सद्धिं अणुरना अविरत्ना इट्ठा सद्द जाव पञ्चविहे माणुस्सए कामभोए पञ्चणुभवमाणी विहरइ ॥ तस्स णं वाणियगामस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं कोल्लाए नामं सन्निवेसे होत्या, रिद्धस्थिमिय जाव पासादीए ४॥ तत्थ णं कोल्लाए सन्निवेसे आणन्दस्स गाहावइस्स बहुए मिननाइनियमसयणसम्बन्धिपरिजणे परिवसइ,अड़े , सजाव अपरिभूए । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिए, परिसा निग्गया, कोणिए राया जहा तहा जियसत्तू निग्गच्छइ २ ना जाव पज्जुवासइ ॥ तए णं से आणन्दे गाहावई इमीसे कहाए लढे समाणे एवं खलु समणे जाव विहरइ, तं महाफलं जाव गच्छामिण जाव पन्जुवासामि, एवं सम्पेहेइ २ ना पहाए । सुद्धप्पावेसाई जाव अप्पमहग्याभरणालङियसरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ २ ना सकोरण्टमल्लदामेणं छत्तेणं । धरिजमाणेणं मणुस्सवग्गुरापरिक्खिचे पायविहारचारेणं वाणियगामं नयरं मझमझिणं निग्गच्छइ २ ता जेणा ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [१], ------ मूलं [३-५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: उपासक- दशाङ्गे ॥२॥ प्रत सूत्रांक [३-५] दीप अनुक्रम [५-७] मव दृइपलासे चेइए जणेव समणे भगवं महावीरे नेणेव उवागच्छइ २ ता तिम्बुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करइ २' ना आनन्दावन्दइ नमसइ जाव पज्जुवासइ॥ (म०३)। तएणं समणे भगवं महावीरे आणन्दस्म गाहावइस्स तीसे य महइमहालियाए ध्ययन जाव धम्मकहा, परिसा पडिगया, राया य गए (सू०४)॥ तए णं से आणन्दे गाहावई समणस्म भगवओ महावीरस्स आनन्दस्यअन्तिए धम्मं सोचा निमम्म हट्टतुट्ठ जाव एवं वयामी-सदहामि णं भन्ते ! निग्गन्थं पावयणं पत्तियामि 'णं भन्ते! दिः धर्मनिग्गन्थं पावयणं रोएमिणं भन्ते ! निग्गंथं पावयणं एवमेयं भन्ते ! तहमेयं भन्ते अवितहमयं भन्ते ! इच्छियमेयं भन्ते ! श्रुतिः श्रद्धा पडिच्छियमेयं भन्ते ! इच्छियपडिच्छियमेयं भन्ते ! मे जहेयं तुब्भे वयहत्तिकह, जहा णं देवाणुप्पियाणं अन्तिए बहवे. राईसरतलवरमाडम्बियकोडुम्बियसेट्ठिसणावदसत्थवाहप्पभिइयो मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणमारियं पब्वइया नाका खलु अहं तहा संचाएमि मुण्डे जाव पवइत्तए, अहं णं देवाणुप्पियाणं अन्तिए पश्चाणुवइयं सत्नसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजिस्सामि, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिनन्धं करेह ॥ (सू० ५) 'प्रविस्तरो' धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिविभूतिविस्तरः, 'बजा' गोकुलानि, दशगोसाहसिकेण-गोसहस्रदशकपरिमाणेनेत्यर्थः । तए णं से आणन्दे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्म अन्तिए तप्पडमयाए थूलगं पाणाइवायं - पञ्चक्खाइ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा १। तयाणन्तरं च णं थूलगं मुसावायं पञ्चक्खाइ जावजीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयमा Turasurary.com आनन्दस्य धर्मश्रवण, श्रद्धा, श्रमणोपासक-व्रतस्वीकार Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्य यन [१], -------- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक कायसा २ । तयाणन्तरं च णं थूलगं अदिण्णादाणं पञ्चक्खाइ जावजीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा ३। तयाणन्तरं च णं सदारसन्तोसिए परिमाणं करेइ, नन्नत्थ एक्काए सिवानन्दाए भारियाए, अवसेसं सव्वं मेहुणविाह पच्चक्खामि म०३,४ । तयाणन्तरं च णं इच्छाविहिपरिमाणं करेमाणे हिरण्णसुवण्णविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्य चउहिं हिरण्णकोडीहिं निहाणपउनाहिं चउहि बुद्धिपउत्ताहि चउहिं पवित्थरपउत्ताहिं, अवसेस सव्वं हिरण्णसुवण्णविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं चउप्पयविहिपरिमाणं . करेइ, नन्नत्य चउहि वर्ष दसगोसाहस्सिएणं वएणं, अवसेसं सव्वं चउप्पयविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च | णं खेत्तवत्थुविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ पञ्चहिं हलसएहिं नियत्तणसइएणं हलेणं, अवसेसं सव्वं खेत्तवत्थुविहि पञ्चक्सामि ३, तयाणन्तरं च णं सगडविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ पञ्चहिं समडसएहिं दिसायत्तिएहिं पञ्चहिं सगडसएहिं संवाहणिएहिं, अवसेसं सब्वं सगडविहिं पचक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं वाहणविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ चउहिं वाहणेहिं दिसायत्तिपहिं चउहिं वाहणेहिं संवाहणिएहि, अवसेसं सर्व वाहणविहिं पञ्चक्खामि ३,५। तयाणन्तरं च णं उवभोगपरिभोगविहिं पञ्चक्खाएमाणे उल्लणियाविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ एगाए गन्धकासाईए, अवसेमं सव्वं उल्लणियाविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं दन्तवणविहिपरिमाणं करेइ, नन्नस्थ एगेणं अल्ललट्ठीमहुएणं, अवमेमं । दन्तवणविहिं पञ्चक्खामि ३ । तयाणन्तरं च फलविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्य एगेणं खीरामलएणं, अवसेसं फलविहिं . दीप अनुक्रम आनन्दस्य श्रमणोपासक-द्वादश व्रतस्वीकारं (यहाँ ख़याल रहे की उपलक्षण से १२- व्रत ऐसा लिखा है, वैसे तो यहाँ ७ व्रत दिखाई देते है, जिसमे पहेले चार व्रत के प्रत्याख्यान तो संक्षिप्त और स्पष्टरूपसे है, पांचवा व्रत थोडा विस्तार से है, फिर उपभोग-परिभोग विषयक प्रत्याख्यान ज्यादा विस्तार से है, उसके बाद अनर्थदंड विषयक प्रत्याखान का उल्लेख है | बाकी व्रतो का उल्लेख नहीं है, लेकिन अतिचार-वर्णनमें बारह व्रतो का उल्लेख है।) ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], ------- मूलं [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: दशाङ्गे प्रत सूत्रांक चारः पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं अभङ्गणविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्य सयपागसहस्सपागेहिं तेल्लाह, अवसेस अब्भ- आदन्दा भणविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं उब्वट्टणाविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ एगेणं सुरहिणा गन्धट्टएणं,अवसेस ध्ययनं उन्वट्टणाविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं मजणविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ अट्ठहिं उट्टिएहिं उदगस्स घडएहि, द्वादशवतो. अवसेसं मजणविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं वत्थविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ एगेणं खोमजुयलेणं, अवसेसं । वत्थविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं विलेवणविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ अगरुकुमचन्दणमादिएहिं, अवसेसं विलेवणविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं पुप्फविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ एगेणं सुद्धपउमेणं मालइकु-11 सुमदामेणं वा, अवसेसं पुष्कविहिं पच्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं आभरणविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ मट्ठकण्णेजएहिं नाममुद्दाए य, अवसेसं आभरणविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं धूवणविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ अगरुतुरुकधूवमादिएहि, अवसेसं धूवणविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं भोयणविहिपरिमाणं करेमाणे • पजविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ एगाए कट्ठपेजाए, अवसेस पेजविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं भक्खविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ एगेहिं धयपुण्णेहिं खण्डखजएहिं वा, अवसेसं भक्खविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च ण| ओदणविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ कलमसालिओदणेणं, अवसेसं ओदणविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं । च णं सूवविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्य कलायसूवेण वा मुग्गमाससूवेण वा, अवसेस सूवविहिं पञ्चक्खामि ३, दीप अनुक्रम SAREnatio nal Dinmarary.orm आनन्दस्य श्रमणोपासक-द्वादश व्रतस्वीकार ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], ------- मूलं [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [ob], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप तयाणन्तरं च णं घयविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ सारइएणं मोघयमण्डेणं, अवसेसं घयविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं सागविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ वत्थुसाएण वा सुस्थिरसारण वा मण्डक्लियसाएण वा, अवसेसं सागविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च ण माहुरयविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ एगेणं पालङ्गामाहुरएणं, अवसेस माहुरयविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं जेमणविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ सेहंबदालियंचर्हि, अवसेस जेमणविहिं पञ्चकखामि ३, तयाणन्तरं च णं पाणियविहिपरिमाणं करेइ, नन्नस्थ एगेणं अन्तलिक्खोदएणं, अवसेसं पाणियविहिं पञ्चक्खामि ३, तयाणन्तरं च णं मुहवासविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ पञ्चसोगन्धिएणं तम्बोलेणं, अवसेस मुहवासविहिं पञ्चक्खामि ३,६। तयाणन्तरं च णं चउन्विहं अणट्ठादण्डं पञ्चक्खाइ, तंजहा-अवज्झाणायरियं पमायायरियं हिंसप्पयाणं पावकम्मोवएसे ३, ७ । (सू०६) 'तप्पढमयाएत्ति तेषाम्-अणुव्रतादीनां प्रथम तत्मथमं तद्भावस्तत्मथमता तया 'थूलगंति त्रसविषयं 'जावजीवाए ति: कायावती चासौ जीवा च-प्राणधारणं यावज्जीवा यावान वा जीवः-माणधारणं यस्यां प्रतिज्ञायां सा यावज्जीवा तया,'दुविहंति करणकार-10 गभेदेन द्विविधं प्राणातिपातं 'तिविहेणं'ति मनामभृतिना करणेन 'कायस'त्ति सकारस्यागमिकत्वात्कायेनेत्यर्थः, न करोमीत्यादिनैतदेव व्यक्तीकृतं । स्थूलमृषावादः-तीव्रसंक्लेशातीवस्यैव संक्लेशस्योत्पादकः। स्थूलकमदत्तादानं-चौर इति व्यपदेशनिबन्धनं । स्वदारैः सन्तोषः स्वदारसन्तोषः स एव स्वदारसन्तोषिकः स्वदारसन्तोषिर्वा स्वदारसन्तुष्टिः, तत्र परिमाणं-बहुभिर्दारैरुपजायमानस्य सङ्केपकरणं, 55 अनुक्रम SARERatanAma आनन्दस्य श्रमणोपासक-द्वादश व्रतस्वीकार ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्य यन [१], -------- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्राक [६] उपासक- कथम् ? –'नन्नत्थेति न मैथुनमाचरामि अन्यत्र एकस्याः स्त्रियाः, किमभिधानायाः? -शिवानन्दायाः, किम्भूतायाः? -भार्यायाः, आनन्दादशाङ्गे स्वस्येति मन्यते, एतदेव स्पष्टयन्नाह-अवशेष-तर्ज मैथुनविधि तत्प्रकारं तत्कारणं वा, तथा वृद्धव्याख्या तु 'नन्नत्थ' त्ति अन्यत्र तां ध्ययन वर्जयित्वेत्यर्थः। हिरणं ति-रजतं सुवर्ण-प्रतीतं विधि:-प्रकारः, 'नन्नत्था तिन-नैव करोमीच्छां हिरण्यादी, अन्यत्र चतमभ्यो ॥४॥ न्याल द्वादशवतोहिरण्यकोटीभ्यः, ता वर्जयित्वेत्यर्थः, 'अबससं ति शेषं तदतिरिक्तमित्येवं सर्वत्रावसेयम्, 'खेत्तवत्थु' ति-इह क्षेत्रमेव वस्तु क्षेत्रवस्तु चारः ग्रन्थान्तरे तु क्षेत्रं च वास्तु च-गृहं क्षेत्रवास्तु इति व्याख्यायते, 'नियत्तणसइएणं' ति निवर्तनं--भूमिपरिमाणविशेषो देशविशेपप्रसिद्धः ततो निवर्तनशतं कर्षणीयत्वेन यस्यास्ति तन्निवर्तनशतिकं तेन, 'दिसायत्तिएहिं ति दिग्यात्रा-देशान्तरगमनं प्रयो-15 जनं येषां तानि दिग्यात्रिकानि तेभ्योऽन्यत्र, 'संवाहणिएहि ति संवाहनं क्षेत्रादिभ्यस्तृणकाष्ठधान्याहादावानयनं तत्प्रयो-13 जनानि सांबाहनिकानि तेभ्योऽन्यत्र, 'वाहणेहि ति यानपात्रेभ्यः, 'उवभोगपरिभोग' ति उपभुज्यते-पौनःपुन्येन सेव्यत भइत्युपभोगो-भवनवसनवनितादिः परिभुज्यते-सकृदासेव्यत इति परिभोगः-आहारकुसुमविलेपनादिः व्यत्ययो वा व्याख्येय इति, उल्लणिय' ति स्नानजलाईशरीरस्य जललूषणवस्त्र, 'गन्धकासाईए' त्ति गन्धप्रधाना कषायेण रक्ता शाटिका गन्धकाषायी, तस्याः , 'दन्तवण' ति दन्तपावनं दन्तमलापकर्षणकाष्ठम्, 'अल्ललष्ठीमहुएणं' ति आर्द्रण यष्टीमधुना-पधुररसवनस्पतिविशेषेण, काखीरामलएण' ति अबद्धास्थिकं क्षीरमिव मधुरं वा यदामलकं तस्मादन्यत्र, 'सयपागसहस्सपागहिं' ति द्रव्यशतस्य सत्कं कायशतेन सह यत्पच्यते कार्षापणशतेन वा तच्छतपाकम् , एवं सहस्रपाकमपि, 'गन्धट्टएणं' ति गन्धद्रव्याणामुपलकृष्ठादीनां 'अट्टआत्ति ॥४॥ चूर्ण गोधूमचूर्ण वा गन्धयुक्तं तस्मादन्यत्र, 'उट्टिएहिं उदगस्स घडएहि ति उष्ट्रिका-बृहन्मन्मयमाण्डं तत्पूरणप्रयोजना दीप अनुक्रम RAO.DAV Foto R angtmraryana 1ॐा आनन्दस्य श्रमणोपासक-द्वादश व्रतस्वीकार ~114 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], ------- मूलं [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ये घटास्त उष्ट्रिकाः, उचितप्रमाणा नातिलघवो महान्तो बेत्यर्थः, इह च सर्वत्रान्योतिशब्दप्रयोगेऽपि प्राकृतत्वात्पश्चम्यर्थे । तृतीया द्रष्टव्येति, 'खोमजुयलेणं' ति कार्पासिकवस्त्रयुगलादन्यत्र, 'अगरु' त्ति अगुरुर्गन्धद्रव्यविशेषः, 'सुद्धपउमेणं ति कुसुमान्तरवियुतं पुण्डरीकं वा शुद्धपद्मं ततोऽन्यत्र, 'मालइकुसुमदाम' ति जातिपुष्पमाला 'महकण्णेज्जएहि ति मृष्टाभ्याम् अचित्रवद्भया कर्णाभरणविशेषाभ्यां 'नाममुद्द' ति नामान्तिा मुद्रा-अङ्गुलीयकं नाममुद्रा, 'तुरुक्कधूवत्ति सेल्हकलक्षणो धुषः, पिजविहिं ति पेयाहारप्रकारं 'कट्ठपेज' त्ति मुगादियूषो घृततलिततण्डुलपेया वा, 'भक्ख' चि खरविशदमभ्यवहार्य भक्षमित्यन्यत्र रूढम् , इह तु पक्कानमात्रं तद्विवक्षितं, 'घयपुष्ण' त्ति घृतपूराः प्रसिद्धाः, 'खण्डखज' ति खण्डलिप्तानि खाद्यानि अशोक| वर्तयः खण्डखाद्यानि, 'आदण' ति ओदनः-कूर, 'कलत्त(म)सालि' त्ति पूर्वदेशमसिद्धः, 'सूच' चि मूपः कूरस्य द्वितीयाशनं प्रसिद्ध एव 'कलायसूवे' ति कलायाः चणकाकारा धान्यविशेषा मुद्गा माषाश्च प्रसिद्धाः, 'सारइएणं गोधयमण्डेणं' ति शारदिकेन शरत्कालोत्पन्नेन गोघृतमण्डेन गोघृतसारेण, 'साग' ति शाको वस्तुलादिः, 'चूचुसाए' त्ति चूचुशाकः, सौवस्तिकशाको मण्डूकिकाशाका लोकमसिद्धा एव, 'माहुरय' ति अनम्लरसानि शालनकानि, 'पालङ्ग' त्ति वल्लीफलविशेषः, 'जमण' त्ति जेमनानि वटकपूरणादीनि, 'सेहंबदालियंवेहि ति सेधे-सिद्धौ सति यानि अन्लेन-तीमनादिना संस्क्रियन्ते तानि सेधाम्लानि यानि दाल्या मुद्गादिभय्या निप्पादितानि अन्लानि च तानि दालिकाम्लानीति सम्भाव्यन्ते, 'अन्तलिक्खोदयं' ति यज्जलमाकाशात्पतदेव गृह्यते तदन्तरिक्षोदकम् , 'पञ्चसोगन्धिएणं' ति पञ्चभिः-एलालवङ्गकर्पूरककालजातीफललक्षणैः सुगन्धिभिव्यैरभिसंस्कृतं पञ्चसौग|न्धिकम् । 'अणट्ठादण्ड' न्ति अनर्थेन-धर्मार्थकामव्यतिरेकेण दण्डोऽनर्थदण्डः, 'अवज्झाणायरिय' ति अपध्यानम्-आर्तरौद्ररूपं । 19660-53030030050480 दीप अनुक्रम SAREmiratinhoaind For Pare आनन्दस्य श्रमणोपासक-द्वादश व्रतस्वीकार ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [s] अध्ययन [ १ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... उपासक दशा ॥५॥ “उपासकदशा” - अंगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्ति:) - Jan Eat मूलं [७] ..आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः तेनाचरितः- आसेवितो योऽनर्थदण्डः स तथा तं एवं प्रमादाचरितमपि, नवरं प्रमादो - विकथारूपोऽस्थगित तैलभाजनधरणादिरूपो वा, हिंस्रं-हिंसाकारि शस्त्रादि तत्प्रदानं परेषां समर्पणं, 'पापकर्मोपदेश:' 'क्षेत्राणि कृषत' इत्यादिरूपः ॥ ६ ॥ इह खलु आणन्दाइ समणे भगवं महावीरे आणन्दं समणोवासगं एवं वयासी - "एवं खलु आणन्दा ! समणोवासरणं अभिगयजीवाजीवेणं जाव अणइक्कमणिज्जेणं सम्मत्तस्स पञ्च अइयारा पेयाला जाणियव्वा न समायरियव्वा, तंजहा - सङ्का कङ्क्षा विइमिच्छा परपासण्डपसंसा परपासण्डसंथवे । तयाणन्तरं च णं थूलगस्स पाणाइवायवेरमणस्स समणोवासरणं पञ्च अइयारा पेयाला जाणियव्वा न समायरियब्बा, तंजहा बन्धे वहे छविच्छेए अभारे भन्तपाणवोच्छेए १ । तयाणन्तरं च णं थूलमस्स मुसावायवेरमणस्स पञ्च अइयारा जाणियव्वा न समायरिब्वा, तंजा - सहसा अम्भकखाणे रहसाअव्यक्खाणे सदारमन्तभेए मोसोवएसे कूडलेहकरणे २। तयाणन्तरं च णं थूलगस्स अदिण्णादाणवेरमणस्स पञ्च अइयारा जाणियव्वा न समायरियन्वा, तंजहा - तेणाहडे तक्करप्पओगे विरुद्धरज्जाकमे कूडतुलकूडमाणे तप्पडिरूवगववहारे ३ | तयाणन्तरं च णं सदारसन्तोसिए पञ्च अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तंजहा - इनरियपरिग्गहियागमणे अपरिग्गहियागमणे अणकीडा परविवाहकरणे कामभोगतिब्बाभिलासे ४ । तयाणन्तरं च इच्छापरिमाणस्स समणोवासएणं पञ्च अइयारा जाणियब्वा न समायरियब्बा, तंजहा - खेतवत्थुपमाणाइकमे हिरण्णसुवण्णपमाणाइक्कमे दुपयचउप्पयपमाणाइकमे For Pasar Use Only सम्यक्त्व एवं द्वादश व्रतानां अतिचार वर्णनं ~13~ ११ आनन्दा ध्ययनं १२ व्रतानामतिचाराणां त्यागोपदेशः ॥ ५ ॥ rorp Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्य यन [१], --------- ------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक ७ि) धणधन्नपमाणाइक्कमे कुवियपमाणाइलमे ५। तयाणन्तरं च णं दिसिवयस्स पञ्च अइयारा जाणियब्वा न समायरियब्वा, तंजहा-उबृदिसिपमाणाइक्कमे अहोदिसिपमाणाइक्कमे तिरियदिसिपमाणाइक्कमे खेलबुट्टी सइअन्तरद्धा ६॥ तयाणन्तरं च णं उवभोगपरिभोगे दुविहे पण्णने, तंजहा-भोयणओ य कम्मओ य, तत्थ ण भोयणओ समणोवासएणं पञ्च अइयारा जाणियब्वा न समायरियब्वा, तंजहा-सचित्ताहारे सचित्तपडिबद्धाहारे अप्पउलिओसहिभक्खया दुप्पउलिओसहिभक्खणया तुच्छोसहिभक्खणया, कम्मओ णं समणोवासएणं पणरस कम्मादाणाई जाणियच्चाई न समायरियव्वाई, तंजहा-इङ्गालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे भाडीकम्मे फोडीकम्मे दन्तवाणिजे लक्खवाणिजे रसवाणिजे विसवाणिज्जे केसवाणिजे जन्तपीलणकम्मे निल्लञ्छणकम्मे दवग्गिदावणया सरदहतलावसोसणया असईजणपोसणया ७ । तयाणन्तरं च णं अणट्ठादण्डवेरमणस्स समणोवासएणं पञ्च अइयारा जाणियब्वा ने समायरियब्वा, तंजहा-कन्दप्पे कुकुइए मोहरिए सजुत्ताहिगरणे उपभोगपरिभोगाइरिने ८ । तयाणन्तरं च णं । सामाइयस्स समणोवासएणं पञ्च अइयारा जाणियब्वा न समायरियव्वा, तंजहा-मणदुप्पणिहाणे वयदुप्पणिहाणे कायदुप्पणिहाणे सामाइयस्स सइअकरणया सामाइयस्स अणवट्ठियस्स करणया ९ । तराणन्तरं च णं देसावगासियरस समणोवासएणं पञ्च अइयारा जाणियब्वा न समायरियव्वा, तंजहा-आणवणप्पओगे पेसवणप्पओगे ॥ सदाणुवाए रूवाणुवाए बहिया पोग्गलपक्खेथे १० । तयाणन्तरं च णं पोसहोववासस्स समणोवासएणं पञ्च दीप अनुक्रम FaPranaamvam ucom Loanataramorg | सम्यक्त्व एवं द्वादश व्रतानां अतिचार-वर्णनं ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], ------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक ७ि) दीप उपासक- इयारा जाणियवा, न समायरियवा तंजहा-अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहियसिज्जासंथारे अप्पमज्जियदुप्पमज्जियमिज्जासं-१ आनन्दादशाङ्गे थारे अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहियउच्चारपासवणभूमी अप्पमजियदुप्पमजियउच्चारपासवणभूमी पोसहोववासस्स सम्मं अण-15ध्ययनं त्र oldपालणया ११ । तयाणन्तरं च णं अहासंविभागस्स समणोवासएणं पञ्च अइयारा जाणियत्वा न समायरियव्वा तातिचार जहा-सचित्तनिक्वेवणया सचित्तपिहणया कालाइक्कमे परववदेसे मच्छरिया १२ । तयाणन्तरं च णं अपच्छिममारणन्तियसलेहणाझूसणाराहणाए पश्च अइयारा जाणियब्वा, न समायरियज्वा तंजहा-इहलोगासंसप्पओगे परलोगासंसप्पआगे जीवियासंसप्पओगे मरणासंसप्पओगे कामभोगासंसप्पओगे १३ । (सू. ७) 'आणन्दाइ' त्ति हे आनन्द इत्येवंप्रकारेणामन्त्रणवचनेन श्रमणो भगवान महावीर आनन्दमेवमवादीदिति, एतदेवाह एवं खलु आणन्दे'त्यादि, 'अइयारा पेयाल' ति अतिचारा-मिथ्यात्वमोहनीयोदयविशेषादात्मनोऽशुभाः परिणामविशेषा ये सम्यक्त्वमतिचारयन्ति ते चानेकप्रकारा गुणिनामनुपबृंहादयः ततस्तेषां मध्ये 'पेयाल त्ति साराः-प्रधानाः स्थूलत्वेन शक्यव्यपदेशवाद ये ते तथा, तत्र शङ्का-संशयकरणं काढा-अन्यान्यदर्शनग्रहः विचिकित्सा-फलं प्रति शङ्का विद्वज्जुगुप्सा वा-साधूना जात्यादिहीलनेति, परपाषण्डा:-परदर्शनिनस्तेषां प्रशंसा गुणोत्कीर्त्तनं परपाषण्डसंस्तवः-तत्परिचयः । तथा 'बन्धे नि बन्धो द्विपदादीनां रज्ज्वादिना संयमनं 'वह' ति वधो यष्टयादिभिस्ताडनं 'छविच्छेए' चि शरीरावयवच्छेदः 'अइभारे' नि अतिभारारोपणं तथाविधशक्तिविकलानां महाभारारोपणं 'भत्तपाणवोच्छए' ति अशनपानीयाद्यपदानं, इहाय विभागः अनुक्रम ॥ ६ ॥ SAMEnirahini | सम्यक्त्व एवं द्वादश व्रतानां अतिचार-वर्णनं ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], ------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: पूज्यरुक्तः-'बन्धबह छविछेदं अइभारं भत्तपाणवोच्छेयं । कोहादिदूसियमणो गोमणुयाईण णो कुजा ॥१॥ तथा 'न |मारयामीति कृतवतस्य, विनैव मृत्युं क इहातिचारः । निगद्यते यः कुपितः करोति, व्रतेऽनपेक्षस्तदसौ व्रती स्यात् ।। १ ।। कायेन भन्न न ततो व्रती स्यात्कोपाहयाहीनतया तु भग्नम् । तद्देशभङ्गादतिचार इष्टः, सर्वत्र योज्यः क्रम एष धीमन् ! ॥२॥ इति ।। IASNI'सहसाअब्भक्खाणे' ति सहसा-अनालोच्याभ्याख्यानम् असद्दोपाध्यारोपणं सहसाऽभ्याख्यान, यथा 'चौरस्त्वम् । इत्यादि, एतस्य चातिचारत्वं सहसाकारेणैव, न तीवसंकेशेन भणनादिति १, 'रहसाअभक्खाणे' ति रहः-एकान्तस्तेन हेतुना अभ्याख्यानं रहोऽभ्याख्यानम् , एतदुक्तं भवति--रहसि मन्त्रयमाणानां वक्ति-एते हीदं चेदं च राजापकारादि मन्त्रयन्तीति, एतस्य चातिचारत्वमनाभोगभणनात् , एकान्तमात्रोपाधितया च पूर्वस्माद्विशेषः, अथवा सम्भाव्यमानार्थभणनादतिचारो न तु भङ्गोऽयमिति २, 'सदारमन्तभेए' ति स्वदारसंबन्धिनो मन्त्रस्य-विश्रम्भजल्पस्य भेदः-प्रकाशनं स्वदारमन्त्रभेदः, एतस्य चातिचारत्वं सत्यभणनेऽपि कलत्रोक्ताप्रकाशनीयप्रकाशनेन लज्जादिभिर्मरणाद्यनर्थपरम्परासम्भवात्परमार्थतोऽसत्यत्वाचस्येति ३, 'मोसोवएसे' ति मृषोपदेशः- परेपामसत्योपदेशः सहसाकारानाभोगादिना, व्याजेन वा यथा 'अस्माभिस्तदिदमिदं वाऽसत्यम[भिधाय परो विजित' इत्येवंचा कयनेन परेषामसत्यवचनव्युत्पादनमतिचारः, साक्षात्कारेणासत्येऽप्रवर्त्तनादिति ४, 'कूडलेहकरणे -15 अनुक्रम १ अन्धवधं उपिच्छेदमतिभारं भक्तपानज्युच्छेदम् । क्रोधादिदृषितमना गोमनुजादीनां न करोति ॥१॥ २ कृषितो वधादीन करोत्यसौ स्यान्नियमानपेक्षः ॥ १॥ मृत्योरभावानियमोऽस्ति तस्प, को० प्र०। ३ देशस्य भङ्गादनुपालनाच, पूज्या अतीचारसदाहरन्ति ॥२॥ प्र० २ Vamana | सम्यक्त्व एवं द्वादश व्रतानां अतिचार-वर्णनं ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [s] “उपासकदशा” - अंगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययन [ १ ], मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ति असद्भूतार्थस्य लेखस्य विधानमित्यर्थः, एतस्य चातिचारत्वं प्रमादादिना दुर्विवेकत्वेन वा 'मया मृषावादः प्रत्याख्यातोऽयं तु कूटलेखो, न मृषावादनम्' इति भावयत इति ५, वाचनान्तरे तु 'कन्नालियं गवालियं भूमालियं नासावहारे कूडसक्खिज्जं सन्धिकरणे' त्ति पठ्यते, आवश्यकादौ पुनरिमे स्थूलमृपावादभेदा उक्ताः, ततोऽयमर्थः सम्भाव्यते एते एव प्रमादसहसाकाराना भोगैरभिधीयमाना मृषावादविरतेरतिचारा भवन्ति, आकुट्ट्या तु भङ्गा इति एतेषां चेदं स्वरूपम् कन्या- अपरिणीता स्त्री तदर्थमलीकं | कन्यालीकं तेन च लोकेऽतिगर्हितत्वादिहोपात्तेन सर्व मनुष्यजातिविषयमलीकमुपलक्षितं, एवं गवालीकमपि चतुष्पदजात्यलीकोपलक्षणं, भूम्यलीकमपदानां सचेतनाचेतनवस्तूनामलीकस्योपलक्षणं, न्यासो-द्रव्यस्य निक्षेपः, परैः समर्पितं द्रव्यमित्यर्थः, तस्यापहारः - अपल पर्न न्यासापहारः, तथा कूटम्-असद्भूतमसत्यार्थसंवादनेन साक्ष्यं साक्षिकर्म कूटसाक्ष्यं, कस्मिन्नित्याह-'सन्धिकरणे' द्वयोर्विवदमानयोः सन्धानकरणे, विवादच्छेद इत्यर्थः, इह च न्यासापहारादिद्वयस्य आद्यत्रयान्तर्भावेऽपि प्रधानविवक्षयाऽपह्नवसाक्षिदानक्रिययोर्भेदेनोपादानं द्रष्टव्यमिति । 'तेणाहडे' त्ति स्तेनाहृतं - चौरानीतं, तत्समर्धमिति लोभात्काणक्रयेण गृहतोऽतिचरति तृतीयव्रतमित्यविचारहेतुत्वात् स्तेनाहृतमित्यतिचार उक्तः, अतिचारता चास्य साक्षाचौर्यामवृत्तेः १, 'तक्करप्पओगे' त्ति तस्करप्रयोगचैौरव्यापारणं, 'हरत यूयम्' इत्येवमभ्यनुज्ञानमित्यर्थः, अस्याप्यतिचारतानाभोगादिभिरिति २, 'विरुद्धरज्जाइक्कमे' ति विरुद्ध नृपयो राज्यं तस्यातिक्रमः - अतिलवनं विरुद्धराज्यातिक्रमः, न हि ताभ्यां तत्रातिक्रमोऽनुज्ञातः, चौर्यबुद्धिरपि तस्य तत्र नास्तीति, अतिचारताऽस्यानाभोगादिना इति ३, 'कूडतुलकूडमाणे' ति तुला-प्रतीता मानं कुडवादि कूटत्वं न्यूनाधिकत्वं ताभ्यां न्यूनाभ्यां ददतोऽधिकाभ्यां गृहतो ऽतिचरति व्रतमिति अतिचारहेतुत्वादविचारः कूटतुलाकूटमानमुक्तः, अतिचारत्वं चास्यानाभोगादेः, अथवा 'नाहं चौरः क्षत्रखननादेरकरणात्' Education International उपासक दशाङ्गे ॥ ७ ॥ सम्यक्त्व एवं द्वादश व्रतानां अतिचार वर्णनं ~ 17~ आनन्दा ध्ययनं व्रतातिचारोपदेशः ॥ ७ ॥ way or Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], ------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: इत्यभिप्रायेण व्रतसापेक्षत्वात् ४, 'तप्पडिरूवगववहारे' चि तेन अधिकृतेन प्रतिरूपकं सदृशं तत्पतिरूपकं तस्य विविधमवहरणं । व्यवहारः-प्रक्षेपस्तत्प्रतिरूपकव्यवहारः, यद्यत्र घटते व्रीहिघृतादिषु पलञ्जीवसादि तस्य प्रक्षेप इतियावत् , तत्पतिरूपकेन वा वसादिना व्यवहरणं तत्प्रतिरूपकव्यवहारः, अतिचारता चास्य पूर्ववत् ५। 'सदारसन्तोसीए' ति खदारसन्तुष्टेरित्यर्थः, 'इत्तरियपरिग्गहिमायागमणे ति इत्वरकालपरिगृहीता कालशब्दलोपादित्वरपरिगृहीता-भाटीपदानेन कियन्तमपि कालं दिवसमासादिक स्ववशीकृतेत्यर्थः,10 तस्यां गमनं-मैथुनासेवनमित्वरपरिगृहीतागमनं, अतिचारता चास्यातिक्रमादिभिः १, 'अपरिग्गहियागमणे' ति अपरिगृहीता नाम वेश्या अन्यसत्कपरिगृहीतभाटिका कुलाङ्गना वा अनाथेति, अस्याप्यतिचारताऽतिक्रमादिभिरेव २, 'अणङ्गकीड' चि अनङ्गानिमैथुनकर्मापेक्षया कुचकुक्षोरुवदनादीनि तेषु क्रीडनमनङ्गक्रीडा, अतिचारता चास्य स्वदारेभ्योऽन्यत्र मैथुनपरिहारेणानुरागादालिङ्गन्नादि विदधतो व्रतमालिन्यादिति ३, 'परविवाहकरणे ति परेषाम्-आत्मन आत्मीयापत्येभ्यश्च व्यतिरिक्तानां विवाहकरणं परविवाहकरणं, अयमभिप्रायः-स्वदारसन्तोषिणो हि न युक्तः परेषां विवाहादिकरणेन मैथुननियोगोऽनर्थको विशिष्टविरतियुक्तत्वादित्येवमनाकलयतः परार्थकरणोद्यततयाऽतिचारोऽयमिति४ , कामभोगतिव्वाभिलासे ति कामौ शब्दरूपे भोगाः-गन्धरसस्पर्शास्तेषु तीब्राभिलाषः अत्यन्तं - तदध्यवसायितं कामभोगतीवाभिलाषः, अयमभिप्रायः स्वदारसन्तोषी हि विशिष्टविरतिमान् , तेन च तावत्येव मैथुनासेवा कर्तुमुचिता यावत्या वेदजनिता बाधोपशाम्यति, यस्तु वाजिकरणादिभिः कामशास्त्रविहितप्रयोगैश्च तामधिकामुत्पाद्य सततं सुरतसुखमिच्छति स |मैथुनविरतिव्रतं परमार्थतो मलिनयति, को हि नाम सकर्णकः पामामुत्पाद्याग्निसेवाजनितं सुखं वाञ्छेदिति अतिचारत्वं कामभोगतीवाभिलापस्येति ५। 'खेत्तवत्थुपमाणाइक्कमे त्ति क्षेत्रवस्तुनः प्रमाणातिक्रमः, प्रत्याख्यानकालगृहीतमानोल्लङ्घनमित्यर्थः,एतस्य चातिचार अनुक्रम REaantamana PRIMasturare.org | सम्यक्त्व एवं द्वादश व्रतानां अतिचार-वर्णनं ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], ------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: देशाङ्गे प्रत ॥८॥ सूत्राक त्वमनाभोगादिनाऽतिक्रमादिना वा, अथवा एकक्षेत्रादिपरिमाणकर्तुस्तदन्यक्षेत्रस्य वृत्तिप्रभृतिसीमापनयनेन पूर्वक्षेत्रे योजना क्षेत्रप्रमाणा-१ आनन्दातिक्रमोऽतिचार एव, व्रतसापेक्षत्वात्तस्येति १, 'हिरण्णसुवण्णपमाणाइक्कमे' चि प्राग्वत् , अथवा राजादेः सकाशाल्लब्धं हिरण्या- ध्ययनं यभिग्रहावधि यावदन्यस्मै प्रयच्छतः 'पुनरवधिपूत्तौ ग्रहीष्यामि इत्यध्यवसायवतोऽयमतिचारस्तथैवति २, 'धणधन्नपमाणाइक्कमे व्रतातित्ति अनाभोगादेः अथवा लभ्यमानं धनाद्यभिग्रहावधिं यावत्परगृह एव बन्धनबद्धं कृत्वा धारयतोऽतिचारोऽयमिति ३, 'दुपयचउप्प- चारोपदेशः यपमाणाइक्कमे त्ति अयमपि तथैव, अथवा गोवडवादिचतुष्पदयोपित्सु यथा अभिग्रहकालावधिपूतौ प्रमाणाधिकवत्सादिचतुष्पदोत्प-0 तिर्भवति तथा षण्ढादिकं प्रक्षिपतोऽतिचारोऽयं, तेन हि जातमेव वत्सादिकमपेक्ष्य प्रमाणातिक्रमस्य परिहृतत्वाद्गर्भगतापेक्षया तस्य सम्पनत्वादिति ४, कुवियपमाणाइक्कमे त्ति कुप्यं-गृहोपस्करःस्थालकबोलकादि, अयं चातिचारोऽनाभोगादिना, अथवा पश्चैव स्थालानि अपरिग्रहीतव्यानीत्याद्यभिग्रहवतः कस्याप्यधिकतराणां तेषां सम्पत्ती प्रत्येकं धादिमेलनेन पूर्वसन्यावस्थापनेनातिचारोऽय-13 ७) दीप अनुक्रम [१] मिति ५, आह च-"खेत्ताइहिरण्णाईधणाइदुषयाइकुप्पमाणकमे । जोयणपयाणवन्धणकारणभावेहि नो कुज्जा ॥१॥" दिग्वतं | शिक्षाब्रतानि च यद्यपि पूर्व नोक्तानि तथापि तत्र तानि द्रष्टव्यानि, अतिचारभणनस्यान्यथा निरवकाशता स्यादिहेति, कधमन्यथा प्रागुक्तं-“दुवालसविहं साक्गधम्म पडिवन्जिस्सामि" इति, कथं वा वक्ष्यति-'दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ'। इति, अथवा सामायिकादीनामित्वरकालीनत्वेन प्रतिनियतकालकरणीयत्वान्न तदैव तान्यसौ प्रतिपन्नवान् दिव्रतं च विरतेर-6॥८ | (१) क्षेत्रादिहिरण्याविधनादिविषदाविकृप्यमानक्रमान् । योजनप्रवानबन्धनकारण भावेः नो कुर्यात् ॥१॥ . FaPramamyam uncom | सम्यक्त्व एवं द्वादश व्रतानां अतिचार-वर्णनं ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], -------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक ७ि) भावाद् उचितावसरे तु प्रतिपत्स्यत इति भगवतस्तदतिचारचर्जनोपदेशनमुपपन्न, यचोक्त 'दादाविधं गृहिधर्म प्रतिपत्स्ये' यच्च * वक्ष्यति–'द्वादशविधं श्रावकधर्म प्रतिपद्यते तद् यथाकालं तत्करणाभ्युपगमनादनबद्यमवसेयमिति । तत्र 'उडदिसिपमाणाइक्कम त्ति, कचिदेवं पाठः, कचित्तु 'उदिसाइक्कमे 'त्ति, एते चोर्ध्वदिगाधतिक्रमा अनाभोगादिनाऽतिचारतयाऽवसेयाः१-३, खत्तबुद्धिति एकतो योजनशतपरिमाणमभिगृहीतमन्यतो दश योजनान्यभिगृहीतानि, ततश्च यस्यां दिशि दश योजनानि तस्यां दिशि समुत्पन्ने कार्य योजनशतमध्यादपनीयान्यानि दश योजनानि तत्रैव स्वबुद्धया प्रक्षिपति, संवर्धयत्येकत इत्यर्थः, अयं चातिचारो व्रतसापेक्षत्वादवसेयः ४, 'सइअन्तरद्ध' ति स्मृत्यन्तर्घा-स्मृत्यन्तर्धानं स्मृतिभ्रंशः 'किं मया व्रतं गृहीतं शतमर्यादया पश्चाशन्मर्यादया चा?' इत्येवमस्मरणे योजनशतमर्यादायामपि पञ्चाशतमतिकामतोऽयमतिचारोऽवसेय इति ५ । 'भोयणओ कम्मओ या चि भोजनतो-भोजनमाश्रित्य वाह्याभ्यन्तरभोजनीयवस्तून्यपेक्ष्येत्यर्थः, 'कर्मतः' क्रिया जीवनत्ति बाह्याभ्यन्तरभोजनीयवस्तुमाप्तिनिमित्तभूतामाश्रित्येत्यर्थः, 'सचित्ताहारे' ति सचेतनाहारः, पृथिव्यष्कायवनस्पतिकायजीवशरीरिणां सचेतनानामभ्यवहरणमित्यर्थः, अयं चातिचारः कृतसचित्ताहारपत्याख्यानस्य कृततत्परिमाणस्य वाऽनाभोगादिना प्रत्याख्यातं सचेतनं भक्षयतस्तद्वा प्रतीत्यातिक्रमादौ वर्तमानस्य १, 'सचित्तपडिबद्धाहारे' ति सचित्ते वृक्षादौ प्रतिबद्धस्य गुन्दादेरभ्यवहरणम् , अथवा सचित्ते-अस्थिके प्रतिवद्धं यत्पकमचेतनं खजूरफलादि तस्य सास्थिकस्य कटाहमचेतनं भक्षयिष्यामीतरत्परिहरिष्यामि इति भावनया मुखे क्षेपणमिति, एतस्य चातिचारत्वं व्रतसापेक्षत्वादिति २, 'अप्पडलिओसहिभक्खणय' ति अपकाया:-अग्निनाऽसंस्कृतायाः ओषधेः-- शाल्यादिकाया भक्षणता-भोजनमित्यर्थः, अस्याप्पतिचारताऽनाभोगादिनेव, ननु सचित्ता दीप अनुक्रम [९] Baitaram.org | सम्यक्त्व एवं द्वादश व्रतानां अतिचार-वर्णनं ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], ------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ध्ययन व्रताति उपासक- महारातिचारेणैव अस्य संगृहीतत्वात्कि भेदोपादानेनेति ?, उच्यते, पूर्वोक्तपृथिव्यादिसचित्तसामान्यापेक्षया ओषधीनां सदाभ्यवहरणी-१ आनन्दादशाङ्गे यत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थ, दृश्यते च सामान्योपादाने सत्यपि प्राधान्यापेक्षया विशेषोपादानमिति ३, 'दुप्पउलिओसाहिभक्खणया' ॥९॥ दुष्पकाः अग्निना (अर्धस्विन्ना) ओषधयस्तद्भक्षणता, अतिचारता चास्य पकबुद्धया भक्षयतः ३, 'तुच्छोसहिभक्खणय' त्ति तुच्छाः| असारा ओषधयः-अनिष्पन्नमुद्गफलीप्रभृतयः, तद्भक्षणे हि महती विराधना स्वल्पा च तत्कार्य(भूता) तृप्तिरिति विवेकिनाचित्वाशिना ता चारोपदेशः अचित्तीकृत्य न भक्षणीया भवन्ति, तत्करणेनापि भक्षणेऽतिचारो भवति, व्रतसापेक्षत्वात्तस्येति ५, इह च पञ्चातिचारा इत्युपलक्षणमात्रमेवावसेय, यतो मधुमद्यमांसरात्रिभोजनादिवतिनामनाभोगातिक्रमादिभिरनेके ते सम्भवन्तीति ॥ 'कम्मओ णमित्यादि, कर्मतो यदुपभोगवतं 'खरकर्मादिकं कर्म प्रत्याख्यामि' इत्येवंरूपं तत्र श्रमणोपासकेन पञ्चदश कर्मादानानि वर्जनीयानि, 'इङ्गालकम्मे ति अङ्गारकरणपूर्वकस्तद्विक्रयः, एवं यदन्यदपि वह्निसमारम्भपूर्वकं जीवनमिष्टकाभाण्डकादिपाकरूपं तदङ्गारकर्मेति ग्राह्य, समानस्वभावत्वात् , अतिचारता चास्य कृतैतत्प्रत्याख्यानस्यानाभोगादिना अत्रैव वर्तनादिति, एवं सर्वत्र भावना कार्या १, नवरं 'वनकर्म' बनस्पतिच्छेदनपूर्वकं तद्विक्रयजीवनं २, 'शकटकर्म' शकटानां घटनविक्रयवाहनरूपं ३, 'भाटककर्म' मूल्यार्थं गन्व्यादिभिः परकीयभाण्डवहनं ४, 'स्फोटकर्म' कुद्दालहलादिभिर्भूमिदारणेन जीवनं ५, 'दन्तवाणिज्य हस्तिदन्तशङ्गपूतिकेशादीनां तत्कर्मकारिभ्यः क्रयेण तद्विक्रयपूर्वकं जीवनं ६, लाक्षावाणिज्यं सञ्जातजीवद्रव्यान्तरविक्रयोपलक्षणं ७, 'रसवाणिज्य' सुरादिविक्रयः ८, विषवाणिज्यं जीवघातप्रयोजनशस्त्रादिविक्रयोपलक्षणं ९, 'केशवाणिज्य केशवतां दासगवोष्ट्रहस्त्यादिकानां विक्रयरूपं १०, 'यन्त्रपीडनकर्म' यन्त्रेण तिलेशुपभृतीनां यत्पीडनरूपं कर्म तत् ११, तथा 'निर्लाञ्छनकर्म' वर्धितककरणं १२, अनुक्रम Saintairab JANTA For Pro | सम्यक्त्व एवं द्वादश व्रतानां अतिचार-वर्णनं ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], ------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक ७ि) दीप दवाग्नेः-वनाग्नेर्दान-वितरणं क्षेत्रादिशोधननिमित्तं दवाग्निदानमिति १३, 'सरोन्हदतडागपरिशोषणता' तत्र सरः-स्वभावनिपन्ननदो नद्यादीनां निम्नतरः प्रदेशः तडाग-खननसम्पन्नमुत्तानविस्तीर्णजलस्थानं एतेषां शोषण गोधूमादीनां वपनार्थ१४, 'असतीजनपोषणता' असतीजनस्य-दासीजनस्य पोषणं तदाटिकोपजीवनाथ यत्तत् तथा,एक्मन्यदपि क्रूरकर्मकारिणः पाणिनः पोषणमसतीजनपोषणमेवेति१५ । 'कन्दप्पेति कन्दर्पः-कामस्तद्धेतुर्विशिष्टो वाक्मयोगोऽपि कन्दर्प उच्यते, रागोद्रेका महासमिनं मोहोदीपक नर्मेति भावः, अयं चातिचारः प्रमादाचरितलक्षणानर्थदण्डभेदव्रतस्य सहसाकारादिनेति १, 'कुकुइए' ति कौत्कुच्यम् अनेकप्रकारा मुखनयनादिविकारपूर्विका परिहासादिजनिका भाण्डानामिव विडम्बनक्रिया, अयमपि तथैव २, मोहरिए' तिमौखर्य धाष्टप्रायमसत्या• सम्बद्धमलापित्वमुच्यते, अयमतिचारः प्रमादब्रतस्य पापकर्मोपदेशव्रतस्य वाऽनाभोगादिनैव ३, 'संजुत्ताहिगरणे' ति संयुक्तम् अर्थकियाकरणक्षममधिकरणम्-उदूखलमुशलादि, तदतिचारहेतुत्वादतिचारो हिंस्रपदाननिवृत्तिविषयः, यतोऽसौ साक्षायद्यपि हिंस्रं शकटादिकं न समर्पयति परेषां तथापि तेन संयुक्तेन तेऽयाचित्वाऽप्यर्थक्रियां कुर्वन्ति, विसंयुक्त तु तस्मिंस्ते स्वत एव विनिवारिता भवन्ति ४, 'उवभोगपरिभोगाइरित्ते' त्ति उपभोगपरिभोगविषयभूतानि यानि द्रव्याणि स्नानप्रक्रमे उष्णोदकोद्वर्तनकामलकादीनि भोजनमत्रमे अशनपानादीनि तेषु यदतिरिक्तम्-अधिकमात्मादीनामर्थक्रियासिद्धावप्यवशिष्यते तदुपभोगपारभोगातिरिक्तं, तदुपचारादतिचारः, तेन ह्यात्मोपभोगातिरिक्तेन परेषां स्नानभोजनादिभिरनर्थदण्डो भवति, अयं च प्रमादब्रतस्यैवातिचार इति ५ । उक्ता गुणवतातिचाराः, अथ शिक्षावतानां तानाह-'सामाइयस्स' ति समो-रागद्वेषवियुक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत्पश्यति तस्य आय:प्रतिक्षणमपूर्वापूर्वज्ञानदर्शनचारित्रपर्यायाणां निरुपमसुखहेतुभूतानामधाकृतचिन्तामणिकल्पद्रुमोपमानां लाभः समायः सः प्रयो अनुक्रम Saintaintingana funaturanorm | सम्यक्त्व एवं द्वादश व्रतानां अतिचार-वर्णनं ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], -------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: उपासक- दशाङ्गे ध्ययन ॥१०॥ 303066003 जनमस्यानुष्ठानस्येति सामायिकं तस्य-सावद्ययोगनिषेध रूपस्य निरवद्ययोगप्रतिषेधस्वभावस्य च 'मणदुप्पणिहाणे' ति मनसो आनन्दादुष्टं प्रणिधानं प्रयोगो मनोदुष्पणिधानं कृतसामायिकस्य गृहेतिकर्तव्यतायां सुकृतदुष्कृतपरिचिन्तनमिति भावः १, 'वयदुप्पणि-153 हाणे' त्ति कृतसामायिकस्य निष्ठुरसावधवाक्मयोगः २, 'कायदुप्पणिहाणे' ति कृतसामायिकस्याप्रत्युपेक्षितादिभूतलादौ करच- व्रतातिरणादीनां देहावयवानामनिभृतस्थापन मिति ३, 'सामाइयस्स सइअकरणय' ति सामायिकस्य सम्बन्धिनी या स्मृतिः अस्यां चारोपदेशः बेलायां मया सामायिक कर्तव्यं, तथा कृतं तन्न वा इत्येवंरूपं स्मरणं, तस्याः प्रबलप्रमादतयाऽकरणं स्मृत्यकरणं ४, "अणवद्वियस्स करणय' ति अनवस्थितस्य अल्पकालीनस्यानियतस्य वा सामायिकस्य करणमनवास्थितकरणम् , अल्पकालकरणानन्तरमेव त्यजति यथाकथश्चिद्रा तत्करोतीति भावः ५, इह चावत्रयस्यानाभोगादिनातिचारत्वम् इतरद्वयस्य तु प्रमादबहुलतयेति ।। 'देसावगासियस्स' त्ति दिग्ब्रतगृहीतदिपरिमाणस्यैकदेशो देशस्तस्मिन्नवकाशो-गमनादिचेष्टास्थानं देशावकाशस्तेन निर्वृत्तं देशा काशिक-पूर्वगृहीतदिग्वतसाङ्केपरूपं सर्वव्रतसङ्केएरूपं चेति, 'आणवगप्पओगे' त्ति इह विशिष्टावधिके भूदेशाभिग्रहे परतः स्वयं-| गमनायोगाद्यदन्यः सचित्तादिद्रव्यानयने प्रयुज्यते सन्देशकप्रदानादिना त्वयेदमानेयम् इत्यानयनप्रयोगः १, 'पेसवणप्पओगे' बलाद्विनियोज्यः प्रेष्यस्तस्य प्रयोगो, यथाभिगृहीतप्रविचारदेशव्यतिक्रमभयात् "त्वयाऽवश्यमेव तत्र गत्वा मम गवाघानेयं इदं वा तत्र कर्तव्यम्" इत्येवंभूतः प्रेष्यप्रयोगः २, 'सद्दाणुवाए' ति स्वगृहवृत्तिप्राकाराद्यवच्छिन्नभूप्रदेशाभिग्रहे बहिः प्रयोजनोत्पत्तौ तत्र स्वयंगमनायोगाद्वृत्तिप्राकारादिप्रत्यासन्नवर्तिनो बुद्धिपूर्वकं तमभ्युत्काशितादिशब्दकरणेन समवसितकान बोधयतः शब्दानुपातः, शब्दस्थानुपातनम्-उच्चारणं तादृग्येन परकीयश्रवणविवरमनुपतत्यसाविति ३, रुवाणुवाए' ति अभिगृहीतदेशावहिः प्रयोजनभावे शब्द अनुक्रम [९] SAREairatS and | सम्यक्त्व एवं द्वादश व्रतानां अतिचार-वर्णनं ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [s] अध्ययन [ १ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... “उपासकदशा” - अंगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्ति:) - El मनुच्चारयत एव परेषां स्वसमीपानयनार्थ स्वशरीररूपदर्शनं रूपानुपातः ४ 'बहिया पोरंगेल पक्खेवे' ति अभिगृहीतदेशादहिः प्रयोजनसद्भावे परेषां प्रबोधनाय लेष्टादिपुद्गलप्रक्षेप इति भावना ५, इह चाद्यद्वयस्यानाभोगादिनाऽतिचारत्वं इतरस्य तु त्रयस्य व्रतसापेक्षत्वादिति । 'पोसहोववासस्स' त्ति इह पोषधशब्दोऽष्टम्यादिपर्वसु रूढः, तत्र पोषधे उपवासः पोषधोपवासः, स चाहाराॐ दिविषयभेदाचतुर्विध इति तस्य, 'अप्पडिलेहिये 'त्यादि अमत्युपेक्षितो - जीवरक्षार्थं चक्षुषा न निरीक्षितः 'दुष्प्रत्युपेक्षित:' उद्धान्तचेतोटा चितयाऽसम्यग्निरीक्षितः शय्या शयनं तदर्थे संस्तारकः - कुशकम्बलफलकादिः शय्यासंस्तारकः ततः पदत्रयस्य कर्मधारये भवत्यप्रत्युपेक्षितदुष्पत्युपेक्षितशय्यासंस्तारकः, एतदुपभोगस्यातिचारहेतुत्वादयमतिचार उक्तः १, 'एवमप्रमा. |र्जितदुष्प्रमार्जितशय्या संस्तारकोऽपि ' नवरं प्रमार्जनं वसनाञ्चलादिना २, एवमितरौ द्वौ नवरमुञ्चारः-पुरीषं, स्रवणं, मूत्रं तयोर्भूमिः स्थण्डिलम् ३, ४, एते चत्वारोऽपि प्रमादितयाऽतिचाराः, 'पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालयति ॐ कृतपोषधोपवासस्यास्थिरचित्ततयाऽऽहारशरीरसत्काराब्रह्मव्यापाराणामभिलषणादननुपालना पोषधस्येति, अस्य चातिचारत्वं भावतो विरतेर्बाधितत्वादिति ॥ 'अहासंविभागस्से'ति अहात्ति - यथासिद्धस्य स्वार्थे निर्वर्तितस्येत्यर्थः, अशनादेः समिति-सङ्गतत्वेन पश्चात्कर्मादिदोषपरिहारेण विभजनं साधवे दानद्वारेण विभागकरणं यथासंविभागः तस्य, 'सचित्तनिक्खिवणये'ॐ त्यादि सचित्तेषु श्रीह्मादिषु निक्षेपणमनादेरदानबुद्ध्या मातृस्थानतः सचित्तनिक्षेपणं १, एवं सचित्तेन फलादिना स्थगनं सचि तपिधानं २, 'कालातिक्रमः' कालस्य-साधुभोजनकालस्यातिक्रमः उल्लङ्घनं कालातिक्रमः, अयमभिप्रायः, - कालमूनमधिकं वा ज्ञात्वा साधवो न ग्रहीष्यन्ति ज्ञास्यन्ति च यथाऽयं ददाति एवं विकल्पतो दानार्थमभ्युत्थानमतिचार इति ३, तथा 'परव्यपदेश:" For Par Lise Only national मूलं [७] ...आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] " उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः सम्यक्त्व एवं द्वादश व्रतानां अतिचार वर्णनं ~ 24~ nary org Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], ------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [ob], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: उपासक- दशाङ्गे ॥११॥ परकीयमेतत् तेन साधुभ्यो न दीयते इति साधुसमक्ष भणनं, जानन्तु साधयो यद्यस्यैतद्भक्तादिकं भवेत्तदा कथमस्मभ्यं न दद्याद् आनन्दाइति साधुसम्पत्ययार्थम् भणनं, अथवा अस्मादानान्मम मात्रादेः पुण्यमस्त्विति भणनमिति ४, 'मत्सरिता' अपरेणेदं दत्तं किमहं | ध्ययन तस्मादपि कृपणो हीनो वा अतोऽहमपि ददामि इत्येवरूपो दानप्रवर्तकविकल्पो मत्सरिता ५, एते चातिचारा एव, न भङ्गाः, दानार्थ- ब्रतातिमभ्युत्थानाद् दानपरिणतेश्च दूषितत्वाद, भङ्गस्वरूपस्य चेहैवमभिधानाद् , यथा-दाणन्तरायदोसा न देइ दिजन्तयं च वारेइ चारोपदेशः दिण्णे वा परितप्पइ इति किवणता भवे भङ्गो ॥१॥ आवश्यकटीकायां हि न भङ्गातिचारयोर्विशेषोऽस्माभिरवयुद्धा, केवलमिह - भङ्गाद्विवेकं कुर्वद्भिरस्माभिरतिचारा व्याख्याताः सम्पदायात् नवपदादिषु तथा दर्शनात्,-जारिसओ जइभेओ जह जायइ जहेव तत्थ दोसगुणा । जयणा जह अइयारा भङ्गा तह भावणा नेया ॥२॥ इत्यस्या आवश्यकचूण्यां पूर्वगतगाथाया दर्शनात्, अतिचारशब्दस्य सर्वभङ्गे प्रायोऽप्रसिद्धत्वाच्च, ततो नेदं शङ्कनीयं य एतेऽतिचारा उक्तास्ते भङ्गा एवेति, तथा य एते प्रतिव्रतं पञ्च पश्चातिचारास्त उपलक्षणमतिचारान्तराणामवसेया न त्ववधारणं, यदाहुः पूज्याः- “पञ्च पञ्चाइयारा उ, सुत्तम्मि जे पदसिया ।। ते नावहारणट्ठाए, किन्तु ते उवलक्खणं ॥१॥" इति । इदं चेह तत्त्वं यत्र व्रतविषयेऽनाभोगादिनाऽतिक्रमादिपदत्रयेण वा स्वबुद्धि ॥ ११॥ कल्पनया वा व्रतसापेक्षतया ब्रतविषयं परिहरतः प्रवृत्तिः सोऽतिचारो, विपरीततायां तु भङ्गः, इत्येवं सङ्कीणातिचारपदगमनिका - अनुक्रम १दानान्तरापदोपात न ददाति वदतं च धारयति । दत्ते वा परित पति इति रुपणवार भवनङ्गः ॥१॥ २ याहशो पतिभेदी यथा जायते यथा च दोषगुणाः । यतना यथातिचारा भङ्गास्तथा भावना ज्ञेया ॥२॥ ३ पञ्च पञ्चातिचारास्तु सूत्रे ये प्रदर्शिताः। ते नावधारणार्थं किन्तु ते उपलक्षणम् ॥३॥ | सम्यक्त्व एवं द्वादश व्रतानां अतिचार-वर्णनं ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], ------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [ob], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक ७ि) कार्या । अथ सर्वविरतावेवातिचारा भवन्ति, देशविरतौ तु भङ्गा एव, यदाह-"सब्वेऽवि य अइयारा सञ्जलणाणं तु उदयओ हुन्ति । मूलच्छेज पुण होइ बारसहं कसायाणं ॥१॥” अत्रोच्यते, इयं हि गाथा सर्वविरतावेवातिचारभङ्गोपदर्शनार्था, न देशविरत्यादिभगन्दर्शनार्था, तथैव वृत्ती व्याख्यातत्वात् , तथा सञ्चलनोदयविशेषे सर्वविरतिविशेषस्यातिचारा एव भवन्ति, न मूलच्छेदः, प्रत्याख्यानावरणादीनां तूदये पश्चानुपूया सर्वविरत्यादीनां मूलतः छेदो भवतीत्येवंभूतव्याख्यानान्तरेऽपि न देशविरत्यादावतिचाराभावः सिध्यति, यतो यथा संयतस्य चतुर्थानामुदये यथाख्यातचारित्रं भ्रश्यति इतरचारित्रं सम्यक्त्वं च सातिचारमुदयविशेषानिरतिचारं च भवतीति एवं तृतीयोदये सरागचरणंभ्रश्यति देशविरतस्य तु देशविरतिसम्यक्त्वे सातिचारे निरतिचारेच प्रत्येकं तथैव स्याता, द्वितीयोदये देशविरतिभ्रश्यति, सम्यक्त्वं तु तथैव द्विधा स्यात्, प्रथमोदये तु सम्यक्त्वं भ्रश्यतीति, एवं चैतत् , कथमन्यथा सम्यक्त्वातिचारेषु दैशिकेषु प्रायश्चित्तं तप एव निरूपित, साविकेषु तु मूलमिति, अथानन्तानुबन्ध्यादयो द्वादश कषायाः सर्वघातिनः सञ्ज्वलनास्तु देशघातिन इति, ततश्च सर्वघातिनामुदये मूलमेव, देशघातिनां त्वतिचार इति,सत्यं,किन्तु थदेतत्सर्वघातित्वं द्वादशानां कषायाणां तत्सर्वविरत्यपेक्षमेव शतकचूर्णिकारेण व्याख्यातं, न तु सम्यक्त्वाद्यपेक्षमिति, तथा हि तद्वाक्यं-"भगवर्षणीयं पश्चमहब्बयमइयं अट्ठारसीलङ्गसहस्सकलियं चारित्तं घाएन्ति त्ति सच्यघाइणो" ति। किश्च-भागुपदर्शितायाः 'जारिसओ' इत्यादिगाथायाः सामर्थ्यादतिचारभङ्गो देशविरतिसम्यक्त्वयोः प्रतिपत्तव्याधिति 'अपच्छिमे' त्यादि- पश्चिमैवापश्चिमा मरण-प्राणत्यागलक्षणं तदेवान्तो मरणान्तः तत्र भवा दीप अनुक्रम १ सर्वेऽपि चातचाराः संज्यलमानासदयतो भवन्ति । मूलच्डेय पुनर्भवति द्वादशानां कषायाणाम् ॥१॥ २ भगवत्प्रणीतं पश्चमहानतमयं अष्टादशशीलामसहनकलितं चारित्रं घातयन्तीति सर्वघातिन इति । SAREauratonion anditurary.com | सम्यक्त्व एवं द्वादश व्रतानां अतिचार-वर्णनं ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], ------- मूलं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: उपासक- दशाङ्गे प्रत सूत्राक (७) मारणान्तिकी संलिख्यते-कृशीक्रियते शरीरकपायाद्यनयेति संलेखना-पोविशेषलक्षणा ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः तस्या जोषणा-सेवना तस्या आराधना, अखण्डकालकरणमित्यर्थः, अपश्चिममारणान्तिकसलेखनाजोषणाराधना, तस्याः, 'इहलोगे- ध्ययन त्यादि, इहलोको-मनुष्यलोकः तस्मिन्नाशंसा-अभिलप्मः तस्याः प्रयोग इहलोकाशंसापयोगः, श्रेष्ठी स्यां जन्मान्तरेऽमात्यो वा व्रताति| इत्येवंरूपा प्रार्थना १ एवं परलोकाशंसाप्रयोगो 'देवोऽहं स्याम्' इत्यादि २, 'जीविताशंसाप्रयोगो' जीवित-पाणधारणं चारोपदेशः तदाशंसायाः--तदभिलापस्य प्रयोगो, यदि 'बहुकालमहं जीवेयम्' इति । अयं हि संलेखनावान्कविद्वस्त्रमाल्यपुस्तकवाचनादिपूजादर्शनाबहुपरिवारावलोकनालोकश्लाघाश्रवणाचैवं मन्येत, यथा 'जीवितमेव श्रेयः, प्रतिपन्नानशनस्यापि यत एवंविधा मदुद्देशेन । विभूतितेते' इति ३, 'मरणाशंसाप्रयोगः' उक्तस्वरूपपूजाद्यभावे भावयत्यसौ यदि 'शीघ्र म्रियेऽहम्' इतिस्वरूप इति ४, कामभोगाशंसाप्रयोगो “यदि मे मानुष्यकाः कामभोगा दिव्या वा सम्पद्यन्ते तदा साधु" इति विकल्परूपः ५॥ तए णं मे आणन्दे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए पश्चाणुवइयं सनसिक्खावश्यं दुवालसविहं । सावयधम्म पडिवजइ २ ता समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ २ चा एवं वयासी-"नो खलु मे भन्ते ! कप्पइ अन्जपमिदं अन्नउस्थिए वा अन्नउस्थियदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहंतचेइयाणि वा वन्दित्तए वा नमंसिनए वा, पुर्वि अणालतेणं आलविनए वा संलविनए बा, तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा, नन्नाथ रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकन्तारेणं । दीप अनुक्रम andomurary.org | सम्यक्त्व एवं द्वादश व्रतानां अतिचार-वर्णनं ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [C] दीप अनुक्रम [१०] “उपासकदशा” - अंगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्ति:) - अध्ययन [ १ ], मूलं [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. ..आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Educator | कप्पड़ मे समणे निंग्गन्थे फागुएणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिंग्गहकम्बल पायपुञ्छणेणं पीढ । फलयसिज्जासंथारपणं ओसहमे सज्जेण य पडिला भेमाणस्स विहरितनिक इमं एयारूवं अभिग्ग अभिगिव्ह २त्ता परिणाई पुच्छ २ ता अट्ठाई आदि २ ना समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वन्दद्द २ ना समणस्स भगवओं महावीरस्स अन्तियाओं दृइएलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ २ चा जेणेव वाणियगामे नयरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छङ २ ना सिवानन्दं भारियं एवं क्यासी एवं खलु देवाणुप्पिए । मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्ति धम्मे निसन्तं मेऽवि य धम्मे मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, तं गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिए ! मम भगवं महावीरं वन्दाहि जाव पज्जुवासाहि, समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए पञ्चाणुवइयं सत्तसिक्खा| इयं दुवासविहं गिहिधम्मं परिवज्जाहि ॥ ८ ॥ 'नो खलु' इत्यादि, नो खलु मम 'भदन्त !' भगवन्! 'कल्पते' युज्यते' अद्यप्रभृति 'इतः सम्यक्त्वप्रतिपत्तिदिनादारभ्य निरतिचारसम्यक्त्व परिपालनार्थं तयतनामाश्रित्य 'अन्नउन्थिएव ' त्ति जैनयधाद् यदन्यद् यूयं सङ्घान्तरं तीर्थान्तरमित्यर्थः तदस्ति येषां तेऽन्ययूथिका:- चरकादिकुतीर्थिकाः तान्, अन्ययूथिकदेवतानि वा- हरिहरादीनि अन्ययूथिकपरिगृहीतानि वा चैत्यानि - अर्हत्मतिमालक्षणानि, यथा भौतपरिगृहीतानि वीरभद्रमहाकालादीनि 'वन्दितुं वा' अभिवादनं कर्तुं 'नमस्कर्तुं वा' प्रणामपूर्वकं प्रशस्तध्वनिभिर्गुणोत्कीर्तनं कर्तु तद्भक्तानां मिथ्यात्व स्थिरीकरणादिदोषप्रसङ्गादित्यभिप्रायः, तथा पूर्व - प्रथममनालशेन सता अन्यती For Par Use Only ~ 28~ dansara.org Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [<] दीप अनुक्रम [१०] अध्ययन [ १ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... उपासकदशाङ्गे ॥ १३ ॥ “उपासकदशा” अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [८] ..आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] " उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः - ॐ थिंकैः तानेव 'आलपितुं वा' सकृत्सम्भाषितुं 'संलपितुं वा पुनः पुनः संलापं कर्तु यतस्ते तततरायोगोलकल्याः खल्वासनादिक्रियायां नियुक्ता भवन्ति, नत्प्रत्ययश्च कर्मबन्धः स्यात्, तथाऽऽलापादेः सकाशात्परिचयेन तस्यैव तत्परिजनस्य वा मिध्यात्वप्राप्तिरिति प्रथमालप्तेन त्वसम्भ्रमं लोकापवादभयात् कीदृशस्त्वम्" इत्यादि वाच्यमिति, तथा ' तेभ्यः' अन्ययूधिकेभ्योऽशनादि ॐ दातुं वा सत्, अनुप्रदातुं वा पुनः पुनरित्यर्थः, अयं च निषेधो धर्मबुद्धयैव, करुणया तु दद्यादपि किं सर्वथा न कल्पत इत्याह- 'नन्नत्थ रायाभिगणं' ति 'न' इति न कल्पत इति योऽयं निषेधः सोऽन्यत्र राजाभियोगात्, तृतीयायाः पञ्चम्यर्थॐ त्वाद् राजाभियोगं वर्जयित्वेत्यर्थः, राजाभियोगस्तु - राजपरतन्त्रता, गणः -समुदायस्तदभियोगो-पारवश्यता गणाभियोगस्तस्मात् . वलामियांगो नाम- राजगणव्यतिरिक्तस्य बलवतः पारतन्त्र्यं देवताभियोगो - देवपरतन्त्रता, गुरुनिग्रहां मातापितृपारवश्यं गुरूणां वा चैत्यसाधूनां निग्रहः- प्रत्यनीककृतोपद्रवो गुरुनिग्रहः तत्रोपस्थिते तद्रक्षार्थमन्ययूथिकादिभ्यो दददपि नातिक्रामनि सम्यक्त्वमिति, 'वित्तिकन्तारेणं' ति वृत्तिः - जीविका तस्याः कान्तारम् - अरण्यं तदिव कान्तारं क्षेत्र कालो वा वृत्तिकान्तारं, निर्वाहाभाव इत्यर्थः, तस्मादन्यत्र निषेधो दानमणामादेरिति प्रकृतमिति, 'पडिग्गहं' ति पात्रं 'पीढ' ति पट्टादिकं 'फलगं' ति अवष्टम्भादिकं फलकं 'मसज्ज' ति पथ्यं 'अट्ठाई' ति उत्तरभूतानर्थानाददाति ॥ ( सू० ८ ) तपणं सा सिवानन्दा भारिया आणन्देणं समणांवामपणं एवं बुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा कोडुम्बियपुरिस सदावेद २ ना एवं वयासी खिप्पामेव लहुकरण जाव पज्जुवासद, तए णं समणे भगवं महावीरे सिवानन्दाए तीसे य महद्दः जाव धम्मं कहेइ, तए णं सा सिवानन्दा समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए धम्मं सोचा निसम्म हट्टु जाव For Penal Use Only आनंदस्य भार्या शिवानंदाया: धर्मश्रवण एवं व्रतस्विकार ~ 29~ १ आनन्दा ध्ययनं ॥ १३ ॥ nary org Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], -------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक (१) गिहिधम्म पडिवज्जइ . ना तमव धम्मियं जाणप्पवर दुरुह २ ना जामेव दिसि पाउब्भूया तामेव दिसिं पिडिगया ॥ मू०५॥ 'लहुकरण' इत्यत्र यावत्करणात् 'लहुकरणजुत्तजोइयमित्यादियांनवर्णको व्याख्यास्यमानसप्तमाध्ययनादवसेयः ।। (सू०९) भन्ते ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ २ ला एवं बयासी-पहू णं भन्ते ! आणन्दे समणोवासए देवाणुप्पियाण अन्तिए मुण्डे जाव पवइनए ?. नो तिणटे ममद्रु, गोयमा ! आणन्दे णं समणोरासए रहूई वासाई मभणीवारगपरियागं पाउणिहिइ २ ना जाव मोहम्म कप्पे अनणे विमाणे देवताए उववजिहिइ । तत्थ णं अथगडाणं देवाणं चत्तारि पलिओक्माई दिई पष्णनानाथ णं आणन्दस्सऽवि समणोवामगस्म चनारि पलि ओवमाठिई पणना नए णं समणे भगवं! महावी अन्नया कार बहिया जाय विहरद ॥ मगर | 100तएणं से आणन्दे समोवासए जाए अभिगयजीवाजीचे जाव पडिलांभमाणे विहरद । तए णं मा सिवानन्दा भानिया समणोचामिया मारा जाय पडिलाभमाणी विहरइ । मू० ॥ तए णं तस्म आणदस्स हारवालास माराहि मीलवगुणंदमणपचक्याणपासहोवदामोहि अप्पाणं सांत्रमाणस्स चोइस संवच्छतहकलाई समल्स मंचच्छरस्म अन्तरा वट्टमाणस्म अनश कयाइ पुरानावरनकालसयसि बाजागारियं जागरमाणम गयारूद बल्झथिए चिन्तिा पत्थिामणोगए मप ममप्पजिन्या-एवं दीप अनुक्रम [११] FaPranaamvam ucom ~ 30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [१०-१२] दीप अनुक्रम [१२-१४] अध्ययन [ १ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. उपासक दशा ।। १४ ।। “उपासकदशा” - अंगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) Eucation! आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] लु अहं वाणियगामे नरे बगर जावसयत्सवि य णं कुडुम्बरस जाव आधारे, तं एएणं विक्संवेणं अहं को संचामि सगणस्म भगव महावीरस्म अन्तियं धम्मपष्णत्तिं उवसम्पजित्ना णं विहरिए । तं सेयं खलु ममं क जाव जलते विले असणं जहा पूरणो जाव हत्तं कुडुम्बे ठवेत्ता तं मित्तं जाव जेथुनं व आपुच्छिता कोल्लाए सन्नियमे नायकुलसि पोसनाले पडिलेहिना समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्मपष्णत्तिं उवसम्पजिना विहरिए । एवं सम्पति जिमियतरागएतं मित्त जाव विउलेणं पुप्फ ५ सकारेड ● सन्माणे २ तानेव भिन जान पुर्ण साधना एवं क्यासी एवं खलु पुना ! अहं वाणियगांमे मूलं [१०-१२] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः 絢 बहू राईसर जहां चिन्ति जाय विहरिए सेयं खलु मम दाणिं तुमं सस्स कुडुम्बस आलम्बणं ४ उवत्ता जाव विहनिए । तए णं पुरे आणन्दरस समणोवासगस्स वहति एयम विणणं परिणे । तए णं से आणन्दे समणीवास तसेच मित्त जाव पुरओ जेपु कुटुम्बे ठवे २ ता एवं वयासी मा णं देवाणुप्पिया ! * तुभे अजप्पभिर्ड के मम बहुमु कज्जेस जाय आपुच्छर वा पडिपुच्छउ वा ममं अट्टाए असणं वा ४ उवक्खडेउ वा उवेंकरेज वा । तए णं से आणन्दे समणोवास जेटुपुर्ण निनाई आपूछनी सर्यााओ गिहाओ पडिणिक्खमइ २ ता वाणियगामं नयम मझेणं निगच्छ २ ना जेणेव कोल्लाए सनिये से जेणेव नायकुले जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छना पोसहसाले पमज्जह २ ना उच्चारणसंवर्णभूमिं पडिलेहेद २ नामसंयायं For Parts Only ~ 31~ १ आनन्दाध्ययनं ॥ १४ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], ------ मूलं [१०-१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०-१२ दीप अनुक्रम [१२-१४] संथरइ, दम्भसंथारयं दुरूहइ २ ना पोसहसालाए पोसहिए दम्भसंथारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्मपण्णत्तिं उचसम्पज्जिता णं विहरइ ॥ सू०१२॥ - महावीरस्स अन्तियति अन्ते भवा आन्तिकी महावीरसमीपाभ्युपगतेत्यर्थः तां 'धम्मपण्णत्ति'ति धर्मपज्ञापनामुपसम्पय अङ्गीकृत्यानुष्ठानद्वारमः 'जहा पूरणोत्ति भगवत्यभिहितो बालतपस्वी स यथा स्वस्थाने पुत्रादिस्थापनमकरोत् तथाऽयं कृतवानित्यर्थः । एवं चासौ कृतवान 'विउलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडावित्ता मित्तनाइनियगसम्बन्धिपरिजणं आमन्तेत्ता तं मित्तनाइनियगसम्बन्धिपरिजणं विउलेणं ४ वत्थगन्धमल्लालङ्कारेण य सकारत्ता सन्माणेत्ता तस्सेव मित्तनाइनियगसम्बन्धिपरिजणस्स पुरओ जेट्टपुत्तं कुड़म्बे ठावे ठावित्त'नि मायकुलसित्ति स्वजनगृहे । 'उवक्खडेउति उपस्करोतु-राध्यतु, 'उवकरेउ ति | उपकरोतु, सिद्धं सद् द्रव्यान्तरः कृतोपकारम्-आहितगुणान्तरं विदधातु (म.१२) | तए ण मे आणन्दे ममणोवासए उवासगपडिमाओ उवसम्पजित्ता णं विहरइ, पढम उवासगपडिमं अहासुनं अहाकप्पं अहाभग्गं अहातचं सम्म कारणं फासेइ पालेइ सोहेइ तीरेइ किनेइ आराहेद ॥ तए णं मे आणन्दे सम-1 णोबासए दाचं उवामगपडिमं, एवं तचं चार्थ पञ्चमं छ, मत्तमं अट्ठमं नवमं दसम एक्कारसमं जाव आराहेइ॥ सू.१३॥ 'पढमति एकादशानामायामुपासकातिमा-श्रावकोचिनाभिग्रहविशेषरूपामुपसम्पद्य विहरति, तस्याश्वेद स्वरूपम् 'सङ्कगदि१ शङ्कादिशल्यचिरहितमम्गदर्शनयुक्तस्तु यो जन्तुः । झोपरणविप्रमक एषा खल भवति प्रथमा तु ॥१॥ SANEauratonhand ForParuaaTINUEom आनदश्रावकस्य “११-श्रावकप्रतिमा"- स्वीकार ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१५] अध्ययन [ १ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... “उपासकदशा” अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) Jan Eratur - उपासक १ आनन्दा दशाङ्गे ॥ १५ ॥ सहविरहियसम्मसणजुओ उ जो जन्तू। सेसमुपविष्पमुको एसा खलु होइ पढमा उ ॥ १ ॥ सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तिथ तस्य पूर्वमप्यासीत्, केवलमिह शङ्कादि दीपराजाभियोगाद्यपवाद वर्जितत्वेन तथाविधसम्यग्दर्शनाचारविशेषपालनाभ्युपगमेन च प्रतिमात्वं ध्ययनं सम्भाव्यते, कथमन्यथाऽसावेकमासं प्रथमायाः प्रतिमायाः पालनेन हाँ मासौ द्वितीयायाः पालनेन एवं यावदेकादशमासानेकादयाः पालनेन पञ्च साधोनि वर्षाणि पूरितवानित्यर्थतो वक्ष्यतीति न चायमर्थो दशाश्रुतस्कन्धादावुपलभ्यते, श्रद्धामात्ररूपाॐ वास्तत्र तस्याः प्रतिपादनात्, 'अहासुतं ति सूत्रानतिक्रमेण 'यथाकल्प' प्रतिमाचारानतिक्रमेण 'यथामार्ग' क्षायोपशमिकभावानतिक्रमेण 'अहातचं 'ति यथातत्त्वं दर्शनप्रतिमेतिशब्दस्यान्वर्थानतिक्रमेण 'फासइति सृशति प्रतिपत्तिकाले विधिना प्रतिपत्तेः ॐ 'पाले 'ति रुततोपयोगप्रति जागरणेन रक्षति 'सोहेइ'त्ति शोभयति गुरुपूजापुरस्सरपारणकरणेन शोधयति वा निरतिचारतया 'तीरेश 'ति पूर्णेऽपि कालावधावनुबन्धात्यागात् 'कर्तियति' तत्समाप्तौ इदमिदं चेहादिमध्यावसानेषु कर्त्तव्यं तच्च मया कृतमिति कीर्तनात् 'आराधयति' एभिरेव प्रकारैः सम्पूर्णेनिष्ठां नयतीति ॥ 'दोचं 'ति द्वितीयां व्रतप्रतिमाम् । इदं चास्याः स्वरूपम् -'दंसणपडिमा - ॐ जुत्ता पालेन्तोऽणुवए निरइयारे । अणुकन्पाइगुणजुओ जीवो इह होड़ वयपडिमा ॥ १ ॥' 'तचं'ति तृतीयां सामायिकप्रतिमाम्, ॐ ॐ तत्स्वरूपमिदम्- 'वरंदंसणवयजुत्तो सामइयं कुणइ जो तिसञ्झासु । उक्कोसेण तिमासं एसा सामाइयप्पडिमा ||१||' 'चउत्थं'ति चतुर्थी पोषधप्रतिमाम्, एवंरूपाम्- 'पुंवोदियपडिमजुओ पालइ जो पोसहं तु सम्पुण्णं । अट्टमिचउदसाइसु चउरो मासे चउत्थी सा ॥ १॥ आनंदश्रावकस्य ११ श्रावकप्रतिमा" स्वीकार मूलं [१३] ..आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः १ दर्शनप्रतिमायुक्तः पालयन अणुव्रतानि निरतिचाराणि । अनुकम्पादिगुणयुतो जीव इह भवति व्रतप्रतिमा ॥ १ ॥ २ वरदर्शनयुक्तः सामायिकं करोति यस्तु त्रिसंध्यामु। उत्कृष्टेन चीन मासात् एषा सामायिक प्रतिमा ॥ १ ॥ ३ पूर्वोदितप्रतिमायुतः पालयति यः पोषधं तु संपूर्णम् । अष्टमीचतुर्दश्यादिषु चतुरो मासान चतुषा ॥ १ ॥ For Pana Prata Use Only ~33~ ।। १५ ।। nary org Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१५] अध्ययन [ १ ]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... “उपासकदशा” - अंगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१३] आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः 'पञ्चमं 'ति पञ्चमीं प्रतिमाप्रतिमां, कायोत्सर्गप्रतिमामित्यर्थः, स्वरूपं चास्याः - 'सम्ममणुवयगुणवयसिक्खावयवं थिरो य नाणी य । अटुमिचउदसीसुं पडिमं ठाएगराईयं || १ || असिणाण वियडभोई (अस्नानोऽरात्रिभोजी चेत्यर्थः) मउलिकडो (मुत्कलकच्छ इत्यर्थः) ॐ दिवसवम्भयारी य । राई परिमाणकडो पडिमावज्जेस दियहेसु || २ || झायइ पडिमाएँ ठिओ तिलोयपुज्जे जिणे जियकसाए । नियदोसपचणीयं अण्णं वा पश्च जा मासा ||३||' 'छट्टि 'ति पष्ठीं अब्रह्मवर्जनप्रतिमाम् एतत्स्वरूपं चैवम्- 'पुवोदियगुणजुत्तो विसेसओ विजियमोहणिजो य । वज्जइ अवम्भमेगन्तओ य राई पि थिरचित्तो ॥ १ ॥ सिङ्गारकहाविरओ इत्थीऍ समं रहम्मि नो ठाइ । चयइ य अइप्यसङ्ग तहा विभूसं च उक्कोसं ॥ २ ॥ एवं जा छम्मासा एसोऽहिगओ उ इयरहा दिदूं । जावज्जीवंपि इमं ॐ वज्जइ एयभ्मि लोगम्मि || ३ ||' 'सत्तमिति सप्तमी सचित्ताहारवर्जनप्रतिमामित्यर्थः इयं चैवम् - सच्चित्तं आहारं वज्जइ असणाइयं निरवसेसं । सेसवयसमाउत्तो जा मासा सत्त विहिपुर्व ॥ १ ॥' 'अदुर्मि'ति अमी स्वयमारम्भवर्जनप्रतिमां, तदूपमिदम्- 'बजड़ |सयमारम्भं सावज्जं कारवेइ पेसेहिं । वित्तिनिमित्तं पुवयगुणजुत्तो अटु जा मासा ॥ नवमिति नवमीं भृतकप्रेप्यारम्भवर्जनमति १ सम्यक्त्वतशिक्षावतवान् स्थिरव ज्ञानी व अष्टमीचतुर्दश्याः प्रतिमां तिष्ठत्पेकी १ अस्नानो दिवसी ॐ दिवसब्रह्मचारी च रात्रौ कृतपरिमाणः प्रतिमावर्जेषु दिवसेषु ॥ २ ॥ ध्यायति प्रतिमपा स्थितः त्रैलोक्यपूज्यान जिनान् जितवायान। निजदोषप्रत्यनीकमन्यदा पञ्च यावन्मासान् ॥ ३ ॥ २ पूर्वोदिगुणयुक्त विशेषतो विजितमोहनीयच वर्जयत्यब्रह्म कान्ततस्तु रात्रावपि स्थिरचित्तः ॥ १ ॥ शृङ्गारकथाविस्तः स्त्रिया समं रहसि न तिष्ठति त्यजति चातिप्रसङ्ग तथा विषां च ॥ २ ॥ एवं यावत् षण्मासान् एषोऽधिकृतस्तु इतरथा दृष्टम् । यावज्जीवमपीदं वर्जयति एतस्मिन लोके ॥ ३ ॥ ३ सचित्तमाहारं वर्जयति अशनादिकं निरवशेष शेषपदसमायुक्तो यावन्मासान् सप्त विधिपूर्वम ॥ १ ॥ ४ वर्जयति स्वयमारम्भं सावयं कारयति प्रेष्पैः। वृत्तिनिमित्तं पूर्वगुणयुक्तोऽष्ट पाइन्मासान् ॥ १ ॥ For Plata Use Only आनंदश्रावकस्य ११ श्रावकप्रतिमा" स्वीकार ~ 34~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [१], ------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [ov], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ॥१६॥ सूत्रांक [१३] उपासक-13माम, सा चेयम् 'पेसेहिं' आरम्भं सावज कारचंद नो गुरुयं । पुचोइयगुणजुत्तो नव मासा जाब विहिणा उ । 'दसमिति दशमी | आनन्दादबाङ्गे उद्दिष्टभक्तवर्जनप्रतिमां, सा चैवम्-'उदिटुकडं भत्तपि बज्जए किमय सेसमारम्भ । सो होइ उ खुरमुप्डो सिहलि वा घारए कोई ॥१॥ ध्ययन दवं पुट्ठो जाणं जाणे इइ वयइ नो य नो वेति । पुरोदियगुणजुत्तो दस मासा कालमाणेणं ।। २ ।। 'एक्कारसमिति एकादशी श्रमणभूतप्रतिमा, तत्स्वरूपं चैतत्-'खुरमुण्डो लोएण व रयहरणं ओगहं च घेत्तूणं । समणभूओ विहरइ धम्म कारण फासेन्तो ॥१॥ एवं उकोसेणं एकारस मास जाव विहरेइ । एक्काहाइपरेणं एवं सवत्थ पाएणं ॥२॥ इति ।। (म.१३) तए णं से आणन्दे ममणोवामए इमणं एयारवेणं उरालेणं विउलेणं परतणं पग्गहियेणं तवोकम्मेणं सुक्क । जाव किसे थमणिमन्तए जाए ॥ तए णं तस्स भाणन्दस्स समणोवासगस्स अन्नया कयाइ पुवरत्ता जाव धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झस्थिए-एवं खलु अहं इमेणं जाव धमणिसन्तए जाए, तं अस्थि ता मे उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसकारपरको मद्धाधिडसंवेगे,ते जाव ता मे अस्थि उट्ठाणे सद्धाधिइसंवगे जाव य मे धम्मा दीप अनुक्रम [१५]] १ प्रेष्यरारम्भ साना कारयति नो गुरुकम । पूर्वोदितयण युक्ता मय भासान पायद्विधिनय ॥१॥ २ उडिष्टकृतं भक्तमपि वर्जयति किमृत शेपमारम्भन । स भवति तु चरमुण्डः शिवा वा शरयति कोऽपि ॥१॥द्रव्यं पृष्टी जानन जानामीति नाशा नवति । पूर्वोदितगुणयुक्तो दश मासान् कालमानेन ।।२।। ३ वरमुण्डो लाँच्न वा रजाहरणमवग्रह व महारया । अमणभूती विहरति धर्म कार्यन म्पृशन ! १॥ एवमुत्कृष्टंनकादश मासान यावत विहरति । काहादेः परता एवं सत्र पायेण ॥२॥ RM Santaratmlend आनंदश्रावकस्य “११-श्रावकप्रतिमा"- स्वीकार ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [१], ----- मूलं [१४-१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४-१६] दीप अनुक्रम [१६-१८] यरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहारी विहरद ताव ता में से कल्लं जाव जलते अपश्चिममारणन्तियसलेहणाझूसणाझसियस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स कालं अणवकमाणस्स विहरित्तए, एवं सम्पेहेइ २ ना ailकल्लं पाउ जाव अपच्छिममारणन्तिय जाव कालं अणवकङमाणे विहरइ ॥ तए णं तस्स आणन्दस्स ममणोवास*गस्स अन्नया काइ सुभेणं अन्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तदावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ओहिनाणे समुप्पन्ने, पुरथिमेणं लवणसमुद्दे पश्चजोयणसइयं खेतं जाणड पासइ, एवं दक्षिणेणं पञ्चत्थिमेण य, उतरेणं जाव चुल्लहिमवन्तं वासधरपवरं जाणइ पासइ, उर्दू जाव सोहम्मं कप्पं जाणइ पासइ, अहे जाव इमीसे स्यणप्पभाए पुढवीए लोलुयसुर्य नस्यं चउरासीयवाससहरसटिइयं जाणइ पासइ ॥ मू०१४॥ | तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए, परिसा निग्गया, जाव पडिगया, तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अन्तेवासी इन्दभूई नामं अणगारे गोयमगोचेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वजारसहनारायसवन्यणे कणगपुलगनिघसपम्हमारे उम्गतवेदिततवे तत्ततवे घोरतये महातवे उराले घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबम्भचेरवासी उच्छढसरीरे सहित्तविउलतेउले से छ, छट्रेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेण संजमेणं | तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ । तए णं से भगवं गोयमे छक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करे। बिझ्याए पोरिसीए झाणं झायइ, तश्याए पोरिमीए अतुरियं अचवलं असम्भन्ते मुहपनि पडिलहेइ २ नाभायणवत्थाई Rapranaamwan umom murary.org आनन्दस्य अवधिज्ञानस्य उत्पत्ति:, गौतमस्वामिन: वर्णनं एवं तस्य भिक्षाचर्यागमनं ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [१४-१६] दीप अनुक्रम [१६-१८] “उपासकदशा” अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) अध्ययन [ १ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र - [०७] उपासक दशाङ्गे Jan Eratur - ॥ १७ ॥ पडिलंइ २ ना भायणवत्थाई पमज्जर २ ना भायणाई उग्गाहेद २ ता जेणेव समण भगवं महावीरे तणेव उवागच्छद २ ना समण भगवं महावीरं वन्दनमंस २ ता एवं व्यासी- इच्छामिणं भन्ते ! तुमेहिं अम्भणुष्णाए छट्ठक्खमणॐ पारणगंसि वाणियगामे नयरे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुद्राणस्स भिक्सायन्यिाए अडिनए, अहासुर्ह देवाणुप्रिया ! मा पsिबन्धं करेह । तए णं गोमे समणेणं भगवश महावीरेण अन्भणुष्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियाओ दृइपलासाओं वेश्याओ पडिणिक्खनइ २ ता अतुरियमचवलमसम्भन्ते जुगन्तरपरिलोयणाएं दिट्ठीए पुरओ ईरियं सोहेमाणे जेणेव वाणियगामे नयरे तेणेव उवागच्छ २ वाणियगामे नयरे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडइ । तए णं से भगवं गोयमे वाणियगामे नयरे जहा ॐ पण्णत्तीए तहा जाव भिक्खायरियाए अडमाणे अहापजतं भत्तपाणं सम्मं पडिग्गाहेइ २ ता वाणियगामाओ ॐ पडिणिग्गच्छइ २ चा कोल्लायस्स सन्निवेसस्स अहूरसामन्तेणं वीईवयमाणे बहुजणसद्दं निसामेइ, बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ४ एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तेवासी आणन्दे नामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिम जाव अणवकङ्कुमाणे विहरइ । तए णं तस्म गोयमस्स बहुजणस्स अन्तिए एयमहं सोचा निसम्म अयमेयारूवे अज्झत्थिए ४-तं गच्छामि णं आणन्दं समगोवासयं पासामि एवं सम्पेहे २ना जेणेव कोल्लाए सन्निवेसे जेणेव आणन्दे समणोवामए जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छ तव णं मे आणन्द नमणोवासए भगवं For Penal Use Only गौतमस्वामिनः वर्णनं एवं तस्य भिक्षाचर्यागमनं मूलं [१४- १६] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~37~ आनन्दाध्ययन ॥ १७ ॥ andrary org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [१४-१६] दीप अनुक्रम [१६-१८] “उपासकदशा” अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) अध्ययन [ १ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... - ..आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] गांयमं एजमाणं पासइ २त्ता हट्टु जाव हियए, भगवं गांयमं बन्दइ नर्मस ना एवं वयासी एवं खलु भन्ते ! अहं इमेणं उरालेणं जाव धमणिसन्तए जाए, न संचारभि देवाणुप्पियस्स अन्तियं पाउव्यवित्ताणं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाए अभिवन्दित्तए, तुभे णं भन्ते ! इच्छाकारेणं अणभिओएणं इओ व पह. जा णं देवाणुप्पियाणं तिक्खुनो मुद्राणेणं पारस बन्दामि नमामि । तए णं से भगवं गोयमे जेणेव आणन्दे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ ॥ सू० १५ ॥ आनन्दस्य गौतमस्वामिना सह अवधिज्ञान विषयक चर्चा तणं से आणन्दे समणोवासए भगवओ गोयमस्स तिक्खुत्तो मुद्धाणं पाए वन्दइ नमसः २ता एवं वयासी-अत्थि णं भन्ते ! गिहिणो गिहिमज्झावसन्तस्स ओहिनाणे समुप्पज्जद ?, हन्ता अस्थि, जइ णं भन्ते ! | गिहिणो जाव समुप्पज्जइ, एवं खलु भन्ते ! ममवि गिहिणो गिहिमज्झावसन्तस्म ओहिनाणे समुप्पन्ने- पुरत्थिमेणं लवणसमुद्दे पञ्च जोयणसयाई जाव लोलुयच्चुयं नरयं जाणामि पासामि । तए णं से भगवं गोयम आणन्दं समणोवासयं एवं वयासी-अत्थि णं आणन्दा ! गिहिणो जाव समुप्पज्जइ, नो चेव णं एमहालए, तं णं तुयं आणन्दा ! एयस्स | टाणस्स आलोएहि जाव तवोकम्मं परिवज्जाहि । तए णं से आणन्दे समणीवास भगवं गोयमं एवं वयासी-अत्थि णं भन्ते ! जिणवयणे सन्ताणं तञ्चाणं तहियाणं सन्भूयाणं भावाणं आलोज समद्रे, जइ णं भन्ते ! जिणवयणे सन्ताणं जाव भावाणं नो आलोइज जाव मूलं [१४- १६] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Pernal Use Only ~38~ जाव पडिवजिजह ?, नो इणट्ठे तवोकम्मं नो पडिवज्जिज्ज तं णं arr Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: दशाङ्गे ॥ १८ ॥ प्रत सूत्रांक [१४-१६] भन्ते ! तुझे चेव एयस्म ठाणस्स बालोएह जाव पडिवजह । तए णं से भगवं गोयमे आणन्देणं समणोवासरण एवं- १ आनन्दायुत्ते समाण महिए कड़िए विदगिच्छाममावन्ने आणन्दस्स अन्तियाओ पडिणिवखमइ २त्ता जेणेव दूइपलासे चेइए ध्ययन जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद रत्ता समणस्स भगवो महावीरस्म अदूरसामन्ते गमणागमणाए| पडिक्कमह २ ना एसणमणेसणं आलोएइ २ ना भत्तपाणं पडिदंसेइ २ ना समण भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ २ ना एवं वयासी-एवं खलु भन्ते ! अहं तुमहिं अभणुण्णाए तं चेव सर्व कहेइ जाव तए णं अहं सडिए ३ आणन्दस्स समणोवासगरम अन्तियाओ पडिणिकखमामि २ चा जेणेव इहं तेणेव हबमागए, तणं भन्ते ! किं आणन्देणं समणोवासएणं तस्स ठाणस्स आलोएयवं जाव पविजेयवं उदाहु मए !, गोयमा इ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं बयासी-गोयमा ! तुमं चेव णं तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवजाहि, आणन्दं च समणोवासयं एयमढें खामेहि । तए णं से भगवं गोयमे समणस भगवओ महावीररस तहत्ति एयमटुं विणए पडिसुणेइ । ना तस्म ठाणस्स आलोएइ जाव पडिवजह, आणन्दं च समणोवामयं एएमटुंखामेइ । तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ बहिया जणवयविहारं विहरइ ।। सू०१६॥ 'उरालणमित्यादिवर्णको मेघकुमारतपोवर्णक इव व्याख्येयः, यावदनवकासन् विहरतीति ।। 'गिहमज्झावसन्तस्स ति ॥१८ | गृहमध्यावसनः, गेहे वर्तमानस्येत्यर्थः ।। 'सन्ताण मित्यादय एकार्थाः शब्दाः ॥ गोयमा इचि हे गौतम ! इत्येवमामन्त्र्यति ॥ दीप अनुक्रम [१६-१८] Sintairatd ... U niorary.orm ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [१९] “उपासकदशा” अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) अध्ययन [ १ ]. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... अत्र प्रथमं अध्ययनं परिसमाप्तं - मूलं [१७] ..आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] “उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः तए णं से आणन्दे समणोवासए बहहिं सीलवएहिं जाव अप्पाणं भावेत्ता वीसं वासाई समणोवासगपरियागं पाणिना एक्कारस य उवासग पडिमाओ मम्मं कारणं फासित्ता मासियाए संलेहणाए अनाणं असित्ता सट्टिं भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मबार्डंसगस्स महाविमाणस्म उत्तरपुरच्छ्रिमेणं अरुणे विमाणे देवताए उववन्ने । तत्थ णं अत्थेमइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओ माई ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं आणन्दस्सवि देवस्स चत्तारि पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । आणन्दे भन्ते ! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खणं ३ अणन्तरं चयं चत्ता कहिं गच्छिहिर कहिं उववज्जिहिद ?, गोयमा ! महाविदेहे वासे मिज्झि हिङ । निक्खेवो ॥ सतमस्स अस्स उवामगदसाणं पढमं अज्झयणं समत्तं ॥ सू० १७ ॥ 'निक्खेवओ'त्ति निगमनं, यथा "एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाब उबासगदसाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्टे पण त्तेत्तिबेमि" ।। ( मू. १७) इत्युपासकदशाङ्गे प्रथममानन्दाध्ययनम् ॥ For Parts Only ~40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) "उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [२], ------ मूलं [१८-१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: सपासक दशा २कामदेवा ध्ययनम् प्रत सूत्रांक [१८-१९] दीप अनुक्रम २०-२१] अथ द्वितीयमध्ययनम् । जह पं भन्ते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं सत्तमस्स अस्म उवासमदसाणं पढमस्स अन्झ-121 शायणस्म अयमद्वे पण्णत्ते दोच्चस्स णं भन्ते ! अल्झयणस्स के अटे पण्णते ?. एवं खलु जम्यू! तणं कालणं तेणं समएणं चम्पा नाम नयरी होत्था, पुण्णभद्दे चेइए, जियसत्तू राया, कामदेवे गाहावई, भद्दा भारिया, छ हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, छ बुडिपउत्ताओ, छ पवित्थरपउत्ताओ, छ क्या दसगोसाहस्सिएणं वएणं । समोसरणं । जहा आणन्दो तहा निग्गओ, तहेब सावयधम्म पडिवजइ, सा चेव वनव्वया जाव जेट्ठपुत्तं मित्तनाई आपुच्छित्ता जेणेव |पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २ ना जहा आणन्दो जाव समणस्स भगवओ महावीरस्म अन्तियं धम्मपण्णति उवसम्पजित्ता णं विहरइ (सू. १८) तए णं तस्स कामदेवस्स समणोवासगस्स पुव्वरत्नावरत्नकालसमयसि एगे देवे मायी मिच्छट्ठिी अन्तियं पाउम्झए, तए णं से देवे एगं महं पिसायरूवं विउच्चइ, तस्स णं देवस्स पिसायरूवस्स इमे एयारूवे वण्णावासे |पण्णत्ते-सीसं से गोकिलासंठाणसंठियं सालिभसेल्लसरिसा से केसा कविलतेएणं दिप्पमाणा महल्लउट्टियाकभल्लसंठाणसंठियं निडालं मुगुंसपुंछ व तस्स भुमगाओ फुग्गफुग्गाओ विगयवीभच्छदसणाओ सीसघडिविणिग्गयाई SantaiN Earpranaamvam umony aurary.com अथ द्वितीयं अध्ययनं-"कामदेव आरभ्यते कामदेव श्रावकस्य कथा) ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [२], ------ मूलं [१८-१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [१८-१९] दीप अनुक्रम २०-२१] अच्छीणि विगययीभच्छदसणाई कण्णा जह सुप्पकत्तरं चेव विगययीभच्छदसणिजा, उरभपुडसन्निभा से नासा, झुसिरा जमलचुल्लीसंठाणसंठिया दोऽवि तस्स नासापुडया, घोडयपुंछं व तस्स मंसूई कविलकविलाई विगयवीभच्छदसणाई, उट्ठा उदृस्स चेव लम्बा, फालसरिसा से दन्ता, जिन्भा जहा सुप्पकत्तरं चेव विगयवीभच्छदंसणिजा, हलकुद्दालसठिया से हणुया, गल्लकडिल्लं च तस्स खडं फुट्ट कविलं फरुसं महल्लं, मुइङ्गाकारोवमे से खन्धे, पुरवरकवाडोवमे से वच्छे, कोट्ठियासंठाणसंठिया दोऽवि तस्स बाहा, निसापाहाणसंठाणसंठिया दोऽवि तस्स अग्गहत्था, |निसालोढसंठाणसंठियाओ हत्थेसु अङ्गुलीओ, सिप्पिपडगसंठिया से नकखा, पहावियपसेवओ ब्व उरंसि लम्बन्ति दोऽवि तस्स थणया, पोट्टे अयको?ओ व बटुं, पाणकलन्दसरिसा से नाही, सिक्कगठिाणसंठिया से नेते, किण्णपुडसंठाणसंठिया दोऽवि तस्स वसणा, जमलकोट्ठियासठाणसंठिया दोऽवि. तस्स ऊरू, अम्जुणगुटुं व तस्स जाणूई कुडिलकुडिलाई विगयबीभच्छदसणाई, जङ्घाओ कक्खडीओ लोमेहि उवचियाओ. अहरीलोढसंठाणसंठिया दाऽवि तस्स पाया, अहरीलोढसंठाणसंठियाओ पाएमु अगुलीओ. सिप्पिपुडसंठिया से नक्खा लडहमडहजाणुए विगयभग्गभुग्गभुमए अवदालियवयणविवरनिल्लालियग्गजीहे सरडकयमालियाए उन्दुरमालापरिणद्धसकयचिंधे नउलकयकण्णपूरे सप्पकयवेगच्छे अप्फोडन्ते अभिगजन्ते भीममुक्कट्टहासे नाणाविहपञ्चवणेहिं लोमेहिं उवचिए । | एगं महं नीलुप्पलगवलगुलियअयसिकुसुमप्पगासं असिं खुरधारं गहाय जेणेव पोसहसाला जेणेव कामदेवे समणो PANCSC REarathimithana FarPurwanamuronm Auditurary.com कामदेवस्य धर्मप्रज्ञप्ति: एवं मायी-मिथ्यादृष्टि: देवकृत: उपसर्ग: ~ 42 ~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [२], ------ मूलं [१८-१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: J0 उपासक- दशाङ्गे ॥२०॥ प्रत सूत्रांक [१८-१९] दीप अनुक्रम २०-२१] वामए तेणेव उवागच्छइ २ ना आसुरत्ते रुटे कुविए चण्डिक्किए मिसिमिसीयमाणे कामदेवं समणोवासयं एवं र कामदेवासावयासी-हे भो कामदेवा ! समणोवासया अप्पत्थियपस्थिया दुरन्तपन्तलक्षणा हीणपुण्णचाउद्दसिया हिरिसिरि- ध्ययनम् |धिइकिनिपरिवज्जिया ! धम्मकामया पुण्णकामया सग्गकामया मोक्खकामया धम्मकड्डिया पुण्णकतिया सग्गकडिया मोक्खकडिया धम्मपिवासिया पुण्णपिवामिया सग्गपिवासिया मोक्खपिवासिया ! नो खलु कप्पइ तव देवाणुप्पिया ! जंसीलाई बयाई वेरमणाई पच्चक्खाणाई पोसहोषवासाई चालित्तए वा खोभित्तए वा खण्डित्तए वा भञ्जित्तए वा उज्झितए वा परिचइत्तए वा, तं जइ णं तुमं अज सीलाई जाव पोसहोववासाई न छड्डसिन भसि तो ते अहं अज इमेणं नीलुप्पल जाव असिणा खण्डाखण्डिं करेमि, जहा णं तुमं देवाणुप्पिया ! अट्टदुहट्टवसट्टे अकाले चेव । जीवियाओ ववरोविजसि, तए णं से कामदेवे ममणोवासए तेणं देवेणं पिसायरूवेणं एवं वुत्ने समाणे अभीए अनत्थे। अणुबिग्गे अक्खुभिए अचलिए असम्भन्ने तुमिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ ( सूत्रं १९) | अथ द्वितीये किमपि लिख्यते'पुव्वरत्तावरत्तकालसमयांस'त्ति पूर्वरात्रश्चासावपररात्रश्चेति पूर्वरात्रापररात्रः,स एव कालसमयःकालविशेषः। तत्र 'इमेयारूवे वण्णाबासे पण्णत्तेत्ति वर्णकव्यासो-वर्णकविस्तरः, सीसंवि-शिरः 'से' तस्य 'गोकिलञ्जति गवा चरणार्थे यशदलमयं महद्भाजनं तद्गोकिलचं डल्लोति यदुच्यते तस्याघोमुखीकृतस्य यत्संस्थानं तेन संस्थितं, तदाकारमित्यर्थः ॥२०॥ पुस्तकान्तरे विशेषणान्तरमुपलभ्यते 'विगयकप्पयनिभंति विकृतो योऽलअरादीनां कल्प एवं कल्पका-छेदः खण्डं कर्परमिति तात्पर्य, | कामदेवस्य धर्मप्रज्ञप्ति: एवं मायी-मिथ्यादृष्टिः देवकृत: उपसर्ग: ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक |[१८-१९] दीप अनुक्रम [२०-२१] “उपासकदशा” अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) अध्ययन [ २ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... Education interationa - मूलं [१८-१९] ..आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः तन्निभं तत्सदृशमिति कचित्तु 'वियडकोप्परनिभं ति दृश्यते तच्चोपदेशगम्यं, 'सालिमसेल्लसरिसा श्रीहिकणिशशुकसमाः ' से ' तस्य 'केसा' वालाः, एतदेव व्यनक्ति- 'कविलतेएणं दिप्पमाणा' पिङ्गलदीप्त्या रोचमानाः 'उडियाकभलसंठाणसंठियं उष्ट्रिका गृष्मयो महाभाजनविशेषस्तस्याः कमलं - कपालं तस्य यत्संस्थानं तत्संस्थितं, 'निडालं ' ति ललाटं, | पाठान्तरे 'महल्लउट्टियाकभल्लसरिसोवमे' महोष्ट्रिकायाकभल्लसदृशमित्येवमुलेखनोपमा--उपमानवाक्यं यत्र तत्तथा, 'मुगुंसपुंछं व ' भुजपरिसर्पविशिषो मुसा सा च खाडहिल्लत्ति सम्भाव्यते, तत्पुच्छवत्, ' तस्येति पिशाचरूपस्य ' भुमगाओ 'ति भ्रुवां, प्रस्तुतोपमार्थमेव व्यनक्ति' फुग्गफुग्गाओ ' त्ति परस्परासम्बद्धरोमिके विकीर्णविकीर्णरोमिके इत्यर्थः, पुस्तकान्तरे तु 'जडिल'कुडिलाओ ' सि प्रतीतं 'विगयबीभच्छदंसणाओ' त्ति विकृतं बीभत्सं च दर्शनं रूपं ययोस्ते तथा, 'सीसघडिविणिग्गयाणि' शीर्षमेव घटी तदाकारत्वात् शीर्षघटी तस्या विनिर्गते इव विनिर्गते शिरोपटीमतिक्रम्य व्यवस्थितत्वात् 'अक्षिणी' लोचने, विकृतबीभत्सदर्शने प्रतीतं कर्णौ - श्रवण यथा सूर्यकत्तरमेव- शूर्पखण्डमेव नान्यथाकारौ, टप्पराकारावित्यर्थः, विकृतेत्यादि तथैव 'उरम्भपुढसन्निमा' उरभ्रः - ऊरणस्तस्य पुढं- नासापुटं तत्सन्निभा-तत्सदृशी नासा नासिका, पाठान्तरेण-' हुन्भपुडसंठाणसंठिया ' तत्र हुरन्भ्रा-वाद्यविशेषस्तस्याः पुढं-पुष्करं तत्संस्थानसंस्थिता, अतिचिपिटत्वेन तदाकृतिः 'झुसिर' त्ति महारन्धा 'जमलचुल्लीसठाणसंठिया ' यमलयोः समस्थितद्वयरूपयोः चुद्धघोर्यत्संस्थानं तत्संस्थिते द्वे अपि तस्य नासापुटे - नासिकाविवरे, वाचनान्तरे ' महल्लकुब्वसंठिया दोऽवि से कवोला ' तत्र क्षीणमांसत्वादुन्नतास्थित्वाच्च 'कुब्वं' ति निम्नं क्षाममित्यर्थः, तत्संस्थितौ द्वावपि 'से' तस्य 'कपोलो' गण्डौ तथा 'घोडय' ति घोटकपुच्छवद्-अश्ववालधिवत्तस्य - पिशाचरूपस्य 'स्मभ्रूणि' कामदेवस्य धर्मप्रज्ञप्तिः एवं मायी - मिथ्यादृष्टि: देवकृतः उपसर्गः For Penal Use Only ~ 44~ narr Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक |[१८-१९] दीप अनुक्रम [२०-२१] अध्ययन [ २ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. उपासकदशा ॥ २१ ॥ “उपासकदशा” Jan Eratur - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) ..आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] | कामदेवस्य धर्मप्रज्ञप्तिः एवं मायी - मिथ्यादृष्टि: देवकृतः उपसर्गः कूर्चकेशाः, तथा 'कपिलकपिलानि' अतिकडाराणि, विकृतानीत्यादि तथैत्र, पाठान्तरेण 'घोडयपुचं व तस्स कविलफरुसाओ उद्धलोमाओ दाहियाओ' तत्र परुषे कर्कशस्पर्शे ऊर्ध्वरोमिके न तिर्यगवगते इत्यर्थः दंष्ट्रिके उत्तरौष्ठरोमाणि 'ओष्ठौ' दशनच्छदौ उष्ट्रस्येव लम्बी-लम्बमानौ, पाठान्तरेण ' उट्ठा से घोगस्स जहा दोऽवेि लम्बमाणा तथा फाला लोहमयकुशाः तत्सदृशा दीर्घत्वात् 'से' तस्य 'दन्ता ' दशनाः, जिह्वा यथा शूर्पकर्त्तरमेव, नान्यथाकारा, विकृतेत्यादि तदेव, पाठान्तरे 'हिङलुयथाउकन्दरविलं व तरस वयणं ' इति दृश्यते, तत्र हिन्लुको वर्णद्रव्यं तपो धातुर्यत्र तत् तथाविधं यत्कन्दरविलं- गुहालक्षणं रन्थं तदिव तस्य वदनं, 'हलकुद्दाल' हलस्योपरितनो भागः तत्संस्थिते तदाकारे अतिव दीर्घे 'से' तस्य ' हणुय' ति दंष्ट्राविशेषी, 'गल्लकडिल्लं च तस्स' चि गल्ल एव कपोल एव कडिल्लं पण्डकादिपचनभाजनं गलकडिलं, चः समुचये, 'तस्य' | पिशाचरूपस्य 'खड्ड' चि गर्ताकारं, निम्नमध्यभागमित्यर्थः, 'फुहं' ति विदीर्णे, अनेनैव साधर्म्येण कडिल्लमित्युपमानं कृतं, 'कविलं'ति वर्णतः 'फरुसं' ति स्पर्शत: 'महल' ति महत्, तथा मृदङ्गाकारेण - पर्दला त्या उपमा यस्य स मृदङ्गाकारोपमः 'से' तस्य स्कन्धः - अंशदेशः, 'पुरवरे' ति पुरवरकपाटोपमं' से' तस्य वक्षः-उरःस्थलं, विस्तीर्णत्वादिति, तथा 'कोष्ठिका' लोहादिधातुधमनार्य मृत्तिकामयी कुशूलिका तस्या यत्संस्थानं तेन संस्थितौ तस्य द्वावपि बाहू-भुजी, स्थूलावित्यर्थः, तथा 'निसापाहाणे' ति मुद्रादिदलनशिला तत्संस्थितौ पृथुलत्वस्थूलत्वाभ्यां द्वावपि अग्रहस्तौ - भुजयोरप्रभूतौ, करावित्यर्थः, तथा 'निसालोढे' ति शिलापुत्रकः तत्संस्थानसंस्थिता हस्तयोरनुल्यः, स्थूलत्वदीर्घत्वाभ्यां तथा 'सिप्पिपुढं' ति शुक्तिसम्पुटस्यैकं दलं तत्संस्थानसंस्थितास्तस्य 'नक्ख' ति नखाः हस्ताङ्गलिसम्बन्धिनः, वाचनान्तरे तु इदमपरमधीयते- 'अडयालगसंटिओ उरो तस्स रोमविलो' ति अत्र अडया For Pernal Use Only मूलं [१८-१९] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 45~ (कामदेवाध्ययनम् ॥ २१ ॥ org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [२], ------ मूलं [१८-१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-१९] B900 दीप अनुक्रम २०-२१] लगति-अट्टालकः प्राकारावयवः सम्भाव्यते, तत्साधयं चोरसः क्षामत्वादिनति, तथा 'हावियपसेवओव्व' चि नापितप्रसेवक साइव नखशोधकक्षुरादिभाजनमिव 'उरास वक्षास 'लम्बेते' प्रलम्बमानौ तिष्ठतः द्वावपि तस्य 'स्तनको वक्षोजी, तथा 'पोर्ट्स जठरं अयःकोष्ठकवत्-लोहकुशूलवद्वृत्तं वर्तुलं, तथा पानं-धान्यरससंस्कृतं जलं येन कृविन्दाचीवराणि पाययन्ति तस्य कलन्द-कुण्डं पानकलन्दं तत्सदृशी गम्भीरतया 'से' तस्य नाभिः-जठरमध्यावयवः, वाचनान्तरेऽधीतंभगकडी विगयत्रकपट्ठी असरिसा दोवि तस्स फिसगा' तत्र भन्नकटिविकृतवकपृष्ठः फिसको पुतौ, तथा शिक्ककं' दध्यादिभाजनानां दोरकमयमाकाशेऽवलम्बन लोकप्रसिद्धं तत्संस्थानसंस्थितं 'से' तस्य नेत्रं-मथिदण्डाशकर्षणरज्जुः तद्वदीर्घतया तन्नेत्रं शेफ उच्यते, तथा 'किण्णपुडसंठाणसंठियत्ति सुरागोणकरूपतण्डुलकिण्वभृतगोणीपुटद्वयसंस्थान संस्थिताविति सम्भाव्यते, द्वावपि तस्य वृषणी-पोत्रको, तथा ' जमलकोट्ठिय ' ति समतया व्यवस्थापितकुशूलिकाद्वयसंस्थानसंस्थितौ द्वावपि तस्य ऊरू-जके, तथा 'अज्जुणगुट्ठी वत्ति अर्जुन:-तृणविशेषस्तस्य गुटुं-स्तम्बस्तद्वत्तस्य जानुनी, अनन्तरोक्तोपमानस्य साधर्म्यं व्यनक्ति-कुटिलकुटिले अतिवके विकृतीभत्सदर्शने, तथा 'जके जानुनोरधोवर्तिन्यो 'कक्खडीओत्ति कठिने, |निमासे इत्यर्थः, तथा रोमभिरुपचिते, तथा अधरी-पेषणशिला तत्संस्थानसंस्थितौ द्वावपि तस्य पादौ, तथा अधरीलोटः-शिलापुत्रकः तत्संस्थानसंस्थिताः पादयोरगुल्यः, तथा शुक्तिपुटसंस्थिताः 'से' तस्य पादाङ्गुलिनखाः । केशाग्रानखानं यावद्वर्णित पिशाचरूपम् , अधुना सामान्येन तद्वर्णनायाह-'लडहमडहजाणुए' त्ति इइ प्रस्ताव लड्दशब्देन गन्त्र्याः पश्चाद्भागवति तदुत्तरागरक्षणार्थ यत्काष्ठं तदुच्यते, तच्च गन्त्र्यां श्लयबन्धनं भवति, एवं च श्लथसन्धिबन्धनत्वाल्लडह इव लडहे मडहे च स्थूलत्वाल्पदी FarPranaamsamucom urmararyara कामदेवस्य धर्मप्रज्ञप्ति: एवं मायी-मिथ्यादृष्टि: देवकृत: उपसर्ग: ~ 46~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [२], ------ मूलं [१८-१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: दशाओं ।।२२।। प्रत सूत्रांक [१८-१९] दीप अनुक्रम २०-२१] त्वाभ्यां जानुनी यस्य तत्तथा, विकृते-विकारवत्यौ भग्ने-विसंस्थुलतया भुग्ने-वक्र ध्रुवौ यस्य पिशाचरूपस्य तत्तथा, कामदेवाभइहान्यदपि विशेषणचतुष्टयं वाचनान्तरेऽधीयते- 'मसिमूसगमहिसकालए' मषीमापिकामहिषवत्कालकं 'भरियमेहवण्णे' जलभतमेघवर्ण सध्ययनम् कालमेवेत्यर्थः, 'लम्बोटे निग्गयदन्ते' प्रतीतमेव, 'अवदारिए'त्ति तथा 'अवदारितं विकृतीकृतं वदनलक्षणं विवरं येन तत्तथा, तथा 'निलालिता' निष्काशिता अप्रजिता-जिताया अग्रभागो येन तसथा ततः कर्मधारयः, तथा शरी:-ककलासैः कृता मालिका-सक तुण्डे वक्षसि वा येन तत्तथा, तथा उन्दुरमालया-मूषिकसजा परिणद्धं-परिगतं सुकृतं-मुष्ठ रचितं चिलं-स्वकीयलाञ्छनं भयेन तत्तथा तथा, नकुलाभ्यां-गभुभ्यां कृते कर्णपूरे आभरणविशेषौ येन तत्तधा, तथा सर्पाभ्यां कृतं बैकक्षम्-उत्तरासङ्गो येन तत्तथा, पाठान्तरेण 'मूसगकयधुंभलए विच्छुयायवेगच्छे सप्पकयजण्णोवइए' तत्र मुंभलयोत्त-शेखरः विच्छुयाचि-वृश्चिकाः यज्ञोपवीतं-ब्राह्मणकण्ठसूत्र, तथा 'अभिन्नमुहनयणनक्सवरबग्धचित्तकत्तिनियंसणे' अभिन्ना:-अविशीर्णा मुखनयननखा यस्यां सा तथा सा चासौ वरच्याघ्रस्य चित्रा-कर्बुरा कृतिश्च-चर्मेति कर्मधारयः, सा निवसन-परिधानं यस्य तत्था, सरसरुहिरमंसावलित्तगत्ते ' सरसाभ्यां रुधिरांसाभ्यामवलिप्तं गात्रं यस्य तत्तथा, 'आस्फोटयन् । करास्फोर्ट कुर्वन् 'आभगर्जन्' धनध्वनि मुञ्चन् भीमो मुक्ता-कृतोऽदृट्टहासो हासविशेषो येन तत्तथा, नानाविधपञ्चवर्णे रोमभिरुपचितं एक महनीलोत्पलगवलगुलिकातसीकुसुमप्रकाशमार्स क्षुरधारं गृहीत्वा यत्र पोषधशाला यत्र कामदेवः श्रमणोपासकस्तत्रोपागच्छति स्मेति, इह गवलं पहिषश्टङ्ग गुलिका-नीली अतसी-धान्यविशेषः असिः-खगः क्षुरस्येव धारा यस्यातिच्छेदकत्वादसौ क्षुरधारः, 'आसुरते रुढे कुविए चण्डिकिए मिसीमिसीयमाणे ति एकार्थाः शब्दाः कोषातिशयप्रदर्शनार्थाः, ''अप्पत्थियपत्थिया' अपा For Pare कामदेवस्य धर्मप्रज्ञप्ति: एवं मायी-मिथ्यादृष्टि: देवकृत: उपसर्ग: ~ 47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [२], ------ मूलं [१८-१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-१९] OFOODe0%ae दीप अनुक्रम २०-२१] थितार्थक दुरन्तानि-दुष्टपर्यवसानानि प्रान्तानि-असुन्दरााण लक्षणानि यस्य स तथा 'हीणपुण्णचाउद्दसिय' ति हीनाअसम्पूर्णा पुण्या चतुर्दशी तिथिर्जन्मकाले यस्य स हीनपुण्यचतुर्दशकिः, तदामन्त्रणं, श्रीहीधृतिकीर्तिवार्जितेति व्यक्तं, तथा धर्मश्रुतचारित्रलक्षणं कामयते-अभिलपति यः स धर्मकामः, तस्यामन्त्रणं हे धम्मकामया!, एवं सर्वपदानि, नवरं पुण्यं-शुभप्रकतिरूपं कर्म स्वर्गः-तत्फलं मोक्षो-धर्मफलं काढा-अभिलाषातिरेकः पिपासा-काङ्कातिरेका, एवमेतैः पदैरुत्तरोत्तरोऽभिलापप्रकर्ष एवोक्तः, “नो खलु' इत्यादि न खलु-नैव कल्पते शीलादीनि चलयितुमिति वस्तुस्थितिः, केवलं यदि त्वं तान्यद्य न चलयसि ततोऽहं त्वां खण्डाखण्डिं करोमीति वाक्यार्थः, तत्र शीलानि-अणुव्रतानि, व्रतानि-दिग्नतादीनि, विरमणानि-रागादिविरतयः, प्रत्याख्यानानि-नमस्कारसहितादीनि, पोषधोपवासान्-आहारादिभेदेन चतुर्विधान् , 'चालित्तए' भङ्गकान्तरकरणतः 'शोभयितुं एतत्पालनविषयं क्षोभं कर्तु, खण्डयितुं देशतो, भक्तुं सर्वतः, 'उज्झितुं' सर्वस्या देशविरतेस्त्यागतः, परित्यक्तुं सम्यक्त्वस्यापि । त्यागादिति, 'अदृदुहवसट्टे' ति आर्तस्य-ध्यानविशेषस्य यो दुहवृत्ति-दुर्घटो दुःस्थगो दुनिरोधो वर्श:-पारतन्व्यं तेन ऋतःसपीडितः आतेदुर्घटवशातः, अथवा आतेन दुःखातः आतंदुःखातः, तथा वशेन-विषयपारतन्त्र्येण ऋतः-परिगतो वशातः, ततः कर्मजाधारय इति ।। अभीते इत्यादीन्येकार्थान्यभयमकर्षप्रदर्शनार्थानि (सू. १९) तए णं से देवे पिसायरूवे कामदेवं ममणोवासयं अभीयं जाव धम्मज्झाणोवगयं विहरमाणं पासइ २ ना दोच्चंपि तचंपि कामदेवं एवं वयासी-हं भो कामदेवा ! समणोवासया अपत्थियपत्थिया जइ णं तुमं अज जाव क्रोविजसि, तए णं से कामदेवे समणोवामये तेणं देवेणं दोचपि तच्चपि एवं वुत्त समाणे अभीए जाव धम्मज्झाणो EaPranaamyam uncom कामदेवस्य धर्मप्रज्ञप्ति: एवं मायी-मिथ्यादृष्टि: देवकृत: उपसर्ग: ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [२], ------ मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: सपासकदनाङ्ग ॥ २३ ॥ प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम वगए विहरइ, तए णं से देवे पिसायरूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ २ ना आसुरने १२ कामदेवातिवलियं भिउडिं निडाले साहट्ट कामदेवं समणोवासयं नीलुप्पल जाव असिणा खण्डाखण्डि करेइ, तए णं से काम- ध्ययनम् देवे समणावासए तं उज्जलं जाव दुरहियास वेयणं सम्मं सहइ जाब अहियासेइ ( सूत्रं २०) तिवलिय' ति त्रिवलिको भृकुटि-दष्टिरचनाविशेष ललाटे 'संहृत्य विधायति चलयितुमन्यथाकत, चलनं च द्विधाकासंशपद्वारेण विपर्ययद्वारेण च, तत्र क्षोभयितुमिति संशयतो, विपरिणमयितुमिति च विपर्ययतः ॥ (मू.२०) तए णं से देवे पिसायरूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाय विहरमाणं पासइ २ ना जाहे नो संचाएइ । कामदेवं समणोवासयं निग्गन्थाओ पावयणाओ चालिनए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे सन्ते तन्ने परितन्ते । सणियं मणियं पच्चोसक्कइ २ ना पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ ना दिव्वं पिसायरूवं विप्पजहइ २ ना एगं महं, दिवं हथिरुवं विउबइ सनपइट्ठियं सम्म संठियं मुजायं पुरओ उदग्गं पिट्ठओ वराह अयाकुच्छिं अलम्बकुच्छिं पलम्बलम्बोदराधरकर अभुग्गयमउलमल्लियाविमलधवलदन्तं कञ्चणकोसीपविट्ठदन्तं आणामियचावललियसंविल्लियग्गसोण्डं कुम्मपडिपुण्णचलणं वीसइनखं अल्लीणपमाणजुतपुच्छं मतं मेहमिव गुलगुलेन्तं मणपवणजइणवेगं १ दिव्वं हत्थिरूवं विउब्वइ २ ता जेणेव पोसहसाला जेणेव कामदेवे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ २ ना कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो कामदेवा ! समणोवासया तहेव भणइ जाव न भजेमि तो ते अज्ज अहं [२२] कामदेवस्य धर्मप्रज्ञप्ति: एवं मायी-मिथ्यादृष्टि: देवकृत: उपसर्ग: ~ 49~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [२], ------ मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] सोण्डाए गिण्हामि २ ना पोसहसालाओ नीणेमि २ ता उई वेहासं उबिहामि २ ना तिकवेहिं दन्तमुसलहिं पडिच्छामि २ चा अहे धरणितलंसि तिक्खुत्तो पाएसु लोलमि जहा गं तुमं अट्टदुहट्टबसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जास, तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवणं हत्थिरूवेणं एवं बुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ, तए णं से देवे हथिरुवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ २ ना दोच्चपि तच्चंपि कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी है भो कामदेवा ! तहेव जाव सोऽवि विहरइ, तए णं से देवे हस्थिरूवे कामदेवं समणावासयं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ २ ता आसुरुत्ने ४ कामदेवं समणोवासयं सोण्डाए गिण्हेइ २ ना उई बेहासं उच्चि-5 हद २ ना तिक्तेहिं दन्तमुसलहिं पडिच्छइ २ ता अहे धरणितलंसि तिक्खुत्तो पाएसु लोलेड, तए णं से कामदेवे, समणोवासए तं उज्जलं जाव अहियासेइ ( सूत्र २१). श्रान्तादयः समानार्थाः, 'सत्तङ्गपइट्ठियं' ति सप्ताङ्गानि चत्वारः पादाः करः पुच्छं शिश्नं चेति एतानि प्रतिठितानि-भूमौ लग्नानि यस्य तत्तथा, 'सम्म' मांसोपचयात्संस्थितं गजलक्षणोपेतसकलाङ्गोपाङ्गत्वात्सुजातमिव सुजातं पूर्णदिनजातं 'पुरओ'अग्रत उदग्रं-उच्च, समुच्छ्रितशिर इत्यर्थः, 'पृष्ठतः पृष्ठदेशे वराहः-शूकरः स इव वराहः, प्राकृतत्वाननपुंसकलिङ्गन्ता, अजाया इव कुतिर्यस्य तदजाकुक्षि, अलम्बकुक्षि बलवत्त्वेन प्रलम्बो-दीघों लम्बोदरस्येव- गणपतेरिव अघर: ओष्ठः करव-दस्तो यस्य तत्पलम्बलम्बोदराधरकरं, अभ्युद्गतमुकुला-जातकमला या मल्लिका-विचकिलस्तद्वत् विमलधवलौ दन्तौ । दीप अनुक्रम [२३] LINTurmurary.orm कामदेवस्य धर्मप्रज्ञप्ति: एवं मायी-मिथ्यादृष्टि: देवकृत: उपसर्ग: ~50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम [२३] “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं + वृत्तिः) अध्ययन [ २ ], मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः उपासक यस्य अथवा प्राकृतत्वान्मल्लिकाकुलवदभ्युद्गतौ उन्नतौ विमलधवलौ च दन्तो यस्य तदभ्युद्गतमुकुलमल्लिकाविमलधवलदन्तं, दशा काञ्चनकोशीप्रविष्टदन्तं, कोशी-प्रतिमा आनामितम् - ईपन्नामितं यच्चापं - धनुस्तद्वद्या ललिता च विलासवती संवेल्लिता च-वेल्लन्ती सङ्कोचिता वा अग्रशुण्डा-गुण्डाग्रं यस्य तत्तथा, कूर्मवत्कूर्माकाराः प्रतिपूर्णाश्चरणा यस्य तत्तथा, विंशतिनखं, आलीनप्रमाणयुक्त पुच्छमिति कथम् । (सू. २१ ) ॥ २४ ॥ Education T तणं से देवे हथिरूवे कामदेवं समणोवासयं जाहे नो संचाएइ जाव सणियं सणियं पञ्चोक २ ता पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ ना दिव्वं हत्थिरूवं विप्पजहद्द २ ना एवं महं दिव्वं सप्परूवं विउब्बर उग्गविसं चण्डविसं घोरविसं महाकार्यं मसीमूसाकालगं नयणविसरोसपुण्णं अंजणपुंजनिगरप्पगासं रत्तच्छं लोहियलोयणं जमलजुयलचञ्चलजीहं धरणीयलवेणिभूयं उक्कडफुडकुडिलजडिलकक्कसवियडफडाडोवकरणदच्छं लोहागरधम्ममाणधमधमेन्तघोसं अणागलियतिव्वचण्डरोस सप्परूवं विजब्बर २ ना जेणेव पोसहसाला जेणेव कामदेवे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ २ ती कामदेव समणोवासयं एवं क्यासी- भो कामदेवा ! समणोवासया जाव न भजेसि तो ते अज्जव अहं सरसरस्स कार्य दूरूहामि २ ता पच्छिमेणं भाएणं तिक्खुत्तो गीवं वेडेमि २ चा तिक्खाहिं | विसपरिगयाहिं दाढाहिं उरांसि चेव निकुडेमि जहा णं तुमं अट्टदुहट्टवसट्टे अकाले चैव जीवियाओ ववरोविज्जसि, ॐ ॥ २४ ॥ तए णं मे कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं सप्परूवेणं एवं वृत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ, सोऽवि दोपि तचंपि oma | कामदेवस्य धर्मप्रज्ञप्तिः एवं मायी - मिथ्यादृष्टि: देवकृतः उपसर्गः For Prana Prase Only १ कामदेवा ध्ययनम् ~51~ wancarary.org Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [२], ------ मूलं [२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२]] भणइ, कामदेवोऽवि जाव विहरइ, तए णं से देवे सप्परूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव पासइ २ चा आसुरुचे ४ कामदेवस्स समणोवासयस्स सरसरस्स कार्य दूरूहइ २ ता पच्छिमभायेणं तिक्खुत्तो गीवं वेढेइ २ ना तिक्खाहिं| विसपरिगयाहिं दाढाहिं उरंसि चेव निकुट्टेइ, तए णं स कामदेवे समणोवासए तं उज्जलं जाव अहियासेइ (सूत्रं २२) 'उग्गविसं' इत्यादीनि सर्परूपविशेषणानि कचिद्यावच्छब्दोपाचानि कचित्सालादुक्तानि दृश्यन्ते, तत्र उपविष-दुरघिसद्यविषं, चण्डविषं अल्पकालेनैव दष्टशरीरव्यापकविषत्वाद, घोरविषं मारकत्वात् , महाकायं-महाशरीरं, मषीमूषाकालक, नयनविषेण-दृष्टिविषेण रोषेण च पूर्ण नयनविषरोषपूर्ण, अञ्जनपुञ्जाना-कज्जलोत्कराणां यो निकरः-समूहस्तद्वत्प्रकाशो यस्य तदञ्जनपुञ्जनिकरप्रकाश, रक्ताक्षं लोहितलोचनं, यमलयोः-समस्थयोर्युगलं-यं चञ्चलचलन्त्योः -अत्यर्थं चपलयो|जिह्वयोर्यस्य तद्यमलयुगलचञ्चलजिहं धरणीतलस्य वेणीव-केशबन्धविशेष इव कृष्णत्वदीर्घत्वाभ्यामिति धरणीतलवेणिभूतम् | उत्कटोऽनाभिभवनीयत्वात् स्फुटो-व्यक्तो भासुरतया दृश्यत्वात् कुटिलो वक्रत्वात् जटिलः केशसटायोगात् कर्कशो-निष्ठुरो नम्रताया अभावात् विकटो-विस्तीर्णो यः स्फटाटोपः-फणाडम्बरं तत्करणे दक्षं उत्कटस्फुटकुटिलजटिलकर्कशविकटस्फटाटोपकरणदक्ष, तया 'लोहागरधम्ममाणधमधमेन्तधोसं' लोहाकरस्येव ध्यायमानस्य-भस्त्रावातेनोद्दीप्यमानस्य धमधमायमानस्य-धमधमेत्येवंशब्दायमानस्य घोषः-शब्दो यस्य तत्तथा, इह च विशेष्यस्य पूर्वनिपातः प्राकृतत्वादिति, 'अणामलियतिब्वपयण्डरोस अनाकलितः-अप्रमितोऽनलितो वा निरोद्धुमशक्यस्तीव्रप्रचण्ड:-अतिप्रकृष्टो रोषो यस्य तत्तथा, 'सरसरस्स' दीप अनुक्रम [२४] कामदेवस्य धर्मप्रज्ञप्ति: एवं मायी-मिथ्यादृष्टि: देवकृत: उपसर्ग: ~52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [२], ------ मूलं [२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: उपासक- दशाङ्गे ॥२५ कामदेवाध्ययनम् प्रत सूत्रांक [२२]] क-29 दीप त्ति लौकिकानुकरणभाषा, पच्छिमेणं भाएणं' ति पुच्छेनेत्यर्थः, 'निकुडेमि' ति निकुट्टयामि प्रहण्मि 'उज्जलं ति उज्ज्वला विपक्षलेशेनाप्यकलडिन्ता, विपुला शरीरव्यापकत्वात् , कर्कशां कर्कशद्रव्यमिवानिष्टा, प्रगाढा-प्रकर्षवती चण्डों-रौद्रा दुःखां-| दुःखरूपां, न सुखामित्यर्थः, किमुक्तं भवति–'दुरहियासं' ति दुरधिसद्यामिति ( म्. २२) तए णं से देव सप्परूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव पासइ २ ना जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणावासयं निग्गन्थाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामिनए वा ताहे सन्ते ३ सणियं सणियं पञ्चोसकइ २ ना पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ ना दिव् सप्परूवं विप्पजहइ २ ना एगं महं दिव्यं देवरूवं विउब्वइ हारविराइयवच्छं जाव दस दिसाओ उज्जावमाणं पभासेमाणं पासाईयं दरिसणिजं अभिरूवं पडिरूवं दिव्वं देवरुवं । विउव्वद २ ता कामदेवस्स समणावासयस्स पोसहसालं अणुप्पविसइ २ ता अन्तलिक्खपडिवन्ने ससिद्धिणियाई पञ्चवण्णाई वत्थाई पवरपरिहिए कामदेवं समणोबासयं एवं वयासी-" हंभो कामदेवा समणोवासया ! धन्ने सिणं तुम देवाणुप्पिया ! सपुण्णे कयत्थे कयलकखणे सुलद्धे णं तब देवाणुप्पिया !माणुस्सए जम्मजीवियफले, जस्स णं तव निग्गन्थे पावयणे इमेयारूवा पडिवत्ती लदा पत्ता अभिसमन्नागया । एवं खलु देवाणुप्पिया ! सक्के देविन्दे देवराया जाव सकसि सीहासणंसि चउरासीईए सामाणियसाहस्सीणं जाव अन्नेसिं च बहणं देवाण य देवीण य मझगए एवमाइक्खड ४-एवं खलु देवा ! जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे चम्पाए नयरीए कामदेवे समणोवासये पोसहसालाए अनुक्रम [२४] ॥२५॥ JMERurati For Pare P anasaram.org कामदेवस्य धर्मप्रज्ञप्ति: एवं मायी-मिथ्यादृष्टि: देवकृत: उपसर्ग: ~534 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [२], ------- मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] दीप पोसहियवम्भचारी जाव दम्भसंथारोवमए समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्मपण्णनि उवसम्पजिनाणं विहरइ, नो खलु से सक्का केणइ देवेण वा दाणवेण वा जाव गन्धब्वेण वा निग्गन्थाओ पावयणाओ चालिनए वा सोभिन्नए वा विपरिणामित्तए वा, तए णं अहं सक्कस्स देविन्दस्स देवरण्णो एयमढें असदहमाणे ३ इहं हब्वमागए, तं अहो णं देवाणुप्पिया ! इट्टी ६ लद्धा ३, तं दिट्ठा णं देवाणुप्पिया ! इड्डी गाव अभिसमन्नागया, तं खामेमि णं देवाणाप्पया ! खमन्तु मज्झ देवाणुप्पिया ! खन्तुमरहन्ति ण देवाणुप्पिया नाई भुजो करणयाएतिकडु पायवडिए पञ्जलिउडे एयमटुं भुजो भुजो स्वामेइ २ ना जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिमं पडिगए, तए णं से कामदेवे समरणोवासए निरुवसग्गं तिकडु पडिमं पारेइ (सू०२३) 'हारविराइयवच्छ'मित्यादौ यावत्करणादिदं दृश्य-'कडयतुडियथम्भियभुयं अङ्गन्दकुण्डलमट्ठगण्डतलकण्णपीढधारं विचिचहत्याभरणं विचित्तमालामउलि कल्लाणगपवरवत्यपरिहियं कल्लाणगपवस्मल्लाणुलेवणधरं भासुरबोन्दि पलम्बवणमालधरं दिव्वेणं वणेणं दिव्येणं गन्धेणं दिवेणं फासेणं दिवेणं सक्यणेणं दिवेणं संठाणेणं दिवाए इड्डीए दिवाए जुईए दिव्याए पभाए| दिवाए छायाए दिवाए अच्चीए दिव्वेणं तेएणं दिवाए लेसाए' ति कण्ठयं नवर कटकानि-कङ्कणविशेषाः तुटितानि-बाहुरक्षकास्ताभिरतिबद्दत्वात्तंभिती-स्तब्धीकृतौ भुजौ यस्य तत्तथा, अङ्गन्दे च केयूरे कुण्डले च प्रतीते, मृष्टगण्डतले-पृष्टगण्डे ये कर्णपीठाभिषाने कणाभरणे ते च धारयति यत्तत्तथा, नया विचित्रमालाप्रधानो मौलि:-मुकुटं मस्तकं वा यस्य तत्तथा, कल्याणकम् अनुक्रम [२५] ParPranaamvam ucom कामदेवस्य धर्मप्रज्ञप्ति: एवं मायी-मिथ्यादृष्टि: देवकृत: उपसर्ग: ~ 54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [२], ------- मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: सपासक- दशाओं ॥२६॥ प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुपहतं प्रवरं वस्त्र परिहितं येन तत्तया, कल्याणकानि-प्रवराणि माल्यानि-कुसुमानि अनुलेपनानि च धारयति यतचया, भास्वर- कामदेवाबोन्दीक-दीप्तकारीरं, मलम्बा या वनमाला-आभरणविशेषस्तां धारयति यत्तनया, दिव्येन वर्णेन युक्तमिति गम्यते, एवं सर्वत्र, ध्ययनम् नवर ऋद्धया-विमानवस्त्रभूषणादिकया युक्तचा-इष्टपरिवारादियोगेन प्रभया-मभावेन छायया-प्रतिविम्बेन आर्चिषा-दीप्तिज्वालया। तेजसा-कन्त्या लेश्यया-आत्मपरिणामेन, उद्योतयत्-प्रकाशयत्-प्रभासयत्-शोमयदिति,प्रासादीयं चित्तालादकं दर्शनीयं यत्पश्यच्चक्षुर्न श्राम्यति अभिरूपं-मनोझं प्रतिरूप-द्रष्टारं द्रष्टारं प्रतिरूपं यस्य विकु'-वैक्रियं कृत्वा अन्तरिक्षप्रतिपन्न: आकाशस्थितः सकिङ्किणीकानि' क्षुद्रघण्टिकोपेतानि, 'सक्के देविन्दे' इत्यादौ यावत्करणादिदं दृश्यं 'वजपाणी पुरन्दरे सयकऊ सहस्सक्खे मघवं पागसासणे दाहिणड्डलोगाहिबई बत्तीसविमाणसयसहस्साहिबई एरावणवाहणे सुरिन्दे अरयम्बरवत्यधरे आलइयमालप- उडे नवहेमचारुचित्तचञ्चलकुण्डलविलिहिज्जमाणगण्डे भासुरचोन्दी पलम्बवणमाले सोहम्मे कप्पे सोहम्मवासिए विमाणे सभाए। सोहम्माए' चि, शक्रादिशब्दानां च व्युत्पत्त्यर्थभेदेन भिन्नार्थता द्रष्टव्या, तथाहि-शक्तियोगाच्छना, देवानां परमेश्वरत्वाद्देवेन्द्रः, देवानां मध्ये राजमानत्वात्-शोभमानत्वाद्देवराजः, वज्रपाणिः-कुलिशकरः, पुरं-असुरादिनगरविशेषस्तस्य दारणात्पुरन्दरः, तथा ऋतुशब्देनेह प्रतिमा विवक्षिताः, ततः कार्तिकवेष्ठित्वे शतं ऋतूनाम्-अभिग्रहविशेषाणां यस्यासौ शतक्रतुरिति चूर्णिकारच्याख्या, तथा पश्चाना मन्त्रिशतानां सहस्रमणां भवतीति तद्योगादसौ सहस्राक्षः, तथा मघशब्देनेह मेघा विवक्षिताः ते यस्य वशवर्तिनः सन्ति स मघवान्, तथा पाको नाम बलबस्तिस्य रिपुः तच्छासनात्पाकशासनः, लोकस्याई-अद्धेलोको दक्षिणो यो लोकः तस्य ॥२६॥ योऽधिपतिः स तथा, ऐरावणवाहणे-ऐरावतो-हस्ती स बाहनं यस्य स तथा, सुष्टु राजन्ते ये ते सुरास्तेषामिन्द्रः प्रभुः सुरेन्द्रः । अनुक्रम [२५] SAMEnirahini कामदेवस्य धर्मप्रज्ञप्ति: एवं मायी-मिथ्यादृष्टि: देवकृत: उपसर्ग: ~55M Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [२], ------- मूलं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] 05095668 सुराणां देवानां वा इंद्रः सुरेंदः, पूर्वत्र देवेन्द्रत्वेन प्रतिपादितत्वात् , अन्यथा वा पुनरुक्तपरिहारः कार्यः, अरजासि-निर्मलानि अम्बरम्-आकाशं तद्वदच्छत्वेन यानि तान्यम्बराणि तानि च वस्त्राणि च २ तानि धारयति यः स तथा, आलगितमालम्-आरोपितसम् मुकुटं यस्य स तया, नवे इव नवे हेनः-सुवर्णस्य सम्बन्धिनी चारुणी-शोभने चित्रे-चित्रवती चञ्चले ये कुण्डले ताभ्यां विलिख्यमानौ गण्डौ-कपोलौ यस्य स तथा,शेष प्रागिवेति, सामाणियसाहस्सीण'मिह यावत्करणादिदं दृश्य तायचीसाए तायचीसगाणं चउण्डं लोगपालाणं अट्ठण्डं अम्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिहं परिसाणं सत्तण्ई अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीण ति,तत्र त्रयस्त्रिंशाः-पूज्या महत्तरकल्पाः,चत्वारो लोकपालाः पूर्वादिदिगधिपतयः सोमयमवरुणवैश्रवणाख्याः,अष्टौ अग्रमहिन्यः-प्रशानभार्याः, तत्परिवारः प्रत्येकं पञ्चसहस्राणि, सर्वमीलने चत्वारिंशत्सहस्राणि,तिस्रः परिषदः-अभ्यन्तरा मध्यमा वाह्या च, सप्तानीकानि-पदातिगजाश्वरथवृषभभेदात्पञ्च साङ्कामिकाणि, गन्धर्वानकिं नाटयानीकं चेति सप्त, अनीकाधिपतयश्च सप्तवै-प्रधानः पचिः प्रधानो गज एवमन्येऽपि, आत्मरक्षा-अङ्गरक्षास्तेषां चतसः सहस्राणां चतुरशीत्यः। आख्यातिसामान्यतो भाषते विशेषतः, एतदेव प्रज्ञापयति प्ररूपयतीति पदद्वयेन क्रमेणोच्यत इति, 'देवेण दे'त्यादौ यावत्करणादेवं द्रष्टव्यं 'जक्वेण वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किम्पुरिसेण वा महोरगेण वा गन्धब्वेण वा' इति ॥ 'इट्टी' इत्यादि यावत्करणादिदं दृश्यं । “जुई जसो बलं बीरियं पुरिसकारपरकमे 'ति'नाई मुज्जो करणयाए' न-नैव, आईतिनिपातो वाक्यालङ्कारे अवधारणे वा, भूयाकरणताया-पुनराचरणे न प्रवर्तिष्ये इति गम्यते ॥ (सू. २३) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ, तए णं से कामदेवे लमणोवासए इमीसे कहाए दीप अनुक्रम [२५] 60.3000 ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [२], ------ मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [२६] उपासक जाव लट्ठ समाणे एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ त सेयं खलु मम समणं भगवं महावीरं वन्दित्ता 5 कामदेवादशाङ्गनमंसिचा तो पडिणियत्तस्स पोसहं पारितएतिकडु एवं मम्पेहेइ २ ना सुद्धप्पाचेसाई वत्थाई जाव अप्पमहग्ध०१ ॥ २७॥ जाव मणुस्सवग्गुरापरिक्खिने सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ २ ना चम्म नगरि मझमझेणं निग्गच्छइ २ ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जहा सङ्खो जाव पज्जुवासइ, तए णं समणे भगवं महावीरे कामदेवस्म ममणावासयस्स के तीसे य जाव धम्मकहा समत्ता (सू. २४) । 'जहा सङ्केति यथा शङ्कः श्रावको भगवत्यामभिहितस्तथाऽयमपि वक्तव्यः, अयमभिप्रायः अन्ये पञ्चविधमभिगमं सचित्तद्रव्यव्युत्सादिकं समवसरणप्रवेशे विदधति, शङः पुनः पोषधिकत्वेन सचेतनादिद्रव्याणामभावात्तन्न कृतवान् , अयमपि पौषधिक इति शडेनोपमितः । यावत्करणादिदं द्रष्टव्यं-'जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २ चा वन्दइ नमसइ २ ता नच्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे | पञ्जलिउडे पज्जुवासइति ॥ 'तए णं समणे ३ कामदेवस्स समणोवासयस्स तीसे य इत आरभ्य औपपातिकाधीतं सूत्रं | तावद्वक्तव्यं यावदर्मकथा समाप्ता परिपच प्रतिगता, तवैवं सविशेषमुपदय॑ते-'तए णं समणे भगवं महावीरे कामदेवस्स समणोचासयस्स तीसे य महइमहालियाए-तस्याच महातिमहत्या इत्यर्थः। 'इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइ परिसाए' तत्र पश्यन्तीति ऋषयः अवध्यादिज्ञानवन्तः, मुनयो-चायमाः, यतयो-धर्मक्रियासु प्रयतमानाः, 'अणेगसयवंदाए अनेकशतप्रमाणानि वृन्दानि यस्या a॥२७॥ 0530 कामदेव श्रमणोपासकस्य धर्मश्रवण यावत् धर्मप्रज्ञप्तिस्वीकार: ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [२], ------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] सा तथा 'अणेगसयवन्दपरिवाराए' अनेकशतप्रमाणानि यानि दृन्दानि तानि दृन्दानि परिवारो यस्य ।सा तथा, तस्याः धर्म । परिकथयतीति सम्बन्धः,किम्भूतो भगवान् ?-'ओहबले अइब्बले महब्बले ओघवल:--अव्यवच्छिन्नवलः अतिबल:-अतिक्रान्ताशेषपुरुषामरतिर्यग्वलः, महाबल:-अमितबलः, एतदेव प्रपश्यते-'अपरिमियबलविरियतेयमाहपकंतिजुत्ते' अपरिमितानि गानिबलादीनि तैयुक्तो यः स तथा, तत्र बलं-शारीर प्राणः वीर्य-जीवप्रभवः तेजो-दीतिः माहात्म्यं महानुभावता कान्तिः-काम्यता |'सारयनवमेहथणियमहुरनिग्योसदुन्दुभिसरे' शरत्कालप्रभवाभिनवमेघशब्दवन्मधुरो निघोंषो यस्य दुन्दुभेरिव च स्वरो यस्य स तथा, 'उरेवित्थडाए' उरसि विस्तृतया उरसो विस्तीर्णत्वात् सरस्वत्येति सम्बन्धः, 'कण्ठे पट्टियाए' गलविवरस्य वर्तुलत्वात् , सिरे सन्लिाए' मूर्धनि सङ्कीर्णया, आयामस्य मूनो स्खलितत्वात् , 'अगरलाए' व्यक्तवर्णयेत्यर्थः, 'अमम्मणाए' अनवखश्यमानयेत्यर्थः, 'सव्वक्वरसन्निवाइयाए' सर्वाक्षरसंयोगवत्या 'पुण्णरत्ताए परिपूर्णमधुरया 'सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सईए-भणित्या 'जोयणनीहारिणा सरेणं योजनातिक्रामिणा शब्देन, 'अद्धमागहाए भासाए भासइ अरहा धर्म परिकहेइ,' अर्धमागधी भाषा यस्यां 'रसोलशी मागध्या मित्यादिकं मागधभाषालक्षणं परिपूर्ण नास्ति, भाषते सामान्येन भणति, किंविधो भगवान:-अर्हन्पूजितो पूजोचितः, अरहस्यो वा सर्वज्ञत्वात् , के ? 'धर्म' श्रद्धेयज्ञेयानुष्ठेयवस्तुश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपं । तथा परिकथयति अशेषविशेषकथनेनेति । तथा 'तेसि सव्वेसि आरियमणारियाणं अगिलाए धम्ममाइक्खइ' न केवलं ऋषिपर्षदादीनां, ये वन्दनाद्यर्थमागतास्तेषां च सर्वेषामार्याणाम्-आर्यदेशोत्पन्नानामनार्याणा-म्लेच्छानामग्लान्या-अखेदेनेति ॥ 'सावि यणं अद्धमामहा भासा तेसिं आरियमणारियाणं अप्पणो भासाए परिणामेणं परिणमइ स्वभाषापरिणामेनेत्यर्थः,धर्मकथामेव दर्शयति-'अस्थि लोए अत्थि अलोए दीप अनुक्रम [२६] SARERainintamanna Auditurary.com | कामदेव श्रमणोपासकस्य धर्मश्रवण यावत् धर्मप्रज्ञप्तिस्वीकार: ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [२], ------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: उपासक प्रत २८॥ सूत्रांक [२४] एवं जीवा अजीवा बन्धे मोक्खे पुण्णे पावे आसवे संवरे वेयणा निजरा' एतेषामस्तित्वदर्शनेन शून्यज्ञाननिरात्माद्वैतकान्तक्षणिक- र कामदेवानित्यवादिनास्तिकादिकुदर्शननिराकरणात् परिणामिवस्तुप्रतिपादनेन सकलैहिकामुष्मिकक्रियाणामनवद्यत्वमावेदितं, तथा 'अस्थि ध्ययनम् अरहन्ता चकवट्टी बलदेवा वासुदेवा नरगा नेरइया तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ माया पिया रिसओ देवा देवलोया सिद्धी सिद्धा परिणिवाणे परिणिन्वुया' सिद्धिः-कृतकृत्यता परिनिर्वाण-सकलकर्मकृतविकारविरहादतिस्वास्थ्य एवं सिद्धपरिनितानामपि विशेषोऽवसेयः, तथा-आत्थि पाणाइवाए मुसावाए अदिण्णादाणे मेहुणे परिग्गहे, अत्थि कोहेमाणे माया लोभे पेजे दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुन्ने अरइरई परपरिवाए मायामोसे मिच्छादसणस , अस्थि पाणाइवायवेरमणे जाव कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे, किंबहुना ? सवं अत्थिभावं अत्यित्ति वयइ, सव्वं नस्थिभावं नस्थिति वयइ, सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवन्ति सुचरिताः-क्रियादानादिकाः सुचीर्णफलाः-पुण्यफला भवन्तीत्यर्थः, 'दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवन्ति, 'फुसइ पुण्णपावे बनात्यात्मा शुभाशुभकर्मणी, न पुनः साङ्यमतेनेव न बध्यते, 'पञ्चायन्ति जीवा' प्रत्याजायन्ते उत्पद्यन्ते इत्यर्थः, 'सफले . कल्लाणपावए' इष्टानिष्टफलं शुभाशुभं कर्मेत्यर्थः, 'धम्ममाइक्खइ' अनन्तरोक्तं ज्ञेयश्रद्धेयज्ञानश्रद्धानरूपमाचष्टे इत्यर्थः, तथा 'इणमेव निग्गन्थे पावयणे सच्चे' इदमेव-प्रत्यक्ष नैन्यं प्रवचन-जिनशासनं सत्यं-सद्भूतं कषादिशुद्धत्वात्सुवर्णवत् 'अणुतरे। अविद्यमानप्रधानतरं 'केवलिए अद्वितीयं 'संसुदे' निर्दोष पडिपुण्णे' सद्गुणभृतं 'मेयाउए । नैयायिकं न्यायनिष्ठं 'सलगत्तणे' मायादिशल्यकर्तनं 'सिद्धिमग्गे' हितप्राप्तिपथः 'युत्तिमग्ने । अहितविच्युतेरुपयः ॥२८ निजाणमम्गे' सिद्धिक्षेत्रावातिपयः 'परिनिव्वाणमगे कर्माभावप्रभवसुखोपायः, ' सन्नदुक्स्वप्पहीणमग्गे ' सकलदुःखक्षयोपायः दीप अनुक्रम [२६] Baitaram.org कामदेव श्रमणोपासकस्य धर्मश्रवण यावत् धर्मप्रज्ञप्तिस्वीकार: ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [२], ------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] इदमेव प्रवचनं फलतः प्ररूपयति-'इत्यं ठिया जीवा सिझति निष्ठितार्थतया बुज्झन्ति केवलितया मुञ्चन्ति-कर्मभिः परिणिवायन्तिस्वधीभवन्ति, किमुक्तं भवति -सव्वदुक्खाणमन्तं करेन्ति, एगचा पुण एगे भयन्तारो, एकार्या-अद्वितीयपूज्याः संयमानुष्ठाने वा असदृशी अर्चा-शरीरं येषां ते एकार्चाः, ते पुनरेके केचन ये न सिध्यन्ति ते भक्तारो-निर्ग्रन्थप्रवचनसेवका भदन्ता वा-भट्टारका भयत्रातारो बा, 'पुन्चकम्मावसेसेणं अन्नतरेसु देवलोगेसु देवताए उबवत्तारो भवन्ति महिड्डिएसु महज्जुइएसु महाजसेसु महाबलेसु महाणुभावेसु महासुक्खे दूरङ्गएसु चिरहिइएसु, ते णं तत्थ देवा भवन्ति पहिदिया जाव चिरविइया हारविराइयवच्छा कडगतु|डियथम्भियभुया अङ्गन्दकुण्डलमट्ठगण्डतलकण्णपीढधारा विचित्तहत्याभरणा विचित्तमालामउलीमउडा-विदीप्तानि विचित्राणि वा मउली'त्ति मुकुटविशेषः कल्लाणपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरचोन्दी पलम्बवणमालाधरा दिव्येण वण्णेणं दिव्येणं गन्धेणं दिव्येणं फासेणं दिवेणं सजायणेणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्डीए दिव्वाए जुईए दिव्वाए पभाए दिवाए छायाए दिव्वाए अच्चीए दिव्येणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोएमाणा पभासेमाणा गइकल्लाणा ठिइकल्लाणा आगमेसिभदा पासाईया दरसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा, तमाइक्खइ' यदेतत् धर्मफलं तदाख्याति, तथा ' एवं खलु चउहिं ठाणेहि जीवा नेरइयत्ताए कम्मं पकरेन्ति, 'एवमिति वक्ष्यमाणप्रकारेणेति, नेरइयत्ताए कम्मं पकरेत्ता नेरइएमु उववज्जन्ति, तंजहा-महारंम्भयाए महापरिम्गहयाए पश्चेन्दियवहेणं कुणिमाहारेणं' 'कुणिम ति मांसं, एवं च एएणं अभिलावेणं तिरिक्खजोणिएसु माइल्लयाए अलियवयणेणं उकञ्चणयाए वञ्चणयाए, तत्र माया-वञ्चनबुद्धिः उत्कञ्चनं-मुन्धवञ्चनप्रवृत्तस्य समीपवतिविदग्धचित्तरक्षणार्य क्षणमव्यापारतया अवस्थानं, वञ्चनं-प्रतारणं ।। मणूसेसु पगइभइयाए पगइविणीययाए साणुकोसयाए अमच्छरियाए, प्रकृतिभद्र दीप अनुक्रम [२६] REaandol Turmurary.om कामदेव श्रमणोपासकस्य धर्मश्रवण यावत् धर्मप्रज्ञप्तिस्वीकारः ~ 60 ~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [२], ------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: सपासक प्रत ॥२९॥ सूत्रांक [२४] दीप कता-स्वभावत एवापरोपतापिता, अनुक्रोशो-दया ॥ देवेसु सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं अकामनिज्जराए बालतवोकम्मेणं, तमाइ- कामदेवा क्खा ॥ यदेवमुक्तरूपं नारकत्वादिनिबन्धनं तदाख्यातीत्यर्थः ॥ तथा । जेह नरवा गम्मन्नी जेनरया जा य चेयणा नरए । सारीर-1 ध्ययनम् |माणसाई दुक्खाइ तिरिक्खजोणीए ॥१॥ माणुस्सं च अणिञ्च वाहिजरामरणवेयणापउरं । देवे य देवलोए देवेहिं देवसोक्खाई ॥२॥ देवांश्च देवलोकान् देवेषु देवसौख्यान्याख्यातीति ॥ नरगं तिरिक्खजोणिं माणुसभावं च देवलोगं च । सिद्धिं च सिद्धिवसहिं छज्जीबणिय परिकहेइ ॥ ३ ॥ जह जीवा वज्अन्ती मुच्चन्ती जह य सङ्किलिस्सन्ति । जह दुक्खाणं अन्त करेन्ति केई अपडिबद्धा ॥ ४ ॥ अट्टा अहियचिचा जह जीवा दुक्खसागरमुवन्ति । जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुम्ग विहाडेन्ति ॥ ५॥ आता:---शरीरतो दाखिताः10 आतितचित्ताः-शोकादिपीडिताः, आद्विा ध्यानविशेषादार्जितचित्ता इति । जह रागेण कडाणं कम्माणं पावओ फलविवागो । जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुवेन्ति ॥ ६ ॥ अथानुष्ठेयानुष्ठानलक्षणं धर्ममाह-'तमेव धम्मं दुविहमाइक्वियं' येन धर्मेण सिद्धाः सिद्धालयमुपयान्ति स एव धर्मो द्विविध आख्यात इत्यर्थः, जहा आगारधम्मं च अणगारधम्म च, अणगारधम्मो इह खल || १ यथा नरका गम्पन्ने ये नरका यान वेदनाः नरकेप । शारीरमानसानि दुःस्थानि तिर्यग्पीनी ॥१॥ मानुष्यं चानिय व्याधिजरामरणवेदनाप्रचुर । देवांश्च देवलोकान देवेष देवसीरूपानि ॥२॥ मरकं तिषग्योनि मानुष्यं च देवलोकं च। सिदिच सिद्धवसति पाडूजीवनिकायान् परिकथयति ॥३॥ यथा जीया अध्यन्ते मुच्यन्ते यथा च संक्तिश्यन्ते । यथा दुःखानामन्तं कुर्वन्ति केऽप्यप्रतिबद्धाः॥४॥ आर्ता अतितचित्ता पचा जीवा बुखसागरम्पयन्ति । यथा च वैराग्यमुपगताः कर्मसमह विघाटयान्ति ॥ ५॥ बधा रागेण रूतानां कर्मणां प्राप्नोति फलविपाकः पापकः । यथा च परिक्षीणकर्माणः सिद्धाः सिद्धालयमुपयान्ति ॥ ६॥ अनुक्रम [२६] FarPranaamsamucom Mrunmurary.org कामदेव श्रमणोपासकस्य धर्मश्रवण यावत् धर्मप्रज्ञप्तिस्वीकारः ~61~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [२], ------- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 80 प्रत सूत्रांक [२४] सबओ सर्वान् धनधान्यादिप्रकारानाश्रित्य 'सत्वचाए' सर्वात्मना, सर्वैरात्मपरिणामैरित्यर्थः, अगाराओ अणगारियं पब्वइयस्स सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, एवं मुसाबायाओ अदिण्णादाणमेहुणपरिग्गहराईभोयणाओ वेरमणं, अयमाउसो ! अणगारसामाइए धम्मे पण्णते, एयरस धम्मस्स सिक्खाए उचट्ठिए निग्गन्थे वा निग्गन्थी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ । अगारधर्म दुवालसविहं आइक्वइ, तंजहा-पश्चाणुव्वयाई तिष्णि गुणव्वयाई चचारि सिक्खावयाई, पश्च अणुब्बयाई तंजहा-थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं एवं मुसाबायाओ अदिण्णादाणाओ सदारसन्तोसे इच्छापरिमाणे, तिणि गुणन्बयाई तंजहा अगट्ठादण्डवेरमणं दिसिव्वयं उपभोगपरिभोगपरिमाण, चत्वारि सिक्खावयाई तंजहा-सामाइयं देसावगासियं पोसहोववासो अतिहिसंविभागो, अपच्छि: ममारणन्तियसंलेहणायूसणाआराहणा, अयमाउसो ! आगारसामाइए धम्मे पण्णते, एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवदिए समणोवासए समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ ।। तए णं सा महइमहालिया मणसपरिसा समणरस भगवओ महावीरस्स अन्तिए धम्मं सोचा निसम्म टुतुटु जाव दियया उट्ठाए उट्टेइ २ ना समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २ चा वन्दइ नमसइ २ चा अत्थेगइया मुण्डा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया, अत्गइया पश्चाणुब्वइयं सत्तसिखावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवन्ना, अवसेसा णं परिसा समणं भगवं महावीरं वन्दिचा नमंसित्ता एवं वयासी-सुयक्रवाए ण भन्ते । निग्गन्ये पावयणे, एवं सुपण्णचे भेदतः, सुभासिए वचनव्यक्तितः, सुविणीए सुष्ठ शिष्येषु विनियोजनात , सुभाविए-तत्त्वभणनात् , अणुत्तरे भन्ते ! निग्गन्ये पावयणे, धम्म आइक्खमाणा उवसमं आइक्खह, क्रोधादिनिग्रहमित्यर्थः, उपसमं आइक्खमाणा | विवेगं आइक्खह, वाद्यग्रन्थत्यागमित्यर्थः, विवेग आइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह, मनोनिवृत्तिमित्यर्थः, वेरमणं आइक्खमाणा दीप अनुक्रम [२६] SAMEmirathun कामदेव श्रमणोपासकस्य धर्मश्रवण यावत् धर्मप्रज्ञप्तिस्वीकारः ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [२], ----- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप उपासक- 5 अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह, धर्ममुपशमादिस्वरूपं ब्रूयोति हृदयं, नत्यि णं अण्णे कोइ समणे वा माहणे वा जे र कामदेवादशाने एरिसं धम्ममाइविखत्तए, प्रभुरिति शेषः, किमङ्ग पुण एतो उत्तरतरं , एवं वदिचा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसंध्य यनम् पडिगयत्ति ॥ (सू.२४) कामदेवाइ ! समणे भगवं महावीरे कामदेवं समणावासयं एवं वयासी-से नूणं कामदेवा ! तुम्भं पुच्वरत्तावरनकालसमयसि एगे देवे अन्तिए पाउन्भए, तए णं से देवे एगं महं दिव्वं पिसायरूवं विउच्वइ २ चा आसुरुते ४ एगं महं नीलुप्पल जाव असिं गहाय तुमं एवं वयासी-हं भो कामदेवा ! जाव जीवियाओ ववरोविज्जसि, तं तुम तेणं देवेणं एवंवुत्ते समाणे अभीए जाब विहरसि एवं वण्णगरहिया तिण्णिवि उवसग्गा तहेव पडिउच्चारयच्या जाव देवो पडिगओ, से नूणं कामदेवा अढे सम?, हन्ता, अस्थि, अज्जो इ समणे भगवं महावीरे बहवे समणे निग्गन्थे य निग्गन्थीओ य आमन्तेत्ता एवं वयासी-जड ताव अज्जो समणोवासगा गिहिणो गिहमाझावसन्ता दिवमाणुसतिरिक्खजोणिए उवसग्गे सम्म सहन्ति जाव अहियासेन्ति, सक्का पुण्णाई अज्जो ! समणेहिं निम्गन्थेहिं दुवालसा गणिपिडगं अहिज्जमाणेहिं दिव्वमाणुमतिरिक्खजोणिए सम्म सहितए जाव आहियासिनए, तओ ते बहवे समणा निग्गन्था य निग्गन्थीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स तहति एयमढें विणएणं पडिसुणन्ति । तए णं से कामदेवे समणोवासए हट्ठ जाव समणं भगवं महावीरं पसिणाई पुच्छइ अट्ठमादियइ, समणं मगवं महावीरं तिक्खुत्तो वन्दइ । अनुक्रम [२६] SAREairahid | भगवंत-महावीरेण कृत कामदेवश्रावकस्य द्रढत्वस्य प्रसंशा ~634 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [२], ------ मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] दीप नमंसद २ ना जामेय दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ चम्पाओ पडिणिक्खमइ २ ना बहिया जणवयविहारं विहरइ (सू. २५) हा 'अद्वे समढे त्ति अस्त्येषोऽर्थ इत्यर्थः, अथवा अर्थः-मयोदित वस्तु समर्थः-सङ्गतः, हन्ता इति कोमलामन्त्रणवचनं, 'अज्जो' त्ति आर्या इत्येवमामन्यैवमवादीदिति, 'सहन्ति ति यावत्करणादिदं दृश्यं-वमन्ति तितिक्खन्ति, एकार्थाथैते, विशेषव्याख्यानमप्येषामस्ति तदन्यतोऽवसेयमिति ।। (मू. २५) | तए णं से कामदेवे समणोवासए पढमं उबासगपाडिमं उवसम्पजिताणं विहरइ, तए णं से कामदेव समणोवाजासए बहुहिं जाव भावेत्ता वीसं वासाई समणोवासगपरियागं पाउणित्ता एक्कारस उवासगपडिमाओ सम्मं कारणं जाफासेना मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झुसित्ता सदि भत्ताई अणसणाए छेदेना आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपने कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसयस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरच्छिमेणं अरुणाभे विमाणे देवनाए उववन्ने, तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णता कामदेवस्सऽवि देवस्स चत्तारि पलिओ बमाई ठिई पण्णता । सेणं भन्ते ! कामदेवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणन्तरं चयं । काचइत्ता कहिं गमिहिइ कहिं उबवजिहिइ ?, गोयमा ! महाविदेहे वासे सिमिहिइ । निक्खेवो (सू. २६) अनुक्रम [२७] FaPaumaan unconm IRHuntaram.org ~64~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [२], ------- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ३चुलनीपित्रध्व० दभाड़ प्रत सूत्रांक [२६] मत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं वीर्य अन्झयणं समत्तं ॥ 'निक्खेवओत्ति निगमनवाक्यं वाच्यं, तच्चेदं एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव सम्पत्तेणं दोच्चस्स अज्झयणस्स अयम? |पण्णनेत्ति बेमि ॥ (सू. २६) ॥ इति उपासकदशानां द्वितीयाध्ययनविवरणं समाप्तम् ॥ दीप अनुक्रम [२८] अथ तृतीयमध्ययनम् ॥ उक्खेवो तइयस्स अन्झयणस्स-एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नामं नयरी, काटुए, चेइए, जियसनू राया। तत्थ ण बाणारसीए नगरीए चुलणीपिया नाम गाहावई परिवसइ, अहे जाव अपारभूए, सामा भारिया, अट्ठ हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ अट्ठ वुटिपउत्ताओ अट्ठ पवित्थरपउत्ताओ अट्ठ वया दसगा-2 | साहस्सिएणं वएणं जहां आणन्दोराईसर जाव सव्वकज्जवट्टावए याविहोत्था, सामी समोसड़े, परिसा निग्गया, चुलणीपियापि जहा आणन्दो तहा निग्गओ, तहेव गिहिधम्म पडिवजइ, गोयमपुच्छा तहेव सेसं जहा कामदेवस्स जाव 534639.3.30003054:5804 SARELatun international अत्र द्वितीयं अध्ययनं परिसमाप्तं अथ तृतीय, अध्ययनं "चुलनीपिता" आरभ्यते [चुल्लशतक-श्रमणोपासक कथा] ~65~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [२९] अध्ययन [ ३ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] “उपासकदशा” - अंगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) - पासहसालाए पोसहिए बम्भचारी समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्मपण्णत्तिं उवसम्पजित्ता णं विहरइ | ( स. २७) अथ तृतीयं व्याख्यायते तच्च सुगममेव, नवरं 'उक्खेवो' त्ति उपक्षेपः- उपोद्घातः तृतीयाध्ययनस्य वाच्यः, स चायम्जइ णं भन्ते ! समणणं भगवया जाव सम्पत्तेणं उवासगदसाणं दोच्चस्स अज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते तच्चस्स णं भन्ते ! अज्झयणस्स के अट्टे पण्णत्ते ? इति कण्ठ्यश्चायम् || तथा कचित्कोष्टकं चैत्यमधीतं कचिन्महाकामवनमिति, श्यामा नाम भार्या (सू. २७ ) सकें Education International मूलं [२७] “उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः तए णं तस्स चुलणीपियस्स समणोवासयस्स पुव्वरत्तावर त्तकालसमयंसि एगे देवे अन्तियं पाउब्भूए तए णं से देवे एगं नीलप्पल जाव असिं गहाय चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी हं भो चुलणीपिया ! समगोवासया जहा कामदेवो जाव न भज्जसि तो ते अहं अज्ज जेट्ठे पुतं साओ गिहाओ नाणेमि २ ता तव अग्गओ घाएमि २ ता तओ मंससोल्ले करेमि २ ता आदाणभरियंसि कडाहयँसि अद्दहेमि २ ना तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयञ्चामि जहा णं तुमं अट्टदुहट्टवसट्टे अकाले चेव | जीवियाओ ववरोविज्जसि, तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तेणं देवेणं एवं वृत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ, तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव पास २ ना दोपि तचंपि चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी - हं भो चुलणीपिया समणोवासया ! तं चैव भणइ, सो जाव विहरद, तए णं से देवे चुलणीपियं समणो For Pernal Praise Only चुलनीपिता एवं देवकृत-उपसर्गः ~66~ Mayor Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [३], ------ मूलं [२८-२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [ob], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: दवाङ्गे ॥३२॥ प्रत सूत्रांक [२८-२९] दीप अनुक्रम [३०-३१] वासयं अभीयं जाव पासित्ता आसुरुचे ४ चुलणीपियस्स समणोवासयस्स जेटुं पुन गिहाओ नीणेइ २ ता अग्गओ३ चुलनीघाएइ २ ना तओ मंससोल्लए करेइ २ ना आदाणभरियसि कडाहयंसि अद्दहेइ २ ना चुलगीपियस्स समणोवासय- पित्रव्यः स्स गायं मंसेण य सोणियेण य आयश्चइ, तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तं उजलं जाव अहियासेइ, नए पापातृवधासे देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव पासद २ चा दोच्चपि चुलणीपियं समोवासयं एवं वयासी-हं भोलापसमा चुलणीपिया समणोवासया ! अपात्थियपत्थया जाव न भज्जसि तो ते अहं अज्ज मन्झिमं पुत्तं साओ गिहाओ नीगेमि २ चा तव अग्गो घाएमि जहा जेटुं पुत्रं तहेव भणइ तहेव करेइ एवं तच्चंपि कणीयस जाव अहियासेइ, तए णं से देवे चुलणापियं ममणोवासयं अभीयं जाव पासइ२ चा चउत्थंपि चुलणीपियं समोवास एवं वयासी-“हे भो चुलणीपिया समणोवामया अपत्थियपत्थया ४ जइ णं तुमं जाव न भन्जसि तओ अहं अज जा इमा तव माया भद्दा सत्थवाही देवयगुरुजणणी दुक्करदुक्करकारिया तं ते साओ गिहाभो नीणेमि २ ना तव अग्गो घाएमि २ ता तो मंससोल्लए करेमिना आदाणभरियसि कडाहयसि अद्दहेमि २ ना तब गायं मंसेण य सोणिएण य आयश्चामि जहा णं तुम अट्टदुहट्टवमट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववराविजसि, तए ण से चुलगीपिया समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ने समाणे अभीए जाव विहरइ, तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं ॥३२॥ जाव विहरमाणं पासइ २ ता चुलणीपियं समणोवासयं दोच्चपि तचपि एवं वयासी-हं भो चुलणीपिया ममण SECSelete Pranaamwan unconm चुलनीपिता एवं देवकृत-उपसर्ग: ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [३], ---- मूलं [२८-२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८-२९] वासया ! तहेब जाव ववरोविजसि, तए णं तस्स चुलणीपियस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोचंपि तच्चपि एवं वुनस्स समाणस्स इमेयारुचे अज्झस्थिए ५ अहो णं इमे पुरिसे अणारिए अणारियबुद्धी अणारियाई पाबाई कम्माई समायरइ, जेणं ममं जेटुं पुत्रं साओ गिहाओ नीणे २ ना मम अग्गओ घाएइ २ चा जहा कयं नहा चिन्तेइ जाब गायं आयश्चइ, जेणं ममं मज्झिमं पुत्रं साओ गिहाओ जाव सोणिएण य आयश्चइ, जेणं ममं कणीयसं पुतं | साओ गिहाओ तहेव जाव आयश्चइ, जाऽवि य णं इमा ममं माया भद्दा सत्यवाही देवयगुरुजणणी दुक्करदुक्करकारिया तंपि य णं इच्छइ साओ गिहाभो नीणेत्ता मम अग्गओ घाएत्तए, तं सेयं खलु ममं एवं पुरिसं गिण्हित्तएतिकहु उद्घाइए, सेऽवि य आगासे उप्पइए, तेणं च खम्भे आसाइए, महया महया सद्देणं कोलाहले कए, तए णं सा भद्दा सत्थवाही ते कोलाहलसह सोचा निसम्म जेणेव चुलणीपिया समणावासए तेणेव उवागच्छद २ ता चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी-किणं पुना ! तुमं महया महया सडेणं कोलाहले कए ?, तए णं से चुलणीपिया समणोवासए अम्मयं भदं सत्थवाहिँ एवं वयासी-एवं खलु अम्मो ! न जाणामि केवि पुरिसे आसुरुत्ते ५ एग महं नीलुप्पल जाव असि गहाय ममं एवं वयासी है भो चुलणीपिया समणोवासया ! अपत्थियपत्थया ४ जइणं तुमं जाव ववरोविजास, अहं तेणं पुरिसेणं एवं बुत्ने समाणे अभीए जाव विहरामि, तए णं से पुरिसे ममं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ । २ ना ममं दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी-हं भो चुलणीपिया समणोवासया ! तहेव जाव गायं आयञ्चइ, तए णं अहं दीप अनुक्रम [३०-३१] dilauranorm चुलनीपिता एवं देवकृत-उपसर्ग: ~68~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [३], ------ मूलं [२८-२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: सपासक चुलनी पित्रध्य. प्रत सूत्रांक [२८-२९] मातृवधान न्तोषसर्गः दीप अनुक्रम [३०-३१] उजलं जाव अहियासमि, एवं तहेव उच्चारेयव्वं सव्वं जाव कणीयसं जाव आयञ्चइ, अहं तं उज्जलं जाव अहियासे- मि, तए णं से पुरिसे ममं अभीयं जाव पामइ २ ला ममं चउत्थंपि एवं वयासी-हं भो चुलणीपिया समणोवासया ! अपत्थियपत्थया जाव न भजमि तो ते अज्ज जा इमा माया गरु जाव चवरोविज्जास. तए णं अहं तेणं परिसेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरामि, तए णं से पुरिसे दोच्चंपि तपि ममं एवं वयामी-हं भो चुलणीपिया समणोवासया ! अज्ज जाव ववरोविज्जसि, तए णं तेणं पुरिसेणं दोच्चपि तच्चपि ममं एवं वुनस्स समाणस्स इमेयारूवे अन्झथिए ५ अहो णं इमे पुरिसे अणारिए जाव समायरइ, जेणं ममं जेटुं पुनं साओ गिहाओ तहेव जाव कणीयसं जाव आयश्चइ, तुम्भेऽवि य णं इच्छइ साओ गिहाओ नीणेता मम अग्गओ घाएत्तए, तं सेयं खलु ममं एवं पुरिसं गिहित्तएत्तिकह उद्घाइए, सेऽवि य आगासे उप्पइए, मएऽवि य खम्भे आसाइए महया महया सद्देणं कोलाहले कए, तए णं सा भद्दा सत्थवाही चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी-नो खलु केई पुरिसे तव जाव कणीयसं पुतं साओ गिहाओ निणेइ २ ना तब अग्गो घाएइ, एस णं केइ पुरिसे तव उवसग्गं करेइ, एस णं तुमे विदरिसणे दिढे, णं तुम इयाणि भग्गब्बए भग्गनियमे भग्गपोसहे विहरसि, तं णं तुमं पुत्ता ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवज्जाहि. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए अम्मगाए भद्दाए सत्थवाहीए तहत्नि एयमद्वं विणएणं पडिसणेइ २ ला तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव पडिवज्जड (म.२८) Baitaram.org चुलनीपिता एवं देवकृत-उपसर्ग: ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [३], ------ मूलं [२८-२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८-२९] दीप अनुक्रम [३०-३१] तए णं से चुलणीपिया समणोवासए पढम उवासगपडिमं उबसम्पजिना णं विहरद, पढमं उवासगपडिमं अहासुन जहा आणन्दो जाव एक्कारसवि, तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तेणं उरालेणं जहा कामदेवो जाव मोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसगस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरच्छिमेणं अरुणप्पभे विमाणे देवताए उववन्ने । चत्तारि कपलिओवमाई ठिई पण्णता । महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ५॥ निक्खेयो ( स. २९) " सनमस्स अङ्गस्स उधासगदसाणं तइयं अज्झयणं समत्तं ॥ 'तओ मंससोल्ले' ति त्रीणि मांसशूल्यकानि झूले पच्यन्ते इति शूल्यानि, त्रीणि मांसखण्डानीत्यर्थः, 'आदाणभरिकायसि' ति आदाणम्-आद्रहणं यदुदकतैलादिकमन्यतरद्रव्यपाकायानावुत्ताप्यते तद्धृते, 'कडाहंसित्ति कटाहे-लोहमयभाजनविशेषे, आद्रहयामि-उत्काथयामि 'आयञ्चामि' ति आसिञ्चामि || 'एस णं तए विदरिसणे दिद्वे' त्ति एतच्च त्वया विदर्शन -विरूपाकारं विभीषिकादि दृष्टम्-अवलोकितमिति, 'भग्गवए' त्ति भनवता, स्थूलपाणातिपातविरतेर्भावतो भग्नत्वात् , तद्विनाशार्थ कोपेनोद्धावनात् सापराधस्यापि व्रताविषयीकृतत्वात् , 'भग्ननियम:' कोपोदयेनोचरगुणस्य क्रोधाभिग्रहरूपस्य भग्नत्वात् , 'भग्नपोषधः अव्यापारपौषधभङ्गन्त्वात् , 'एयस्स' त्ति द्वितीयार्थत्वात् षष्ठ्याः, एतमर्थमालोचय-गुरुभ्यो निवेदय, यावत्करणात् पडिकमाहि-निवर्तस्व, निन्दाहि-आत्मसाक्षिकां कुत्सां कुरु, गरिहाहि-गुरुसाक्षिका कुत्सां विधेहि, विउट्टाहि-वित्रोटय तद्भावानुबन्धच्छेदं विधेहि, विसोदेहि-अतिचारमलक्षालनेन अकरणयाए अभुट्टैहि-तदकरणाभ्युपगमं कुरु, 'अहारिहं तबोकम्मं पायच्छित्तं FaPranaamvam ucom ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [३], ---- मूलं [२८-२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [0], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: उपासक- पडिवजाहि' ति प्रतीतं, एतेन च निशीथादिषु गृहिणं प्रति प्रायश्चित्तस्याप्रतिपादनान्न तेषां प्रायश्चित्तमस्तीति ये प्रतिपद्यन्ते तन्मत- दशाङ्गेमपास्त, साधुद्देशन गृहिणोऽपि प्रायश्चित्तस्य जीवितव्यवहारानुपातित्वात् (सू. २९) ॥ इति उपासकदशानां तृतीयाध्ययनस्य विवरणं समाप्तम् ॥ चुलना सुरादेवा प्रत सूत्रांक [२८-२९] दीप अनुक्रम [३०-३१] अथ चतुर्थमध्ययनम् ॥ ॥ उक्खेवओ चउत्थस्स अज्झयणस्स, एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं सभएणं वाणारसी नामं नयरी, कोदए चेइए, जियसत्तू राया, सुरादेवे माहावई अड्डे छ हिरण्णकोडीओ जाव छ वया दसमोसाहस्सिएणं वएणं,धन्ना भारिया, सामी समोसडे, जहा आणन्दो तहेव पडिवजइ गिहिधम्म, जहा कामदेवो जाव समणस भगवो महावीरस्स धम्मपण्णर्ति उवसम्पजिना णं विहरह (सू. ३०) अथ चतुर्थमारभ्यते, तदपि सुगम नवरं चैत्यं कोष्टकं, पुस्तकान्तरे काममहावन, धन्या च भार्या (सू ३०) तए णं तस्स सुरादेवस्स समणोवासयस्स पुव्वरत्वावरत्तकालसमयसि एगे देवे अन्तियं पाउभवित्था से देखें लिए महं नीलुप्पल जाव असिं गहाय सुरादेवं समणोवासयं एवं पयासी-हे भो सुरादेवा समणोवासया ! अपस्थियप ॥ ३४ ॥ Pranaamwan unconm amitaram.org अत्र तृतीयं अध्ययनं परिसमाप्तं अथ चतुर्थ अध्ययनं "सुरादेव' आरभ्यते [सुरादेव-श्रमणोपासक कथा] ~71~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [४], ------ मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३३] स्थिया ४ जइ णं तुम सीलाई जाव न भञ्जसि तो त जेटुं पुत्रं साओ गिहाओ नाणेमि २ ता तब आगओ घाएमि २ चा पञ्च सोल्लए करेमि आदाणभरियांसि कडाहयंसि अद्दहेमि २ चा तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयश्चामि जहा णं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजसि, एवं मज्झिमयं, कणीयसं, एक्केके पश्च सोल्लया, तहेव करे, जहा चुलणीपियस्स, नवरं एक्केके पश्च सोल्लया, तए णं से देवे सुरादेवं समणोवासय चउत्थंपि एवं वयासी-हं भो । सुरादेवा ! समणोवासया अपत्थियपत्थिया ४ जावन परिचयास तो ते अज सरीरंसि जमगसमगमेव सोलस रोगायले पक्खिवामि, तंजहा-सासे कासे जाव कोढे, जहा णं तुमं अदृदुहट्ट जाव ववरोविजसि, तए णं से मुरादेवे समणोवासए जाव विहरइ, एवं देवो दोच्चपि तच्चपि भणइ जाव ववरोविज्जसि,तए णं तस्स सुरादेवस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चपि तच्चपि एवं बुत्तस्स समाणस्स इमयारूवे अज्झथिए ४-अहो णं इमे पुरिसे अणारिए जाव समायरइ, जेणं ममं जेट्टे पुतं जाव कणीयसं जाव आयञ्चइ, जेऽवि य इमे सोलस रोगायङ्का तेऽवि य इच्छइ मम सरीरगंसि पक्खिवित्तए, तं मेयं खलु ममं एयं पुरिमं गिण्हित्तएनिकहु उद्याइए. सेऽवि य आगासे उप्पइए, तेण य खम्भे आसाइए महया महया सद्देणं कोलाहले कए, तए णं सा धन्ना भारिया कोलाहलं सोचा निसम्म जेणेव सुरादेवे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ २ता एवं वयासी-किण्णं देवाणुप्पिया ! तुब्भोहिं महया महया सदेणं कोलाहले का?, तए णं से सुरादेवे ममणोवासए धन्नं भारियं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! केऽवि पुरिसे तहेव कहेइ जहा चुलणीपिया, धन्नाऽवि पडिभणइ जाव कणीयसं, नो खलु देवाणाप्पिया ! तुम्भ SAREauratonintamational Aurauranorm सुरादेव-श्रमणोपासक: एवं देवकृत-उपसर्ग: ~ 72 ~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३३] अध्ययन [ ४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........ आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] “उपासकदशा” - अंगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्ति:) उपासक दशाङ्गे केऽवि पुरिसे सरीरंसि जमगसमगं सोलस रोगाय पक्खिवर, एस णं केवि पुरिसे तुब्धं उवसग्गं करेइ, सेसं जहा चुलणीपियस्स तहा भणइ, एवं सेसं जहा चुलणीपियस्स निरवसेसं जाव सोहम्मे कप्पे अरुणकन्ते विमाणे उववन्ने । ॐ चत्तारि पलिओ माई ठिई, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ५, निक्खेवो ॥ (सू. ३१ ) ॥ ३५ ॥ अत्र चतुर्थ अध्ययनं परिसमाप्तं सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं चउत्थं अज्झयणं समनं ॥ 'जमगसमगं' ति यौगपद्येनेत्यर्थः, 'सासे' इत्यादौ यावत्करणादिदं दृश्यं सासे १ कासे २ जरे ३ दाहे ४, कुच्छिसूले ५ भगन्दरे ६ । अरिसा ७ अजीरए ८ दिट्ठी ९ मुद्धसूले १० अकारण ११ ॥ १ ॥ अच्छिवेयणा १२ कण्णवेयणा १३ कण्डू १४ उदरे १५ कोढे १६ ।।' अकारकः- अरोचकः ॥ ( सू. ३१ ) ॥ इति चतुर्थाध्ययनविवरणं समाप्तम् ॥ मूलं [३१] “उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ~73~ 1482000 ४ सुरा देवा० रोगतङ्कग न्तोप० ।। ३५ ।। Corp Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [५], ----- मूलं [३२-३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२-३४] अथ पञ्चममध्ययनम् ॥ एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नाम नयरी, सइवणे उज्जाणे जियसन राया, चुल्लसयए गाहावई अड्डे जाव छ हिरण्णकोडीओ जाव छ वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं बहुला भारिया सामी समोसढे, जहा आणन्दो तहा गिहिधम्म पडिवज्जइ, सेसं जहा कामदेवो जाव धम्मपण्णतिं उवसम्पन्जित्ताणं विहरइ॥ दीप अनुक्रम [३४-३६] तए णं तस्स चुल्सयगस्स समणोवासयस्स पुब्बरतावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अन्तियं जाव असिं गहाय एवं वयासी-हं भो चुल्लसयगा समणोवासया !जाव न भञ्जसि तो ते अज्ज जेटुं पुतं साओ गिहाओ नाणेमि एवं जहा चुलणीपियं, नवरं एक्के के सत्त मंससोल्लया जाव कणीयसं जाव आयश्चामि, तए णं से चुल्लसयए समणोबासए जाव विहरइ, तए णं से देवे चुल्लसयगं समणोवासयं चउत्थंपि एवं वयासी-हं भो चुल्लसयगा! समणोवासया जाव, न भञ्जसि तो ते अज्ज जाओ इमाओ छ हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ छ बुडिपउनाओ छ पवित्थरपउत्ताओ ताओ साओ गिहाओ नीणेमि २ ला आलभियाए नयरीए सिङ्घाडग जाव पहेस सवओ समन्ता विप्पइरामि, जहा णं तुम अट्टहट्टक्सटे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जास, तए णं से चुल्लसयए समणोवासए तेणं देवेणं एवं बुत्ते ।। SAREauratonintntiational For m e | अथ पंचमं अध्ययनं "चुल्लशतक" आरभ्यते [चुल्लशतक-श्रमणोपासक कथा] ~ 74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [३२-३४] दीप अनुक्रम [ ३४-३६] अध्ययन [ ५ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. “उपासकदशा” - अंगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) Education Internation ..आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] उपासक ॥ ३६ ॥ समाणे अभीए जाव विहरइ, तए णं से देवे चुल्लसयगं समणोवासयं अभीयं जाव पारित्ता दोच्चपि तच्चपि तहेव ५ क्षलशदशाङ्गे भणइ जाव वबरोविज्जसि, तए णं तस्स चुल्लसयगस्स समणोवासयस्स तेणं देवेण दोच्चापि तच्चपि एवं वृत्तस्म समाणस्स अयमेयारुवे अज्झाथिए ४ - अहो णं इमे पुरिसे अणारिए जहा चुलणीपिया तहा चिन्ते जाव कणीयसं जाव आयञ्चर, जाओऽवि य णं इमाओ ममं छ हिरण्णकोडीओ छ निहाण उत्ताओ छबुडिपत्ताओं छ पवित्थरपउत्ताओं ताओऽवि य णं इच्छइ ममं साओ गिहाओ नीणेत्ता आलभीयाए नयरीए सिङ्घाडग जाव विप्पइरिनए, तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिहितएनिकड उद्घाइए जहा सुरादेवो तहेव भारिया पुच्छर तहेब कहेइ ५ (सू. ३३ ) सेसं जहा चुलणीपियस्स जाव सोहम्मे कप्पे अरुणसिट्टे विमाणे उववन्ने, चत्तारि पलिओ माई दिई । सेसं तहेव जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहि ५ ॥ निक्खवो ॥ ( सू ३४ ) इइ सनमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं पञ्चमं अज्झयणं समत्तं पञ्चमं कण्ठम् ।। (सू. ३२-३३-३४ ) अत्र पंचमं अध्ययनं परिसमाप्तं For Penal Use Only मूलं [ ३२-३४] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~75~ तका० ऋद्धिनाशा न्तोष ॥ ३६ ॥ nary or Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [६], ----- मूलं [३५-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५-३६] अथ षष्ठमध्ययनम् ॥ ॥ छट्ठस्स उक्खेवओ-एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं कम्पिल्लपुरे नयरे सहसम्बवणे उज्जाणे जियसत्तू रायी कुण्डकोलिए गाहावई पूसा भारिया छ हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ छ बुड्विपउत्ताओ छ पवित्थरपउनाओ छ क्या दसगोसाहस्सिएणं वएणं । सामी समोसढे, जहा कामदेवो तहा सावयधम्म पडिवज्जइ । मञ्चेव वत्तब्बया जाव पडिलाभेमाणे विहरइ (सु. ३५) तए णं से कुण्डकोलिए समणोवासए अन्नया कयाइ पुवावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवणिया जेणेव पुढाविसिलापट्टए तेणेव उवागच्छइ २ ता नाममुद्दगं च उत्तरिजगं च पुढविसिलापट्टए ठवेइ २ ता समणस्स भगवओ महावीरस अन्तियं धम्मपण्णानिं उवसम्पग्जिचा णं विहरइ,तए णं तस्म कुण्डकोलियस्स समणोवासयस्म एगे देवे अन्तियं पाउभविस्था तए णं से देवे नाममुदं च उत्तरिज्जं च पुढविसिलापट्टयाओ गेण्हइ २ त्ता सखित्रिणिं अन्तलिक्खपडिवन्ने कुण्डकोलियं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो कुण्डकोलिया! समणोवासया सुन्दरीणंदेवाणुप्पिया गोसालस्स मङलिपुत्तस्स धम्मपण्णत्ती-नस्थि उट्ठाणे इ वा कम्मे इ वा बले इ वा वीरिए इ वा पुरिसक्कारपरक्कमे इ वा नियया सवभावा, मङ्गुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णती अस्थि उट्ठाणे इ वा जाव परक्कमे इ वा अणियया सच्वभावा, तए णं से कुण्डकोलिए समणोवासए तं देवं एवं वयासी-जइ णं देवा ! सुन्दरीगोसालस्स दीप अनुक्रम [३७-३८] jaanasurary.com अथ षष्ठं अध्ययनं "कुंडकोलिक* आरभ्यते [कुंडकोलिक-श्रमणोपासक कथा] कुंडकोलिक-श्रमणोपासकः एवं मिथ्यादृष्टिः देवकृत: मिथ्यात्व प्रेरणा ~ 76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) ---- (०७) अध्ययन [६], मूलं [३५-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५-३६] दीप अनुक्रम [३७-३८] उपासक-16 मङ्गुलिपुत्तस्स धम्मपण्णत्ती नस्थि उट्ठाणे इ वा जाव नियया सबभावा, मझुन्ली गं समणस्स भगवो महावीरस्सा कुण्डकोदशाङ्गे धम्मपण्णत्नी अस्थि उट्ठाणे इ वा जाव अणियया सवमावा, तुमे णं देवा ! इमा एयारूवा दिव्वा देविडी दिबालिकाध्यक देवजुई दिब्वे देवाणुभावे किणा लद्धे किणा पत्ते किणा अभिसमन्नागए किं उट्ठाणेणं जाब पुरिसक्कारपरक्कमेणं देवेन बादः उदाहु अणुट्ठाणेणं अकम्मेणं जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं ?, तए णं से देवे कुण्डकोलियं समणोवासयं एवं वयासीएवं खलु, देवाणुप्पिया ! मए इमेयारूवा दिवा देविटी ३ अणुट्ठाणेणं जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं लद्धा पत्ता अभिसमनागया तए णं से कुण्डकोलिए समणोवासए तं देवं एवं वयासी-जइ णं देवा ! तुमे इमा एयारूवा दिया देविड्डी अणुट्ठाणेणं जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, जेसि णं जीवाणं नस्थि उट्ठाणे इ वा पते किं न देवा?, अह णं देवा ! तुमे इमा एयारूवा दिव्या देविडी ३ उट्ठाणेणं जाव परक्कमेणं लद्धा पना अभिसमन्नागया तो जं वदसि-सुन्दरी णं गोसालस्स मङ्गुलिपुत्तस्स धम्मपण्णनी-नस्थि उट्ठाणे इ वा जाव नियया सवभावा, मङ्गुली णं समणस्त भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती-अस्थि उदाणे इ वा जाव अणियया सब्वभावा, तं ते मिच्छा ॥ तए थे| से देवे कुण्डकोलिएणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे सरि जाव कलुप्ससमावन्ने नो संचाएइ कुण्डकोलियम समणोवासयस्स किंचि पामोक्खमाइक्खिनए, नाममुद्दयं च उनरिज्जयं च पुढविसिलापट्टए ठवेडरता जामेव दिसें पाउभए तामेव दिसि पडिगए। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसडे, तर णं से कुण्डकोलिए समगोवासर इमीसे कहाए लद्धटे हट्ठ जहा कामदेवो तहा निग्गच्छइ जाव पज्जुवासइ धम्मकहा (सू. ३६ ) REaurahminilna Pranamamucom कुंडकोलिक-श्रमणोपासक: एवं मिथ्यादृष्टि: देवकृत: मिथ्यात्व प्रेरणा ~ 77~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [६], ---- मूलं [३५-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [ob], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५-३६] दीप अनुक्रम [३७-३८] 8. अथ षष्ठे किमपि लिख्यते-'धम्मपण्णत्तित्ति श्रुतधर्मप्ररूपणा दर्शनं मतं सिद्धान्त इत्यर्थः, उत्थान-उपविष्टः सन्छ यीभवति कर्म-गमनादिकं बलं-शारीरं वीर्य-जीवप्रभवं पुरुषकारः-पुरुषत्वाभिमानः पराक्रमः स एव सम्पादित - स्वप्रयोजनः, 'इति'उपदर्शने 'वा' विकल्पे, नास्त्येतदुत्थानादि जीवानां, एतस्य पुरुषार्थाप्रसाधकत्वात् , तदसाधकत्वं च पुरुषकारसद्भावेऽपि पुरुषार्थसिद्धयनुपलम्भात्, एवं च नियताः सर्वभावाः-पैर्यथा भवितव्यं ते तथैव भवन्ति, न पुरुषकारवलादन्यथा कर्तुं | शक्यन्ते इति, आह च-"प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥१॥" तथा "न हि भवति यन्त्र भाव्यं भवति च भाव्यं विनाऽपि यत्नेन । करतलगतमपि नश्यति कायस्य तु भवितव्यता नास्ति।।२।।" इति 'मङ्गुली'त्ति असुन्दरा धर्मप्रज्ञप्तिः श्रुतधर्मप्ररूपणा, किंस्वरूपाऽसावित्याह-अस्तीत्यादि,अनि यताः सर्वे भावाः-उत्थानादेर्भवन्ति तदभावान्न भवन्तीतिकृत्वेत्येवंस्वरूपा, ततोऽसौ कुण्डकोलिकः तं देवमेवमवादीत-यदि मोशाल| कस्य सुन्दरो धर्मो नास्ति कर्मादीत्यतो नियताः सर्वभावा इत्येवरूपो मङ्गुलश्च महावीरधर्मः अस्ति कर्मादीत्यनियताः सर्व भावा इत्येवंस्वरूपः, तन्मतमनूध कुण्डकोलिकस्तन्मतदूषणाय विकल्पद्वयं कुर्वनाह- तुमे णमित्यादि, पूर्ववाक्ये का यदीति पदोपादानादेतस्य वाक्यस्यादौ तदेति पदं द्रष्टव्यं इति, त्वयाऽयं दिव्यो देवादिगुणः केन हेतुना लब्धः? किमुत्थानादिना । 'उदाहु' त्ति आहोश्चित् अनुत्थानादिना ?, तपोब्रह्मचर्यादीनामकरणेनेति भावः, यद्युत्थानादेरभावेनेति पक्षो गोशालकमताश्रितदावाद भवतः तदा येषां जीवानां नास्त्युत्थानादि-तपश्चरणकरणमित्यर्थः 'ते' इति जीवाः किं न देवाः, पृच्छतः अयमभिप्राय: यथा त्वं पुरुषकारं विना देवः संवृत्तः स्वकीयाभ्युपगमतः एवं सर्वजीवा ये उत्थानादिवर्जितास्ते देवाः प्रामुवन्ति, न चैतदेव Pranaamsamucom कुंडकोलिक-श्रमणोपासक: एवं मिथ्यादृष्टि: देवकृत: मिथ्यात्व प्रेरणा ~ 78~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [६], ---- मूलं [३५-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: क- दशाओं प्रत सूत्रांक [३५-३६] मिष्टमित्युत्थानाद्यपलापपक्षे दूषणं, अथ त्वयेयं ऋद्धिरुत्थानादिना लब्धा ततो यदास-सुन्दरा गोशालकमज्ञप्तिरसुन्दरा महावीरप्रज्ञप्तिः इति तत्ते-तब मिथ्यावचनं भवति, तस्य व्यभिचारादिति ॥ ततोऽसौ देवस्तेनैवमुक्तः सन् ' शन्तिः । संशयवान् ६ कुण्डकाजातः किं गोशालकमतं सत्यमुत महावीरमतं?, महावीरमतस्य युक्तितोऽनेन प्रतिष्ठितत्वाद्, एवंविधविकल्पवान् संवृत्त इत्यर्थः, लका कावितो-महावीरमतमपि साध्वेतद् युक्तयुपेतत्वादिति विकल्पवान संवृत्त इत्यर्थः, यावत्करणाब्रेदमापनो-मतिभेदमुपागतो, गोशा- हावारक लकमतमेव साध्विति निश्चयादपोढत्वात् , तथा कलुषसमापन्नः-प्राक्तननिश्चयविपर्ययलक्षणं, गोशालकमतानुसारिणां मतेन मिता प्रशंसा थ्यात्वं प्राप्त इत्यर्थः, अथवा कलुषभावं जितोऽहमनेनेति खेदरूपमापन्न इति, 'नो संचाएइ' त्ति न शक्नोति 'पामोर्ख' तिRI प्रमाक्षम् -उत्तरमाख्यातु-भणितामिति ॥ (सू. ३६) कुण्डकोलिया इ समणे भगवं महावीरे कुण्डकोलिय समणोवासयं एवं वयासी-से नणं कुण्डकोलिया ! कलं तुब्भ पुण्यावरहकालसमयंसि असोगवणियाए एगे देवे अन्तियं पाउभवित्था, तए णं से देवे नाममुदं च तहेव जाव पडिगए। से नणं कुण्डकोलिया अटेसमटे ?, हन्ता अत्थि, तं धन्ने सिणं तुम कुण्डकोलिया जहा कामदेवो अज्जो इ समणे भगवं महावीरे समणे निग्गन्थे य निग्गन्थीओ य आमन्तित्ता एवं वयासी-जद्द ताव अज्जो गिहिणो गिहिमज्झावसन्ता णं अन्नउस्थिए अद्वेहि य हेऊहि य पसिणेहि य कारणेहि य बागरणेहि य निप्पट्ठपसिणवागरणे करेन्ति, सक्का पुणाई अज्जो समणेहिं निम्गन्थेहिँ दुवालसङ्गणिपिडगं अहिज्जमाणेहिं अन्नउत्थिया अद्वेहि य जाव निष्पट्ठपमि- ॥३८॥ दीप अनुक्रम [३७-३८] REaanा Informurary orm कुंडकोलिक-श्रमणोपासक: एवं भगवंत-महावीरेण कृता तस्य दृढत्व-प्रशंसा ~79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [६], ---- मूलं [३७-३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७-३८] दीप अनुक्रम [३९-४०] वागरणा करित्तए, तए ण समणा निग्गन्था य निग्गन्थीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स तहात्त एयमटुं विणएणं । पडिमुणेन्ति, तए णं से कुण्डकोलिए समणोवासए समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ २ ना पसिणाई पुच्छइ २ चा अट्ठमादियइ २ चा जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडियए, सामी बहिया जणवयविहारं विहरइ (सू. ३७) तए णं तस्स कुण्डकोलियस्स समणोवासयस्स बहूहिं सील जाव भावेमाणस्स चोहस्स संवच्छराई वइक्वन्ताई। पण्णरसमस संवच्छरस्स अन्तरा वट्टमाणस्स अन्नया कयाइ जहा कामदेवो तहा जेट्टपुतं ठवेत्ता तहा पोसहसालाए जाव धम्मपण्णतिं उबसम्पज्जित्ता णं विहरइ, एवं एक्कारस उवासगपडिमाओ तहेव जाव सोहम्मे कप्पे अरुणज्झए विमाणे जाव अन्तं काहिइ ॥ निक्खेबो॥ (सू. ३८) सत्तमस्स अट्रस्स उवासगदसाणं उर्दू अज्झयणं सम ।। 'गिहमज्झाबसन्ता णं' ति गृह-अध्यावसन्तो, णमिति वाक्यालङ्कारे अन्ययूथिकान् अर्थैः । जीवादिभिः मूत्राभिधेयैर्वा हेतुभिश्च-अन्वयव्यतिरेकलक्षणैः प्रश्नैश्च परमश्ननीयपदार्थैः कारणैः-उपपत्तिमात्ररूपैः व्याकरणैश्च-परेण प्रनितस्योत्तरदानरूपैः, 'निप्पटुपसिणवागरणे' ति निरस्तानि स्पष्टानि-व्यक्तानि प्रश्नव्याकरणानि येषां ते निःस्पष्टप्रश्नव्याकरणाः, प्राकृतत्वाद्वा निप्पिष्टप्रश्नव्याकरणास्तान कुर्वन्ति, 'सक्का पुण' त्ति शक्था एच, हे आर्याः! श्रमणैरन्ययाधिका निःस्पष्टप्रश्नव्या-[d करणाः कर्तुम् (म.३७-३८) ॥ इति षष्ठं विवरणतः समाप्तम् ॥ SARERani E urasurary.orm कुंडकोलिक-श्रमणोपासक: एवं भगवंत-महावीरेण कृता तस्य दृढत्व-प्रशंसा अत्र षष्ठं अध्ययनं परिसमाप्त ~80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [७], ------ मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [४१] सपासक॥अथ सप्तममध्ययनम् ॥ ७सझकदशाङ्गे ___ सत्नमस्स उक्खवो ॥ पोलासपुरे नामं नयरे, सहस्सम्बवणे उज्जाणे, जियसनू राया ॥ तस्थ णं पोलासपुरे पुत्राध्य नयरे सद्दालपुने नाम कुम्भकारे आजीविओवासए परिवसइ, आजीवियसमयसि लढे गहियढे पुच्छियटे । विणिच्छियटे अभिगयढे अद्विमिंजपेमाणुरागरने य अयमाउसो ! आजीवियसमए अढे अयं परमद्वे सेसे अणद्वेनि श्राजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एक्का हिरण्णकोडी नि-- हाणपउत्ता एक्का बुड्विपउत्ता एका पवित्थरपउत्ता एक्के वए दसगोसाहस्सिएणं वएणं, तस्स णं सहालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स अग्गिमित्ता नार्म भारिया होत्या, तस्स णं सद्दालपुनस्स आजीविओवासगस्स पोलासपुरस्त नगरस्स बहिया पञ्च कुम्भकारावणसया होत्था, तत्थ णं बहवे पुरिसा दिण्णभइमनवेयणा कल्लाकल्लिं बहवे करए य वारए दीय पिहडए य घडए य अद्धघडए य कलसए य अलिअरए य जम्बूलए य उट्ठियाओ य करेन्ति, अन्ने य से बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेयणा कल्लाकल्लिं तेहिं बहहिं करएहि य जाच उट्टियाहि य रायमग्गंसि वित्तिं कप्पेमाणा विहरन्ति (स. ३९) सप्तमं सुगममेव, नवरं 'आजीविओवासए'त्ति आजीविका:-गोशालकशिष्याः तेषामुपासकः आजीविकोपासकः, लब्धार्थः श्रवणतो गृहीतार्थो बोधतः पृष्टार्थः संशये सति विनिश्चितार्थ उत्तरलाभे सति, "दिण्णभइमत्तवयेण' त्ति arEara अथ सप्तमं अध्ययनं "सद्दालपुत्र" आरभ्यते [सद्दालपुत्र-श्रमणोपासक कथा] ~81~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्य यन [७], ------ ------- मूलं [३९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [४१] दत्तं भूतिभक्तरूप-द्रव्यभोजनलक्षणं वेतन-मूल्यं येषां ते तथा, 'कल्लाकल्लिंति प्रतिप्रभातं बहून् करकान्-वाघटिकाः वारकांश्च-गड्डकान् पिठरकान्-स्थाली: घटकान् प्रतीतान् अर्द्धघटकांच-घटार्द्धमानान् कलशकान् आकारविशेषवतो बृहघटकान् अलिजराणि च महदुदकभाजनविशेषान जम्बूलकांश्च-लोकरूयावसेयान् उष्ट्रिकाश्च-सुरातैलादिभाजनविशेषान् ।। (म. ३९) तए णं मे सदालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाइ पुवावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ २ ता गोसालस्स मङ्खलिपुत्तस्स अन्तियं धम्मपण्णत्ति उवसम्पजिचाणं विहरइ, तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एगे देवे अन्तियं पाउभवित्था, तए णं से देवे अन्तलिक्खपडिवन्ने सखिड्डिणियाई जाव परिहिए सद्दालपुत् आजीविओवासयं एवं वयासी-एहिइ ण देवाणुप्पिया कल्लं इहं महामाहणे उप्पन्नणाणदंसणधरे तीयपडुपन्नमणागयजाणए अरहा जिणे केवली सवणू सब्बदरिमी तेलोक्तवाहियमहियपूइए सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स अञ्चणिजे वन्दणिजे सक्कारणिजे संमाणाणजे कल्लाणं मङ्गलं देवयं चेइयं जाव पज्जुवासणिजे तच्चकम्मसम्पयाम्पउन, तं णं तुम वन्देजाहि जाव पज्जुवासेन्जाहि, पाडिहारिएणं पीढफलगसिजासंथारएणं उवनिमन्तेजाहि, दोच्चंपि तञ्चपि एवं वयइ २ ता जामेव दिसं पाउम्भए तामेव दिसं पडिगए, तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तेणं देवेण एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए ४ समुप्पन्ने-एवं खलु ममं धम्मायरिए धम्मोवएसए, सद्दालपुत्र-श्रमणोपासक: एवं तस्य मिथ्यात्व-परित्याग: ~82~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [७], ------ मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: सपासक- दशाने पुत्राध्य प्रत सूत्रांक ॥४०॥ [४०] गोसाले मङ्खलिपुत्ते से णं महामाहणे उप्पन्नणाणदसणधरे जाव तच्चकम्मसम्पयासम्पउने से णं कलं इह हव्वमाग- सहा च्छिस्सइ, तए णं तं अहं वन्दिस्सामि जाव पज्जुवासिस्सामि पाडिहारिएणं जाव उवनिमन्तिस्सामि| (सू. ४०) महामाइनाएहिइ' त्ति एष्यति, 'इहं' ति अस्मिन्नगरे, 'महामाहणे' ति मा हन्मि-न हन्मीत्यर्थः, आत्मना था हनननिवृत्तः परं पति ' मा हन' इत्येवमाचष्टे यः स माहनः, स एव मनाप्रभृतिकरणादिभिराजन्म सूक्ष्मादिभेदभिन्नजीवहननानिवृत्तत्वात् महा-135 माहनो महामाहनः उत्पन्ने आवरणक्षयेणाविभूते ज्ञानदर्शने धारयति यः स तथा,अत एवातीतप्रत्युत्पन्नानागतज्ञायकः, 'अरहत्ति अर्हन, महापातिहार्यरूपपूजार्हत्वात, अविद्यमानं वा रह:-एकान्तः सर्वज्ञत्वाद्यस्य सोऽरहाः, जिनो रागादिजेतृत्वात् , केवलानि-परिपूर्णानि शुद्धान्यनन्तानि वा ज्ञानादीनि यस्य सन्ति स केवली, अतीतादिज्ञानेऽपि सर्वज्ञानं प्रति शङ्का स्यादित्याहसर्वज्ञः, साकारोपयोगसामर्थ्यात् , सर्वदर्शी अनाकारोपयोगसामर्थ्यादिति, तथा 'तेलोकवहियमहियपूइए' ति त्रैलोक्येन--त्रिलोकवासिना जनेन 'वहिय' ति समग्रैश्वर्यायविशयसन्दोहदर्शनसमाकुलचेतसा हर्षभरनिर्भरेण प्रबलकुतूहलवलादनिमिषलोचनेनावलोकितः 'महिय' ति सेन्यतया वांछितः 'पूजितश्च' पुष्पादिभिर्यः स तथा, एतदेव व्यनक्ति-सदेवा मनुजासुरा यस्मिन् स सदेवमनुजासुरस्तस्य लोकस्य-अजायाः, अर्चनीयः पुष्पादिभिः वन्दनीयः स्तुतिभिः सत्करणीयः-आदरणीयः सन्माननीयोऽभ्युत्थानादिप्रतिपत्तिभिः, कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमित्येवंबुद्धया पर्युपासनीय इति, 'तञ्चकम्म' त्ति तथ्यानिसत्फलानि अव्यभिचारितया यानि कर्माणि-क्रियास्तत्सम्पदा-तत्समृद्धया यः सम्प्रयुक्तो-युक्तः स तथा ॥ 'कल्लामित्यत्र दीप अनुक्रम [४२] SAREarathimitralina Baitaram.org सद्दालपुत्र-श्रमणोपासक: एवं तस्य मिथ्यात्व-परित्याग: ~83~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्य यन [७], ----- ------- मूलं [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: यावत्करणात् 'पाउप्पभायाए रयणीए इत्यादिर्जलन्ते सूरिए' इत्येतदन्तः प्रभातवर्णको दृश्यः, स चोरिक्षप्तज्ञातवद्वयाख्येयः || प्रत सूत्रांक [४०] दीप तए णं कल्लं जाव जलन्ते समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिए, परिसा निग्गया जाव पन्जुवासइ,तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए इमीसे कहाए लट्ठ समाणे-एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ,तं गच्छामि Kण समणं भगवं महावीरं वन्दामि जाव पज्जुवासामि, एवं सम्पेहेइ २ ता हाए जाव पायच्छिते सुद्धप्पावेसाई जाव अप्पमहग्धाभरणालयिसरीरे मणुस्सवग्गुरापरिगए साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ २ चा पोलासपुरं नयरं मझमझेणं निग्गच्छइ २ ना जेणेव सहस्सम्बवणे उज्जाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २त्ता तिक्खुनो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २ ना बन्दइ नमसइ २ चा जाव पज्जुवासइ, तए णं समणे भगर्व महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तीसे य महइ जाव धम्मकहा समत्ता, सद्दालपुत्ता इसमणे भगवं महावीरे सहालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी-से नूर्ण सद्दालपुत्ता ! कल्लं तुमं पुच्वावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवणिया जाव विहरसि तए णं तुभं एगे देखे अन्तियं पाउभवित्था, तए णं से देवे अन्तलिक्खपडिबन्ने एवं वयासी-हं भो सद्दालपुत्ता! तं चेव सव्वं जाव पज्जुवासिस्सामि, से नणं सद्दालपुचा ! अढे समडे, इंता अस्थि, नो खलु सद्दाल|| पुत्ता ! तेणं देवणं गोसालं मङ्खलिपुतं पणिहाय एवं वुत्ने, तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासयस्स समणेणं| अनुक्रम [४२] SAREaiaudhaband HIurasurary.om सद्दालपुत्र-श्रमणोपासक: एवं तस्य मिथ्यात्व-परित्याग: ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [७], ---- मूलं [४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: उपासक- दशाने पुत्राध्य. ॥४१॥ प्रत सूत्रांक [४१-४२] भगवया महावीरेणं एवं बुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए ४-एस णं समणे भगवं महावीरे महामाहणे सद्दालउप्पन्नणाणदंसणधरे जाव तच्चकम्मसम्पयासम्पउत्ते, ते सेयं खलु ममं समणं भगवं महावीरं वन्दित्ता नमंसित्ता पाडिहारिएणं पीढफलग जाव उवनिमन्तित्तए, एवं सम्पेहेइ २ ता उट्ठाए उद्वेइ २ ता समणं भगवं महावीरं वन्दइ । नमसइ २ चा एवं वयासी-एवं खलु भन्ते ! ममं पोलासपुरस्स नयरस्स बहिश पञ्च कुम्भकारावणसया, तत्थ | पासना तुम्भे पाडिहारियं पीढ जाव संथारयं ओगिण्हित्ता णं विहरह, तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुनस्स आजीविओवासगस्स एयमढे पडिसुणेइ २ ना सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स पञ्चकुम्भकारावणसरसु फासुएसणिजं| पाडिहारियं पीठफलग जाव संथारयं ओपिण्हिता णं विहरइ (सू. ४१) तए णं से सद्दालपुत्चे आजीविओवासए अन्नया कयाइ वायाययं कोलालभण्ड अन्तो सालाहितो बहिया | नीणेइ २ ना आयसि दलयइ, तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत् आजीविओवासयं एवं वयासी-सहालपुना! एस ण कोलालभण्डे कओ ?, तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-एस णं, भन्ते ! पुग्विं मट्टिया आसी, तओ पच्छा उदएणं निगिजइ २ ना छारेण य करिसेण य एगयओ मीसिजइ २ ला चक्के आरोहिजइ, तओ बहवे करगा य जाव उद्वियाओ य कजति, तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी-सदालपुत्ता एस णं कोलालभण्डे किं उट्ठाणेणं जाव पुरिसक्कारपरक्कमेणं कजति उदाहु दीप अनुक्रम [४३-४४] सद्दालपुत्र-श्रमणोपासकः एवं तस्य मिथ्यात्व-परित्याग: ~85~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [४१-४२] दीप अनुक्रम [४३-४४] “उपासकदशा” - अंगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) अध्ययन [ ७ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. ..आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] अगुट्ठाणेगं जाव अपुरिसकारपरकमेणं कजति ?, तए में से सहलते आजीविओवास समर्ण भगवं महावीरं एवं वयासी भन्ते ! अणुट्ठाणेणं जाव अपुरिसक्कारपरकमेणं, नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव परक्कमे इवा, नियया सव्वभावा, तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी सद्दालपुत्ता ! जइ णं तुभं केइ पुरिसे वाया| हर्यं वा पक्केल्लयं वा कोलालभण्डं अवहरेजा वा विक्खिरेज्जा वा भिन्देज्जा वा अच्छिन्देजा वा परिवेजा या | अग्निमित्ताए वा भारियाए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुअमाणे विहरेज्जा, तस्स णं तुमं पुरिसस्स किं दण्डं वत्तेजासि ?, भन्ते ! अहं णं तं पुरिसं आओसेज्जा वा हणेज्जा वा बन्धेजा वा महेजा वा तजेजा वा तालेजा वा निच्छोडेजा वा निव्मच्छेजा वा अकाले चैव जीवियाओ ववरोवेज्जा। सद्दालपुत्ता ! नो खलु तुम्भ केइ पुरिसे वायाहयं वा पक्केल्लयं वा कोलालभण्डं अवहरइ वा जाव परिवेइ वा अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुअमाणे विहरइ, नोवा तु तं पुरिसं आओसेजसि वा हणिजसि वा जाव अकाले चैव जीवियाओ वयरोवेज्जसि, जइ नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव परकमे इ वा नियया सव्वभावा अह ण तुम्भ के पुरिसे वायाहयं जाव परिद्ववेद वा अग्निमित्ताए वा जाव विहरद्द, तुमं ता तं पुरिसं आओसेसि वा जाव वबरोवेसि तो जं वदसि नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव नियया सव्वभावा तं ते मिच्छा, एत्थ णं से सद्दालपुते आजीविओवासए सम्बुद्धे, तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ २ ता एवं वयासी-इच्छामि णं भन्ते ! तन्भं अन्तिए धम्मं सद्दालपुत्र श्रमणोपासकः एवं तस्य मिथ्यात्व-परित्यागः For Prata Use Only मूलं [४१-४२] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 86~ Cinerary Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [४१-४२] दीप अनुक्रम [४३-४४] “उपासकदशा” - अंगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [४१-४२] आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अध्ययन [ ७ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. उपासक दशाङ्के ॥ ४२ ॥ निसामेत्तए, तर णं समणं भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवारुगरस तीसे य जाव धम्मं परिवइ ॥ ( सूत्रं. ४२ ), 'वायाहयगं'ति वाताहतं वायुनेपछोपमानीतमित्यर्थः, 'कोलाल मण्डति कुलाल:- कुम्भकारा: तेषामिदं कालाल तब तद्भाण्डं च पण्यं भाजनं वा कौलालभाण्डम्, एतत्किं पुरुषकारेणेतरथा वा क्रियते इति भगवता दृष्टे स गोशालक तेन नियतिवादलक्षणेन भावितत्वात्पुरुषकारेणेत्युत्तरदाने च स्वमतक्षतिपरमताभ्यनुज्ञानलक्षणं दोषमाकलयन अपुरुषकारेण इत्यवोचत्, ततस्तदभ्युपगत नियतिमतनिरासाय पुनः प्रश्नयन्नाह 'सद्दालपुत्त' इत्यादि, यदि तब करिगुरुषो वाताहतं वा आममित्यर्थः | 'पक्केलयं वत्ति पकं वा अग्निना कृतपार्क अपहरेद्वा चोरयेत् विकिरेद्वा इतस्ततो विक्षिपेत् भिन्द्याद्वा काणताकरणेन आच्छि न्याद्वा हस्तादुद्दालनेन पाठान्तरेण विच्छिन्यादा- विविधकारैश्छेदं कुर्यादित्यर्थः परिष्ठापयेद्वा वहिनीत्वा त्यजेदिति । व सेज्जासि त्ति निर्वर्तयसि 'आओसेज्जा वत्ति आक्रोशयामि वा मृतोऽसि त्वमित्यादिभिः शापैरभिशपामि हम्मि वा दण्डादिना बध्नामि वा रज्ज्वादिना तर्जयामि वा 'ज्ञास्यसि रे दुष्टाचार' इत्यादिभिर्वचनविशेषैः ताडयामि वा चपेटादिना निच्छोदयामि वा धनादित्याजनेन निर्भर्त्सयामि वा परुषवचनैः अकाल एव च जीविताद्वा व्यपरोपयामि मारयामीत्यर्थः ॥ इत्येवं भगवांस्तं सद्दालपुत्रं स्ववचनेन पुरुषकाराभ्युपगमं ग्राहयित्वा तन्मतविघटनायाह--'सद्दालपुत्त' इत्यादि, न खलु तब भाण्डं कविदपहरति न च त्वं तमाक्रोशयसि यदि सत्यमेव नास्त्युत्थानादि, अय सद्दालपुत्र श्रमणोपासकः एवं तस्य मिथ्यात्व-परित्यागः For Praise Only ~87~ ७ सद्दालपुत्राध्य० प्रतिबोधः ॥ ४२ ॥ org Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) ---- (०७) अध्ययन [७], मूलं [४१-४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१-४२] दीप अनुक्रम कश्चित्तदपहरति त्वं च तमाक्रोशयसि तत एवमभ्युपगमे सति यदसि- नास्त्युत्थानादि इति तत्ते मिथ्याअसत्यमित्यर्थः ॥ (म्.४१-४२) | तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणस्म भगवओ महावीरस्स अन्तिए धम्मं सोचा निसम्म हट्तुद्र जाव हियए जहा आणन्दो तहा गिहिधम्म पडिवज्जइ, नवरं एगा हिरण्णकोडी निहाणपउना एगा हिरण्णकोडी बुद्धिपउना एगा हिरण्णकोडी पदित्थरपउना एगे वए दसगोसाहस्सिएणं वएण जाव सभणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ ना जेणेब पोलासपुरे नयरे तेणेव उवागच्छइ २ चा पोलासपुरं नयरं मझमज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव । अग्गिमित्ता भारिया तेणेव उवागच्छइ २ ता अग्गिमित्तं भारियं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे, तं गच्छाहि णं तुम समणं भगवं महावीरं वन्दाहि जाव पज्जुवासाहि, समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए पश्चाणुव्वइयं सत्ससिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजाहि, तए णं सा अग्गि|मित्ता भारिया सद्दालपुत्तस्स समणोवासमस्स तहनि एयमद्रं विणएण पडिसुणेइ ॥ तए णं से सद्दालपुत्ने समणोवासए कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेद २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! लहुकरणजुत्तजोइयं समखुरवालिहाणसमलिहियसिद्धएहिं जम्बूणयामयकलावजोत्तपइविसिट्ठएहि रययामयघण्टसुत्तरज्जुगवरकञ्चणखइयनस्थापग्गहोग्गहियएहिं नीलप्पलकयामेलएहिं पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणिकणगघण्टियाजालपरिगयं सुजा TRIEFINI TATISSIDIA [४३-४४] सद्दालपुत्र-श्रमणोपासक: एवं तस्य गृहिधर्मस्वीकरणम् ~88~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------ (०७) अध्ययन [७], मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक पत्तिः [४३] दीप उपासक-5 यजुगजुत्तउज्जुगपसत्थसुविरइयनिम्मियं पवरलक्खणोववेयं जुत्तामेव धम्मियं जाणप्पवर उववेह २ नाममा दशाङ्गे एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तए णं ते कोडुम्बियपुरिसा जाव पञ्चप्पिणन्ति ॥ तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया । - पुत्राध्य व्हाया जाव पायच्छित्ता सुद्धप्पाबेसाई जाव अप्पमहग्याभरणालड्डियसरीरा चेडियाचक्कवालपरिकण्णा धम्मियं घमातजाणप्पवरं दुरुहइ २ ना पोलासपुरं नगरं मझमझेणं निग्गच्छइ २ ता जेणेव सहस्सम्बवणे उजाणे जेणेव समणे तेणेव उवागच्छइ २ ना धम्मियाओ जाणाओ पञ्चोरुहइ २ ता चेडियाचक्कवालपरिवुडा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ ता तिक्तुत्तो जाव वन्दइ नमसइ २ ना नच्चासन्ने नाइदूरे जाव पञ्जलिउड़ा ठिइया चेव पज्जुवासइ, तए णं समणे भगवं महावीरे अग्गिमित्ताए तीसे य जाव धम्म कहेद, तए णं सा अग्गिमित्ना भारिया समणस्स भगवश्री महावीरस्स अन्तिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ठतट्ठा समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ २ चा एवं वयासी-महहामि णं भन्ते!निग्गन्थं पावयणं जाव से जहेयं तुम्भे वयह, जहाणं देवाणुप्पियाणं अन्तिए बहवे उग्गा भोगा जाव पब्वइया नो खलु अहं तहा संचाएमि देवाणुप्पियाणं अन्तिए मुण्डा भवित्ता जाव अहं णं देवाणुप्पियाणं| अन्तिए पश्चाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजिस्सामि, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबन्धं करेह, तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए पश्चाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ २ ना समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ २ ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहइ अनुक्रम [४५] SAREauraton international सद्दालपुत्र-श्रमणोपासक: एवं तस्य गृहिधर्मस्वीकरणम् ~89~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [७], ------ मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] दीप २ ना जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया ॥ तए णं समण भगवं महावीरे अन्नया कयाइ पोलासपुराओ नयराओ सहस्सम्बवणाओ पडिनिग्गच्छइ २ ना बहिया जणवयविहारं विहरइ (स.४३) | 'तए णं सा अग्गिमित्ता' इत्यादि, ततः सा अग्निमित्रा भार्या सद्दालपुत्रस्य श्रमणोपासकस्य तथेति एतमर्थ विनयेन प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्वा (त्य) च नाता 'कृतबलिका बलिकर्म-लोकरूढं, 'कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ता' कौतुकं मषीपुण्ड्रादि मङ्गलं.दध्यक्षतचन्दनादि एते एव प्रायश्चित्तमिव प्रायश्चित्तं दुःस्वमादिप्रतिघातकत्वेनावश्यंकार्यत्वादिति, शुद्धात्मा वैषिकाणिपाहाणि मङ्गल्यानि प्रवरवस्त्राणि परिहिता, अल्पमहा_भरणालङ्कृतशरीरा चेटिकाचक्रवालपरिकर्णाि, पुस्तकान्तरे यानवर्णको दृश्यते, स चैवं सव्याख्यानोऽवसेयः-'लहुकरणजुत्तजोइयं लघुकरणेन-दक्षत्वेन ये युक्ताः पुरुषास्तैयोजितंयन्त्रयूपादिभिः सम्बन्धितं यत्तत्तथा, तथा 'समखुरवालिहाणसमलिहियसिङ्गाएहिं ' समखुरवालिधानौ-तुल्यशफपुच्छौ समे लिखिते इव लिखिते शृङ्गे ययोस्तों तथा ताभ्यां गोयुवभ्यामिति सम्बन्धः, 'जम्बूणयामयकलावजोत्तपइविसिट्टएहिं जाम्बूनदमयौ कलापौ-ग्रीवाभरणविशेषी योक्त्रे च-कण्ठबन्धनरज्जू प्रतिविशिष्टे-शोभने ययोस्ती तथा ताभ्यां, 'रययामयघण्टसुत्तरज्जुगवरकश्चणखइयनत्थापनमहोग्गहियएहिं रजतमय्यौ रूप्यविकारौ घण्टे ययोस्तों तथा मूत्ररज्जुके-कार्यासिकमूत्रमय्या ये बरकाश्चनखचिते नस्ते-नासारज्जू तयोः प्रग्रहेण-रश्मिना अवगृहीतको च-बद्धौ यौ तौ तथा ताभ्यां, 'नीलुप्प-13 लकयामेलएहिं नीलोत्पलकृतशेखराभ्यां 'पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणिकणगघण्टियाजालपरिगयं सुजायजुगजुत्तउज्जुगपसत्थसुविरइयनिम्मिय' सुजातं-सुजातदारुमयं युगं-यूपः युक्त-सङ्गन्तं ऋजुकं-सरलं (प्रशस्तं ) सुविरचितं सुघटित अनुक्रम [४५] सद्दालपुत्र-श्रमणोपासक: एवं तस्य गृहिधर्मस्वीकरणम् ~ 90 ~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [७], ------- मूलं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत उपासकदशाङ्गे ।। ४४ ॥ सूत्रांक वार्ता [४४] दीप अनुक्रम [४६] निर्मितं निवेशितं यत्र तत्तथा 'जुत्तामेव धम्मियं जाणप्पवर उवट्ठवेह' युक्तमेव-सम्बद्धमेव गोयुवभ्यामिति सम्बन्ध इति (सू.४३)। १७ सद्दाल. तए णं से सहालपुत्ते समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ । तए णं से गोसाले मङ्कलिपुत्ते । पुत्राध्य. इमीसे कहाए लढे समाणे-एवं खलु सद्दालपुत्ते आजीवियसमयं वमित्ता समणाणं निग्गन्थाणं दिट्टि पडिवन्ने, तं गोशालन गच्छामि णं सद्दालपुतं आजीविओवासयं समणाणं निग्गन्थाणं दिद्धि वामेत्ता पुणरवि आजीविरदिढेि गेण्हाविनएनिकहु एवं सम्पेहेइ २ ला आजीवियसङ्घसम्परिबुडे जेणेव पोलासपुरे नयरे जेणेव आजीवियसभा तेणेव उवागच्छइ । २ चा आजीवियसभाए भण्डगनिक्खेवं करेइ २ ता कइवएहिं आजीविएहिं सदि जेणेव सद्दालपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, तए णं से सद्दालपुत्ने समणोवासए गोसालं मालिपुन एजमाणं पासइ २ चा नो आढाइ नो परिजाणाइ अणाढायमाणे अपरिजाणमाणे तुसिणीए संचिट्ठइ, तए णं से गोसाले मङ्गुलिपुत्ते सद्दालपुत्तेणं समणोवा|सएणं अणाडाइजमाणे अपरिजाणिजमाणे पीढफलगसिज्जासंथारट्ठयाए समणस्स भवगओ महावीरस्स गुणकित्तणं करेमाणे सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-आगएणं देवाणुप्पिया! इहं महामाहणे?,तएणं से सद्दालपुत्ते समणोवावासए गोसालं मडलिपुत्तं एवं वयासी-के णं देवाणुप्पिया ! महामाहणे ?, तए णं से गोसाले मङलिपुत्ने सद्दालपुतं | समणोवासयं एवं वयासी-समणे भगवं महावीरे महामाहणे, से केणद्वेणं देवाणुप्पिया ! एवं बुच्चइ-समणे भगवं महावीरे महामाहणे , एवं खलु महालपुत्ता ! समणे भगवं महावीरे महामाहणे उप्पन्नणाणदंसणधरे जाव महियपूइए । Subas.500 ॥४४ SAMEniratimes सद्दालपुत्रस्य गोशालकेन सह वार्तालाप: ~91~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [७], ------ मूलं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४] जाव तच्चकम्मसम्पयासम्पउत्ते, से तेणगुणं देवाणुप्पिया एवं बुच्चइ-समणे भगवं महावीरे महामाहणे । आगए गं|| देवाणप्पिया इहं महागोवे ?, के णं देवाणुप्पिया! महागोवे ?, समणे भगवं महावीरे महागोवे, से केणद्वेणं देवाणुप्पिया ! जाव महागोवे ?, एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसाराडवीए बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे | खजमाणे छिज्जमाणे भिज्जमाणे लुप्पमाणे विलुप्पमाणे धम्ममएणं दण्डेणं सारक्खमाणे संगोवेमाणे निव्वाणमहावार्ड साहत्थिं सम्पावेद, से तेणद्वेणं सद्दालपुत्ता ! एवं बुच्चइ-समणे भगवं महावीरे महागोवे। आगए णं देवाणुप्पिया ! इह महासत्थवाहे ?, के णं देवाणुप्पिया!महासत्थवाहे ?, सद्दालपुना ! समणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे, से केणद्वेणं. 2, एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसाराडवीए बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे जाव विलुप्पमाणे | धम्ममएणं पन्थेणं सारक्खमाणे० निब्वाणमहापट्टणाभिमुहे साहत्थिं सम्पावेइ, से तेणटेणं सद्दालपुत्ता एवं बुच्चइसमणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे । आगए ण देवाणुप्पिया ! इहं महाधम्मकही?,के णं देवाणुप्पिया महाधम्मकहीं ? समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही, से केणटेणं समणेभगवं महावीरे महाधम्मकही?, एवं खलु देवाणुप्पिया समणे भगवं महावीरे महइमहालयसि संसारांसि बहवे जीवनस्समाणे विणस्समाणे ख छि०मि लु० वि उम्मग्गपडिवन्ने सप्पहविप्पणद्वे मिच्छत्तबलाभिभूए अट्ठविहकम्मतमपडलपडोच्छन्ने बहूहिं अद्वेहि य जाव वागरणेहि य चाउरन्ताओ संसारकन्ताराओ साहत्थिं नित्थारेइ, से तेणटेणं देवाणुप्पिया ! एवं बुच्चइ-समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही। आगए थे दीप अनुक्रम [४६] तक 300033930000 सद्दालपुत्रस्य गोशालकेन सह वार्तालाप: ~ 92 ~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [४४] दीप अनुक्रम [ ४६ ] अध्ययन [ ७ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. उपासक दशाङ्गे “उपासकदशा” - अंगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४४] ..आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ।। ४५ ।। देवाणुप्पिया ! इहं महानिज्जामए ?, के णं देवाणुप्पिया ! महानिज्जामए ?, समणे भगवं महावीरे महानिज्जामए, से केण द्वेणं० 2, एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसारमहासमुद्दे बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे जाव विलु० | बुडुमाणे निबुडुमाणे उप्पियमाणे धम्ममईए नावाए निव्वाणतीराभिमुहे साहत्थिं सम्पावेइ, से तेणद्वेणं देवाणुप्पिया ! एवं ॐ बुच्चइ- समणे भगवं महावीरे महानिज्जामए । तए णं से सदालपुत्ते समणोवासए गोसालं मङ्खलिपुत्तं एवं वयासी-तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! इयच्छेया जाव इयनिउणा इयनयवादी इयउवएसलद्धा इयविण्णाणपत्ता, पभू णं तुब्भे मम धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं भगवया महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए ?, नो तिणट्टे समट्ठे से केणद्वेणं देवाणुप्पिया ! एवं बुच्चइ-नो खलु पभू तुम्भे मम धम्मायरिएणं जाव महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए?, सद्दालपुत्ता ! से जहानामए के पुरिसे तरुणे जगवं जाव निउणसिप्पोवगए एवं महं अयं वा एल्यं वा सूर्यरं वा कुक वा तित्तिरं वा वट्टयं वा लावयं वा कवोयं वा कविञ्जलं वा वायसं वा सेणयं वा हत्यांसि वा पायंसि वा खुरंसि वा पुच्छंसि वा पिच्छंसि वा सिसि वा विसाणंसि वा रोमंसि वा जहिं जहिं गिण्हइ तहिं तर्हि निञ्चलं निप्फन्दं धरेइ, एवामेव समणे भगवं महावीरे ममं बहूहिं अट्ठेहि य हेऊहि य जाब बागरणेहि य जहिं जहिं गिues तहिं तहिं निप्पट्टपसिणवागरणं करेइ, से तेणद्वेणं सदालपुत्ता ! एवं बुच्चद-नो खलु पभू अहं तव धम्मायरिएणं जाव महावीरेणं सार्द्धं विवादं करे - ॐ नए, तए णं से सद्दालपुचे समणोवासए गोसालं मङ्कलिपुत्तं एवं वयासी - जम्हा णं देवाणुप्पिया ! तुब्भ मम धम्माय For Par Use Only सद्दालपुत्रस्य गोशालकेन सह वार्तालाप: ~93~ ७ सालपुत्राध्य० गोशालेन वार्चा ॥ ४५ ॥ rary or Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [७], ----- मूलं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४] रियस्स जाव महावीरस्स संतेहिं तश्चेहि तहिएहिं सम्भूएहिं भावेहिं गुणकित्तणं करेह तम्हाणं अहं तुम्भे पाडिहारिएणं ।। पीढ जाव संथारएणं उवनिमन्तमि, नो चेव णं धम्मोति वा तवोत्ति वा,तं गच्छह णं तुम्भे मम कुम्भारावणेस पाडिहारियं पीढफलग जाव ओगिण्हिताणं विहरह, तए णं से गोसाले मङलिपुत्ते सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स एयमहूँ| पडिसुणेइ २ ना कुम्भारावणेसु पाडिहारियं पीढ जाव ओगिहिता णं विहरइ, तए णं से गोसाले मङ्कलिपुत्ते सद्दा लपुतं समणोवासयं जाहे नो संचाएइ बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विष्णवणाहि य निग्गसन्थाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे सन्ते तन्ते परितन्ते पोलासपुराओ नग राओ पडिणिक्समइ २ ना बहिया जणवयविहारं विहरइ (सू. ४४) | 'महागोवे'त्यादि गोपो--गोरक्षकः स चेतरगोरक्षकेभ्योऽतिविशिष्टत्वान्महानिति महागोपः ॥ 'नश्यत' इति सन्मागाँञ्चचवमानान् 'विनश्यत' इत्यनेकशो म्रियमाणान् 'खाद्यमानान् । मृगादिभावे व्याघ्रादिभिः 'छिद्यमानान् । मनुष्यादिभावे खगादिना मिद्यमानान् कुन्तादिना लुप्यमानान् कर्णनासादिच्छेदनेन विलुप्यमानान् बाघोपध्यपहारतः गा इवेनि गम्यते, 'निव्वाणमहावार्ड' ति सिद्धिमहागोस्थानविशेष 'साहत्थेचि स्वहस्तेनेव स्वहस्तेन, साक्षादित्यर्थः ॥ महासार्थवाहाकलापकानन्तरं पुस्तकान्तरे इदमपरमधीयते-'आगए णं देवाणुप्पिया ! इह महाधम्मकही ?, के गं देवाणुप्पिया ! महाधम्मकही, समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही, से केणद्वेणं समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही ?, एवं खलु सदालपुत्ता ! समणे दीप अनुक्रम [४६] HEROERand सद्दालपुत्रस्य गोशालकेन सह वार्तालाप: ~94~ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [४४] दीप अनुक्रम [४६] अध्ययन [ ७ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... “उपासकदशा” - अंगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्ति:) उपासक दशाङ्गे आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] ॥ ४६ ॥ भगवं महावीरे महइमहालयंसि संसारंसि बहवे जीवे नस्समाणे जाव विलुप्पमाणे उम्मम्गपडिवने सप्पहविष्मण मिच्छत्तबलाभिभूए अडविहकम्मतमपडलपडोच्छने बहूहिं अट्ठेहि य हेऊहि य पसिणेहि य कारणेहि य वागरणेहि य चाउरन्ताओ संसारकन्ताराओ साहत्यिं नित्थारेइ, से तेगद्वेणं सद्दालपुत्ता ! सपणे भगवं महावीरे महाधम्मकहि" त्ति, कण्ठ्योऽयं, नवरं जीवानां नश्यदादिविशेषणॐ हेतुदर्शनायाह- उम्मग्गेत्यादि, तत्रोन्मार्गप्रतिपन्नान्- आश्रितकुदृष्टिशासनान् सत्पथविप्रनष्टान् त्यक्तजिनशासनान्, एतदेव कथमि| त्याह-मिध्यात्ववलाभिभूतान्, तथा अष्टविधकर्मैव तमःपटलम् - अन्धकारसमूहः तेन प्रत्यवच्छन्नानिति । तथा नियमकालापके 'वुडमा | णे' त्ति निमज्जतः 'निबुङमाणे' त्ति नितरां निमज्जतः जन्ममरणादिजले इति गम्यते, 'उप्पियमाणे' चि उत्प्लाव्यमानान् ।। 'पभु' ति प्रभवः समर्थाः इतिच्छेकाः - इति एवमुपलभ्यमानाद्भुतप्रकारेण, एवमन्यत्रापि छेकाः- प्रस्तावज्ञाः, कलाॐ पण्डिता इति वृद्धा व्याचक्षते तथा इतिदक्षा:- कार्याणामविलम्बितकारिणः तथा इतिप्रष्ठाः दक्षाणां प्रधाना वाम्मिन इति वृद्धैरुक्तं, कचित्पत्तट्ठा इत्यधीयते, तत्र प्राप्तार्थाः कृतप्रयोजनाः, तथा इतिनिपुणाः सूक्ष्मदर्शिन: कुशला इति च वृद्धोक्तं, इतिनयवादिनो नीतिवक्तारः, तथा इत्युपदेशलब्धा लब्धाप्तोपदेशाः, वाचनान्तरे 'इतिमेधाविनः' अपूर्वश्रुतग्रहणशक्तिमन्तः 'इतिविज्ञानप्राप्ताः' अवाप्तसद्धोधाः । 'से जहे 'त्यादि, अथ यथा नाम कश्चित्पुरुषः 'तरुणे' त्ति वर्धमानत्रयाः, वर्णादिगुणोपचित इत्यन्ये, यावत्करणादिदं दृश्यं 'बलवं' सामर्थ्यवान् 'जुगवं' युगं कालविशेषः तत्पशस्तमस्यास्तीति युगवान, दुष्टकालस्य बलहानिकरत्वात्तद्वयबच्छेदार्थमिदं विशेषणं, 'जुवाणे' ति युवा वयःप्राप्तः, 'अप्पायङ्के' त्ति नीरोगः 'थिरग्गहत्थे ' त्ति सुलेखकवट्, अस्थिराग्रहस्तो हि न गाढग्रहो भवतीति विशेषणमिदं 'दृढपाणिपाए' ति प्रतीतं 'पासपिट्ठन्तरोरुपरिणए' ति पार्श्वे च पृष्ठान्तरे च तद्विभागी करू सद्दालपुत्रस्य गोशालकेन सह वार्तालाप: For Parts Only मूलं [ ४४] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 95~ ७ सदाल | पुत्राध्य० गोशालेन वार्त्ता ॥ ४६ ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [४४] दीप अनुक्रम [४६] अध्ययन [ ७ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] “उपासकदशा” - अंगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्ति:) 500000000 च परिणतौ- निष्पत्तिप्रकर्षावस्थां गतौ यस्य स तथा, उत्तमसंहनन इत्यर्थः, 'तलजमलजुयलपरिघनिभबाहु त्ति तलयो:- ताला भिधानवृक्षविशेषयोः यमलयोः समश्रेणीकयोर्यद्युगलं परिघच अर्गला तन्निभौ-तत्सदृशौ बाहू यस्य स तथा, आयतवाडारत्यर्थः, 'घणनिचियवट्टपा लिखन्धे'त्ति घननिचितः - अत्यर्थं निविडो वृत्तश्च वर्तुलः पालिवत्-तडागादिपालीव स्कन्धौ - अंशदेशौ यस्य स तथा, 'चम्मेदुगदुहणमोट्टियसमाहयनिचियगायकाए' त्ति चर्मेष्टका - इष्टकाशकलादिभृतचर्म कुतपरूपा यदाकर्षणेन धनुर्धरा व्यायामं ॐ कुर्वन्ति दुघणो मुद्गरो मौष्टिको मुष्टिप्रमाणः प्रोतचर्मरज्जुकः पाषाणगोलकस्तैः समाहतानि व्यायामकरणमवृत्तौ सत्यां ताडितानि निचितानि गात्राणि - अङ्गानि यत्र स तथा स एवंविधः कायो यस्य स तथा अनेनाभ्यासजनितं सामर्थ्यमुक्तं, 'लबणपवणजइणवायामसमत्थे' ति लङ्घणं च-अतिक्रमणं वनं च उत्प्लवनं जविनव्यायामश्च तदन्यः शीघ्रव्यापारस्तेषु समर्थो यः स तथा, 'उरस्सबलसमागए' ति अन्तरोत्साहवीर्ययुक्त इत्यर्थः 'छेए' त्ति प्रयोगज्ञः 'दक्खे' त्ति शीघ्रकारी 'पत्तट्टे' त्ति अधिकृतकमणि निष्ठाङ्गतः प्राप्तार्थः, मज्ञ इत्यन्थे, 'कुसले' ति आलोचितकारी 'मेहावि' त्ति सकृदृदृष्टश्रुतकर्मज्ञः 'निउणे' त्ति उपायारम्भकः । 'निउणसिप्पोवगए' ति सूक्ष्मशिल्पसमन्वित इति, अजं वा- छगलं एलकं वा उरभ्रं शूकरं वा वराहं कुर्कुटतित्तिरवर्तकलावककपोतकपि अलवायसश्येनकाः पक्षिविशेषा लोकप्रसिद्धाः, 'हृत्यंसि व' ति ययप्यजादीनां इस्तो न विद्यते तथाप्यग्रेतनपादो हस्त इव हस्त इतिकृत्वा हस्ते वेत्युक्तं यथासम्भवं चैषां हस्तपादखरपुच्छपिच्छविषाणरोमाणि योजनीयानि, पिच्छपक्षावयवविशेषः, श्टङ्गमिहाजैडकयौः प्रतिपत्तव्यं, विषाणशब्दो यद्यपि गजदन्ते रुद्रस्तथापीह शूकरदन्ते प्रतिपत्तय्यः, साधर्म्य१ कोलेभदन्तयोरित्यनेकार्योक्तिः सद्दालपुत्रस्य गोशालकेन सह वार्तालाप: For Pasta Use Only मूलं [ ४४ ] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~96~ 30303030.50:30 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) ------- (०७) अध्ययन [७], मूलं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: सपासक प्रत ॥४७॥ सूत्रांक [४४] दीप विशेषादिति, निश्चलम्-अचलं सामान्यतो निष्पन्दं-किश्चिञ्चलनेनापि रहितम् , 'आघवणाहि या त्ति आख्यानैः प्रज्ञापना सद्दाकभिः-भेदतो वस्तुमरूपणाभिः 'सज्ञापनाभिः' सज्ञानजननैः 'विज्ञापनाभिः अनुकूलभाणितेः ।। (सू. ४४) पुत्राध्य तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स बहूहिं सील० जाव भावमाणस्स चोदस संबच्छरा वइकन्ता, देवकृत पण्णरसमस संवच्छरस्स अन्तरा वट्टमाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले जाव पोसहसालाए समणस्स भगवओ महावीरस्स उपसगोदि अन्तियं धम्मपण्ण िउवसम्पजित्ता णं विहरइ, तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स पुदरतावरनकाले एगे देवे अन्तियं पाउभवित्था, तए णं से देवे एग महं नीलुप्पल जाव असिं गहाय सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-18 जहा चुलणीपियस्स तहेब देवो उवसग्गं करेइ, नवरं एक्कक्के पुत्ते नव मंससोल्लए करेइ जाव कणीयसं घाएइ २ ता जाव आयश्चइ, तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए अभीए जाव विहरइ, तए णं से देवे सद्दालपुत्वं समणोवासयं अभीयं जाव पासिचा चउत्थंपि सद्दालपुत् समणोवासयं एवं वयासी-हं भो सद्दालपुत्ता ! समणोवासया अपत्थियपशस्थिया जाव न भञ्जसि तओ ते जा इमा अग्गिमित्ता भारिया धम्मसहाइया धम्मविइजिया धम्माणुरागरत्ता समसुहदुक्खसहाइया तं ते साओ गिहाओ नीणेमि २ ता तव अग्गओ घाएमि २ ना नव मंससोल्लए करेमि २ चा आदाणभरियसि कडाहयसि अद्दहमि २ ना तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयश्चामि, जहा गं तुम अट्टदुहट्ट ||४७॥ जाव ववरोविज्जास, तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए तेणं देवणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरद, तए णं से अनुक्रम [४६] TO सद्दालपुत्र: एवं तस्य देवकृत-उपसर्ग: ~97~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [ ४५ ] दीप अनुक्रम [ ४७ ] “उपासकदशा” - अंगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययन [ ७ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] Eticati देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं दोचंपि तच्चपि एवं वयासी-हं भो सद्दालपुत्ता ! समणोवासया तं चैव भणइ, तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोचंपि तचपि एवं वुत्तस्स समाणस्स अय अज्झत्थिए ४ समुप्पन्ने एवं जहा चुलणीपिया तहेब चिन्तेइ जेणं ममं जेटुं पुतं जेणं ममं मज्झिमयं पुत्तं जेणं ममं कणीयसं पुत्तं जाव आयञ्श्चद जाऽवि यणं ममं इमा अग्गिमित्ता भारिया समसुहदुक्खसहाइया तंपि य इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता मंम अग्गओ घाएत्तए, तं सेयं खलु ममं एवं पुरिसं गिण्हित्तएत्तिकहु उदाइए जहा चुलणीपिया तहेव सव्र्व्वं भाणिॐ यव्वं, नवरं अग्गिमित्ता भारिया कोलाहलं सुणित्ता भणइ, सेसं जहा चुलणीपियावत्तव्वया, नवरं अरुणभूए विमाणे उववन्ने जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिद, निक्खेवओ।। (सू.४५) सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं सत्तमं अज्झयणं समत्तं इति सप्तमाध्ययनविवरणं समाप्तम् ॥ अष्टममध्ययनम् || अट्टमस्स उक्खेवओ, एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिले चेइए सेणिए राया तत्थ णं रायगिहे महासयए नाम राहावई परिवसर, अडे जहा आणन्दो, नवरं अट्ठ हिरण्णकोडिओ सकंसाओ निहाण पडताओ अट्ठ हिरण्णकोडिओ सर्कसाओ बुडिपत्ताओ अट्ठ हिरण्णकोडिओ सकंसाओ पवित्थरपउत्ताओ अट्ठ वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं, तस्स णं महासयगस्स रेवईपामोक्खाओ तेरस भारियाओ होत्या, For Prana Prata Use Only मूलं [ ४५] “उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः सद्दालपुत्रः एवं तस्य देवकृत उपसर्ग: अत्र सप्तमं अध्ययनं परिसमाप्तं अथ अष्टमं अध्ययनं "महाशतक" आरभ्यते [महाशतक-श्रमणोपासक कथा] ~98~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) "उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति अध्ययन [८], ---- मूलं [४६-४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [ob], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: 10 प्रत सूत्रांक [४६-४७] उपासक- अहीण जाव सुरूवाओ, तस्स ण महासयगस्स रेवईए भारियाए कोलपरियाओ अट्ठ हिरण्णकोडिओ अट्ठ क्या महाशतदशाङ्गे दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था अबसेसाणं दुवालमण्हं भारियाणं कोलघरिया एगमेगा हिरण्णकोडी एगमेगे ये काध्य ॥४८॥ विए दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था ॥ (सू. ४६ ) तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा निग्गया, जहाऋद्धिधम वए दसगासाहा आणन्दो तहा निग्गच्छइ तहेब सावयधम्म पडिवज्जइ, नवरं अट्ठ हिरण्णकोडिओ सकंसाओ उच्चारेइ, अट्ठ वया, प्रतिपत्तिश्च रेवईपामोक्खाहिं तेरसहि भारियाहिं अवसेस मेहुणविहिं पञ्चक्खाइ, सेसं सव्वं तहेव, इमं च णं एयारूवं अभिग्गहं । अभिगिण्हद कल्लाकल्लिं च णं कप्पद मे वेदोणियाए कंसपाईए हिरण्णभारयाए संववहरितए, तए णं से महासयए। समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ, तए णं समणे भगवं महावीरे बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥ (मू. ४७) __अष्टपमपि सुगम, तथापि किमपि तत्र लिख्यत'सकंसाओ'त्ति सह कांस्येन-द्रव्यमानविशेषेण यास्ताः सांस्याः कोलघरियाओ'त्ति कुलगृहात्-पितृगृहादागताः कौलगृहिकाः ।। सू. ४७॥ तए णं तीसे रेवईए गाहावइणीए अन्नया कयाइ पुवरत्तावरत्तकालसमपंसि कुडुम्ब जाव इमेयारूवे अज्झ-13 थिए ४, एवं खलु अहं इमासि दुवालसण्हं सवत्तीणं विधाएणं ना संचाएमि महासयएणं समणोवासरण सद्धिं उरा दीप अनुक्रम [४८-४९] manasurary.orm महाशतकस्य भार्या रेवती संबंधी कथा ~99~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [८], ----- मूलं [४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४८] लाई माणुस्सयाई भोगभोगाई भुञ्जमाणी विहरिचए, ते सेयं खलु ममं एयाओ दुवालसबि सवत्तियाओ अग्गिप्पओगेणं वा सत्थप्पओगेणं या विसप्पओगेणं वा जीवियाओ ववरोवित्ता एयार्सि एगमेगं हिरण्णकोर्डि एगमेगं वयं सयमेव उवसम्पजित्ता णं महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाई जाव विहरित्तए, एवं सम्पेहेइ २ ना तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं अन्तराणि य छिहाणि य विवराणि य पडिजागरमाणी विहरइ, तए णं सा रेवई गाहावइणी अन्नया कयाइ तासि दुवालसण्हं सवत्तीणं अन्तरं जाणित्ता छ सवत्तीओ सत्थप्पओगेणं उद्दवेइ २ ता छ सवत्तीओ विसप्पओगेणं उद्दवेइ २ ता तासिं दुवालमण्हं सवचीणं कोलपश्यिं एगमेगं हिरण्णकोडिं एगमेगं वयं सयभेव पडिवजह २ ना महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुञ्जमाणी विहरइ, तए णं सा रेवई गाहावइणी मसलोलुया मंसेस मुच्छिया जाव अन्झोववन्ना बहुविहेहिं मंसेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भजिएहि य सुरं च महुं च मेरगं च मजं च सीधुं च पसन्नं च आसाएमाणी ४ विहरइ ॥ ( सू. ४८) । का 'अन्तराणि यत्ति अवसरान् 'छिद्राणि विरलपरिवारत्वानि 'विरहान्' एकान्तानिति, 'मंसलोले'त्यादि, मांस लोला-मांसलम्पटा, एतदेव विशिष्यते-मांसमूच्छिता, तदोषानभिज्ञत्वेन मूढेत्यर्थः, मांसग्रथिता-मासानुरागतन्तुभिः सन्दर्भिता, मांसगृद्धा-तद्भोगेऽप्यजातकाङ्क्षाविच्छेदा, मांसाध्युपपन्ना-प्रसिकाग्रचित्ता, ततश्च बहुविधर्मीसँच सामान्यैः वद्विशेषैश्च, तथा चाइ'सोल्लिएहि यत्ति शूल्यकैश्च-शूलसंस्कृतकैः तलितैश्च वृतदिनाऽनौ संस्कृतैः भजितैश्च-अग्निमात्रपकैः सहेति गम्यते,सुरां च दीप अनुक्रम [५०] amurary on महाशतकस्य भार्या रेवती संबंधी कथा ~ 100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [८], ------ मूलं [४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४८] महानकाध्य. वित्या मांसमृद्धता मांसभक्षण दीप उपासक काष्ठपिष्टनिष्पना मधु च-सौद्रं मेरकं च-मथविशेष मद्यं च-गुडघातकीभवं सीधु च-तद्विशेष प्रसन्नां च-सुराविशेष आस्वाद- दाङ्गायन्ती-ईपत्स्वादयन्ती कदाचिद् विस्वादयन्ती-विविधमकारैर्विशेषेण वा स्वादयन्तीति कदाचिदेव परिभाजयन्ती स्वपरिवारस्य परिभुञ्जाना सामस्त्येन विवक्षिततविशेषान् ॥ (सू. ४८) तए णं रायगिहे नयरे अन्नया कयाइ अमाधाए घुढे याविहोत्था, तए णं सा रेवई गाहावइणी मैसलोलुया मंसेस मुच्छिया ४ कोलघरिए पुरिसे सदावेइ २ ना एवं वयासी-तुब्भे देवाणुप्पिया ! मम कोलघरिएहितो वएहितो कल्लाकल्लिं दुवे दुवे गोणपोयए उद्दवेह २ ना मम उवणेह, तएं ण ते कोलघरिया पुरिसा रेवईए गाहावदणीए तहनि एयम₹ विणएणं पडिसुणन्ति २ ना रेवईए गाहावदणीए कोलघरिएहितो वएहितो कल्लाकल्लिं दुवे दुवे गोणपोयए वहन्ति २ ता रेवईए गाहावइणीए उवणेन्ति, तए णं सा रेवई गाहबइणी तेहिं गोणमंसेहि सोल्लेहि य ४ सुरं च ६ आसाएमाणी ४ विहरद (सू. ४९). । 'अमाघातो' रूदिशब्दत्वात् अमारिरित्यर्थः 'कोलघरिएत्ति कुलगृहसम्बन्धिनः 'गोणपोतकौ' गोपुत्रको 'उद्दवह'त्ति विनाशयत ।। (सू. ४९) तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स बहूहिं सील जाव भावेमाणस्स चोइस संवच्छरा वइक्वन्ता, एवं तहेव जेटुं पुत्तं ठवेद जाव पोसहसालाए धम्मपण्णत्तिं उवसम्पजित्ता गं विहरइ, तए णं सा रेवई गाहावाणी ఈ పండు రసం కడుపు మందు ముందుకు अनुक्रम [१०] ona महाशतकस्य भार्या रेवती संबंधी कथा ~ 101~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [८], ------- मूलं [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५०] दीप अनुक्रम [१२] मत्ता लुलिया विदण्णकेसी उत्तरिजयं विकमाणी २ जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयए सम० तेणेव उवागच्छदरता मोहुम्मायजणणाई सिङ्गारियाई इत्थिभावाई उवदंसेमाणी २ महासययं समणोवासयं एवं बयासी-हं भो महासयया समजाणोवासया ! धम्मकामया पुण्णकामया सग्गकामया मोक्खकामया धम्मकड्डिया ४ धम्मपिवासिया ४ किणं तुम्भ देवाणुप्पिया ! धम्मेण वा पुण्णेण वा सग्गेण वा मोक्खेण वा ? जपणं तुमं मए सद्धिं उरालाई जाव भुञ्जमाणे नो विहरसि, तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए एयमद्रं नो आढाइ नो परियाणाइ अणाढाइजमाणे अपरियाणमाणे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ, तए णं सा रेवई गाहावइणी महासययं समणोवासयं दोच्चपि । तचंपि एवं वयासी-हं भो ते चेव भणइ, सोऽवि तहेव जाव अणाडाइज्जमाणे अपरियाणमाणे विहरद, तएणं सा रेवई | गाहावइणी महासयएणं समणोवासपणं अणाढाइजमाणी अपरियाणिज्जमाणी जामेव दिसं पाउन्भूया तामव दिसं पडिगया ॥ (सू. ५०) | 'मत्त'त्ति सुरादिमदवती 'लुलिता' मदवशेन चूर्णिता, स्खलत्पदेत्यर्थः, विकीर्णा-विक्षिप्ताः केशा यस्याः सा तथा| उत्तरीयक-उपरितनवसनं विकर्षयन्ती मोहोन्मादजनकान् कामोद्दीपकान् शृङ्गारिकान्-शृङ्गाररसवतः स्त्रीभावान्-कटाक्षसन्दर्शनादीन् उपसन्दर्शयन्ती 'हे भोति आमन्त्रणं महासयया! इत्यादेविहरसीतिपर्यवसानस्य रेवतीवाक्यस्यायमभिमायःअयमेवास्प स्वर्गो मोक्षो वा यत् मया सह विषयसुखानुभवन, धर्मानुष्टानं हि विधीयते स्वर्गाद्यर्थ, स्वर्गादिश्चेष्यते सुखार्थ, सुख realll ganauranorm महाशतकस्य भार्या रेवती संबंधी कथा ~ 102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [८], ------- मूलं [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: सपासक दशाङ्गे प्रत सूत्रांक ॥५०॥ [५०] चतावदेव ताकदृष्टं यत्कामासेवनमिति, भणन्ति च-"जई नत्वि तत्व सीमंतिणीओ मणहरपियगुवण्णाओ। तारे सिद्धतिय बन्धणं खु महाशतमोक्खो न सो मोक्खो ॥१॥" तथा "सत्यं वच्मि हितं वच्मि, सारं वच्मि पुनः पुनः । अस्मिन्नसारे संसारे, सारं सारङ्गलो- कारेवतीकचनाः ॥ १॥" तथा "द्विरष्टवा योषित्पञ्चविंशतिकः पुमान् । अनयोनिरन्तरा प्रीतिः, स्वर्म इत्यभिधीयते ।। १॥" (सू. ५०) उपसर्गः तए णं से महासयए समणोवासए पढम उवासगपडिमं उवसम्पजिना णे विहरइ, पढमं अहामुत्तं जाव अवधि ज्ञानं एक्कारसऽवि, तए णं से महासयए समणोवासए तेणं उरालेणं जाव किसे धमणिसन्तए जाए, तए णं तस्स महासय| यस्म समणोवासयस्स अन्नया कयाइ पुच्चरत्तावरत्तकाले धम्मजागरियं जागरमाणस अयं अज्झस्थिए ४ एवं सला अहं इमेणं उरालेणं जहा आणन्दो तहेव अपच्छिममारणलियसंलेहणाझसियसरीरे भत्नपाणपडियाइक्खिए काला अणवकडमाणे विहरइ, तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्त सुभेणं अज्झवसाणेणं जाव खओवसमेणं ओहि-10 णाणे समुप्पन्ने पुरथिमेणं लवणसमुद्दे जोयणसाहस्सियं खेत्तं जाणइ पासइ, एवं दक्षिणेणं परचस्थिमेणं, उत्तरणं जाव चुल्लहिमवन्तं वासहरपब्वयं जाणइ पासइ, अहे इसीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुयं नरयं चउरासीइवाससहस्सटिइयं जाणइ पासइ ॥ (सू. ५१) दीप अनुक्रम [५२]] ॥५०॥ १ यदि न सन्ति तत्र सीमन्तिन्यो मनोहरप्रियक्सपर्णाः । तदा अरे सैद्धान्तिक ! बन्धनमेष मोक्षा न स मोक्षः॥१॥ SAREairatanANIN महाशतकश्रावक द्वारा उपासक-प्रतिमा स्वीकरणम् ~ 103~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [५१-५२] दीप अनुक्रम [५३-५४] अध्ययन [ ८ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Jan Eucatur “उपासकदशा” अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) रेवती भार्या कृत उपसर्ग: - आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र - [०७] तणं सा रेवई गाहावड़णी अन्नया कयाइ मत्ता जाव उत्तरिजयं विकडेमाणी २ जेणेव महासयए समणोवासए जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छद्द २ ता महासययं तहेव भणइ जाव दोचंपि तचंपि एवं वयासी-हं भो तहेव, तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावरणीए दोपि तच्चपि एवं बुत्ते समाणे आसुरुते ४ ओहिं पउअइ २ ना ओहिणा आभोएइ २ ना रेवई गाहावइणिं एवं वयासी-हं भो रेवई । अपत्थियपत्थिए ४ एवं खलु तुम अन्तो सत्तरत्तस्स अलसपणं वाहिणा अभिभूया समाणी अट्टहट्टवसट्टा असमाहिपत्ता कालमासे कालं किया अहे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चए नरए चउरासीइवाससहस्सट्ठिइएस नेरइएस नेरइयत्ताए उदवज्जिहिति, तए णं सा रेवई गाहावइणी महासयएणं समणोवासएणं एवं बुत्ता समाणी एवं वयासी- रुट्ठे णं ममं महासयए समणोवासए हीणे णं ममं महासयए समणोवासए अवज्झायाणं अहं महासयएणं समणोवासरणं न नज्जद णं अहं केणवि कुमारेणं मारिजिस्सामित्तिक भीया तत्था तसिया उब्बिग्गा सञ्जयभया सर्णियं २ पञ्चसक २ ना जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छद २ ता ओहय जाव झियाइ, तए णं सा रेवई गाहावणी अन्ता सरत्तस्स | अलसएणं वाहिणा अभिभूया अट्टहट्टवसट्टा कालमासे कालं किया इमीसे रयणम्पमाए पुढवीए लोलुयच्चुए नरए चउरासीइवाससहस्सट्ठिइएस नेरइएस नेरइयत्ताए उववन्ना ॥ (सु. ५२ ) 'असणं'ति विचिकाविशेषलक्षणेन, तलक्षणं चेदम्- "नोर्ध्वं व्रजति नाथस्तादाहारो न च पच्यते । आमाशयेऽल For Pasta Use Only मूलं [ ५१-५२ ] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 104~ 836365808686 nary or Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) प्रत सूत्रांक [५१-५२] दीप अनुक्रम [५३-५४] अध्ययन [ ८ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. उपासक ि ।। ५१ ।। Education “उपासकदशा” अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) जल - मूलं [५१-५२] ..आगमसूत्र [०७], अंग सूत्र [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः सीभूतस्तेन सोऽलसकः स्मृतः ॥ १ ॥” इति ॥ 'हीणे चि प्रीत्या हीनः त्यक्तः 'अवज्झाय'त्ति अपध्याता दुर्ध्यानविषयीकृता 'कुमारेणं'ति दुःखमृत्युना || (सु. ५२ ) रेवत्याः मरणं, महाशतकेन दत्तं मिथ्यादुष्कृतं ते काले तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरणं जाव परिसा पडिगया, गोयमाइ समणे भगवं महावीरे एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! इहेव रायगिहे नयरे ममं अन्तेवासी महासयए नामं समणोवासए पोसहसा लाए अपच्छिममारणन्तियसंलेहणाए झूसियसरीरे भचपाणपडियाइक्खिए कालं अणवकङमाणे विहरइ, तए णं तस्स महासयगस्स रेवई गाहावइणी मत्ता जाव विकडेमाणी २ जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयए तेणेव उवागच्छइ २ ता मोहुम्माय जाव एवं वयासी तहेव जाव दोघंपि तचंपि एवं वयासी, तेंए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोपि तचंपि एवं वृत्ते समाणे आसुरुते ४ ओहिं पजइ २ ना ओहिणा आभोए २ त्ता रेवडं गाहावइणिं एवं वयासी- जाव उववज्जिहिसि, नो खलु कप्पइ गोयमा ! समणोवासगस्स अपच्छिम जाव झुसियसरीरस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स परो सन्तेहिं तचेहिं तहिएहिं सम्भूएहिं अणिट्ठेहिं अकन्तेहिं अप्पिएहिं अमणुण्णेहिं अमणामेहिं वागरणेहिं वागरित्तए, तं गच्छ णं देवाणुप्पिया ! तुमं महासययं समणोवासयं एवं वयाहिनो खलु देवाणुप्पिया ! कप्पइ समणोवासगस्स अपच्छिम जाव भत्तपाणपडियाइक्लियस्स परो सन्तेहिं जाव ॥ ५१ ॥ वागरित्तए, तुमे य णं देवाणुप्पिया ! रेवई गाहावइणी सन्तेहिं ४ अणिट्ठेहिं ६ वागरणेहिं वागरिया, तं णं तुमं एयस्स For Pernal P Use Only ~ 105~ ८ महारा का० रेवत्या मरणं मि च्या दुष्कृया दिच ॐ 3anurary org Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [८], ------ मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५३] दीप अनुक्रम [५५] ठाणस्स आलोएहि जाव जहारिहं च पायच्छित्तं पडिवजाहि, तए णं से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महा-13 वीरस्स तहत्ति एयमट्ट विणएणं पडिसुणेइ २ चा तओ पडिणिक्खमइ २ चा रायगिह नयरं मझमज्झेणं अणुप्पविसइ २ चा जेणेव महासयगस्स समणोवासयस्स गिहे जेणेच महासयए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, तए णं से महासयए भगवं गोयमं एजमाणं पासइ २ ता हट्ट जाव हियए भगवं गोयमं वन्दइ नमसइ, तए णं से भगवं गोयमे महासययं समणोवासयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइभासइ पण्णवेइ परूवेइ-नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया ! समणोवासगस्स अपच्छिम जाव वागरिचए, तुमे णं देवाणुप्पिया ! रेवई गाहावइणी सन्तेहिं जाव वागरिआ, तं णं तुम देवाणुप्पिया ! यस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवजाहि, तए णं से महासयए समणोवासए भगवओ गोयमस्स तहत्ति एयमटुं विणएणं पडिसुणेइ २ ता तस्स ठाणस्स आलोएई जाव अहारिहं च पायच्छित्तं पडिवजह, तए णं से भगवं गोयमे महासयगस्स समणोवासयस्स अन्तियाओ पडिणिक्खमइ २ चा रायगिहं नगरं मझमज्झणं निग्गच्छद २ चा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ ना समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ २ चा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ। तए णं समणे भगवं| महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नयराओ पडिणिक्खमइ २ ता बहिया जणवयविहारं विहरइ (सू. ५३) | 'नो खलु कप्पइ गोयमे त्यादि, 'सन्तेहिंति सद्भिविद्यमानाः 'तञ्चेहिति तथ्यैस्तत्त्वरूपैर्वाऽनुपचारिकैः ‘तहि S unaurary on ~ 106~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्ययन [८], ------ मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: महाशत प्रत पासकदशाण्डे का सूत्रांक ५२॥ [५३] एहिति तमेवोक्त प्रकारमापनैर्न मात्रयाऽपि न्यूनाधिकः, किमुक्तं भवति ?-सद्भूतौरति, अनिष्टैः-अवाञ्छिः अकान्तैः-स्वरूपेणादामनीयः अप्रियैः-अप्रीतिकारकैः अमनोज्ञैः-मनसा न ज्ञायन्ते-नाभिलष्यन्ते वक्तुमपि यानि तैः, अनमशापैः- मनस आप्यन्ते-पाप्यन्ते चिन्तयाजपे यानि तैः, वचने चिन्तने च येषां मनो नोत्सहत इत्यर्थः, व्याकरणः-वचन विशेषः ।। (भू. ५३) - इति अष्टममध्ययनमुप.सकदशानां विवरणतः समाप्तम् ॥ तए णं से महासयए समणोवासए बहहिं सील जाव भावेत्ता वीसं वासाई समणोवासयपरियायं पाउणिचा एक्कारस उवासगपडिमाओ सम्मं काएण फासित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झुसिता सष्टुिं भत्ताई अणसणाए छेदत्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणवडिंसए विमाणे देवताए उबबन्ने। चत्तारि पलिओवमाई ठिई। महाविदेहे वासे सिम्झिहिइ निक्लेवो ॥ (सू. ५४ ) सत्तमस्स अस्स उवासगदमाणं अट्ठमं अन्झयणं समनं ॥ दीप अनुक्रम [५५]] SAREauratoninternational अत्र अष्टम अध्ययनं परिसमाप्त ~ 107~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) अध्य यन [९,१०], ------ ------ मूलं [५५-१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५-५६] दीप अनुक्रम [५७-५८ नवमदशमे अध्ययने । नवमस्म उक्खेवो, एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नयरी कोट्ठए चेइए जियसनराया तत्थ णं सावत्थीए नयरीए नन्दिणीपिया नाम गाहावई परिवसइ अड्डे चत्तारि हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ चत्तारि हिरण्णकोडिओ बुडिपउत्ताओ चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थरपउत्ताओ चत्तारि वया दसगोसाहहिएणं वएणं अस्मिणी भारिया सामी समोसढे जहा आनन्दो तहेव गिहिधम्म पडिबज्जइ सामी बहिया विहरइ, नए णं से नन्दिणीपिया समणोवासए जाए जाव विहरइ, तए णं तस्स नन्दिणीपियस्म समणोबासयस्स बहूहिं सीलव्दयगुण जाव भावमाणस्स चोइस संवच्छराई वइक्वन्ताई तहेव जेहें पुत्तं ठवेइ धम्मपण्णत्ति वीसं वासाई पक्ष परियागं नाणत्त अरुणगवे विमाणे उववाओ । महाविदेहे वासे सिन्झिहिइ ॥ निक्खेवो ॥ उवासगदसाणं नवमं] अज्झयणं समतं ॥ (सूत्रं ५५) दसमस्स उक्खेवो, एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नयरी कोट्ठए चेइए जियसत्तू तत्थ जाणं सावत्थीए नयरीए सालिहीपिया नाम गाहावई परिवसइ अड़े दित्ते चत्तारि हिरपणकोडीओ निहाणपउत्ताओ चत्वारि हिरणकोडिओ बुडिपउत्ताओ चत्वारि हिरण्णकोडीओं पवित्थरपउत्ताओ चचारि वया दसगोसाहस्तिएणं एणं करगुणी भारिया साभी समोसढे जहा आणन्दो तहेव गिहिधम्म पडिबजइ, जहा कामदेवो तहा जेटुं पुत्तं ठवेत्ता hunmurary.orm | अथ नवमीदशमं अध्ययने "नंदिनीपिता" एवं "शालिहीपिता" आरभ्यते नंदिनीपिता एवं शालिहीपिता बोथ श्रमणोपासको कथा] ~ 108~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [९,१०], ----- ----- मूलं [५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: उपासक प्रत सूत्रांक [५५-५६] H५३।। दीप अनुक्रम [५७-५८ पोसहसालाए समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णात्रि उवसम्पज्जिता णं विहरइ,नवरं निरुवसम्गाओ एक्कारसवि ९-१०+ उवासगपडिमाओ तहेव भाणियवाओ, एवं कामदेवगमेणं नेयवं जाव सोहम्मे कप्पे अरुणकीले विमाणे देवत्ताएदनी साउववने । चत्तारि पलिओवमाई ठिई, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ (सू. ५६) लहीपिया| नवसदशमे च कंठ्ये एवेति प्रत्यध्ययनमुपक्षेपनिक्षेपावभ्यूह्य वाच्यौ । (सू. ५६) ध्ययने - दसण्हवि पणरसमे संवच्छरे वट्टमाणाणं चिन्ता । दसण्हवि वीसं वासाई समणोवासयपरियाओ॥ एवं उपसंहारः खलु जम्बू ! समणेणं जाव सम्पत्तेणं सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णते (५७) __वधा एवं खलु जम्बू ! इत्यादि उपासकदशानिगमनवाक्यमध्येयमिति । (सू. ५७) वाणियगामे चम्पा दुवे य बाणारसीए नयरीऍ। आलभिया य पुरवरी कम्पिल्लपुरं च बोद्धव्वं ॥१॥ पोलासं रायगिह साथीए पुरीए दोन्नि भवे । एए उवासगाणं नयरा खलु होन्ति बोद्धव्वा ॥२॥ सिवनन्द भद्द सामा धन्न बहुल पूस अग्गिमित्ता य । रेवइ अस्मिणि तह फग्गुणी य भजाण नामाई ॥३॥ ओहिण्णाण पिसाए माया वाहिधणउत्तरिजे य । भजा य सुव्वया दुव्वया निरुवसग्गया दोन्नि॥४॥ अरुणे अरुणाभे खलु अरुणप्पहअरुणकन्तसिढे य । अरुणज्झए य छठे भूय वडिंसे गवे कीले ॥५॥ चाली सट्ठि असीई सट्ठी सट्ठी य सहि दस सहस्सा। असिई चना चचा एए वइयाण य सहस्सा ॥६॥ SaintairatKATA 7LMI अत्र अष्टम अध्ययनं परिसमाप्तं उपाशकदशाया; निगमन-गाथा: ~ 109~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययन [९,१०], --------- - मूलं [१८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०७], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [५८) गाथा: बारस अट्ठारस चउवीसं तिविहं अटरसाइ नेयं । धन्नेण तिचोविसं पारस बारस य कोडीओ॥७॥ उल्लणदन्तवणफले अभिङ्गणुब्वट्टणे सणाणे य । वत्थ विलेवण पुप्फे आभरणं धूवपेज्जाद ॥८॥ भक्खोयण सूय घए सागे माहुरजेमणऽन्नपाणे या तम्बोले इगवीसं आणन्दाईण अभिग्गहा ॥९॥ उड़ सोहम्मपुरे लोलूए अहे उत्तरे हिमवन्ते । पञ्चसए तह तिदिसि ओहिण्णाणं दसगणस्स ॥ १०॥ दसण-वय-सामाइय पोसह-पडिमा-अयम्भ-सच्चित्ते।आरम्भ-पेस-उद्दिट्ठ-बजए समणभूए य ॥११॥ इक्कारस पडिमाओवीसं परियाओ अणसणं मासे। सोहम्मे चउपलिया महाविदेहम्मि सिन्सिहिद (स.५८) . उचासगदसाणं दसमं अज्झयणं समत्तं ॥ तथा पुस्तकान्तरे सङ्ग्रहगाथा उपलभ्यन्ते, ताश्चेमा:वागियगामे १ चम्पा दुवे य २-३ वाणारसीऍ नयरीए ६ । आलभिया य पुरवरी ५ कम्पिल्लपुरं च बोद्धवं ६ ॥१॥ पोलासं ७ रायगि ८ सावत्थीए पुरी' दोत्रि भवे ९-१० । एए उवासगाणं नयरा खलु होन्ति बोबा ॥२॥ सिवनन्द १ भद्द २ सामा ३धण ४ बहुल ५ पूस ६ अम्गिमिचा७ या रेवइ ८ अस्सिणि ९ तह फग्गुणी१० य भजाण नामाई॥३॥ ओहिण्णाण १ पिसाए २ माया ३ वाहि४ धण ५ उचरिजे ६ या भज्जा य सुवया ७ दुवया ८ निरुवसग्गया दोनि९-१०॥४॥ अरुणे १ अरुणाभे २ खलु अरुणप्पद ३ अरुणकन्त ४ सिट्टे ५य। अरुणझए ६य छटे भूय ७ वर्डिसे ८ गवे ९ कीले १०॥५॥ दीप अनुक्रम [५९-७२]] SAMEarati o n Baitaram.org उपाशकदशाया; निगमन-गाथा: ~110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०७) “उपासकदशा” - अंगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) अध्य यन [--], ------- ------- मूलं [५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [ov], अंग सूत्र - [०७] "उपासकदशा” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: उपासक-10 प्रत श्रावकवर्णनगाथाः योगविधिश्च सुत्राक ॥५४॥ [५८] उवासगदसामो समनाओ।उवासगदसाणं सचमस्स अङ्गस्स एगो सुयसन्धो दस अज्झयणा एक्कसरगा दसस दशाङ्गे चेव दिवसेस उदिस्सिजति तओ सयसन्धो समुदिस्सिज्जइ अणुण्णविजद दोस दिवसेस, अझं तहेव ॥ (सू. ५९) शिष्टादिनामान्यरुणपदपूर्वाणि दृश्यानि, अरुणशिष्टमित्यादि ।। एताश्च पूर्वोक्तानुसारेणावसेयाः। यदिह न व्याख्यातं तितत्सर्व ज्ञाताधर्मकथाव्याख्यानमुपयुक्तेन निरूप्यावसेयमिति ॥ सर्वस्यापि स्वकीयं वचनमभिमतं मायशः स्याज्जनस्य, यत्तु स्वस्यापि सम्यग् न हि विहितरुचिः स्यात् कथं तत्परेषाम् । चित्तोल्लासात्कृतश्चिचदपि निगदितं किश्चिदेवं मयतयुक्तं यच्चात्र तस्य अहममलधियः कुर्वतां प्रीतये मे ॥१॥ इति श्रीचन्द्रकुलाम्बरनभोमणिश्रीजिनेश्वराचार्यान्तिपच्छ्रीमन्नवाङ्गीवृत्तिकारकश्रीमदमयदेवाचार्यकृतं समाप्तमुपासकदशाविवरणम् ॥ श्रीचान्द्रकुलौनश्रीजिनेश्वराचार्यशिष्य श्रीमन्नवाढीवृत्तिकारकश्रीमदभयदेवाचार्यनिर्मितं उपासकदशाइ विवरणं समाप्तम् ॥ गाथा: दीप अनुक्रम [५९-७२] ॥५५ E mainrary.orm मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र ७) "उपाशकदशा” परिसमाप्त: ~111~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः / पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “उपासकदशाङ्गसूत्र” [मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः] / (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "उपासकदशा” मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त: Remembar it's a Net Publications of 'jain_e_library ~112~