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वेदान्त का मर्म
यह उस समय की बात है जब स्वामी विवेकानंद १८९८ में पेरिस में थे। उन्हें वहां एक इटालियन डचेस ने कुछ समय के लिए निमंत्रित किया था। एक दिन डचेस स्वामीजी को शहर से बाहर घुमाने के लिए ले गयी। उन दिनों मोटर-गाडियां तो चलती नहीं थीं इसलिए उन्होंने एक घोडागाडी किराये पर ली हुई थी।
यहाँ यह बता देना ज़रूरी है की स्वामीजी चुटकियों में विदेशी भाषा सीख जाते थे। कुछ समय पेरिस में रहने पर वे कामचलाऊ फ्रेंच बोलना सीख गए। डचेस ने स्वामीजी को अंगरेजी में बताया - "यह घोडागाडी वाला बहुत अच्छी फ्रेंच बोलता है।" वे लोग जब बातचीत कर रहे थे तब घोडागाडी एक गाँव के पास से गुज़र रही थी। सड़क पर एक बूढी नौकरानी एक लड़केलडकी का हाथ पकड़ कर उन्हें सैर करा रही थी। घोडागाडी वाले ने वहाँ गाडी रोकी, वह गाडी से उतरा और उसने बच्चों को प्यार किया। बच्चों से कुछ बात करने के बाद वह फ़िर से घोडागाडी चलाने लगा।
डचेस को यह सब देखकर अजीब लगा। उन दिनों अमीर-गरीब के बीच कठोर वर्ग विभाजन था। वे बच्चे "अभिजात्य" लग रहे थे और घोडागाडी वाले का इस तरह उन्हें प्यार करना डचेस की आंखों में खटका। उसने गाडीवाले से पूछा की उसने ऐसा क्यों किया।
गाडीवाले ने डचेस से कहा - "वे मेरे बच्चे हैं। क्या आपने पेरिस में 'अमुक' बैंक का नाम सुना है?"
डचेस ने कहा - "हां, यह तो बहुत बड़ा बैंक था लेकिन मंदी में घाटा होने के कारण वह बंद हो गया।"
गाडीवाले ने कहा - "मैं उस बैंक का मैनेजर था। मैंने उसे बरबाद होते हुए देखा। मैंने इतना घाटा उठाया है कि उसे चुकाने में सालों लग जायेंगे। मैं गले तक क़र्ज़ में डूबा हुआ हूँ। अपनी पत्नी और बच्चों को मैंने इस गाँव में किराये के मकान में रखा है। गाँव की यह औरत उनकी देखभाल करती है। कुछ रकम जुटा कर मैंने यह घोडागाडी ले ली और अब इसे चलाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूँ। क़र्ज़ चुका देने के बाद मैं फिर से एक बैंक खोलूँगा और उसे विकसित करूँगा।"
उस व्यक्ति का आत्मविश्वास देखकर स्वामीजी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने डचेस से कहा - "यह व्यक्ति वास्तव में वेदांती है। इसने वेदांत का मर्म समझ लिया है। इतनी ऊंची
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