Book Title: Zen Katha
Author(s): Nishant Mishr
Publisher: Nishant Mishr
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cvbnmq vertyui pasdfg Iklzxcv 1511 opasdfghjklzxcvbnmqwertyuiopasd fhjklzxcvbnmqwertyuiopasdfghjklzk vonmqv vertyui pasdfg सर्वश्रेष्ठ कथाएं cvbnmq निशांत मिश्र के ब्लॉग 'ज़ेन कथा' में wertyai संकलित सर्वश्रेष्ठ नैतिक कथाओं, प्रेरक opasd प्रसंगों व लेखों का संग्रह hjklzx| vbnmo 'ज़ेन कथा' ब्लॉग का पता http://zen-katha.blogspot.com ly v ('ज़ेन कथा' ब्लॉग व इस ई-बुक की समस्त सामग्री विभिन्न स्रोतों से लेकर ‘क्रियेटिव कॉमन्स लायसेंस के तहत अनूदित व संपादित की गई है) wertyui opasdig hjklzxcvbnmqwertyuiopasdfghjklzxc vonmqwertyuiopasdfghjklzxcvbnmo wertyuiopasdfghjklzxcvbnmqwertyui opasdfghjklzxcvbnmqwertyuiopasdi klzxcvbnmrtyuiopasdfghjklzxcvbn qwertyuiopasdfghjklzxcvbnmqwe Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन 'जेन कथा' ब्लॉग मैंने वर्ष अक्टूबर 2008 में बनाया था. हिंदी में ब्लॉगिंग संभव और सरल है, इसका पता मुझे बहुत देर से चला. अभी भी हिंदी ब्लॉगिंग अपने शैशवकाल में है और इसमें अपार संभावनाएं हैं. संभवतः 'ज़ेन कथा' जैसा कोई दूसरा हिंदी ब्लॉग नहीं है. इसे पाठकों का अपार स्नेह मिला है. मात्र छः महीनों की अल्प अवधि में ही इसमें लगभग 150 नैतिक कथाएं, प्रेरक प्रसंग व लेख आदि प्रकाशित हो चुके हैं. इस ई-बुक में दिनांक 25 अपैल 2009 तक की सामग्री है. नवीनतम सामग्री पढ़ने/देखने के लिए कृपया ब्लॉग पर पधारें. 'ज़ेन कथा' ब्लॉग का पता है:http://zen-katha.blogspot.com मेरे ब्लॉग की समस्त सामग्री विभिन्न स्रोतों से लेकर 'क्रियेटिव कॉमन्स लायसेंस' के तहत अनूदित व संपादित की गई है. ज्ञान की इस सामग्री पर कोई कॉपीराइट संभव नहीं है. जहां कहीं मैंने किसी की पुस्तक या ब्लॉग से कुछ साभार लिया है, उसका उल्लेख कर दिया गया है. पाठकों को यह स्वतंत्रता है कि वे इस ई-बुक का आदर करते हुए इसकी सामग्री का जैसे चाहें वैसे उपयोग करें, इसके लिये मेरा आभार व्यक्त करने की बाध्यता नहीं है. अपने ब्लॉग पर मैं सर्वाधिकार पहले ही समर्पित कर चुका हूँ. इस ई-बुक में ब्लॉग की सामग्री उसी क्रम में दी गई है जिस क्रम में उसे ब्लॉग में पोस्ट किया गया था. मेरा परिचय पुस्तक के अंत में दिया गया है. आशा है आपको मेरा यह प्रयास पसंद आएगा. "सबका मंगल हो" Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह ई-बुक मेरे दो प्यारे-प्यारे बच्चों अनाहिता और आयाम को समर्पित है (अनाहिता और आयाम) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामग्री के संबंध में इस ई-बुक की सामग्री किसी भी प्रकार से व्यवस्थित नहीं है. आप इसे किसी भी पृष्ठ से पढ़ सकते हैं. इसीलिए कोई विषय सूची भी नहीं दी जा रही है. 'ज़ेन कथा' ब्लॉग पर इन्हें सुविधा के लिए विभिन्न कैटेगरीज़ या लेबल्स में लगाया गया है. ज़ेन कथा' ब्लॉग पर मैनें अपनी पसंद के कई ब्लॉगों की लिंकें भी दी हैं जिनमें आप जीवन में शांति, समृद्धि तथा प्रसन्नता पाने के सूत्रों के लिए उच्च कोटि के लेख आदि पढ़ सकते हैं. टाइप का आकार यथासंभव बड़ा रखा गया है. आवश्यकता होने पर उसे कहीं-कहीं छोटा-बड़ा भी किया गया है. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कड़ी मेहनत मार्शल आर्ट का एक विद्यार्थी अपने गुरु के पास गया। उसने अपने गुरु से विनम्रतापूर्वक पूछा - "मैं आपसे मार्शल आर्ट सीखने के लिए प्रतिबद्ध हूँ। मुझे इसमें पूरी तरह पारंगत होने में कितना समय लगेगा?" गुरु ने बहुत साधारण उत्तर दिया - "१० वर्ष।" विद्यार्थी ने अधीर होकर फ़िर पूछा - "लेकिन मैं इससे भी पहले इसमें निपुण होना चाहता हूँ। मैं कठोर परिश्रम करूँगा। मैं प्रतिदिन अभ्यास करूँगा भले ही मुझे १० घंटे या इससे भी अधिक समय लग जाए। तब मुझे कितना समय लगेगा?" गुरु ने कुछ क्षण सोचा, फ़िर बोले - "२० वर्ष।" Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चा चमत्कार बेन्केइ नामक एक प्रसिद्ध ज़ेन गुरु रयूमों के मन्दिर में ज़ेन की शिक्षा दिया करते थे। शिन्शु मत को मानने वाला एक पंडित बेन्केइ के अनुयायियों की बड़ी संख्या होने के कारण उनसे जलता था और शास्त्रार्थ करके उन्हें नीचा दिखाना चाहता था। शिन्श मत को माननेवाले पंडित बौद्धमंत्रों का तेज़ उच्चारण किया करते थे। एक दिन बेन्केइ अपने शिष्यों को पढ़ा रहा था जब अचानक शिन्शु पंडित वहां आ गया। उसने आते ही इतने ऊंचे स्वर में मंत्रपाठ शुरू कर दिया कि बेन्केइ को अपना कार्य बीच में रोकना पड़ा। बेन्केड ने उससे पछा वह क्या चाहता है। शिन्शु पंडित ने कहा - "हमारे गुरु इतने दिव्यशक्तिसम्पन्न थे कि वह नदी के एक तट पर अपने हाथ में ब्रश लेकर खड़े हो जाते थे, दूसरे किनारे पर उनका शिष्य कागज़ लेकर खड़ा हो जाता था, जब वह हवा में ब्रश से चित्र बनाते थे तो चित्र दूसरे किनारे पर कागज़ में अपने-आप बन जाता था। आप क्या कर सकते हैं?" बेन्केइ ने धीरे से जवाब दिया - "आपके मठ की बिल्लियाँ भी शायद यह कर सकती हों पर यह शुद्ध जेन का आचरण नहीं है। मेरा चमत्कार यह है कि जब मुझे भूख लगती है तब मैं खाना खा लेता हूँ, जब प्यास लगती है तब पानी पी लेता हूँ." Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन का मन्दिर निर्वाण को उपलब्ध हो चुका शोइची नामक ज़ेन गुरु अपने शिष्यों को तोफुकू के मन्दिर में पढाया करता था। दिन हो या रात, सम्पूर्ण मन्दिर परिसर में मौन बिखरा रहता था। कहीं से किसी भी तरह की आवाज़ नहीं आती थी। शोइची ने मंत्रों का जप और ग्रंथों का अध्ययन भी बंद करवा दिया था। उसके शिष्य केवल मौन की साधना ही करते थे। शोइची के निधन हो जाने पर पड़ोस में रहने वाली एक स्त्री ने मन्दिर में घंटियों की और मंत्रपाठ की आवाज़ सुनी वह जान गयी कि गुरु चल बसे थे। 6 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा है क्या? ज़ेन मास्टर हाकुइन जिस गाँव में रहता था वहां के लोग उसके महान गुणों के कारण उसको देवता की तरह पूजते थे। उसकी कुटिया के पास एक परिवार रहता था जिसमें एक सुंदर युवा लड़की भी थी। एक दिन उस लड़की के माता-पिता को इस बात का पता चला कि उनकी अविवाहित पुत्री गर्भवती थी। लड़की के माता-पिता बहुत क्रोधित हुए और उनहोंने होने वाले बच्चे के पिता का नाम पूछा। लड़की अपने प्रेमी का नाम नहीं बताना चाहती थी पर बहुत दबाव में आने पर उसने हाकुइन का नाम बता दिया। लड़की के माता-पिता आगबबूला होकर हाकुइन के पास गए और उसे गालियाँ बकते हुए सारा किस्सा सुनाया। सब कुछ सुनकर हाकुइन ने बस इतना ही कहा - "ऐसा है क्या?" पूरे गाँव में हाकुइन की थू-थू होने लगी। बच्चे के जन्म के बाद लोग उसे हाकुइन की कुटिया के सामने छोड़ गए। हाकुइन ने लोगों की बातों की कुछ परवाह न की और वह बच्चे की बहुत अच्छे से देखभाल करने लगा। वह अपने खाने की चिंता नहीं करता था पर बच्चे के लिए कहीं-न-कहीं से दूध जुटा लेता था। लड़की यह सब देखती रहती थी। साल बीत गया। एक दिन बच्चे का रोना सुनकर माँ का दिल भर आया। उसने गाँव वालों और अपने माता-पिता को सब कुछ सच-सच बता दिया। लड़की के पिता के खेत में काम करने वाला एक मजदूर वास्तव में बच्चे का पिता था। लड़की के माता-पिता और दूसरे लोग लज्जित होकर हाकुइन के पास गए और उससे अपने बुरे बर्ताव के लिए क्षमा माँगी। लड़की ने हाकुइन से अपने बच्चा वापस माँगा। हाकुइन ने मुस्कुराते हुए बस इतना कहा - "ऐसा है क्या?" Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाय का प्याला मेइज़ी युग (१८६८-१९१२) के नान-इन नामक एक ज़ेन गुरु के पास किसी विश्वविद्यालय का एक प्रोफेसर जेन के विषय में ज्ञान प्राप्त करने के लिए आया। नान-इन ने उसके लिए चाय बनाई। उसने प्रोफेसर के कप में चाय भरना प्रारम्भ किया और भरता गया। चाय कप में लबालब भरकर कप के बाहर गिरने लगी। प्रोफेसर पहले तो यह सब विस्मित होकर देखता गया लेकिन फ़िर उससे रहा न गया और वह बोल उठा। "कप पूरा भर चुका है। अब इसमें और चाय नहीं आयेगी"| "इस कप की भांति", - नान-इन ने कहा - "तुम भी अपने विचारों और मतों से पूरी तरह भरे हुए हो। मैं तुम्हें ज़ेन के बारे में कैसे बता सकता हूँ जब तक तुम अपने कप को खाली नहीं कर दो"। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक ताओ कहानी किसी गाँव में एक किसान रहता था। उसके पास एक घोड़ा था। एक दिन वह घोड़ा अपनी रस्सी तुडाकर भाग गया। यह ख़बर सुनकर किसान के पड़ोसी उसके घर आए। इस घटना पर उसके सभी पड़ोसियों ने अफ़सोस ज़ाहिर किया। सभी बोले - "यह बहुत बुरा हआ"| किसान ने जवाब दिया - "हाँ .... शायद"। अगले ही दिन किसान का घोड़ा वापस आ गया और अपने साथ तीन जंगली घोडों को भी ले आया। किसान के पड़ोसी फ़िर उसके घर आए और सभी ने बड़ी खुशी जाहिर की। उनकी बातें सुनकर किसान ने कहा - "हाँ .... शायद"। दूसरे दिन किसान का इकलौता बेटा एक जंगली घोडे की सवारी करने के प्रयास में घोडे से गिर गया और अपनी टांग तुडा बैठा। किसान के पड़ोसी उसके घर सहानुभूति प्रकट करने के लिए आए। किसान ने उनकी बातों के जवाब में कहा - "हाँ.... शायद"। अगली सुबह सेना के अधिकारी गाँव में आए और गाँव के सभी जवान लड़कों को जबरदस्ती सेना में भरती करने के लिए ले गए। किसान के बेटे का पैर टूटा होने की वजह से वह जाने से बच गया। पड़ोसियों ने किसान को इस बात के लिए बधाई दी। किसान बस इतना ही कहा - "हाँ .. शायद"। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवाल एक ज़ेन गुरु और एक मनोचिकित्सक किसी जगह पर मिले। मनोचिकित्सक कई दिनों से ज़ेन गुरु से एक प्रश्न पूछना चाहता था। उसने पूछा - "आप वास्तव में लोगों की सहायता कैसे करते हैं?" ___"मैं उन्हें वहां ले जाता हूँ जहाँ वे कोई भी सवाल नहीं पूछ सकते" - गुरु ने उत्तर दिया। 10 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानना एक दिन च्वांग-त्जु और उसका एक मित्र एक तालाब के किनारे बैठे हुए थे। च्वांग-त्जु ने अपने मित्र से कहा - "उन मछलियों को तैरते हुए देखो। वे कितनी आनंदित हैं।" "तम स्वयं तो मछली नहीं हो" - उसके मित्र ने कहा, - "फ़िर तम ये कैसे जानते हो कि वे आनंदित हैं?" "तुम मैं तो नहीं हो"- च्वांग-त्जु ने कहा, - "फ़िर तुम यह कैसे जानते हो कि मैं यह नहीं जानता कि मछलियाँ आनंदित हैं?" Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग एक बार दो यात्री मरुस्थल में खो गए। भूख और प्यास के मारे उनकी जान निकली जा रही थी। एक स्थान पर उनको एक ऊँची दीवार दिखी। दीवार के पीछे उन्हें पानी के बहने और चिडियों की चहचहाहट सुनाई दे रही थी। दीवार के ऊपर पेड़ों की डालियाँ झूल रही थीं। डालियों पर पके मीठे फल लगे थे। उनमें से एक किसी तरह दीवार के ऊपर चढ़ गया और दूसरी तरफ़ कूदकर गायब हो गया। दूसरा यात्री मरुस्थल की और लौट चला ताकि दूसरे भटके हुए यात्रियों को उस जगह तक ला सके . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साइकिल एक ज़ेन गुरु ने देखा कि उसके पाँच शिष्य बाज़ार से अपनी-अपनी साइकिलों पर लौट रहे हैं। जब वे साइकिलों से उतर गए तब गुरु ने उनसे पूछा चलाते हो?" "तुम सब साइकिलें क्यों पहले शिष्य ने उत्तर दिया- "मेरी साइकिल पर आलुओं का बोरा बंधा है। इससे मुझे उसे अपनी पीठ पर नहीं ढोना पड़ता " । गुरु ने उससे कहा "तुम बहुत होशियार हो जब तुम बूढ़े हो जाओगे तो तुम्हें मेरी तरह झुक कर नहीं चलना पड़ेगा "। अच्छा लगता है". हो" । हूँ"। रहेगा" । दूसरे शिष्य ने उत्तर दिया - गुरु ने उससे कहा - "तुम हमेशा अपनी आँखें खुली रखते हो और दुनिया को देखते तीसरे शिष्य ने कहा गुरु ने उसकी प्रशंसा की अनुभव करता हूँ"। "जब मैं साइकिल चलाता हूँ तब मंत्रों का जप करता रहता चौथे शिष्य ने उत्तर दिया "मुझे साइकिल चलाते समय पेड़ों और खेतों को देखना "तुम्हारा मन किसी नए कसे हुए पहिये की तरह रमा - "साइकिल चलाने पर मैं सभी जीवों से एकात्मकता गुरु ने प्रसन्न होकर कहा - "तुम अहिंसा के स्वर्णिम पथ पर अग्रसर हो" । पाँचवे शिष्य ने उत्तर दिया- "मैं साइकिल चलाने के लिए साइकिल चलाता हूँ" । गुरु उठकर पाँचवे शिष्य के चरणों के पास बैठ गए और बोले "मैं आपका शिष्य हूँ"। 13 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम घोषणा तन्ज़ेन नामक ज़ेन गुरु ने अपने जीवन के अन्तिम दिन 60 पोस्ट कार्ड लिखे और अपने एक शिष्य को उन्हें डाक में डालने को कहा। इसके कुछ क्षणों के भीतर उन्होंने शरीर त्याग दिया। कार्ड में लिखा था : मैं इस संसार से विदा ले रहा हूँ। यह मेरी अन्तिम घोषणा है। तन्ज़ेन, 27, जुलाई 1892 14 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्ध-प्रतिमा को बंदी बनाना एक व्यापारी कपड़े के ५० थान लेकर दूसरे नगर में बेचने जा रहा था। मार्ग में एक स्थान पर वह सुस्ताने के लिए एक पेड़ के नीचे बैठ गया। वहीं पेड़ की छांव में भगवान बुद्ध की एक प्रतिमा भी लगी हुई थी। व्यापारी को बैठे-बैठे नींद लग गयी। कुछ समय बाद जागने पर उसने पाया कि उसके थान चोरी हो गए थे। उसने फ़ौरन पुलिस में जाकर रिपोर्ट लिखवाई। मामला ओ-ओका नामक न्यायाधीश की अदालत में गया। ओ-ओका ने निष्कर्ष निकाला - "पेड़ की छाँव में लगी बुद्ध की प्रतिमा ने ही चोरी की है। उसका कार्य वहाँ पर लोगों का ध्यान रखना है, लेकिन उसने अपने कर्तव्य-पालन में लापरवाही की है। प्रतिमा को बंदी बना लिया जाए।" पुलिस ने बुद्ध की प्रतिमा को बंदी बना लिया और उसे अदालत में ले आए। पीछे-पीछे उत्सुक लोगों की भीड़ भी अदालत में आ पंहुची। सभी जानना चाहते थे कि न्यायाधीश कैसा निर्णय सुनायेंगे। जब ओ-ओका अपनी कुर्सी पर आकर बैठे तब अदालत परिसर में कोलाहल हो रहा था। ओ-ओका नाराज़ हो गए और बोले - "इस प्रकार अदालत में हँसना और शोरगुल करना अदालत का अनादर है। सभी को इसके लिए दंड दिया जाएगा।" लोग माफी मांगने लगे। ओ-ओका ने कहा - "मैं आप सभी पर जुर्माना लगाता हूँ, लेकिन यह जुर्माना वापस कर दिया जाएगा यदि यहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति कल अपने घर से कपड़े का एक थान ले कर आए। जो व्यक्ति कपड़े का थान लेकर नहीं आएगा उसे जेल भेज दिया जाएगा।" अगले दिन सभी लोग कपड़े का एक-एक थान ले आए। उनमें से एक थान व्यापारी ने पहचान लिया और इस प्रकार चोर पकड़ा गया। लोगों को उनके थान लौटा दिए गए और बुद्ध की प्रतिमा को रिहा कर दिया गया। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नदी के पार एक दिन एक युवा बौद्ध सन्यासी लम्बी यात्रा की समाप्ति पर अपने घर वापस जा रहा था। मार्ग में उसे एक बहुत बड़ी नदी मिली। बहुत समय तक वह सोचता रहा कि नदी के पार कैसे जाए। थक-हार कर निराश होकर वह दूसरे रस्ते की खोज में वापस जाने के लिए मुड़ा ही था कि उसने नदी के दूसरे तट पर एक महात्मा को देखा। युवा सन्यासी ने उनसे चिल्लाकर पूछा - "हे महात्मा, मैं नदी के दूसरी ओर कैसे आऊँ?" महात्मा ने कुछ क्षणों के लिए नदी को गौर से देखा और चिल्ला कर कहा - "पुत्र, तुम नदी के दूसरी ओर ही हो।" 16 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाय के प्याले जापानी ज़ेन गुरु सुजुकी रोशी के एक शिष्य ने उनसे एक दिन पूछा - "जापानी लोग चाय के प्याले इतने पतले और कमज़ोर क्यों बनाते हैं कि वे आसानी से टूट जाते हैं?" सुजुकी रोशी ने उत्तर दिया - "चाय के प्याले कमज़ोर नहीं होते बल्कि तुम्हें उन्हें भली-भांति सहेजना नहीं आता। स्वयं को अपने परिवेश में ढालना सीखो, परिवेश को अपने लिए बदलने का प्रयास मत करो।" Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध पर नियंत्रण एक जेन शिष्य ने अपने गुरु से पूछा मैं मुझे इससे छुटकारा दिलाएं। " बहु - गुरु ने कहाकहा - "यह तो शिष्य बोला "अभी तो मैं यह नहीं कर सकता।" जल्दी क्रोधित हो जाता हूँ। कृपया "यह तो बहुत विचित्र बात है। मुझे क्रोधित होकर दिखाओ।" "क्यों?" - गुरु बोले । शिष्य ने उत्तर दिया "यह अचानक होता है।" "ऐसा है तो यह तुम्हारी प्रकृति नहीं है। यदि यह तुम्हारे स्वभाव का अंग होता तो तुम मुझे यह किसी भी समय दिखा सकते थे तुम किसी ऐसी चीज़ को स्वयं पर हावी क्यों होने देते हो जो तुम्हारी है ही नहीं ? " - गुरु ने कहा । इस वार्तालाप के बाद शिष्य को जब कभी क्रोध आने लगता तो वह गुरु के शब्द याद करता। इस प्रकार उसने शांत और संयमित व्यवहार को अपना लिया। 18 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलता घर बहुत समय पुरानी बात है। किसी नगर में एक बहुत धनी व्यक्ति रहता था। उसका घर बहुत बड़ा था लेकिन घर से बाहर निकलने का दरवाज़ा सिर्फ एक था। एक दिन घर के किसी कोने में आग लग गई और तेजी से घर को अपनी चपेट में लेने लगी। धनी के बहुत सारे बच्चे थे - शायद 10 से भी ज्यादा। वे सभी एक कमरे में खेल रहे थे। उन्हें पता नहीं था कि घर में आग लग चुकी थी। आदमी अपने बच्चों को बचने के लिए उस कमरे की तरफ़ भगा जहाँ बच्चे खेल रहे थे। उसने उन्हें आग लगने के बारे में बताया और जल्दी से घर से बहार निकलने को कहा। लेकिन बच्चे अपने खेल में इतने डूबे हुए थे कि उनहोंने उसकी बात नहीं सुनी। आदमी ने चिल्ला-चिल्ला कर कहा कि अगर वे घर से बाहर नहीं निकले तो आग की चपेट में आ जायेंगे! बच्चों ने यह सुना तो मगर वे स्तिथि की गंभीरता नहीं समझ सके और वैसे ही खेलते रहे। फ़िर उनके पिता ने उनसे कहा - "जल्दी बाहर जाकर देखो, मैं तुम सबके लिए गाड़ी भर के खिलोने लेकर आया हूँ! अगर तुम सब अभी बहार नहीं जाओगे तो दूसरे बच्चे तुम्हारे खिलौने चुरा लेंगे! इतना सुनते ही बच्चे सरपट भाग लिए और घर के बाहर आ गए। उन सबकी जान बच गई। इस कहानी में पिता बोधिप्राप्त गुरु है और बच्चे साधारण मानवमात्र। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता और पुत्र बहुत समय पहले एक नगर में एक बहुत धनी सेठ रहता था। उसके पास कई मकान और सैंकड़ों खेत थे। सेठ का इकलौता पुत्र किशोरावस्था में ही घर छोड़कर भाग गया और किसी दूसरे नगर में जाकर छोटा-मोटा काम करके जीवन गुजरने लगा। वह बेहद गरीब हो गया था। दूसरी ओर, उसका पिता उसको सब ओर ढूंढता रहा पर उसका कोई पता नहीं चल पाया। कई साल बीत गए और उसका पुत्र अपने पिता के बारे में भूल गया। एक नगर से दूसरे नगर मजदूरी करते और भटकते हुए एक दिन वह अनायास ही सेठ के घर आ गया और उसने उनसे कुछ काम माँगा। सेठ ने अपने पुत्र को देखते ही पहचान लिया पर वह यह जानता था कि सच्चाई बता देने पर उसका बेटा लज्जित हो जाएगा और शायद फ़िर से घर छोड़कर चला जाए। सेठ ने अपने नौकर से कहकर अपने पुत्र को शौचालय साफ करने के काम में लगा दिया। सेठ के लड़के ने शौचालय साफ करने का काम शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद सेठ ने भी मजदूर का वेश धरकर अपने पुत्र के साथ सफाई का काम शुरू कर दिया। लड़का सेठ को पहचान नहीं पाया और धीरे-धीरे उनमें मित्रता हो गई। वे लोग कई महीनों तक काम करते रहे और फ़िर एक दिन सेठ ने अपने पुत्र को सब कुछ बता दिया। वे दोनों रोते-रोते एक दूसरे के गले लग गए। अपने अतीत को भुलाकर वे सुखपूर्वक रहने लगे। पिता ने अपने पुत्र को अपनी जमीन-जायदाद का रख-रखाव और नौकरों की देखभाल करना सिखाया। कुछ समय बाद पिता की मृत्यु हो गई और पुत्र उसकी गद्दी पर बैठकर अपने पिता की भांति काम करने लगा। इस कहानी में पिता एक ज्ञानप्राप्त गुरु है, पुत्र उसका उत्तराधिकारी है, और नौकर वे आदमी और औरत हैं जिनका वे मार्गदर्शन करते हैं। 20 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मछली पकड़ने की कला लाओ-त्जु ने एक बार मछली पकड़ना सीखने का निश्चय किया। उसने मछली पकड़ने की एक छड़ी बनाई, उसमें डोरी और हुक लगाया। फ़िर वह उसमें चारा बांधकर नदी किनारे मछली पकड़ने के लिए बैठ गया। कुछ समय बाद एक बड़ी मछली हुक में फंस गई। लाओत्जु इतने उत्साह में था की उसने छड़ी को पूरी ताक़त लगाकर खींचा। मछली ने भी भागने के लिए पूरी ताक़त लगाई। फलतः छड़ी टूट गई और मछली भाग गई। लाओ-त्जु ने दूसरी छड़ी बनाई और दोबारा मछली पकड़ने के लिए नदी किनारे गया। कुछ समय बाद एक दूसरी बड़ी मछली हुक में फंस गई। लाओ-त्जु ने इस बार इतनी धीरेधीरे छड़ी खींची कि वह मछली लाओ-त्जु के हाथ से छड़ी छुड़ाकर भाग गई। लाओ-त्जु ने तीसरी बार छड़ी बनाई और नदी किनारे आ गया। तीसरी मछली ने चारे में मुंह मारा। इस बार लाओ-त्जु ने उतनी ही ताक़त से छड़ी को ऊपर खींचा जितनी ताक़त से मछली छड़ी को नीचे खींच रही थी। इस बार न छड़ी टूटी न मछली हाथ से गई। मछली जब छड़ी को खींचते-खींचते थक गई तब लाओ-त्जु ने आसानी से उसे पानी के बाहर खींच लिया। उस दिन शाम को लाओ-त्जु ने अपने शिष्यों से कहा - "आज मैंने संसार के साथ व्यवहार करने के सिद्धांत का पता लगा लिया है। यह समान बलप्रयोग करने का सिद्धांत है। जब यह संसार तुम्हें किसी ओर खींच रहा हो तब तुम समान बलप्रयोग करते हुए दूसरी ओर जाओ। यदि तुम प्रचंड बल का प्रयोग करोगे तो तुम नष्ट हो जाओगे, और यदि तुम क्षीण बल का प्रयोग करोगे तो यह संसार तुमको नष्ट कर देगा।" 21 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुपयोगी वृक्ष की कहानी एक दिन एक व्यक्ति ने च्यांग-त्जु से कहा "मेरे घर के आँगन में एक बहुत बड़ा वृक्ष है जो बिल्कुल ही बेकार है। इसका तना इतना कठोर और ऐंठा हुआ है कि कोई भी लकड़हारा या बढ़ई उसे काट नहीं सकता। उसकी शाखाएं इतनी मुडी हुई हैं कि उनसे औजारों के लिए हत्थे नहीं बनाये जा सकते। ऐसे वृक्ष के होने से क्या लाभ?" च्वांग-त्जु ने कहा क्या तुमने नदी में उछलने वाली मछलियाँ देखी हैं? वे बहुत छोटी और चंचल होती हैं। जल की सतह पर उड़ते कीडों और टिड्डों को देखते ही वे लपक कर उन्हें अपना शिकार बना लेती हैं। लेकिन ऐसी मछलियाँ ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहतीं। या तो वे जाल में फंस जाती हैं या दूसरी मछलियों द्वारा मारी जाती हैं। वहीं दूसरी और याक कितना बड़ा और बेढब जानवर है। वह न तो खेत में काम करता है न ही कोई और काम अच्छे से कर पता है। लेकिन याक बहुत लंबा जीते हैं। तुम्हारा वृक्ष इतना अनुपयोगी होने के कारण ही इतने लंबे समय से खड़ा है। उसकी शाखाओं के नीचे बैठकर उसका ध्यान करो। " - 22 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन में पत्थर फा-येन नामक चीनी जेन गुरु ने अपने दो शिष्यों को वस्तुनिष्ठता और विषयनिष्ठता पर तर्क-वितर्क करते सुना। वे इस विवाद में शामिल हो गए और उन्होंने शिष्यों से पूछा "यहाँ एक बड़ा सा पत्थर है। तुम लोगों के विचार से यह पत्थर तुम्हारे मन के बाहर है या भीतर है?" उनमें से एक शिष्य ने उत्तर दिया - बौद्ध दर्शन की दृष्टि से सभी वस्तुएं मानस का वस्तुनिष्ठीकरण हैं। अतएव मैं यह कहूँगा कि पत्थर मेरे मन के भीतर है।" "फ़िर तो तुम्हारा सर बहुत भारी होना चाहिए"फा येन ने उत्तर दिया। - 23 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लकड़ी का बक्सा एक किसान इतना बूढा हो चुका था कि उससे खेत में काम करते नहीं बनता था। हर दिन वह धीरे-धीरे चलकर खेत को जाता और एक पेड़ की छाँव में बैठा रहता। उसका बेटा खेत में काम करते समय अपने पिता को पेड़ के नीचे सुस्ताते हुए देखता था और सोचता था - "अब उनसे कुछ भी काम नहीं करते बनता। अब उनकी कोई ज़रूरत नहीं है।" एक दिन बेटा इस सबसे इतना खिन्न हो गया कि उसने लकड़ी का एक बड़ा ताबूत जैसा बक्सा बनाया। उसे खींचकर वह खेत के पास स्थित पेड़ तक ले कर गया। उसने अपने पिता से बक्से के भीतर बैठने को कहा। पिता चुपचाप भीतर बैठ गया। लड़का फ़िर बक्से को जैसे-तैसे खींचकर पास ही एक पहाड़ी की चोटी तक ले कर गया। वह बक्से को वहां से धकेलने वाला ही था कि पिता ने बक्से के भीतर से कुछ कहने के लिए ठकठकाया। लड़के ने बक्सा खोला। पिता भीतर शान्ति से बैठा हुआ था। पिता ने ऊपर देखकर बेटे से कहा - "मुझे मालूम है कि तुम मुझे यहाँ से नीचे फेंकने वाले हो। इससे पहले कि तुम यह करो, मैं तुम्हें एक बात कहना चाहता हूँ।" "क्या?" - लड़के ने पूछा। "मुझे तुम फेंक दो लेकिन इस बक्से को संभालकर रख लो। तुम्हारे बच्चों को आगे चलकर काम आएगा।" 24 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्वीले गुबरीले और हाथी एक दिन एक गुबरीले को गोबर का एक बड़ा सा ढेर मिला। उसने इसका मुआयना किया और अपने दोस्तों को इसके बारे में बताया। उन सभी ने जब यह ढेर देखा तो इसमें एक नगर बसाने का निश्चय किया। कई दिनों तक उस गोबर के ढेर में दिन-रात परिश्रम करने के बाद उनहोंने एक भव्य 'नगरी' बनाई। अपनी उपलब्धि से अभिभूत होकर उनहोंने गोबर के ढेर के खोजकर्ता गुबरीले को इस नगरी का प्रथम राजा बना दिया। अपने 'राजा' के सम्मान में उनहोंने एक शानदार परेड का आयोजन किया। उनकी परेड जब पूरी तरंग में चल रही थी तभी उस ढेर के पास से एक हाथी गुज़रा। उसने ढेर को देखते ही अपना पैर उठा दिया ताकि उसका पैर कहीं ढेर पर रखने से गन्दा न हो जाए। जब राजा गुबरीले ने यह देखा तो वह आपे से बाहर हो गया और चिल्लाते हुए हाथी से बोला - "अरे ओ, क्या तुममें राजसत्ता के प्रति कोई सम्मान नहीं है? क्या तुम नहीं जानते कि तुम्हारा इस प्रकार मुझपर पैर उठाना मेरी कितनी बड़ी अवमानना है? पैर नीचे रखकर फ़ौरन माफ़ी मांगो अन्यथा तुम्हें दण्डित किया जाएगा! हाथी ने नीचे देखा और कहा - "क्षमा करें महामहिम, मैं अपने अपराध के लिए दया की भीख मांगता हूँ"। इतना कहते हुए हाथी ने अपार आदर प्रदर्शित करते हुए गोबर के ढेर पर धीरे से अपना पैर रख दिया। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु से प्रेम जापानी ज़ेन गुरु सुजुकी रोशी की एक शिष्या ने एक दिन रोशी से एकांत में कहा कि उसके ह्रदय में रोशी के लिए अतीव प्रेम उमड़ रहा था और वह इससे भयभीत थी। "घबराओ नहीं" - रोशी ने कहा- "अपने "अपने गुरु के प्रति तुम किसी भी प्रकार कि भावना रखने के लिए स्वतन्त्र हो और जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मुझमें हम दोनों के लिए पर्याप्र संयम और अनुशासन है।" 26 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वार पर सत्य बुद्ध ने अपने शिष्यों को एक दिन यह कथा सुनाई: किसी नगर में एक व्यापारी अपने पाँच वर्षीय पुत्र के साथ अकेले रहता था। व्यापारी की पत्नी का देहांत हो चुका था। वह अपने पुत्र से अत्यन्त प्रेम करता था। एक बार जब वह व्यापार के काम से किसी दूसरे नगर को गया हुआ था तब उसके नगर पर डाकुओं ने धावा बोला। डाकुओं ने पूरे नगर में आग लगा दी और व्यापारी के बेटे को अपने साथ ले गए। व्यापारी ने लौटने पर पूरे नगर को नष्ट पाया। अपने पुत्र की खोज में वह पागल सा हो गया। एक बालक के जले हुए शव को अपना पुत्र समझ कर वह घोर विलाप कर रोता रहा। संयत होने पर उसने बालक का अन्तिम संस्कार किया और उसकी अस्थियों को एक छोटे से सुंदर डिब्बे में भरकर सदा के लिए अपने पास रख लिया। कुछ समय बाद व्यापारी का पुत्र डाकुओं के चंगुल से भाग निकला और उसने अपने घर का रास्ता ढूंढ लिया। अपने पिता के नए भवन में आधी रात को आकर उसने घर का द्वार खटखटाया। व्यापारी अभी भी शोक-संतप्त था। उसने पूछा - "कौन है?" पुत्र ने उत्तर दिया - "मैं वापस आ गया हूँ पिताजी, दरवाजा खोलिए!" अपनी विचित्र मनोदशा में तो व्यापारी अपने पुत्र को मृत मानकर उसका अन्तिम संस्कार कर चुका था। उसे लगा कि कोई दूसरा लड़का उसका मजाक उडाने और उसे परेशान करने के लिए आया है। वह चिल्लाया - "तुम मेरे पुत्र नहीं हो, वापस चले जाओ!" भीतर व्यापारी रो रहा था और बाहर उसका पुत्र रो रहा था। व्यापारी ने द्वार नहीं खोला और उसका पुत्र वहां से चला गया। पिता और पुत्र ने एक दूसरे को फ़िर कभी नहीं देखा। कथा सुनाने के बाद बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा - "कभी-कभी तुम असत्य को इस प्रकार सत्य मान बैठते हो कि जब कभी सत्य तुम्हारे सामने साक्षात् उपस्थित होकर तुम्हारा द्वार खटखटाता है तुम द्वार नहीं खोलते" 27 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घर और पहाड़ तई नामक एक व्यक्ति का घर एक बहुत बड़े पहाड़ के पास था। तई की उम्र लगभग ९० वर्ष हो चली थी। उसके घर आने वाले लोगों को पहाड़ के चारों ओर घूमकर बड़ी मुश्किल से आना पड़ता था। तई ने इस समस्या का हल निकलने का सोचा और अपने परिवार वालों से कहा - "हमें पहाड़ को थोड़ा सा काट देना चाहिए।" उसकी पत्नी को छोड़कर सभी घरवालों ने उसके इस सुझाव को मान लिया। उसकी पत्नी ने कहा - "तुम बहुत बूढे और कमजोर हो गए हो। इसके अलावा, पहाड़ को खोदने पर निकलनेवाली मिटटी और पत्थरों को कहाँ फेंकोगे?" तई बोला - "मैं कमज़ोर नहीं हूँ। मिटटी और पत्थरों को हम पहाड़ की ढलान से फेंक देंगे." । अगले दिन तई ने अपने बेटों और पोतों के साथ पहाड़ में खुदाई शुरू कर दी। गर्मियों के दिन थे और वे पसीने में भीगे हुए सुबह से शाम तक पहाड़ तोड़ते रहते। कुछ महीनों बाद कडाके की सर्दियाँ पड़ने लगीं। बर्फ जैसे ठंडे पत्थरों को उठा-उठा कर उनके हाथ जम गए। इतनी मेहनत करने के बाद भी वे पहाड़ का ज़रा सा हिस्सा ही तोड़ पाए थे। एक दिन लाओ-त्जु वहां से गुजरा और उसने उनसे पूछा की वे क्या कर रहे थे। तई ने कहा की वे पहाड़ को काट रहे हैं ताकि उनके घर आने वालों को पहाड़ का पूरा चक्कर न लगाना पड़े। लाओ-त्ज़ ने एक पल के लिए सोचा। फ़िर वह बोला - "मेरे विचार में पहाड़ को काटने के बजाय तुमको अपना घर ही बदल देना चाहिए। अगर तुम अपना घर पहाड़ के दूसरी ओर घाटी में बना लो तो पहाड़ के होने-न-होने का कोई मतलब नहीं होगा।" तई लाओ-त्जु के निष्कर्ष पर विस्मित हो गया और उसने लाओ-त्जु के सुझाव पर अमल करना शुरू कर दिया। बाद में लाओ-त्जु ने अपने शिष्यों से कहा -"जब भी तुम्हारे सामने कोई समस्या हो तो सबसे प्रत्यक्ष हल को ठकरा दो और सबसे सरल हल की खोज करो." 28 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगुणों में संतुलन एक दिन एक धनी व्यापारी ने लाओ-त्जु से पूछा - "आपका शिष्य येन कैसा व्यक्ति है?" लाओ-त्जु ने उत्तर दिया - "उदारता में वह मुझसे श्रेष्ठ है।" "आपका शिष्य कुंग कैसा व्यक्ति है?" - व्यापारी ने फ़िर पूछा। लाओ-त्जु ने कहा - "मेरी वाणी में उतना सौन्दर्य नहीं है जितना उसकी वाणी में है।" व्यापारी ने फ़िर पूछा - "आपका शिष्य चांग कैसा व्यक्ति है?" लाओ-त्जु ने उत्तर दिया - "मैं उसके समान साहसी नहीं हूँ।" व्यापारी चकित हो गया, फ़िर बोला - "यदि आपके शिष्य किन्हीं गुणों में आपसे श्रेष्ठ हैं तो वे आपके शिष्य क्यों हैं? ऐसे में तो उनको आपका गुरु होना चाहिए और आपको उनका शिष्य!" लाओ-त्जु ने मुस्कुराते हुए कहा - "वे सभी मेरे शिष्य इसलिए हैं क्योंकि उन्होंने मुझे गुरु के रूप में स्वीकार किया है। और उन्होंने ऐसा इसलिए किया है क्योंकि वे यह जानते हैं की किसी सद्गुण विशेष में श्रेष्ठ होना का अर्थ ज्ञानी होना नहीं है।" "तो फ़िर ज्ञानी कौन है?" - व्यापारी ने प्रश्न किया। लाओ-त्जु ने उत्तर दिया - "वह जिसने सभी सद्गुणों में पूर्ण संतुलन स्थापित कर लिया हो।" 29 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पत्थर अपनी जड़ों के पास मिटटी में आधे धंसे हुए पत्थर से फूल ने हिकारत से कहा - "तुम कितने कठोर हो। इतनी बारिश होने के बाद तो तुम गलकर महीन हो जाते और फ़िर तुममें भी बीज पनप सकते थे। लेकिन तुम ठहरे पत्थर के पत्थर! अपने इर्द-गिर्द और रेत ओढ़कर मोटे होते जा रहे हो। हमें पानी देनेवाली धारा का रास्ता भी रोके बैठे हो। आख़िर तुम्हारा यहाँ क्या काम है?" पत्थर ने कुछ नहीं कहा। ऊपर आसमान में बादलों की आवाजाही चलती रही। सूरज रोज़ धरती को नापता रहा और तांबई चंद्रमा अपने मुहांसों को कभी घटाता, कभी बढाता। पत्थर इनको देखता रहता था, उसे शायद ही कभी नींद आई हो। दूसरी ओर, फूल, अपनी पंखुड़ियों की चादर तानकर मस्त सो रहता... और ऐसे में पत्थर ने उसे जवाब दिया... ___ "मैं यहाँ इसलिए हूँ क्योंकि तुम्हारी जड़ों ने मुझे अपना बना लिया है। मैं यहाँ इसलिए नहीं हूँ कि मुझे कुछ चाहिए, बल्कि इसलिए हूँ क्योंकि मैं उस धरती का एक अंग हूँ जिसका काम तुम्हारे तने को हवा और बारिश से बचाना है। मेरे प्यारे फूल, कुछ भी चिरंतन नहीं है, मैं यहाँ इसलिए हूँ क्योंकि मेरी खुरदरी त्वचा और तुम्हारे पैरों में एक जुड़ाव है, प्रेम का बंधन है। तुम इसे तभी महसूस करोगे यदि नियति हम दोनों को कभी एक दूसरे से दूर कर दे।" तारे चंद्रमा का पीछा करते-करते आसमान के एक कोने में गिर गए। नई सुबह के नए सूरज ने क्षितिज के मुख पर गर्म चुम्बन देकर दुनिया को जगाया। फूल अपनी खूबसूरत पंखुड़ियों को खोलते हुए जाग उठा और पत्थर से बोला - "सुप्रभात! मैंने रात एक सपना देखा कि तुम मेरे लिए गीत गा रहे थे। मैं भी कैसा बेवकूफ हूँ, है न!?" पत्थर ने कुछ नहीं कहा। 30 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर की लहरें विशाल महासागर में एक लहर चढ़ती-उतराती बही जा रही थी। ताज़ा हवा की लहरों में अपने ही पानी की चंचलता में मग्न। तभी उसने एक लहर को किनारे पर टकरा कर मिटते देखा। "कितना दुखद है" - लहर ने सोचा - "यह मेरे साथ भी होगा!" तभी एक दूसरी लहर भी चली आई। पहली लहर को उदास देखकर उसने पूछा - "क्या बात है? इतनी उदास क्यों हो?" पहली लहर ने कहा - "तुम नहीं समझोगी। हम सभी नष्ट होने वाले हैं। वहां देखो, हमारा अंत निकट है।" दूसरी लहर ने कहा - "अरे नहीं, तुम कुछ नहीं जानती। तुम लहर नहीं हो, तुम सागर का ही अंग हो, तुम सागर हो।" (अमेरिकी लेखक Mitch Albom की कहानी) १ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेर और लोमड़ी एक शेर जंगल में शिकार पर निकला हुआ था। एक बदकिस्मत लोमडी अचानक उसके सामने आ गई। लोमडी को अपनी मौत बेहद करीब जान पड़ रही थी लेकिन उसे खतरा उठाते हुए अपनी जान बचाने की एक तरकीब सूझी। लोमडी ने शेर से रौब से कहा - "तुममें मुझे मारने की हिम्मत है!?" ऐसे शब्द सुनकर शेर अचंभित हो गया और उसने लोमडी से पूछा कि उसने ऐसा क्यों कहा। लोमडी ने अपनी आवाज़ और ऊंची कर ली और अकड़ते हुए बोली - "मैं तुम्हें सच बता देती हूँ, ईश्वर ने मुझे इस जंगल और इसमें रहने वाले सभी जानवरों का राजा बनाया है। यदि तुमने मुझे मारा तो यह ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध होगा और तुम भी मर जाओगे, समझे?" लोमडी ने देखा कि शेर को कुछ संदेह हो रहा था, वह फ़िर बोली - "चलो इस बात की परीक्षा ले लेते है। हम साथ-साथ जंगल से गुज़रते हैं। तुम मेरे पीछे-पीछे चलो और देखो कि जंगल के जानवर मुझसे कितना डरते हैं।" शेर इस बात के लिए तैयार हो गया। लोमडी शेर के आगे निर्भय होकर जंगल में चलने लगी। ज़ाहिर है, लोमडी के पीछे चलते शेर को देखकर जंगल के जानवर भयभीत होकर भाग गए। लोमडी ने गर्व से कहा - "अब तुम्हें मेरी बात पर यकीन आया?" शेर तो निरुत्तर था। उसने सर झुकाकर कहा - तुम ठीक कहती हो। तुम ही जंगल की राजा हो।" 32 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेगिस्तान में दो मित्र दो मित्र रेगिस्तान में यात्रा कर रहे थे। सफर में किसी मुकाम पर उनका किसी बात पर वाद-विवाद हो गया। बात इतनी बढ़ गई कि एक मित्र ने दूसरे मित्र को थप्पड़ मार दिया। थप्पड़ खाने वाले मित्र को इससे बहुत बुरा लगा लेकिन बिना कुछ कहे उसने रेत में लिखा - "आज मेरे सबसे अच्छे मित्र ने मुझे थप्पड़ मारा"। वे चलते रहे और एक नखलिस्तान में आ पहुंचे जहाँ उनहोंने नहाने का सोचा। जिस व्यक्ति ने थप्पड़ खाया था वह रेतीले दलदल में फंस गया और उसमें समाने लगा लेकिन उसके मित्र ने उसे बचा लिया। जब वह दलदल से सही-सलामत बाहर आ गया तब उसने एक पत्थर पर लिखा - "आज मेरे सबसे अच्छे मित्र ने मेरी जान बचाई"। उसे थप्पड़ मारने और बाद में बचाने वाले मित्र ने उससे पूछा - "जब मैंने तुम्हें मारा तब तुमने रेत पर लिखा और जब मैंने तुम्हें बचाया तब तुमने पत्थर पर लिखा, ऐसा क्यों?" उसके मित्र ने कहा - "जब हमें कोई दुःख दे तब हमें उसे रेत पर लिख देना चाहिए ताकि क्षमाभावना की हवाएं आकर उसे मिटा दें। लेकिन जब कोई हमारा कुछ भला करे तब हमें उसे पत्थर पर लिख देना चाहिए ताकि वह हमेशा के लिए लिखा रह जाए।" १ . Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग और नर्क नोबुगिशे नामक एक सैनिक ज़ेन गुरु हाकुइन के पास आया और उसने उनसे पूछा - "क्या स्वर्ग और नर्क वास्तव में होते हैं?" "तुम कौन हो? हाकुइन ने पूछा। - सैनिक ने उत्तर दिया "मैं समुराई हूँ" । - "तुम सैनिक हो?" हाकुइन ने आश्चर्य से कहा - "तुम्हारे जैसे व्यक्ति को कौन राजा अपना सैनिक बनाएगा? तुम भिखारी की तरह दिखते हो" । नोबुगिशे को यह सुनकर इतना क्रोध आया कि उसका हाथ अपनी तलवार की मूठ पर चला गया। हाकुइन ने यह देखकर कहा "अच्छा! तो तुम्हारे पास तलवार भी है। लेकिन इसमें इतनी धार नहीं कि यह मेरा सर कलम कर सके " । - अब नोबुगिशे ने तलवार झटके से म्यान से निकाल ली। हाकुइन ने कहा नर्क का द्वार खुल गया"। हाकुइन ने कहा कहा - "देखो, स्वर्ग का द्वार खुल गया" । यह सुनते ही समुराई को हाकुइन का मंतव्य समझ में आ गया। उसने तलवार नीचे रख दी और के समक्ष दंडवत हो गया। गुरु 34 - "देखो, Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मजाक कैसा? एक धनी व्यक्ति ने ज़ेन गुरु संगाई को कुछ लिख कर देने के लिए कहा जो उसके और उसके परिवार के लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी समृद्धिकारक हो। सेंगाई ने एक बड़े से कागज़ पर लिखा - "पिता मरता है, बेटा मरता है, पोता मरता यह देखकर धनी व्यक्ति बहुत क्रोधित हुआ। वह बोला - "मैंने आपसे परिवार की खुशहाली के लिए कुछ लिखने को कहा था। ऐसा गन्दा मजाक आप मेरे साथ कैसे कर सकते हैं?" "यह कोई मजाक नहीं है" - सेंगाई ने कहा - "अगर तुम्हारा बेटा तुम्हारे सामने मर जाए तो यह तुम्हें बहुत दुःख देगा। इसी प्रकार यदि तुम्हारा पोता तुम्हारे जीवित रहते मर जाए तो यह तुम्हें और तुम्हारे पुत्र दोनों को अपार दुःख देगा। जो कुछ मैंने लिखा है, यदि उस तरह से पीढ़ी-दर-पीढ़ी तुम्हारे परिवार में होता जाए तो तुम्हारे परिवार में वास्तविक समृद्धि कायम रहेगी। यही जीवन का प्राकृतिक नियम है।" 35 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनिक का निमंत्रण एक धनिक ने ज़ेन-गुरु इक्क्यु को भोजन पर आमंत्रित किया। इक्क्यु अपने भिक्षुक वस्त्रों में उसके घर गए पर धनिक उन्हें पहचान न सका और उसने उनको भगा दिया। इक्क्यु वापस अपने निवास पर आए और इस बार एक सुंदर, महंगा, अलंकृत चोगा पहन कर धनिक के घर गए। धनिक ने उनको बड़े आदरभाव से भीतर लिवाया और भोजन के लिए बैठने को कहा। इक्क्य ने भोजन करने के लिए बिछे आसन पर अपना चोगा उतार कर रख दिया और धनिक से बोले - "चूंकि आपने मेरे चोगे को खाने पर बुलाया है अतः इसे पहले भोजन कराइए।" Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखौटे मेरे चेहरे को देखकर धोखा मत खाना क्योंकि मैं हज़ार मुखौटे लगाता हूँ, जिनमें से एक भी मेरा नहीं है। इस सबसे भी ज़रा भी भ्रमित मत होना । मैं तुम्हें यह जतलाता हूँ कि मैं सुरक्षित हूँ, आत्मविश्वास मेरा दूसरा नाम सहजता मेरा स्वभाव है, और मुझे किसी की ज़रूरत नहीं है। लेकिन तुम मेरी बातों का यकीन म करना। मेरे भीतर गहरे अन्तस् में संदेह है, एकाकीपन है, भय है। इसीलिये मैं अपने ऊपर मुखौटे चढ़ा लेता हूँ, ताकि मैं स्वयं को भी पहचान न सकूँ। लेकिन कभी-कभी मैं अपने अन्दर झाँककर देखता हूँ। मेरा वह देखना ही मेरी मुक्ति है क्योंकि यदि उसमें स्वीकरण है तो उसमें प्रेम है। यह प्रेम ही मुझे मेरे द्वारा बनाये हुए कारागार से मुक्त कर सकता है। मुझे डर सा लगता है कि बहुत भीतर कहीं मैं कुछ भी नहीं हूँ, मेरा कुछ भी उपयोग नहीं है, और तुम मुझे ठुकरा दोगे । यही कारण है कि मैं मुखौटों की एक फेहरिस्त हूँ। मैं यूँ ही बडबडाता रहता हूँ। जब कहने को कुछ भी नहीं होता तब मैं तुमसे बातें करता रहता हूँ, और जब मेरे भीतर क्रंदन हो रहा होता है तब मैं चुप रहता हूँ। ध्यान से सुनने के कोशिश करो कि मैं तुमसे क्या छुपा रहा हूँ। मैं वाकई चाहता हूँ कि मैं खरा खरा, निष्कपट, और जैसा हूँ वैसा ही बनूँ । हर बार जब तुम प्यार और विनम्रता से पेश आते हो, मेरा हौसला बढ़ाते हो, मेरी परवाह करते हो, मुझे समझते हो, तब मेरा दिल खुशी से आहिस्ता-आहिस्ता मचलने लगता है। अपनी संवेदनशीलता और करुणा और मुझे जानने की ललक के कारण केवल तुम ही मुझे अनिश्चितता के भंवर से निकल सकते हो। यह तुम्हारे लिए आसान नहीं होगा। तुम मेरे करीब आना चाहोगे और मैं तुम्हें चोट पहुचाऊंगा। लेकिन मुझे पता है कि प्रेम कठोर से कठोर दीवारों को भी तोड़ देता है और यह बात मुझे आस बंधाती है। तुम सोच रहे होगे कि मैं कौन हूँ.... मैं हर वह आदमी हूँ जिससे तुम मिलते हो। मैं तुमसे मिलने वाली हर स्त्री हूँ। मैं हूँ 37 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाय का कप यह कहानी एक दंपत्ति के बारे में है जो अपनी शादी की पच्चीसवीं वर्षगाँठ मनाने के लिए इंग्लैंड गए और उनहोंने पुरानी वस्तुओं की दुकान याने एंटीक शॉप में खरीददारी की। उन दोनों को एंटीक चीजें खासतौर पर चीनी मिटटी के बर्तन, कप-प्लेट आदि बहुत अच्छे लगते थे। दूकान में उन्हें एक बेजोड़ कप दिखा और उनहोंने उसे दूकानदार से देखने के लिए माँगा। जब वे दोनों उस कप को अपने हाथों में लेकर देख रहे थे तभी वह कप उनसे कुछ कहने लगा - "आप जानते हैं, मैं हमेशा से ही चाय का यह कप नहीं था। एक समय था जब मैं भूरी मिटटी का एक छोटा सा लौंदा था। मुझे बनाने वाले ने मुझे अपने हाथों में लिया और मुझे खूब पीटा और पटका। मैं चिल्ला-चिल्ला कर यह कहता रहा की भगवान के लिए ऐसा मत करो | मुझे दर्द हो रहा है, मुझे छोड़ दो, लेकिन वह केवल मुस्कुराता रहा और बोला अभी नहीं और फ़िर धडाम से उसने मुझे चाक पर बिठा दिया और मुझे ज़ोर-ज़ोर से इतना घुमाया की मुझे चक्कर आ गए, मैं चीखता रहा रोको, रोको, मैं गिर जाऊँगा, मैं बेहोश हो जाऊँगा!" "लेकिन मेरे निर्माता ने केवल अपना सर हिलाकर धीरे से कहा - "अभी नहीं"। "उसने मुझे कई जगह पर नोचा, मोडा, तोडा। फ़िर अपने मनचाहे रूप में ढालकर उसने मुझे भट्टी में रख दिया। इतनी गर्मी मैंने कभी नहीं झेली थी। मैं रोता रहा और भट्टी की दीवारों से टकराता रहा। मैं चिल्लाता रहा, बचाओ, मुझे बाहर निकालो! और जब मुझे लगा की अब मैं एक मिनट और नहीं रह सकता तभी भट्टी का दरवाज़ा खुला। उसने मुझे सहेजकर निकला और टेबल पर रख दिया। मैं धीरे-धीरे ठंडा होने लगा"। "वह बेहद खुशनुमा अहसास था, मैंने सोचा। लेकिन मेरे ठंडा होने के बाद उसने मुझे उठाकर ब्रश से जोरों से झाडा। फ़िर उसने मुझे चारों तरफ़ से रंग लगाया। उन रंगों की महक बहुत बुरी थी। मैं फ़िर चिल्लाया, रोको, रोको, भगवन के लिए! लेकिन उसने फ़िर से सर हिलाकर कह दिया, अभी नहीं..." "फ़िर अचानक उसने मुझे फ़िर से उस भट्टी में रख दिया। इस बार वहां पहले जितनी गर्मी नहीं थी, बल्कि उससे भी दोगुनी गर्मी थी। मेरा दम घुटा जा रहा था। मैं चीखा-चिल्लाया, रोयागिडगिडाया, मुझे लगा की अब तो मैं नहीं बचूंगा! लेकिन तभी दरवाज़ा फ़िर से खुला और उसने मुझे पहले की तरह फ़िर से निकलकर टेबल पर रख दिया। मैं ठंडा होता रहा और सोचता रहा कि इसके बाद मेरे साथ क्या होगा"। 38 १० Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "एक घंटे बाद उसने मुझे आईने के सामने रख दिया और मुझसे बोला - "खुद को देखो"। "मैंने खुद को आईने में देखा... देखकर कहा - "यह मैं नहीं हूँ! मैं ये कैसे हो सकता हूँ! ये तो बहुत सुंदर है। मैं सुंदर हूँ!?" "उसने धीरे से कहा - "मैं चाहता हूँ कि तुम ये हमेशा याद रखो कि... मुझे पता है की तुम्हें तोड़ने-मोड़ने, काटने-जलने में तुम्हें दर्द होता है, लेकिन यदि मैंने तुम्हें अकेले छोड़ दिया होता तो तुम पड़े-पड़े सूख गए होते। तुम्हें मैंने चाक पर इतना घुमाया कि तुम बेसुध हो गए, लेकिन मैं यह नहीं करता तो तुम बिखर जाते!" "मुझे पता है कि तुम्हें भटटी के भीतर कैसा लगा होगा। लेकिन यदि मैंने तुम्हें वहां नहीं रखा होता तो तुम चटख जाते। तुम्हें मैंने पैनी सुई जैसे दातों वाले ब्रश से झाडा और तुमपर दम घोंटने वाले बदबूदार रंग लगाये, लेकिन यदि मैं ऐसा नहीं करता तो तुममें कठोरता नहीं आती, तुम्हारे जीवन में कोई भी रंग नहीं होता"। "और यदि मैंने तुम्हें दूसरी बार भट्टी में नही रखा होता तो तुम्हारी उम्र लम्बी नहीं होती। अब तुम पूरी तरह तैयार हो गए हो। तुम्हें बनाने से पहले मैंने तुम्हारी जो छवि मैंने अपने मन में देखी थी अब तुम वही बन गए हो"| 39 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घमंडी धनुर्धर धनुर्विद्या के कई मुकाबले जीतने के बाद एक युवा धनुर्धर को अपने कौशल पर घमंड हो गया और उसने एक ज़ेन-गुरु को मुकाबले के लिए चुनौती दी। ज़ेन-गुरु स्वयं बहुत प्रसिद्द धनुर्धर थे। युवक ने अपने कौशल का प्रदर्शन करने के लिए दूर एक निशाने पर अचूक तीर चलाया। उसके बाद उसने एक और तीर चलाकर निशाने पर लगे तीर को चीर दिया। फ़िर उसने अहंकारपूर्वक ज़ेन-गुरु से पूछा - "क्या आप ऐसा कर सकते हैं?" जेन-गुरु इससे विचलित नहीं हुए और उसने युवक को अपने पीछे-पीछे एक पहाड़ तक चलने के लिए कहा। यवक समझ नही पा रहा था कि जेन-गुरु के मन में क्या था इसति वह उनके साथ चल दिया। पहाड़ पर चढ़ने के बाद वे एक ऐसे स्थान पर आ पहंचे जहाँ दो पहाडों के बीच बहुत गहरी खाई पर एक कमज़ोर सा रस्सियों का पुल बना हुआ था। पहाड़ पर तेज़ हवाएं चल रहीं थीं और पुल बेहद खतरनाक तरीके से डोल रहा था। उस पुल के ठीक बीचोंबीच जाकर जेन-गुरु ने बहत दूर एक वृक्ष को निशाना लगाकर तीर छोड़ा जो बिल्कुल सटीक लगा। पुल से बाहर आकर ज़ेन-गुरु ने युवक से कहा - "अब तुम्हारी बारी है"। यह कहकर ज़ेन-गुरु एक ओर खड़े हो गए। भय से कांपते-कांपते युवक ने स्वयं को जैसे-तैसे उस पुल पर किसी तरह से जमाने का प्रयास किया पर वह इतना घबरा गया था कि पसीने से भीग चुकी उसकी हथेलियों से उसका धनुष फिसल कर खाई में समा गया। "इसमें कोई संदेह नही है की धनुर्विद्या में तुम बेमिसाल हो" - ज़ेन-गुरु ने उससे कहा - "लेकिन उस मन पर तुम्हारा कोई नियंत्रण नहीं जो किसी तीर को निशाने से भटकने नहीं देता"। 40 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाई की दुकान दुनिया भर की चीज़ों पर एक आदमी नाई की दूकान में बाल कटवाने और दाढ़ी बनवाने के लिए गया। जब नाई ने अपना काम शुरू किया तो वे दोनों आपस में बात करने लगे। बात करते-करते बात ईश्वर के विषय पर आ गयी। नाई ने कहा नहीं मानता" । "मैं ईश्वर के अस्तित्व को "क्यों?" ग्राहक ने पूछा। "इसमें अचम्भा कैसा?" - नाई ने कहा - "आप ही बताओ, अगर ईश्वर वाकई में होता तो दुनिया में इतना दुःख, इतनी बीमारी होती? क्या इतने सारे बच्चे सड़कों पर ठोकर खाते? ईश्वर होता तो दुनिया में किसी को भी कोई दुःख-दर्द नहीं होता। ईश्वर यदि वास्तव में होता तो दुनिया में यह सब क्यों होने देता?" ग्राहक ने कुछ पल के लिए सोचा लेकिन कुछ नहीं कहा क्योंकि वह किसी बहस में नहीं पड़ना चाहता था। नाई का काम खत्म हो जाने पर वह दूकान से चला गया दूकान से बाहर निकलते समय उसे सड़क पर एक व्यक्ति दिखा जिसके बाल बहुत लंबे और गंदे थे और दाढ़ी भी बहुत अस्तव्यस्त थी। ग्राहक वापस दूकान में गया और नाई से बोला - "तुम्हें पता है, नाइयों का अस्तित्व नहीं होता।" नाई ने आश्चर्य से कहा- "आप क्या कहना चाहते हैं? मैं यहाँ हूँ और अभी कुछ देर पहले ही मैंने आपके बाल बनाए हैं! " "नहीं!" - ग्राहक ने ज़ोर से कहा "यदि नाईयों का अस्तित्व होता तो सड़क पर उस जैसे गंदे बाल और दाढ़ी वाले आदमी भी नहीं होते!" नाई ने कहा "लेकिन नाई तो होते हैं। ऐसा तो तब होता है जब लोग उनके पास जाना बंद कर देते हैं! " - "मैं यही कहना चाहता था। ईश्वर भी है। चूँकि लोग उसके पास मदद के लिए नहीं जाते इसीलिए दुनिया में इतना दुःख है । " "बिल्कुल ठीक!" ग्राहक बोला 41 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महल या सराय? एक प्रसिद्द ज़ेन महात्मा किसी राजा के महल में दाखिल हुए। उनके व्यक्तित्व की गरिमा के कारण किसी भी द्वारपाल में उनको रोकने का साहस नहीं हुआ और वे सीधे उस स्थान तक पहुँच गए जहाँ राजा अपने सिंहासन पर बैठा हुआ था। राजा ने महात्मा को देखकर पूछा - "आप क्या चाहते हैं?" "मैं इस सराय में रात गुजारना चाहता हूँ" - महात्मा ने कहा। "लेकिन यह कोई सराय नहीं है, यह मेरा महल है" - राजा ने अचम्भे से कहा। महात्मा ने प्रश्न किया - "क्या आप मुझे बताएँगे कि आप से पहले इस महल का स्वामी कौन था?" राजा ने कहा - "मेरे पिता। उनका निधन हो चुका है।" "और उन से भी पहले?" - महात्मा ने पूछा। "मेरे दादा, वे भी बहुत पहले दिवंगत हो चुके हैं" - राजा बोला। महात्मा ने कहा - "तो फ़िर ऐसे स्थान को जहाँ लोग कुछ समय रहकर कहीं और चले जाते हैं आप सराय नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे?" 42 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यावहारिकता ज्ञान की खोज में तीन साधक हिमालय तक आ गए। उनहोंने मिलकर यह तय किया कि आध्यात्मिक धरातल पर उनहोंने जो कुछ भी सिखा है उसे वे अपने जीवन में उतारेंगे। अपने विचार-विमर्श में वे इतने लीन हो गए थे कि बहुत रात होने पर उन्हें यह याद आया कि उन तीनों के पास खाने के लिए केवल दो रोटियां ही बची थीं। उनहोंने एक दूसरे से कहा कि वे इसका निर्णय नहीं करेंगे कि रोटियां किसको खाने के लिए मिलें क्योंकि वे सभी पुण्यात्मा थे। उनहोंने इसका निर्णय ईश्वर पर छोड़ दिया। सोने से पहले उनहोंने प्रार्थना की कि ईश्वर उन्हें इस बात का कोई संकेत दे कि रोटियां किसको खाने के लिए मिलें। दूसरे दिन वे सभी एक साथ उठ गए। पहले साधक ने कहा - "मैंने यह सपना देखा कि मैं एक ऐसी जगह में हूँ जहाँ मैं पहले कभी नहीं गया था। वहां मैंने आलौकिक शान्ति का अनुभव किया। वहां मुझे एक संत मिले और उनहोंने मुझसे कहा - "मैंने तुम्हें चुना है क्योंकि तुमने अपने जीवन में सदैव त्याग ही किया। तुम्हारे गुणों को देखने के बाद मैंने यह निर्णय लिया है कि तुम्हें ही रोटियां मिलनी चाहिए।" "यह तो बड़ी अजीब बात है" - दूसरे साधक ने कहा - "मेरे सपने में मैंने यह देखा कि भूतकाल में तपस्या करने के कारण मैं महात्मा बन गया हूँ। और मुझे भी वहां एक संत मिले जो मुझसे बोले - "तुम्हें भोजन की सर्वाधिक आवश्यकता है, तुम्हारे मित्रों को नहीं, क्योंकि भविष्य में तुम्हें भटके हुओं को राह पर लाना है जिसके लिए तुम्हें शक्तिशाली और सामर्थ्यवान बनना होगा।" फ़िर तीसरे साधक के बोलने की बारी आई: "मेरे सपने में मैंने कुछ भी नहीं देखा, मैं कहीं नहीं गया और मुझे कोई संत नहीं मिला। लेकिन रात में किसी समय मैं अचानक उठा और मैंने रोटियां खा लीं।" । बाकी के दोनों साधक क्रोधित हो गए: "यह व्यक्तिगत निर्णय लेने से पहले तुमने हम दोनों को क्यों नहीं उठाया?" "मैं तुम दोनों को कैसे उठाता? तुम दोनों बहुत दूर कहीं दिव्यलोक में भ्रमण कर रहे थे! कल रात ही हमने आध्यात्मिक शिक्षा को जीवन में उतारने का प्रण लिया था। इसीलिए ईश्वर ने तत्परता से मुझे रात में उठाया और भूखे मरने से बचा लिया!" मोहम्मद ग्वाथ शतारी द्वारा लिखी गई कहानी 43 45 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक ग्लास दूध हॉवर्ड केली नामक एक गरीब लड़का घर-घर जाकर चीजें बेचा करता था ताकि वह अपने स्कूल की फीस जमा कर सके। एक दिन उसे बेहद भूख लगी लेकिन उसके पास सिर्फ पचास पैसे थे। उसने सोचा की किसी घर से कुछ खाने को मांग लेगा। जब एक सुंदर महिला ने घर का दरवाज़ा खोला तो वह घबरा गया और खाने की जगह उसने पीने के लिए पानी मांग लिया। महिला ने देखा कि बच्चा भूखा लग रहा था, इसलिए वह उसके लिए एक बड़े ग्लास में दूध लेकर आ गई। बालक ने धीरे-धीरे दूध पिया और फ़िर महिला से पूछा - "इसके लिए मैं आपको क्या दूँ?" "कुछ नहीं" - महिला ने कहा - "मेरी माँ ने मुझे सिखाया है कि किसी का भला करने के बदले में कुछ नहीं लेना चाहिए।" लड़के ने कहा - "अच्छा, तो फ़िर मैं आपको धन्यवाद ही दे सकता हूँ।" उस दिन उस घर से निकलते समय हॉवर्ड केली ने अपने को न सिर्फ शारीरिक तौर पर अधिक मजबूत पाया बल्कि ईश्वर और मानवता में उसकी आस्था और गहरी हो गई। कई सालों बाद वह महिला बहुत बीमार पड़ गई। स्थानीय डॉक्टरों ने जवाब दे दिया। तब उसे बड़े शहर भेजा गया जहाँ एक विशेषज्ञ को उस गंभीर रोग के उपचार के लिए कहा गया। डाक्टर हॉवर्ड केली को बताया गया की अमुक शहर से एक मरीज आई है। शहर का नाम सुनकर उनकी आंखों में अजीब सी चमक आ गई। वे फ़ौरन उठे और मरीज के कमरे में । उनहोंने उसे देखते ही पहचान लिया। मरीज के निरीक्षण के बाद वे अपने कमरे में गए। उनहोंने तय कर लिया था कि मरीज को कैसे भी बचाना है। इस मामले को उनहोंने बहुत लगन और कर्मठता से बहुत समय दिया। बहुत परिश्रम करने के उपरांत वे रोग से जीत गए। 45 - - Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाक्टर केली ने अस्पताल के प्रभारी से कहा कि मरीज का बिल उनके अनुमोदन के लिए भेज दिया जाए। उन्होंने बिल देखा और उसके किनारे पर कुछ लिखकर बिल मरीज के पास भिजवा दिया। महिला ने घबराते हुए लिफाफा खोला। उसे लग रहा था कि उसके जीवन भर की बचत उसकी बीमारी के इलाज में ख़त्म होनेवाली थी। बिल को देखने पर उसकी नज़र बिल के कोने पर लिखे कुछ शब्दों पर पड़ी। उसने पढ़ा.... "पूरा बिल एक ग्लास दूध से चुका दिया गया" (हस्ताक्षर) डाक्टर हॉवर्ड केली 46 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वर की खोज एक सन्यासी नदी के किनारे ध्यानमग्न था। एक युवक ने उससे कहा - "गुरुदेव, मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ"। सन्यासी ने पूछा - "क्यों?" युवक ने एक पल के लिए सोचा, फ़िर वह बोला - "क्योंकि मैं ईश्वर को पाना चाहता Theo सन्यासी ने उछलकर उसे गिरेबान से पकड़ लिया और उसका सर नदी में डुबो दिया। युवक स्वयं को बचाने के लिए छटपटाता रहा पर सन्यासी की पकड़ बहुत मज़बूत थी। कुछ देर उसका सर पानी में इबाये रखने के बाद सन्यासी ने उसे छोड़ दिया। युवक ने पानी से सर बाहर निकाल लिया। वह खांसते-खांसते किसी तरह अपनी साँस पर काबू पा सका। जब वह कुछ सामान्य हुआ तो सन्यासी ने उससे पूछा - "मुझे बताओ कि जब तुम्हारा सर पानी के भीतर था तब तुम्हें किस चीज़ की सबसे ज्यादा ज़रूरत महसूस हो रही थी?" युवक ने कहा - "हवा"| "अच्छा" - सन्यासी ने कहा - "अब तुम अपने घर जाओ और तभी वापस आना जब तुम्हें ईश्वर की भी उतनी ही ज़रूरत महसूस हो"। 47 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधी लड़की की कहानी एक लडकी जन्म से नेत्रहीन थी और इस कारण वह स्वयं से नफरत करती थी। वह किसी को भी पसंद नहीं करती थी, सिवाय एक लड़के के जो उसका दोस्त था। वह उससे बहुत प्यार करता था और उसकी हर तरह से देखभाल करता था। एक दिन लड़की ने लड़के से कहा - "यदि मैं कभी यह दुनिया देखने लायक हुई तो मैं तुमसे शादी कर लूंगी"। एक दिन किसी ने उस लड़की को अपने नेत्र दान कर दिए। जब लड़की की आंखों से पटियाँ उतारी गयीं तो वह सब कुछ देख सकती थी। उसने लड़के को भी देखा। लड़के ने उससे पूछा - "अब तुम सब कुछ देख सकती हो, क्या तुम मुझसे शादी करोगी?" लड़की को यह देखकर सदमा पहुँचा की लड़का अँधा था। लड़की को इस बात की उम्मीद नहीं थी। उसने सोचा कि उसे ज़िन्दगी भर एक अंधे लड़के के साथ रहना पड़ेगा, और उसने शादी करने से इंकार कर दिया। लड़का अपनी आँखों में आंसू लिए वहां से चला गया। कुछ दिन बाद उसने लड़की को एक पत्र लिखाः "मेरी प्यारी, अपनी आँखों को बहुत संभाल कर रखना, क्योंकि वे मेरी आँखें हैं"। 48 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस लाख डॉलर यह घटना अमेरिका की है। एक उत्साही पत्रकार वृद्धाश्रम में इस उम्मीद में गया की उसे वहां बूढे लोगों के रोचक संस्मरण छापने के लिए मिल जायेंगे। एक बहुत बूढे व्यक्ति से बात करते समय उसने पूछा - "दादाजी, अगर इस समय आपको यह पता चले कि आपका कोई दर का रिश्तेदार आपके लिए दस लाख डॉलर छोड़ गया है तो आपको कैसा लगेगा?" "बच्चे" - बूढे ने धीरे से कहा - "अब दस लाख मिलें या एक करोड़, मैं रहूँगा तो पिचानवे साल का ही न?" 49 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राह की बाधा बात बहुत पुरानी है, एक राजा ने मुख्य मार्ग पर बीचों-बीच एक बड़ा पत्थर रखवा दिया। वह एक पेड़ के पीछे छुपकर यह देखने लगा कि कोई उस पत्थर को हटाता है या नहीं। कई राजदरबारी और व्यापारी वहां से गुज़रे और उनमें से कई ने ऊंचे स्वर में राजा की इस बात के लिए निंदा की कि राज्य की सड़क व्यवस्था ठीक नहीं थी, लेकिन किसी ने भी उस पत्थर को स्वयं हटाने का कोई प्रयास नहीं किया। फ़िर वहां से एक किसान गुज़रा जिसकी पीठ पर अनाज का बोरा लदा हुआ था। पत्थर के पास पहुँचने पर उसने अपना बोझा एक ओर रख दिया और पत्थर को हटाने का प्रयास करने लगा। बहुत कठोर परिश्रम करने के बाद वह उसे हटाने में सफल हो गया। जब किसान ने अपना बोरा उठाया तो उसे उस जगह पर एक बटुआ रखा दिखा जहाँ पहले पत्थर रखा हुआ था। बटुए में सोने के सिक्के थे और राजा का लिखा हुआ एक पत्र था। पत्र में लिखा था कि सोने के सिक्के पत्थर हटानेवाले के लिए उपहारस्वरूप थे। उस किसान ने इससे वह सबक सीखा जो हममें से बहुत कम ही समझ पते हैं - "हमारे मार्ग में आनेवाली हर बाधा हमें उन्नति करने का अवसर प्रदान करती है"। 50 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपहार रिओकान नामक एक ज़ेन गुरु एक पहाड़ी के तल पर स्थित एक छोटी सी कुटिया में रहते थे। उनका जीवन अत्यन्त सादगीपूर्ण था। एक शाम एक चोर उनकी कुटिया में चोरी करने की मंशा से घुसा। रिओकान भी उसी समय वहां आ गए और उनहोंने चोर को पकड़ लिया। वे चोर से बो "तुम इतनी दूरी तय करके यहाँ आए हो। तुम्हें खाली हाथ नहीं जाना चाहिए... मैं तुम्हें अपने वख उपहार में देता हूँ।" चोर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। उसने वस्त्र उठाये और चुपके से चला गया। रियोकान कुटिया में नग्न बैठे आकाश में चाँद को देखते रहे। उनहोंने सोचा "बेचारा! काश मैं उसे यह सुंदर चाँद दे सकता।" - 51 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ घड़ा बहत पुरानी बात है। उत्तरी भारत में एक व्यापारी रहता था जिसकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी। पहाडी पर स्थित अपने घर से वह अकेला मैदान की और नीचे शहर में जाता था और चीज़ों की खरीद-फरोख्त करता था। एक दिन उसने मार्ग में मन-बहलाव के लिए किसी और जगह जाने का सोचा और वह एक पहाड़ पर वादियों और जंगलों का नज़ारा लेने चला गया। कड़ी दोपहरी में उसे नींद आने लगी और उसने सुस्ताने के लिए कोई जगह ढूंढनी चाही। उसे एक छोटी सी गुफा मिल गई और वह उसमें अंधेरे में भीतर जाकर सो गया। जागने पर उसने पाया कि उस गुफा में कुछ था... गुफा के भीतर उसे मिटटी का एक बड़ा घडा मिला। वहां कुछ और घडे भी रखे थे... कुल सात घडे। व्यापारी के मन में आश्चर्य भी था और भय भी। कहीं से कोई भी आवाज़ नहीं आ रही थी। डरते-डरते उसने एक घडे का ढक्कन खोला। घडे में सोने के सिक्के भरे हए थे। एक-एक करके उसने पाँच घडे खोलकर देखे। सभी में सोने के सिक्के थे। छटवें घडे में उसे एक पुराना कागज़ का टुकडा भी मिला। कागज़ पर लिखा था - "इन सिक्कों को ढूंढने वाले, सावधान हो जाओ! ये सभी घडे तुम्हारे हैं लेकिन इनपर एक शाप है। इनको ले जाने वाला उस शाप से कभी मुक्त नहीं हो पायेगा!" उत्सुकता में बड़ी शक्ति है, पर लालच उससे भी शक्तिवान है। इतना धन पाकर व्यापारी ने समय नहीं गंवाया और वह एक बैलगाडी का इंतजाम करके सभी घडों को अपने घर लेकर जाने लगा। घडों को उठाना बेहद मश्किल था। एक बार में वह दो घडे ही ले जा सकता था। रात के अंधेरे में उसने छः घडे अपने घर ले जाकर रख दिए। सातवाँ घडा ले जाने में उसे कोई ख़ास दिक्कत नहीं हुई क्योंकि इस बार बोझा कुछ कम था। फ़िर उसने सोचा कि सारे सिक्कों की गिनती कर ली जाए। एक-एक करके उसने छः घडो में मौजद सिक्कों कि गिनती कर ली। सातवें घडे को खोलने पर उसने पाया कि वह आधा ही भरा हुआ था। व्यापारी बहुत दुखी हो गया। शाप की बात कहने वाले कागज़ को वह बेकार समझकर फेंक चुका था और उसे वह बात अब याद भी नहीं थी। व्यापारी के मन में अब और अधिक लालच आ गया था। उसने सोचा कि कैसे भी करके सातवें घडे को पूरा भरना है। उसने और अधिक धन कमाने के लिए एडी-चोटी का ज़ोर लगा दिया। लेकिन सातवें घडे में जितना भी धन डालो, वह हमेशा आधा खाली रहता था। व्यापारी कुछ साल और जिया, लेकिन अपने धन का उसे कुछ भी आनंद नहीं मिला क्योंकि वह उसके लिए कभी भी पर्याप्त नहीं था। 52 Page #54 --------------------------------------------------------------------------  Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपयश बुद्ध ने अपने शिष्यों को एक दिन यह कथा सुनाई : श्रावस्ती में एक धनी स्त्री रहती थी जिसका नाम विदेहिका था। वह अपने शांत और सौम्य व्यवहार के कारण दूर-दूर तक प्रसिद्द थी। सब लोग कहते थे कि उसके समान मद् व्यवहार वाली दूसरी स्त्री श्रावस्ती में नहीं थी। वेदेहिका के घर में एक नौकर था जिसका नाम काली था। काली अपने काम और आचरण में बहुत कुशल और वफादार था। एक दिन काली ने सोचा - "सभी लोग कहते हैं कि मेरी मालकिन बहुत शांत स्वभाव वाली है और उसे क्रोध कभी नहीं आता, यह कैसे सम्भव है?! शायद मैं अपने काम में इतना अच्छा हूँ इसलिए वह मुझ पर कभी क्रोधित नहीं हुई। मुझे यह पता लगाना होगा कि वह क्रोधित हो सकती है या नहीं।" अगले दिन काली काम पर कुछ देरी से आया। विदेहिका ने जब उससे विलंब से आने के बारे में पूछा तो वह बोला - "कोई ख़ास बात नहीं।" विदेहिका ने कुछ कहा तो नहीं पर उसे काली का उत्तर अच्छा नहीं लगा। दूसरे दिन काली थोड़ा और देर से आया। विदेहिका ने फ़िर उससे देरी से आने का कारण पूछा। काली ने फ़िर से जवाब दिया - "कोई ख़ास बात नहीं।" यह सुनकर विदेहिका बहुत नाराज़ हो गई लेकिन वह चुप रही। तीसरे दिन काली और भी अधिक देरी से आया। विदेहिका के कारण पूछने पर उसने फ़िर से कहा - "कोई ख़ास बात नहीं।" इस बार विदेहिका ने अपना पारा खो दिया और काली पर चिल्लाने लगी। काली हंसने लगा तो विदेहिका ने दरवाजे के पास रखे डंडे से उसके सर पर प्रहार किया। काली के सर से खून बहने लगा और वह घर के बाहर भागा। घर के भीतर से विदेहिका के चिल्लाने की आवाज़ सुनकर बाहर भीड़ जमा हो गई थी। काली ने बाहर सब लोगों को बताया की विदेहिका ने उसे किस प्रकार डंडे से मारा। यह बात आग की तरह फैल गई और विदेहिका की ख्याति मिट्टी में मिल गई। यह कथा सुनाने के बाद बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा - "विदेहिका की भाँती तुम सब भी बहुत शांत, विनम्र, और भद्र व्यक्ति के रूप में जाने जाते हो। लेकिन यदि कोई तुम्हारी भी काली की भाँती परीक्षा ले तो तुम क्या करोगे? यदि लोग तुम्हें भोजन, वस्त्र और उपयोग की वस्तुएं न दें तो तुम उनके प्रति कैसा आचरण करोगे? क्या तुम उन परिस्थितियों में भी शांत और विनम्र रह पाओगे? हर परिस्थितियों में शांत, संयमी, और विनम्र रहना ही सत्य के मार्ग पर चलना है।" 54 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाज़ार में सुकरात सुकरात महान दार्शनिक तो थे ही, उनका जीवन संतों के जीवन की तरह परम सादगीपूर्ण था। उनके पास कोई संपत्ति नहीं थी, यहाँ तक कि वे पैरों में जूते भी नहीं पहनते थे। फ़िर भी वे रोज़ बाज़ार से गुज़रते समय दुकानों में रखी वस्तुएं देखा करते थे। उनके एक मित्र ने उनसे इसका कारण पूछा। सुकरात ने कहा - "मुझे यह देखना बहुत अच्छा लगता है कि दुनिया में कितनी सारी वस्तुएं हैं जिनके बिना मैं इतना खुश हूँ।" . .. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक टुकड़ा सत्य एक दिन शैतान और उसका एक मित्र साथ बैठकर बातचीत कर रहे थे। उनहोंने एक आदमी को सामने से आते हुए देखा। उस आदमी ने सड़क पर झुककर कुछ उठाकर अपने पास रख लिया। "उसने सड़क से क्या उठाया?" - शैतान के मित्र ने शैतान से पूछा । "एक टुकड़ा सत्य" - शैतान ने जवाब दिया। शैतान का मित्र चिंतित हो गया। सत्य का एक टुकड़ा तो उस आदमी की आत्मा को बचा लेगा! इसका अर्थ यह है की नर्क में एक आदमी कम हो जाएगा ! लेकिन शैतान चुपचाप बैठा सब कुछ देखता रहा। "तुम बिल्कुल परेशान नहीं लगते?" मित्र ने कहा गया है!" "न! इसमें चिंता की कोई बात नहीं है। " - शैतान बोला । मित्र ने पूछा करेगा!?" - "क्या तुम्हें पता है कि वह आदमी उस सत्य के टुकड़े का क्या "उसे सत्य का एक टुकड़ा मिल शैतान ने उत्तर दिया और इस प्रकार वह लोगों को पूर्ण सत्य से थोड़ा और दूर कर देगा।" पाओलो कोल्हो की कहानी - "हमेशा की तरह वह उससे एक नए धर्म की स्थापना करेगा 56 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्थना समुद्री यात्रा के दौरान एक बड़ी नाव दुर्घटनाग्रस्त हो गयी और केवल एकमात्र जीवित व्यक्ति एक निर्जन टापू के किनारे लग पाया। वह अपने जीवन की रक्षा के लिए ईश्वर की प्रार्थना करने लगा। कुछ समय बाद कुछ लोग एक नाव में आए और उन्होंने उस आदमी से चलने को कहा। "नहीं, धन्यवाद" - आदमी ने कहा - "मेरी रक्षा ईश्वर करेगा" । नाव में बैठे लोग उसको समझा नहीं पाए और वापस चले गए। टापू पर मौजूद आदमी और अधिक गहराई से ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। कुछ समय बाद एक और नाव आई नाव में आए लोगों ने फ़िर से उस आदमी को साथ चलने के लिए कहा। आदमी ने फ़िर से विनम्रतापूर्वक मना कर दिया "मैं ईश्वर की प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि वे आयें और मुझे बचाएं। " समय बीतता गया। धीरे-धीरे उस आदमी की श्रद्धा डगमगाने लगी। एक दिन वह मर गया। ऊपर पहुँचने पर उसे ईश्वर से बात करने का एक मौका मिला। उसने ईश्वर से पूछा : "आपने मुझे मरने क्यों दिया? आपने मेरी प्रार्थनाएं क्यों नहीं सुनी?" ईश्वर ने कहा - "अरे मूर्ख ! मैंने तुम्हें बचाने के लिए दो बार नावें भेजीं थीं!" 57 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेर और लोमड़ी एक घने जंगल में एक लोमड़ी रहती थी जिसके सामने के दोनों पैर शायद किसी फंदे से निकलने की कोशिश में टूट चुके थे। जंगल से लगे हुए गाँव में एक आदमी रहता था जो लोमड़ी को देखा करता था। आदमी को आश्चर्य होता था कि लोमड़ी किस तरह अपना खाना जुटाती थी। एक दिन आदमी ने छुपकर देखा कि एक शेर अपने शिकार को मुंह में दबाकर जा रहा था। उस शिकार में से अपना बेहतरीन हिस्सा लेने के बाद शेर ने बचा-खुचा लोमड़ी के हवाले कर दिया। दूसरे दिन भी परमेश्वर ने इसी तरह शेर के माध्यम से लोमड़ी के लिए आहार भेजा। आदमी ने यह देखकर सोचा - "यदि परमेश्वर इतने रहस्यपूर्ण तरीके से लोमड़ी का ध्यान रखता है तो क्यों न मैं भी अपना जीवन एक कोने में पड़े रहकर आराम से गुजार दूँ, परमेश्वर मेरे लिए भी रोज़ खाने-पीने की व्यवस्था कर देगा"। आदमी को अपने ख़याल पर पक्का यकीन था इसलिए उसने खाने की चाह में कई दिन गुजार दिए। कहीं से कुछ भी नहीं आया। आदमी का वज़न गिरता गया, वह कमज़ोर होता गया। वह कंकालमात्र रह गया। बेहोशी छाने से पहले उसने एक आवाज़ सुनी - "ऐ आदमी, तुने ग़लत राह चुनी है, सच्चाई को जान! तूने अपाहिज लोमड़ी के बजाय शेर के रास्ते पर चलना क्यों नहीं चुना!?" . . Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो फ़रिश्ते दो फ़रिश्ते दुनिया में घूम रहे थे और वे एक धनी परिवार के घर में रात गुजरने के लिए रुक गए। वह परिवार बहुत अशिष्ट था और उन्होंने फरिश्तों को मेहमानों के कमरे में ठहरने के लिए मना कर दिया। फरिश्तों को रुकने के लिए उन्होंने घर के बेसमेंट में बनी ठंडी - संकरी जगह दे दी। कठोर फर्श पर उनहोंने अपना बिस्तर लगाया। बड़े फ़रिश्ते ने दीवार में एक छेद देखा और उसे ठीक कर दिया। जब छोटे फ़रिश्ते ने बड़े फ़रिश्ते से इसका कारण पूछा तो बड़े फ़रिश्ते ने जवाब दिया "चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं जैसी वे दिखती हैं। - अगली रात वे दोनों एक बहुत गरीब घर में आराम करने के लिए रुके। घर के मालिक किसान और उसकी पत्नी ने उनका स्वागत किया। उनके पास जो कुछ रूखा सूखा था वह उन्होंने फरिश्तों के साथ बांटकर खाया और फ़िर उन्हें सोने के लिए अपना बिस्तर दे दिया। किसान और उसकी पत्नी नीचे फर्श पर सो गए। सवेरा होने पर फरिश्तों ने देखा कि किसान और उसकी पत्नी रो रहे थे क्योंकि उनकी आय का एकमात्र स्रोत उनकी पालतू गाय खेत में मरी पड़ी थी। यह देखकर छोटे फ़रिश्ते ने बड़े फ़रिश्ते से गुस्से से कहा "आपने यह क्यों होने दिया? पहले आदमी के पास सब कुछ था फ़िर भी आपने उसके घर की मरम्मत करके उसकी मदद की, जबकि दूसरे आदमी ने कुछ न होने के बाद भी हमें इतना सम्मान दिया फ़िर भी आपने उसकी गाय को मरने दिया!" - "चीज़ें हमेशा वैसी नहीं होतीं जैसी वे दिखती हैं" - दूसरे फ़रिश्ते ने जवाब दिया - "जब हम पहले मकान की बेसमेंट में ठहरे थे तब मैंने यह देखा कि दीवार के उस छेद के पीछे स्वर्ण का भंडार था। चूँकि उस घर का मालिक बहुत लालची और लोभी था इसलिए मैंने उस छेद को बंद कर दिया ताकि वह और अधिक धन-संपत्ति न पा सके। इस किसान के घर में हम उसके बिस्तर पर सोये थे। उस समय मृत्यु किसान की पत्नी को लेने के लिए आई थी। वह खाली हाथ नही जा सकती थी इसलिए मैंने उसे किसान की गाय ले जाने के लिए कहा। गौर से देखो तो चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं जैसी वे दिखती हैं। " 59 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपना एक पुरानी कहानी में एक औरत को हर रात यह सपना आता है कि एक बड़े भुतहे से मकान में एक दैत्य उसका पीछा कर रहा है। रात-दर-रात यही सपना उसे डराता रहता है। सपने में उसे लगता है कि दैत्य के नुकीले पंजे उसे अगले ही पल अपनी गिरफ्त में ले लेंगे और... यह सब उसे बहुत वास्तविक लगता है। और फ़िर एक रात वही सपना फ़िर से आता है। इस बार दैत्य बेचारी औरत को घेर लेता है। वह अब ऐसे कोने में फंस गई है कि वहां से बाहर बच निकलने का कोई रास्ता नहीं है। मौत सामने देखकर औरत दैत्य से पूछने का साहस कर बैठती है: "तुम कौन हो!? मेरा पीछा क्यों करते हो? क्या तुम मुझे मार डालोगे?" यह सुनकर दैत्य रुक गया। उसके भयानक चेहरे पर विस्मय के भाव उभर आए। अपनी कमर पर दोनों हाथ रखकर वह मासूमियत से बोला - "यह मैं कैसे बता सकता हूँ!? ये तो तुम्हारा सपना है!" 60 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्मचों की कहानी एक संतपुरुष और ईश्वर के मध्य एक दिन बातचीत हो रही थी। संत ने ईश्वर से पूछा - "भगवन, मैं जानना चाहता हूँ कि स्वर्ग और नर्क कैसे दीखते हैं।" ईश्वर संत को दो दरवाजों तक लेकर गए। उन्होंने संत को पहला दरवाज़ा खोलकर दिखाया। वहां एक बहुत बड़े कमरे के भीतर बीचोंबीच एक बड़ी टेबल रखी हुई थी। टेबल पर दुनिया के सर्वश्रेष्ठ पकवान रखे हुए थे जिन्हें देखकर संत का मन भी उन्हें चखने के लिए लालायित हो उठा। लेकिन संत ने यह देखा की वहां खाने के लिए बैठे लोग बहुत दुबले-पतले और बीमार लग रहे थे। ऐसा लग रहा था कि उन्होंने कई दिनों से अच्छे से खाना नहीं खाया था। उन सभी ने हाथों में बहुत बड़े-बड़े कांटे-चम्मच पकड़े हुए थे। उन काँटों-चम्मचों के हैंडल २-२ फीट लंबे थे। इतने लंबे चम्मचों से खाना खाना बहुत कठिन था। संत को उनके दुर्भाग्य पर तरस आया। ईश्वर ने संत से कहा - "आपने नर्क देख लिया।" फ़िर वे एक दूसरे कमरे में गए। यह कमरा भी पहलेवाले कमरे जैसा ही था। वैसी ही टेबल पर उसी तरह के पकवान रखे हए थे। वहां बैठे लोगों के हाथों में भी उतने ही बड़े कांटेचम्मच थे लेकिन वे सभी खुश लग रहे थे और हँसी-मजाक कर रहे थे। वे सभी बहुत स्वस्थ प्रतीत हो रहे थे। संत ने ईश्वर से कहा - "भगवन, मैं कुछ समझा नहीं।" ईश्वर ने कहा - "सीधी सी बात है, स्वर्ग में सभी लोग बड़े-बड़े चम्मचों से एक दूसरे को खाना खिला देते हैं। दूसरी ओर, नर्क में लालची और लोभी लोग हैं जो सिर्फ अपने बारे में ही सोचते हैं।" 61 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सड़क के पार तनजेन और एकीदो नामक दो ज़ेन साधक किसी दूर स्थान की यात्रा कर रहे थे। मार्ग कीचड से भरा हआ था। जोरों की बारिश भी हो रही थी। एक स्थान पर उन्होंने सड़क के किनारे एक बहुत सुंदर लडकी को देखा। लडकी कीचड भरे रस्ते पर सड़क के पार जाने की कोशिश कर रही थी पर उसके लिए यह बहुत कठिन था। आओ मैं तुम्हारी मदद कर देता हूँ।", तनज़ेन ने कहा और लडकी को अपनी बाँहों में उठाकर सड़क के दूसरी और पहुँचा दिया। दोनों साधक फ़िर अपनी यात्रा पर चल दिए। वे रात भर चलते रहे पर एकीदो ने तनज़ेन से कोई भी बात नहीं की। बहुत समय बीत जाने पर एकीदो ख़ुद को रोक नहीं पाया और तनज़ेन से बोला - "हम साधकों को महिलाओं के पास भी जाना तक मना है, बहुत सुंदर और कम उम्र लड़कियों को तो देखना भी पाप है। तुमने उस लड़की को अपनी बाँहों में उठाते समय कुछ भी नहीं सोचा क्या?" तनज़ेन ने कहा - "मैंने तो लडकी को उठाकर तभी सड़क के पार छोड़ दिया, तुम उसे अभी तक क्यों उठाये हुए हो?" 62 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हजयात्रा अब्द मुबारक हज करने के लिए मक्का की यात्रा पर था। मार्ग में एक स्थान पर वह थककर सो गया और उसने स्वप्न देखा कि वह स्वर्ग में था। उसने वहां दो फरिश्तों को बातचीत करते सुना पहले फ़रिश्ते ने दूसरे से पूछा - "इस साल कितने हजयात्री मक्का आ रहे हैं ? " "छः लाख" - दूसरे फ़रिश्ते ने जवाब दिया। "और इनमें से कितनों को हजयात्रा का पुण्य मिलेगा?" "किसी को भी नहीं, लेकिन बग़दाद में अली मुफीक़ नामक एक मोची है जो हज नहीं कर रहा है फ़िर भी उसे हज का पुण्य दिया जा रहा है और उसकी करुणा के कारण यात्रा करने वाले छः लाख लोग भी थोड़ा-बहुत पुण्य कमा लेंगे" । नींद खुलने पर अब्द मुबारक सपने के बारे में सोचकर अचंभित था। वह अली मुफी की दूकान पर गया और उसने उसे अपना स्वप्न कह सुनाया। "आपके स्वप्न के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता। मैंने तो बड़ी मुश्किल से हजयात्रा के लिए ३५० दीनार जमा किए थे। लेकिन जब मैं यात्रा के लिए निकल रहा था तभी मैंने देखा कि मेरे पड़ोसी दाने-दाने को तरस रहे थे इसलिए मैंने वह सारा धन उनमें बाँट दिया। अब मैं शायद कभी हज करने नहीं जा सकूँगा" अली मुफीक़ ने कहा । 63 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्थर की तीन मर्तियाँ एक बहुत बड़ा जादूगर अपनी तीन खूबसूरत बहनों के साथ दुनिया घूम रहा था। आस्ट्रेलिया में किसी प्रांत का एक प्रसिद्द योद्धा उसके पास आया और उससे बोला - "मैं तुम्हारी सुंदर बहनों में से किसी एक से विवाह करना चाहता हूँ"। जादूगर ने उससे कहा - "यदि मैं इनमें से एक का विवाह तुमसे कर दूंगा तो बाकी दोनों को लगेगा कि वे कुरूप हैं। मैं ऐसे कबीले की तलाश में हूँ जहाँ तीन वीर योद्धाओं से अपनी तीनों बहनों का एक साथ विवाह कर सकूँ"। इस तरह कई साल तक वे आस्ट्रेलिया में यहाँ से वहां घूमते रहे पर उन्हें ऐसा कोई कबीला नहीं मिला जहाँ एक जैसे तीन बहादुर योद्धाओं से उन बहनों का विवाह हो सकता। वे बहनें इतने साल गुज़र जाने और यात्रा की थकान के कारण बूढी हो गयीं। उन्होंने सोचा - "हममें से कोई एक तो विवाह करके सुख से रह सकती थी"। जादूगर भी यही सोचता था। वह बोला - "मैं ग़लत था... लेकिन अब बहुत देर हो गयी है"। जादूगर ने उन तीन बहनों को पत्थर का बना दिया। आज भी सिडनी के पास ब्लू माउन्टेन नेशनल पार्क जाने वाले पर्यटक पत्थर की उन तीन बहनों को देखकर यह सबक लेते हैं कि एक व्यक्ति की प्रसन्नता के कारण हमें दुखी नहीं होना चाहिए। 64 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताबत एक स्थान पर कई मुस्लिम धर्मगुरु एकत्र हुए और कई विषयों पर चर्चा करते-करते उनमें इस बात पर विवाद होने लगा कि शवयात्रा के दौरान ताबूत के दायीं ओर चलना चाहिए या बायीं ओर चलना चाहिए। इस बात पर समूह दो भागों में बाँट गया। आधे लोगों का कहना था की ताबूत के बायीं ओर चलना चाहिए जबकि बाकी लोग कह रहे थे कि बायीं ओर चलना चाहिए। उन्होंने मुल्ला नसीरुद्दीन को वहां आते देखा और उससे भी इस विषय पर अपनी राय देने के लिए कहा। मुल्ला ने उनकी बात को गौर से सुना और फ़िर हँसते हुए कहा - "ताबूत के दायीं ओर चलो या बायीं और चलो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सबसे ज़रूरी बात यह है कि ताबूत के भीतर मत रहो!" 65 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंजस का सोना एक कंजूस आदमी ने अपने बगीचे में एक पेड़ के नीचे अपना सारा सोना गाड़कर रखा हआ था। हर हफ्ते वह वहां जाता और सोने को खोदकर निहारता रहता था। एक दिन एक चोर सारा सोना चुराकर भाग गया। कंजूस आदमी वहां आया और उसने सोना गायब पाया। वहां सिर्फ एक गड्ढा ही रह गया था। कंजूस आदमी दहाडें मारकर रोने लगा। यह सुनकर उसके पड़ोसी भागे चले आए। जब उनको सारी बात का पता चला तो उनमें से एक ने कहा - "उस सोने का तुम क्या करते?" "कुछ नहीं" - कंजूस ने कहा - "मैं तो उसे सिर्फ हर हफ्ते देखने आता था।" पड़ोसी ने कहा - "ऐसा है तो तुम हर हफ्ते यह गड़ढा देख जाया करो!" 66 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागार्जुन और चोर महान बौद्ध संत नागार्जुन के पास संपत्ति के नाम पर केवल पहनने के वस्त्र थे। उनके प्रति अपार श्रद्धा प्रर्दशित करने के लिए एक राजा ने उनको सोने का एक भिक्षापात्र दे दिया। एक रात जब नागार्जुन एक मठ के खंडहरों में विश्राम करने के लिए लेटने लगे तब उन्होंने एक चोर को एक दीवार के पीछे से झांकते हुए देख लिया। उन्होंने चोर को वह भिक्षापात्र देते हुए कहा - "इसे रख लो। अब तुम मुझे आराम से सो लेने दोगे।" चोर ने उनके हाथ से भिक्षापात्र ले लिया और चलता बना। दूसरे दिन वह भिक्षापात्र वापस देने आया और नागार्जुन से बोला - "जब आपने रात को यह भिक्षापात्र मुझे यूँ ही दे दिया तब मुझे अपनी निर्धनता का बोध हुआ। कृपया मुझे ज्ञान की वह संपत्ति दें जिसके सामने ऐसी सभी वस्तुएं तुच्छ प्रतीत होती हैं।" . Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिणा के मोती उसने नदी के तट पर गुरुदेव ध्यानसाधना में लीन थे। उनका एक शिष्य उनके पास आया। गुरु के प्रति भक्ति और समर्पण की भावना के कारण दक्षिणा के रूप में गुरु के चरणों के पास दो बहुत बड़े-बड़े मोती रख दिए। गुरु ने अपने नेत्र खोले। उन्होंने एक मोती उठाया, लेकिन वह मोती उनके उनकी उँगलियों से छूटकर नदी में गिर गया। यह देखते ही शिष्य ने नदी में छलांग लगा दी। सुबह से शाम तक नदी में दसियों गोते लगा देने के बाद भी उसे वह मोती नहीं मिला। अंत में निराश होकर उसने गुरु को उनके ध्यान से जगाकर पूछा "आपने तो देखा था कि मोती कहाँ गिरा था ! आप मुझे वह जगह बता दें तो मैं उसे ढूंढकर वापस लाकर आपको दे दूँगा।" गुरु ने दूसरा मोती उठाया और उसे नदी में फेंकते हुए बोले "वहां।" - 889 68 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधी बालक एक १२-१३ साल के लड़के को बहुत क्रोध आता था। उसके पिता ने उसे ढेर सारी कीलें दी और कहा कि जब भी उसे क्रोध आए वो घर के सामने लगे पेड़ में वह कीलें ठोंक दे। पहले दिन लड़के ने पेड़ में ३० कीलें ठोंकी। अगले कुछ हफ्तों में उसे अपने क्रोध पर धीरे-धीरे नियंत्रण करना आ गया। अब वह पेड में प्रतिदिन इक्का-दक्का कीलें ही ठोंकता था। उसे यह समझ में आ गया था कि पेड़ में कीलें ठोंकने के बजाय क्रोध पर नियंत्रण करना आसान था। एक दिन ऐसा भी आया जब उसने पेड़ में एक भी कील नहीं ठोंकी। जब उसने अपने पिता को यह बताया तो पिता ने उससे कहा कि वह सारी कीलों को पेड़ से निकाल दे। लड़के ने बड़ी मेहनत करके जैसे-तैसे पेड़ से सारी कीलें खींचकर निकाल दीं। जब उसने अपने पिता को काम पूरा हो जाने के बारे में बताया तो पिता बेटे का हाथ थामकर उसे पेड़ के पास लेकर गया। पिता ने पेड़ को देखते हुए बेटे से कहा - "तुमने बहुत अच्छा काम किया, मेरे बेटे, लेकिन पेड़ के तने पर बने सैकडों कीलों के इन निशानों को देखो। अब यह पेड़ इतना खूबसूरत नहीं रहा। हर बार जब तुम क्रोध किया करते थे तब इसी तरह के निशान दूसरों के मन पर बन जाते थे। अगर तुम किसी के पेट में छुरा घोंपकर बाद में हजारों बार माफी मांग भी लो तब भी घाव का निशान वहां हमेशा बना रहेगा। अपने मन-वचन-कर्म से कभी भी ऐसा कृत्य न करो जिसके लिए तुम्हें सदैव पछताना पड़े।" . Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्थर, कंकड़, और रेत दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर ने क्लास में विद्यार्थियों के सामने टेबल पर कुछ वस्तुएं रखीं। विद्यार्थियों की ओर देखे बिना उसने कांच के बड़े से जार में दो इंच आकार के पत्थर भर दिए। फ़िर प्रोफेसर ने विद्यार्थियों से पूछा कि जार भर गया या नहीं। सभी विद्यार्थियों ने कहा कि जार पूरा भर गया। अब प्रोफेसर ने एक डब्बा उठाया जिसमें छोटे-छोटे कंकड़ भरे थे। उसने वे सारे कंकड़ जार में डाल दिए। जार को धीरे-धीरे हिलाया। सारे कंकड़ नीचे सरकते हुए पत्थरों के बीच की खाली जगह में समा गए। प्रोफेसर ने फ़िर से विद्यार्थियों से पूछा कि जार भर गया या नहीं। सभी एकमत थे की जार पूरा भर गया। इसके बाद प्रोफेसर ने जार में एक डब्बे से रेत उड़ेली। जार में बची-खुची जगह में रेत भर गयी। अब जार वास्तव में पूरा भर गया था। प्रोफेसर ने आखरी बार विद्यार्थियों से पूछा की जार भरा या नहीं। सब विद्यार्थियों ने एक बार और हामी भरी। प्रोफेसर ने विद्यार्थियों से कहा - "तुम सबका जीवन इस कांच के जार की तरह है। इस जार में पड़े पत्थर तुम्हारे जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं - तुम्हारा परिवार, तुम्हारा जीवनसाथी, बच्चे, स्वास्थ्य - ये सभी वे चीजें हैं जो यदि तुम्हारे पास हैं तो तुम्हें किसी और चीज़ के होने-न-होने की चिंता करने की ज़रूरत नहीं। ये सब तुम्हारे जीवन को पूर्ण बनाती __ छोटे-छोटे कंकड़ तुम्हारे जीवन की कुछ दूसरी ज़रूरी चीजें हैं - जैसे तुम्हारी नौकरी या काम-धंधा, घर, कार, आदि। और रेत बाकी सब कुछ है - बहुत मामूली चीजें। अगर तुम जार में सबसे पहले रेत भर दोगे तो उसमें कंकडों और पत्थरों के लिए जगह नहीं बचेगी। तुम्हारे पास केवल मामूली और गैरज़रूरी चीज़ों की भरमार होगी। 70 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर तुम अपना सारा समय और ऊर्जा छोटी-छोटी बातों में लगाओगे तो जीवन में जो कुछ भी महत्वपूर्ण है वह पीछे छूट जाएगा। उस बातों पर ध्यान दो जिनसे जीवन में सच्ची खुशी आती हो। अपने बच्चों के साथ खेलो। अपने माता-पिता के साथ समय बिताओ। मामूली बातों के लिए तुम्हारे पास हमेशा पर्याप्त समय रहेगा। इन बड़े-बड़े पत्थरों की परवाह करो ये सबसे ज़रूरी हैं। अपने जीवन में प्राथमिकतायें तय करो अपनी मुट्ठी में रेत मत भरो। " 71 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासना की उम्र एक दिन सम्राट अकबर ने दरबार में अपने मंत्रियों से पूछा कि मनुष्य में काम-वासना कब तक रहती है। कुछ ने कहा ३० वर्ष तक, कुछ ने कहा ६० वर्ष तक । बीरबल ने उत्तर दिया "मरते दम तक" । - अकबर को इस पर यकीन नहीं आया वह बीरबल से बोला मैं इसे नहीं मानता। तुम्हें यह सिद्ध करना होगा की इंसान में काम-वासना मरते दम तक रहती है" । बीरबल ने अकबर से कहा कि वे समय आने पर अपनी बात को सही साबित करके दिखा देंगे। एक दिन बीरबल सम्राट के पास भागे-भागे आए और कहा राजकुमारी को साथ लेकर मेरे साथ चलें " । अकबर जानते थे कि बीरबल की हर बात में कुछ प्रयोजन रहता था। वे उसी समय अपनी बेहद खूबसूरत युवा राजकुमारी को अपने साथ लेकर बीरबल के पीछे चल दिए । बीरबल ने सम्राट से कहा बीरबल उन दोनों को एक व्यक्ति के घर ले गया। वह व्यक्ति बहुत बीमार था और बिल्कुल मरने ही वाला था। को गौर से देखते रहें" । - - "आप इसी वक़्त "आप इस व्यक्ति के पास खड़े हो जायें और इसके चेहरे इसके बाद बीरबल ने राजकुमारी को कमरे में बुलाया। मरणासन्न व्यक्ति ने राजकुमारी को इस दृष्टि से देखा कि अकबर के समझ में सब कुछ आ गया। 122 बाद में अकबर ने बीरबल से कहा "तुम सही कहते थे मरते-मरते भी एक सुंदर जवान लडकी के चेहरे की एक झलक आदमी के भीतर हलचल मचा देती है" । 72 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो आलसी किसी समय एक राज्य में बहुत सारे आलसी लोग हो गए । उन्होंने सारा काम-धाम करना छोड़ दिया। वे अपने लिए खाना भी नहीं बनाते थे। एक दिन सभी आलसियों ने राजा से जाकर कहा कि राजा को आलसियों के लिए एक आश्रम बनवाना चाहिए और उनके खाने की व्यवस्था करनी चाहिए। राजा यह देखकर परेशान हो गया। कुछ सोचकर उसने अपने मंत्री को आलसियों के लिए एक बड़ा आश्रम बनाने का आदेश दिया। आश्रम के तैयार हो जाने पर सभी आलसी वहां जाकर सोने और खाने लगे। एक दिन राजा ने अपने मंत्री को आलसियों के आश्रम में आग लगाने को कहा। आश्रम को जलता देखकर सभी आलसी तुरत-फुरत वहां से बच निकलने के लिए भाग लिए । जलते हुए आश्रम के भीतर अभी भी दो आलसी सो रहे थे पहले आलसी को पीठ पर आग की गरमी लगने लगी। उसने अपने आलसी दोस्त को यह बताया। "दूसरी करवट पर लेट दूसरे आलसी ने पहले को सुझाव दिया। जाओ यह देखकर राजा ने अपने मंत्री से कहा हैं। इन्हें भरपूर सोने और खाने दिया जाए" । 133 73 "केवल यही दोनों व्यक्ति ही सच्चे आलसी Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बूढा और बेटा एक बहुत बड़े घर में ड्राइंग रूम में सोफा पर एक ८० वर्षीय वृद्ध अपने ४५ वर्षीय पुत्र के साथ बैठे हुए थे। पुत्र बहुत बड़ा विद्वान् था और अखबार पढने में व्यस्त था। तभी कमरे की खिड़की पर एक कौवा आकर बैठ गया। पिता ने पुत्र से पूछा - "ये क्या है?" पुत्र ने कहा - "कौवा है"। कुछ देर बाद पिता ने पुत्र से दूसरी बार पूछा - "ये क्या है?" पुत्र ने कहा - "अभी दो मिनट पहले तो मैंने बताया था कि ये कौवा है।" ज़रा देर बाद बूढे पिता ने पुत्र से फ़िर से पूछा - "ये खिड़की पर क्या बैठा है?" इस बार पुत्र के चेहरे पर खीझ के भाव आ गए और वह झल्ला कर बोला - "ये कौवा है, कौवा!" पिता ने कुछ देर बाद पुत्र से चौथी बार पूछा - "ये क्या है?" पुत्र पिता पर चिल्लाने लगा - "आप मुझसे बार-बार एक ही बात क्यों पूछ रहे हैं? चार बार मैंने आपको बताया कि ये कौवा है! आपको क्या इतना भी नहीं पता! देख नहीं रहे कि मैंअखबार पढ़ रहा हूँ!?" पिता उठकर धीरे-धीरे अपने कमरे में गया और अपने साथ एक बेहद फटी-पुरानी डायरी लेकर आया। उसमें से एक पन्ना खोलकर उसने पुत्र को पढने के लिए दिया। उस पन्ने पर लिखा हुआ था: "आज मेरा तीन साल का बेटा मेरी गोद में बैठा हुआ था तभी खिड़की पर एक कौवा आकर बैठ गया। उसे देखकर मेरे बेटे ने मुझसे २३ बार पूछा - पापा-पापा ये क्या है? - और मैंने २३ बार उसे बताया - बेटा, ये कौवा है। - हर बार वो मुझसे एक ही बात पूछता और हर बार मैं उसे प्यार से गले लगाकर उसे बताता - ऐसा मैंने २३ बार किया।" 74 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं ही क्यों? महान विम्बलडन विजेता आर्थर ऐश को १९८३ में ह्रदय की सर्जरी के दौरान गलती से ऐड्स विषाणु से संक्रमित खून चढ़ा दिया गया था। वे ऐड्स रोग की चपेट में आ गए और मृत्युशय्या पर थे। दुनिया भर से उनके चाहनेवाले उन्हें पत्र लिख रहे थे। उनमें से ज्यादातर लोग आर्थर ऐश से पूछ रहे थे :- "भगवान् ने आपको ही इतना भयानक रोग क्यों दे दिया?" इसके जवाब में आर्थर ऐश ने लिखा - "पूरी दुनिया में ५ करोड़ बच्चे टेनिस खेलते हैं, ५० लाख बच्चे टेनिस सीख जाते हैं, ५ लाख बच्चे प्रोफेशनल टेनिस खेल पाते हैं, उनमें से ५०००० टीम में जगह पाते हैं, ५०० ग्रैंड स्लैम में भाग लेते हैं, ५० विम्बलडन सेमीफाइनल खेलते है, २ को फाइनल खेलने का मौका मिलता है। जब मैंने विम्बलडन का पदक अपने हाथों में थामा तब मैंने भगवान् से यह नहीं पूछा - मैं ही क्यों?" हैं, ४ "और आज इस असह्य दर्द में भी मैं भगवान् से नहीं पूगा - मैं ही क्यों?" आर्थर ऐश जूनियर (१० जुलाई, १९४३ - ६ फरवरी, १९९३) अफ्रीकन-अमेरिकन टेनिस प्लेयर थे। उनहोंने तीन ग्रैंड स्लैम पदक जीते। उन्हें सामाजिक योगदान के लिए भी याद किया जाता है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुसा के पदचिन्हों पर रब्बाई ज़ूया जीवन के रहस्यों की खोज कर रहा था। उसने निश्चय किया कि वह पैगम्बर मूसा के पदचिन्हों पर चलेगा। कई सालों तक वह पैगम्बर की भांति वेश बनाये घूमता रहा और उन्हीं के जैसा व्यवहार करता रहा। लेकिन उसके भीतर कोई भी परिवर्तन नहीं आया था। उसे किसी भी सत्य के दर्शन नहीं हुए थे। एक रात बहुत देर तक धर्मग्रन्थ पढ़ते-पढ़ते उसकी नींद लग गयी। उसके सपने में ईश्वर आए "तुम इतने दुखी क्यों हो, मेरे पुत्र" - ईश्वर ने पूछा। "इस धरती पर मेरे कुछ ही दिन शेष रह गए हैं लेकिन मैं अभी तक मूसा की तरह नहीं बन पाया हूँ!" - ज़ूया ने जवाब दिया। ईश्वर ने कहा- "यदि मुझे दूसरे मूसा की ज़रूरत होती तो मैंने उसे जन्म दिया होता। जब तुम मेरे पास निर्णय के लिए आओगे तो मैं तुमसे यह नहीं पूछूंगा की तुम कितने अच्छे मूसा बने, बल्कि यह कि तुम कितने अच्छे मनुष्य बने मूसा बनना छोड़ो और अच्छे ज़्या बनने का प्रयास करो" । 76 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिराफ की सीख शायद ही किसी ने जिराफ के बच्चे को जन्म लेते देखा हो। अपनी माँ के गर्भ से वह १० फीट की ऊंचाई से पीठ के बल गिरता है। गिरते ही वह अपने पैरों को अपने पेट के नीचे सिकोड़कर गठरी बन जाता है। अपने पैरों पर खड़े होने की न तो उसकी इच्छा होती है न उसमें इतनी शक्ति होती है। माँ जिराफ उसकी आंखों और कानों को अपनी लम्बी जीभ से चाटकर साफ करती है। और ५ मिनट में सफाई हो जाने के बाद माँ निर्ममतापूर्वक अपने शावक को जीवन की कठोरता का पहला पाठ पढाती है। माँ जिराफ बच्चे के चारों तरफ़ घूमती है। फ़िर एकाएक वह ऐसी हरकत करती है जिसे देखना हैरत में डाल देता है। अचानक ही वह अपने नवजात शावक को इतनी जोर से अपनी शक्तिशाली लात मारती है कि उसका बच्चा जोरदार गुलाटियां खा जाता है। इसपर भी जब बच्चा नहीं खड़ा होता तब यह प्रक्रिया बार-बार दुहराई जाती है| लातें खा-खा र बेचारा नवजात अधमरा हो जाता है। फ़िर भी उसपर प्रहार होते रहते हैं। और एक पल में वह बच्चा अपनी डगमगाती हुई पतली टांगों पर खड़ा हो जाता है। माँ जिराफ तब एक और अजीब काम करती है। वह बच्चे का पैर चाटती है। वह उसे यह याद दिलाना चाहती है कि वह अपने पैरों पर किस तरह खड़ा हुआ है। जंगल में खतरे की आहट पाते ही बच्चे को अब एक झटके में उचककर भागते हुए सुरक्षित स्थान में पहुंचना होगा । जिराफ के जिन बच्चों को उनकी माँ का यह प्रसाद जन्म के बाद नहीं मिला होता उन्हें जंगल के शेर, चीते, भेडिये आसानी से अपना शिकार बना लेते हैं। चित्रकार माइकल एंजेलो, वेन गॉग, जीवन विज्ञानी चार्ल्स डार्विन और मनोविश्लेषक सिगमंड फ्रायड की जीवनियों के महान लेखक इरविंग स्टोन इस घटना का मर्म समझते थे। उनसे एक बार किसी ने पूछा कि इतने महान व् अद्भुत जीनियस लोगों के जीवन में उन्हें कौन सी समानता दिखती है। इरविंग स्टोन ने कहा "मैंने उन लोगों के बारे में लिखा है जो अपना कोई सपना पूरा करने की चाह दिल में लेकर अपने काम में लगे रहते हैं। वे हर जगह दुत्कारे जाते हैं, उनपर हर तरफ़ से प्रहार किए जाते हैं। लेकिन जितनी भी बार उन्हें राह से धकेला जाता है वे फ़िर से अपने पैरों पर मजबूती से खड़े हो जाते हैं। ऐसे लोगों को हराना और उनके हौसलों को परास्त करना असंभव है और फ़िर अपने जीवन के किसी न किसी मुकाम पर उन्हें वह सब मिल जाता है जिसके लिए वे ताउम्र चोट सहते रहे" । - 77 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसर कहते हैं कि सिकंदरिया की महान लाइब्रेरी में जब भीषण आग लग गयी तब केवल एक ही किताब आग से बच पाई। वह कोई महत्वपूर्ण या मूल्यवान किताब नहीं थी। मामूली पढ़ना जानने वाले एक गरीब आदमी ने वह किताब चंद पैसों में खरीद ली। किताब में कुछ खास रोचक नहीं था। लेकिन किताब के भीतर आदमी को एक पर्ची पर कुछ अजीब चीज़ लिखी मिली। उस पर्ची पर पारस पत्थर का रहस्य लिखा हुआ था। पर्ची पर लिखा था कि पारस पत्थर एक छोटा सा कंकड़ था जो साधारण धातुओं को सोने में बदल सकता था। पर्ची के अनुसार वह कंकड़ उस जैसे दिखनेवाले हजारों दूसरे कंकडों के साथ एक सागरतट पर पड़ा हुआ था। कंकड की पहचान यह थी कि दसरे कंकड तुलना में वह थोड़ा गरम प्रतीत होता जबकि साधारण कंकड़ ठंडे प्रतीत होते। उस आदमी ने अपनी सारी वस्तुएं बेच दी और पारस पत्थर ढूँढने के लिए ज़रूरी सामान लेकर समुद्र की ओर चल पड़ा। वह जानता था कि यदि वह साधारण कंकडों को उठा-उठा कर देखता रहा तो वह एक ही कंकड़ को शायद कई बार उठा लेगा। इसमें तो बहुत सारा समय भी नष्ट हो जाता। इसीलिए वह कंकड़ को उठाकर उसकी ठंडक या गर्माहट देखकर उसे समुद्र में फेंक देता था। __ दिन हफ्तों में बदले और हफ्ते महीनों में। वह कंकड़ उठा-उठा कर उन्हें समुद्र में फेंकता गया। एक दिन दोपहर में उसने एक कंकड़ उठाया - वह गरम था। लेकिन इससे पहले कि आदमी कुछ सोचता, आदत से मजबूर होकर उसने उसे समुद्र में फेंक दिया। समुद्र में उसे फेंकते ही उसे यह भान हुआ कि उसने कितनी बड़ी गलती कर दी है। इतने लंबे समय तक प्रतिदिन हजारों कंकडों को उठाकर समुद्र में फेंकते रहने की मजबूत आदत होने के कारण उसने उस कंकड़ को भी समुद्र में फेंक दिया जिसकी तलाश में उसने अपना सब कुछ छोड़ दिया था। ऐसा ही कुछ हम लोग अपने सामने मौजूद अवसरों के साथ करते हैं। सामने खड़े अवसर को पहचानने में एक पल की चूक ही उसे हमसे बहुत दूर कर देती है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनोखी दवा पिछली शताब्दी के आरंभिक वर्षों में चिकित्सा सुविधाएँ अच्छी दशा में नहीं थीं। बहुत बड़ी संख्या में साल भर से छोटे बच्चे अस्पतालों में दाखिल किए जाते थे लेकिन बेहतर निदान और उपचार के अभाव में काल-कवलित हो जाते थे। हालात इतने बुरे थे कि किसी-किसी अस्पताल में तो गंभीर दशा में भर्ती रखे गए बच्चे के भर्ती कार्ड पर Hopeless लिख दिया जाता था। बहु जर्मनी के डसेलडोरफ शहर में डॉ फ्रिट्ज़ टालबोट का बच्चों का अस्पताल था । Hopeless बच्चों का बेहतरीन इलाज करके उनकी जान बचा लेने के लिए डॉ टालबोट की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। हर दिन वह सुबह अस्पताल के सारे वार्डो में राउंड लगाकर बच्चों की हालत का मुआयना करते थे और जूनियर डाक्टरों को उपचार के निर्देश देते थे। ऐसे ही एक जूनियर डाक्टर जोसेफ ब्रेनरमान ने डॉ टालबोट के बारे में यह बात बताई "कई बार हमारे सामने ऐसा बच्चा लाया जाता था जिसपर हर तरह का उपचार निष्फल साबित हो चुका था। डॉ टालबोट जब ऐसे बच्चे का चार्ट देखते थे तब उसके एक कोने पर कुछ अस्पष्ट सा लिखकर नर्स को दे देते थे। नर्स बच्चे को लेकर चली जाती थी। ज्यादातर मामलों में वह बच्चा बच जाता था और पूर्णतः स्वस्थ हो जाता था। मैं हमेशा यह जानना चाहता था कि डॉ टालबोट चार्ट पर क्या लिखते थे। क्या उनके पास कोई चमत्कारी दवाई थी? एक दिन राउंड लेने के बाद मैं वार्ड में गया और एक Hopeless बच्चे के चार्ट पर डॉ टालबोट की लिखी दवा का नाम पढने की कोशिश करने लगा। जब मुझे कुछ भी समझ नहीं आया तो मैंने प्रधान नर्स से पूछा कि उस दवा का नाम क्या है। "दादी माँ" नर्स बोली फिर वह मुझे अस्पताल के एक अज्ञात कमरे में मुझे ले गयी जहाँ एक बहुत बूढी औरत एक बच्चे को गोद में लिए बैठी थी। - नर्स ने मुझे बताया "जब हमारे यहाँ ऐसा बच्चा लाया जाता है जिसकी हम कोई मदद नहीं कर सकते तब हम उसे यहाँ लाकर दादी माँ की गोद में रख देते हैं। इस अस्पताल के सभी डाक्टर और नर्सों मिलकर भी उतने बच्चे नहीं बचा पाते जिनको दादी माँ का अनुपम स्नेह दूसरा जीवन दे देता है"। - 79 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग्यशाली बच्चा दूसरी कक्षा में पढने वाला एक बच्चा स्कूल बस से उतरते समय गिर गया और उसका घुटना छिल गया। दोपहर में खाने की छुट्टी के दौरान वह झूले से गिरकर अपना दांत तुड़ा बैठा। घर वापस लौटते समय वह भागते समय फिसलकर गिर गया और उसकी कलाई टूट गयी। अस्पताल में उसके हाथ का मुआयना करते समय डाक्टर ने देखा कि वह अपने टूटे हाथ की हथेली में कोई चीज़ मजबूती से पकड़े हुए हैं। डाक्टर के पूछने पर बच्चे ने हथेली खोलकर एक रुपये का सिक्का डाक्टर को दिखाया और बोला: "देखिये जिस जगह मैं गिरा वहां यह सिक्का मुझे पड़ा मिला ! पहली बार मुझे जमीन पे पैसे पड़े मिले। मेरे लिए आज का दिन कितना लकी है ना?" 80 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिसर्च : बहुत साल पहले विश्वप्रसिद्ध जॉन्स होपकिंस यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों ने वरिष्ठ विद्यार्थियों को यह प्रोजेक्ट वर्क दिया झुग्गी बस्तियों में जाओ १२ से १६ साल की उम्र के २०० लड़कों को चुनो, उनके परिवेश और पारिवारिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करो। इस बात का अनुमान लगाओ कि उन लड़कों का भविष्य कैसा होगा। सभी विद्यार्थी अच्छी तैयारी से असाइंमेंट करने के लिए गए। उन्होंने लड़कों से मिलकर उनके बारे में जानकारियां जुटाई। सारे आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद विद्यार्थी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि लगभग ९०% लड़के भविष्य में कभी-न-कभी जेल ज़रूर जायेंगे। इस प्रोजेक्ट के २५ साल बाद वैसे ही स्नातक विद्यार्थियों को उसी बस्ती में भेजा गया ताकि बरसों पहले की गयी भविष्यवाणी की जांच की जा सके। कुछेक को छोड़कर सारे लड़के उन्हें उसी बस्ती में मिल गए। वे सभी अब प्रौढ़ युवक बन गए थे। २०० लड़कों में से १८० लड़के यहाँ-वहां मिल गए। विद्यार्थियों को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि १८० में से केवल ४ लड़के ही किसी-न-किसी मामले में कभी जेल गए। रिसर्च करने वाले भी यह जानकर सोच में पड़ गए। अपराध की पाठशालाओं के रूप में कुख्यात ऐसी गन्दी बस्तियों में से एक में उन्हें ऐसे नतीजे मिलने की उम्मीद नहीं थी । ऐसा कैसे हुआ? सभी को एक ही जवाब मिलता था "एक बहुत भली शिक्षिका थी जो हमें पढ़ाया करती थी....... और जानकारी जुटाने पर यह पता चला कि ८०% मामलों में एक ही महिला का जिक्र होता था। किसी को भी अब यह पता नहीं था कि वो कौन थी, कहाँ रहती थी। बड़ी मशक्कत के बाद आख़िर उसका पता चल ही गया। वह बहुत बूढी हो चुकी थी और एक वृद्धाश्रम में रह रही थी। उससे पूछा गया कि उसने इतने सारे लड़कों पर इतना व्यापक प्रभाव कैसे डाला। क्या कारण था कि वे लड़के २५ साल बीत जाने पर भी उसे याद रख सके। "नहीं... मैं भला कैसे किसी को इतना प्रभावित कर सकती थी..." - फ़िर कुछ देर अतीत के गलियारों से अपनी स्मृतियों को टटोलने के बाद उसने कहा "मैं उन लड़कों से बहुत प्रेम करती थी..." 81 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सलाह महान उपन्यासकार सिंक्लेयर लुईस को किसी कॉलेज में लेखक बनने की इच्छा रखने वाले विद्यार्थियों को लंबा लैक्चर देना था। लुईस ने लैक्चर का प्रारम्भ एक प्रश्न से किया: "आप सभी में से कितने लोग लेखक बनना चाहते हैं?" सभी लोगों ने अपने हाथ ऊपर कर दिए। "ऐसा है तो" लुईस ने कहा " आपको मेरी सलाह यह है कि आप इसी समय घर जायें और लिखना शुरू कर दें"। इसी के साथ ही वह वहां से चले गए। 83 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिम्मेदारी ज़ेन गुरु रयोकान को उसकी बहन ने कोई ज़रूरी बात करने के लिए अपने घर आने का निमंत्रण दिया। वहां पहुंचने पर रयोकान की बहन ने उससे कहा - "अपने भांजे को कुछ समझाओ। वह कोई काम नहीं करता। अपने पिता के धन को वह मौज-मस्ती में उड़ा देगा। केवल आप ही उसे राह पर ला सकते हो।" रयोकान अपने भांजे से मिले। वह भी अपने मामा से मिलकर बहुत प्रसन्न था। रयोकान के ज़ेन मार्ग अपनाने से पहले दोनों ने बहुत समय साथ में गुज़ारा था। भांजा यह समझ गया था कि रयोकान उसके पास क्यों आए थे। उसे यह आशंका थी कि रयोकान उसकी आदतों के कारण उसे अच्छी डांट पिलायेंगे। लेकिन रयोकान ने उसे कुछ भी न कहा। अगली सुबह जब उनके वापस जाने का समय हो गया तब वे अपने भांजे से बोले - "क्या तुम मेरी जूतियों के बंद बाँधने में मेरी मदद करोगे? मुझसे अब झुका नहीं जाता और मेरे हाथ भी कांपने लगे हैं।" भांजे ने बहुत खुशी-खुशी रयोकान की जूतियों के बंद बाँध दिए। "शुक्रिया" - रयोकान ने कहा - "दिन-प्रतिदिन आदमी बूढा और कमज़ोर होता जाता है। तुम्हें याद है मैं कभी कितना बलशाली और कठोर हुआ करता था?" "हाँ" - भांजे ने कुछ सोचते हुए कहा - "अब आप बहुत बदल गए हैं।" भांजे के भीतर कुछ जाग रहा था। उसे अनायास यह लगने लगा कि उसके रिश्तेदार, उसकी माँ, और उसके सभी शुभचिंतक लोग अब बुजुर्ग हो गए थे। उन सभी ने उसकी बहुत देखभाल की थी और अब उनकी देखभाल करने की जिम्मेदारी उसकी थी। उस दिन से उसने सारी बुरी आदतें छोड़ दी और सबके साथ-साथ अपने भले के लिए काम करने लगा। 84 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मछली की टोकरी बहुत समय पहले भारत में गृहस्थ लोगों का यह धर्म था कि वे सदैव दूसरों की आवश्यकताओं का ध्यान रखें। इसलिए भोजन के समय गृहस्थ घर का मुखिया पुरूष बाहर जाकर देखता कि कहीं कोई व्यक्ति भूखा तो नहीं है। एक बार एक गृहस्थ को घर के बाहर एक मछुआरा खड़ा दिखा। उसने मछुआरे से पूछा "भाई क्या तुम भोजन करोगे?" - मछुआरे के 'हाँ' कहने पर गृहस्थ उसे घर के भीतर ले गया लेकिन उसने मछुआरे से कहा कि वह अपनी मछली की टोकरी घर के आँगन में ही रख दे क्योंकि उससे बहुत गंध आ रही थी। मछुआरे ने ऐसा ही किया । गृहस्थ ने मछुआरे से रात को वहीं विश्राम करने के लिए कहा। मछुआरा साथ के एक कमरे में सो गया। देर रात को जब गृहस्थ लघुशंका करने के लिए उठा तब उसने देखा कि मछुआरा बेचैनी में करवटें बदल रहा था। गृहस्थ ने मछुआरे से पूछा - "क्या तुम्हें नींद नहीं आ रही? कोई समस्या है क्या?" मछुआरे ने कहा "मैं हमेशा अपनी मछली की टोकरी के पास ही सोता हूँ। जब तक मुझे मछलियों की गंध न आए तब तक मुझे नींद नहीं आती।" गृहस्थ ने कहा "ऐसा है तो तुम अपनी टोकरी उठा कर ले आओ और सो जाओ" । मछुआरा अपनी टोकरी उठा लाया और फ़िर गहरी नींद सो गया । - 85 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन संत एक दिन एक औरत अपने घर के बाहर आई और उसने तीन संतों को अपने घर के सामने देखा। वह उन्हें जानती नहीं थी। औरत ने कहा - "कृपया भीतर आइये और भोजन करिए।" संत बोले - "क्या तुम्हारे पति घर पर हैं?" औरत ने कहा - "नहीं, वे अभी बाहर गए हैं।" संत बोले - "हम तभी भीतर आयेंगे जब वह घर पर हों।" । शाम को उस औरत का पति घर आया और औरत ने उसे यह सब बताया। औरत के पति ने कहा - "जाओ और उनसे कहो कि मैं घर आ गया है और उनको आदर सहित बुलाओ।" औरत बाहर गई और उनको भीतर आने के लिए कहा। संत बोले - "हम सब किसी भी घर में एक साथ नहीं जाते।" "पर क्यों?" - औरत ने पूछा। उनमें से एक संत ने कहा - "मेरा नाम धन है" - फ़िर दूसरे संतों की ओर इशारा कर के कहा - "इन दोनों के नाम सफलता और प्रेम हैं। हममें से कोई एक ही भीतर आ सकता है। आप घर के अन्य सदस्यों से मिलकर तय कर लें कि भीतर किसे निमंत्रित करना है।" औरत ने भीतर जाकर अपने पति को यह सब बताया। उसका पति बहुत प्रसन्न हो गया और बोला - "यदि ऐसा है तो हमें धन को आमंत्रित करना चाहिए। हमारा घर खुशियों से भर जाएगा।" लेकिन उसकी पत्नी ने कहा - "मुझे लगता है कि हमें सफलता को आमंत्रित करना चाहिए।" उनकी बेटी दूसरे कमरे से यह सब सुन रही थी। वह उनके पास आई और बोली - "मुझे लगता है कि हमें प्रेम को आमंत्रित करना चाहिए। प्रेम से बढ़कर कुछ भी नहीं हैं।" 86 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "तुम ठीक कहती हो, हमें प्रेम को ही बुलाना चाहिए" - उसके माता-पिता ने कहा। घर के बाहर गई और उसने संतों से पूछा - "आप में से जिनका नाम प्रेम है वे कृपया घर में प्रवेश कर भोजन ग्रहण करें।" प्रेम घर की ओर बढ़ चले। बाकी के दो संत भी उनके पीछे चलने लगे। औरत ने आश्चर्य से उन दोनों से पूछा - "मैंने तो सिर्फ प्रेम को आमंत्रित किया था। आप लोग भीतर क्यों जा रहे हैं?" उनमें से एक ने कहा - "यदि आपने धन और सफलता में से किसी एक को आमंत्रित किया होता तो केवल वही भीतर जाता। आपने प्रेम को आमंत्रित किया है। प्रेम कभी अकेला नहीं जाता। प्रेम जहाँ-जहाँ जाता है, धन और सफलता उसके पीछे जाते हैं।" 87 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत का पत्थर एक बूढा किसान अपने खेत में सालों तक हल चलाता रहा। उसके खेत के बीचोंबीच एक बड़ा पत्थर जमीन में फंसा हुआ था। उस पत्थर से टकराकर किसान के कई हल टूट चुके थे। सभी लोगों ने किसान से कहा कि पत्थर की और ध्यान ही मत दो, अपना काम करते रहो। एक दिन किसान का सबसे अच्छा हल पत्थर से टकराकर टूट गया। इतने सालों में उस पत्थर के कारण हो चुके नुकसान के बारे में सोचकर किसान ने अब मन में उस पत्थर को हटाने की ठान ली। किसान ने लोहे का एक सब्बल पत्थर के नीचे अटका कर जब उसे हिलाया तो उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि पत्थर तो सिर्फ ८-९ इंच ही जमीन में धंसा हुआ था और उसे थोड़े से परिश्रम से खेत में लुढकाकर किनारे लगाया जा सकता था। उस पत्थर को लुढकाकर किनारे लगाते समय किसान को वे क्षण याद आ गए जब उस पत्थर से टकराकर उसके कितने ही सारे हल टूट गए और कितनी ही बार खुद किसान को चोटें आईं। वह हमेशा यह सोचता रहा कि उसने वह पत्थर बहत पहले ही क्यों नहीं हटा दिया। 88 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानक की रोटियां गुरु नानक बहुत लम्बी यात्रायें किया करते थे। एक दिन यात्रा के दौरान वे एक गरीब दलित बढ़ई लालो के घर में विश्राम के लिए रुके। उन्हें लालो का व्यवहार पसंद आया और वे दो हफ्तों के लिए उसके घर में ठहर गए। यह देखकर गाँव के लोग कानाफूसी करने लगे - "नानक ऊंची जाति के हैं, उन्हें नीची जाति के व्यक्ति के साथ नहीं रहना चाहिए। यह उचित नहीं है।" एक दिन उस गाँव के एक धनी जमींदार मलिक ने बड़े भोज का आयोजन किया और उसमें सभी जातियों के लोगों को खाने पर बुलाया। गुरु नानक का एक ब्राह्मण मित्र उनके पास आया और उन्हें भोज के बारे में बताया। उसने नानक से भोज में चलने का आग्रह किया। लेकिन नानक जातिव्यवस्था में विश्वास नहीं करते थे इसलिए उन्होंने भोज में जाने को मना कर दिया। उनकी दृष्टि में सभी मानव समान थे। वे बोले - "मैं तो किसी भी जाति में नहीं आता. मझे क्यों आमंत्रित किया गया है?" ब्राह्मण ने कहा - "ओह, अब मैं समझा कि लोग आपको अधर्मी क्यों कहते हैं। लेकिन यदि आप भोज में नहीं जायेंगे तो मलिक ज़मींदार को अच्छा नहीं लगेगा।" - यह कहकर वह चला गया। नानक भोज में नहीं गए। बाद में मलिक ने उनसे मिलने पर पूछा - "आपने मेरे भोज के निमंत्रण को किसलिए ठकरा दिया?" नानक बोले - "मुझे स्वादिष्ट भोजन की कोई लालसा नहीं है, यदि तुम्हारे भोज में मेरे न आने के कारण तुम्हें दुःख पहुँचा है तो मैं तुम्हारे घर में भोजन करूंगा"। लेकिन मलिक फ़िर भी खुश न हुआ। उसने नानक की जातिव्यवस्था न मानने और दलित लालो के घर में रुकने की निंदा की। नानक शांत खड़े यह सुन रहे थे। उनहोंने मलिक से कहा - "अपने भोज में यदि कुछ बच गया हो तो ले आओ, मैं उसे खाने के लिए तैयार हूँ।" नानक ने लालो से भी कहा कि वह अपने घर से कुछ खाने के लिए ले आए। नानक ने मलिक और लालो के द्वारा लगाई गयी थाली से एक-एक रोटी उठा ली। उन्होंने लालो की रोटी को अपनी मुट्ठी में भींचकर दबाया। उनकी मुट्ठी से दूध की धार बह निकली। 89 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ़िर नानक ने मलिक की रोटी को मुठ्ठी में दबाया। ज़मीन पर खून की बूंदें बिखर गयीं। 90 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिलेरी का संकल्प सर एडमंड हिलेरी माउन्ट एवरेस्ट की चोटी पर कदम रखने वाले पहले पर्वतारोही थे। २९ मई, १९५३ को इसकी २९,००० फीट ऊंची चोटी पर उन्होंने विजय पाई। इस सफलता के लिए उन्हें 'सर' की उपाधि से विभूषित किया गया। लेकिन बहुत कम ही लोग यह बात जानते हैं कि इस सफलता के पहले हिलेरी को बुरी तरह से असफलता का सामना करना पड़ा था। इस सफलता से एक वर्ष पहले वे अपने पहले प्रयास में असफल हो चुके थे इंग्लैंड के पर्वतारोहियों के क्लब ने उन्हें अपने मेंबरों को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया। हिलेरी जब मंच पर चढ़े तब सैंकड़ों लोगों की तालियों से हाल गूंज उठा। वहां मौजूद लोग हिलेरी की असफलता को भी सम्मानजनक मानकर उनका अभिवादन कर रहे थे। लेकिन हिलेरी जानते थे कि वे उस विराट पर्वत से हारे हुए थे। वे माइक पर नहीं गए और मंच के एक कोने पर लगी माउन्ट एवरेस्ट की तस्वीर के सामने जाकर खड़े हो गए। उनहोंने दो पल उस तस्वीर को गौर से देखा । फ़िर उसकी और अपनी बंधी हुई मुट्ठी तानकर ये ऊंचे स्वर में बोले "माउन्ट एवरेस्ट, तुमने मुझे एक बार हरा दिया पर अगली बार नहीं हरा पाओगे क्योंकि तुम तो उतना ऊंचा उठ चुके हो जितना तुम्हें उठना था लेकिन मेरा ऊंचा उठना अभी बाकी है"। - 91 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघर्ष एक आदमी को तितली का एक कोया (कोकून) पड़ा मिला। उसने उसे संभालकर रख दिया। एक दिन उसमें एक छोटा सा छेद हुआ। आदमी बहुत देर तक बैठकर कोये से तितली के बाहर निकलने का इंतजार करता रहा। कोये के भीतर नन्ही तितली ने जीतोड़ कोशिश कर ली पर उससे बाहर निकलते नहीं बन रहा था। ऐसा लग रहा था कि तितली का कोये से निकलना सम्भव नहीं है। उस आदमी ने सोचा कि तितली की मदद की जाए। उसने एक चिमटी उठाई और तितली के निकलने के छेद को थोड़ा सा बड़ा कर दिया। तितली उसमें से आराम से निकल गयी। लेकिन वह बेहद कमज़ोर लग रही थी और उसके पंख भी नहीं खुल रहे थे। आदमी बैठा-बैठा तितली के पंख खोलकर फडफडाने का इंतजार करता रहा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तितली कभी नहीं उड़ पाई। वह हमेशा रेंगकर घिसटती रही और एक दिन एक छिपकली ने उसे खा लिया। उस आदमी ने अपनी दयालुता और जल्दबाजी के चक्कर में इस बात को भुला दिया कि उस कोये से बाहर आने की प्रक्रिया में ही उस तितली के तंतु जैसे पंखों में पोषक द्रव्यों का संचार होता। यह प्रकृति की ही व्यवस्था थी कि तितली अथक प्रयास करने के बाद ही कोये से पुष्ट होकर बाहर निकलती। और इस प्रकार कोये से बाहर निकलते ही वह पंख फडफडाकर उड़ जाती। इसी तरह हमें भी अपने जीवन में संघर्ष करने की ज़रूरत होती है। यदि प्रकृति और जीवन हमारी राह में किसी तरह की बाधाएं न आने दें तो हम सामर्थ्यवान कभी न बन सकेंगे। जीवन में यदि शक्तिशाली और सहनशील बनना हो तो कष्ट तो उठाने ही पड़ेंगे। 92 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगंतुक पिछली शताब्दी में अमेरिका का एक पर्यटक पोलेंड में महान यहूदी गुरु रब्बी हफेज़ हयीम के घर उनसे मिलने गया। उसे यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि रब्बी के घर में केवल किताबें ही थीं। फर्निचर के नाम पर उनके पास केवल एक टेबल और एक कुर्सी थी। पर्यटक ने पूछा - "रब्बी, आपका फर्निचर कहाँ है?" - "आपका फर्निचर कहाँ है" रब्बी ने उससे पूछा । "मेरा"? मैं तो यहाँ बस एक आगंतुक हूँ!" "और मैं भी" - रब्बी ने जवाब दिया। - 93 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जॉर्ज कार्लिन का संदेश हमारे समय का विरोधाभास यह है कि हमने बिल्डिंगें तो बहुत ऊंची-ऊंची बना ली हैं पर हमारी मानसिकता क्षुद्र हो गयी है। लंबे-चौडे राजमार्गों ने शहरों को जोड़ दिया है पर दृष्टिकोण छोटा हो गया है। हम खर्च अधिक करते हैं पर हमारे पास होता कम है। हम खरीदते ज्यादा हैं पर उससे संतुष्टि कम पाते हैं। हमारे घर बड़े हैं पर परिवार छोटे हो गए हैं। हमने बहुत सुविधाएँ जुटा ली हैं पर समय कम पड़ने लगा है। हमारे विश्वविद्यालय ढेरों विषयों की डिग्रियां बांटते हैं पर समझ कोई स्कूल नहीं सिखाता। तर्क-वितर्क ज्यादा होने लगा है पर निर्णय कम सुनाई देते हैं। आसपास विशेषज्ञों की भरमार है पर समस्याएं अपार हैं। दवाईयों से शेल्फ भरा हुआ है पर तंदरुस्ती की डिबिया खाली है। हम पीते बहुत हैं, धुंआ उड़ाते रहते हैं, पैसा पानी में बहाते हैं, हंसने में शर्माते हैं, गाडी तेज़ चलाते हैं, जल्दी नाराज़ हो जाते हैं, देर तक जागते हैं, थके-मांदे उठते हैं, पढ़ते कम हैं, टी वी ज्यादा देखते हैं, प्रार्थना तो न के बराबर करते हैं। हमने संपत्ति को कई गुना बढ़ा लिया पर अपनी कीमत घटा दी। हम हमेशा बोलते रहे, प्यार करना भूलते गए, नफरत की जुबाँ सीख ली। हमने जीवन-यापन करना सीखा, जिंदगी जीना नहीं। अपने जीवन में हम साल जोड़ते गए पर उन सालों में जिंदगी कहीं खो गयी। हम चाँद पर टहलकदमी करके वापस आ गए लेकिन सामनेवाले घर में आए नए पड़ोसी से मिलने की फुर्सत हमें नहीं मिली। हम सौरमंडल के पार जाने का सोच रहे हैं पर आत्ममंडल का हमें कुछ पता ही नहीं। हम बड़ी बात करते हैं, बेहतर बात नहीं। हम वायु को स्वच्छ करना चाहते हैं पर आत्मा को मलिन कर रहे हैं। हमने परमाणु को जीत लिया, पूर्वग्रह से हार बैठे। हमने लिखा बहुत, सीखा कम। योजनाएं बनाई बड़ी-बड़ी, काम कुछ किया नहीं। आपाधापी में लगे रहे, सब करना भूल गए। कम्प्युटर बनाये ऐसे जो काम करें हमारे लिए, लेकिन उन्होंने हमसे हमारी दोस्तियाँ छीन ली। हम खाते हैं फास्ट फूड लेकिन पचाते सुस्ती से हैं। काया बड़ी है पर चरित्र छोटे हो गए हैं। मुनाफा आसमान छू रहा है पर रिश्ते-नाते सिकुड़ते जा रहे हैं। परिवार में आय और तलाक़ दुगने होने लगे हैं। घर शानदार हैं, पर टूटे हए। चुटकी में सैर-सपाटा होता है, बच्चे की लंगोट को धोने की ज़रूरत नहीं है, नैतिकता को कौन पूछता है? रिश्ते रात भर के होते हैं, देह डेढ़ गुनी होती जा रही है, गोलियां सुस्ती और निराशा दूर भगाती हैं - सब भुला देती हैं - सब 94 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिटा देती हैं। दुकानों के शीशों के पीछे देखने को बहुत कुछ है लेकिन चीजें उतनी टिकाऊ रह गयीं हैं क्या? क्या ज़माना आ गया है... आप इसे एक क्लिक से पढ़ सकते हैं, दूसरी क्लिक से किसी और को पढ़ा सकते हैं, तीसरी क्लिक से डिलीट भी कर सकते हैं! मेरी बात मानें - उनके साथ वक़्त गुजारें जिन्हें आप प्यार करते हैं, क्योंकि कोई भी किसी के साथ हमेशा नहीं रहता। याद रखें, उस बच्चे से भी बहुत मिठास से बोलें जो अभी आपकी बात नहीं समझता एक न एक दिन तो उसे बड़े होकर आपसे बात करनी ही है। दूसरों को प्रेम से गले लगायें, दिल से गले लगाये, आख़िर इसमें भी कोई पैसा लगता है क्या ? "मैं तुमसे प्यार करता हूँ" यह सिर्फ़ कहें नहीं, साबित भी करें। प्यार के दो मीठे बोल पुरानी कड़वाहट और रिसते ज़ख्मों पर भी मरहम का काम करते हैं। हाथ थामे रखें उस वक़्त को जी लें। याद रखें, गया वक़्त लौटकर नहीं आता। - स्वयं को समय दें प्रेम को समय दें। - ज़िंदगी को साँसों से नहीं नापिए बल्कि उन लम्हों से जो हमारी साँसों को चुरा ले जाते हैं। अब अगर आप इस संदेश को ५ लोगों को नहीं भी भेजते तो किसे इसकी परवाह है! जॉर्ज कार्लिन 95 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम का मूल्य : हमेशा की तरह मैं आपको एक और बेहद पुरानी बात बताने जा रहा हूँ। किसी समय, एक द्वीप पर सभी अनुभूतियाँ एक साथ रहा करती थीं खुशी, ज्ञान, उदासी, प्रेम, आदि। एक दिन यह आकाशवाणी हुई कि द्वीप जल्द ही डूब जाएगा। यह सुनते ही प्रेम को छोड़कर सभी अनुभूतियों ने अपनी-अपनी नायें बनानी शुरू कर दी और एक-एक करके वहां से जाने लगीं। प्रेम ने वहीं रुकने का निश्चय किया। उसने तय किया कि वह अन्तिम क्षण तक वहीं डटा रहेगा। लेकिन पानी चढ़ता गया। जब द्वीप लगभग डूब गया तब प्रेम ने मदद की गुहार लगाई। समृद्धि अपनी बड़ी सी नाव से वहां से गुज़र रही थी। प्रेम ने उससे साथ ले चलने की प्रार्थना की। समृद्धि ने कहा नहीं, मेरी नाव में बहुत सा सोना-चांदी है। इसमें तुम्हारे लिए जगह नहीं है।" - मायूस प्रेम ने सुंदर सी नाव में गुजर रही दुनियादारी से भी बचाने की फरियाद की। "नहीं भाई, तुम पूरी तरह भीग चुके हो मेरी नाव गंदी हो दुनियादारी ने कहा जायेगी।" - उदासी की नाव अभी ज्यादा दूर नहीं गयी थी। प्रेम ने उससे चिल्लाकर कहा "उदासी! मुझे अपने साथ ले चलो!" उदासी ने जवाब दिया- "ओह... प्रेम! मैं इतनी उदास हूँ कि बस अकेले ही रहना चाहती हूँ!" खुशी भी ज्यादा दूर न थी लेकिन वह अपने में इतनी मग्न थी कि उसे प्रेम की पुकार सुनाई ही न दी। पानी प्रेम के गले तक आ पहुंचा था। उसे लगा कि उसका अंत समय आ गया है। 96 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तभी उसे एक आवाज़ सुनाई दी। - "आओ प्रेम, मेरा हाथ थाम लो, मेरे साथ चलो!" यह किसी बड़े की आवाज़ थी । बचने की प्रसन्नता में प्रेम इतनी सुध-बुध खो बैठा कि उसने बचानेवाले का नाम भी न पूछा। यह भी न पूछा कि वे कहाँ जा रहे थे। जब वे सूखी धरती पर आ पहुंचे तब बचानेवाला अपनी राह चला गया। प्रेम उसका बहुत ऋणी था। उसने ज्ञान से पूछा ज्ञान ने कहा "उसका नाम समय है" । "समय" - - प्रेम ने आश्चर्य से पूछा- "उसने मुझे क्यों बचाया?" - "मुझे किसने बचाया?" ज्ञान ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया "क्योंकि समय ही यह जानता है कि प्रेम कितना मूल्यवान है।" 97 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समानुभूति घरेलू जानवरों के एक दूकानदार ने दूकान में कुछ खूबसूरत पपी (पिल्ले) बिक्री के लिए रखे दूकान के बाहर वह एक बोर्ड लगा रहा था कि किसी ने उसकी शर्ट को आहिस्ता से खींचा। उसने नीचे देखा, सात-आठ साल का एक बच्चा उसकी ओर मुस्कुराता हुआ देख रहा । था। "अंकल" बच्चे ने कहा दूकानदार ने बेफिक्री से कहा मंहगे हैं"। "मैं एक पपी खरीदना चाहता हूँ" । "ठीक है, लेकिन ये पपी बहुत ऊंची नस्ल के और बच्चे ने यह सुनकर सर झुकाकर एक पल को कुछ सोचा फिर अपनी जेब से ढेर सारी चिल्लर निकालकर उसने टेबल पर रख दी और बोला "मेरे पास सत्रह रुपये हैं। इतने में एक पपी आ जाएगा न?" दूकानदार ने व्यंग्य भरी मुस्कान बिखेरी और कहा "हाँ, हाँ, इतने में तुम उन्हें देख तो सकते ही हो!" यह कहकर उसने पिल्लों को बुलाने के लिए सीटी बजाई। - सीटी सुनते ही दूकान के भीतर से चार ऊन के गोलों जैसे प्यारे पिल्ले लुढकते हुए दूकानदार के पैरों के पास आकर लोटने लगे। उन्हें देखते ही बच्चे की आँखों में चमक आ गयी। तभी बच्चे की नज़र दूकान के पीछे हिल रही किसी चीज़ पर पड़ी। भीतर अंधेरे से एक और पिल्ले की शक्ल उभरी। यह कुछ कमज़ोर सा था और घिसटते हुए आ रहा था। इसके दोनों पिछले पैर बेकार थे। "अंकल" बच्चा बोला एक जगह बैठकर खूब खेलेंगे।" "मुझे ये वाला चाहिए!" - बच्चे ने उस पपी की ओर इशारा करते हुए कहा। दूकानदार को कुछ समझ नही आया। वह बोला "बेटा, वो पपी तुम्हारे काम का नहीं है। वो दूसरों की तरह तुम्हारे साथ खेल नहीं पायेगा। तुम्हें वो क्यों चाहिए?" बच्चे की आंखों में बेतरह दर्द उभर आया। उसने अपनी पैंट के पांयचे ऊपर खींचे। उसके विशेष जूतों में लगी हुई लोहे की सलाखें उसके घुटनों तक जाती दिख रही थीं। "मैं भी इसकी तरह भाग नहीं सकता। हम दोनों साथ में 98 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार पत्नियाँ एक धनी व्यापारी की चार पत्नियाँ थीं। वह अपनी चौथी पत्नी से सबसे अधिक प्रेम करता था और उसकी सुख-सुविधाओं में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वह अपनी तीसरी पत्नी से भी बहुत प्रेम करता था। वह बहुत खूबसूरत थी और व्यापारी को सदैव यह भय सताता था कि वह किसी दसरे पुरुष के प्रेम में पड़कर उसे छोड़ न दे। अपनी दूसरी पत्नी से भी उसे बहुत प्रेम था। वह बहुत अच्छे स्वभाव की थी और व्यापारी की विश्वासपात्र थी। जब कभी व्यापारी को कोई समस्या आती तो वह दूसरी पत्नी से ही सलाह लेता था और पत्नी ने भी उसे कई बार कठिनाइयों से निकाला था। और व्यापारी की पहली पत्नी उससे बहुत प्रेम करती थी और उसने उसके घर, व्यापार और धन-संपत्ति की बहुत देखभाल की थी लेकिन व्यापारी उससे प्रेम नहीं करता था। वह उसके प्रति उदासीन था। एक दिन व्यापारी बहुत बीमार पड़ गया। उसे लगने लगा कि उसकी मृत्यु समीप थी। उसने अपनी पत्नियों के बारे में सोचा - "मेरी चार-चार पत्नियाँ हैं पर मैं मरूंगा तो अकेले ही। मरने के बाद मैं कितना अकेला हो जाऊँगा!" उसने अपनी चौथी पत्नी से पूछा - "मैं तुमसे सर्वाधिक प्रेम करता हूँ और मैंने तुम्हें सबसे अच्छे वस्त्र-आभूषण दिए। अब, जब मैं मरने वाला हूँ, तुम मेरा साथ देने के लिए मेरे साथ चलोगी ?" - ऐसी अजीब बात सुनकर चौथी पत्नी भौंचक्की रह गयी। वह बोली - "नहींनहीं! ऐसा कैसे हो सकता है!" चौथी पत्नी के उत्तर ने व्यापारी के दिल को तोड़कर रख दिया। फिर उसने अपनी तीसरी पत्नी से भी वही कहा - "तुम मेरी सबसे सुंदर और प्यारी पत्नी हो। मैं चाहता हूँ कि हम मरने के बाद भी साथ-साथ रहें। मेरे साथ मर जाओ।" - लेकिन तीसरी पत्नी ने भी वही उत्तर दिया - "नहीं! मैं तो अभी कितनी जवान और खूबसूरत हूँ। मैं तो किसी और से शादी कर लूंगी"| - व्यापारी को उससे ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी। व्यापारी ने अपनी दूसरी पत्नी से कहा - "तुमने हमेशा मेरी मदद की है और मुझे मुश्किलों से उबारा है। अब तुम मेरी फ़िर से मदद करो और मेरे मरने के बाद भी मेरे साथ रहो।" - दूसरी पत्नी ने कहा - "मुझे माफ़ करें। इस बार मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकती।" - व्यापारी को यह सुनकर सबसे ज्यादा दुःख हुआ। 100 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तभी उसे एक आवाज़ सुनाई दी "मैं आपके साथ चलूंगी मौत भी मुझे आपसे दूर नहीं कर सकती।" यह व्यापारी की पहली पत्नी की आवाज़ थी उसकी ओर कोई भी कभी ध्यान नहीं देता था। वह बहुत दुबली-पतली, रोगी, और कमज़ोर हो गयी थी। - उसे देखकर व्यापारी ने बहुत दुःख भरे स्वर में कहा "मेरी पहली पत्नी, मैंने तो तुम्हें हमेशा नज़रअंदाज़ किया जबकि मुझे तुम्हारा सबसे ज्यादा ख़याल रखना चाहिए था ! " व्यापारी की ही भांति हम सबकी भी चार पत्नियाँ होती हैं: - हमारी देह हमारी चौथी पत्नी है। हम इसका कितना भी बेहतर ध्यान रखें, मौत के समय यह हमारा साथ छोड़ ही देती है। हमारी धन-संपत्ति हमारी तीसरी पत्नी है। हमारे मरने के बाद यह दूसरों के पास चली जाती है। हमारा परिवार हमारी दूसरी पत्नी है। हमारे जीवित रहते यह हमारे करीब रहता है, हमारे मरते ही यह हमें बिसरा देता है। हमारी आत्मा हमारी पहली पत्नी है जिसे हम धन-संपति की चाह, रिश्ते-नाते के मोह, और सांसारिकता की अंधी दौड़ में हमेशा नज़रअंदाज़ कर देते हैं। 101 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारी कीमत एक प्रसिद्ध वक्ता ने सेमीनार में अपनी जेब से १०० डालर का नोट निकला और कमरे में उपस्थित २०० लोगों से पूछा - "कौन यह १०० डालर का नोट लेना चाहता है ? " सभी मौजूद लोगों ने अपने हाथ उठा दिए । वक्ता ने कहा- "यह नोट मैं आपको ज़रूर दूँगा लेकिन उससे पहले मैं इसे..." यह उसने उस नोट को अपने हाथ में कसकर भींचकर दिया। हुए उसने फिर पूछा "अभी भी किसी को नोट चाहिए? " अभी भी सारे हाथ ऊपर उठ गए। हुए "अच्छा!" वक्ता ने कहा "और अगर मैं इस नोट के साथ यह करूँ" - कहते उसने नोट को ज़मीन पर पटककर उसे अपने जूते से मसल दिया। (हम भारतवासी तो ऐसा कदापि न करें) क उसने फ़िर वह गन्दा तुड़ा-मुड़ा सा नोट उठाया और फ़िर से कहा "क्या अब भी कोई इसे लेना चाहेगा?" अभी भी सारे लोग उसे लेने के लिए तैयार थे। "दोस्त" वक्ता ने कहा "आप सभी ने आज एक बेशकीमती सबक सीखा है। इस नोट के साथ मैंने इतना कुछ किया पर सभी इसे लेने के लिए तैयार हैं क्योंकि इसकी कीमत कम नहीं हुई। यह अभी भी १०० डालर का नोट है" । - "हमारी ज़िंदगी में हमें कई बार गिराया, कुचला और अपमानित किया जाता है पर इससे हमारी कीमत हमारा महत्त्व कम नहीं हो जाता। इसे हमेशा याद रखें" । 102 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाजिरजवाबी मुल्ला नसीरुद्दीन ने एक दिन अपने शिष्यों से कहा - "मैं अंधेरे में भी देख सकता एक विद्यार्थी ने कौतूहलवश उससे पूछा - "ऐसा है तो आप रात में लालटेन लेकर क्यों चलते हैं?" "ओह, वो तो इसलिए कि दूसरे लोग मुझसे टकरा न जायें" - मुल्ला ने मुस्कुराते हुए कहा। 103 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कभी हार नहीं मानो यह सही है कि विंस्टन चर्चिल को हम भारतीय उनकी ब्रिटिश अकड़ और गांधीजी के प्रति उनके कड़वे उद्गारों के लिए नापसंद करते हैं पर अंग्रेज और संसार के दूसरे देश के लोग निर्विवाद रूप से चर्चिल को विश्व के महानतम राजनीतिज्ञों में रखते हैं। चर्चिल को आठवीं कक्षा पास करने में तीन साल लग गए क्योंकि वे अंग्रेजी में बहत कमज़ोर थे। वे ही एकमात्र गैर-साहित्यकार व् राजनीतिज्ञ हैं जिन्हें अपनी पुस्तक "The Gathering Storm" के लिए साहित्य का नोबल पुरस्कार मिला। इस पुस्तक में द्वितीय विश्व युद्ध का इतिहास है। जिन्होंने भी चर्चिल की भाषा पढ़ी है वे इस बात पर यकीन नहीं कर सकते कि चर्चिल पढाई में सदैव औसत विद्यार्थी ही रहे। यह चर्चिल के जीवन के अन्तिम वर्षों की घटना है। एक बार ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने चर्चिल को अपने दीक्षांत समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया। चर्चिल अपनी सामान्य वेशभूषा में वहां गए - मुंह में मोटा सिगार, बेंत की छड़ी, और सर पर ऊंचा हैट। जब वह माइक पर पहुंचे तब लोगों ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया। असाधारण प्राधिकार से उन्होंने उनका अभिवादन स्वीकार किया और असीम आत्मविश्वास से माइक पर खड़े रहे। मुंह से सिगार निकालकर उन्होंने अपना हैट माइक के स्टैंड पर रखा। लोग उनसे कुछ सुनने को बेताब थे। अपूर्व तेजमयी वाणी में उन्होंने अपना संदेश दिया - "कभी हार नहीं मानो! (Never give up)" हज़ार शब्दों का संदेश भी इतना प्रभावकारी नहीं हो सकता था। तालियों की गड़गडाहट से पूरा हाल गूंजता रहा। अपनी आँखों में चमक लिए चर्चिल कुछ सेकंड तक सबको देखते रहे। उन्होंने फ़िर से कहा - "कभी हार नहीं मानो!" पहले से भी ज्यादा तालियों की गड़गडाहट के साथ उन्होंने सिगार और हैट थामने के लिए हाथ बढ़ाया और मंच से नीचे उतर आए। उनका दीक्षांत भाषण पूरा हो चुका था 104 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रासदी या आशीर्वाद? लगभग १०० साल पुरानी बात है। स्कॉटलैंड में रहनेवाले क्लार्क परिवार का दसियों सालों से देखा जा रहा सपना पूरा होनेवाला था। क्लार्क दंपत्ति ने स्वयं के और अपने नौ बच्चों को अमेरिका में बसाने के लिए इतने रुपये जमा कर लिए थे कि वे सभी अमेरिका जानेवाले एक पानी के जहाज पर यात्रा कर सकते थे। दूर देश की रोमांचक यात्रा और नई जगह पर जाकर बसने की उम्मीदों और उत्साह ने उनके जीवन में नया रंग भर दिया। लेकिन होनी को तो कुछ और ही मंजूर था। यात्रा के एक सप्ताह पहले सबसे छोटे बच्चे को कुत्ते ने काट लिया। उन दिनों कुत्ते के काटने का कोई इलाज नहीं था। डाक्टर ने बच्चे के घाव को साफ़ करके घर के दरवाजे पर पीला कपड़ा टांग दिया। अब दो सप्ताह तक इंतजार करके देखना था कि घाव प्राणघातक रैबीज में बदलता है या नहीं। क्लार्क परिवार का सपना चूर-चूर हो गया। इतने छोटे बच्चे को छोड़कर वे अमेरिका नहीं जा सकते थे। बच्चे को लेकर जाना भी सम्भव नहीं था। पिता ने अमेरिका जाने वाले भव्य जहाज को अपनी आँखों से ओझल होते देखा और अपनी उम्मीदों पर पानी फेरने के लिए बच्चे को, भगवान् को, कुत्ते को, और सभी को जी भर के कोसा। पाँच दिन बाद पूरे स्कॉटलैंड में एक दुखभरी ख़बर आग की तरह फैल गयी - कभी न डूबनेवाला विराट जहाज टाइटैनिक अपने डेढ़ हज़ार यात्रियों के साथ अटलांटिक में डूब गया था। क्लार्क परिवार उसी जहाज में यात्रा करनेवाला था लेकिन छोटे पुत्र को कुत्ता काटने के कारण यात्रा स्थगित कर दी गयी थी। जब मिस्टर क्लार्क ने यह ख़बर सुनी तब उन्होंने अपने पुत्र को गले से लगा लिया और अपने परिवार की रक्षा करने के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया। इसे समझना मुश्किल है परन्तु हर घटना के पीछे कोई-न-कोई कारण ज़रूर होता है। 105 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काश ये २० बातें मुझे पहले पता होती लियो बबौटा ग्वाम में रहते हैं और एक बहुत उपयोगी ब्लॉग जेन हैबिट्स के ब्लौगर हैं। उनकी एक अच्छी और उपयोगी पोस्ट का अनुवाद है: यह अनुवादक : मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा कि लियो की बताई हुई बातों में कुछ नया नहीं है और हमारे यहाँ के कई लोग जैसे शिव खेडा आदि ने भी ऐसी ही प्रेरक और ज्ञानवर्धक बातें लिखी-कही है। मैं अपने मित्र से १००% सहमत हूँ लेकिन लियो जो कुछ भी कहते या लिखते हैं वह उनके अपने अनुभव पर जांचा-परखा है. आर्थिक और पारिवारिक मोर्चे पर चोट खाया हुआ व्यक्ति जो कुछ कहता है उसमें उसका अपना गहरा अनुभव होता है. वैसे भी हम भारतवासी यह मानते हैं कि ज्ञान जहाँ से भी और जिससे भी मिले ले लेना चाहिए. इसलिए लियो की बातें अर्थ रखती हैं. * * * * * मैं लगभग ३५ साल का हो गया हूँ और उतनी गलतियाँ कर चुका हूँ जितनी मुझे अब तक कर लेनी चाहिए थीं। पछतावे में मेरा यकीन नहीं है... और अपनी हर गलती से मैंने बड़ी सीख ली है... और मेरी जिंदगी बहत बेहतर है। लेकिन मुझे यह लगता है कि ऐसी बहुत सारी बातें हैं जो मैं यदि उस समय जानता जब मैं युवावस्था में कदम रख रहा था तो मेरी जिंदगी कुछ और होती। वाकई? मैं यकीन से कुछ नहीं कह सकता। मैं क़र्ज़ के पहाड़ के नीचे नहीं दबा होता लेकिन इसके बिना मुझे इससे बाहर निकलने के रास्ते की जानकारी भी न हुई होती। मैंने बेहतर कैरियर अपनाया होता लेकिन मुझे वह अनुभव नहीं मिला होता जिसने मुझे ब्लौगर और लेखक बनाया। मैंने शादी नहीं की होती, ताकि मेरा तलाक भी न होता... लेकिन यह न होता तो मुझे पहली शादी से हुए दो प्यारे-प्यारे बच्चे भी नहीं मिले होते। मुझे नहीं लगता कि मैं अपने साथ हुई ये सारी चीजें बदल सकता था। पीछे मुड़कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि मैंने ऐसे सबक सीखे हैं जो मैं ख़ुद को तब बताना चाहता जब मैं १८ साल का था। क्या अब वो सबक दुहराकर मैं थोड़ा सा पछता लूँ? नहीं। मैं उन्हें यहाँ इसलिए बाँट रहा हूँ ताकि हाल ही में अपना होश संभालनेवाले युवा लड़के और लड़कियां मेरी गलतियों से कुछ सबक ले सकें। 106 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये मेरी गलतियों की कोई परिपूर्ण सूची नहीं है लेकिन मैं यह उम्मीद करता हूँ कि कुछ लोगों को इससे ज़रूर थोड़ी मदद मिलेगी। 1. खर्च करने पर नियंत्रण - यूँही पैसा उड़ा देने की आदत ने मुझे बड़े आर्थिक संकट में डाला। मैं ऐसे कपड़े खरीदता था जिनकी मुझे ज़रूरत नहीं थी। ऐसे गैजेट खरीद लेता था जिन्हें सिर्फ अपने पास रखना चाहता था। ऑनलाइन खरीददारी करता था क्योंकि ये बहुत आसान है। अपनी बड़ी स्पोर्ट्स यूटिलिटी वेहिकल मैंने सिर्फ औरतों को आकर्षित और प्रभावित करने के चक्कर में खरीद ली। मुझे अब ऐसे किसी भी चीज़ पर गर्व नहीं होता। मैंने आदतन पैसा खर्च करने के स्वभाव पर काबू पा लिया है। अब कुछ भी खरीदने से पहले मैं थोड़ा समय लगाता हूँ। मैं यह देखता हूँ कि क्या मेरे पास उसे खरीदने के लिए पैसे हैं, या मुझे उसकी वाकई ज़रूरत है या नहीं। १५ साल पहले मुझे इसका बहुत लाभ मिला होता। 2. सक्रिय-गतिमान जीवन - जब मैं हाईस्कूल में था तब भागदौड़ और बास्केटबाल में भाग लेता था। कॉलेज पहुँचने के बाद मेरा खेलकूद धीरे-धीरे कम होने लगा। यूँ तो मैं चलते-फिरते बास्केटबाल हाईस्कूल के बाद भी खेलता रहा पर वह भी एक दिन बंद हो गया और जिंदगी से सारी गतिशीलता चली गयी। बच्चों के साथ बहार खेलने में ही मेरी साँस फूलने लगी। मैं मोटा होने लगा। अब मैंने बहुत दौड़भाग शुरू कर दी है पर बैठे-बैठे सालों में जमा की हुई चर्बी को हटाने में थोड़ा वक़्त लगेगा। 3. आर्थिक नियोजन करना - मैं हमेशा से यह जानता था कि हमें अपने बजट और खर्चों पर नियंत्रण रखना चाहिए। इसके बावजूद मैंने इस मामले में हमेशा आलस किया। मुझे यह ठीक से पता भी नहीं था कि इसे कैसे करते हैं। अब मैंने इसे सीख लिया है और इसपर कायम रहता हूँ। हां, कभी-कभी मैं रास्ते से थोड़ा भटक भी जाता हँ पर दोबारा रास्ते पर आना भी मैंने सीख लिया है। ये सब आप किसी किताब से पढ़कर नहीं सीख सकते। इसे व्यवहार से ही जाना जा सकता है। अब मैं यह उम्मीद करता हूँ कि अपने बच्चों को मैं यह सब सिखा पाऊँगा। 4. जंक फूड पेट पर भारी पड़ेगा - सिर्फ ठहरी हुई लाइफस्टाइल के कारण ही मैं मोटा नहीं हुआ। बाहर के तले हुए भोजन ने भी इसमें काफी योगदान दिया। हर कभी मैं बाहर पिज्जा, बर्गर, और इसी तरह की दूसरी चर्बीदार तली हुई चीजें खा लिया करता था। मैंने यह कभी नहीं सोचा कि इन चीजों से कोई समस्या हो सकती है। अपने स्वास्थ्य के बारे में तो हम तभी सोचना शुरू करते हैं जब हम कुछ प्रौढ़ होने लगते हैं। एक समय मेरी जींस बहुत टाइट होने लगी और कमर का नाप कई इंच बढ़ गया। उस दौरान पेट पर चढी चर्बी अभी भी पूरी तरह से नहीं निकली है। काश किसी __107 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने मुझे उस समय 'आज' की तस्वीर दिखाई होती जब मैं जवाँ था और एक साँस में सोडे की बोतल ख़त्म कर दिया करता था। 5. धूम्रपान सिर्फ बेवकूफी है - धूम्रपान की शुरुआत मैंने कुछ बड़े होने के बाद ही की। क्यों की, यह बताना ज़रूरी नहीं है लेकिन मुझे हमेशा यह लगता था कि मैं इसे जब चाहे तब छोड़ सकता हूँ। ऐसा मुझे कई सालों तक लगता रहा जब एक दिन मैंने छोड़ने की कोशिश की लेकिन छोड़ नहीं पाया। पाँच असफल कोशिशों के बाद मुझे यह लगने लगा कि मेरी लत वाकई बहुत ताकतवर थी। आखिरकार १८ नवम्बर २००५ को मैंने धूम्रपान करना पूरी तरह बंद कर दिया लेकिन इसने मेरा कितना कुछ मुझसे छीन लिया। 6. रिटायरमेंट की तैयारी - यह बात और इससे पहले बताई गयी बातें बहुत आम प्रतीत होती हैं। आप यह न सोचें कि मुझे इस बात का पता उस समय नहीं था जब मैं १८ साल का था। मैं इसे बखूबी जानता था लेकिन मैंने इसके बारे में कभी नहीं सोचा। जब तक मैं ३० की उम्र पार नहीं कर गया तब तक मैंने रिटायर्मेट प्लानिंग के बारे में कोई चिंता नहीं की। अब मेरा मन करता है कि उस १८ वर्षीय लियो को इस बात के लिए एक चांटा जड़ दिया जाए। खैर। अब तक तो मैं काफी पैसा जमा कर चुका होता! मैंने भी रिटायर्मेंट प्लान बनाया था लेकिन मैंने तीन बार जॉब्स बदले और अपना जमा किया पैसा यूँही उड़ा दिया। 7. जो कुछ भी आपको कठिन लगता है यह आपके काम का होता है - यह ऐसी बात है जो ज्यादा काम की नहीं लगती। एक समय था जब मझे काम मश्किल लगता था। मैंने काम किया ज़रूर, लेकिन बेमन किया। अगर काम न करने की छूट होती तो मैं नहीं करता। परिश्रम ने मुझे बहुत तनाव में डाला। मैं कभी भी परिश्रम नहीं करना चाहता था। लेकिन मुझे मिलने वाला सबक यह है कि जितना भी परिश्रम मैंने अनजाने में किया उसने मुझे सदैव दूर तक लाभ पहुँचाया। आज भी मैं उन तनाव के दिनों में कठोर परिश्रम करते समय सीखे हुए हुनर और आदतों की कमाई खा रहा हूँ। उनके कारण मैं आज वह बन पाया हूँ जो मैं आज हूँ। इसके लिए मैं युवक लियो का हमेशा अहसान 8. बिना जांचे-परखे कोई पुराना सामान नहीं खरीदें - मैंने एक पुरानी वैन खरीदी थी। मुझे यह लग रहा था की मैं बहुत स्मार्ट था और मैंने उसे ठीक से जांचा-परखा नहीं। उस खटारा वैन के इंजन में अपार समस्याएँ थीं। उसका एक दरवाजा तो चलते समय ही गिर गया। खींचते समय दरवाजे का हैंडल टूट गया। कांच भी कहीं टपक गया। टायर बिगड़ते गए, खिड़कियाँ जाम पड़ी थीं, और एक दिन रेडियेटर भी फट गया। अभी भी मैं ढेरों समस्याएँ गिना सकता हूँ। वह मेरे द्वारा ख़रीदी गयी सबसे 108 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटिया चीज़ थी यह तो मैं अभी भी मानता हूँ की पुरानी चीज़ों को खरीदने में समझदारी है लेकिन उन्हें देख-परख के ही खरीदना चाहिए। 9. बेचने से पहले ही सारी बातें तय कर लेने में ही भलाई है अपने दोस्त के दोस्त को मैंने अपनी एक कार बेची। मुझे यकीन था कि बगैर लिखा-पढी के ही वह मुझे मेरी माँगी हुई उचित कीमत अदा कर देगा। यह मेरी बेवकूफी थी। अभी भी मुझे वह आदमी कभी-कभी सड़क पर दिख जाता है लेकिन अब मुझमें इतनी ताक़त नहीं है कि मैं अपना पैसा निकलवाने के लिए उसका पीछा करूँ। - 10. कितनी भी व्यस्तता क्यों न हो, अपना शौक पूरा करो मैं हमेशा से ही लेखक बनना चाहता था। मैं चाहता था कि एक दिन लोग मेरी लिखी किताबें पढ़ें लेकिन मेरे पास लिखने का समय ही नहीं था। पूर्णकालिक नौकरी और पारिवारिक जिम्मेदारियां होने के कारण मुझे लिखने का वक़्त नहीं मिल पाता था। अब मैं यह जान गया हूँ कि वक़्त तो निकालना पड़ता है। दूसरी चीज़ों से खुद को थोड़ा सा काटकर इतना समय तो निकला ही जा सकता है जिसमें हम वो कर सकें जो हमारा दिल करना चाहता है। मैंने अपनी ख्वाहिश के आड़े में बहुत सी चीज़ों को आने दिया। यह बात मैंने १५ साल पहले जान ली होती तो आजतक मैं १५ किताबें लिख चुका होता। सारी किताबें तो शानदार नहीं होतीं लेकिन कुछेक तो होतीं! 11. जिसकी खातिर इतना तनाव उठा रहे हैं वो बात हमेशा नहीं रहेगी - जब हमारा बुरा वक़्त चल रहा होता है तब हमें पूरी दुनिया बुरी लगती है। मुझे समयसीमा में काम करने होते थे, कई प्रोजेक्ट एक साथ चल रहे थे, लोग मेरे सर पर सवार रहते थे और मेरे तनाव का स्तर खतरे के निशान के पार जा चुका था। मुझे मेहनत करने का कोई पछतावा नहीं है (जैसा मैंने ऊपर कहा) लेकिन यदि मुझे इस बात का पता होता कि इतनी जद्दोजहद और माथापच्ची १५ साल तो क्या अगले ५ साल बाद बेमानी हो जायेगी तो मैं अपने को उसमें नहीं खपाता। परिप्रेक्ष्य हमें बहुत कुछ सिखा देता है। - 12. काम के दौरान बनने वाले दोस्त काम से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं - मैंने कई जगहों में काम किया और बहुत सारी चीजें खरीदी और इसी प्रक्रिया में बहुत सारे दोस्त भी बनाये। काश मैं यहाँ-वहां की बातों में समय लगाने के बजाय अपने दोस्तों और परिजनों के साथ बेहतर वक़्त गुज़र पाता ! 13. टीवी देखना समय की बहुत बड़ी बर्बादी है - मुझे लगता है कि साल भर में हम कई महीने टी वी देख चुके होते हैं। रियालिटी टी वी देखने में क्या तुक है जब रियालिटी हाथ से फिसली जा रही हो? खोया हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता इसे टी वी देखने में बरबाद न करें। 14. बच्चे समय से पहले बड़े हो जायेंगे। समय नष्ट न करें - बच्चे देखते-देखते बड़े हो जाते हैं। मेरी बड़ी बेटी क्लो कुछ ही दिनों में १५ साल की हो जायेगी। तीन साल 109 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद वह वयस्क हो जायेगी और फ़िर मुझसे दूर चली जायेगी। तीन साल! ऐसा लगता है कि यह वक़्त तो पलक झपकते गुज़र जाएगा। मेरा मन करता हूँ कि १५ साल पहले जाकर खुद को झिड़क दूं - दफ्तर में रात-दिन लगे रहना छोडो! टी वी देखना छोडो! अपने बच्चों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय व्यतीत करो! - पिछले १५ साल किती तेजी से गुज़र गए, पता ही न चला। 15. दुनिया के दर्द बिसराकर अपनी खुशी पर ध्यान दो - मेरे काम में और निजी ज़िंदगी में मेरे साथ ऐसा कई बार हुआ जब मुझे लगने लगा कि मेरी दुनिया बस ख़त्म हो गयी। जब समस्याएँ सर पे सवार हो जाती थीं तो अच्छा खासा तमाशा बन जाता था। इस सबके कारण मैं कई बार अवसाद का शिकार हुआ। वह बहुत बुरा वक़्त था। सच तो यह था कि हर समस्या मेरे भीतर थी और मैं सकारात्मक दृष्टिकोण रखकर खुश रह सकता था। मैं यह सोचकर खुश हो सकता था कि मेरे पास कितना कुछ है जो औरों के पास नहीं है। अपने सारे दुःख-दर्द मैं ताक पर रख सकता था। 16. ब्लॉग्स केवल निजी पसंद-नापसंद का रोजनामचा नहीं है - पहली बार मैंने ब्लॉग्स ७-८ साल पहले पढ़े। पहली नज़र में मुझे उनमें कुछ ख़ास रूचि का नहीं लगा - बस कुछ लोगों के निजी विचार और उनकी पसंद-नापसंद! उनको पढ़के मुझे भला क्या मिलता!? मुझे अपनी बातों को दुनिया के साथ बांटकर क्या मिलेगा? मैं इन्टरनेट पर बहुत समय बिताता था और एक वेबसाईट से दूसरी वेबसाईट पर जाता रहता था लेकिन ब्लॉग्स से हमेशा कन्नी काट जाता था। पिछले ३-४ सालों के भीतर ही मुझे लगने लगा कि ब्लॉग्स बेहतर पढने-लिखने और लोगों तक अपनी और जानकारी बांटने का बेहतरीन माध्यम हैं। ७-८ साल पहले ही यदि मैंने ब्लॉगिंग शुरू कर दी होती तो अब तक मैं काफी लाभ उठा चुका होता। 17. याददाश्त बहुत धोखा देती है - मेरी याददाश्त बहुत कमज़ोर है। मैं न सिर्फ हाल की बल्कि पुरानी बातें भी भूल जाता हूँ। अपने बच्चों से जुड़ी बहुत सारी बातें मुझे याद नहीं हैं क्योंकि मैंने उन्हें कहीं लिखकर नहीं रखा। मुझे खुद से जुडी बहुत सारी बातें याद नहीं रहतीं। ऐसा लगता है जैसे स्मृतिपटल पर एक गहरी धुंध सी छाई हुई है। यदि मैंने ज़रूरी बातों को नोट कर लेने की आदत डाली होती तो मुझे इसका बहुत लाभ मिलता। 18. शराब बरी चीज़ है - मैं इसके विस्तार में नहीं जाऊँगा। बस इतना कहना ही काफी होगा कि मुझे कई बुरे अनुभव हुए हैं। शराब और ऐसी ही कई दूसरी चीज़ों ने मुझे बस एक बात का ज्ञान करवाया है - शराब सिर्फ शैतान के काम की चीज़ है। 19. आप मैराथन दौड़ने का निश्चय कभी भी कर सकते हैं - इसे अपना लक्ष्य बना लीजिये - यह बहुत बड़ा पारितोषक है। स्कूल के समय से ही मैं मैराथन दौड़ना चाहता था। यह एक बहुत बड़ा सपना था जिसे साकार करने में मैंने सालों लगा दिए। 110 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैराथन दौड़ने पर मुझे पता चला कि यह न सिर्फ़ सम्भव था बल्कि बहुत बड़ा पारितोषक भी था। काश मैंने दौड़ने की ट्रेनिंग उस समय शुरू कर दी होती जब मैं हल्का और तंदरुस्त था, मैं तब इसे काफी कम समय में पूरा कर लेता ! 20. इतना पढने के बाद भी मेरी गलतियाँ दुहराएंगे तो पछतायेंगे १८ वर्षीय लियो ने इस पोस्ट को पढ़के यही कहा होता "अच्छी सलाह है।" और इसके बाद वह न चाहते हुए भी वही गलतियाँ दुहराता । मैं बुरा लड़का नहीं था लेकिन मैंने किसी की सलाह कभी नहीं मानी। मैं गलतियाँ करता गया और अपने मुताबिक जिंदगी जीता गया। मुझे इसका अफ़सोस नहीं है। मेरा हर अनुभव ( शराब का भी ) मुझे मेरी जिंदगी की उस राह पर ले आया है जिसपर आज मैं चल रहा हूँ। मुझे अपनी जिंदगी से प्यार है और मैं इसे किसी के भी साथ हरगिज नहीं बदलूँगा। दर्द, तनाव, तमाशा, मेहनत, परेशानियाँ, अवसाद, हैंगओवर, कर्ज, मोटापा सलाह न मानने के इन नतीजों का पात्र था मैं। 111 - - Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवेरे जल्दी उठने के दस फायदे और तरीके लियो बबौटा ग्वाम में रहते हैं और एक बहुत उपयोगी ब्लॉग जेन हैबिट्स के ब्लोगर हैं। वे लेखक, धावक, और शाकाहारी हैं। उन्होंने हाल में ही एक बेस्ट-सेलिंग पुस्तक 'The Power of Less' लिखी है। उनके ब्लॉग पर आप सफलता पाने, रचनात्मकता बढ़ाने, व्यवस्थित होने, प्रेरित होने, क़र्ज़ से निजात पाने, पैसा बचाने, दुबला होने, अच्छा खाने, सहज रहने, बच्चों का लालनपालन करने, खुश रहने, और अच्छी आदतें विकसित करने के लिए बेहतरीन पोस्ट पढ़ सकते हैं। सबसे अच्छी बात तो यह है कि लियो ने सभी को अपने ब्लॉग की सामग्री का किसी भी रूप में उपयोग करने की पूरी छूट दी है (जैसी मैंने दी हुई है)। उनके ब्लॉग की सबसे अच्छी पोस्टों को मैं अनूदित करके आपके लिए प्रस्तुत करूंगा। इसी क्रम में मैं पोस्ट कर रहा हूँ उनकी पोस्ट सवेरे जल्दी उठने के दस फायदे और तरीके। अनुवादक : यहाँ मैं ईमानदारी से यह कह दूं कि मैं खुद सवेरे बहुत जल्दी नहीं उठता हूँ। पानी भरने के लिए सवेरे ६:३० पर उठना पड़ता है। दोपहर दफ्तर में गुज़रती है, ब्लॉगिंग रात को करता हूँ, छोटे-छोटे बच्चों को भी तो देखना है, अकेली पत्नी की सुख-सुविधाओं का ख्याल रखना भी ज़रूरी है, घर-परिवार से दूर अकेले रह रहे लोग आख़िर क्या करें?। लो, मैं तो अपना दुखडा रोने लगा। आप लियो की प्रेरक पोस्ट का अनुवाद पढ़ें और अच्छा लगे तो मुझे बताएं। * * * * * हाल में मेरे एक पाठक ने मेरे रोज़ सवेरे ४:३० बजे उठने की आदत, इसके लाभ और उठने के उपायों के बारे में पूछा। उनका सवाल बहुत अच्छा है पर सच कहूँ तो इसके बारे में मैंने कभी गंभीरता से नहीं सोचा। वैसे, इस आदत के कुछ लाभ तो हैं जो मैं आपको बता सकता हूँ: पहले मैं आपको यह बता दूँ की यदि आप रात्रिजीवी है और इसी में खुश हैं तो आपको अपनी आदत बदलने की कोई ज़रूरत नहीं है। मेरे लिए रात का उल्लू होने के बाद जल्द उठने वाला जीव बनना बहुत बड़ा परिवर्तन था। इससे मुझे इतने सारे लाभ हुए कि अब मुझसे सवेरे देर से उठा न जाएगा। लाभ ये हैं: १. दिन का अभिवादन - सवेरे जल्दी उठने पर आप एक शानदार दिन की शुरुआत होते देख सकते हैं। सवेरे-सवेरे जल्द उठकर प्रार्थना करने और परमपिता को धन्यवाद देने का संस्कार डाल लें। दलाई लामा कहते हैं - "सवेरे उठकर आप यह सोचें, 'आज के दिन जागकर मैं धन्य हूँ कि मैं जीवित और सुरक्षित हूँ, मेरा जीवन अनमोल है, मैं इसका सही उपयोग 112 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करूँगा। अपनी समस्त ऊर्जा को मैं आत्मविकास में लगाऊँगा, अपने ह्रदय को दूसरों के लिए खोलूँगा, सभी जीवों के कल्याण के लिए काम करूँगा, दूसरों के प्रति मन में अच्छे विचार रबूँगा, किसी से नाराज़ नहीं होऊंगा और किसी का बुरा नहीं सोचूंगा, दूसरों का जितना हित कर सकता हूँ उतना हित करूँगा"। २ - शानदार शुरुआत - पहले तो मैं देर से उठा करता था और बिस्तर से उठते ही खुद को और बच्चों को तैयार करने की जद्दोजहद में लग जाता था। कैसे तो भी बच्चों को स्कूल में छोड़कर दफ्तर देर से पहुँचता था। मैं काम में पिछड़ रहा था, उनींदा सा रहता था, चिडचिडा हो गया था। हर दिन इसी तरह शरू होता था। अब मैंने सवेरे के कामों को व्यवस्थित कर लिया है। बहुत सारे छोटे-छोटे काम मैं ८:०० से पहले ही निपटा लेता हूँ। बच्चे और मैं तब तक तैयार हो जाते हैं और जब दूसरे लोग आपाधापी में लगे होते हैं तब मैं काम में लग जाता हूँ। सवेरे जल्दी उठकर अपने दिन की शुरुआत करने से बेहतर और कोई तरीका नहीं है। ३ - दिन की शांत शुरुआत - बच्चों की चें-पें, खेलकूद का शोर, गाड़ियों के हार्न, टी वी की चिल्लपों - सवेरे यह सब न के बराबर होता है। सुबह के कुछ घंटे शांतिपूर्ण होते हैं। यह मेरा पसंदीदा समय है। इस समय मैं मानसिक शान्ति का अनुभव करता हूँ, स्वयं को समय दे पता हूँ, खुली हवा में साँस लेता हूँ, मनचाहा पढता हूँ, सोचता हूँ। ४ - सूर्योदय का नज़ारा - देर से उठनेवाले लोग हर दिन घटित होनेवाली प्रकृति की आलौकिक प्रतीत होनेवाली बात को नहीं देख पाते - सूर्योदय को। रात काले से गहरे नीले में तब्दील होती है, फ़िर हलके नीले में, और आसमान के एक कोने में दिन की सुगबुगाहट शुरू हो जाती है। प्रकृति अपूर्व रंगों की छटा प्रस्तुत करती है। इस समय दौड़ने की बात ही कुछ और है। दौड़ते हुए मैं दुनिया से कहता हूँ - "कितना शानदार दिन है!" सच में! ५ - नाश्ते का आनंद - सवेरे जल्दी उठकर ही आप नाश्ते का आनंद ले सकते हैं। नाश्ता दिनभर का सबसे ज़रूरी भोजन है। नाश्ते के बिना हमारी देह धीमी आंच पर काम करती है और दोपहर के भोजन तक हम इतने भूखे हो जाते हैं की कुछ भी अटरम-सटरम खा कर पेट टाइट कर लेते हैं, जैसे समोसे, जलेबी, पोहा, पकौडे, आदि। सवेरे अच्छा नाश्ता कर लेने से इनकी ज़रूरत नहीं पड़ती। इसके अलावा, चाय-काफी की चुस्कियां लेते हुए सवेरे अख़बार पढ़ना या दफ्तर में काम की शुरुआत करना कितना सुकूनभरा है! ६ - कसरत करना - यूँ तो आप दिनभर में या शाम को कभी भी कसरत कर सकते हैं पर सवेरे-सवेरे यह करने का फायदा यह है कि आप इसे फ़िर किसी और समय के लिए टाल 113 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं सकते। दिन में या शाम को तो अक्सर कई दूसरे ज़रूरी काम आ जाते हैं और कसरत स्थगित करनी पड़ जाती है। ७ - रचनाशीलता होना - सभी इस बात को मानेंगे की सुबह का समय बहुत रचनात्मक ऊर्जा से भरा होता है। सुबह किसी किस्म का व्यवधान नहीं होता और मैं लिखता हूँ, मेल पढता हूँ, ब्लॉगिंग करता हूँ। इस तरह समय की थोड़ी बचत हो जाती है तो मैं शाम को परिवार के साथ वक़्त गुज़र लेता हूँ, जो बहुत ज़रूरी है। ८ - लक्ष्य बनाना - क्या आपने अपने लिए कुछ लक्ष्य निर्धारित किए हैं? नहीं? आपको करना चाहिए! लक्ष्य बनाइये और सुबह जल्दी उठकर उनकी समीक्षा करिए। इस सप्ताह कोई एक काम करने की ठान लें और उसे समय पर पूरा कर लें। लक्ष्य बनाने के बाद हर सुबह उठकर यह तय करें कि आज आप अपने लक्ष्य को पाने की दिशा में कौन से कदम उठाएंगे! और वह कदम आप हर सुबह सबसे पहले उठायें। ९ - काम पर आना-जाना - भयंकर ट्रेफिक में आना-जाना कोई पसंद नहीं करता। दफ्तर/काम के लिए कुछ जल्दी निकल पड़ने से न केवल ट्रेफिक से छुटकारा मिलता है बल्कि काम भी जल्द शुरू हो जाता है। यदि आप कार से जाते हैं तो पेट्रोल बचता है। थोड़ा जल्दी घर से निकल रहें हो तो मोटरसाईकिल चलाने का मज़ा उठा सकते हैं। १० - लोगों से मिलना-जुलना - सवेरे जल्दी उठने के कारण लोगों से मिलना-जुलना आसान हो जाता है। जल्दी उठें और तय मुलाक़ात के लिए समय पर चल दें। जिस व्यक्ति से आप मिलने जा रहे हैं वह आपको समय पर आया देखकर प्रभावित हो जाएगा। आपको मुलाक़ात के लिए खुद को तैयार करने का समय भी मिल जाएगा। यह तो थे जल्द उठने के कुछ फायदे। अब जल्द उठने के तरीके बताऊंगा: * यकायक कोई बड़ा परिवर्तन न करें - यदि आप ८ बजे उठते हैं तो कल सुबह ५ बजे उठेने के लिए अलार्म नहीं लगायें। धीमी शुरुआत करें। कुछ दिनों के लिए समय से १५ मिनट पहले उठने लगें। एक हफ्ते बाद आधे घंटे (१५ मिनट बढाकर) पहले उठने लगें। ऐसा ही तब तक करें जब तक आप तय समय तक * थोड़ा जल्दी सोने का प्रयास करें - देर रात तक टी वी देखने या इन्टरनेट पर बैठने के कारण आपको देर से सोने की आदत होगी लेकिन यदि आप सवेरे जल्दी उठने की ठान लें तो यह आदत आपको बदलनी पड़ेगी। अगर आपको जल्द नींद न भी आती हो तो भी समय से कुछ पहले बिस्तर पर लेट जायें। चाहें तो कोई किताब भी पढ़ सकते हैं। अगर आप दिनभर काम करके खुद को थका देते हों तो आपको जल्द ही नींद आ जायेगी। 114 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अलार्म घड़ी को पलंग से दूर रखें - यदि आप अपनी घड़ी या मोबाइल में अलार्म लगाकर उसे सिरहाने रखते हैं तो सवेरे तय समय पर अलार्म बजने पर आप उसे बंद कर देते हैं या स्नूज़ कर देते हैं। उसे पलंग से दूर रखने पर आपको उसे बंद करने के लिए उठना ही पड़ेगा। एक बार आप पलंग से उतरे नहीं कि आप अपने पैरों पर होंगे! अब पैरों पर ही बनें रहें और काम में लग जायें। * अलार्म बंद करते ही बेडरूम से निकल जायें - अपने दिमाग में बिस्तर पर फ़िर से जाने का ख्याल न आने दें। कमरे से बाहर निकल जायें। मेरी आदत है कि मैं उठते ही बाथरूम चला जाता हूँ। बाथरूम से निकलने के बाद ब्रश करते ही दिन शुरू हो जाता है। ___* उधेड़बुन में न रहें - यदि आप सोचते रहे कि उठें या न उठें तो आप उठ नहीं पाएंगे। बिस्तर पर जाने का ख्याल मन में आने ही न दें। * अच्छा कारण चुनें - सुबह-सुबह करने के लिए कोई ज़रूरी काम चुन लें। इससे आपको जल्दी उठने में मदद मिलेगी। मैं सवेरे ब्लॉग पर लिखना पसंद करता हूँ - यह मेरा कारण है। जब यह काम हो जाता है तब मैं आपके कमेंट्स पढ़ना पसंद करता हूँ। * जल्दी उठने को अपना पारितोषक बनायें - शुरू में यह लग सकता है कि आप जल्दी उठने के चक्कर में खुद को सता रहे हैं। लेकिन यदि आपको इसमें आनंद आने लगा तो आपको यह एक उपहार/पुरस्कार लगने लगेगा। मेरा पारितोषक है गरमागरम कॉफी बनाकर किताब पढ़ना। स्वादिष्ट नाश्ता बनाकर खाना या सूर्योदय देखना या ध्यान करना आपका पारितोषक हो सकता है। कुछ ऐसा ढूंढें जिसमें आपको वास्तविक आनंद मिलता हो और उसे अपनी प्रातः दिनचर्या का अंग बना लें। ___ * बाकी बचे हुए समय का लाभ उठायें - सिर्फ १-२ घंटा पहले उठकर कम्प्युटर पर ज्यादा काम या ब्लॉगिंग करने में कोई तुक नहीं है। यदि यही आपका लक्ष्य है तो कोई बात नहीं। जल्दी उठकर मिले अतिरिक्त समय का दुरुपयोग न करें। अपने दिन को बेहतर शुरुआत दें। मैं बच्चों का लंच बनाता हूँ, दिन में किए जाने वाले कामों की योजना बनाता हूँ, कसरत/ध्यान करता हूँ, पढता हूँ। सुबह के ६:३० तक तो मैं इतना कर चुका होता हूँ जितना दूसरे कई लोग दिनभर में करते हैं। 115 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदान्त का मर्म यह उस समय की बात है जब स्वामी विवेकानंद १८९८ में पेरिस में थे। उन्हें वहां एक इटालियन डचेस ने कुछ समय के लिए निमंत्रित किया था। एक दिन डचेस स्वामीजी को शहर से बाहर घुमाने के लिए ले गयी। उन दिनों मोटर-गाडियां तो चलती नहीं थीं इसलिए उन्होंने एक घोडागाडी किराये पर ली हुई थी। यहाँ यह बता देना ज़रूरी है की स्वामीजी चुटकियों में विदेशी भाषा सीख जाते थे। कुछ समय पेरिस में रहने पर वे कामचलाऊ फ्रेंच बोलना सीख गए। डचेस ने स्वामीजी को अंगरेजी में बताया - "यह घोडागाडी वाला बहुत अच्छी फ्रेंच बोलता है।" वे लोग जब बातचीत कर रहे थे तब घोडागाडी एक गाँव के पास से गुज़र रही थी। सड़क पर एक बूढी नौकरानी एक लड़केलडकी का हाथ पकड़ कर उन्हें सैर करा रही थी। घोडागाडी वाले ने वहाँ गाडी रोकी, वह गाडी से उतरा और उसने बच्चों को प्यार किया। बच्चों से कुछ बात करने के बाद वह फ़िर से घोडागाडी चलाने लगा। डचेस को यह सब देखकर अजीब लगा। उन दिनों अमीर-गरीब के बीच कठोर वर्ग विभाजन था। वे बच्चे "अभिजात्य" लग रहे थे और घोडागाडी वाले का इस तरह उन्हें प्यार करना डचेस की आंखों में खटका। उसने गाडीवाले से पूछा की उसने ऐसा क्यों किया। गाडीवाले ने डचेस से कहा - "वे मेरे बच्चे हैं। क्या आपने पेरिस में 'अमुक' बैंक का नाम सुना है?" डचेस ने कहा - "हां, यह तो बहुत बड़ा बैंक था लेकिन मंदी में घाटा होने के कारण वह बंद हो गया।" गाडीवाले ने कहा - "मैं उस बैंक का मैनेजर था। मैंने उसे बरबाद होते हुए देखा। मैंने इतना घाटा उठाया है कि उसे चुकाने में सालों लग जायेंगे। मैं गले तक क़र्ज़ में डूबा हुआ हूँ। अपनी पत्नी और बच्चों को मैंने इस गाँव में किराये के मकान में रखा है। गाँव की यह औरत उनकी देखभाल करती है। कुछ रकम जुटा कर मैंने यह घोडागाडी ले ली और अब इसे चलाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूँ। क़र्ज़ चुका देने के बाद मैं फिर से एक बैंक खोलूँगा और उसे विकसित करूँगा।" उस व्यक्ति का आत्मविश्वास देखकर स्वामीजी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने डचेस से कहा - "यह व्यक्ति वास्तव में वेदांती है। इसने वेदांत का मर्म समझ लिया है। इतनी ऊंची 116 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाजिक स्तिथि से नीचे गिरने के बाद भी अपने व्यक्तित्व और कर्म पर उसकी आस्था डिगी नहीं है। यह अपने प्रयोजनों में अवश्यसफल होगा। ऐसे लोग धन्य हैं." 117 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बूढा आदमी और सुनार एक बूढा आदमी एक सुनार के पास किसी काम से गया। उसने सुनार से कहा - "क्या तुम मुझे अपनी सोना तौलनेवाली तराजू कुछ समय के लिए दे सकते हो? मुझे अपना सोना तौलना है।" सुनार ने जवाब दिया - "माफ़ करें, मेरे पास छन्नी नहीं है।" "मेरा मजाक मत उड़ाओ" - बूढा बोला - "मैंने तुमसे तराजू माँगी है, छन्नी नहीं!" "लेकिन मेरे पास झाडू भी नहीं है" - सुनार बोला। "अरे भाई, बहरे हो क्या?" - बूढा झल्ला कर बोला। "मैं बहरा नहीं हूँ दादाजी, मैंने सब सुन लिया" - सुनार बोला - "बुढापे के कारण आपके हाथ कांप रहे हैं और और आपका सोना इतने बारीक टुकडों में है। अगर आप इसे तौलोगे तो यह जमीन पर बिखर जाएगा। फ़िर आप इस उठाने के लिए मुझसे झाडू मांगोगे और उसके बाद धूल-मिट्टी से सोना अलग करने के लिए छन्नी मांगोगे"। 118 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहने के लिए घर किसी बड़ी भवन निर्माण कंपनी में काम करनेवाला मुख्य इंजीनियर जल्द ही रिटायर होनेवाला था। उसने कंपनी के मालिक से कहा कि अब वह जल्द ही रिटायर होकर अपने परिवार के साथ आनंद से रहेगा हांलाकि रिटायर होने के बाद उसे घर चलाना मुश्किल हो जाएगा और किराये के मकान में रहना पड़ेगा। कंपनी के मालिक ने उससे कहा कि वह चाहे तो कंपनी में कुछ समय और काम कर सकता है। वह इतने अच्छे इंजीनियर को कंपनी से जाने नहीं देना चाहता था। इंजीनियर ने बार-बार कहा कि अब उससे और काम करते नहीं बनता और उसे आराम दे दिया जाए। मन मसोसकर मलिक ने उससे कहा कि रिटायर होने से पहले एक बहुत बढ़िया घर बना दो जो उसे इंजीनियर की हमेशा याद दिलाता रहे। इंजीनियर ने उस समय तो हां कर दी लेकिन काम में उसका दिल नहीं लग रहा था। उसने बहुत औसत दर्जे का नक्शा बनाया और कारीगरों से भी बेहतर काम नहीं करवाया। वह बनते हुए घर का निरीक्षण करने भी नहीं जाता था। ठेकेदार और मजदूरों ने इसका फायदा उठाया और घर में घटिया सामग्री लगाई। वह घर जैसे-तैसे इंजीनियर के रिटायर होते-होते बन ही गया। घर के पूरी तरह तैयार हो जाने पर कंपनी का मालिक उसे देखने आया। उसने घर को देखा। फ़िर उसने घर के दरवाज़े की चाबी इंजीनियर को देते हुए कहा - "यह घर आपको मेरी ओर से उपहार है। अब यह घर आपका है।" इंजीनियर यह सुनकर स्तब्ध रह गया। यदि उसे पता होता कि मालिक वह घर उसे उपहार में देनेवाले हैं तो वह इसे सबसे अच्छी तरह से बनाता। लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। 119 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलिस्टन फिश की वसीयत १ - सबसे पहले अच्छे माताओं और पिताओं को अपने बच्चों को देने के लिए प्यारेप्यारे निराले नाम और प्रशंसा के मीठे शब्द। माता-पिता उन्हें जिस समय जैसी ज़रूरत हो वैसे प्रयोग में लायें। २ - यह सिर्फ बच्चों के लिए है वह भी तभी तक जब वे छोटे बच्चे हैं। ये चीजें हैं खेतों और मैदानों में खिले रंगबिरंगे खुशबूदार फूल... बच्चे उनके चारों ओर वैसे ही खेलें जैसे वे खेलना चाहें, बस काँटों से बचें। पीली सपनीली खाडी के परे झील के तट पर बिछी रेत उनकी है... जहाँ लहरों पर टिड्डे सवारी कर रहे हों और हवाओं में सरकंडों की महक घुली हो। बड़ेबड़े पेड़ों पर टिके हुए सन से सफ़ेद बादल भी मैं बच्चों के नाम करता हैं। इसके अलावा सैंकडों-हजारों तरीकों से मौज-मस्ती करने के लिए मैं बच्चों को लंबे-लंबे दिन देता हूँ। रात को वे चाँद और सितारों से मढे हुए आसमान और आकाशगंगा को देखकर स्तब्ध हो जायें - और... (वैसे रात पर प्रेमियों का भी उतना ही हक है) मैं हर बच्चे को यह अधिकार देता हूँ कि वह अपने लिए एक तारा चुन ले। बच्चे के पिता की यह जिम्मेदारी होगी कि वह बच्चे को उस तारे का नाम बताये ताकि बच्चा उसे कभी न भूले, भले ही वह पूरा ज्योतिर्विज्ञान भूल जाए। ३ - थोड़े बड़े लड़कों के लिये - ऐसे बड़े-बड़े मैदान जहाँ वे गेंद से खेल सकें, बर्फ से ढकी चोटियाँ जहाँ चढ़ना मुनासिब हो, झरने और लहरें जिनमें उतरा जा सके, सारे चारागाह जहाँ तितलियों का डेरा हो, ऐसे जंगल जहाँ गिलहरियाँ फदकें और तरह-तरह की चिडियां चहचहाएं, दूरदराज़ की ऐसी जगहें जहाँ जाना मुमकिन हो - ऐसी सभी जगहों में मिलनेवाले रोमांच पर भी लड़कों का हक हो। सर्द रातों में जलती हुई आग के इर्द-गिर्द बैठकर अंगारों में शक्लें ढूँढने का बेरोकटोक काम मैं लड़कों के सुपुर्द करता हूँ। ४ - प्रेमियों के लिये मैं वसीयत करता हूँ उनकी सपनों की दुनिया जहाँ उनकी ज़रूरत की सारी चीजें हों - चाँद-सितारे, लाल सुर्ख गुलाब के फूल जिनपर ओस की बूंदें हों, मादक स्वरलहरियां, और उनके प्रेम और सौन्दर्य की अनश्वरता का अहसास। ५- युवकों के लिये मैं चुनता हूँ बहादुरी, पागलपन, झंझावात, बहस-मुबाहिसे, कमजोरी की अवहेलना और ताक़त का जूनून। हो सकता है कि वे कठोर व अशिष्ट हो जायें... मैं उन्हें इस बात की आज़ादी देता हूँ कि वे ताउम्र की दोस्ती और दीवानगी को निभाएं। उनके लिये मैंने चुने हैं रगों में तूफ़ान भर देनेवाले जोशीले गीत जिन्हें वे सब मिलकर गायें, मौज मनाएँ। 120 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ - और उनके लिये जो न तो बच्चे हैं, न किशोर, न युवा, और न प्रेमी... उनके लिये मैं यादें छोड़ता हूँ। सारी पुरानी कवितायें और गीत उनके हैं, उन्हें यह याद दिलाने के लिये कि उन्हें उन्मुक्त और भरपूर ऐसी जिंदगी जीना है जिसमें कुछ बकाया न रह गया हो। उनके लिये जो न तो बच्चे हैं, न किशोर, न युवा, और न प्रेमी... उनके लिये यही काफी है कि वे इस दुनिया को जानते रहें, समझते रहें... यह दुनिया असीम है। ***** विलिस्टन फिश की इस वसीयत को The Hobo's will या The Last Will of Charles Launsbury भी कहते हैं। यह पहली बार एक पत्रिका में १८९८ में प्रकाशित हुई। इसके कई वर्ज़न हैं। यहाँ इसके अनुवाद में मैंने कुछ स्वतंत्रता ली है। 121 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेजोड़ कप इकक्यु नामक एक ज़ेन साधक बचपन से ही बहुत विद्वान् थे। उनके गुरु के पास एक बेजोड़ और बेशकीमती चाय का कप था। एक दिन साफ़-सफाई के दौरान इकक्यु से वह कप टूट गया। इकक्यु परेशान हो गए। उन्हें अपने गुरु के आने की आहट सुनाई दी। इकक्यु ने कप को अपने पीछे छुपा लिया। गुरु के सामने आ जाने पर उन्होंने पूछा - "लोग मरते क्यों "मरना तो प्राकृतिक है" - गुरु ने कहा - "हर वह चीज़ जिसकी उम्र हो जाती है वह मर जाती है।" __इकक्यु ने गुरु को टूटा हुआ कप दिखाया और बोले - "आपके कप की भी उम्र हो चली थी." 122 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनहूस पेड़ एक आदमी के बगीचे में एक पेड़ था। बगीचा छोटा था और पेड़ ने उसे पूरी तरह से ढंक रखा था। एक दिन आदमी के पड़ोसी ने उससे कहा - "ऐसे पेड़ मनहूस होते हैं। तुम्हें इसे काट देना चाहिए।" आदमी ने पेड़ को काट दिया और उसके जलावन के लठे बना दिए। लठे इतने ज्यादा थे कि पूरा बगीचा उनसे भर गया। बगीचे के पौधे और फूल लठ्ठों के नीचे दबकर ख़राब होने लगे। आदमी के पड़ोसी ने उससे कहा - "इन लट्ठों को मैं ले लेता हूँ ताकि तुम्हारे पौधे और फूल सही-सलामत रहें।" कुछ दिनों के बाद आदमी के मन में विचार आया - "शायद मेरा पेड़ मनहूस नहीं था। जलावन की लकड़ी के लालच में आकर पड़ोसी ने मेरा अच्छा-भला पेड़ कटवा दिया।" - वह लाओ-त्जु के पास इस बारे में राय लेने के लिए गया। लाओ-त्जु ने मुस्कुराते हुए कहा - "जैसा कि तुम्हारे पड़ोसी ने कहा था, वह पेड़ वास्तव में मनहूस था क्योंकि उसे अब काटकर जलाया जा चुका है। यह उस पेड़ का दुर्भाग्य ही था कि वह तुम जैसे मूर्ख के बगीचे में लगा था।" यह सुनकर आदमी बहुत दुखी हो गया। लाओ-त्जु ने उसे सांत्वना देते हुए कहा - "अच्छी बात यह है कि तुम अब उतने मूर्ख नहीं हो; तुमने पेड़ को तो खो दिया लेकिन एक कीमती सबक सीख लिया है। इस बात को हमेशा ध्यान में रखना कि जब तक तुम स्वयं अपनी समझ पर भरोसा न कर लो तब तक किसी दूसरे की सलाह नहीं मानना।" 123 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा: पेन्सिल का संदेश पेंसिल बनानेवाले ने पेन्सिल उठाई और उसे डब्बे में रखने से पहले उसने पेन्सिल से "इससे पहले कि मैं तुम्हें लोगों के हाथ में सौंप दूँ, मैं तुम्हें ५ बातें बताने जा रहा हूँ जिन्हें तुम हमेशा याद रखना, तभी तुम दुनिया की सबसे अच्छी पेंसिल बन सकोगी। पहली तुम महान विचारों और कलाकृतियों को रेखांकित करोगी, लेकिन इसके लिए तुम्हें स्वयं को सदैव दूसरों के हाथों में सौंपना पड़ेगा। दूसरी तुम्हें समय-समय पर बेरहमी से चाकू से छीला जाएगा लेकिन अच्छी पेन्सिल बनने के लिए तुम्हें यह सहना पड़ेगा । तीसरी तुम अपनी गलतियों को जब चाहे तब सुधर सकोगी । चौथी - तुम्हारा तुम्हारा सबसे महत्वपूर्ण भाग तुम्हारे भीतर रहेगा। - और पांचवी तुम हर सतह पर अपना निशान छोड़ जाओगी। कहीं भी समय हो, तुम लिखना जारी रखोगी।" - कैसा भी पेन्सिल ने इन बातों को समझ लिया और कभी न भूलने का वादा किया। फ़िर वह डब्बे के भीतर चली गयी। अब उस पेन्सिल के स्थान पर आप स्वयं को रखकर देखें। उसे बताई गयी पाँचों बातों को याद करें, समझें और आप दुनिया के सबसे अच्छे व्यक्ति बन पाएंगे। पहली - आप दुनिया में सभी अच्छे और महान कार्य कर सकेंगे यदि आप स्वयं को ईश्वर के हाथ में सौंप दें। ईश्वर ने आपको जो अमूल्य उपहार दिए हैं उन्हें आप औरों के साथ बाँटें । दूसरी आपके साथ भी समय-समय पर कटुतापूर्ण व्यवहार किया जाएगा और आप जीवन के उतार-चढाव से जूझेंगे लेकिन जीवन में बड़ा बनने के लिए आपको वह सब झेलना ज़रूरी होगा। तीसरी आपको भी ईश्वर ने इतनी शक्ति और बुद्धि दी है कि आप अपनी गलतियों को कभी भी सुधार सकें और उनका पश्चाताप कर सकें। 124 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथी - जो कुछ आपके भीतर है वही सबसे महत्वपूर्ण और वास्तविक है। और पांचवी - जिस राह से आप गुज़रें वहां अपने चिन्ह छोड़ जायें। चाहे कुछ भी हो जाए, अपने कर्तव्यों से विचलित न हों। इस पेन्सिल की कहानी का मर्म समझकर स्वयं को यह बताएं कि आप साधारण व्यक्ति नहीं हैं और केवल आप ही वह सब कुछ पा सकते हैं जिसे पाने के लिए आपका जन्म हुआ है। कभी भी अपने मन में यह ख्याल न आने दें कि आपका जीवन बेकार है और आप कुछ नहीं कर सकते! 125 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिमान बालक किसी नगर में रहनेवाला एक धनिक लम्बी तीर्थयात्रा पर जा रहा था। उसने नगर के सभी लोगों को यात्रा की पूर्वरात्रि में भोजन पर आमंत्रित किया। सैंकड़ों लोग खाने पर आए। मेहमानों को मछली और मेमनों का मांस परोसा गया। भोज की समाप्ति पर धनिक सभी लोगों को विदाई भाषण देने के लिए खड़ा हुआ। अन्य बातों के साथ-साथ उसने यह भी कहा - "परमात्मा कितना कृपालु है कि उसने मनुष्यों के खाने के लिए स्वादिष्ट मछलियाँ और पशुओं को जन्म दिया है"। सभी उपस्थितों ने धनिक की बात में हामी भरी। भोज में एक बारह साल का लड़का भी था। उसने कहा - "आप गलत कह रहे हैं।" लड़के की बात सुनकर धनिक आश्चर्यचकित हुआ। वह बोला - "तुम क्या कहना चाहते हो?" लड़का बोला - "मछलियाँ और मेमने एवं पृथ्वी पर रहनेवाले सभी जीव-जंतु मनुष्यों की तरह पैदा होते हैं और मनुष्यों की तरह उनकी मृत्यु होती है। कोई भी प्राणी किसी अन्य प्राणी से अधिक श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण नहीं है। सभी प्राणियों में बस यही अन्तर है कि अधिक शक्तिशाली और बुद्धिमान प्राणी अपने से कम शक्तिशाली और बुद्धिमान प्राणियों को खा सकते हैं। यह कहना गलत है कि ईश्वर ने मछलियों और मेमनों को हमारे लाभ के लिए बनाया है, बात सिर्फ इतनी है कि हम इतने ताक़तवर और चालक हैं कि उन्हें पकड़ कर मार सकें। मच्छर और पिस्सू हमारा खून पीते हैं तथा शेर और भेड़िये हमारा शिकार कर सकते हैं, तो क्या ईश्वर ने हमें उनके लाभ के लिए बनाया है?" च्वांग-त्जु भी वहां पर मेहमानों के बीच में बैठा हुआ था। वह उठा और उसने लड़के की बात पर ताली बजाई। उसने कहा - "इस एक बालक में हज़ार प्रौढों जितना ज्ञान है।" 126 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुम हुई कुल्हाड़ी लाओत्जु ने अपने शिष्यों से एकदिन कहा "एक आदमी की कुल्हाड़ी कहीं खो गयी। उसे घर के पास रहनेवाले एक लड़के पर शक था कि कुल्हाड़ी उसने ही चुराई है। जब भी आदमी उस लड़के को देखता, उसे लगता कि लड़के की आंखों में अपराधबोध है। लड़के के हाव-भाव, बोलचाल, और आचरण से आदमी का शक यकीन में बदल गया कि वह लड़का ही चोर है। एक दिन आदमी अपने घर में साफ़-सफाई कर रहा था तो उसे अपनी खोयी हुई कुल्हाड़ी घर में ही कहीं रखी मिल गई। उसे याद आ गया कि वह अपनी कुल्हाड़ी उस जगह पर रखकर भूल गया था। उसी दिन उसने उस लड़के को देखा जिसपर वह कुल्हाड़ी चुराने का शक करता था। उस दिन उसे लड़के के हाव-भाव, बोलचाल, और आचरण में जरा सा भी अपराधबोध नहीं प्रतीत हो रहा था।" लाओत्जु ने शिष्यों से कहा "सत्य को देखने की चाह करने से पहले यह देख लो कि तुमने मन की खिड़कियाँ तो बंद नहीं कर रखी हैं"। - 127 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राबिया की कहानी आज मैं आपको इस्लाम में सूफी परम्परा की एक अत्यन्त महान महिला संत राबिया के बारे में बताऊंगा। राबिया के विषय में बस इतना ही ज्ञात है कि उनका जन्म अरब में आठवीं शताब्दी में हुआ था। वे साधुओं की भांति समाज से दूर कुटिया बनाकर ईश्वर की आराधना में ही लीन रहती थीं । उनके बारे में कई कहानियाँ प्रचलित हैं। उनकी कुटिया में केवल एक चटाई, घड़ा, मोमबत्ती, कुरान और ठण्ड में ओढ़ने के लिए कम्बल रहता था। एक रात एक चोर उनकी कुटिया से कम्बल चुराकर ले जाने लगा। कुटिया से बाहर जाते समय उसने यह पाया कि दरवाज़ा बंद था और खुल नहीं पा रहा था। उसने कम्बल नीचे जमीन पर रख दिया। कम्बल नीचे रखते ही दरवाज़ा खुल गया। उसने कम्बल उठा लिया पर दरवाजा फ़िर से बंद हो गया । उसे कुटिया के कोने से किसी की आवाज़ सुनाई दी: "उसने तो सालों पहले ही मेरी शरण ले ली है। शैतान भी यहाँ आने से डरता है तो तुम जैसा चोर कैसे उसका कम्बल चुरा सकता है? बाहर चले जाओ! जब ईश्वर का मित्र सो रहा होता है तब स्वयं ईश्वर उसकी रक्षा के लिए उसके पास बैठा जाग रहा होता है।" मलिक नामक एक विद्वान एक दिन राबिया से मिलने गया। उसने औरों को राबिया के बारे में यह बताया "उसके पास एक घड़ा है जो वह पीने का पानी रखने और धोने के लिए इस्तेमाल करती है। वह जमीन पर चटाई बिछाकर सोती है और तकिये की जगह पर वह सर के नीचे ईंट लगा लेती है। उसकी गरीबी देखकर मैं रो पड़ा। मैंने उससे कहा कि मेरे कई धनी मित्र हैं जो उसकी सहायता करने के लिए तैयार हैं। " - "लेकिन राबिया ने मेरी बात सुनकर कहा - ''नहीं मलिक, क्या मुझे जीवन और भोजन देनेवाला वही नहीं है जो उन्हें भी जीवन और भोजन देता है? क्या तुम्हें यह लगता है कि वह गरीबों की गरीबी का ख्याल नहीं रखता और अमीरों की मदद करता है?" मलिक - "मैंने कहा "नहीं राबिया " । राबिया बोली "तुम ठीक कहते हो। जब उसे मेरी हालत का इल्म है तो मैं उससे किस बात का गिला-शिकवा करूँ? अगर वह मुझे ऐसे ही पसंद करता है तो मैं उसकी मर्जी से ही रहूंगी।" 128 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * एक दिन लोगों ने राबिया को दौड़ते हुए देखा। उसके एक हाथ में जलती हुई टहनी थी और दूसरे हाथ में पानी का बर्तन। किसी ने पूछा - "ओ राबिया, तुम कहाँ जा रही हो और क्या कर रही हो?"| राबिया ने कहा - "मैं स्वर्ग में आग लगाने और नर्क की लपटें बुझाने जा रही हूँ। ऐसा होने पर ही तुम यह जान पाओगे कि ये दोनों भ्रम हैं और तब तुम अपना मकसद हासिल कर पाओगे। जब तुम कोई परम सुख की कामना नहीं करोगे और तुम्हारे दिल में कोई उम्मीद और डर न रह जाएगा तभी तुम ईश्वर को पा सकोगे। आज मुझे कोई भी आदमी ऐसा नहीं दिखता जो स्वर्ग की लालसा और नर्क के भय के बिना ईश्वर की आराधना केवल ईश्वर को पाने के लिए करता हो।" 129 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अँधा बढई किसी गाँव में एक आदमी बढ़ई का काम करता था। ईमानदारी से काम करके वह जितनी भी कमाता था उसमें वह और उसका परिवार गुज़ारा कर लेते थे। उसकी पत्नी और बच्चे संतुष्ट रहते थे पर स्वयं बढ़ई के मन में असंतोष व्याप्त रहता था। वह स्वयं से कहता - "मैं बहुत गरीब हूँ और अपने परिवार को खुश नहीं रख पाता। अगर मेरे पास कुछ सोना आ जाए तो मैं और मेरा परिवार बहुत सुख से रहेंगे।" एक दिन वह बाज़ार से गुज़र रहा था। एक सुनार की दुकान पर उसने बिक्री के लिए रखे गए सोने के जेवर देखे। वह उन्हें बड़ी लालसा से देखता रहा और अचानक ही उसने एक जेवर उठा लिया और उसे ले भागा। दुकानदार यह देखकर चिल्लाया और आसपास खड़े लोग बढ़ई के पीछे भागने लगे। शोर सुनकर कुछ सिपाही भी वहां आ पहुंचे और सभी ने बढ़ई को घेरकर पकड़ लिया। उसे पकड़कर थाने ले गए और जेल में बंद कर दिया। च्वांग-त्जु उसे देखने के लिए गया और उसने उससे पूछा - "इतने सारे लोगों के आसपास होते हुए भी तुमने जेवर चुराने का प्रयास क्यों किया?" बढ़ई बोला - "उस समय मुझे सोने के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।" च्वांग-त्जु सुनार के पास गया और उससे बोला - "जिस व्यक्ति ने तुम्हारा जेवर चुराया वह स्वभाव से बुरा आदमी नहीं है। उसके लोभ ने उसे अँधा बना दियाऔर सभी अंधे व्यक्तियों की तरह हमें उसकी भी सहायता करनी चाहिए। मैं चाहता हूँ की तुम उसे जेल से मुक्त करवा दो।" सुनार इसके लिए सहमत हो गया। बढ़ई को रिहा कर दिया गया। च्वांग-त्जु एक महीने तक हर दिन उसके पास जाकर उसे 'जो मिले उसी में संतुष्ट रहने' का ज्ञान देता था। अब बढ़ई को सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगा। 130 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मछली फेंकनेवाला एक आदमी समुद्रतट पर चल रहा था। उसने देखा कि कुछ दूरी पर एक युवक ने रेत पर झुककर कुछ उठाया और आहिस्ता से उसे पानी में फेंक दिया। उसके नज़दीक पहुँचने पर आदमी ने उससे पूछा - "और भाई, क्या कर रहे हो?" युवक ने जवाब दिया - "मैं इन स्टारफिश को समुद्र में फेंक रहा हूँ।" "लेकिन इन्हें पानी में फेंकने की क्या ज़रूरत है?"-आदमी बोला। युवक ने कहा - "ज्वार का पानी उतर रहा है और सूरज की गर्मी बढ़ रही है। अगर मैं इन्हें वापस पानी में नहीं फेंकूगा तो ये मर जाएँगी"। आदमी ने देखा कि समुद्रतट पर दूर-दूर तक स्टारफिश बिखरी पड़ी थीं। वह बोला - "इस मीलों लंबे समुद्रतट पर न जाने कितनी स्टारफिश पड़ी हुई हैं। इस तरह कुछेक को पानी में वापस डाल देने से तुम्हें क्या मिल जाएगा?" युवक ने शान्ति से आदमी की बात सुनी, फ़िर उसने रेत पर झुककर एक और स्टारफिश उठाई। उसे आहिस्ता से पानी में फेंककर वह बोला : "इसे सब कुछ मिल जाएगा"। * * * * * लोरेन ईसली की कहानी 131 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या आप आदतन खर्चीले हैं? क्या आप आदतन खर्चीले हैं? अक्सर ऐसा होता होगा कि आप एक सामान लेने जाते हैं और तीन ले आते हैं। ऐसा भी होता होगा कि जिन चीज़ों की आपको ज़रूरत न हो उन्हें भी आप खरीद लेते होंगे। कहीं सेल लगी हो या स्पेशल ऑफर चल रहा हो तो आपकी जेब में हाथ चला जाता होगा ऐसा है तो आपमें ज्यादा खर्च करने की प्रवृति है जिसपर नियंत्रण होना चाहिए भले ही आपके पास धन की कितनी ही बहुतायत क्यों न हो। अपने खर्चों पर नियंत्रण के लिए और आदतन खर्चा करने से बचने के लिए नीचे बताये गए नुस्खों पर अमल करके देखें। अपने पास एक छोटा नोटपैड रखिये जिसमें आप उन चीज़ों को नोट करते जायें जिन्हें आप खरीदना चाहते हैं। बाज़ार में जायें तो इस नोटपैड को साथ रखें और वहां भी नोट करते जायें। भले ही आप दुकान से सामान लेते हों या ऑनलाइन, चीजें नोट कर लें और उनकी लिस्ट बना लें। आप उन चीज़ों को खरीदें या न खरीदें, उनकी लिस्ट बना लेने का फायदा यह होता है कि हमें यह पता चलने लगता है कि हमारे अवचेतन में पैसा खर्च करने के संस्कार कितने गहरे हैं। यदि आपको इसका भान न हो तो आप खर्च करने की आदत पर नियंत्रण न कर पाएंगे। अब इन नुस्खों पर अमल करके देखें: * बड़े मॉल या डिपार्टमेंटल स्टोर या सुपर बाज़ार से खरीददारी करने से बचें - वहां जाने भर से यह तय हो जाता है कि आप अनावश्यक खर्च करने जा रहे हैं चाहे तो किसी छोटी दु से सामान लें या फोन करके सिर्फ़ जरूरी सामान घर बुला लें। बड़े-बड़े मॉल या सुपर बाज़ार वाले आपकी जेब हलकी करना चाहते हैं. इसीलिए वे उन सामानों को सबसे पीछे या सबसे ऊपरी तल पर रखते हैं जो बेहद ज़रूरी हैं जैसे राशन का सामान। आपको खरीदना है राशन लेकिन आप दूसरे सामानों के बीच में से उन्हें देखते हुए गुज़रते हैं और आपके मन में उन्हें लेने की इच्छा जाग्रत हो जाती है, और आप ज्यादा खर्च कर बैठते हो। * जो सामान रोज़ ही लेना पड़ता हो उसे घर पर ही बुलाने लगें - यह अनुवादक का निजी अनुभव है। घर में दो छोटे बच्चे हैं और दूध तो रोज़ लगता ही है। पहले जब ज़रूरत होती थी तब अपने बेटे को गोद में लेकर कॉलोनी की दुकानों से दूध लेने चला जाता था। दुकान में बेटा दूसरी चीजें जैसी चौकलेट चिप्स लेने की जिद करता था और मैं ले बैठता था। बच्चे के मामले में कंजूसी मुझे पसंद नहीं है लेकिन चौकलेट चिप्स जैसी चीजें स्वास्थ्यकर नहीं हैं। इन चीज़ों की खरीद से बचने के लिए मैंने दुकानवाले को रोज़ दूध घर पर देने के लिए कह दिया 132 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। बच्चे के साथ दुकान जितना कम जाऊँगा, गैरज़रूरी सामान पर खर्चा भी उतना ही कम होगा। बच्चे को घर में ही स्वास्थ्यकर चीजें बनाकर देने लगे हैं। * सामान की लिस्ट बनाना - घर में जब कभी खरीदने के लिए कोई ज़रूरी सामान याद आ जाता है तो उसी समय उसे लिख लेता हूँ। बाज़ार जाता हूँ तो लिस्ट के अनुसार ही खरीददारी करता हूँ। बाज़ार जाने के पहले लिस्ट चेक कर लेता हूँ कि कोई सामान छूट तो नहीं रहा है। इस तरह बार-बार बाज़ार जाना बच जाता है. नतीजतन खर्चा भी कम होता है। * खर्च को टालने का प्रयास करें - इसके लिए एक ३०-दिवसीय लिस्ट बना शुरू कर दें। जब भी कुछ खरीदने कि इच्छा हो तो यह संकल्प कर लें कि इसे १ महीने बाद ही लेंगे। यदि १ महीने बाद भी उसे खरीदना ज़रूरी लगे तभी उसे खरीदें (पैसा होना भी ज़रूरी है)। लिस्ट में सामान नोट करते रहने से जागरूकता आती है और सामान लेना टाल देने के कारण आपकी आदत पर कुछ लगाम लगती है। * परिवार के साथ दूसरे तरीकों से समय व्यतीत करें - कई घरों में हफ्ते में एक बार या महीने में दो-तीन बार बाज़ार जाने का रिवाज़ होता है। बाज़ार जाते हैं तो ज़रूरी के साथ-साथ गैरज़रूरी सामान भी ले ही लेते हैं। हर परिवार में कोई-न-कोई तो पैसा-उडाऊ होता ही है। बाज़ार जाने के बजाय कहीं और जाने की आदत डाल लें जैसे पार्क या मन्दिर। अपने जानपहचानवालों के घर भी जा सकते हैं। ____ * किफायत से चलनेवाले को खरीददारी करने दें- अभी भी मेरी आदतन ज्यादा खर्च करने की प्रवृत्ति पर पूरा नियंत्रण नहीं हुआ है। भगवान का शुक्र है कि मेरी पत्नी किफायत से चलती है, इसीलिए मैं खरीददारी के लिए उसे आगे कर देता हूँ। वो मोल-भाव करने में भी एक्सपर्ट है। बंधी मुट्ठी से चलना पैसा बचाता है। पैसा खर्च करने पर नियंत्रण करने, किफायत से चलने, और पैसा बचाने के दूसरे तरीकों पर आगे और चर्चा करेंगे। तब तक के लिए, पढ़ते रहिये। यह पोस्ट लियो बबौटा के ब्लॉग जेन हैबिट्स से कुछ हेरफेर के साथ अनूदित की गई है। मूल पोस्ट आप यहाँ पढ़ सकते हैं। 133 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा और धर्मात्मा का संवाद च्वांग-त्जु एक बार एक राजा के महल में उसका आतिथ्य स्वीकार करने गया। वे दोनों प्रतिदिन धर्म-चर्चा करते थे। एक दिन राजा ने च्वांग-त्जु से कहा - "सूरज के निकलने पर दिए बुझा दिए जाते हैं। बारिश होने के बाद खेत में पानी नहीं दिया जाता। आप मेरे राज्य में आ गए हैं तो मुझे शासन करने की आवश्यकता नहीं है। मेरे शासन में हर तरफ़ अव्यवस्था है, पर आप शासन करेंगे तो सब कुछ व्यवस्थित हो जाएगा।" च्वांग-त्जु ने उत्तर दिया - "तुम्हारा शासन सर्वोत्तम नहीं है पर बुरा भी नहीं है। मेरे शासक बन जाने पर लोगों को यह लगेगा कि मैंने शक्ति और संपत्ति के लालच में राज करना स्वीकार कर लिया है। उनके इस प्रकार सोचने पर और अधिक अव्यवस्था फैलेगी। मेरा राजा बनना वैसे ही होगा जैसे कोई अतिथि के भेष में घर का मालिक बन बैठे।" राजा को यह सुनकर निराशा हुई। च्वांग-त्जु ने कहा - "चिड़िया घने जंगल में अपना घोंसला बनाती है पर पेड़ की एक डाल ही चुनती है। पशु नदी से उतना ही जल पीते हैं जितने से उनकी प्यास बुझ जाती है। भले ही कोई रसोइया अपने भोजनालय को साफ़-सुथरा नहीं रखता हो पर कोई पुजारी उसका स्थान नहीं ले सकता।" 134 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तफ़ान में मछुआरे बहुत पुरानी बात है। समुद्र के किनारे मछुआरों का एक गाँव था। एक शाम सभी मछुआरे अपनी-अपनी नावें लेकर मछली पकड़ने के लिए समुद्र में चले गए। जब रात गहराने लगी तब एक शक्तिशाली तूफ़ान घिर आया। मछुआरों की नावें अपना रास्ता भटक गयीं और समुद्र में यहाँ-वहां बिखर गयीं। उधर गाँव में मछुआरों की पत्नियाँ, माएं, और उनके बच्चे समुद्रतट पर आ गए और ईश्वर से उनके परिजनों को बचाने के लिए प्रार्थना करने लगे। वे सभी बड़े दुखी थे और रो रहे थे। तभी एक दूसरा संकट आ पड़ा। एक मछुआरे की झोपड़ी में आग लग गई। चूंकि गाँव के सभी पुरूष मछली पकड़ने गए थे इसलिए कोई भी आग नहीं बुझा पाया। जब सुबह हुई तब सबकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा क्योंकि सभी मछुआरों की नावें सुरक्षित तट पर लग गयीं थीं। कोई भी दुखी नहीं था पर जिस मछुआरे के घर में आग लग गई थी उसकी पत्नी ने अपने पति से मिलने पर उससे कहा - "हम बरबाद हो गए! हमारा घर और सारा सामान आग में जलकर राख हो गया!" लेकिन उसका पति हंसकर बोला - "ईश्वर को उस आग के लिए धन्यवाद दो! रात में जलती हुई झोपडी को देखकर ही तो हम सभी अपनी नावे किनारे पर लगा पाए!" 135 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काली नाक वाले बुद्ध एक बौद्ध भिक्षुणी निर्वाण प्राप्ति के लिए साधनारत थी । उसने भगवान् बुद्ध की एक मूर्ति बनवाई और उसपर सोने का पत्तर लगवाया। उस मूर्ति को वह जहाँ भी जाती अपने साथ ले जाती थी। साल-दर-साल गुजरते गए। वह भिक्षुणी अपने भगवान् की मूर्ति लेकर एक ऐसे मठ में रहने आ गई जहाँ बुद्ध की अनेकों मूर्तियाँ थीं । भिक्षुणी अपने 'बुद्ध के सामने रोज़ धूपबत्ती जलाया करती थी। लेकिन वह चाहती थी कि उसकी धूपबत्ती की सुगंध केवल उसके बुद्ध तक ही पहुंचे। इसके लिए उसने बांस की एक पोंगरी बनाई जिससे होकर धूपबत्ती का धुआं केवल उसके बुद्ध तक ही पहुँचने लगा। धुएँ के कारण उसके बुद्ध की नाक काली हो गई। 136 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनंद के चार कारण लाओ-त्जु एक मोटा फ़र का कोट पहनकर अपनी कमर पर एक रस्सी से उसे बांधकर अपने बैल पर यहाँ से वहां घूमता रहता था। अक्सर वह छोटे से इकतारे पर आनंद विभोर होकर गीत गाने लगता। एक दिन किसी ने उससे पूछा - "तुम इतने खुश क्यों हो?" लाओ-त्जु ने उत्तर दिया - "मैं चार कारणों से खुश हूँ। पहला यह है कि मैं एक मनुष्य हूँ और मनुष्य होने के नाते मैं उन सारी वस्तुओं और पदार्थों का उपभोग कर सकता हूँ जो केवल मनुष्यों को ही उपलब्ध हैं। दूसरा कारण यह है कि पुरूष होने के नाते मैं स्त्रियों की सुन्दरता का बखान कर सकता हूँ। तीसरा यह कि अब मैं बूढा हो गया हूँ और इस कारण मैं कम उम्र में मर जाने वालों की तुलना में अधिक जानता हूँ और ज्यादा दुनिया देख चुका हूँ। और चौथा और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि चूंकि अब मैं मरने के लिए तैयार हूँ इसलिए मुझे किसी प्रकार का भय और चिंता नहीं है।" 137 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरता का रहस्य किसी गाँव में एक वैद्य रहता था जो यह दावा करता था कि उसे अमरता का रहस्य पता है। बहुत से लोग उसके पास यह रहस्य मालूम करने के लिए आते थे। वैद्य उन सभी से कुछ धन ले लेता और बदले में उनको कुछ भी अगड़म-बगड़म बता देता था। उनमें से कोई यदि बाद में मर जाता था तो वैद्य लोगों को यह कह देता था कि उस व्यक्ति को अमरता का रहस्य ठीक से समझ में नहीं आया। उस देश के राजा ने वैद्य के बारे में सुना और उसको लिवा लाने के लिए एक दूत भेजा। किसी कारणवश दूत को यात्रा में कुछ विलंब हो गया और जब वह वैद्य के घर पहुंचा तब उसे समाचार मिला कि वैद्य कुछ समय पहले चल बसा था। दत डरते-डरते राजा के महल वापस आया और उसने राजा से कहा कि उसे यात्रा में विलंब हो गया था और इस बीच वैद्य की मृत्यु हो गई। राजा यह सुनकर बहुत क्रोधित हो गया और उसने दूत को प्राणदंड देने का आदेश दे दिया। त पर आए संकट के बारे में सुना। वह राजा के महल गया और उससे बोला - "आपके दूत ने पहुँचने में विलंब करके गलती की पर आपने भी उसे वहां भेजने की गलती की। वैद्य की मृत्यु यह सिद्ध करती है की उसे अमरता के किसी भी रहस्य का पता नहीं था अन्यथा उसकी मत्य ही नहीं हुई होती। रहस्य सिर्फ यही है कि ऐसा कोई भी रहस्य नहीं है। केवल अज्ञानी ही ऐसी बातों पर भरोसा कर बैठते हैं।" राजा ने दूत को क्षमादान दे दिया और मरने-जीने की चिंता से मुक्त होकर जीवन व्यतीत करने लगा। 138 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकरात की पत्नी सुकरात को पश्चिमी विद्वानों ने महान यूनानी दार्शनिक माना है, संत नहीं। दूसरी और, हम भारतवासियों ने उनमें आत्मस्थित दृष्टा की छवि देखी और उन्हें संतों की कोटि में रखा। आश्चर्य होता है कि आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व के संसार में सुकरात जैसा क्रन्तिकारी व्यक्तित्व हुआ जिसने मृत्यु का वरण करना स्वीकार किया लेकिन अपने दर्शन की अवज्ञा नहीं की। सुकरात की पत्नी जेंथीप बहुत झगड़ालू और कर्कशा थी। एक दिन सुकरात अपने शिष्यों के साथ किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। वे घर के बाहर धूप में बैठे हुए थे। भीतर से जेंथीप ने उन्हें कुछ कहने के लिए आवाज़ लगाई। सुकरात ज्ञानचर्चा में इतने खोये हुए थे कि जेंथीप के बुलाने पर उनका ध्यान नहीं गया। दो-तीन बार आवाज़ लगाने पर भी जब सुकरात घर में नहीं आए तो जेंथीप भीतर से एक घड़ा भर पानी लाई और सुकरात पर उड़ेल दिया। वहां स्थित हर कोई स्तब्ध रह गया लेकिन सुकरात पानी से तरबतर बैठे मुस्कुरा रहे थे। वे बोले: "मेरी पत्नी मुझसे इतना प्रेम करती है कि उसने इतनी गर्मी से मुझे राहत देने के लिए मुझपर पानी डाल दिया है।" * * * * * सुकरात का एक शिष्य इस पशोपेश में था कि उसे विवाह करना चाहिए या नहीं करना चाहिए। वह सुकरात से इस विषय पर सलाह लेने के लिए आया। सुकरात ने उससे कहा कि उसे विवाह कर लेना चाहिए। शिष्य यह सुनकर हैरान था। वह बोला - "आपकी पत्नी तो इतनी झगड़ालू है कि उसने आपका जीना दूभर किया हुआ है, फिर भी आप मुझे विवाह कर लेने की सलाह दे रहे हैं?" सुकरात ने कहा - "यदि विवाह के बाद तुम्हें बहुत अच्छी पत्नी मिलती है तो तुम्हारा जीवन संवर जाएगा क्योंकि वह तुम्हारे जीवन में खुशियाँ लाएगी। तुम खुश रहोगे तो जीवन में उन्नति करोगे और रचनाशील बनोगे। यदि तुम्हें जेंथीप की तरह पत्नी मिली तो तुम भी मेरी तरह दार्शनिक तो बन ही जाओगे! किसी भी परिस्तिथि में विवाह करना तुम्हारे लिए घाटे का सौदा नहीं होगा।" 139 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेनसूत्रों की पुस्तक यह बहुत पुरानी बात है। तेत्सुगेन नामक एक जापानी ज़ेनप्रेमी जेनसूत्रों का संग्रह करके उन्हें छपवाना चाहता था। उसके समय में ज़ेनसूत्र केवल चीनी भाषा में ही उपलब्ध थे। लकड़ी के सात हज़ार छापे बनाकर उनसे पुस्तक छापना बहुत बड़ा काम था और इसमें बहुत धन व समय भी लगता। इस काम के लिए तेत्सुगेन ने दूर-दूर की यात्रायें कीं और इसके लिए दान एकत्र किया। इस कार्य का महत्त्व समझनेवाले कुछ गुणी व्यक्तियों ने सामर्थ्य के अनुसार सोने के सिक्के देकर तेत्सुगेन की सहायता की। बहुत से लोग ऐसे भी थे जो केवल तांबे के सिक्के ही दे सकते थे। तेत्सुगेन ने सभी के दान को एक सामान मानकर उनका आभार व्यक्त किया। दस सालों की मेहनत के बाद तेत्सुगेन के पास कार्य प्रारम्भ करने के लिए पर्याप्त धन जमा हो गया। उसी समय उसके प्रांत में उजी नदी में बाढ़ आ गई। बाढ़ के बाद अकाल की बारी थी। तेत्सुगेन ने पुस्तक के लिए जमा किया सारा धन लोगों को अकालग्रस्त होने से बचाने में लगा दिया। फिर वह पहले की भांति धन जुटाने के काम में लग गया। कुछ साल और बीते देश पर महामारी का संकट आ पड़ा। तेत्सुगेन ने पुस्तक के लिए जमा किया हुआ धन फ़िर से लोगों की सहायता करने के लिए बाँट दिया । तेत्सुगेन ने तीसरी बार अपने उद्देश्य के निमित्त धन जुटाना प्रारम्भ किया। इस बार उसे ज़रूरी धन जुटाने में बीस साल लग गए। उसका कार्य पूर्ण हो गया। उसके द्वारा छपाई गई जेनसूत्रों की पुस्तक आज भी क्योटो के ओबाकू मठ में सुरक्षित रखी हुई है। आज भी जापान में लोग अपने बच्चों को तेत्सुगेन की पुस्तक के बारे में बताते हैं। वे कहते हैं कि उसकी पुस्तक के पहले दो संस्करण तीसरे संस्करण से बहुत अच्छे थे। 140 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधी मुठठी - खुली मुठी ज़ेन गुरु मोकुसेन हिकी के एक शिष्य ने एक दिन उनसे कहा की वह अपनी पत्नी के कंजूसी भरे स्वभाव के कारण बहुत परेशान था। मोकसेन उस शिष्य के घर गए और उसकी पत्नी के चहरे के सामने अपनी बंधी मुठ्ठी घुमाई। "इसका क्या मतलब है? - शिष्य की पत्नी ने आश्चर्य से पूछा। "मान लो मेरी मुट्ठी हमेशा इसी तरह कसी रहे तो तुम इसे क्या कहोगी?" - मोकुसेन ने पूछा। "मुझे लगेगा जैसे इसे लकवा मार गया है" - वह बोली। मोक्सेन ने अपनी मुठठी खोलकर अपनी हथेली पूरी तरह कसकर फैला दी और बोले - "और अगर यह हथेली हमेशा इसी तरह फैली रहे तो! इसे क्या कहोगी?" "यह भी एक तरह का लकवा ही है!" - वह बोली। "अगर तुम इतना समझ सकती हो तो तुम अच्छी पत्नी हो" - यह कहकर मोकुसेन वहां से चले गए। वह महिला वाकई इतनी समझदार तो थी। उसने अपने पति को फ़िर कभी शिकायत का मौका नहीं दिया। 141 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो घड़े एक मिट्टी का घड़ा और एक पीतल का घड़ा नदी किनारे घाट पर रखे हुए थे। नदी की धारा ने उन्हें नदी में खींच लिया और वे नदी में उतराते हुए बहने लगे। मिट्टी का घड़ा पानी की बड़ी-बड़ी लहरों को देखकर चिंतित हो गया। पीतल के घड़े ने उसे चिंतित देखकर दिलासा दिया - "परेशान मत हो, किसी भी संकट में मैं तुम्हारी सहायता करूँगा"। "अरे नहीं!" - मिट्टी का घड़ा भयभीत स्वर में बोला - "कृपा करके मुझसे जितना दूर रह सकते हो उतना दूर रहना! मेरे भय का वास्तविक कारण तुम ही हो। भले ही लहरें मुझे तुमसे टकरा दें या तुम्हें मुझसे टकरा दें, टूटना मुझे ही है।" 142 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग का आनंद मरने के कुछ ही क्षणों के भीतर जुआन ने स्वयं को एक बहुत सुंदर स्थान में पाया जहाँ इतना आराम और आनंद था जिसकी उसने कभी कल्पना भी न की थी। श्वेत वस्त्र पहने हए एक व्यक्ति उसके पास आकर उससे बोला: "आप जो भी चाहते हैं, आपको वो मिलेगा - कैसा भी भोजन, भोग-विलास, राग-रंग"। और जुआन ने वही किया जिसके सपने वो पूरी ज़िन्दगी देखता रहा था। कई सालों तक उस स्वर्गिक आनंद को भोगने के बाद एक दिन उसने श्वेत वस्त्र पहने व्यक्ति से पूछा: "मैं जो कुछ भी कभी करना चाहता था वह सब करके देख चुका हूँ। अब मैं कुछ काम करना चाहता हूँ ताकि स्वयं को उपयोगी अनुभव कर सकूँ। क्या मुझे कुछ काम मिलेगा?" "मैं क्षमा चाहता हूँ" - श्वेत वस्त्र पहने व्यक्ति ने कहा - "यही एकमात्र चीज़ है जो हम आपके लिए नहीं कर सकते। यहाँ कोई काम नहीं है"। "अजीब बात है!" - जुआन ने चिढ़कर कहा - "मैं इस तरह तो अनंतकाल तक यहाँ वक़्त नहीं गुजार सकता! इससे तो अच्छा होगा कि आप मुझे नर्क में भेज दें!" श्वेत वस्त्र पहने व्यक्ति ने उसके पास आकर धीमे स्वर में कहा : "और आपको क्या लगता है आप कहाँ हैं?" 143 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वज की अस्थियाँ स्पेन में एक ज़ालिम राजा था जो अपने पूर्वजों पर बहुत गर्व करता था। एक बार वह अपने किसी प्रान्त में भ्रमण पर गया हुआ था जहाँ वर्षों पहले हुए एक युद्ध में राजा के पिता वीरगति को प्राप्त हो गए थे। ठीक उसी जगह पर राजा ने एक साधू को अस्थियों के ढेर में कुछ ढूंढते हुए देखा। "तुम यहाँ क्या ढूंढ रहे हो?" - राजा ने पूछा। "क्षमा करें, महामहिम" - साधू ने कहा - "जब मैंने यह सुना कि आप यहाँ आनेवाले हैं तो मैंने सोचा कि इन अस्थियों के ढेर से मैं आपके पिता की अस्थियाँ ढूंढकर आपको दे दूँ क्योंकि वे आपके लिए बहुत मूल्यवान होंगीं। लेकिन बहुत प्रयास करने पर इस ढेर में मैं उन्हें ढूंढ नहीं पाया क्योंकि: ये सारी अस्थियाँ आम लोगों, गरीबों, भिखारियों, और गुलामों की हैं।" 144 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईर्ष्या का कारण एक बूढे साधू को को एक सम्राट ने अपने महल में आमंत्रित किया। "आपके पास कुछ भी नहीं है पर आपका संतोष देखकर मुझे आपसे ईर्ष्या होती है" - सम्राट ने कहा। "लेकिन आपके पास तो मुझसे भी कम है, महामहिम, इसलिए वास्तव में मुझे आपसे ईर्ष्या होती है" - साधू ने कहा। "आप ऐसा कैसे कह सकते हैं? मेरे पास तो इतना बड़ा राज्य है!" - सम्राट ने आश्चर्य से कहा। "इसी कारण से" - साधू बोला - "मेरे पास अनंत आकाश और संसार के समस्त पर्वत और नदियाँ हैं, सूर्य है और चंद्रमा है, मेरे हृदय में परमात्मा का वास है। और आपके पास केवल आपका राज्य है, महामहिम।" 145 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा की अंगूठी किसी ज़माने में कहीं एक राजा था जिसका राज दूर-दूर तक फैला हुआ था। अपने दरबार में उसने बहुत सारे विद्वानों को सलाहकार नियुक्त किया हुआ था। एक दिन वह कुछ सोचकर बहुत परेशान हो गया और उसने सलाह लेने के लिए विद्वानों को बुलाया। राजा ने उनसे कहा - "मुझे नहीं मालूम कि इसका मतलब क्या है... मुझे ऐसा लगता है कि कहीं कोई ऐसी अंगूठी है जिसे मैं अगर पहन लूँ तो मेरे राज्य में हर तरफ़ खुशहाली और व्यवस्था कायम हो जायेगी। मुझे ऐसी अंगूठी चाहिए। उसके मिलने पर ही मैं खुश होऊंगा। लेकिन अंगूठी ऐसी होनी चाहिए कि जब मैं खुश होऊं और उसे देखू तो मैं उदास हो जाऊं"। यह बड़ी अजीब बात थी। इसे सुनकर विद्वानों का भी सर घूम गया। वे सभी एक जगह एकत्र हो गए और उन्होंने ऐसी अंगूठी के बारे में खूब विचार-विमर्श किया। बहुत मंत्रणा करने के बाद उन्हें ऐसी एक अंगूठी बनाने का विचार आ गया जो बिल्कुल राजा के बताये अनुसार थी। उनहोंने राजा के लिए एक बेहतरीन अंगूठी बनवाई। उसपर लिखा था: "यह भी एक दिन नहीं रहेगा" 146 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपकी ब्लॉगिंग को व्यर्थ करनेवाली 9 गलतियाँ अक्सर ऐसा होता है कि मैं किसी ब्लॉग पर उपयोगी या रोचक जानकारी की तलाश प्रारम्भ करता हूँ पर कुछ ही देर में इतना खीझ जाता हूँ कि चंद मिनटों में ही ब्लॉग को बंद कर देता हूँ। कई ब्लॉग्स पर अच्छी पोस्टें होती हैं जिनको मैं ढूंढता रहता हूँ। उस ब्लॉग पर पहली बार आनेवाले को यदि कोई अच्छी पोस्ट नहीं खोजने पर नहीं मिलेगी तो वह ब्लॉग पर वापस क्यों आएगा? ब्लॉग की ख्याति तो उसपर बारम्बार आनेवाले पाठक ही बनाते हैं! जिस ब्लॉग पर आप पिछले कुछ समय से विज़िट करते रहे हों उसके ब्लॉगर को आप जानने लगते हैं। उस ब्लॉग की रूपरेखा, यहाँ तक कि ब्लॉगर की पोस्ट करने से सम्बंधित आदतों को भी आप जान जाते हो। आपको यह पता होता है कि वह ब्लॉग कितना उपयोगी / रोचक है। लेकिन नए विजिटरों को ये बातें पता नहीं होतीं और बहुत से मामलों में first impression is the last impression वाली बात सही साबित हो जाती है। पहली बार में ही यदि विजिटर को कुछ अच्छा लगता है तो उसे आपका प्रिय पाठक बनने में अधिक समय नहीं लगता। वह आपके ब्लॉग पर बार-बार आता है। इसके विपरीत, यदि विजिटर पहली बार ही आपके ब्लॉग को नापसंद कर बैठे तो वह अगली बार भला वहां क्यों आएगा ! यदि कुछ मिनटों के भीतर ही विजिटर को आपके ब्लॉग में उसके लायक कोई चीज़ नहीं मिलेगी तो वह आपके हाथ से शायद हमेशा के लिए चला जाएगा। वास्तव में, आपमें से बहुतों के साथ ऐसा हुआ होगा। यदि आप किसी पाठक को आकर्षित नहीं करते तो आप उसे खो देते हैं। यह बिल्कुल बिजनेस के सिद्धांत जैसा है जिसे आपकी दुकान में काम का माल नहीं मिलेगा वो दोबारा वहां नहीं आएगा। ये बात मैंने सिर्फ़ मिसाल के लिए कही है, अधिकतर लोगों के लिए ब्लॉग उनके विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम हैं और वे अपने ब्लौगों से भावनात्मक लगाव रखते हैं। :) हर छूटा हुआ पाठक किसी चूके हुए अवसर के समान है आपके अपने ब्लॉग को बड़ी मेहनत से प्रमोट किया, उसे सजाया-संवारा, दूसरों के ब्लौगों से सम्बद्ध किया, पूरे ब्लॉग जगत अपने आगमन की मुनादी की... लेकिन जब पाठक आपके ब्लॉग पर पहली बार आया तो आप उसे अपना नियमित पाठक या सब्स्क्राइबर या फॉलोवर नहीं बना सके। : ( 147 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपसे कहाँ चूक हो गई। ब्लॉग को बनाने और चलाने के किन पक्षों को आप गंभीरतापूर्वक अपने लिए उपयोगी नहीं बना पाए!? आज मैं आपको कई ब्लोगरों द्वारा दुहराई जा रही सबसे सामान्य गलतियों के बारे में बताऊँगा जिनके कारण नए पाठक उन ब्लॉगों से मुंह मोड़ लेते हैं। ये गलतियाँ आपके ब्लॉग को बरबाद कर सकती हैं। १- कम उपयोगी पोस्टें लगाना - जब भी मैं नए ब्लौगों पर जाता हूँ तब मैं सबसे पहले वहां यह देखता हूँ कि क्या वहां पर मेरी पसंद के विषयों जैसे ब्लॉगिंग, संगीत, फिल्में, साहित्य, जीवन-दर्शन, आदि पर उपयोगी/रोचक जानकारी है या नहीं। हम सभी के पास समय की कमी होती है और हम रोजाना सौ-पचास ब्लॉग नहीं देखते। हमें अपनी पसंद की चीज़ देखना भाता है। ऐसा कम ही होता है कि ब्लौगर इतना अच्छा लेखक हो और आप उसकी पोस्ट पूरी पढ़ लें भले ही वह विषय आपको प्रिय न हो। मेरे कुछ पसंदीदा ब्लौगर ऐसे हैं जो म नहीं खाते पर वे बहुत अच्छा लिखते हैं। ज्यादातर समय मैं काम की चीजें ढूंढता हूँ और किसी ब्लॉग के पहले पेज पर जाने पर यदि मुझे वहां एक भी काम की चीज़ नहीं मिलती तो मैं फ़ौरन ही वहां से निकल लेता हूँ। मुझे काम की बात पढ़नी है और जल्दी पढ़नी है। ब्लोगरों को चाहिए कि वे अपनी सबसे अच्छी और काम की पोस्टों को हमेशा पहले पेज पर ही कहीं लगा कर रखें ताकि उनके नए पाठकों को उन्हें खोजने में समस्या न हो। यदि आपके ब्लॉग के पहले पेज पर पाँच पोस्टें दिखती हैं जो बाज़ार में आनेवाले किसी नए प्रोडक्ट का रिव्यू हैं या किसी और ब्लॉग पर चल रही खटपट का ज़िक्र तो नया पाठक समझेगा कि आपके ब्लॉग में वैसी ही बातें छपती हैं और वह चला जाएगा। २- अनियमित पोस्टिंग करना - यदि आप जान जाते हैं कि ब्लॉग को अपडेट नहीं किया जा रहा है तो आप ब्लॉग से चले जाते हैं। हो सकता है कि उस ब्लॉग में पुरानी उपयोगी जानकारी हो पर ऐसा नया कुछ नहीं छापा जा रहा है कि आप उसे सबस्क्राइब करना या उसपर दोबारा आना पसंद करेंगे। किसी भी अच्छे ब्लॉग में सप्ताह में कम-से-कम दो पोस्टों का आना ज़रूरी है। एक हफ्ता गुज़र जाने पर तो ब्लॉग पर मकडी के जाले लगने लगते हैं। यह ब्लॉग की प्रकृति पर निर्भर करता है कि उसमें एक सप्ताह में कितनी पोस्टें छापी जायें। समसामयिक विषयों पर केंद्रित ब्लौगों पर हफ्ते में चार-पाँच बार पोस्टें की जानी चाहिए। अन्य ब्लौगों पर भी सप्ताह में दो-तीन पोस्ट कर देनी चाहिए। ३ - अनियमित पोस्टिंग की सूचना देना - यह बहुत बुरा विचार है। ज़रा सोचें यदि आपको कोई पोस्ट इससे प्रारम्भ होती मिले - "माफ़ करें, मैं पिछले कुछ समय से नियमित पोस्टें नहीं कर पा रहा हूँ, व्यस्तताएं बहुत बढ़ गई हैं। आगे से मैं नियमित पोस्टें किया 148 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करूँगा। यह लिखना तो ब्लॉग के लिए खतरे की घंटी के समान है। ऐसा लिखने का मौका नहीं आने दीजिये। यदि आप कुछ समय से नियमित पोस्ट न कर पा रहे हों तो कहीं से भी थोड़ा सा समय निकालें और एक धाँसू पोस्ट लिख डालें। अपने किसी टीम मेंबर को भी पोस्ट लिखने के लिए कह सकते हैं। न लिखने के कारणों पर कोई पोस्ट कदापि न लिखें। ४ - अपनी सर्वोत्तम पोस्ट न दिखाना - नए पाठक के लिए कई महीनों पुरानी आर्काइव में खोजबीन करना मुश्किल होता है। नया पाठक आपकी सबसे अच्छी पोस्टों को पहले पेज पर ही देखना चाहता है। ऐसा हो सकता है की आपके ब्लॉग में बहुत सारी अच्छी पोस्टें हों और जिन्हें पहले पेज पर लगा पाना सम्भव न हो पर आप ऐसा साइडबार में उनकी लिंक लगाकर कर सकते हैं। नए पाठकों के लिए ऐसी आठ-दस पोस्टों की लिंक लगा । अपने पाठकों का ख्याल करें और उनके लिए अपनी अच्छी पोस्टें सुलभ करें। ५ फ्लैशिंग या खिझाऊ विज्ञापन दिखाना - वैसे तो हिन्दी ब्लॉगिंग पर अभी गूगल ऐडसेंस की कृपा ठीक से नहीं हुई है फिर भी कभी-कभी किसी ब्लॉग पर मुझे फ्लैश विडियो के या किसी तरह के गतिमान / ध्वनियुक्त विज्ञापन या उससे मिलते जुलते विजेट दीखते हैं। यह ज़रूरी नहीं की वे किसी कंपनी या सर्विस प्रदाता के विज्ञापन ही हों, कभी-कभी ब्लौगर अपना स्वयं का विज्ञापन भी करते दीखते हैं जब यह सब मुझे घेरने लगता है तो मैं उस जगह से बाहर निकल आता हूँ। इससे खीझ आती है, ऊब होती है। अपने ब्लॉग पर ऐसी कोई चीज़ न लगायें जो आप किन्ही दूसरे ब्लौगों पर न देखना चाहें। - ६ ब्लॉगिंग को अपनी दुकान बनाना - - मैं ऐसे बहुत सारे ब्लॉग्स पर गया हूँ जिनकी विषय- वास्तु ने मुझे आकर्षित किया है। वे बहुत अच्छे ब्लॉग्स हैं सिवाय एक बात को छोड़कर - वे मुझे कुछ-न-कुछ बेचना चाहते हैं। कोई अपनी पोस्ट में अपने उत्पाद या सेवाएं प्रस्तुत करता है, कोई और साइडबार या लिंक्स लगाकर ऐसा करता है ये चीजें या तो उनकी स्वयं की होती हैं या उनकी कोई और वेबसाईट की होती हैं यह बात सही है कि मेरे कुछ ब्लौगर मित्र ऐसे भी हैं जो अपने उत्पादों या सेवाओ की जानकारी अपने ब्लॉग्स पर देते हैं लेकिन वे कुछ खरीदने की सलाह नहीं देते। यह अच्छी बात है। कभी-कभी अपने प्रोडक्ट्स की जानकारी देना किसी को बुरा नहीं लगता लेकिन हर पोस्ट में ऐसा नहीं करना चाहिए । - ७ बहुत लम्बी पोस्टें लगा देना इस पोस्ट में १० बिन्दु दिए गए हैं लेकिन फिर भी यह स्क्रीन पर लम्बी लगती है और इसे पूरा पढने में कुछ समय भी लगता है। यदि इस पोस्ट में २० बिन्दु होते तो मैं यह पोस्ट २ भागों में लगाता। कई लोग हर पोस्ट को पढने से पहले उसे सरसरी निगाह से स्कैन कर लेते हैं। अनुभवी लोग एक झलक में ही पोस्ट की उपयोगिता या रोचकता को भांप जाते हैं। बहुत लम्बी पोस्टों में कहीं बीच में यदि कोई काम 149 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की बात लिखी हुई है तो वह पढने से छूट भी सकती है। यह तो आप मानेंगे कि ज्यादातर लोगों के पास समय की कमी है। लोग बहुत लंबा लेख पढने से कतराते हैं। यदि लम्बी पोस्ट रखना ज़रूरी है तो बातों को नंबर या बुलेट लिस्ट लगाकर बिन्दुवार लगाना चाहिए। बहुत ज़रूरी वाक्यांशों को हाईलाईट कर देना चाहिए। पूरे-पूरे वाक्यों को हाईलाईट करना ठीक नहीं लगता। बोल्ड भी कर सकते हैं। इससे पाठक को सुविधा होती है। ८ - ब्लॉग को अस्तव्यस्त रखना - किसी भी ब्लॉग पर पोस्टों के आसपास, साइडबार में, टाइटल बैनर के नीचे, पेज के सबसे नीचे कभी-कभी इतना कुछ लगा दिया जाता है कि ब्लॉग की पाठय सामग्री गौण हो जाती है। ज्यादातर लोग ब्लॉग पर कई तरह के विजेट देखने नहीं आते, उन्हें आपकी पोस्ट से मतलब होता है। पोस्ट में भी ज़रूरत से ज्यादा और बड़े चित्रों को लगाने से पाठ छोटा लगने लगता है। मैंने भी जब यह ब्लॉग नया-नया बनाया था तब मैंने इसमें पच्चीसों तरह के ब्लॉग अग्रीगेटरों के कोड, स्लाइड-शो, फोटोग्राफ, अपनी पसंद की चीज़ों की लिंक्स और तरह-तरह के विजेट लगा दिए थे। मेरे ब्लॉग की पाठ्य सामग्री गंभीरता लिए होती है इसीलिए ब्लॉग को सीधा-सादा रखना ही श्रेयस्कर है। और फ़िर पिछले कुछ समय से मैं कम-से-कम में चला लेने में यकीन करने लगा हूँ, इसीलिए सबसे पहले मैंने अपने ब्लॉग पर अपरिग्रह के सिद्धांत का प्रयोग किया। आप भी अपने ब्लॉग से यहाँ-वहां के जितने भी तत्व निकाल सकते हैं उन्हें एक बार निकालकर देखें कि ब्लॉग की दर्शनीयता और उपयोगिता बढती है या नहीं। कोई भी विजेट या लिंक हटाने से पहले उसे कौपी करके सुरक्षित रख लें ताकि बाद में उसे इच्छा होने पर दोबारा लगा सकें। पठन-पाठन को पवित्र कर्म जानें। ९- उबाऊ या अनुपयुक्त शीर्षक लगाना - नया पाठक आपकी किसी उपयोगी पोस्ट को ढूंढ रहा है। वह आपकी पोस्टों की आर्काइव में जाता है लेकिन उसे वहां कुछ नहीं मिलता। कहीं ऐसा तो नहीं कि आपने अपनी ज़रूरी और अच्छी पोस्टों को अनुपयुक्त शीर्षक दिए हैं? "नई वेबसाइटें" शीर्षक के स्थान पर यदि आप लिखें "दस शानदार नई वेबसाइटें" तो बात में दम आ जाता है। दूसरा शीर्षक ज्यादा सूचनापरक है और भाव/रोचकता जगाता है। हो सकता है कि दोनों पोस्टों में एक ही बात कही गई हो लेकिन दूसरी पोस्ट को नज़रंदाज़ करना मुश्किल है। पोस्टों के शीर्षकों के चयन में समय और समझ दोनों लगायें। यह पोस्ट लियो बबौटा के ब्लॉग राइट ट इन से लेकर आवश्यक परिवर्तनों के साथ अनूदित की गई है। मूल पोस्ट आप यहाँ पढ़ सकते हैं। 150 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम लिखें पर अच्छा लिखें "कई दिनों का सुख-चैन एक ही दिन में बहुत कुछ करने की होड़ में बरबाद हो जाता है। एक सरल नियम का पालन करें और चैन से रहें - कम करें और अच्छा करें" -डेलाई टर्नर यूनिक्स प्रोग्रामिंग के जानकर शायद यह जानते हों, उनसे यह बात अक्सर कही जाती है - "ऐसे प्रोग्राम बनाओ जो सिर्फ एक काम करें और बेहतर करें" - यह यूनिक्स प्रोग्रामिंग का दर्शन है। यह बहुत अच्छी बात है और इसे लेखन गतिविधि पर भी लागू किया जा सकता है। अक्सर ऐसा होता है कि हमारे दिमाग में लिखने के लिए एक अस्पष्ट सा विचार होता है। इसी कारण से हम लिखना टालते रहते हैं क्योंकि हम समझ नहीं पाते कि हम करना क्या चाहते हैं - सब कुछ धंधला सा होता है, एक निरर्थक सा लक्ष्य (जैसे - आज मैं इस लिखूगा) हमारे सामने होता है। नतीजा, कुछ नहीं। ऐसे समय में यदि हम लिखने बैठे तो हम विचारों को केंद्रित नहीं कर पाते क्योंकि लिखने के प्रति हमने जो लक्ष्य बनाया था वह स्पष्ट नहीं था। एक दूसरी समस्या यह भी हो सकती है कि हम एक ही दिन में बहुत अधिक लिखने का प्रयास भी कर बैठते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हम उतना अच्छा नहीं लिख पाते जितना अच्छा हमें लिखना चाहिए था। इसीलिये आज केवल एक ही चीज़ लिखें और उसे अच्छे से लिखें। इन सुझावों पर ज़रा गौर करके देखिये: 1. अपने लेखन को सहज करें - यदि आप एक दिन में एक ही बात पर लिखने का संकल्प करेंगे तो यह पाएंगे कि आप अपनी लेखन ऊर्जा को एक ही बिन्दु पर केंद्रित कर सकते हैं। इस प्रकार आपके लेखन में सुधार होता है। आप सहज, स्वाभाविक और शांतचित्त होकर लिख पाते हैं। 2. स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित करें - यह कहने के बजाय कि "आज मैं इस चैप्टर पर काम करूँगा", या "इसपर लेख लिखूगा", या "ब्लॉग में पोस्ट लिखूगा" यह सोचना ज्यादा बेहतर होगा कि आप वस्तुतः क्या लिखना चाहते हैं। जो कुछ आप लिखना चाहते हैं उसका एक स्पष्ट खाका अपने दिमाग में बनायें। यह सोचने के स्थान पर कि आप "आज ब्लॉग में पोस्ट लिखेंगे" आप आँखें बंद करके यह देखने का प्रयास करें कि आपकी वह पोस्ट ब्लॉग में कैसी दिखेगी। आप चाहें तो मन ही मन में अपनी पोस्ट को सुन भी सकते हैं। इस मानसदर्शन का प्रयोग करते हुए आप यदि अपनी पोस्ट लिखेंगे तो 151 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाएंगे कि जैसी पोस्ट आपने लिखने का संकल्प किया था वैसी पोस्ट आपने लिख ली है। 3. अपना लक्ष्य पूर्वरात्रि में निर्धारित करें ऊपर बताया गया मानसदर्शन एक दिन पहले करना बेहतर होगा ताकि अगले दिन आप अपने लक्ष्य को पाने की दिशा में काम में लग जायें इस प्रकार आपको अपने लेखन के बारे में मनन करने के लिए पर्याप्त समय भी मिल जाता है। कभी-कभी नींद में सपने में भी आपको ऐसा कुछ देखने को मिलता है जो आपके लिए उपयोगी हो जाय। ऐसा बहुत कम लोगों के साथ ही होता है लेकिन यदि आप उन भाग्यशाली लोगों में आते हैं तो आपको अपने सिरहाने एक छोटा नोटपैड रख लेना चाहिए जिसमें आप आँखें खुलने पर उस बात को जल्द ही लिख लें क्योंकि सपने में देखी बात को भूलने में ज़रा भी देर नहीं लगती। 4. ज़रूरी बात पर ध्यान केंद्रित करें किसी ऐसी बात को लिखने में अपनी ऊर्जा व्यर्थ करने में कोई तुक नहीं यदि वह बात बहुत साधारण हो, अर्थात उसे लिखने से कोई फर्क न पड़ता हो। यह सही है कि लेखन अच्छी कला है लेकिन इसे बुद्धिमतापूर्ण ही अपना मूल्यवान समय देना चाहिए। अतः आप वही बात लिखने में अपनी शक्ति लगायें जिसे लिखने से कुछ प्रभाव पड़ता हो, जिसपर लोगों का ध्यान जाए चाहे वह किसी पत्रिका में छपनेवाला लेख हो या कोई उपन्यास या कोई ब्लॉग पोस्ट। यदि आप सीमित मात्र में लिखते हैं तो यह सुझाव आपके लिए उपयोगी होगा। समय का बंटवारा करें यदि आपके जीवन में लिखने के अलावा और भी काम हैं (जो कि अधिकांश लोगों के साथ होता है) तो यह ज़रूरी होगा कि आप लेखन को देनेवाले समय को सुनिश्चित कर दें। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप सवेरे लिखते हैं या दोपहर में या देर रात को कोई एक प्रहर तय कर लें जब आप और आपके लेखन के बीच कोई व्यवधान न आए। 5. - - - 6. अपनी समस्त ऊर्जा का दोहन करें स्पष्ट लक्ष्य लेकर अपने मन को एकाग्र करके जब आप लिखने के लिए बैठें तब यह बात अपने मन में दोहराते रहें कि आपको इस कार्य में अपनी समस्त ऊर्जा उड़ेल देनी है। सभी व्यवधानों को हटा कर लेखन कार्य में डूब जायें। एक बार आप स्वयं को यहाँ-वहां के भटकाव से हटाकर एकाग्र चित्त होकर लेखन कार्य में लगा लेने के अभ्यस्त हो जायेंगे तो आपका लेखन प्रखर हो जाएगा। आप और आपके पाठक आपकी लेखन शैली में आए सुखद परिवर्तन को देखकर अभिभूत हो जायेंगे । 7. अपने लेखन पर गर्व करें - अच्छा लिखने पर गर्व करें। यह आपकी उपलब्धि है। बहुत कम लोग ऐसा कर पाते हैं। इससे आपको आगे और अधिक अच्छा लिखने की प्रेरणा मिलेगी। ध्यान दें, मैं केवल गर्व करने को कह रहा हूँ, घमंड करने को नहीं! आख़िर आपसे भी कई गुना अच्छा लिखने वाले मौजूद हैं। 152 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. अपने लेखन की समालोचना करें - एक बार ब्लॉग पोस्ट प्रकाशित कर देने के बाद उन सभी स्टेप्स का अवलोकन करें जो आपने उठाई हैं। आपने क्या ठीक किया और क्या आप नहीं कर पाए? आपको कौन सी समस्याएँ आईं और आपने उनका सामना कैसे किया, आपने उनसे क्या सीखा? अगली बार पोस्ट करते समय आप उनसे कैसे निबटेंगे? क्या आप इससे बेहतर पोस्ट लिख सकते थे? ऐसे कौन से भटकाव या अड़चनें थीं जिनसे छुटकारा पाया जा सकता था? यह मानसिक हलचल आपको परिपक्व लेखक बनाएगी और क्रमशः आप लेखन में स्वयं को डुबाने और इसमें सिद्धहस्त होने का आनंद उठाने लगेंगे। 9. कल की तयारी करें - लेखन की समालोचना करने के पश्चात अगले दिन के लिए सोचे गए कार्य की योजना बना लें। फ़िर से अपने लक्ष्य का मानसदर्शन करें और मनन करें। अगले दिन नए उत्साह और उमंग के साथ लिखें। यह पोस्ट लियो बबौटा के ब्लॉग राइट टडन से कुछ हेरफेर के साथ अनूदित की गई है। मूल पोस्ट आप यहाँ पढ़ सकते हैं। 153 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्लॉगिंग के स्वर्णिम सूत्र अपने ब्लॉग पर पोस्ट करने के अलावा मैं हिन्दी और अंग्रेज़ी के बहुत सारे ब्लॉग्स भी पढ़ता हूँ। ब्लॉगिंग के विषय पर भी अब तक बहुत सारे ब्लॉग्स पर लिखा जा चुका है जिसे पढ़कर हिन्दी ब्लौगरों ने ब्लॉगिंग के सैद्धांतिक और तकनीकी पक्ष की अच्छी जानकारी लेकर अपने ब्लॉग्स को समृद्ध किया है। हिन्दी के कई ब्लॉग्स अच्छी जानकारी उपलब्ध करा रहे हैं। हिन्दी ब्लॉगिंग अभी अपने शैशवकाल में है। यहाँ ब्लौगर ही हैं जो दूसरे ब्लौगरों को पढ़ रहे हैं। जहाँ तक मेरी जानकारी है, हिन्दी जगत में अभी मुश्किल से ७,००० ब्लौगर हैं जिनमें से कुछ ही ऐसे हैं जिनका ब्लॉग सक्रिय है, अर्थात जो पिछले १-२ सालों से नियमित पोस्ट करते आ रहे हैं। यह पोस्ट इस ब्लॉग की विषय-वस्तु से मेल नहीं खाती। इसे यहाँ प्रस्तुत करने का उद्देश्य यह है कि इसे अच्छे पाठक मिलें और आपकी जानकारी में थोड़ा सा इजाफा हो। इस ब्लॉग की अन्य पोस्टों कि भांति इसे भी मैंने कई स्त्रोतों से लेकर हिन्दी में अनूदित किया है। जब मैंने पिछले साल जुलाई-अगस्त में ब्लॉगिंग शुरू की तब मैं इसके बारे में ज्यादा नहीं जानता था । भरपूर जोश में आकर मैंने कई सारे ब्लॉग्स बना लिए और उन्हें कई एग्रीगेटरों पर रजिस्टर भी करवा लिया। जल्दी ही मुझे यह बात समझ में आ गई कि वास्तव में मेरे पास ब्लॉगिंग करने के लिए कोई मौलिक विषय-वस्तु नहीं थी। अपने बनाये बहुत सारे ब्लॉग्स को मैंने या तो डिलीट कर दिया या वे निष्क्रिय हो गए। एक दिन मुझे यह विचार आया कि क्यों न प्रेरक कथाओं और लेखों का अनुवाद करके ब्लॉग बनाया जाए। इस प्रकार वर्तमान ब्लॉग अस्तित्व में आया। इसकी पाठक संख्या इसकी विषयवस्तु के कारण सीमित है, लेकिन यह कोई समस्या नहीं है। ब्लॉग के पाठक और फौलोवर धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं। कछुआ बनकर रेस जीतना ज्यादा बेहतर है। आपने भी अपने ब्लॉग की गुणवत्ता को बढ़ने और इसे प्रतिष्ठित करने के लिए कुछ प्रयास तो किए होंगे। आपने नियमित पोस्ट करने, ब्लॉग पर ट्रेफिक बढ़ाने, सब्स्क्राइबर / फॉलोवर पाने, ज्यादा लिंकित होने, कमेन्ट पाने और नामित किए जाने के बारे में पढ़ा होगा। यहाँ मैं आपको वे सभी बातें कुछ सूत्रों के रूप में आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। मैंने स्वयं उनपर अमल करके देखा है और उन्हें उपयोगी पाया है। ये सारे बिन्दु सफल ब्लॉगिंग करने के सूत्र हैं जिन्हें कई स्थानों से संकलित किया गया है। आप इन सूत्रों में कुछ जोड़ सकें तो कमेन्ट के माध्यम से अवश्य सूचित करें। ये कुछ ऐसी टिप्स और हुनर हैं जिनपर ध्यान देने से आपकी ब्लॉगिंग अवश्य निखरेगी। ऐसे ७-८ क्षेत्र चुने हैं जिनपर चर्चा कि जा सकती है: ब्लॉग को कैसे बढ़ावा दें 154 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ - अपनी पोस्टों को प्रमोट करने में कोई कसर न छोडें। धीरे-धीरे वे लोगों कि नज़रों में आने लगेंगी और एक समय ऐसा भी जब वे अपने आप पाठक ढूंढ लेंगी। इस तरह आपके ब्लॉग पर ट्रेफिक बढेगा। (पोस्टों का मौलिक और उत्तम होना अनिवार्य है) २ - ब्लॉगिंग के लिए ऐसा विषय चुनें जिसपर आप अच्छी जानकारी रखते हों। पोस्टें प्रभावित करनेवाली होनी चाहिए। ऐसा लिखें कि दूसरे लोग आपकी पोस्टों की चर्चा करें। इससे ज्यादा प्रसिद्धि आप किसी अन्य तरह से नहीं पा सकते। ३ - आपके ब्लॉग को फौलो करने वाले या सबस्क्राइब करनेवालों की संख्या आपके ब्लॉग की प्रसिद्धि दर्शाती है। यह ऐसी चीज़ है जिसपर सबका ध्यान जाता है। ज़रूरी नहीं है कि कोई आपका ब्लॉग फौलो कर रहा हो तो आप भी आभार प्रर्दशित करने के लिए उसका ब्लॉग फौलो करें। बिना किसी उचित या ठोस कारण के कोई भी ब्लॉग फौलो/सबस्क्राइब न करें। दूसरों से अपने ब्लॉग को फौलो/सबस्क्राइब करने का आग्रह करना अच्छी बात नहीं है। यदि आप अच्छा लिखेंगे तो धीरे-धीरे लोग आपको पहचानने लगेंगे। अच्छी पोस्टें कैसे लिखें १ - आप टैलेंटेड हो सकते हैं लेकिन अच्छी पोस्ट लिखने के लिए स्वयं को कुछ समय दें। जल्दबाजी में लिखी गई पोस्ट औसत दर्जे की हो सकती है। २- यदि आपके पास पोस्ट लिखने के लिए कोई अच्छा विचार या विषय है तो शीघ्र ही उसपर पोस्ट लिख लें। अच्छे विचार को भविष्य के लिए बचा कर रखना अच्छा विचार नहीं हैं। ३ - अपनी पोस्टों की फौर्मेटिंग पर ध्यान दें। ज़रूरी/उपयोगी बिन्दुओं को हाईलाईट करें। ४ - पोस्टों के लिए सबसे अच्छा व् सारगर्भित शीर्षक चुनें। एग्रीगेटरों पर घूमनेवालों को यदि आपकी पोस्ट का शीर्षक आकर्षित नहीं करेगा तो पाठक संख्या गिर जायेगी। ५ - पोस्ट को हर दृष्टि से समृद्ध करें। विषय से भटकें नहीं। पाठक पर जोरदार असर पड़ना चाहिए। आपकी पोस्ट इतनी असरदार होनी चाहिए की ब्लॉग पर बार-बार आनेवालों की संख्या में वृद्धि हो। शुरू में इस ब्लॉग पर इक्का-दुक्का लोग ही आते थे। अभी भी आनेवालों की संख्या प्रतिदिन १५०२०० से ज्यादा नहीं है लेकिन यह हर दिन बढ़ रही है। ज्ञानदत्त जी का ब्लौग मानसिक हलचल, रवीश कुमार का क़स्बा, अजय ब्रम्हात्मज का चवन्नी-चैप, यूनुस का रेडियोवाणी मेरे पसंदीदा ब्लॉग्स हैं जिनपर मैं नियमित जाता हूँ। ये सभी ब्लॉग्स रोज़ अपडेट नहीं होते पर इनकी पाठक संख्या बहुत है। इनकी पोस्टों की गुणवत्ता के कारण ही इन्हें इतना अधिक पढ़ा जाता है। ये सभी ब्लौगर अपने-अपने 155 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र के 'धुरंधर लिक्खाड़' हैं। जिस भी विषय पर वे लिखते हैं उसपे उनकी गहरी पकड़ है। यदि ब्लॉगिंग के जगह कोई और माध्यम अस्तित्व में आया होता तो वे उसमें भी प्रतिष्ठित होते। ये सभी जो कुछ भी लिखते हैं वह पढने और टिपण्णी करने लायक होता है। आपकी पोस्ट भी ऐसी ही होनी चाहिए। ६ - आवश्यकता पड़ने पर अपनी पोस्टों में फोटो आदि लगायें। इसके लिए कौपिराईटेड सामग्री का उपयोग करने से बचें। ७ - पोस्ट की शुरुआत में कुछ वाक्यों में पाठकों को यथासंभव पोस्ट की विषय-वस्तु के बारे में बता दें। इसे ज्यादा खींचना उपयुक्त नहीं होगा। ८- अपनी पोस्टों में क्रॉस-रेफरेंस देने के लिए हाइपरलिंक का अधिकाधिक उपयोग करें। ९ - अपने ब्लॉग का खाका दिमाग में बनाकर रखें। ब्लॉग की सबसे अच्छी/पौपुलर पोस्टों को मानक/आदर्श मानकर तरह पोस्टें लिखें। १०- बात-बात पर लोगों से वोट या कमेन्ट न मांगें। ज्यादा कमेन्ट कैसे पायें १- आप अच्छा लिखेंगे तो पोस्ट अधिक पढ़ी जाएगी। जिस पोस्ट को कोई पढ़ेगा ही नहीं उसे कमेन्ट क्यों मिलेंगे? २ - दूसरों की अच्छी पोस्टों पर बेहतर कमेन्ट करें। ३ - पाठकों के कमेंट्स का जवाब दें। (मैं समयाभाव के कारण यह करने से रह जाता हूँ) ब्लॉग की साज-सज्जा और डिजाइन पर ध्यान दें १ - ब्लॉग के लिए सीधा-सादा लेकिन आकर्षक टेम्पलेट चुनें। ब्लागस्पाट के ब्लोगरों के पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं। इस मामले में वर्डप्रेस बाजी मार ले जाता है। बहुत ज्यादा भड़कीला टेम्पलेट यदि ब्लॉग की सामग्री से मेल नहीं खाता तो आँखों में खटकता है। बड़ी-बड़ी तस्वीरों का उपयोग न करें। वे ब्लॉग की सामग्री को गौण कर देती हैं। २-जमाना तेज रफ्तार का है। लोग देखते ही समझ जाते हैं कि यहाँ ठहरें या नहीं। ३- जिस चीज़ को आप सबको दिखाना/बताना चाहते हैं उसे पोस्ट या साइडबार में नीचे न रखें। 156 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ - बहुत सारे भारतीय ब्लौगर अभी भी १५ / १७ इंच मॉनिटर पर काम करते हैं। चार कॉलम वाले टेम्पलेट का प्रयोग न करें। पेज पर पोस्टों में टेक्स्ट का आकार मीडियम ही रखें। ५ - अपने प्रोफाइल पर ध्यान दें। अपना चित्र लगायें। अपनी रूचियों का वर्णन करें। अपने बारे में बताते समय भावनाओं में न रहें। ६ अपने ब्लॉग्स पर फालतू के विजेट न लगायें। ब्लॉग पर घड़ी लगाने की क्या ज़रूरत है? सिर्फ़ २-३ प्रमुख एग्रीगेटरों के कोड लगायें। जो विजेट केवल आपके ट्रेफिक की जानकारी देते हों उन्हें साइडबार में सबसे नीचे लगायें। इससे सामग्री पर ज्यादा ध्यान जाता है। अपनी और दूसरों की रुचि जगाये रखें १ - जो आपको अच्छा लगता है उसपर लिखने में संकोच न करें भले ही वह आपके ब्लॉग की परम्परा से हटकर हो। ब्लॉगिंग पर लिखना मेरे इस ब्लॉग का विषय नहीं है लेकिन मैं इसे यहाँ लिख रहा हूँ क्योंकि यह सबके काम की बात है। २. ब्लॉगिंग को पैसा कमाने का माध्यम बनाने के बारे में न सोचें। ऐसा हो तो अच्छी बात है लेकिन इसके लिए ब्लॉग को बेहतर तो बनाना ही पड़ेगा। हिन्दी ब्लॉगिंग में वैसे भी कोई पैसा नहीं है, इसीलिए इसे अपनी रुचि का माध्यम बनायें । ३ आपके पाठक १० हों या १० हजार, उनसे जुड़ने में ही आपका हित है। - ४ - ब्लॉगिंग ज़िन्दगी का पर्याय नहीं है। एक हफ्ता पोस्ट नहीं करेंगे तो आपकी दुनिया नहीं बदल जायेगी। दूसरी चीज़ों की ओर भी ध्यान दें। पोस्टों की बड़ी संख्या आपको चिट्ठाजगत में सक्रिय तो दिखाएगी लेकिन इससे आप सम्मानित व् प्रतिष्ठित ब्लौगर का दर्जा नहीं पा सकेंगे। ज्यादा फौलोवर / सब्स्क्राइबर कैसे पायें १- पोस्ट की गुणवत्ता पर ध्यान दें, भले ही सप्ताह में एक बार पोस्ट करें। २ - जो लोग आपको पसंद करते हैं वो आपके ब्लॉग पर आते रहेंगे। आपकी पोस्टों में दम होगा तो आपसे हमेशा ही ज्यादा लिखने की मांग की जायेगी और आपके फौलोवर / सब्स्क्राइबर की संख्या बढ़ेगी। ३ - आपके ब्लॉग की उपयोगिता भविष्य में भी होनी चाहिए केवल इसी महीने नहीं । 157 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ फॉलोवर / सब्स्क्राइबर की संख्या बढ़ाने के लिए बड़े-बड़े बटन लगाने की युक्तियाँ बचकानी - हैं। यह बात बार-बार बताई जा रही है कि आपकी पोस्ट की गुणवत्ता ही लोगों को आपके ब्लॉग की ओर खींचती है। अच्छी पोस्टों के लिए खोज- विचार १ - कोई भी नया विचार आने पर उसे लिख लें। यह न समझें कि समय पड़ने पर वह आपको याद आ ही जाएगा। २. यह समझना और जानना बहुत जरूरी है कि आपके पाठक क्या पढ़ना पसंद करते हैं। ३. किसी भी क्षेत्र में पारंगत होने में समय लगता है। जल्द ही ऊब जायेंगे तो वापस ब्लॉग की ओर लौटने में समय लग जाएगा। अन्य दूसरे माध्यमों की भांति ब्लॉग लेखन भी कुछ समय और धैर्य मांगता है। दूसरों की सफलता से प्रेरणा लें और अच्छा पढने लिखने में लगे रहे। सुझाव आमंत्रित हैं: 158 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंतोष का उपचार कैसे करें? "तृष्णा से बड़ा पाप कोई नहीं है, असंतोष से बड़ा श्राप कोई नहीं है, कुछ पास न होने से बड़ा संताप कोई नहीं है। जिसने भी यह जाना कि उसके पास जितना है बहुत है, उसके पास सदैव बहुत ही रहेगा" - लाओ-त्जु * * * * * मैं कल अपनी एक परिचित से बात कर रहा था। बाहर से देखें तो लगता है कि उसके पास सब कुछ है: शानदार घर जिसमें स्वीमिंग पूल भी है, बहुत अच्छा पति, दो प्यारे-प्यारे बच्चे, और आरामदायक ज़िन्दगी। वार्तालाप के दौरान बात घूमफ़िर कर संतोषप्रद जीवन पर आ गई। उसने कहा - "वही तो मैं चाहती हूँ - मैं संतुष्ट नहीं हूँ"। उसकी आँखों में आंसू आ गए। मेरा भी दिल भर आया। वह ऐसी अकेली महिला नहीं है। बहुत लोगों को यह लगता है कि उनके जीवन में कुछ कमी है। उन्हें लगता है कि अपने सारे सपने पूरे कर लेने के बाद भी वे खुश नहीं हैं, संतुष्ट नहीं हैं, उनके जीवन में खालीपन है। मैं भी अपने जीवन में ऐसे कई पड़ावों से गुज़रा हूँ और मैंने बड़ी मुश्किल से उन्हें पार किया है। मुझे मालूम है कि उनसे जूझना मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं। मेरी ज़िन्दगी में ऐसे सभी मौकों पर जब मुझपर असंतोष हावी होने लगा तब मैंने पाया कि नीचे लिखी तीन बातों पर अमल करके मैं उससे निपट सकता हूँ: १-अपना नजरिया और परिप्रेक्ष्य बदलना २- कोई सकारात्मक काम करना ३- कुछ ऐसा करना जो जीवन को नया अर्थ देता हो ये बातें एक साथ अमल में ली जा सकती हैं या अलग-अलग, या जैसे भी आप चाहें। ये साथ में भी प्रभावी हैं और अकेले भी। इनपर क्रमशः विस्तार से बात करेंगे: अपना नजरिया और परिप्रेक्ष्य बदलना 159 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह बहुत बड़ी बात है। जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण सबसे अधिक महत्त्व रखता है। 'सकारात्मक दृष्टिकोण' रखने के बारे में हम इतना अधिक पढ़ते-सुनते हैं कि हमें यह बहुत सरसरी बात लगने लगती है और हम इसे नज़रंदाज़ करने लगते हैं। मेरे जीवन में इसने हमेशा बेहतर प्रभाव डाला है और इसके बिना मैं आज कुछ भी न होता - मेरा ब्लॉग इतना प्रसिद्द न होता, मेरी किताब इतनी अधिक न पढी जाती, और मैंने तीन मैराथन भी नहीं दौडी होतीं। 'सकारात्मक दृष्टिकोण' रखना सिर्फ हमारी उपलब्धियां नहीं बढाता बल्कि हमें फ़ौरन ही खुशी दे देता है। इसे अपनाना आपकी मर्जी पर है। और इसके कारगर तरीके ये हैं: अ - आपके पास जो कुछ है उसकी कीमत जानें - आपके जीवन में इतना कुछ मूल्यवान है जिसका आपको अंदाजा नहीं है। इतने सारे परिजन और मित्र हमें कितना प्यार करते हैं। प्रेम बहुत चमत्कारपूर्ण भावना है। अच्छी सेहत भी बहुत बड़ा वरदान है। आसपास नज़र घुमाकर देखें - दुनिया इन आंखों से कितनी खूबसूरत दिखती है। कानों में पड़नेवाला मधुर संगीत आत्मा को भी भावविभोर कर देता है। क्या इन सब बातों के लिए ईश्वर को आभार व्यक्त नहीं करना चाहिए? पूरे दिनभर में कुछ लम्हे ऐसे चुन लीं चाहिए जब हम उन सभी सकारात्मक चीज़ों के बारेमें सोचें जो हमें मिली हैं, दूसरों से हमें जो भी मिलता है उसके मन लिए कृतज्ञता का भाव रखें, उन्हें इसके लिए धन्यवाद दें। ब- हमेशा अच्छाई ढूँढें - हर बात में कोई न कोई अच्छाई भी ढूंढी जा सकती है और बुराई भी। मेरे दादाजी कि मृत्यु ने मुझे इस बात का अहसास कराया कि उनके रहते जीवन कितना बेहतर था और वे कितने प्यारे आदमी थे। हमारे प्रिय लोग हमारे साथ मौजद हैं. यह कितनी अच्छी बात है। अनमोल जीवन मिला हुआ है, क्या इसके लिए हम किसी के शुक्रगुजार होते हैं? बीमारी हमें आराम का अवसर प्रदान करती है। नौकरी छूट गई हो तो ज़िन्दगी नए सिरे से शुरू करने का और परिवार के साथ ज्यादा समय रहने का मौका मिलता है। मचल जाने वाला बच्चा अपने को व्यक्त करने का जरिया ढूंढता है, अपनी शख्सियत का अहसास कराता है, मनुष्य ही ऐसा कर सकता है। आपको खिझा देने वाली बात में या आपको सतानेवाले व्यक्ति में कुछ अच्छा ढूंढें, आपको ज़रूर मिलेगा। स- आप बदलाव ला सकते हैं, वाकई - अब कुछ अच्छा नहीं होगा - चीजें बद से बदतर हो जाएँगी- ऐसी बातें भी हमारी समस्या की जड़ हो सकती हैं। यह मानना शुरू कर दें की आप चीजें बेहतर कर सकते हैं और बदलाव शुरू हो जाएगा। आप बदलाव ला सकते हैं! - मैंने और दूसरों ने ऐसा करके देखा है और इसमें सफल हुए हैं! यह सम्भव है! द- हर क्षण का आनंद लें-आप इस समय जो भी कर रहे हों या दिन के किसी भी समय जो कुछ भी करते हों उसे आनंद के साथ करें - पढ़ना, लिखना, दोस्तों से बातचीत, नहाना, सीढियां चढ़ना, खाना, 160 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपड़े धोना, सफाई करना, कुछ भी। ध्यान से देखें तो पाएंगे की हर गतिविधि में आनंद ढूँढा जा सकता है। इससे ज़िन्दगी खुशनुमा हो जाती है। कोई सकारात्मक काम करना इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या कर रहे हैं, वह सिर्फ़ सकारात्मक होना चाहिए। सकारात्मकता कि दिशा में चलें, चाहे केवल एक छोटा सा कदम ही बढायें। चलने कि शुरुआत करें। आपका यह छोटा सा कदम आपको सफलता कि राह पर मीलों आगे ले जाएगा। हर सफलता को सीढ़ी बनाकर और ऊपर, और आगे बढ़ते जाना है। हज़ार मील की यात्रा भी सिर्फ एक कदम से ही शुरू होती है। एक-एक कदम करके ही पूरा सफर तय हो जाता है। ये दो काम करके देखें: ___ 1. कसरत - दिन में सिर्फ दस मिनट के लिए कसरत करके देखें। थोड़ी दूर तक चलें या दौडें, तैरें, योग करें, दंड-बैठक लगायें, चाहे जो मर्जी करें। प्रतिदिन कसरत करने के अत्प्रत्याषित परिणाम होते हैं। यह गतिविधि कायापलट कर देती है। इससे मिलनेवाले लाभ को कई दूसरी दिशाओं में मोड़ा जा सकता है। इसके विषय में विस्तार से यहाँ पढ़ें। इसे भी पढ़ें। 2. आसपास व्यवस्था लाना - अपने आसपास देखें और चीज़ों को व्यवस्थित रखने का प्रयास करें। कोई अलमारी, टेबल, कार्नर, आदि साफ़ करें। अपने माहौल में से अस्तव्यस्तता को हटा दें। चाहें तो धीरे-धीरे हटाएँ या एक झटके में हटा दें। इससे आपको अपने जीवन में सुंदर बदलाव लाने में बहुत मदद मिलेगी। इनको भी पढ़ें: साफ़-सफाई कैसे करें, ५-मिनट में साफ़-सफाई, साफ़-सफाई के नुस्खे, अस्तव्यस्तता से जीतना। इन दोनों सुझावों से मुझे और कई दूसरे लोगों के जीवन में अच्छा बदलाव आया है। इनके आलावा और भी तरीके हो सकते हैं जो जीवन में बड़ा बदलाव लायें जैसे सवेरे जल्दी उठना, ध्यान करना, बगीचे में या घर में काम करना, कों से छुटकारा पाना या आगे बताई जा रही बातें करना: कुछ ऐसा करना जो जीवन को नया अर्थ देता हो कभी-कभी बेहतर सुकून भरा जीवन होने के बाद भी बहुतों के मन में असंतोष होता है क्योंकि वे कुछ ऐसा नहीं कर रहे होते जो उपयुक्त और लाभकर होता हो। ऐसे में सब कुछ होना 161 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेमानी लगता है। इसका इलाज यह है की आप करने के लिए कोई उपयोगी बात 'लें जिसको करने से आपको संतुष्टि मिले। इन बातों पर गौर करें: - • प्रियजनों के साथ समय व्यतीत करना मुझे अपने माता-पिता और पत्नीबच्चों के साथ समय गुज़रना अच्छा लगता है। इससे वास्तविक खुशी मिलती है। उनके साथ बिताये क्षण अनमोल हैं, कोई अन्य गतिविधि मुझे उतना उत्साहित और प्रफुल्लित नहीं कर सकती। उनके साथ बहार घूमने जाना, मिलजुल कर खेल खेलना, फ़िल्म देखना ऐसी कितनी ही बातें साथ में की जा सकती हैं। अगर आपके पास इन बातों के लिए समय न भी हो तो भी आप कुछ समय उनके साथ, उनके पास तो बैठ ही सकते हैं। उनकी बातें सुनें, कोई समस्या होनेपर उनकी मदद करें। इन बातों से आपके और उनके जीवन में अच्छा बदलाव आएगा। स्वयंसेवक बनें - इस सुझाव को मानकर देखें। इसके नतीजे बहुत अच्छे मिलेंगे। किसी भी समय जब लोगों को आपकी ज़रूरत हो तब स्वयं को आगे कर देने में और अपना समय और अपना प्रेम उनकी सेवा में प्रस्तुत करने में जो सुख मिलता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। ऐसे कई संगठन हैं जिन्हें सेवा कार्य के लिए स्वयंसेवकों की आवश्यकता होती है। उनसे बात करके देखें की आप उनके लिए किस तरह उपयोगी हो सकते हैं। रचनाशील बनें लिखना मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण गतिविधि है। किसी भी प्रकार की रचनाशीलता लिखना, चित्रकला, संगीत, निर्माण, आदि ऐसी गतिविधियाँ हैं जिनसे जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश होता है। कुछ नए की रचना करने से, स्वयं को विविध माध्यमों से व्यक्त करने से, दूसरों के साथ विचारों का आदान-प्रदान करने से जीवन में नया रंग भरता है। - - दूसरों की ज़िन्दगी को बेहतर बनाना स्वयंसेवक बनके तो यह किया जा सकता है। इसके आलावा अपने परिजनों, पड़ोसियों, यहाँ तक की अपरिचित व्यक्तियों के लिए भी उनकी मदद करने और छोटी-छोटी बातों से उनको खुशी देने के तरीके ढूँढें । उनके लिए खाना बना सकते हैं, साफ़-सफाई कर सकते हैं, पात्र लिख सकते हैं, कोई चीज़ खरीद सकते हैं, उनकी बात पर ध्यान दे सकते हैं, कुछ भी कर सकते हैं। - ये कुछ ऐसी बातें थीं जिनपे अमल करके जीवन में सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए असंतोष को दूर भगाया जा सकता है मुझे इनसे बहुत सहायता मिली है और मैं विश्वास करता हूँ की आपको भी इनसे लाभ पहुंचेगा। यह पोस्ट लियो बबौटा के ब्लॉग जेन हैबिट्स से कुछ हेरफेर के साथ अनूदित की गई है। मूल पोस्ट आप यहाँ पढ़ सकते हैं। 162 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलवारबाज़ माताजुरो याग्यु का पिता बहुत प्रसिद्द तलवारबाज़ था। पिता को यह लगता था कि उसका पुत्र कभी भी अच्छी तलवारबाजी नहीं कर पाएगा इसलिए उसने माताजुरो को घर से निकाल दिया। बेघर माताजुरो बहुत दूर एक पर्वत के पास बांज़ो नामक एक प्रसिद्द तलवारबाज़ के पास गया। बांज़ो ने उसकी तलवारबाजी देखने के बाद कहा - "तुम्हारे पिता ठीक कहते हैं। तुम तलवार चलाना कभी नहीं सीख पाओगे। मैं तुम्हें अपना शिष्य बनाकर बदनाम नहीं होना चाहता।" माताजुरो ने कहा - "लेकिन मैं यदि परिश्रम करूँ तो प्रवीण तलवारबाज़ बनने में मुझे कितना समय लगेगा?" "तुम्हारी पूरी ज़िन्दगी" - बांज़ो ने कहा। "मेरे पास इतना समय नहीं है" - माताजुरो ने उद्विग्न होकर कहा - "यदि आप मुझे सिखायेंगे तो मैं किसी भी समस्या का सामना करने के लिए तैयार हूँ। मैं आपका दास बनकर रहूँगा, फ़िर मुझे कितना समय लगेगा?" "हम्म... लगभग दस साल" - बांज़ो ने कहा। माताजुरो ने कहा - "मेरे पिता वृद्ध हो रहे हैं और मुझे उनकी देखभाल भी करनी होगी। यदि मैं और मेहनत करूँ तो फ़िर कितने साल लगेंगे?" "तीस साल" - बांजो बोला। "ऐसा कैसे हो सकता है" - माताजुरो चकित होकर बोला - "पहले आपने दस साल कहे और अब तीस साल! मुझे कम से कम समय में इस विद्या में पारंगत होना ही है!" बांज़ो बोला - "तब तो तुम्हें मेरे पास कम-से-कम सत्तर साल रहना पड़ेगा। तुम्हारी तरह जल्दबाजी करनेवाले व्यक्तियों को अच्छे परिणाम शीघ्र नहीं मिला करते।" "आप जैसा कहते हैं मैं वैसा करने को तैयार हूँ" - माताजुरो ने कहा। उसे समझ में आ गया था कि बांज़ो से बहस करने का कोई मतलब नहीं है। 163 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बांज़ो ने माताजुरो से कहा कि तलवारबाजी तो दूर, वह 'तलवार' शब्द का भी भूल से भी उच्चारण न करे। माताजुरो दिन भर बांज़ो की सेवा में खटने लगा। वह उसका भोजन बनाता, साफ़-सफाई करता, कपड़े धोता, और भी तरह-तरह के काम करता। उसने तलवारबाजी या तलवार का नाम भी नहीं लिया । तीन साल गुज़र गए । माताजुरो सबह से रात तक बांजों के लिए काम करता रहता। अपने भविष्य के बारे में सोचकर वह उदास हो जाता था। जिस विद्या को सीखने के लिए वह पूरा जीवन झोंक देने को तैयार था, उसका नाम लेने की भी उसे अनुमति नहीं थी। एक दिन माताजुरो चावल बना रहा था तभी पीछे से बांज़ो दबे पाँव आया और उसने माताजुरो पर लकड़ी की तलवार से जोरदार प्रहार किया। अगले दिन जब माताजुरो किसी और काम में लगा हुआ था, बांजो ने एक बार और उसपर अत्प्रश्याशित प्रहार किया । इसके बाद तो दिन हो या रात, माताजुरो को हर कभी स्वयं को बांज़ो के आघातों से ख़ुद को बचा पाना मुश्किल हो गया। पहले तो प्रहार जागते में ही होते थे, बाद में सोते में भी होने लगे। कुछ ही महीनों में बांज़ो असली तलवार से उसपर प्रहार करने लगा। एक पल भी ऐसा नहीं बीतता था जब वह बांज़ो के प्रहारों के बारे में नहीं सोचता था। माताजुरो तलवारबाजी में जल्द ही निपुण हो गया। वह अपने समय का सर्वश्रेष्ठ तलवारबाज़ कहलाया । 164 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डायोजीनस और सिकंदर प्राचीन यूनान में डायोजीनस की ख्याति महान दार्शनिक के रूप में थी। वह सर्वथा नग्न रहता था और सागरतट पर पत्थर के एक टब में दिनभर पड़ा रहता था। यूनान और आसपास के क्षेत्रों को जीतकर अपने अधीन करने के बाद सिकंदर विश्वविजय करने के लिए निकलनेवाला था। उसने सोचा कि अभियान पर निकलने से पहले डायोजीनस की शुभकामनायें भी ले लेनी चाहिए। सिकंदर उस जगह गया जहाँ डायोजीनस पानी भरे टब में नग्न लेटा हुआ था। सिकंदर ने उसके पास जाकर कहा - "डायोजीनस, मैं यूनान का राजकुमार सिकंदर हूँ। मैं पूरे विश्व को जीतने के लिए जा रहा हूँ। मेरा अभिवादन स्वीकार करो और बताओ कि मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ।" डायोजीनस ने उसकी बात अनसुनी कर दी। सिकंदर विस्मित था। आज तक किसी ने उसकी ऐसी अवहेलना नहीं की थी, लेकिन डायोजीनस के प्रति उसके हृदय में सम्मान था। उसने अपनी बात फ़िर से दोहराई। डायोजीनस ने लेटे-लेटे उसे एक नज़र देखा, और बोला - "हूँ... सामने से ज़रा हट जाओ और धूप आने दो, बस।" * * * * * कहते हैं सिकंदर वहां से उदास अपने महल में यह कहते हुए वापस आया - "अगर मैं सिकंदर नहीं होता तो डायोजीनस होता"। 165 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंसानियत का सबक हज़रत खलील बहुत दयालु और दानी थे। जब तक वह किसी भूखे को खाना नहीं खिला देते थे तब तक वह स्वयं कुछ नहीं खाते थे। एक बार दो-तीन दिनों तक कोई याचक उनके घर नहीं आया। वह बड़े परेशान हुए और किसी भूखे व्यक्ति की तलाश में घर से निकले. कुछ दूर जाने पर उन्हें एक दुबलापतला बूढा व्यक्ति मिल गया. वह बड़े प्रेम से उसे अपने घर ले आये. आदर-सत्कार करके उसे अपने साथ बिठाया और नौकरों से उसके लिए भोजन लाने को कहा। खाने की थाली आ गई लेकिन खाने से पहले बूढे ने खुदा का नाम नहीं लिया। हज़रत खलील ने कहा - "यह क्या, बूढे मियां! आपने तो खुदा का नाम लिया ही नहीं!" बूढा बोला - "मैं अग्नि की उपासना करता हूँ। हमारे संप्रदाय में खुदा को नहीं पूजा जाता।" यह सुनकर खलील को बहुत बुरा लगा। उन्होंने उस वृद्ध को भला-बुरा कहा और बेईज्जत करके घर से निकाल दिया। बूढा उदास होकर चला गया। तभी हज़रत खलील को खुदा की आवाज़ सुनाई दी - "खलील, तूने यह क्या किया! मैंने इस बूढे को बचपन से लेकर बुढापे तक ज़िन्दगी और खाना दिया और तू कुछ देर के लिए भी उसे आसरा नहीं दे सका! वह अग्नि की पूजा करता है तो क्या हुआ, वह इंसान तो है! लोगों के यकीन जुदा हो सकते हैं पर इंसानियत तो हमेशा से एक ही है! खलील, तूने उससे मोहब्बत का हाथ खींचकर अच्छा नहीं किया!" हज़रत खलील को अपनी भूल पता चल गई और उन्होंने बूढे को ढूंढकर अपनी गलती की माफ़ी मांगी और उसे प्रेम से भोजन कराया। 166 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य द्विवेदी का 'स्मृति-मन्दिर' आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की पत्नी न तो बहुत सुन्दर थीं न ही विद्वान्, लेकिन वह उनकी आदर्श अर्धांगिनी ज़रूर थीं। इसी नाते वह उनसे बहुत प्रेम करते थे. वह गाँव में ही रहा करती थीं। उन्होंने दौलतपुर (रायबरेली) में परिवार द्वारा स्थापित हनुमानजी की मूर्ति के लिए एक चबूतरा बनवा दिया और जब द्विवेदीजी दौलतपुर आये तो उन्होंने प्रहसन करते हुए कहा - "लो, मैंने तुम्हारा चबूतरा बनवा दिया है". रिवाज के मुताबिक पत्नियाँ पति का नाम नहीं लेती थीं इसीलिए उन्होंने हनुमानजी अर्थात 'महावीर' नाम न लेते हुए ऐसा कहा था. द्विवेदीजी मुस्कुराते हुए बोले - "तुमने मेरा चबूतरा बनवा दिया है तो मैं तुम्हारा मंदिर बनवा दूंगा"। सन १९१२ में द्विवेदी जी की पत्नी की गंगा नदी में डूब जाने के कारण मृत्यु हो गई। द्विवेदी जी ने अपने कहे अनुसार उनका 'स्मृति-मंदिर' बनवाया. घर के आंगन में स्तिथ मंदिर में लक्ष्मी और सरस्वती की मूर्ति के बीच में उन्होंने अपनी पत्नी की संगमरमर की मूर्ति स्थापित करवाई. मूर्ति की स्थापना का गांववालों ने बहुत विरोध किया। - "कहीं मानवी मूर्ति की भी स्थापना देवियों के साथ की जाती है? कलजुगी दुबौना सठियाय गया है! घोर कलजुग आयो है!" - ऐसी जली-कटी बातें उन्हें सुनकर उनपर लानतें भेजी गईं. लेकिन आचार्य जी तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने भारतीय संस्कृति के आदर्श ज्यन्ते, तत्र रमन्ते देवताः" को चरितार्थ किया था. वाक्य "यत्र आज भी आचार्यश्री द्वारा बनवाया गया 'स्मृति-मंदिर' उनके गाँव में विद्यमान है। 167 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निराला का दान एक बार निराला को उनके एक प्रकाशक ने उनकी किताब की रायल्टी के एक हज़ार रुपये दिए। धयान दें, उन दिनों जब मशहूर फिल्मी सितारे भी दिहाडी पर काम किया करते थे, एक हज़ार रुपये बहुत बड़ी रकम थी। रुपयों की थैली लेकर निराला इक्के में बैठे हुए इलाहाबाद की एक सड़क से गुज़र रहे थे। राह में उनकी नज़र सड़क किनारे बैठी एक बूढी भिखारन पर पड़ी। ढलती उमर में भी बेचारी हाथ फैलाये भीख मांग रही थी। निराला ने इक्केवाले से रुकने को कहा और भिखारन के पास गए। "अम्मा, आज कितनी भीख मिली?" - निराला ने पूछा। "सुबह से कुछ नहीं मिला, बेटा"। इस उत्तर को सुनकर निराला सोच में पड़ गए। बेटे के रहते माँ भला भीख कैसे मांग सकती है? बूढी भिखारन के हाथ में एक रुपया रखते हुए निराला बोले - "माँ, अब कितने दिन भीख नहीं मांगोगी?" "तीन दिन बेटा"। "दस रुपये दे दूँ तो?" "बीस दिन, बेटा"। "सौ रुपये दे दूँ तो? "छः महीने भीख नहीं मांगूंगी, बेटा"। तपती दुपहरी में सड़क किनारे बैठी माँ मांगती रही और बेटा देता रहा। इक्केवाला समझ नहीं पा रहा था की आख़िर हो क्या रहा है! बेटे की थैली हलकी होती जा रही थी और माँ के भीख न मांगने की अवधि बढती जा रही थी। जब निराला ने रुपयों की आखिरी ढेरी बुढ़िया की झोली में उडेल दी तो बुढ़िया ख़ुशी से चीख पड़ी - "अब कभी भीख नहीं मांगूंगी बेटा, कभी नहीं!" निराला ने संतोष की साँस ली, बुढ़िया के चरण छए और इक्के में बैठकर घर को चले गए। 168 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानी कौन? सुप्रसिद्ध रूसी लेखक इवान तुर्गनेव अत्यन्त कुलीन व संपन्न परिवार में जन्मे थे। एक बार उन्हें रास्ते में एक बूढा भिखारी दिखाई दिया। उसके होंठ ठण्ड से नीले पड़ चुके थे और मैले हांथों में सूजन थी। उसकी हालत देखकर तुर्गनेव द्रवित हो उठे। वह ठिठक कर रुक गए। भिखारी ने हाथ फैलाकर दान माँगा। तुर्गनेव ने कोट की जेब में हाथ डाला, बटुआ वह शायद लाना भूल गए थे। तुर्गनेव को बड़ी ग्लानि हुई। वे बड़ी उलझन में फंस गए। कुछ क्षणों तक किम्कर्तव्यविमूढ रहने के बाद उन्होंने भिखारी की और देखा और उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर बोले - "मैं बहुत शर्मिंदा हूँ, मित्र। आज मैं अपना बटुआ घर भूल आया हूँ और कुछ भी नहीं दे सकता। बुरा मत मानना।" भिखारी की आँखों से दो बूंद आंसू टपक पड़े। उसने बड़े अपनत्व से तुर्गनेव की ओर देखा। उसके होंठों पर हलकी सी मुस्कराहट आई और वह तुर्गनेव के हाथों को धीमे से दबाकर बोला - "कृपया आप शर्मिंदा न हों। मुझे बहुत कुछ मिल गया है जिसका मूल्य पैसे से कहीं बढ़कर है। ईश्वर आपको समृद्धि दे।" भिखारी तो अपनी राह चला गया पर तुर्गनेव कुछ देर वहीं ठगे से खड़े रहे। उन्हें प्रतीत हआ की दान उन्होंने नहीं वरन भिखारी ने दिया है। 169 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीचड में पत्थर न मारो एक बार किसी साधारण विद्वान् ने उर्दू-फारसी का एक कोश प्रकाशित करवाया और इस कोश का इतना अधिक प्रचार-प्रसार किया कि लोग बिना देखे ही उस कोश की प्रशंसा करने लगे। उर्दू के प्रसिद्द शायर मिर्जा गालिब ने जब वह कोश देखा तो उन्हें निराशा हुई क्योंकि कोश इतनी प्रशंसा के लायक नहीं था। मिर्जा गालिब ने उस कोश की आलोचना खरे शब्दों में लिख दी। कोश का लेखक और उसके कुछ प्रशंसक गालिब की स्पष्टवादिता से नाराज़ हो गए और गालिब के खिलाफ कीचड उछालने लगे और भद्दी-भद्दी बातें लिखने लगे। गालिब ने किसी से कुछ नहीं कहा। ग़ालिब के एक शुभचिंतक से यह देखा न गया और उसने ग़ालिब से कहा कि उन लोगों के खिलाफ ऐसा कछ लिखना चाहिए कि उनके मुंह बंद हो जायें। गालिब ने उससे कहा - "यदि कोई गधा तुम्हें लात मारे तो क्या तुम भी उसे लात मारोगे?" ग़ालिब व्यर्थ ही प्रलाप करनेवालों का चरित्र समझते थे। उनका उत्तर देना कीचड़ में पत्थर मारने के समान था। ऐसे छोटे लोगों द्वारा निंदा या स्तुति करने की उन्हें कोई परवाह नहीं थी। ख़ुद पर उन्हें बड़ा यकीन था। उनका यह जवाब सुनकर उनका शुभचिंतक निरुत्तर हो गया। कुछ ही दिनों में लोगों को उस कोश के स्तरहीन होने का पता चल गया। उन्होंने ग़ालिब की आलोचना की सराहना की और स्तरहीन कोश के लेखक को नीचा देखना पड़ा। 170 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़े गुलाम अली खां साहब बड़े गुलाम अली खां साहब की गणना भारत के महानतम गायकों व संगीतज्ञों में की जाती है। वे विलक्षण मधुर स्वर के स्वामी थे। उनके गायन को सुनकर श्रोता अपनी सुध-बुध खोकर कुछ समय के लिए स्वयं को खो देते थे। भारत के कोने-कोने से संगीत के पारखी लोग खां साहब को गायन के लिए न्यौता भेजते थे। क्या राजघराने क्या मामूली स्कूल के विद्यार्थी, खां साहब की मखमली आवाज़ सभी को मंत्रमुग्ध कर देती थी। एक बार पटना के एक संगीत विद्यालय ने एक स्वर संध्या का आयोजन किया और उसमें बड़े-बड़े संगीतकारों को आमंत्रित किया। खां साहब उस समारोह के मुख्य अतिथि थे। तय समय के पहले ही वे अपने साजिंदों के साथ आयोजन स्थल पर कार्यक्रम प्रारम्भ होने से पहले खां साहब ने संगीत के एक छात्र से पूछा - "तुमने अब तक क्या-क्या सीख लिया है?" उस छात्र ने बड़े घमंड से कहा - "अब मैं कुछ सीखता नहीं हूँ, मैंने स्वयं साठ राग तैयार कर लिए हैं"। दूसरे ने सत्तर राग, तीसरे ने पिचासी राग और चौथे छात्र ने तो सौ राग सीख लेने का दावा किया। उन छात्रों की बातों से लगता था की वे अब संगीत के मूर्धन्य पंडित बन चुके हैं और उन्हें किसी उस्ताद से कुछ और सीखने की ज़रूरत नहीं है। जब खां साहब ने यह देखा की उस विद्यालय के छात्रों में ज्ञान के प्रति ललक और समर्पण नहीं है तो उन्होंने अपने साजिंदों से साज बाँध लेने के लिए कहा क्योंकि वहां तो बड़े-बड़े ज्ञानी संगीतज्ञ थे। आयोजकों ने उनसे रुकने के लिए बहुत अनुनय-विनय किया लेकिन खां साहब तो चल दिए। उन अनिच्छुक छात्रों को वे कुछ भी नहीं सिखा सकते थे। 171 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदद जंगल में एक आदमी के पीछे एक शेर लग गया। उससे बचते-बचते आदमी एक पहाड़ पर चढ़ गया और उसकी चोटी से नीचे गिर गया। गिरते समय उसने एक पेड़ की पतली सी टहनी को कसकर जकड लिया। पाँच हाथ ऊपर शेर दहाडें मार रहा था और दसियों फुट नीचे अथाह समुद्र उफान भर रहा था। इतनी मुसीबत भी कम न थी... आदमी ने देखा कि पेड़ की उस टहनी को दो चूहे कुतर रहे थे। आदमी ने अपना अंत करीब पाया और कातर स्वर में चिल्लाया "मुझे बचा ले ऐ खुदा!" उसी समय आसमान से आवाज़ आई "मैं तुझे बचाऊँगा मेरे बच्चे, लेकिन पहले इस टहनी को तो छोड़!" 172 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लम्बी उम्र का राज़ प्रसिद्द चीनी दार्शनिक कन्फ़्युशियस से मिलने एक सज्जन आए। दोनों के बीच बहुत सारी बातों पर चर्चा हुई। कन्फ़्यु शियस ने उस व्यक्ति के बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर भी दिए। उन सज्जन ने कन्फ़्यूशियस से पूछा - "लंबे जीवन का रहस्य क्या है?" कन्फ़्यूशियस यह सुनकर मुस्कुराये। उन्होंने उस व्यक्ति को पास बुलाकर पूछा - "मेरे मुंह में देखकर बताएं कि जीभ है या नहीं।" उस व्यक्ति ने मुंह के भीतर देखकर कहा - "जीभ तो है।" कन्फ़्यूशियस ने फ़िर कहा - "अच्छा, अब देखिये कि दांत हैं या नहीं।" उन सज्जन ने फ़िर से मुंह में झाँककर देखा और कहा - "दांत तो एक भी नहीं हैं।" कन्फ्यूशियस ने पूछा - "अजीब बात है। जीभ तो दांतों से पहले आई थी। उसे तो पहले जाना चाहिए था। लेकिन दांत पहले क्यों चले गए?" वह सज्जन जब इसका कोई जवाब नहीं दे सके तो कन्फ़्यूशियस ने कहा - "इसका कारण यह है कि जीभ लचीली होती है लेकिन दांत कठोर होते हैं। जिसमें लचीलापन होता है वह लंबे समय तक जीता है।" 173 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जार्ज बर्नार्ड शा की कमाई इंग्लैंड के प्रसिद्द साहित्यकार - नाटककार जार्ज बर्नार्ड शा को प्रारम्भ में बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन्होंने अपनी चिर-परिचित शैली में कहा है- "जीविका के लिए साहित्य को अपनाने का मुख्य कारण यह था कि लेखक को पाठक देखते नहीं हैं इसलिए उसे अच्छी पोशाक की ज़रूरत नहीं होती। व्यापारी, डाक्टर, वकील, या कलाकार बनने के लिए मुझे साफ़ कपड़े पहनने पड़ते और अपने घुटने और कोहनियों से काम लेना छोड़ना पड़ता। साहित्य ही एक ऐसा सभ्य पेशा है जिसकी अपनी कोई पोशाक नहीं है, इसीलिए मैंने इस पेशे को चुना है । " फटे जूते, छेद वाला पैजामा घिस घिस कर काले से हारा भूरा हो गया ओवरकोट, बेतरतीब तराशा गया कॉलर, और बेडौल हो चुका पुराना टॉप यही उनकी पोशाक थी। - बहुत लंबे समय तक शा लिखते गए लेकिन उनकी किसी भी रचना को प्रकाशन योग्य नहीं समझा गया। किसी प्रकाशक ने कुछ पुराने ब्लॉक खरीद कर स्कूलों में ईनाम देने के लिए कुछ किताबें तैयार करवाई। उसने शा से कहा कि वे ब्लॉकों के नीचे छापने के लिए कुछ कवितायें लिख दें। शा को इसमें धन प्राप्ति की कोई उम्मीद नहीं थी उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ जब प्रकाशक ने कविताओं के लिए धन्यवाद पत्र के साथ पाँच शिलिंग भी भेजे। अपने साहित्यिक जीवन के प्रारंभिक नौ वर्षों में लिखने की कमाई से वे केवल छः पौंड ही प्राप्त कर सके, लेकिन शा ने लिखना नहीं छोड़ा और वे बीसवीं शताब्दी के सबसे प्रसिद्द अंग्रेजी नाटककार बन गए। उन्हें साहित्य का नोबल पुरस्कार भी दिया गया। 174 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्य की मित्रता एक बार चैतन्य महाप्रभु नाव में बैठकर जा रहे थे। उसी नाव में उनके बचपन के मित्र रघुनाथ पंडित भी बैठे हुए थे। रघुनाथ पंडित संस्कृत के प्रकांड विद्वान माने जाते थे। चैतन्य ने उन्हीं दिनों न्याय दर्शन पर एक उच्च कोटि का ग्रन्थ लिखा था। उन्होंने अपना ग्रन्थ रघुनाथ पंडित को दिखाया और उसके कुछ अंश उन्हें पढ़ कर सुनाये। रघुनाथ पंडित कुछ देर तक ध्यानपूर्वक चैतन्य को सुनते रहे। धीरे-धीरे उनका चेहरा मुरझाने लगा और वे रो पड़े। यह देखकर चैतन्य को आश्चर्य हुआ। उन्होंने ग्रन्थ का पाठ रोककर पंडित रघुनाथ से रोने का कारण पूछा। पंडित जी पहले तो कुछ नहीं बोले, फ़िर गहरी साँस लेकर बोले - "मित्र निमाई, मैं क्या कहूँ। मेरी जीवन भर की तपस्या निष्फल हो गई। वर्षों के घोर परिश्रम के उपरांत मैंने इसी विषय पर एक बड़ा ग्रन्थ लिखा है। मुझे लगता था कि मेरा ग्रन्थ बेजोड़ था और मुझे उससे बहुत यश मिलेगा, लेकिन तुम्हारे ग्रन्थ के अंशों को सुनाने से मेरी आशाओं पर पानी फ़िर गया। इस विषय पर तुम्हारा ग्रन्थ इतना उत्तम है कि इसके सामने मेरे ग्रन्थ को कोई पूछेगा भी नहीं। मेरा सारा किया-धरा व्यर्थ ही हो गया। भला सूर्य के सामने दीपक की क्या बिसात!" यह सुनकर चैतन्य बड़ी सरलता से हँसते हुए बोले - "भाई रघुनाथ, दुखी क्यों होते हो? तुम्हारे ग्रन्थ का गौरव मेरे कारण कम नहीं होने पायेगा।" और उदारमना चैतन्य ने उसी समय अपने महान ग्रन्थ को फाड़कर गंगा में बहा दिया। 175 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा का महत्त्व सिखों के पांचवें गुरु अर्जुनदेव जी जब चौथे गुरु के अखाड़े में शामिल हुए तो उन्हें छोटे-छोटे काम करने को दिए गए। उन्हें ढेरों जूठे बर्तन भी साफ करना होता था । अर्जुनदेव जी को जो भी काम बताया जाता उसे वे बड़ी लगन से पूरा करते थे। छोटेसे-छोटा काम करने में भी उन्होंने कभी संकोच नहीं किया। वे सभी कामों को ज़रूरी और महत्वपूर्ण समझते थे। किसी भी काम को करने में उन्हें हीन भावना अनुभव नहीं हुई। जब दूसरे शिष्य दिनभर सत्संग का आनंद लेने के बाद रात में विश्राम करते थे तब अर्जुनदेव जी आधी रात तक अखाड़े के ज़रूरी कामों में लगे रहते थे और अगली सुबह जल्दी उठकर पुनः कामों में लग जाते थे। दूसरे शिष्यों में यह बात फैल गई थी कि गुरुजी अर्जुनदेव को तुच्छ समझते हैं परन्तु वे यह नहीं जानते थे कि गुरु में शिष्यों की सच्ची परख है और वे मानव सेवा को सबसे महान कार्य समझते हैं। समाधि लेने के पूर्व गुरूजी ने काफी सोच-विचार के बाद अपने शिष्यों में से एक को अपना उत्तराधिकारी चुन लिया और उसके नाम का अधिकार पत्र लिखकर बक्से में बंद कर दिया। चौथे गुरु के चोला छोड़ने के बाद वह अधिकार पत्र सबके सामने खोलकर पढ़ा गया तो पता चला कि दिवंगत गुरुजी ने अपना उत्तराधिकारी गुरु अर्जुनदेव जी को चुन लिया था। अन्य शिष्यों ने तब सेवा के महत्त्व को समझा। गुरु अर्जुनदेव जी ने सभी कि आशाओं के अनुरूप कार्य करके बड़ी ख्याति अर्जित की और गुरु नानकदेव जी के 'एक ओंकार सतनाम के मत को दूर-दूर तक पहुँचाया। 176 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किताबी ज्ञान सैंकडों साल पहले अरब में इमाम गजाली नमक एक बड़े विद्वान् और धार्मिक गुरु हुए। युवावस्था में वे एक बार दूसरे शहर की यात्रा पर निकले थे. उस ज़माने में यात्रा का कोई साधन नहीं था और डाकुओं का हमेशा भय बना रहता था. एक दिन गजाली जंगल में सुस्ताते हुए कुछ पढ़ रहे थे। उसी समय डाकुओं ने वहां धावा बोल दिया. डाकुओं ने गजाली से कहा - "तुम्हारे पास जो कुछ भी है वो हमारे हवाले कर दो, वर्ना जान से हाथ धोना पड़ेगा." गजाली ने कहा - "मेरे पास सिर्फ कपडे और किताबें हैं"| डाकुओं ने कहा - "हमें कपड़े नहीं चाहिए। किताबें हम बेच देंगे". इस प्रकार डाकू गजाली का किताबों का बस्ता अपने साथ ले चले. गजाली को अपनी किताबें छीन जाने का बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने सोचा - "कभी कोई बात किताब में देखने की ज़रुरत पड़ी तो मैं क्या करूँगा?" वे दौड़कर डाकुओं के पास पहुंचे और उनसे गिड़गिडाकर बोले - "ये किताबें मेरे बड़े काम की हैं। इनको बेचकर आपको बहुत कम पैसा मिलेगा लेकिन मेरा बहुत बड़ा नुकसान हो जायेगा. इन किताबों में बहुत ज्ञान समाया है. ज़रुरत पड़ने पर मैं किताब कैसे देखूगा? दया करके मुझे मेरी किताबें लौटा दीजिये!" डाकुओं का सरदार यह सुनकर जोरों से हंस पड़ा और किताबों का बस्ता जमीन पर फेंकते हुए बोला - "ऐसा ज्ञान किस काम का कि किताबें छिन जाएँ तो कुछ भी याद न रहे! उठाले अपना बस्ता, बड़ा ज्ञानी बना फिरता है।" गजाली पर डाकू की बात का बड़ा भारी प्रभाव पड़ा - वह ज्ञान कैसा जो किताबों के बिना शून्य हो! इस घटना के बाद गजाली ने हर किताब में निहित ज्ञान को अपने मन-मष्तिष्क और ह्रदय में संजो लिया. कालांतर में वे बहुत बड़े इमाम और धर्मगुरु बने. 177 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैमूर लंग की कीमत तैमूर लंग अपने समय का सबसे क्रूर शासक था। उसने हजारों बस्तियां उजाड़ दीं और 'खून कि नदियाँ बहाई। सैंकडों लोगों को अपनी आँखों के सामने मरवा देना तो उसके लिए मनोविनोद था. कहते हैं कि एक बार उसने बग़दाद में एक लाख लोगों के सर कटवाकर उनका पहाड़ बनवाया था. वह जिस रास्ते से गुज़रता था वहां के नगर और गाँव कब्रिस्तान बन जाते थे। एक बार एक नगर में उसके सामने बहुत सारे बंदी पकड़ कर लाये गए। तैमूर लंग को उनके जीवन का फैसला करना था । उन बंदियों में तुर्किस्तान का मशहूर कवि अहमदी भी था। तैमूर ने दो गुलामों कि ओर इशारा करके अहमदी से पूछा "मैंने सुना है कि कवि लोग आदमियों के बड़े पारखी होते हैं। क्या तुम मेरे इन दो गुलामों की ठीक-ठीक कीमत बता सकते हो?" अहमदी बहुत निर्भीक और स्वाभिमानी कवि थे। उन्होंने गुलामों को एक नज़र देखकर निश्छल भाव से कहा- 'इनमें से कोई भी गुलाम पांच सौ अशर्फियों से ज्यादा कीमत का नहीं है। " "बहुत खूब" - तैमूर ने कहा- "और मेरी कीमत क्या होनी चाहिए ? " अहमदी ने फ़ौरन उत्तर दिया -"पच्चीस अशर्फियाँ" । - यह सुनकर तैमूर की आँखों में खून उतर आया। वह तिलमिलाकर बोला - "इन तुच्छ गुलामों की कीमत पांच सौ अशर्फी और मेरी कीमत सिर्फ पच्चीस अशर्फियाँ! इतने की तो मेरी टोपी है!" अहमदी ने चट से कहा - "बस, वही तो सब कुछ है! इसीलिए मैंने तुम्हारी ठीक कीमत लगाई है"। तैमूर कवि का मंतव्य समझ गया. अहमदी के अनुसार तैमूर दो कौडी का भी नहीं था. अहमदी को मरवाने की तैमूर में हिम्मत नहीं थी. उसने कवि को पागल करार करके छोड़ दिया. 178 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोह किससे? किसी धनी भक्त ने एक बार श्री रामकृष्ण परमहंस को एक कीमती दुशाला भेंट में दिया। स्वामीजी ऐसी वस्तुओं के शौकीन नहीं थे लेकिन भक्त के आग्रह पर उन्होंने भेंट स्वीकार कर ली. उस दुशाला को वह कभी चटाई की तरह बिछाकर उसपर लेट जाते थे कभी उसे कम्बल की तरह ओढ़ लेते थे. दशाले का ऐसा उपयोग एक सज्जन को ठीक नहीं लगा। उसने स्वामीजी से कहा - "यह तो बहुत मूल्यवान दुशाला है. इसका बहुत जतन से प्रयोग करना चाहिए. ऐसे तो यह बहुत जल्दी ख़राब हो जायेगी!" परमहंस ने सहज भाव से उत्तर दिया - "जब सभी प्रकार की मोह-ममता को छोड दिया है तो इस कपड़े से कैसा मोह करूँ? क्या अपना मन भगवान की और से हटाकर इस तुच्छ वस्तु में लगाना उचित होगा? ऐसी छोटी वस्तु की चिंता करके अपना ध्यान बड़ी बात से हटा देना कहाँ की बुद्धिमानी है?" ऐसा कहकर उन्होंने दुशाले के एक कोने को पास ही जल रहे दिए की लौ से छुआकर थोडा सा जला दिया और उस सज्जन से कहा - "लीजिये, अब न तो यह दुशाला मूल्यवान रही और न सुन्दर। अब मेरे मन में इसे सहेजने की चिंता कभी पैदा नहीं होगी और मैं अपना सारा ध्यान भगवान् की और लगा सकूँगा." वे सज्जन निरुत्तर हो गए. परमहंस ने भक्तों को समझाया कि सांसारिक वस्तुओं से मोह-ममता जितनी कम होगी. सखी जीवन के उतना ही निकट पहंचा जा सकेगा। 179 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम मोहन राय की सहनशीलता ब्रिटिश भारत के महान समाज सुधारक राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा की समाप्ति और विधवा विवाह के समर्थन में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। ज़रा सोचें, आज से लगभग १५० वर्ष पूर्व के भारत में इन सुधारों की बात करना कितना क्रन्तिकारी कदम था। उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की जिसका उद्देश्य था समस्त सामाजिक कुरीतियों का बहिष्कार करना और मानव मात्र की सेवा करना। एक बार उनके दो मित्रों ने यह विचार किया कि यदि राजा राम मोहन राय वास्तव में ब्रह्मज्ञानी हैं तो उनपर किसी भी प्रकार के मोह-माया के बंधनों का असर नहीं पड़ेगा। इसकी परीक्षा लेने के लिए उन्होंने एक योजना बनाई। एक व्यक्ति को डाकिया बनाकर राजा राम मोहन राय को एक पत्र भिजवाया गया। पत्र में लिखा था कि आपके बड़े पुत्र का दुर्घटना में निधन हो गया है। योजना के अनुसार वे दोनों मित्र भी उस समय वहां मौजूद थे जब डाकिये ने वह पत्र राजा राम मोहन राय को दिया। राजा राम मोहन राय ने पत्र पढ़ा तो उनके चेहरे पर स्वाभाविक रूप से कुछ परिवर्तन आ गया। पुत्रशोक की वेदना उनके चेहरे पर उभर आई। कुछ क्षणों तक वे कुछ न बोले और निश्चल बैठे रहे। फ़िर वह जिस काम में लगे हुए थे उसी काम को करने लगे। कुछ ही समय में उन्होंने अपने आप को संभाल लिया और इतने बड़े शोक को सहने की शक्ति जुटा ली। दोनों मित्रों ने वास्तविकता बताकर उनसे अपने इस कृत्य के लिए क्षमा मांगी। राजा राम मोहन राय को उनके कृत्य पर ज़रा भी क्रोध नहीं आया और वे पूर्ववत अपना काम करने में लगे रहे। 180 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आइंस्टाइन के उपकरण कैलटेक (कैलिफोर्निया इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी) ने अलबर्ट आइंस्टाइन को एक समारोह में आमंत्रित किया। आइंस्टाइन अपनी पत्नी के साथ कार्यक्रम में हिस्सा लेने गए। उन्होंने माउन्ट विल्सन पर स्थित अन्तरिक्ष वेधशाला भी देखी। उस वेधशाला में उस समय तक बनी दुनिया की सबसे बड़ी अन्तरिक्ष दूरबीन स्थापित थी। उतनी बड़ी दूरबीन को देखने के बाद श्रीमती आइंस्टाइन ने वेधशाला के प्रभारी से पूछा "इतनी बड़ी दूरबीन से आप क्या देखते हैं?" प्रभारी को यह लगा कि श्रीमती आइंस्टाइन का खगोलशास्त्रीय ज्ञान कुछ कम है। उसने बड़े रौब से उत्तर दिया- "इससे हम ब्रम्हांड के रहस्यों का पता लगाते हैं। " "बड़ी अजीब बात है मेरे पति तो यह सब उनको मिली चिट्ठियों के लिफाफों पर ही कर लेते हैं" श्रीमती आइंस्टाइन ने कहा। - नाजी गतिविधियों के कारण आइंस्टाइन को जर्मनी छोड़कर अमेरिका में शरण लेनी पड़ी। उन्हें बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों ने अपने यहाँ आचार्य का पद देने के लिए निमंत्रित किया लेकिन आइंस्टाइन ने प्रिंसटन विश्वविद्यालय को उसके शांत बौद्धिक वातावरण के कारण चुन लिया। पहली बार प्रिंसटन पहुँचने पर वहां के प्रशासनिक अधिकारी ने आइंस्टाइन से कहा "आप प्रयोग के लिए आवश्यक उपकरणों की सूची दे दें ताकि आपके कार्य के लिए उन्हें जल्दी ही उपलब्ध कराया जा सके।" आइंस्टाइन ने सहजता से कहा "आप मुझे केवल एक ब्लैकबोर्ड, कुछ चाक, कागज़ और पेन्सिल दे दीजिये।" यह सुनकर अधिकारी हैरान हो गया। इससे पहले कि वह कुछ और कहता, आइंस्टाइन ने कहा "और एक बड़ी टोकरी भी मंगा लीजिये क्योंकि अपना काम करते समय मैं बहुत सारी गलतियाँ भी करता हूँ और छोटी टोकरी बहुत जल्दी रद्दी से भर जाती है।" जब लोग आइंस्टाइन से उनकी प्रयोगशाला के बारे में पूछते थे तो वे केवल अपने सर की ओर इशारा करके मुस्कुरा देते थे। एक वैज्ञानिक ने उनसे उनके सबसे प्रिय उपकरण के बारे में पूछा तो आइन्स्टीन ने उसे अपना फाउंटन पेन दिखाया। उनका दिमाग उनकी प्रयोगशाला थी और फाउंटन पेन उनका उपकरण। 181 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चा साधु भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को दीक्षा देने के उपरांत उन्हें धर्मचक्र-प्रवर्तन के लिए अन्य नगरों और गावों में जाने की आज्ञा दी। बुद्ध ने सभी शिष्यों से पूछा - "तुम सभी जहाँ कहीं भी जाओगे वहां तुम्हें अच्छे और बुरे - दोनों प्रकार के लोग मिलेंगे। अच्छे लोग तुम्हारी बातों को सुनेंगे और तुम्हारी सहायता करेंगे। बुरे लोग तुम्हारी निंदा करेंगे और गालियाँ देंगे। तुम्हें इससे कैसा लगेगा?" हर शिष्य ने अपनी समझ से बुद्ध के प्रश्न का उत्तर दिया। एक गुणी शिष्य ने बुद्ध से कहा - "मैं किसी को बुरा नहीं समझता। यदि कोई मेरी निंदा करेगा या मुझे गालियाँ देगा तो मैं समझूगा कि वह भला व्यक्ति है क्योंकि उसने मुझे सिर्फ गालियाँ ही दी, मुझपर धूल तो नहीं फेंकी।" बुद्ध ने कहा - "और यदि कोई तुमपर धूल फेंक दे तो?" "मैं उन्हें भला ही कहूँगा क्योंकि उसने सिर्फ़ धूल ही तो फेंकी, मुझे थप्पड़ तो नहीं मारा।" "और यदि कोई थप्पड़ मार दे तो क्या करोगे?" "मैं उन्हें बुरा नहीं कहूँगा क्योंकि उन्होंने मुझे थप्पड़ ही तो मारा, डंडा तो नहीं मारा।" "यदि कोई डंडा मार दे तो?" "मैं उसे धन्यवाद दूंगा क्योंकि उसने मुझे केवल डंडे से ही मारा, हथियार से नहीं मारा।" "लेकिन मार्ग में तुम्हें डाकू भी मिल सकते हैं जो तुमपर घातक हथियार से प्रहार कर सकते हैं।" "तो क्या? मैं तो उन्हें दयालु ही समझंगा, क्योंकि वे केवल मारते ही हैं, मार नहीं डालते।" "और यदि वे तुम्हें मार ही डालें?" 182 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य बोला "इस जीवन और संसार में केवल दुःख ही है जितना अधिक जीवित रहूँगा उतना अधिक दुःख देखना पड़ेगा। जीवन से मुक्ति के लिए आत्महत्या करना तो महापाप है। यदि कोई जीवन से ऐसे ही छुटकारा दिला दे तो उसका भी उपकार मानूंगा।" शिष्य के यह वचन सुनकर बुद्ध को अपार संतोष हुआ ये बोले तुम धन्य हो । केवल - तुम ही सच्चे साधु हो । सच्चा साधु किसी भी दशा में दूसरे को में बुराई नहीं देखता वही सच्चा परिव्राजक होने के योग्य है। चलोगे।" 183 - बुरा नहीं समझता। जो दूसरों तुम सदैव धर्म के मार्ग पर Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाभिमानी बालक किसी गाँव में रहने वाला एक छोटा लड़का अपने दोस्तों के साथ गंगा नदी के पार मेला देखने गया। शाम को वापस लौटते समय जब सभी दोस्त नदी किन | लड़के ने नाव के किराये के लिए जेब में हाथ डाला। जेब में एक पाई भी नहीं थी। लड़का वहीं ठहर गया। उसने अपने दोस्तों से कहा कि वह और थोड़ी देर मेला देखेगा। वह नहीं चाहता था कि उसे अपने दोस्तों से नाव का किराया लेना पड़े। उसका स्वाभिमान उसे इसकी अनुमति नहीं दे रहा था। उसके दोस्त नाव में बैठकर नदी पार चले गए। जब उनकी नाव आँखों से ओझल हो गई तब लड़के ने अपने कपड़े उतारकर उन्हें सर पर लपेट लिया और नदी में उतर गया। उस समय नदी उफान पर थी। बड़े-से-बड़ा तैराक भी आधे मील चौड़े पाट को पार करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। पास खड़े मल्लाहों ने भी लड़के को रोकने की कोशिश की। उस लड़के ने किसी की न सुनी और किसी भी खतरे की परवाह न करते हुए वह नदी में तैरने लगा। पानी का बहाव तेज़ था और नदी भी काफी गहरी थी। रास्ते में एक नाव वाले ने उसे अपनी नाव में सवार होने के लिए कहा लेकिन वह लड़का रुका नहीं, तैरता गया। कुछ देर बाद वह सकुशल दूसरी ओर पहुँच गया। उस लड़के का नाम था 'लालबहादुर शास्त्री'। 184 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकंदर का अंहकार सिकंदर ने ईरान के राजा दारा को पराजित कर दिया और विश्वविजेता कहलाने लगा। विजय के उपरांत उसने बहुत भव्य जुलूस निकाला। मीलों दूर तक उसके राज्य के निवासी उसके स्वागत में सर झुकाकर उसका अभिवादन करने के लिए खड़े हुए थे। सिकंदर की ओर देखने का साहस मात्र किसी में कहीं था। मार्ग के दूसरी ओर से सिकंदर ने कुछ फकीरों को सामने से आते हुए देखा। सिकंदर को लगा कि वे फ़कीर भी रूककर उसका अभिवादन करेंगे। लेकिन किसी भी फ़कीर ने तो सिकंदर की तरफ़ देखा तक नहीं। अपनी ऐसी अवमानना से सिकंदर क्रोधित हो गया। उसने अपने सैनिकों से उन फकीरों को पकड़ कर लाने के लिए कहा। सिकंदर ने फकीरों से पछा - "तम लोग नहीं दर ने फकीरों से पूछा - "तुम लोग नहीं जानते कि मैं विश्वविजेता सिकंदर हूँ? मेरा अपमान करने का दुस्साहस तुमने कैसे किया?" उन फकीरों में एक वृद्ध महात्मा भी था। वह बोला - "किस मिथ्या वैभव पर तुम इतना अभिमान कर रहे हो, सिकंदर? हमारे लिए तो तुम एक साधारण आदमी ही हो।" यह सुनकर सिकंदर का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। महात्मा ने पुनः कहा - "तुम उस तृष्णा के वश में होकर यहाँ-वहां मारे-मारे फ़िर रहे हो जिसे हम वस्त्रों की तरह त्याग चुके हैं। जो अंहकार तुम्हारे सर पर सवार है वह हमारे चरणों का गुलाम है। हमारे गुलाम का भी गुलाम होकर तुम हमारी बराबरी की बात कैसे करते हो? हमारे आगे तुम्हारी कैसी प्रभुता?" सिकंदर का अंहकार मोम की तरह पिघल गया। उस महात्मा के बोल उसे शूल की तरह चुभ गए। उसे अपनी तुच्छता का बोध हो गया। उन फकीरों की प्रभुता के आगे उसका समस्त वैभव फीका था। उसने उन सभी को आदर सहित रिहा कर दिया। 185 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञास बालक छः साल के बालक अल्बर्ट आइंस्टाइन को जर्मनी के म्यूनिख शहर के सबसे अच्छे स्कूल में भरती किया गया। इन स्कूलों को उन दिनों जिम्नेजियम कहा जाता था और उनकी पढ़ाई दस वर्षों में पूरी होती थी। इस बालक के शिक्षक उससे बहुत परेशान थे। वे उसकी एक आदत के कारन हमेशा उससे नाराज़ रहते थे - प्रश्न पूछने की आदत के कारण। घर हो या स्कूल, अल्बर्ट इतने ज्यादा सवाल पूछता था कि सामनेवाला व्यक्ति अपना सर पकड़ लेता था। एक दिन उसके पिता उसके लिए, एक दिशासूचक यन्त्र खरीद कर लाये तो अल्बर्ट ने उनसे उसके बारे में इतने सवाल पूछे कि वे हैरान हो गए। आज भी स्कूलों के बहुत सारे शिक्षक बहुत ज्यादा सवाल पूछनेवाले बच्चे को हतोत्साहित कर देते हैं, आज से लगभग १२५ साल पहले तो हालात बहुत बुरे थे। अल्बर्ट इतनी तरह के प्रश्न पूछता था कि उनके जवाब देना तो दूर, शिक्षक यह भी नहीं समझ पते थे कि अल्बर्ट ने वह प्रश्न कैसे बूझ लिया। नतीजतन, वे किसी तरह टालमटोल करके उससे अपना पिंड छुड़ा लेते। जब अल्बर्ट दस साल का हआ तो उसके पिता अपना कारोबार समेटकर इटली के मिलान शहर में जा बसे। अल्बर्ट को अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए म्यूनिख में ही रुकना पड़ा। परिवार से अलग हो जाने के कारण अल्बर्ट दुखी था। दूसरी ओर, उसके सवालों से तंग आकर उसके स्कूल के शिक्षक चाहते थे कि वह किसी और स्कूल में चला जाए। हेडमास्टर भी यही चाहता था। उसके अल्बर्ट को बुलाकर कहा - "यहाँ का मौसम तुम्हारे लिए ठीक नहीं है। इसीलिए हम तुम्हें लम्बी छुट्टी दे रहे हैं। तबीयत ठीक हो जाने पर तुम किसी और स्कूल में दाखिल हो जाना।" अल्बर्ट को इससे दुःख भी हुआ और खुशी भी हुई। अपनी पढ़ाई में अल्बर्ट हमेशा औसत विद्यार्थी ही रहे। प्रश्न पूछना और उनके जवाब ढूँढने की आदत ने अल्बर्ट को विश्व का महानतम वैज्ञानिक बनने में सहायता की। सच मानें, आज भी विश्व में उनके सापेक्षता के सिद्धांत को पूरी तरह से समझनेवालों की संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है। 186 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लंबे सफर में ईमानदारी शाह अशरफ अली बहुत बड़े मुस्लिम संत थे। एक बार वे रेलगाड़ी से सहारनपुर से लखनऊ जा रहे थे। सहारनपुर स्टेशन पर उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि वे सामान को तुलवाकर ज्यादा वजनी होने पर उसका किराया अदा कर दें। वहीं पास में गाड़ी का गार्ड भी खड़ा था। वह बोला - "सामान तुलवाने कि कोई ज़रूरत नहीं है। मैं तो साथ में ही चल वह गार्ड भी शाह अशरफ अली का अनुयायी था। शाह ने उससे पूछा - "आप कहाँ तक जायेंगे।" "मुझे तो बरेली तक ही जाना है, लेकिन आप सामान की चिंता नहीं करें" - गार्ड बोला। "लेकिन मुझे तो बहुत आगे तक जाना है" - शाह ने कहा। "मैं दूसरे गार्ड से कह दूँगा। वह लखनऊ तक आपके साथ चला जाएगा।" "और उसके आगे?" - शाह ने पूछा। "आपको तो सिर्फ़ लखनऊ तक ही जाना है न। वह भी आपके साथ लखनऊ तक ही जाएगा" - गार्ड बोला। "नहीं बरखुरदार, मेरा सफर बहुत लंबा है" - शाह ने गंभीरता से कहा। "तो क्या आप लखनऊ से भी आगे जायेंगे?" "अभी तो सिर्फ लखनऊ तक ही जा रहा हूँ, लेकिन ज़िन्दगी का सफर तो बहुत लंबा है। वह तो खुदा के पास जाने पर ही ख़त्म होगा। वहां पर ज्यादा सामान का किराया नहीं देने के गुनाह से मुझे कौन बचायेगा?" यह सुनकर गार्ड शर्मिंदा हो गया। शाह ने शिष्यों को ज्यादा वजनी सामान का किराया अदा करने को कहा, उसके बाद ही वह रेलगाड़ी में बैठे। 187 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके धनी होने के दस कारण (यह लेख मैंने यहाँ से लेकर क्रियेटिव कॉमंस लायसेंस के तहत अनूदित किया है) आपको पता नहीं है लेकिन आप बहुत धनी हैं ये रहे आपके धनी होने के दस कारण: १ आप कल रात भूखे पेट नहीं सोये । - २ - आप कल रात सड़क पर नहीं सोये । ३- आपके पास आज सुबह नहाने के बाद पहनने के लिए कपड़े थे। ४. आपने आज पसीना नहीं बहाया। ५ - आप आज एक पल के लिए भी भयभीत नहीं हुए । - ६- आप साफ़ पानी ही पीते हैं। ७- आप बीमार पड़ने पर दवाएं ले सकते हैं। ८ - आप इसे इन्टरनेट पर पढ़ रहे हैं। ९ आप इसे पढ़ रहे हैं। - १० आपको वोट देने का अधिकार है। - 188 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितनी लम्बी चादर हो, उतने ही पैर पसारें (यह लेख मैंने यहाँ से लेकर क्रियेटिव कॉमंस लायसेंस के तहत अपने तरीके से अनूदित किया है) खुशहाल ज़िन्दगी जियें, बरबाद ज़िन्दगी नहीं। दूसरों को दिखाने के लिए पैसा खर्च न करें। इस बात को हमेशा ध्यान में रखें कि दुनियावी वस्तुओं में वास्तविक संपत्ति नहीं है। अपने धन का नियोजन करें, धन को अपना नियोजन न करने दें। जितनी लम्बी चादर हो, उतने ही पैर पसारें। ___ "एक पैसा बचाया मतलब एक पैसा कमाया" -बेंजामिन फ्रेंकलिन १ - संपति की परिभाषा बदलें - "मुझे याद है अपनी पहली नौकरी के दौरान अपने दफ्तर के कमरे में बैठकर मैं दीवार पर लगी शानदार महँगी कार की तस्वीर को निहारता रहता था। देरसबेर मैंने ऐसी कार खरीद भी ली। आज, दस साल बाद मैं अपने दफ्तर के कमरे में बैठा हुआ दीवार पर लगी अपने बच्चों की तस्वीर को एकटक देखता रहता हूँ। खिड़की से बाहर मुझे पार्किंग लौट में खड़ी अपनी साधारण कार भी दिखती है। दस सालों में कितना कुछ बदल गया है! मेरे कहने का मतलब यह है कि मेरे लिए संपत्ति की परिभाषा यह है - इतना धन जो मेरे और मेरे परिवार की ज़ायज ज़रूरतों को पूरा कर दे, हमारी ज़िन्दगी को खुशहाल बनाये, और जिससे हम दूसरों की भी कुछ मदद कर पायें। (साई इतना दीजिये, जा में कुटुंब समाय; मैं भी भूखा न रहूँ साधुन भूखा जाय) २ - मिल-बांटकर काम चला लें - नई फ़िल्म सिनेमाहाल में देखना बहुत ज़रूरी तो नहीं। किसी दोस्त के पास उसकी DVD हो तो कुछ घंटों के लिए मांगकर ले आयें। इसमें संकोच कैसा! घर में ही बढ़िया सा नाश्ता बनायें और सस्ता सुंदर होम थियेटर का मज़ा लें। दोस्त को भी बुला लें। हिसाब लगायें आपने कितने पैसे बचाए! ३ - भूल न जाना, कभी माल न जाना - माल जाने में कुछ मज़ा नहीं है। कम उम्र के लड़के-लड़कियां माल जाने के शौकीन होते हैं, सभी जानते हैं क्यों। बहुत सारे लोग बोर होने पर भी माल चले जाते हैं। चाहे जो हो, माल जाएँ और कुछ खर्चा न करें, यह सम्भव नहीं है। यदि आपको कपड़े खरीदने हों तो बेहतर होगा यदि आप थोक कपड़ा बेचनेवालों से खरीदें। बहत सारे ब्रांडेड स्टोर भी अक्सर डिस्काउंट/सेल चलाते रहते हैं। सजग खरीददार माल न जाकर बहुत पैसा बचा सकते हैं। ४ - विज्ञापनों की खुराक कम करें - विज्ञापन जानलेवा हैं! शायद ही कोई इस बात से इनकार करे। विज्ञापन निर्माता विज्ञापनों की रचना इस प्रकार करते हैं कि आपको अपने जीवन और अपने आसपास कमी ही कमी दिखने लगती है। वे आपमें उत्पादों की कभी न 189 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुझनेवाली प्यास जगाना चाहते हैं। वे आपको यकीन दिलाते हैं की अमुक चीज़ के बिना आप अधूरे हैं। विज्ञापन देखने से बचें। ५ - नकद खरीदें - "जो धन आपके पास नहीं है उसे आप नहीं उड़ा सकते" - यह बात पुरानी हो गई है। कई बैंक ओवरड्राफ्ट सुविधा देते हैं - मतलब आप डेबिट कार्ड का इस्तेमाल करने से भी अपने बैंक अकाउंट को चूना लगा सकते हैं। सारी मुसीबतों से बचने के लिए जब खरीदें, नकद खरीदें। ६ - सौदेबाजी में शर्म कैसी? - किसी दुकान में यदि आप वस्तुओं के दाम की तुलना करने के लिए कीमत का लेबल चेक करेंगे तो आपकी इज्ज़त दांव पर नहीं लग जायेगी। सोचसमझ कर भावताव करके सामान खरीदें। आजकल फोन कनेक्शन लेते समय लोग कितना सोचते हैं! जिसमें ज्यादा से ज्यादा फायदा होता है उसे चुनते हैं। यही नीति दसरी चीजें खरीदते समय क्यों न अपनाई जाए? ७ . लम्बी बचत योजना बनायें - समझदार आदमी सारे अंडे एक ही टोकरी में नहीं रखता। यदि आप मार्केट में पैसा लगाते हों तो अपना पोर्टफोलियो लचीला और विस्तृत रखें। चाहे FD में पैसा लगायें या शेयरों में, उनपर निगाह रखना बहुत ज़रूरी है। छोटी अवधि के लाभ के लिए किया गया निवेश ज्यादा मुनाफा दे सकता है लेकिन सुरक्षित नहीं होता। 8 - बाज़ार के गुलाम नहीं बनें - आपने कभी देखा है कि कोई छोटा बच्चा कभी खिलौने से खेलने के बजाय उसके डब्बे से खेलने में ही आनंद लेता है। बच्चो के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि वे तभी खुश होंगे जब उनके पास बहुत कुछ खेलने के लिए होगा। हम बड़े लोग क्यों अपने मज़े के लिए दुनिया भर का कबाड़ अपने इर्दगिर्द खरीदकर जमा करते रहते हैं? ९ - स्वस्थ रहें - डाक्टर जेम्स एम् रिप बहुत बड़े ह्रदय रोग विशेषज्ञ और लेखक हैं। वे कहते हैं कि हमारी फिटनेस का ऊंचा स्तर हमारे लंबे जीवन को सुनिश्चित करता है। कोई बूढा आदमी जिसका दिल मज़बूत है वह उस जवान आदमी से बेहतर है जो दौड़भाग नहीं कर सकता। अपनी फिटनेस का स्तर बढ़ाकर हम अपनी जैविक घड़ी को पीछे कर सकते हैं। १० - घरबैठे ज़िन्दगी का लुत्फ़ लें - अगली बार घर से बाहर निकलने से पहले सोचें - क्या बाहर जाने की ज़रूरत है? हो सकता है बाहर निकले बगैर ही काम बन जाए। घर में बैठे और पैसे बचाएँ। ११ - बुरे दिनों के लिए ख़ुद को तैयार रखें - आज सब कुछ बहुत बढ़िया चल रहा है और आप खुद को हिमालय की चोटी पर महसूस कर रहे हैं लेकिन आपको स्वयं को आड़े वक़्त के 190 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए तैयार रखना चाहिए। हो सकता है कल कुछ बुरा हो जाए और आपकी आजीविका संकट में आ जाए। पैसे की हिफाज़त करें, पैसा आपकी हिफाज़त करेगा। जितना ज़रूरी हो उतना ही खर्च करें और बाकी पैसा बचा लें। दूसरों से होड़ करने के चक्कर में आप छोटी सी आर्थिक चोट सहने के लायक भी न रह पायेंगे। १२ - पड़ोसी की चिंता करना छोडिये - यदि रुपया-पैसा ही खुशियाँ लाता है तो दुनिया के धनी देशों में लोग दुखी क्यों हैं? यह पाया गया है कि किसी देश का धनी होना उसके नागरिकों के सुखी होने की गारंटी नहीं है। क्यों? क्योंकि धनी लोग अपनी तुलना अपने से और धनी से करते हैं। वे उनसे जलते-कुढ़ते हैं। पश्चिमी देशों में यह सब बहुत बड़े सामाजिक अवसाद का कारण है। १३ - इंस्टेंट नुस्खों से परहेज करें - आज हर चीज़ को क्विक-फिक्स करने की लहर चल पड़ी है। मोटापा घटाने के लिए भूख मारनेवाले कैप्सूल खाना लोग आसान समझते हैं, कम खाना और कसरत करना बहुत मुश्किल काम लगता है। मेहनत करने से कतराते हैं क्योंकि जेब में पड़ा पैसा दूसरों से मेहनत करवाना जानता है। हर बात के लिए मेहनत करने का सरल विकल्प त्याग देना और पैसे के दम पर काम निकालने में कैसी समझदारी है? १४ - आदतन खरीददारी से बचें - जिस दिन आप नया टीवी लेकर आते हैं उस दिन घर में कितना उत्साह होता है! नई कार में बैठकर शोरूम से घर आते समय दिल बल्लियों उछलता है। ये तो बड़ी महँगी चीजें हैं, लोगों को तो नए जूते का डब्बा खोलते समय भी बड़ा रोमांच लगता है। लेकिन कितने समय तक? याद रखें, सब ठाठ पड़ा रह जायेगा जब... इसीलिए कहता हूँ, वही खरीदो जो ज़रूरी हो। १५ - समय ही धन है - आपके पास जितना कम काम होता है आपको उतना ही कम व्यवस्थित होने की आवश्यकता होती है। ऐसे काम करने में ही अपनी ऊर्जा और समय लगाना चाहिए जिनके बदले में कुछ बेहतर मिले। इस प्रकार आप कम काम करने के बाद भी रचनात्मक अनुभव करेंगे। आपको कम संसाधनों की ज़रूरत होगी और आप तनाव मुक्त भी रहेंगे। यही विजय का सूत्र है। सरलीकरण और अपरिग्रहण पर ध्यान दें। ज़रूरी बातों पर ही ध्यान दें। बाकी सब काम का नहीं है। १६ - बिना खर्च किए ही कुछ देने की कोशिश करें - दोस्त का जन्मदिन आ रहा है और आप उसे तुरतफुरत कुछ सस्ता और सुंदर गिफ्ट देना चाहते हैं? उसे पत्र लिखें। सच मानें, आज के ज़माने में इससे अच्छा और सस्ता उपहार हो ही नहीं सकता। हर हफ्ते थोड़ा सा समय निकाल लें और अपने प्रियजनों को चिट्ठी लिखें। हाथ से लिखे ख़त की बात ही कुछ और है। चिठ्ठी लम्बी हो यह ज़रूरी नहीं है, महत्वपूर्ण हैं आपकी भावनाएं और आपका लिखना। यदि 191 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखना सम्भव न हो तो अपने हाथ से ग्रीटिंग कार्ड बना सकते हैं। माना कि आप कलाकार नहीं हैं लेकिन आपके हाथ का बना ग्रीटिंग कार्ड इतना बुरा तो नहीं होगा कि कोई उसे पाकर रो पड़े! १७ - लालच को अपने ऊपर हावी न होने दें - स्टीफन आर कोवी के अनुसार यदि आप ग़लत साधनों का प्रयोग करके दूसरों का आदर सम्मान और प्रशंसा प्राप्त कर भी लेते हैं तो देरसबेर आपके हाथ कुछ नहीं आता। ऐसा बहुत कुछ था जिसकी आपको परवाह करना चाहिए थी लेकिन आपने उसे नज़रंदाज़ किया। जो माता-पिता अपने बच्चों को उनका कमरा साफ़ करने के लिए कहते हुए झल्लाते रहते हैं उन्हें ही वह कमरा ख़ुद साफ़ करना पड़ता है। इससे रिश्तों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और कमरा जल्द ही पहले जैसा हो जाता है। क्या यही सब पैसे पर लागू नहीं होता? आज दुनिया में लोग इतने गंभीर आर्थिक संकट में इसीलिए फंसे पड़े हैं क्योंकि लोगों ने यह मान लिया कि साधन नहीं बल्कि साध्य महत्वपूर्ण हैं। मेरी सलाह - धनी होने की आकांक्षा रखने में कुछ गलत नहीं है, लेकिन इसके लिए उचित साधनों का ही प्रयोग करना चाहिए। 192 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिंकन की सहृदयता संयुक्त राज्य अमेरिका के महानतम राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन लोकतंत्र के मसीहा माने जाते हैं। राष्ट्रपति बनने से पहले भी वे बहुत लोकप्रिय नेता थे। वे हमेशा जनमत का आदर करते थे। साधारण से साधारण व्यक्ति के अच्छे सुझाव को मान लेने में उन्हें संकोच नहीं होता था। १८६० की बात है। ग्रेस नामक एक ११ वर्षीय बालिका ने अपने पिता के कमरे में टंगी लिंकन की तस्वीर पर दाढ़ी बना दी। पिता बहुत नाराज़ हुए लेकिन ग्रेस ने कहा कि लिंकन के चेहरे पर दाढ़ी होती तो वे ज्यादा अच्छे लगते क्योंकि वे दुबले-पतले हैं। ग्रेस ने तय किया कि वह लिंकन को दाढ़ी रखने के लिए लिखेगी। उसने लिंकन को पत्र में लिखा - "चूंकि आप दुबले-पतले हैं इसलिए यदि आप दाढ़ी रख लें तो आप ज्यादा अच्छे दिखेंगे और आपके समर्थकों कि संख्या भी बढ़ जायेगी।" लिंकन ने ग्रेस को उसके सुझाव के लिए धन्यवाद का पत्र भेजा। कुछ दिनों बाद वे जब ग्रेस के नगर सो सभी ने उनका स्वागत किया। उन्होंने ग्रेस से मिलने कि इच्छा प्रकट की। ग्रेस से मिलने पर उन्होंने बड़े प्यार से उसे गले लगा लिया और बोले - "प्यारी बिटिया, देखो मैंने तुम्हारा सुझाव मानकर दाढ़ी रख ली है।" नन्ही ग्रेस खुशी से फूली न समाई। बाद में लिंकन की दाढ़ी उनकी खास पहचान बन गई। एक नन्ही बालिका के सुझाव को भी इतना महत्त्व देनेवाले लिंकन अमेरिका के कुछ ही ऐसे राष्ट्रपतियों में गिने जाते हैं जिनका सम्मान पूरी दुनिया करती है। 193 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रॉयटर्स का प्रारम्भ समाचार पत्रों के पाठक विश्व की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी रॉयटर्स के नाम से भली भांति परिचित हैं लेकिन बहुत कम लोग यह जानते हैं कि किन कठिन परिस्थितियों में और कितने कम साधनों से इसका प्रारम्भ हुआ था। रॉयटर्स के संस्थापक पॉल जलियस रायटर का जन्म १८१६ में जर्मनी के एक यहदी परिवार में हुआ था। उन्होंने समाचार एकत्र करने का काम जर्मनी के एक्स नामक नगर में प्रारम्भ किया। वे कबूतरों द्वारा बेल्जियम के ब्रुसेल्स नगर से शेयरों के उतार-चढ़ाव के समाचार मंगवाते थे और अन्य लोगों से तीन घंटा पहले व्यापारियों को दे देते थे। इससे उन्हें जो धनराशि मिलती उससे उनका उत्साह बढ़ता गया। १८५१ में अपना कारोबार बेचकर वे लन्दन में जा बसे। उन्होंने स्टॉक एक्सचेंज भवन में एक दफ्तर ले लिया ताकि स्टॉक एक्सचेंज की खबरें यूरोप के व्यापारियों को भेज सकें। जॉन ग्रिफिथ नामक एक बातूनी लड़के को उन्होंने चपरासी के काम पर रख लिया। बहुत लंबे समय तक वे दोनों दफ्तर में खाली बैठे रहते थे। एक दिन पॉल एक सस्ते रेस्तराँ में खाना खा रहे थे कि जॉन दौड़ता हुआ आया और हांफते हुए बोला - "सर, एक सज्जन आपसे मिलने आए हैं।" पॉल ने अधीर होकर पूछा - "बहुत बढ़िया, उनका नाम क्या है?" "नहीं मालूम, विदेशी लगते हैं" - जॉन ने बताया। पॉल खुश होकर बोले - "विदेशी! भगवान् का लाख-लाख शुक्र है कि कारोबार की शुरुआत हुई।" लेकिन दूसरे ही पल वे आशंकित होकर बोले - "अरे, तुम उन्हें वहां अकेले छोड़कर यहाँ आ गए! कहीं ऐसा न हो कि वे चले जायें। तुमने उनका पता लिख लिया है न?" "सर, आप निश्चिंत रहें। वे दफ्तर से कहीं नहीं जा सकते क्योंकि मैं बाहर से ताला लगाकर आया हूँ" - जॉन बोला। इस प्रकार रॉयटर्स समाचार एजेंसी का नया कारोबार शुरू हुआ, जिसके संवाददाता आज विश्व के कोने-कोने में हैं। 194 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्ल मार्क्स की पत्नी महान दार्शनिक और राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रणेता कार्ल मार्क्स को जीवनपर्यंत घोर अभाव में जीना पड़ा। परिवार में सदैव आर्थिक संकट रहता था और चिकित्सा के अभाव में उनकी कई संतानें काल-कवलित हो गईं। मार्क्स की पत्नी जेनी मार्क्स बहुत सुंदर महिला थीं। उनके पिता जर्मनी के एक धनी परिवार से सम्बन्ध रखते थे। जेनी वास्तविक अर्थों में कार्ल मार्क्स की जीवनसंगिनी थीं और उन्होंने अपने पति के आदर्शों और युगांतरकारी प्रयासों की सफलता के लिए स्वेच्छा से गरीबी और दरिद्रता में जीना पसंद किया। जर्मनी से निर्वासित हो जाने के बाद मार्क्स लन्दन में आ बसे। लन्दन के जीवन का वर्णन जेनी ने इस प्रकार किया है - "मैंने फ्रेंकफर्ट जाकर चांदी के बर्तन गिरवी रख दिए और कोलोन में फर्नीचर बेच दिया। लन्दन के मंहगे जीवन में हमारी सारी जमापूँजी जल्द ही समाप्त हो गई। सबसे छोटा बच्चा जन्म से ही बहुत बीमार था। मैं स्वयं एक दिन छाती और पीठ के दर्द से पीड़ित होकर बैठी थी कि मकान मालकिन किराये के बकाया पाँच पौंड मांगने आ गई। उस समय हमारे पास उसे देने के लिए कुछ भी नहीं था। वह अपने साथ दो सिपाहियों को लेकर आई थी। उन्होंने हमारी चारपाई, कपड़े, बिछौने, दो छोटे बच्चों के पालने, और दोनों लड़कियों के खिलौने तक कुर्क कर लिए। सर्दी से ठिठुर रहे बच्चों को लेकर मैं कठोर फर्श पर पड़ी हुई थी। दूसरे दिन हमें घर से निकाल दिया गया। उस समय पानी बरस रहा था और बेहद ठण्ड थी। पूरे वातावरण में मनहूसियत छाई हुई थी।" और ऐसे में ही दवावाले, राशनवाले, और दधवाला अपना-अपना बिल लेकर उनके सामने खड़े हो गए। मार्क्स परिवार ने बिस्तर आदि बेचकर उनके बिल चुकाए। ऐसे कष्टों और मुसीबतों से भी जेनी की हिम्मत नहीं टूटी। वे बराबर अपने पति को ढाढस बांधती थीं कि वे धीरज न खोयें। कार्ल मार्क्स के प्रयासों की सफलता में जेनी का अकथनीय योगदान था। वे अपने पति से हमेशा यह कहा करती थीं - "दुनिया में सिर्फ हम लोग ही कष्ट नहीं झेल रहे हैं।" 195 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिम्मेदारी छः साल का एक लड़का अपने दोस्तों के साथ एक बगीचे में फूल तोड़ने के लिए घुस गया। उसके दोस्तों ने बहुत सारे फूल तोड़कर अपनी झोलियाँ भर लीं। वह लड़का सबसे छोटा और कमज़ोर होने के कारण सबसे पिछड़ गया। उसने पहला फूल तोड़ा ही था कि बगीचे का माली आ पहुँचा। दूसरे लड़के भागने में सफल हो गए लेकिन छोटा लड़का माली के हत्थे चढ़ गया। बहुत सारे फूलों के टूट जाने और दूसरे लड़कों के भाग जाने के कारण माली बहुत गुस्से में था। उसने अपना सारा क्रोध उस छः साल के बालक पर निकाला और उसे पीट दिया। नन्हे बच्चे ने माली से कहा - "आप मुझे इसलिए पीट रहे हैं क्योकि मेरे पिता नहीं यह सुनकर माली का क्रोध जाता रहा। वह बोला - "बेटे, पिता के न होने पर तो तुम्हारी जिम्मेदारी और अधिक हो जाती है।" माली की मार खाने पर तो उस बच्चे ने एक आंसू भी नहीं बहाया था लेकिन यह सुनकर बच्चा बिलखकर रो पड़ा। यह बात उसके दिल में घर कर गई और उसने इसे जीवन भर नहीं भुलाया। उसी दिन से बच्चे ने अपने ह्रदय में यह निश्चय कर लिया कि वह कभी भी ऐसा कोई काम नहीं करेगा जिससे किसी का कोई नुकसान हो। बड़ा होने पर वही बालक भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के आन्दोलन में कूद पड़ा। एक दिन उसने लालबहादुर शास्त्री के नाम से देश के प्रधानमंत्री पद को सुशोभित किया। 196 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माइकल फैराडे की कहानी क्या आप विद्युत् के बिना जीवन की कल्पना कर सकते हैं? एक घंटे के लिए बिजली गोल हो जाए तो लोग बुरी तरह से परेशान हो जाते हैं। एक दिन के लिए बिजली गोल हो जाने पर तो हाहाकार ही मच जाता है। विद्युत् व्यवस्था की खोज में कई लोगों का योगदान है लेकिन इसमें सबसे बड़ी खोज माइकल फैराडे ने की। फैराडे ने डायनेमो का आविष्कार किया जिसके सिद्धांत पर ही जेनरेटर और मोटर बनते हैं। विज्ञान के इतिहास में माइकल फैराडे और थॉमस अल्वा एडिसन ऐसे महान अविष्कारक हैं जो गरीबी और लाचारी के कारण ज़रूरी स्कूली शिक्षा भी नहीं प्राप्त कर सके। प्रस्तुत है डायनेमो की खोज से जुड़ा फैराडे का प्रेरक प्रसंग: डायनेमो या जेनरेटर के बारे में जानकारी रखनेवाले यह जानते हैं कि यह ऐसा यंत्र है जिसमें चुम्बकों के भीतर तारों की कुंडली या कुंडली के भीतर चुम्बक को घुमाने पर विद्युत् बनती है। एक बार फैराडे ने अपने सरल विद्युत् चुम्बकीय प्रेरण के प्रयोग की प्रदर्शनी लगाई। कौतूहलवश इस प्रयोग को देखने दूर-दूर से लोग आए। दर्शकों की भीड़ में एक औरत भी अपने बच्चे को गोदी में लेकर खड़ी थी। एक मेज पर फैराडे ने अपने प्रयोग का प्रदर्शन किया। तांबे के तारों की कुंडली के दोनों सिरों को एक सुई हिलानेवाले मीटर से जोड़ दिया। इसके बाद कुंडली के भीतर एक छड़ चुम्बक को तेजी से घुमाया। इस क्रिया से विद्युत् उत्पन्न हुई और मीटर की सुई हिलने लगी। यह दिखाने के बाद फैराडे ने दर्शकों को बताया कि इस प्रकार विद्युत उत्पन्न की जा सकती है। यह सुनकर वह महिला क्रोधित होकर चिल्लाने लगी - "यह भी कोई प्रयोग है!? यही दिखाने के लिए तुमने इतनी दूर-दूर से लोगों को बुलाया! इसका क्या उपयोग है?" यह सुनकर फैराडे ने विनम्रतापूर्वक कहा - "मैडम, जिस प्रकार आपका बच्चा अभी छोटा है, मेरा प्रयोग भी अभी शैशवकाल में ही है। आज आपका बच्चा कोई काम नहीं करता अर्थात उसका कोई उपयोग नहीं है, उसी प्रकार मेरा प्रयोग भी आज निरर्थक लगता है। लेकिन मुझे विश्वास है कि मेरा प्रयोग एक-न-एक दिन बड़ा होकर बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध होगा।" यह सुनकर वह महिला चुप हो गई। फैराडे अपने जीवनकाल में विद्युत् व्यवस्था को पूरी तरह विकसित होते नहीं देख सके लेकिन अन्य वैज्ञानिकों ने इस दिशा में सुधार व् खोज करते-करते उनके प्रयोग की सार्थकता सिद्ध कर दी। 197 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आइन्स्टीन के बहुत सारे प्रसंग और संस्मरण अलबर्ट आइन्स्टीन ने तीन साल का होने से पहले बोलना और सात साल का होने से पहले पढ़ना शुरू नहीं किया। वे हमेशा लथड़ते हुए स्कूल जाते थे। अपने घर का पता याद रखने में उन्हें दिक्कत होती थी। उन्होंने देखा कि प्रकाश तरंगों और कणिकाओं दोनों के रूप में चलता है जिसे क्वानटा कहते हैं क्योंकि उनके अनुसार ऐसा ही होता है। उन्होंने उस समय प्रचलित ईथर सम्बंधित सशक्त अवधारणा को हवा में उड़ा दिया। बाद में उन्होंने यह भी बताया कि प्रकाश में भी द्रव्यमान होता है और स्पेस और टाइम भिन्न-भिन्न नहीं हैं बल्कि स्पेस-टाइम हैं, और ब्रम्हांड घोड़े की जीन की तरह हो सकता है। अमेरिका चले जाने के बाद आइंस्टाइन की एक-एक गतिविधि का रिकार्ड है। उनकी सनकें प्रसिद्द हैं - जैसे मोजे नहीं पहनना आदि। इन सबसे आइंस्टाइन के इर्द-गिर्द ऐसा प्रभामंडल बन गया जो किसी और भौतिकविद को नसीब नहीं हुआ। आइन्स्टीन बहुत अब्सेंट माइंड रहते थे। इसके परिणाम सदैव रोचक नहीं थे। उनकी पहली पत्नी भौतिकविद मिलेवा मैरिक के प्रति वे कुछ कठोर भी थे और अपनी दूसरी पत्नी एल्सा और अपने पुत्र से उनका दूर-के-जैसा सम्बन्ध था। * * * * * आइन्स्टीन को एक १५ वर्षीय लड़की ने अपने होमवर्क में कुछ मदद करने के लिए चिट्ठी लिखी। आइन्स्टीन ने उसे पढ़ाई से सम्बंधित कुछ चित्र बनाकर भेजे और जवाब में लिखा - "अपनी पढ़ाई में गणित की कठिनाइयों से चिंतित मत हो, मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि मेरी कठिनाइयाँ कहीं बड़ी हैं"। * * * * * सोर्बोन में १९३० में आइन्स्टीन ने एक बार कहा - "यदि मेरे सापेक्षता के सिद्धांत की पुष्टि हो जाती है तो जर्मनी मुझे आदर्श जर्मन कहेगा, और फ्रांस मुझे विश्व-नागरिक का सम्मान देगा। लेकिन यदि मेरा सिद्धांत ग़लत साबित होगा तो फ्रांस मुझे जर्मन कहेगा और जर्मनी मुझे यहूदी कहेगा"। * * * * * किसी समारोह में एक महिला ने आइंस्टीन से सापेक्षता का सिद्धांत समझाने का अनुरोध किया। आइन्स्टीन ने कहा: 198 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मैडम, एक बार मैं देहात में अपने अंधे मित्र के साथ घूम रहा था और मैंने उससे कहा कि मुझे दूध पीने की इच्छा हो रही है"। "दूध?" - मेरे मित्र ने कहा - "पीना तो मैं समझता हूँ लेकिन दूध क्या होता है?" "दूध एक सफ़ेद द्रव होता है" - मैंने जवाब दिया। "द्रव तो मैं जानता हूँ लेकिन सफ़ेद क्या होता है?" "सफ़ेद - जैसे हंस के पंख"| "पंख तो मैं महसूस कर सकता हूँ लेकिन ये हंस क्या होता है?" "एक पक्षी जिसकी गरदन मुडी सी होती है"। "गरदन तो मैं जानता हूँ लेकिन यह मुडी सी क्या है?" "अब मेरा धैर्य जवाब देने लगा। मैंने उसकी बांह पकड़ी और सीधी तानकर कहा - "यह सीधी है!" - फ़िर मैंने उसे मोड़ दिया और कहा - "यह मुडी हुई है"। "ओह!" - अंधे मित्र ने कहा - "अब मैं समझ गया दूध क्या होता है"। * * * * * जब आइन्स्टीन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे तब एक दिन एक छात्र उनके पास आया। वह बोला - "इस साल की परीक्षा में वही प्रश्न आए हैं जो पिछले साल की परीक्षा में आए थे"। "हाँ" - आइन्स्टीन ने कहा - "लेकिन इस साल उत्तर बदल गए हैं"। * * * * * एक बार किसी ने आइन्स्टीन की पत्नी से पूछा - "क्या आप अपने पति का सापेक्षता का सिद्धांत समझ सकती हैं?" "नहीं" - उन्होंने बहुत आदरपूर्वक उत्तर दिया - "लेकिन मैं अपने पति को समझती हूँ और उनपर यकीन किया जा सकता है।" * * * * * 199 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३१ में चार्ली चैपलिन ने आइन्स्टीन को हौलीवुड में आमंत्रित किया जहाँ चैपलिन अपनी फ़िल्म 'सिटी लाइट्स' की शूटिंग कर रहे थे। वे दोनों जब अपनी खुली कार में बाहर घूमने निकले तो सड़क पर आनेजाने वालों ने हाथ हिलाकर दोनों का अभिवादन किया। चैपलिन ने आइन्स्टीन से कहा - "ये सभी आपका अभिवादन इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इनमें से कोई भी आपको नहीं समझ सकता; और मेरा अभिवादन इसलिए कर रहे हैं क्योंकि मुझे सभी समझ सकते हैं"। * * * * * बर्लिन में सर विलियम रोथेन्स्तीन को आइन्स्टीन का एक पोर्टेट बनाने के लिए कहा गया। आइन्स्टीन उनके स्टूडियो में एक वयोवृद्ध सज्जन के साथ आते थे जो एक कोने में बैठकर चुपचाप कुछ लिखता रहता था। आइन्स्टीन वहां भी समय की बर्बादी नहीं करते थे और परिकल्पनाओं और सिद्धांतों पर कुछ न कुछ कहते रहते थे जिसका समर्थन या विरोध वे सज्जन अपना सर हिलाकर कर दिया करते थे। जब उनका काम ख़त्म हो गया तब रोथेन्स्तीन ने आइन्स्टीन से उन सज्जन के बारे में पूछा: "वे बहुत बड़े गणितज्ञ हैं" - आइन्स्टीन ने कहा - "मैं अपनी संकल्पनाओं की वैधता को गणितीय आधार पर परखने के लिए उनकी सहायता लेता हूँ क्योंकि मैं गणित में कमज़ोर * * * * * १९१५ में आइन्स्टीन के सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत के प्रकाशन के बाद रूसी गणितज्ञ अलेक्सेंडर फ्रीडमैन को यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि आइन्स्टीन अपने सूत्रों के आधार पर यह देखने से चूक गए थे कि ब्रम्हांड फ़ैल रहा था। ब्रम्हांड के फैलने का पता एडविन हबल ने १९२० में लगाया था। आइन्स्टीन से इतनी बड़ी गलती कैसे हो गई? असल में उन्होंने अपने सूत्रों में एक बहुत बेवकूफी भरी गलती कर दी थी। उन्होंने इसे शून्य से गुणा कर दिया था। प्राचीन काल से ही गणित के साधारण छात्र भी यह जानते हैं कि किसी भी संख्या को शून्य से गुणा कर देना गणित की दृष्टि से बहुत बड़ा पाप है। * * * * * 200 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आइन्स्टीन ने एक बार कहा - "बचपन में मेरे पैर के अंगूठे से मेरे मोजों में छेद हो जाते थे इसलिए मैंने मोजे पहनना बंद कर दिया"। * * * * * आइन्स्टीन के एक सहकर्मी ने उनसे उनका टेलीफोन नंबर पूछा। आइन्स्टीन पास रखी टेलीफोन डायरेक्टरी में अपना नंबर ढूँढने लगे। सहकर्मी चकित होकर बोला - "आपको अपना खुद का टेलीफोन नंबर भी याद नहीं है?" ___ "नहीं" - आइन्स्टीन बोले - "किसी ऐसी चीज़ को मैं भला क्यों याद रखू जो मुझे किताब में ढूँढने से मिल जाती है"। आइन्स्टीन कहा करते थे कि वे कोई भी ऐसी चीज़ याद नहीं रखते जिसे दो मिनट में ही ढूँढा जा सकता हो। 201 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह है जीनियस थॉमस अल्वा एडिसन (1847-1931) महानतम अमेरिकी आविष्कारक हैं। किशोरावस्था में एक दुर्घटना का शिकार होने के कारण वे अपनी श्रवण शक्ति लगभग खो चुके थे - लेकिन उन्होंने फोनोग्राम का आविष्कार किया - जिसे हम रिकार्ड प्लेयर के नाम से बेहतर जानते हैं। ऑडियो कैसेट कुछ सालों तक चले, सीडी और डीवीडी भी ज्यादा समय नहीं चलेंगे, उनसे भी बेहतर चीजें आएँगी, लेकिन रिकार्ड प्लेयर सौ सालों से भी ज्यादा समय तक हमें संगीत सुनाता रहा। और बिजली का बल्ब? क्या आप सोच सकते हैं कि मामूली सा प्रतीत होने वाले बल्ब की खोज ने एडिसन को कितना तपाया!? उसके जलनेवाले फिलामेंट के लिए उपयुक्त पदार्थ की खोज में एडिसन ने हज़ार से भी ज्यादा वस्तुओं पर प्रयोग कर डाले - घास के तिनके से लेकर सूअर के बाल तक पर। किसी ने एडिसन से कहा - "हज़ार चीज़ों का प्रयोग करने के बाद भी आप अच्छा फिलामेंट नहीं बना पाये।" एडिसन ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया - "ऐसा नहीं है, मुझे ऐसी हज़ार चीज़ों के बारे में पता है जो फिलामेंट बनाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं"। और याद आया, सिनेमा कैमरे का आविष्कार भी एडिसन ने ही किया था। जब लोगों ने पहली बार सिनेमाघर में रेलगाड़ी को परदे पर आते देखा तो वे जान बचाने के लिए भाग खड़े हुए। एडिसन ने अपने अविष्कारों के लिए एक हज़ार से भी ज्यादा पेटेंट प्राप्त किए। उनकी मृत्यु से कुछ समय पहले एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि कौन सी बात किसी व्यक्ति को जीनियस बनाती है। एडिसन ने कहा - "Genius is one percent inspiration - and ninety-nine percent perspiration." (कोई भी व्यक्ति १% प्रेरणा और ९९% परिश्रम से जीनियस बनता है)। यह विश्व में सबसे प्रसिद्द उक्तियों में से एक है। एडिसन ने अपनी प्रयोगशाला में प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के एक स्नातक को काम पर रखा। उसका नाम उप्टन था। उप्टन ने जर्मनी में महान वैज्ञानिक हेल्म्होल्त्ज़ के साथ भी काम किया था। एक दिन एडिसन ने उप्टन से कहा कि वह पता लगाये कि कांच के एक बल्ब के भीतर कितनी जगह है। उप्टन अपने औजार ले आया और उनकी मदद से नाप लेकर वह एक ग्राफ पेपर पर चार्ट बनाकर बड़ी कुशलतापूर्वक बल्ब के भीतर की जगह की गणना करने लगा। कुछ देर यह सब देखने पर एडिसन ने उप्टन से कुछ पूछना चाहा लेकिन उप्टन ज़ोर से बोला - "मुझे थोड़ा समय और लगेगा" - और उसने एडिसन को अपना चार्ट दिखाया। एडिसन उसके पास आए और बोले - "मैं तुम्हें दिखाता हूँ कि मैं यह कैसे करता हूँ" 202 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यह कहकर उन्होंने बल्ब में पानी भरकर उप्टन से कहा - "इस पानी को नाप लेने पर तुम्हें उत्तर मिल जाएगा"। 203 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभागा वृक्ष एक बहुत बड़ा यात्री जहाज समुद्र में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। दो व्यक्ति किसी तरह अपनी जान बचा पाए और तैरते हुए एक द्वीप पर आ लगे विराट महासागर के बीच स्थित उस छोटे से द्वीप पर एक महाकाय वृक्ष के सिवाय कुछ भी नहीं था, न कोई प्राणी, न कोई पाँधे वृक्ष पर स्वादिष्ट रसीले फल । लगते थे। उसकी घनी छाँव के नीचे पत्तियों का नरम बिछौना सा बन जाता था। वह वृक्ष उन्हें धूप और बारिश से बचाता था। उसकी छाल और पत्तियों का प्रयोग करके उन दोनों ने अपने तन को ढकने लायक आवरण बना लिए थे। समय धीरे-धीरे गुजरता गया । वे दोनों व्यक्ति उस द्वीप में स्वयं के अलावा अपने आश्रयदाता वृक्ष को ही देखते थे। दोनों उस वृक्ष में बुराइयां ढूँढने लगे। "इस द्वीप पर यही मनहूस पेड़ है" - दोनों दिन में कई बार एक दूसरे से यह कहते। "सच है, यहाँ इस वाहियात पेड़ के सिवाय और कुछ नहीं है"। उन दोनों को पता नहीं था, लेकिन जब भी वह वृक्ष उनकी ये बातें सुनता था, वह भीतर ही भीतर कांप जाता था। धीरे-धीरे वह दयालु वृक्ष अपनी सारी शक्ति खोता गया। उसकी पत्तियां पीली पड़कर मुरझा गईं। उसने शीतल छाया देना बंद कर दिया। उसमें फल लगने बंद हो गए। वृक्ष शीघ्र ही निष्प्राण हो गया। 204 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममता - नॉर्वे की महान लेखिका सिग्रिड अनसेट ( Sigrid Undset ) को १९२८ में साहित्य का नोबल पुरस्कार देने की घोषणा की गई। उन दिनों आज की तरह संचार माध्यम नहीं थे ख़बरों को दुनिया भर में फैलने में कुछ समय लग जाता था। उन्हें पुरस्कार मिलने की ख़बर नॉर्वे में रात को पहुँची और कुछ पत्रकार उसी समय उनसे मिलने के लिए उनके घर जा पहुंचे। सिग्रिड घर से बाहर आकर पत्रकारों से बोलीं "इस समय आपके यहाँ आने का कारण मैं समझ सकती हूँ। शाम को ही मुझे टेलीग्राम से नोबल पुरस्कार मिलने की सूचना मिल गई थी। मैं माफी चाहती हूँ, लेकिन इस समय मैं आप लोगों से कोई बात नहीं कर सकती।" - "क्यों?" आश्चर्यचकित पत्रकारों ने पूछा। "यह समय मेरे बच्चों के सोने का है। इस समय मैं उनके साथ रहती हूँ पुरस्कार तो मुझे मिल ही गया है और इस बारे में बातें कल भी हो सकती हैं। यह समय मेरे बच्चों के लिए आरक्षित है और उनके साथ होने में मुझे वास्तविक खुशी मिलती है।" सिग्रिड ने कहा। 205 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाकार की करुणा महान फ्रांसीसी मूर्तिकार ऑगस्त रोदाँ (August Rodin) को एक सरकारी इमारत का प्रवेश द्वार सुसज्जित करने के लिए कहा गया। उस द्वार पर और उसके इर्दगिर्द मूर्तियाँ लगाई जानी थीं। ज्यों-ज्यों रोदाँ काम करते गए, दरवाजे का आकार भी बढ़ता गया। छोटी-बड़ी मूर्तियों की संख्या १५० से भी ज्यादा हो गई। सरकार उस द्वार पर अधिक धन खर्च नहीं करना चाहती थी। लेकिन रोदाँ पर सर्वश्रेष्ठ काम करने का जुनून सवार था। वे ऐसा द्वार बनाने में जुटे थे जो अद्वितीय हो। वे बीस साल तक काम करते रहे लेकिन द्वार फ़िर भी अधूरा था। इस बीच निर्माण की लागत कई गुना बढ़ गई। फ्रांस की सरकार ने रोदाँ पर मुकदमा किया कि वे द्वार को शीघ्र पूरा करें अन्यथा पैसे लौटा दें। रोदाँ ने पूरे पैसे लौटा दिए और पूर्ववत काम करते रहे। इस बीच उस द्वार की ख्याति देश-विदेश में फ़ैल चुकी थी। दूर-दूर से लोग उस द्वार को देखने के लिए आने लगे। इंग्लैंड के तत्कालीन सम्राट एडवर्ड सप्तम भी उसे देखने के लिए आए। दरवाजे के सामने लगी चिन्तक (The Thinker) की मूर्ति को देखकर वे मुग्ध हो गए। यह विश्व की सबसे प्रसिद्द और श्रेष्ठ मूर्तियों में गिनी जाती है। सम्राट की इच्छा हुई कि वे मूर्ति को करीब से देखें। उन्होंने एक सीढ़ी मंगवाने के लिए कहा। वे सीढ़ी पर चढ़ने वाले ही थे कि रोदाँ ने उन्हें रोक दिया क्योंकि वहां एक चिड़िया ने घोंसला बना रखा था। रोदाँ नहीं चाहते थे कि चिड़िया के नन्हे बच्चे किसी भी वजह से परेशान हो जायें। 206 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्याय के आगे न झुकना लोकमान्य बालगंगाधर तिलक बचपन से ही सच्चाई पर अडिग रहते थे। वे स्वयं कठोर अनुशासन का पालन करते थे परन्तु कभी भी किसी की चुगली नहीं करते थे। एक दिन उनकी कक्षा के कुछ छात्रों ने मूंगफली खा कर छिलके फर्श पर बिखेर दिए। उन दिनों अध्यापक बेहद कठोर हुआ करते थे। अध्यापक ने पूछा तो किसी भी छात्र ने अपनी गलती नहीं स्वीकारी। इसपर अध्यापक ने सारी कक्षा को दण्डित करने का निश्चय किया। उन्होंने प्रत्येक लड़के से कहा - "हाथ आगे बढाओ" - और हथेली पर तडातड बेंत जड़ दीं। जब तिलक की बारी आई तो उन्होंने अपना हाथ आगे नहीं बढ़ाया। तिलक ने अपने हाथ बगल में दबा लिए और बोले - "मैंने मूंगफली नहीं खाई है इसलिए बेंत भी नहीं खाऊँगा।" अध्यापक ने कहा - "तो तुम सच-सच बताओ कि मूंगफली किसने खाई है?" "मैं किसी का नाम नहीं बताऊँगा और बेंत भी नहीं खाऊँगा" - तिलक ने कहा। तिलक के इस उत्तर के फलस्वरूप उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया लेकिन उन्होंने बिना किसी अपराध के दंड पाना स्वीकार नहीं किया। तिलक आजीवन अन्याय का विरोध डट के करते रहे। इसके लिए उन्हें तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़े और जेल भी जाना पड़ा लेकिन उन्होंने अन्याय के आगे कभी सर नहीं झुकाया। 207 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेफरसन की सादगी अमेरिकी डालर के अलग-अलग डिनोमिनेशन के नोटों पर किन-किन के चित्र छपे होते है? मेरी जानकारी में वे महानुभाव हैं जॉर्ज वाशिंगटन, अब्राहम लिंकन, बेंजामिन फ्रैंकलिन, और थॉमस जेफरसन। यदि किसी को कोई और महाशय का नाम याद आता हो तो वो बताये। खैर, यह प्रसंग थॉमस जेफरसन के बारे में है जो अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थे। बात बहुत पुरानी है। जेफरसन सन १८०० के आसपास अमेरिका के राष्ट्रपति थे। उन दिनों तक फोटोग्राफी का आविष्कार नहीं हुआ था। अख़बार वगैरह भी न के बराबर छपते थे। अमेरिका की राजधानी की शक्ल आज के किसी गाँव से बेहतर नहीं रही होगी। लोग अपने राष्ट्रपति को नहीं पहचानते थे। जेफरसन मूलतः एक किसान थे। वे कृषकों और मजदूरों के प्रबल समर्थक थे। अमेरिका ने उन जैसा सादगीपूर्ण राष्ट्रपति कोई और न देखा होगा। राष्ट्रपति बनने के बाद भी उनका जीवन अत्यन्त सादा था। एक बार वे किसी अन्य नगर में बड़े से होटल में गए और ठहरने के लिए कमरा माँगा। होटल मालिक ने उन्हें ऊपर से नीचे तक देखा और कमरा देने से इंकार कर दिया। जेफरसन चुपचाप वहां से चल दिए । होटल में मौजूद किसी दूसरे व्यक्ति ने उन्हें पहचान लिया और उसने होटल मालिक को बताया कि उसने अमेरिका के राष्ट्रपति को कमरा देने से मना कर दिया है ! होटल का मालिक अपने नौकरों के साथ भागा-भागा उनकी तलाश में गया । जेफरसन अभी थोड़ी दूर ही गए थे। मालिक ने उनसे अपने बर्ताव के लिए माफ़ी मांगी और होटल में चलने के लिए कहा। जेफरसन ने उससे कहा- "यदि तुम्हारे होटल में एक साधारण आदमी के लिए जगह नहीं है तो अमेरिका का राष्ट्रपति वहां कैसे ठहर सकता है! ?" यह कहकर वे किसी और होटल में ठहरने के लिए चले गए। 208 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा परिचय (मैं एक जनवरी, 2008 में) मैं निशांत मिश्र हूँ. मेरा जन्म भोपाल में 1975 में हुआ था और शिक्षा-दीक्षा भी वहीं हुई. वर्ष 2003 से मैं नई दिल्ली में भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवादक के पद पर कार्य कर रहा हूँ. हिंदी और अंग्रेजी के अलावा मैं फ्रेंच तथा उर्दू भी कामचलाऊ पढ़-लिख-बोल सकता हूँ. मेरी पसंद की चीज़ों के बारे में आपको मेरे ब्लॉगर प्रोफाइल पर जानकारी मिल सकती है जो मेरे ब्लॉग पर मिलेगा. आप मुझे फ़ेसबुक और ऑरकुट पर भी ढूंढकर मिल सकते हैं. आप मुझे the.mishnish@gmail.com पर ई-मेल भेज सकते हैं. इस ई-बुक के बारे में आपके सुझावों का स्वागत है. मैं आशा करता हूँ कि इस ई-बुक से आपको अपने जीवन में प्रेरणा और उत्साह पाने के सूत्र मिले होंगे. "सबका मंगल हो" 209