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किताबी ज्ञान
सैंकडों साल पहले अरब में इमाम गजाली नमक एक बड़े विद्वान् और धार्मिक गुरु हुए। युवावस्था में वे एक बार दूसरे शहर की यात्रा पर निकले थे. उस ज़माने में यात्रा का कोई साधन नहीं था और डाकुओं का हमेशा भय बना रहता था.
एक दिन गजाली जंगल में सुस्ताते हुए कुछ पढ़ रहे थे। उसी समय डाकुओं ने वहां धावा बोल दिया. डाकुओं ने गजाली से कहा - "तुम्हारे पास जो कुछ भी है वो हमारे हवाले कर दो, वर्ना जान से हाथ धोना पड़ेगा."
गजाली ने कहा - "मेरे पास सिर्फ कपडे और किताबें हैं"|
डाकुओं ने कहा - "हमें कपड़े नहीं चाहिए। किताबें हम बेच देंगे". इस प्रकार डाकू गजाली का किताबों का बस्ता अपने साथ ले चले.
गजाली को अपनी किताबें छीन जाने का बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने सोचा - "कभी कोई बात किताब में देखने की ज़रुरत पड़ी तो मैं क्या करूँगा?"
वे दौड़कर डाकुओं के पास पहुंचे और उनसे गिड़गिडाकर बोले - "ये किताबें मेरे बड़े काम की हैं। इनको बेचकर आपको बहुत कम पैसा मिलेगा लेकिन मेरा बहुत बड़ा नुकसान हो जायेगा. इन किताबों में बहुत ज्ञान समाया है. ज़रुरत पड़ने पर मैं किताब कैसे देखूगा? दया करके मुझे मेरी किताबें लौटा दीजिये!"
डाकुओं का सरदार यह सुनकर जोरों से हंस पड़ा और किताबों का बस्ता जमीन पर फेंकते हुए बोला - "ऐसा ज्ञान किस काम का कि किताबें छिन जाएँ तो कुछ भी याद न रहे! उठाले अपना बस्ता, बड़ा ज्ञानी बना फिरता है।"
गजाली पर डाकू की बात का बड़ा भारी प्रभाव पड़ा - वह ज्ञान कैसा जो किताबों के बिना शून्य हो!
इस घटना के बाद गजाली ने हर किताब में निहित ज्ञान को अपने मन-मष्तिष्क और ह्रदय में संजो लिया. कालांतर में वे बहुत बड़े इमाम और धर्मगुरु बने.
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