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योगसार प्रवचन (भाग-२)
अन्वयार्थ - ( बुह ) हे पण्डित ! ( लोहम्मिय णियड तह सुण्णम्मिय जाणि ) जैसे लोहे की बेड़ी है वैसे ही सुवर्ण की बेड़ी है ऐसा समझ (जे सुह असुह परिच्चयहि ) शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के भावों का त्याग करते हैं (ते वि हु णाणि हवंति ) वे ही निश्चय से ज्ञानी हैं ।
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अब, पुण्य कर्म सोने की बेड़ी है । ७२, पुण्यभाव सोने की बेड़ी है। स्वर्ण है.... स्वर्ण । पाप लोहे की बेड़ी है, पुण्य सोने की बेड़ी है; दोनों बेड़ी है। सोने की बेड़ी में तो अन्दर फँसे रहते हैं, लोहे की बेड़ी तो कैद में हो तो वहाँ तक रहती है। यह तो हमेशा उत्साह से ऐसी की ऐसी रखते हैं। गहने और पैर में बँधी बेड़ी है या क्या ? है ? उत्साह से पहनते हैं, उत्साह से दिखाते हैं, देखो ! पाँच हजार का हार है, सोने का हार है, कण्ठी है, कड़े में यहाँ सोने का मुँह है, सिंह के मुँह में हीरे टाँगे हैं, हीरे लगाये हैं, यह तो बेड़ी पहनकर प्रसन्न होता है। लोहे की बेड़ी पहने तो यह नहीं, यह नहीं । यह तो कहते हैं, पुण्य सोने की बेड़ी है, वह नहीं मानता। बेड़ी में - पुण्य के बन्धन में आ जाता है। आत्मा तो भगवान पुण्य-पाप रहित है, इसकी उसे खबर नहीं है ।
जह लोहम्मिय णिड बुह तह सुण्णम्मिय जाणि । जे सुह असुह परिच्चयहि ते वि हवंति हु णाणि ॥ ७२ ॥
हे पण्डित!‘बुह' आचार्य महाराज योगीन्दुदेव वनवासी दिगम्बर सन्त हैं । वनवासी दिगम्बर सन्त कहते हैं, हे पण्डित जीव ! हे जीव पण्डित ! ऐसा कहकर बुलाया है । पण्डित तो उसे कहते हैं कि..... समझ में आया ... ! जैसे लोहे की बेड़ी है, वैसी ही सोने की बेड़ी है, ऐसा... समझ, तो तू पण्डित है, विवेकी है, तब तू जीव है। समझ में आया । पाप का भाव लोहे की बेड़ी है, पुण्य का भाव सोने की बेड़ी है; दोनों का बन्धन है, वे जीव -स्वरूप नहीं हैं । जीव-स्वरूप को माननेवाले धर्मी को कहते हैं कि, हे धर्मी ! हे पण्डित ! हे जीवस्वरूपी आत्मा! तुझे तो पुण्यभाव और पापभाव दोनों बन्धन में समान हैं। समझ में आया ?
शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के भावों का त्याग करते हैं.... पहले ऐसा कहा