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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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निर्ग्रन्थ पद ही साधु पद है। संयम का साधन साधु ही कर सकता है क्योंकि वही आरम्भ परिग्रह को त्यागकर अहिंसादि पाँच महाव्रतों का यथार्थ पालन कर सकता है। ठीक (लिखा है)। मूल तो यहाँ मन में निर्ग्रन्थ है, वह त्यागी है। ऐसा वास्तव में कहना है । वह सम्यग्दृष्टि भी मन का राग का त्यागी है। समकित अपेक्षा से वह भी निर्ग्रन्थ है, समझ में आया? धर्मी जीव अनुभव में अपने वीतराग स्वभाव की रुचि रखता है, उसकी राग के प्रति प्रीति है ही नहीं, वह निर्ग्रन्थ हुआ। भगवान आत्मा राग रहित स्वभाव, उसकी जिसे अनुभव में प्रीति, अनुभव में परिणति जम गयी (तो वह) भाव निर्ग्रन्थ है। समझ में आया?
जहाँ तक वस्त्र का ग्रहण है तब तक परिग्रह का पूर्ण त्याग नहीं है। विशेष सिद्ध करते हैं । अन्तरङ्ग में मन को ग्रन्थरहित करना चाहिए। लो, अन्तरङ्ग में मन को ग्रन्थरहित करना चाहिए। दया, दान का विकल्प जो उत्पन्न होता है, वह भी राग की गाँठ है। वह ग्रन्थ है, भगवान निर्ग्रन्थ आत्मा है। आता है न 'णिगंथो' 'नियमसार में' 'शुद्धभाव
अधिकार में नहीं आता? 'णिदंडो णिबंदो णिम्मामो' वह आत्मा की बात की है, आत्मा निर्ग्रन्थ है । त्रिकाल निर्ग्रन्थ ही है। पुण्य-पाप के विकल्प से रहित निर्ग्रन्थ भगवान आत्मा है। आहा...हा...! समझ में आया? ऐसा अपना परमात्मस्वरूप... अ... हो...! जिसकी महिमा में अपनी अल्प पर्याय के विकास की भी महिमा नहीं रहती तो उसमें पुण्य परिणाम और पाप परिणाम की महिमा कहाँ आ सकती है, समझ में आया? ___ज्ञान में, अपना पूर्ण पवित्र परमात्मा का स्वयं का निज शुद्ध स्वभाव जहाँ ज्ञान में जम गया (तो वह) निर्ग्रन्थ आत्मा है। वस्तु निर्ग्रन्थ है तो उसकी दृष्टि करनेवाला भी, भाव से निर्ग्रन्थ है । आहा...हा...! समझ में आया? बाहर में नग्नादि हो परन्तु अन्तर में निर्ग्रन्थ भाव न हो तो एक भी भव घटने का लाभ नहीं है। लो, समझ में आया? आहा...हा...!
अन्तरङ्ग परिग्रह का त्याग होना चाहिए। उसके नाम दिये हैं, ठीक है। कहते हैं मन में से सर्व ममता का, राग-द्वेष का मैल निकाल देना चाहिए। परम वीतराग समदर्शी सर्व प्राणीमात्र पर करुणाभाव, परम सन्तोषी, आत्मरस के पिपासु और विषयरस में विरक्त होना ही भाव निर्ग्रन्थ पद है। समझ में आया? फिर कहते हैं,