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योगसार प्रवचन (भाग-२) ही सेवन करूँ... क्या कहते हैं ? देखो ! आत्मा तो त्रिकाल वीतरागस्वरूप ही है, उसमें एकाग्र होकर मैं वीतरागभाव की सेवा करूँ, पुण्य-पाप की सेवा न करूँ। पुण्य-पाप होते हैं (परन्तु वे) सेवा करने योग्य, रखने योग्य, हित करने के योग्य नहीं है। सिद्ध भगवन्तों से ही प्रेम करूँ। देखो, भाषा! अपने सिद्धस्वरूप में ही प्रेम करूँ। अपना सिद्ध समान (पद) है। 'सिद्ध समान सदा पद मेरौ' आत्मा का सिद्धस्वरूप, शुद्ध द्रव्यस्वभाव, त्रिकाल शुद्ध है। उसमें प्रेम करूँ और पुण्य-पाप में प्रेम नहीं करूँ - ऐसी दृष्टि होती है।
(आत्मा का पुरुषार्थ अल्प होने से) कषाय का उदय सहन नहीं कर सकता। क्या कहते हैं ? कषाय का उदय आता है तो अपने पुरुषार्थ की मन्दता से शुभाशुभभाव होते हैं, शुभ-अशुभभाव होते हैं परन्तु वह आत्मवीर्य की कमी से होते हैं। गृहस्थयोग्य सभी कार्य करता है परन्तु उसमें आसक्त या मग्न नहीं होता। पूजा -पाठ परोपकार दानादि कार्य करके वह पुण्य का बन्ध और सांसारिक इन्द्रियसुख को नहीं चाहता है।..अज्ञानी तो पण्य करके इन्द्रियों का सख चाहता है। पण्य का फल मिले, स्वर्ग मिले यह पैसा धूल मिले। धर्मी की दृष्टि अपने शुद्ध आनन्दस्वरूप पर है; पुण्य होने पर भी पुण्य का बन्ध और पुण्य के फल की चाहना नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया?
वह तो कर्मरहित दशा का ही उत्साही और उद्यमी रहता है। यद्यपि शुभभावों का फल पुण्य का बन्ध है।शुभभाव होते हैं - दया, दान, भक्ति, व्रत, पूजा, यात्रा आदि के शुभभाव का फल पुण्य-बन्ध है। तथापि ज्ञानी उसे भी पाप के समान बन्ध ही जानता है। लो! अपना शुद्धस्वरूप... जिससे बन्धन में आ जाये – ऐसे भाव को हितरूप कस माने, भगवान आत्मा शुद्ध आनन्दस्वरूप में भण्डार भरे हैं। उसकी शद्धता एकाकार प्रगट करके उसे हितरूप माने। पुण्य-पाप के भाव को हितरूप क्यों माने? दु:खदायक को, बन्ध के कारण को हितकर क्यों माने? समझ में आया?
धर्मी निर्वाण के पथिक हैं.. ओहो...! ज्ञानी, आत्मा के शुद्धस्वरूप के दृष्टिवन्त, रुचिवन्त तो मुक्ति के पथिक है, बन्ध के-संसार के पथिक नहीं है। संसार का पन्थ लेनेवाले नहीं हैं। अपने शुद्धस्वरूप की दृष्टि के कारण वे तो मोक्ष के पथिक हैं, स्वरूप