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गाथा-७१
में एकाग्र होकर बन्ध से छूटने के पथिक हैं, बन्धन करने के पथिक नहीं हैं। समझ में आया? मात्र निश्चयरत्नत्रय स्वभावमय धर्म को अथवा स्वानुभव को ही उपादेय ग्रहण योग्य मानते हैं। लो! पुण्य को भी पाप समान ही जानकर वे छोड़ना चाहते हैं। शुभभाव आता है परन्तु जैसे पाप छोड़ने योग्य है, वैसे धर्मी पुण्य को भी छोड़ने योग्य मानते हैं । जगत् को बहुत कठिन पड़ता है। धर्म करना परन्तु धर्म कैसे हो? उसका भी पता नहीं है।
मुमुक्षु : तीसरा था ही कहाँ, दो ही वर्ग थे?
उत्तर : दो ही वर्ग थे पाप और धर्म; पुण्य; तीसरा था ही कब? पुण्य वह धर्म; पाप वह अधर्म, बस!
समयसार का दृष्टान्त दिया है। मोक्षार्थी को सर्व ही कर्म त्यागना चाहिए। जिसे आत्मा का पवित्रधर्म प्रगट करना है और जिसे पूर्णानन्द मोक्ष की भावना है, उसे तो सर्व पुण्य-पापभाव छोड़ने योग्य है। सर्व ही कर्म का त्याग आवश्यक है, तब वहाँ पुण्य-पाप की क्या कथा है ? ऐसे ज्ञानी में सम्यग्दर्शन आदि अपने स्वभावसहित और कर्मरहित भाव में तन्मयरूप शान्तरस से पूर्ण मोक्ष का कारण – ऐसा आत्मज्ञान स्वयं विराजता है। धर्मी की दृष्टि में तो आत्मा का ज्ञान है। आत्मा का ज्ञान, स्वरूप का ज्ञान (है)। राग, पुण्य-पाप, वह कहीं आत्मा का ज्ञान नहीं है । इकहत्तर में (यह कहा है)। ज्ञानी पुण्य को भी पाप मानते हैं। कहो, समझ में आया? यहाँ तो अभी पुण्य का भी ठिकाना न हो और माने... ओ...हो...! बहुत धर्म किया!
पुण्य कर्म सोने की बेड़ी है जह लोहम्मिय णियड बुह तह सुण्णम्मिय जाणि। जे सुह असुह परिच्चयहि ते वि हवंति हु णाणि॥७२॥
लोह बेड़ी बन्धन करे, यही स्वर्ण का धर्म। जानि शुभाशुभ दूर कर, यह ज्ञानी का मर्म॥